एक सामूहिक कर्म जैसी लाक्षणिकताओं से लैस रचना-प्रक्रिया अर्थात् नीत्शे अभी मरा नहीं है

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    अक्टूबर-2017
श्रेणी कविताएं एवं मूल्यांकन
संस्करण अक्टूबर-2017
लेखक का नाम शंभु गुप्त





मूल्यांकन/विमलचंद्र पाण्डेय

 

 

युवा कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय (1981) के तीन कहानी-संग्रह अब तक आ चुके हैं - 'डर' (ज्ञानपीठ 2009), 'मस्तूलों के इर्दगिर्द' (आधार 2013) और 'उत्तर प्रदेश की खिड़की' (साहित्य भंडार 2014)। इनके अलावा इधर-उधर छपी कुछ और भी कहानियाँ हैं। यानी अब तक लगभग तीस कहानियाँ। विमल ने अपने आत्मकथ्य में ठीक लिखा है कि चूँकि उसने देर से लिखना; अरे, नहीं-नहीं, 'खेलना' शुरू किया इसलिए उसे ज़्यादा तेज़ी से सब-कुछ करना होगा- ''मैं जानता था कि मैंने बहुत देर से खेलना शुरू किया है तो मुझे चौके-छक्के ज्यादा लगाने होंगे।'' 'खेलना' क्रिया यहाँ एक रूपक की तरह इस्तेमाल की गई है, जिसका सम्बन्ध कम से कम खेलने से तो कतई नहीं है। विमल के लिए कहानी लिखना; और यहाँ तक कि पढऩा भी; क्रीड़ा-कौतुक (एडवेंचर) की चीज नहीं है, बल्कि जीने-मरने, बल्कि केवल जीने का एक ज़रिया रहा है। विमल अपने आत्मकथ्य में बहुत साफ़ और बेलाग तरीक़े से कहते हैं कि - ''चीजें मेरे बस से बहुत बाहर जा चुकी थीं और मैं अवसाद के उस दौर में जा रहा था, जहाँ से अब मेरे और मेरी आत्महत्या के बीच की दूरी बहुत कम बची थी और उस दूरी को पार करने का मन बना चुका था। ये स्वदेश दीपक, अमरकांत, प्रियंवद, उदय प्रकाश, चेखव, मोहन राकेश, मनोहर श्याम जोशी, श्रीलाल शुक्ल जैसे लोग थे, जो लोग मेरा हाथ पकड़कर उस फेज़ से बाहर ले आए। साहित्य तब से मेरे लिए मेरी जान बचाने वाला, मुझे जिन्दा रखने और अवसाद से दूर रखने वाली चीज है।'' । निश्चय ही यह चेतनागत या मनोविज्ञान से जुड़ा मामला है, जो साहित्य की असल भूमि कही जाती है। साहित्य में पेशेवरानापन होता है, और इधर शायद यह बेतहाशा बढ़ा है, और शायद इसीलिए उस पर कई तरह से कई तरह के संकट आए हैं; पर यदि पाठक को 'आध्यात्मिक' बनाने की काबिलियत उसमें नहीं है, या नहीं आ पाती, तो उसका साहित्य कहलाना उपयुक्त है या नहीं; स्पष्टत: नहीं कहा जा सकता! विमल ठीक प्रेमचन्द (लखनऊ भाषण 1936) की तरह बहुत ठीक इस सन्दर्भ में 'आध्यात्मिक' शब्द का इस्तेमाल करते हैं - ''लिखना और पढऩा बाद की क्रियाएँ हैं। सबसे पहले होने वाली क्रिया है सोचना और साहित्य ने मुझे कतई धार्मिक न होते हुए भी काफी हद तक आध्यात्मिक बनाया है।'' (हिन्दी कहानी का युवा परिदृश्य-3; पृ. 176)

मेरी दृष्टि में बहुत दिनों के बाद हिन्दी में लेखक की कथनी और करनी में अन्तर कम होता दिखाई दे रहा है।  इक्कीसवीं सदी की पहली हिन्दी-कथा-पीढ़ी की इस बेचैनी में एक मूलभूत अन्तर है। यह अन्तर विषयवस्तुगत तो है ही; रचना-प्रक्रिया से जुड़ा हुआ भी है। कवि-लोग जिस शाश्वत बेचैनी का ज़िक्र अमूमन करते दिखाई देते हैं, उसका सीधा-सीधा सम्बन्ध बहुधा उनकी रचना-प्रक्रिया से होता था। इस बेचैनी के साथ 'प्रसव-पीड़ा' का अप्रस्तुत-विधान संलग्न हुआ आता था, जो इसे एक व्यक्तिगत सन्दर्भ देता था। यह एक प्रकार का कवियों का संरचनात्मक आत्मसंघर्ष हुआ करता था, जो रचना के लिखे जाने के बाद लगभग समाप्त हो जाता था। वैचारिकता अथवा विषयवस्तुगतता से इसे ज़्यादा लेना-देना नहीं होता था। लेकिन विमल चन्द्र पाण्डेय जैसी कई युवा पीढ़ी की बेचैनी पिछली सीमाबद्धता को पार करते हुए संरचना के साथ-साथ विषयवस्तुगतता/वैचारिकता की सरहदें भी छूती दिखाई देती है। अपने आत्मकथ्य में अपनी इस बेचैनी को परिभाषित/व्याख्यायित करते वे लिखते हैं - ''उनके अन्याय, जिन्हें वह करना ही है, के बनिस्पत उनके अन्याय, जिन्हें इसे राकने की जिम्मेदारी दी गई थी, ज्यादा दुख देते हैं। मेरे आसपास की दुनिया दुख देती है। मैं उस दुख और उस बेचैनी से बाहर आने के लिए लिखता हूँ।'' (वही)

विमल चन्द्र पाण्डेय कार्यकर्ता नहीं हैं, एक लेखक हैं; पर देखा जा सकता है कि किस तरह वे लगभग कार्यकर्तापन की ओर बढ़ रहे हैं। कार्यकर्तापन केवल यह नहीं होता कि आप झण्डा उठाएँ, मुट्ठियाँ हवा में तानें और ज़िन्दाबाद इत्यादि बोलना शुरु कर दें। कार्यकर्तापन, जैसा कि स्पष्ट है, होता यह भी है, लेकिन आज के भयावह भूमण्डलीय बाज़ारीकरण और मूल्य-संक्रमण और मूल्यों के उलटपन के दौर-दौर में, जबकि राजनीति से लेकर घर तक सब कुछ सत्ता के समानुकूलन और अन्तरानुवर्तन के हवाले हो, जब बहती गंगा में हाथ धोना एक श्रेष्ठ-स्तरीय चारित्रिकता मानी जा रही हो और स्थितियों, वास्तविकताओं, धारणा-अवधारणाओं और यहाँ तक कि विचारों और विचारधाराओं का मैनीपुलेशन योग्यता का अभिलक्षण बन गया हो; कोई स्पष्ट वैचारिक/धारणागत स्टैंड लेना और तदनुसार आचरण; क्या किसी कार्यकर्तापन से कम है? लेखक के अपने जीवन में यदि ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, अग्रगामिता नहीं है तो वह कितना भी, कैसा भी सिर मार ले, भाषा उसका साथ छोड़ जाएगी। व्यक्तिगत तौर पर मैं लेखन में शुभाशंषा, आदर्श-स्थापना, नायक-नायिकावाद इत्यादि के खिलाफ़ हूँ और सहज रवानगी-भरे शिल्प में आम ज़िन्दगी के बहते हुए यथार्थ को सामने ला देने का क़ायल हूं। हालांकि यथार्थवाद के गुंजलक से कहानी को मुक्त किए बिना नई ज़मीन नहीं तोड़ी जा सकती। यथार्थवाद से मुक्ति, प्रकारान्तर से, मेरी दृष्टि में बिना प्रतिबद्ध हुए नहीं हासिल की जा सकती। इस तरह प्रतिबद्धता का अर्थ और सन्दर्भ दोनों कुछ और हो जाते हैं और यथार्थ की अनन्त सम्भावनाएँ एक के बाद एक खुलने लग जाती है। यथार्थ की इस अनन्त सम्भवनशीलता में सबसे बड़ा हाथ जिस चीज का होता है, वह वही है, जिसे विमलचन्द्र पाण्डेय अपने भीतर के नरम कोने कहते हैं, प्रकारान्तर से जिसे हम अपने अन्दर मौजूद बच्चे के रूप में पहचानना चाहते हैं। विमल अपने आत्मकथ्य में लिखते हैं - ''मैं लेखन के जरिये अपने भीतर के नरम कोनों को हमेशा जिन्दा देखना चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ कि मेरे अन्दर एक बच्चा जो अब तक किसी भी तरह खुद को बचाता आया है, वह आगे भी बचा रहे।'' अन्दर के ये नरम कोने क्या प्रतिबद्धता के असल पर्याय नहीं हैं? 'अन्दर के नरम कोने' मात्र एक ख़ूबसूरत और आलंकारित मुहावरा नहीं है और कोई अतिशयता, अतिरंजना या अभिकल्पना भी नहीं है। बल्कि यह एक असल दृश्यमान वास्तविकता है, एक ऐसी वास्तविकता, जो जब क्रियान्वितीकरण की प्रक्रिया में आती है तो सत्ता - व्यवस्थाओं की नींद उचट जाती है।

विमलचंद्र पाण्डेय अपने समकाल और उससे भी पहले से उस वंचित व्यक्ति को अपना उपादान और प्रतीक-प्रतिनिधि बनाते हैं, जो, यदि उसे अवसर मिलता तो न जाने वह क्या-क्या नहीं कर देता! इतिहास में उसकी भागीदारी का उसका स्वाभाविक अधिकार बहुत ही षड्यन्त्रपूर्ण तरीक़े से उससे छीन लिया गया और उसे हाशिए पर कर दिया गया। देखने की बात यहाँ यह है कि यहाँ हाशिए पर किए जाने की यह प्रक्रिया और हाशिए पर किए जाते ये लोग; दोनों ही  लेखक की चिन्ता के दायरे के अन्दर-अन्दर हैं। इन दोनों की लेखक की चिन्ता के दायरे में मौजूदगी इस बात की पक्की सूचना देती है कि लेखक मूलभूत रूप से और प्रास्थानिक तौर पर ही प्रतिबद्धता का दामन पकड़कर चलने का हिमायती है। किसी का लगातार और आिखर तक बच्चा बना रहना आसान नहीं। बच्चा बने रहने का सीधा-सा अर्थ होता है, सम्बद्धता, पारदर्शिता, अनान्यथाकरण आदि-आदि। सरलीकरण नहीं।  इसलिए मैंने कहा कि बच्चा होना और बने रहना अपने-आप को निरन्तर एक दुद्र्धर्ष खराद पर चढ़ाकर रखकर चलना है। बच्चा बने रहने की एक अनिवार्य शर्त यह है - ''लेखन को लेकर मेरे सरोकार उस व्यक्ति की संवेदना से ज्यादा जुड़े हैं, जो एक अच्छी दुनिया बना सकता था लेकिन उसे वक्त नहीं मिला या कि उसे इस बारे में सोचने नहीं दिया गया। उसने अपने नरम कोनों को मर जाने दिया और उनकी जगह घासफूस उग आने से रोका नहीं।'' (वही, पृ. 177)

इस क्रम में अपने इस आत्मकथ्य में विमल ने आगे जो लिखा, वह इसी दुद्र्धर्ष खराद की निरन्तर प्रक्रिया के कष्ट-साध्य पड़ाव हैं; मसलन यह कि ''मैं लिखते वक्त किसी भी आग्रह से मुक्त रहना जाता हूँ और फिर वही लिखना चाहता हूँ, जो मैं महसूस करता हूँ, भले ही वह और लोगों को गलत लगे।'' (वही, पृ. 178)। और इससे भी ज़्यादा यह है कि - ''मैं चाहता हूँ कि लिखने वाले लोग अपने स्वाभिमान को पोसें, इतने स्वाभिमानी रहें कि किसी भी सही बात के पक्ष में खड़ा होते उन्हें यूँ सोचने की जरूरत न महसूस हो कि यह बात कही किसने है।'' (वही)। इस खराद की दुद्र्धर्षता यहीं पूरी नहीं होती; इसकी एक कड़ी यह आत्मनिरीक्षण और आत्मपरीक्षण भी है - ''मैं चाहता हूँ कि मेरा लेखन उस इंसान के पक्ष में खड़ा हो जिसके उगाए गेहूँ की रोटी हम पूरी बेशर्मी से खाते हैं और उसके पक्ष में खड़े होते हुए अपने समीकरण जाँचते हैं।'' (वही)

मैं कहना चाहता हूँ कि लेखकों के इस तरह के आत्मकथ्यों से आलोचना को बहुत-भारी मदद मिलती है और यह भी कि इस मामले में नई युवा पीढ़ी ने बहुत उत्साहवद्र्धक काम किया है।

यथार्थवाद को उलाँघना कोई विमल से सीखे! अन्यथा 'डर' की उस बारिश से बचने के लिए, गलती से रास्ते में पड़े एक टीन शेड वाले कमरे में उस मोटे, शराब पीते, बालों और दाढ़ी-मूँछों से भरे ख़तरनाक चेहरे वाले आदमी के पल्ले पड़ी उस लड़की के बरबाद होने में क़सर ही क्या रह गई थी! लड़की और इस आदमी के इस द्वन्द्व पर लेखक की यह बेशक़ीमती टिप्पणी सबसे पहले ध्यान देने योग्य है- ''शेर और हिरन की दौड़ में अक्सर हिरन ही जीतता है क्योंकि शेर भोजन के लिए दौड़ता है और हिरन जीवन के लिए।'' (डर, पृ. 49)। टिप्पणी से परेशान-हाल पाठक को राहत मिलती है और वह थोड़ा आश्वस्त होता है। यह रचना में लेखक का यथार्थोन्मुख सकारात्मक हस्तक्षेप है, जो लेखक की दृष्टिसम्पन्नता की सूचना देता है। कहानी में आगे यह लड़की जो अपने, हाज़ी बाबा की क़ब्र और उसके बगलगीर अजगर जैसी विशालकाय डालियों और मोटे तनेवाले पेड़ सम्बन्धी, भयावह डर पर औचक क़ाबू पाती है, जो जैसे घनघोर अँधेरे के बीच उजाले की  एक प्रतिहत चमक कौंध जाती है। यह उजाला कहाँ से आया? इसके स्रोत कहाँ पर स्थित थे? नितान्त असम्भवता और निर्विकल्पता की लगभग सत्यनाश/सर्वनाश जैसी स्थिति में यह लगभग 'दुस्साहसिकता' कहां से पैदा होती है - ''आदमी अब लड़की वाली कब्र के पास आ चुका था। उसके माचिस जलाने से पहले ही लड़की ने अपने जीवन का सबसे साहसिक निर्णय लिया। वह दबे पाँव उस क़ब्र से निकली और झुकते-झुकते क़ब्रिस्तान की सबसे विराट् क़ब्र के पीछे चली गई। उस क़ब्र के पास मोटे तनेवाला पेड़ भी था जिसकी विशालकाय डालियाँ अजगर की तरह थीं। पेड़ भी उतना ही चर्चित था जितना हाज़ी बाबा की यह विराट् क़ब्र। दिन में भी इस रास्ते से गुज़रने वाले इस क़ब्र और पेड़ की ओर देखने से सिरहन महसूस करते थे। लड़की पेड़ और क़ब्र के बीच की जगह में छुप गई।'' (वही, पृ. 50)। कहानी में यह अनुगूँज कई बार सुनाई देती है कि हाज़ी बाबा की यह विराट् क़ब्र और उसके पास वाला अजगर जैसी विशालकाय डालियों और मोटे तने वाला यह पेड़ भारी डरावना और अतीन्द्रिय वास्तविकताओं से लैस प्रचारित था। लोगों पर इसका भय और आतंक भयंकर रूप से तारी था। इस लड़की को भी, जबकि यह डॉक्टर के पास जाने के समय क़ब्रिस्तान के इलाक़े से गुज़र रही थी, यह लगने लगता है कि हाज़ी बाबा का भूत अपनी कब्र से निकलकर उसका पीछा कर रहा है - ''अचानक उसे लगा जैसे कोई उसके पीछे-पीछे चल रहा है। उसे अपने क़दमों में किसी और के क़दमों की सम्मिलित आवाज़ सुनायी देने लगी। &&& उसे पक्का विश्वास था कि पीछे क़ब्रिस्तान से निकलकर हाज़ी बाबा ही आ रहा है।'' (वही, पृ. 46)। इस क़ब्र और इसके पास वाले पेड़ के प्रचारित आतंक का एक और अन्दाज़ा लड़की का बेतरह पीछा करते इस आदमी की इस मन:स्थिति से भी लग जाता है कि जैसे ही वह इस क़ब्र के निकटतर आता है, बेतरह घबराकर पीछे हटता और वहाँ से भाग जाता हुआ नज़र आता है - ''आदमी माचिस की तीलियाँ जलाता हुआ उस विराट् क़ब्र के पास आ रहा था। क़ब्र से थोड़ी दूरी पर उसने तीली जलायी और भक्क से रोशनी में उसकी नज़र क़ब्र के विराट् पत्थर पर पड़ी, फिर उस विशाल पेड़ पर। वह घबराकर पीछे हट गया। क़ब्र और पेड़ से सम्बन्धित सारी कहानियाँ उसे याद आने लगीं। उसने एक बार अपने चारों तरफ़ देखा। एक ठंडी सिहरन पाँवों से दिमाग तक दौड़ गयी। वह डरकर सीधा गेट की तरफ़ भागा और एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। गेट से निकलकर भी वह सीधा भागता गया... भागता गया।'' (वही, पृ. 50)। ऐसी, चाहे अफ़वाहों में ही सही, भयावह कब्र और उसके आस-पास की दृश्यावली और विशेषत: इस सबकी आधिभौतिकता-जिसका सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के मनोविज्ञान से होता है - के बीच स्वयं को न केवल सन्तुलित और व्यवस्थित बल्कि आत्मविश्वासपूर्ण साहसिकता से अरहित बनाए रखना, किसी दु:साहसिक चमत्कार से कम नहीं! लेकिन हम देखते हैं कि यह चमत्कार हुआ और बाक़ायदा हुआ! यह लड़की जिस स्थिति में दुर्योग में आ फँसी थी, वह एक ऐसी शर्मसार और बेतरह हतोत्साहित करने वाली वीभत्स और अश्लील स्थिति थी, जिसका तोड़ किसी के पास अमूमन मिलता नहीं। उस दाढ़ी-मूँछ वाले दारुडि़ए के लिए वह एक कीमत अदा की गई वस्तु की तरह थी, जो हालाँकि झारगाँव की वह लड़की नहीं थी, जिसके पैसे माधव को देकर उसने दिए थे। यह तो एक तरह की धुप्पल में यहाँ आ फँसी। लेकिन अब फँस गई तो यह एक दुर्निवार हकीकत थी और उससे खुद ही इसे निपटना था। यहाँ कोई उसकी सहायता के लिए नहीं था, बल्कि कोई और यदि वहाँ होता भी तो वह भी इस पचड़े में पडऩे से बचता। हमारे यहाँ के समाज की जेंडर-संवेदनशीलता और स्त्री-अस्मिता के प्रति उसके रुख़ का स्तर इससे आगे नहीं है कि यह तो ज़माने की रीत है, इसमें भला कोई क्या कर सकता है! जिसने जिसका दाम चुकाया है, उसे वह न मिले यह तो अन्याय है। आम तौर पर किसी को इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि यदि कोई लड़की/स्त्री इस लड़की जैसी स्थिति में फँस जाए तो उसे किस तरह सहायता पहुँचाई जा सकती है। इस तरह का कोई वाक्या दरअसल ध्यातव्य उन्हें लगता ही नहीं है। इस तरह की किसी स्थिति में स्वयं उस लड़की/स्त्री को ही अपनी सुरक्षा का ज़िम्मा उठाना होता है, जो कई बार पूरा हो जाता है और कई बार वह असफल भी हो जा सकती है।

लेखक इस सारे सन्दर्भ को यहाँ नहीं लाता लेकिन कहानी में पंक्तियों के मध्य पाठक को लगातार इस तरह के किसी न किसी सन्दर्भ की उपस्थिति का अहसास लगातार बना रहता है। यह इस कहानी की उसी समर्थ सांकेतिकता की पाठकीय फलश्रुति है जिसका ऊपर शेर और हिरन की दौड़ के लेखकीय अन्योक्ति-विधान के माध्यम से मैंने उल्लेख किया। हालाँकि तथ्य यह भी है कि यदि लेखक इस अन्योक्ति का सहारा नहीं लेता, इसका हवाला नहीं देता तो भी पाठक को यह अहसास हो जाना था कि उसे इस लड़की के साथ ही खड़ा होना होगा! यह पाठकीयता इस वस्तु की अन्तर्वस्तु में स्वत: अनुस्यूत है, क्योंकि यह हमारा सांस्कृतिक एवं सभ्यतागत आग्रह है। हम एक पाठक के बतौर कभी भी इस लम्पट दाढ़ी-मूँछ वाले दारुडिय़े के साथ नहीं हो सकते। दरअसल इसी आग्रहवश जब हम यह देखते हैं कि इस लड़की ने ऐसी गज़ब हिम्मत दिखाई कि अच्छे-अच्छे लोग नहीं दिखा सकते जैसे कि यह लड़की का पीछा करता ज़बर आदमी भी नहीं दिखा पाता, जिसका कि हवाला पीछे दिया गया, क्योंकि ऐसी हिम्मत शारीरिक बलशालिता से नहीं, सशक्त आत्मबल और साधिकारिता से आती है; तो, यकायक जैसे हम एक तरह के कलात्मक आनन्द से सराबोर हो उठते हैं कि देखो, इस छोटी-सी लड़की को देखो, यह कैसा अद्भुत आत्मविश्वास और अस्मित-बोध लिए अकेली इस भूत-प्रेत जैसे आदमी से लड़ रही है!

विमलचन्द्र पाण्डेय को संक्षेप और सारभूत रूप में यदि मैं इसी पाठकीय कलात्मक आनन्द का अपनी पीढ़ी का लगभग अद्वितीय कथाकार कहूँ तो शायद अतिशयता नहीं होगी। पहली बात तो यह है कि लेखक-लोग पाठक के प्रति अपने दायित्व/कार्यभार के प्रति इधर थोड़े असावधान और अजागरूक होते दिखाई पड़ रहे हैं, जिसका परिणाम यह हुआ है कि 'पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?' जैसी निहायत ही ज़रूरी आत्मानुसन्धानात्मक वैमर्शिकता से विचलन किंवा पलायन की स्थितियाँ पैदा हुई हैं। विमल अपनी 'महानिर्वाण' कहानी में इस बिन्दु पर केन्द्रित हैं, जहाँ वे जीवनलाल के मा$र्फत शिद्दत से यह सवाल उठाते हैं - ''वह आिखर क्या लिखने वाले हैं? पक्ष में या विपक्ष में? वह किस ओर खड़े हैं?'' ('मस्तूलों के इर्दगिर्द; पृ. 39)। अपनी 'पॉलिटिक्स' तो हर आदमी को पता होती है, कोई भी लेखक कम से कम अपने-आपको तो धोखा नहीं ही दे सकता! स्थिति यह बनी है कि घर में कुछ और बाहर कुछ जैसा अवसरवादिता से भरा छद्म अधिकांशत: लोगों को प्रिय लगने लगा है। एक तरह से यही छद्म अब अपनी पॉलिटिक्स का पर्याय किंवा स्थानापन्न बनता चला जा रहा है। ऐसी स्थिति में सबसे ज़्यादा कबाड़ा पाठक का होता है। पाठक बहुत उम्मीद से लेखक और उसकी कहानी की ओर टकटकी लगाए देखता रहता है। वह जैसे-जैसे कहानी पढ़ता चलता है, उसका धैर्य ज़वाब देने लगता है। उसने क्या सोचा था और क्या सामने आया है! मेरा आशय यहां कहानी के किसी विशिष्ट पाठकीय ढांचे या खांचे का पूर्वावधान नहीं है। ऐसा पूर्वावधान न तो सम्भव है और न ही लेखकीय गरिमा और स्वायत्तता के ही यह अनुरूप है। मैं तो मूलत: यहाँ उसी बात को फिर से उठाना चाहता हूँ कि लेखक दरअसल अपने अन्दर के उस बच्चे के प्ररूप में, उसे बाक़ायदा बचाए रखे हुए रचनाशील हो, जिसका ज़िक्र बहुत हसरत के साथ विमलचन्द्र पाण्डेय अपने आत्मकथ्य में करते हैं और जिसका उल्लेख ऊपर मैंने किया। 'डर' वाली इस लड़की जैसा अद्भुत साहस लेखक अपने अन्दर के इस बच्चे के मार्फत ही कहानी में संरचित करता था। इस संरचना के लिए किसी कथित गतिशील या प्रगतिशील विचाराग्रह की ज़रूरत नहीं है। इसके लिए सिर्फ एक अच्छी दुनिया बनाने का यह सरोकार उसके अन्दर जीवित उस बच्चे के वजूद की वज़ह से ही सम्भव होता है? उसके अन्दर जीवित यह बच्चा ही उसके लेखन की वस्तु और अन्तर्वस्तु के अवनिर्धारण की भूमिका निभाता है - ''मैं लिखते वक्त किसी भी आग्रह से मुक्त रहना चाहता हूं और सिर्फ वही लिखना चाहता हूं, जो मैं महसूस करता हूं, भले ही वह और लोगों को गलत लगे।'' (हिन्दी कहानी का युवा परिदृश्य-3; पृ. 178)। यहां केवल एक पुष्ट सन्दर्भ के बतौर कवि कुमार अंबुज की ये काव्य-पंक्तियाँ उद्धृत करना समीचीन होगा। ये काव्य-पंक्तियां बताती हैं कि इस शिशु का विलुप्त हो जाना एक रचनाकार की ही नहीं, एक व्यक्ति की भी एक बहुत भारी ट्रजेडी है। क्या यहाँ यह लिखना पड़ेगा कि विमल चन्द्र पाण्डेय दरअसल इसी को लेकर तो सबसे अधिक चिन्तित हैं कि उनका यह शिशु आजीवन उनमें जीवित रहे- ''एक शिशु मेरे भीतर/जो एक कोषा के जीवद्रव्य की तरह/अपनी आकृतिहीन शिशुता के जीवन के लिए/बहता है टकराता है कोषा की लचीली दीवारों से/ जिसे ढकती ही जाती हैं आसपास की कोषाएँ/मांस-मज्जा के बीच धँसता ही जाता है जो/&&& शिशु-जिसकी तस्वीर का कोई नेगेटिव नहीं है मेरे पास/जिसकी खोज में ही छोड़ देनी होगी अपनी यह देह एक दिन।'' (अनंतिम, राधाकृष्ण 1998; पृ. 68)

इस लेखकीय 'शिशुता' के दो और नायाब उदाहरण 'काली कविता के कारनामे' की कविता कौशिक और 'बाबा एगो हइये हउएँ' के बाबा यानी कि अनुज श्रीवास्तव हैं। इसी तरह का एक और उदाहरण 'जैक, जैक, जैक रूदाद--नीरस प्रेम कहानी च' का नायक कृष्ण मुरारी है, जो अपनी 'पॉलिटिक्स' के चलते अपनी ज़िन्दगी और कैरियर से सम्बन्धित कुछ ऐसे फ़ैसले लेता है, जो आज के ज़माने में लगभग अप्रत्याशित माने जाते हैं। इस कहानी में लेखक बार-बार एक बात दुहराता दिखाई देता है कि उसकी कहानी उसके हाथ से निकल गई, उसके पात्रों पर अब उसका कोई ज़ोर नहीं रह जाता है। जैसे यह कि - ''कहानी मेरे हाथ से फिसल चुकी है। सभी पात्र मेरी बनायी लीक को तोड़कर जाने कहाँ-कहाँ भटकने लगे हैं।'' (डर, पृ. 157)। आगे एक जगह लेखक लिखता है - ''मैं वाकई कहानी को यहीं ख़त्म कर देना चाहता था क्योंकि इतना लम्बा लेक्चर देने के बावजूद मुझे यह अन्दाज़ा नहीं कि नायक आगे क्या करेगा।'' (वही, पृ. 158)। इससे पूर्व कहानीकार यह लिख चुका था कि ''&&& कहानी के सफल होने के अवसर तो अब डूब ही गये हैं।'' (वही, पृ. 157)। इस सब के बाद कोई आश्चर्य नहीं कि लेखक को अन्तत: यह लिखना पड़ा - ''मैं पहले ही समझ गया था कि पूरी कहानी पढऩे के बाद आप यही कहेंगे - छछे:, ये भी कोई प्रेम-कहानी है? (वही, पृ. 158)

यह पूरा वाक्या इस बात की सूचना देता है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में पैदा हुई इस नई कथा-पीढ़ी के शिल्पगत औज़ार और प्रविधियाँ काफ़ी-कुछ बदल गई हैं। हालाँकि एकदम ही अभूतपूर्वता यहाँ नहीं है लेकिन बहुत सारी नई चीजें देखने को यहाँ मिल सकती हैं। जैसे कि यही कि लेखक को अब इस गुमान में रहना क़तई पसन्द नहीं है कि वह कोई लेखक है और कहानी लिख रहा है। हालाँकि इसे एक अज़ीब ही बात कहा जाएगा कि लेखक इस गुमान से मुक्त हो रहे कि वह लेखक नहीं है। इस बाबत एक बात हालाँकि यह भी है कि इसी नई युवा कथा-पीढ़ी में लेखक-लेखिकाओं का एक समूह ऐसा भी है, जिसके लिए लेखन-कर्म किसी अजूबे या ऐडवेंचर से कम नहीं।

'जैक, जैक, जैक रूदाद--नीरस प्रेम कहानी च' शीर्षक इस कहानी में वास्तव में आिखर होता क्या है कि लेखक को यह कहना पड़ जाता है कि उसकी कहानी उसके हाथ से निकल गई और पात्र मनमानी कर रहे हैं? इस कहानी में पात्रों की दरअसल दो कोटियाँ हैं। एक कोटि है, आनन्द और शशि की, जो सत्ता के साथ समानुकूलन की प्रक्रिया के तहत प्रारम्भ से ही अपने पेशे की अपेक्ष्य नैतिकता के साथ गद्दारी में मशगूल हो जाते हैं। इन दोनों के विषय में कहा गया है कि ''&&& शशि ने नौकरी पाते ही उन उसूलों से समझौता कर लिया है जिनके कारण नायक उसकी बहुत इज्जत करता था। &&& आनन्द जिस हिम्मत से व्यवस्था की ख़ामियाँ दूर करने की बात करता था, उसकी जगह व्यवस्था की चाटुकारिता करने लगा है।'' (डर, पृ. 154)। शुरू में विमल भी विचलन की चपेट में आता है, वह 'पाञ्चजन्य' जैसे फासीवादी पूर्वाग्रहवादी पत्र में नौकरी स्वीकार कर लेता है। हालाँकि यह उसकी आजीविका-सम्बन्धी विवशता भी है, जैसा कि वह सफ़ाई देता है कि अब उसके पिताजी उसे पैसे नहीं भेज सकते, उनकी पेंशन घर के लिए ही कम पड़ रही है। इत्यादि-इत्यादि। (द्रष्टव्य, वही, पृ. 155); पर आगे चलकर अपने इस विचलन पर वह नियन्त्रण करता है और अपने यथोचित रास्ते पर आ लगता है। क्या है, यह रास्ता? और यथोचित यह कैसे है?

यहाँ सारा झमेला 'यथोचित' का ही है। लेखक इस शब्द का इस्तेमाल नहीं करता। पाठक का दिमाग इधर सक्रिय होता है। ऊपर जिन दो कोटियों की बात की गई, उसमें दूसरी कोटि के कुछ पात्रों को लेकर लेखक कूटनीतिक संकेत-प्रविधि की राह पर चलते हुए दिखाता है कि असल और सर्वोपयुक्त रास्ता तो यही था, जो नायक कृष्ण मुरारी, विमल पांडे जैसे युवक दुनिया के तमाम आकर्षणों, लोभ-लालच, मज़बूरी, विकल्पहीनता के बावजूद अपने लिए चुनते दिखाई देते हैं; चाहे इस रास्ते पर चलते हुए वे ज़माने की दौड़ में एकदम पिछड़ ही क्यों न जाएँ। लेकिन जैसा कि मैंने कहा, यह केवल एक लेखकीय कूटनीति है। यह कूटनीति एक तीर में कई शिकार किए जाने की रणनीति पर चली है और बहुआयामी है। इसका एक आयाम कहानी में अंकित किए गए चरित्र हैं। इसका दूसरा आयाम पाठक है। और इसका तीसरा आयाम स्वयं लेखक है। इस या इस तरह की दूसरी कहानियों में लेखक को हम एक खराद पर चढ़ा हुआ-सा निरन्तर महसूस कर सकते हैं। बराबर यह लगता है कि लेखक जैसे किसी दुविधा में फँसा है और पाठक से थोड़ी छूट या लिबर्टी लेना चाह रहा है। वह पाठक को अपनी रचना-प्रक्रिया का हिस्सा-जैसा बनाता है और बार-बार उसके पास जाता है कि बताओ, अब मैं क्या करूँ! पाठक भी यहाँ एकदम से ठिठक-सा जाता है कि अरे, यह कौन-सी आफ़त आई! लेखक यह बार-बार हमारी नींद में ख़लल क्यों डाल रहा है! हमें क्या लेना-देना; यह लेखक का अपना सिरदर्द है कि कहानी उसके हाथ से फिसल गई है और पात्र उसकी बनाई लीक को तोड़कर न जाने कहाँ-कहाँ भटकने लग गए हैं! हमें इस सबसे क्या सरोकार?

अगर मैं यह कहूँ कि विमल चन्द्र पाण्डेय यहाँ रचना की अधिगम-प्रक्रिया, कहानी को पढऩे-समझने की हमारी परम्परागत आस्वाद-वृत्ति, कहानी को लेखकीय प्रस्तावना का आश्वस्त (टेकन फ़ॉर ग्राण्टेड) क्षेत्र मानने की अहम्मन्यता इत्यादि को गहरे प्रश्नांकित करने की आकांक्षा से अभिप्रेरित हैं तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। यह आकांक्षा इकहरी नहीं है, इसके मूल में, जैसा कि मैं बराबर कह रहा हूँ, एक साथ बहुत सारी चीजें विद्यमान हैं। सबसे महत्वपूर्ण अवयव यहाँ समय है; जिसे कहानी के परम्परागत तत्वों के अन्तर्गत 'देशकाल, परिस्थिति' नाम से जाना जाता था। इस देशकाल परिस्थिति के आगे कहानी के पात्र तो क्या, $ख़ुद लेखक और पाठक की नतमस्तक रहे जाते हैं। विमल कहानी-लेखन और अधिगम की प्रक्रियाओं के परम्परागत चलन में दखल देते हुए एक लीक से हटकर राह चुनते हैं और 'भटकने' लगते हैं। लेखक ने कहा कि उसके पात्र उसकी बनाई लीक को तोड़कर न जाने कहाँ-कहाँ भटकने लगे हैं। लेकिन दरअसल यह एक झूठ है और अन्योक्ति है। लीक पात्र नहीं, खुद लेखक तोड़ता है और न जाने कहाँ-कहाँ भटकने लग जाता है! अपनी इस भटकन में वह कहानी, उसके पात्रों और यहाँ तक कि हमें यानी कि पाठक को भी शामिल कर लेता है।

लेखक की इस भूमिका पर ध्यान देने पर सबसे पहली जो बात समझ में आती है, वह यह है कि इस तरह वह अपने देशकाल और परिस्थिति को चुनौती दे रहा है और उसका यह कथित लीक तोडऩा, भटकना अपने समय के दुष्चक्रों, दुरभिसन्धियों, दु:स्वप्नों इत्यादि का एक ज़बर्दस्त प्रतिरोध है। लेखक के इस अभिकथन को कि कहानी उसके हाथ से निकल गई है, कोई लेखक की मसखरी या विदग्धता या विट न समझे। इसके उलट यह प्रतिरोधी मूल्य-स्थापना का एक लेखकीय कार्यकर्तापन है, जिसकी इधर बेहद कमी आ गई है और जिसकी कि भारी ज़रूरत इस समय है। नायक कृष्ण मुरारी और विमल बहुत सारी उठापटक और उथल-पुथल के उपरान्त अपनी मूलभूत तत्वप्रकृति- जो कि एक निर्विकल्प मूल्यवत्ता या मूल्यनिष्ठता- है, में लौट आते हैं, तो दरअसल इन लोगों को यहाँ खींच लाने का मक़सद ही लेखक के इस सारे प्रविधिगत कौशल का उत्प्रेरक बिन्दु था। लेखक कहना चाहता था कि कैसा भी नाकस से नाकस और बेहूदा समय आ गिरे, कैसी भी भीषण से भीषण परिस्थितियाँ सामने उपस्थित हों; कृष्ण मुरारी और विमल पांडे जैसे कुछ सिरफिरे युवक हमेशा पाए जाएँगे, जो अपने मूल्याग्रहों की ज़िद के चलते अपने स्टैण्ड पर क़ायम रहेंगे और समय का एक ठोस विकल्प देते रहेंगे जो कि वस्तुत: अपने मौजूदा समय का एक सम्भवनाशील किन्तु वास्तविक हिस्सा होगा। विमल पांडे का यह विवशता-बोध भी इसी दुनिया का हिस्सा है कि - ''आइडियोलॉजी का क्या हिक् आचार... डालूँगा। ये कम-से-कम हिक् ढाई हज़ार तो हिक्... दे रहे हैं।'' (डर, पृ. 155), तो उसका यह स्वायत्त मूल्यान्तरण भी इसी मौजूदा दुनिया के अन्दर ही है- 'पाञ्जन्य छोड़ दिया गुरु। एक साप्ताहिक लोकल अखबार पकड़ा है और दो ट्यूशन्स। कहानी तो लिख ही रहा हूँ। उनके बिना जी ही नहीं सकता।'' (वही, पृ. 159)। देखने की बात यहाँ यह है कि विमल पांडे विचलन और मूल्यहीनता के अपेक्षाकृत आरामदायक रास्ते को तिलांजलि दे प्रतिबद्धता और मूल्यनिष्ठता के अपेक्षाकृत कठिन रास्ते को अंगीकार करता है। इस कठिन रास्ते के प्रति अब किसी में आकर्षण रह नहीं गया है; सब अब शशि और आनन्द के रास्ते पर चलना सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं। लेखक अपनी झेंप मिटाने के लिए कहानी को बार-बार आड़ा-तिरछा करता रहता है। उसे बख़ूबी पता है कि बावजूद तमाम आर्थिक तंगी, असमर्थता और मज़बूरियों के, कथित उदारवाद और खुले बाज़ार के तमाम उपभोगवादी आकर्षणों के, तमाम नए प्रकार के आत्मकेन्द्री और मूल्यनिरपेक्ष कैरियरिम के प्रलोभनों के आज की मध्यवर्गीय युवापीढ़ी का बहुत सारा तबक़ा ऐसा भी है, जो स्थापित मानवीय, सांस्कृतिक-साभ्यतिक मूल्यवत्ता की रक्षा और सुरक्षा के लिए समझौता और सत्ता-समानुकूलनवाद की राह न पकड़ते हुए संघर्ष और प्रतिरोध का रास्ता अपनाता है।

एक तरह से देखा जाए तो विमल चन्द्र पाण्डेय के कहानीकार की सबसे बड़ी और प्रधान समस्या यह है कि विचारधारा से समझौते के इस दौर-दौरे में कहाँ और कैसे और क्यों उन चरित्रों/पात्रों को खोजा जाए, उन्हें गुमनामी के अँधेरों से निकलकर सुपरिचित के उजाले में ले आया जाए, जो बिना किसी गिले-शिकवे अपनी प्रकृष्ट मूल्यवत्ता में अपनी सम्भावनाशील भविष्योन्मुख ज़िन्दगी जी रहे है। कभी-कभी ऐसा होता है कि आसमान बादलों से अँट जाता है। पर ज़ल्दी ही एक ऐसा भी वक़्त आता है, ज़रूर से ज़रूर आता है, जब 'सारे बादल छँट चुके' (वही, पृ. 127) होते हैं और 'बाहर शान्ति' और 'भीतर अंधड़ उमड़ रहे' होते हैं। (वही)। आसमान से बादलों का छँटना और बाहर शान्ति पर अन्दर अंधड़ों का उमडऩा, संक्षेप में विमलचन्द्र पाण्डेय की पॉलिटिक्स/प्रतिबद्धता का स्वरूप और संरचना-प्रक्रिया लगभग यही है।

पॉलिटिक्स और प्रतिबद्धता का यह स्वरूप और संरचना पिछले समय से थोड़ी बदली हुई है। यथार्थ का स्वरूप और संरचना चूँकि बदली हुई हैं इसलिए उससे निबटने के तौर-तरीक़े भी बदले हुए हैं। यह कथित भूमण्डलीकृत/उदार और खुले बाज़ार वाले नई शताब्दी के शुरूआती दौर की नवयुवा पीढ़ी की कथावस्तु को लेकर चला यथार्थ है, जिसकी बहुआयामिता को कुण्ठित और नि:शेष कर उसे एकध्रुवीय/एकायामी प्ररूप दिया गया है। यह एक भिन्न िकस्म की चुनौती थी, जिसका सामना सिर्फ इस ज़िद्दी चेतना से किया जा सकता है - ''हर वजह की कितनी परतें होती हैं। हर परत में सम्मिलित हुए बिना किसी भी वजह को पूरी तरह से नहीं जाना जा सकता। &&& किसी भी मुकम्मल चीज को सि$र्फ एक आयाम से देखकर उसके बारे में जानना कितना गैरमुक़म्मल है।'' (वही, पृ. 127, 128)। यह बहुआयामिता दरअसल इस पूरी नवयुवा कथा-पीढ़ी की महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है। किन्तु यह मात्र एक प्रवृत्ति नहीं है। प्रवृत्ति से ज़्यादा उनकी यह एक राजनीतिक संदृष्टि है, एक पॉलिटिकल वैचारिक ताक़त है, जिसके मार्फत एकायामिता और एकध्रुवीयता को उसी की तर्ज़ पर ये ज़वाब दे रहे हैं। वर्चस्ववादी/सर्वसत्तावादी दुरभिसन्धियों के जाल को तार-तार कर सकने की हिम्मत जुटा सके हैं। 'काली कविता के कारनामे' की कविता कौशिक इसी ताक़त के बल पर शिक्षा की असल सफलता के मुक़ाम तक पहुँचने की चेष्टा करती है। शिक्षा की असल सफलता है, सवाल उठाना। इस कहानी में दो प्रत्यय एक साथ आए हैं। एक है, 'ताली देना' और दूसरा है, सवाल उठाना। आज की शिक्षा ताली देने वालों की ज़मात ज़्यादा पैदा कर रही है। जबकि शिक्षा का असर उद्देश्य होना चाहिए, सवाल उठाना सीखना - ''उसने सब कुछ सिखाने के साथ बच्चों को एक और चीज़ सिखाने की कोशिश की थी, सवाल उठाना। वह आज अपनी शिक्षा को सफल होता देख रही थी और बहुत संतुष्ट थी।'' (उत्तर प्रदेश की खिड़की; पृ. 146-47)। इस कहानी में भी लेखक लगभग वही शिल्प अपनाता है, जो उसके 'जैक, जैक, जैक रूदाद--नीरस प्रेम कहानी च' तथा और दूसरी कहानियों में अपनाया है। मसलन, ''आप जानना चाहते होंगे कि इसके बाद क्या हुआ।  आपने ज़रूर इस कहानी का कोई रोमांचक और दिलदहलाऊ अन्त सोच रखा होगा &&& कोई सनसनीखेज और रोमांचक अन्त... जैसा आजकल की कहानियों में होता रहता है।  मगर मैं फिर से आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ कि मैं इस अतिसाधारण पात्रों वाली अतिसाधारण कहानी को ऐसा कोई रोमांचक मोड़ दे सकने में असमर्थ हूँ।'' (वही, पृ. 148) उदयप्रकाशीय सनसनी अब अप्रासंगिक हो गई है। उसके दिन लगभग लद गए हैं। नई युवा पीढ़ी अब कहानी-संरचना की बहुत सारी प्रविधि को सिरे से बदल रही है। अब उसका जोर कहानी के ऊपरी कलेवर से ज़्यादा कहानी की अन्तर्वस्तु और उसकी अन्तस्संरचना-इन्फ्रास्ट्रक्चर-पर है और वह ऐसी कथावस्तुओं, चरित्रों, घटनाओं-परिघटनाओं की तलाश में आए दिन लगी रहती है, जो नितान्त साधारण और सामान्य हों; जिनकी साधारणता और सामान्यता ही जिन्हें असाधारण और अद्वितीय और असामान्य बनाती है। असाधारण, अद्वितीय और असामान्य यह वस्तुत: है नहीं, वास्तव में ही यह बहुत ही साधारण, सामान्य और नामालूम िकस्म की वस्तु, चरित्र और घटनाएँ हैं। लेकिन चूँकि ज़माने  का चलन कुछ और है, वहाँ कविता (काली कविता के कारनामे), कृष्ण मुरारी, विमल पांडे (जैक, जैक, जैक रूदाद--नीरस प्रेम कहानी च), उदभ्रान्त (उत्तर प्रदेश की खिड़की), रामदयाल (सातवाँ कुआँ), वह इलाहाबाद पत्नी (शनिवार रविवार पलटवार), 'पवित्र' सि$र्फ एक शब्द है' कहानी की वह लड़की और कथानायक मैं, जीवनलाल (महानिर्वाण), तेजस/सुप्रीमो (मस्तुलों के इर्दगिर्द), अनुज श्रीवास्तव उ$र्फ बाबा (बाबा एगो हइए हउएँ), मन्नन राय गजब आदमी हैं), सोमनाथ (सोमनाथ का टाइम-टेबल), शाश्वत (एक शून्य शाश्वत), अमर (वह जो नहीं) जैसे सारे के सारे चरित्र हमें अजूबे या अव्यावहारिक प्रतीत हो सकते हैं। लेकिन अजूबे या अव्यावहारिक ये वस्तुत: हैं नहीं। ये बहती गंगा में हाथ धोने वालों से अलग मूल्यवत्ता और उसके प्रति अपनी अडिगता के तहत सक्रिय रहने वाले चरित्र हैं। लेखक ने कहीं कहा नहीं है, पर अपनी सृजनात्मक कथान्विति के मा$र्फत बार-बार उसने यह संकेत किया है कि दुनिया अगर आगे चलनी है, सभ्यता को यदि अपनी राह चलने देना है तो इस गुरुतर दायित्व का निर्वाह ये ही लोग करने में सक्षम हैं। जब भी यह दुनिया किसी संकट में घिरेगी, मनुष्यता ख़तरे में पड़ेगी, मूल्यहीनता और बेहयाई का भेडिय़ाधसान उपस्थित होगा, ये कुछ गिने-चुने लोग ही होंगे, जो इन मामलों में हस्तक्षेप करेंगे और विकल्प देंगे।

मौजूदा नई युवा पीढ़ी जिस भँवर-जाल में फँसी है, वह यह है कि उसके सामने किसी पिछले ज़माने जैसा ऐसा कोई राजनीतिक आदर्शवाद, वैचारिक/व्यावहारिक मानक, उदाहरण उपस्थित नहीं है, जिससे वह अभिभूत हो सके, प्रेरणा ले सके। कुछ समय पहले तक ऐसे उदाहरण मौजूद थे पर कथित उत्तरआधुनिकता के ज़लज़ले ने सबको पछाड़ कर हाशिए पर डाल दिया। पिछली कहानियों में जो थोड़े-बहुत राजनीतिक कार्यकर्तानुमा पात्र पाए जाते थे, जो कि एक प्रकार की वैचारिक परिपक्वता और दीक्षा लिए हुए होते थे, वैसे पात्र अब कहानियों में ढूँढ़े नहीं मिलते। अब सारा परिदृश्य बदल चुका है। अब नौकरी तो नौकरी; जीने-भर के लिए भी बिना सत्ता-समानुकूलन के काम नहीं चलता। नौकरी में तो स्थिति अब यह हो गई है, पत्रकारिता जैसी नौकरी में भी; कि ''    सबसे ऊँची कुर्सी पर बैठने वाला आदमी सबसे बुद्धिमान होता है और उससे कभी बहस नहीं की जानी चाहिए।     नौकरी चाहे किसी पत्रिका में की जाए या किसी किराने की दुकान में, अन्तत: दोनों को करने के लिए नौकर ही होना पड़ता है।'' (उत्तर प्रदेश की खिड़की; पृ. 23)'बॉस इज़ ऑल्वेज़ राइट' जैसी चीज तो पहले भी थी, पर राजनीतिक सचेतनता का ऐसा हाशियाकरण पहली बार हो रहा था। 'बूमरेंग' कहानी के कथानायक रवि की यह स्थिति देखी जाए- ''पहले वह एक बहुत स्वाभिमानी और कॉलेज के दिनों में एग्रेसिव छात्रनेता हुआ करता था। मगर ज़िन्दगी बिताने के लिए न तो उसका ईमानदार, एग्रेसिव होना काम आया न ही उसकी प्रथम श्रेणी की डिग्रियाँ। उसने यह विकल्प चुना और आज एक सफल इन्सान है या कम से कम उस रास्ते पर है।'' (मस्तूलों के इर्दगिर्द; पृ. 68)। नई पीढ़ी के सामने यह विकल्प (?) एक विवशता की तरह सामने आया था; हालाँकि जैसा कि ऊपर विस्तारपूर्वक हम यह देख चुके हैं कि नई पीढ़ी ने अपना एक वैकल्पिक रास्ता भी बाक़ायदा निकाल लिया है और वह अपने स्वाभिमान और एग्रेसिवनेस को जारी रखते हुए अपनी सम्भावनाएँ तलाशने में दिन-रात जुटी है। लेखक इन दोनों पक्षों को पाठक के सामने रखता है और जैसे एक चुनौती-सी फेंकता है कि पाठक खुद तय करे कि वह इनमें से अपने लिए किसे वरेण्य मानता है! हालाँकि अपनी कथात्मक विदग्धता के मार्फत बराबर वह साफ़-साफ़ संकेत देता चला है कि सही क्या है और गलत क्या, पर कहता वह यही है कि मैं तो बिल्कुल नहीं चाहता कि मेरे पात्र लीक से हटें पर मैं क्या करूँ, वे मेरी सुनते ही नहीं! जैसा कि मैंने लगातार कहा; यह और कुछ नहीं, मात्र एक लेखकीय चालबाज़ी या रणनीति है, जो सिर्फ एक औपचारिकता है। अनौपचारिक रूप से लेखक बाक़ायदा अपने इन स्वाभिमानी और एग्रेसिव पात्रों के आद्यन्त साथ है। औपचारिक रूप से वह शशि और आनन्द और सुनील और मालविका और वेदिका और निधि और नलिनी और और दूसरे चरित्रों को लाता है तो हाथ के हाथ कविता, एएम, नीलू 'डर' कहानी की उस बेहद निडर लड़की, बाबा, शाश्वत, कृष्णमुरारी, विमल जैसे चरित्रों को भी लाता है और ठसके से कहता है कि इन्हें भी देखो! ये हैं, असली किरदार! शब्द का दारोमदार इन्हीं पर है! विमल चन्द्र पाण्डेय यथार्थ वास्तविकता की अन्दरूनी तहों को भेदते हुए असल सत्य तक पहुँचने की कोशिश करते हैं और पाठक को भी साथ-साथ रगेते चलते हैं। विमलचन्द्र पाण्डेय जैसे लेखकों के मार्फत सम्भवत: लेखन की रचना-प्रक्रिया का स्वरूप और चरित्र आज बदल गया है और वह उदयप्रकाशीय निजता से आगे चलकर एक सामूहिक कर्म जैसी लाक्षणिकताओं से लैस होता चल रहा है।

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विषयवस्तु के हिसाब से देखा जाए तो पत्रकारिता विमल चन्द्र पाण्डेय का सबसे विशेषज्ञता का क्षेत्र है। हर तीसरी कहानी इस क्षेत्र से जुड़ी है। पत्रकारिता का कोना-कोना विमल जैसे झाँक आए हैं और उसकी एक-एक गहराई से वा$िकफ़ हैं। यह ठीक है कि विमल खुद पत्रकारिता के ऐकेडेमिक्स और पेशे से जुड़े रहे हैं। वे उसकी अन्दरूनी दुनिया से राई-रत्ती परिचित हैं। पर मात्र किसी पेशे में होने या उसकी गहरी से गहरी जानकारी रखने से इस तरह की कहानियाँ लिखा जाना सम्भव नहीं है। इस तरह की कहानियाँ यथार्थ के प्रति एक सकारात्मक आलोचनात्मक रवैये के गर्भ से पैदा होती हैं। स्थिति यह है कि जहाँ भी मौक़ा लगता है, विमल पत्रकारिता पर तंज कसना, उसकी ख़बर लेना नहीं भूलते। जैसे 'उत्तर प्रदेश की खिड़की' में पत्रकारिता के संस्थानों पर यह टिप्पणी - ''पत्रकारिता सिखाने के ढेर सारे संस्थान खुल चुके थे और जितने ज़्यादा ये संस्थान बढ़ते जा रहे थे पत्रकारिता की हालत उतनी ही ख़राब होती जा रही थी। पता नहीं वहाँ क्या पढ़ाया जाता था और क्यों पढ़ाया जाता था।'' (उत्तर प्रदेश की खिड़की; पृ. 20)। पत्रकारीय यथार्थ सम्बन्धी कुछ सन्दर्भ ऊपर भी आए हैं। यहाँ इतना और कहने की ज़रूरत है कि विमल किसी निर्मम विश्लेषक की तरह, मात्र भावुकता या भावुकतावादी प्रतिक्रियावश नहीं, पत्रकारिता की व्यापक चीरफाड़ अपनी कहानियों में प्रस्तुत करते चले हैं। जैसे कि 'जैक, जैक, जैक रूदाद--नीरस प्रेम कहानी च' नायक कृष्णमुरारी और उसके दोस्तों के बीच अमूमन जो बातें होती देखी गई हैं, उनका सन्दर्भ पत्रकारिता की मौजूदा दुरवस्था ही रहता आता है। इसमें सबसे ज़्यादा $गौर किए जाने वाली बातें कुछ ये हैं- ''मीडिया पूरे समाज पर नज़र रखता है। मीडिया की धाँधलियों पर नज़र रखने के लिए कोई तगड़ा संगठन होना चाहिए। &&& यदि पत्रकारों पर स्टिंग ऑपरेशन किया जाए तो अस्सी प्रतिशत पत्रकारों को भूमिगत होना पड़ेगा। &&& मीडिया में चमचागिरी और भाई-भतीजावाद ज़्यादा है। &&& मीडिया में आश्चर्यजनक रूप से ऊँचे पदों पर ज़्यादातर तथाकथित सवर्ण हैं जो भयंकर रूप से जातिवाद फैला रहे हैं। &&& पत्रकार बनने का मतलब सुन्दर चेहरा और साफ़ आवाज़ बनकर ही क्यों रह गया है? हम पत्रकार बनना चाहते हैं, एंकर नहीं!'' (डेर; पृ. 153-54)। मीडिया के खेवनहार किस क़दर लम्पटता, अनैतिकता, प्रतिहिंसा, हद दर्ो की अहम्मन्यता; इत्यादि की $िगरफ़्त में फँसे पड़े हैं और सत्ता-व्यवस्था के साथ कैसा नापाक़ गँठजोड़ उनका बन गया है; 'उत्तर प्रदेश की खिड़की' इस मौजूदा ऐतिहासिक यथार्थ का दो-टूक खुलासा करती है। पत्रकारों के लिए आज़ादी का अर्थ किस तरह उच्छृंखलता और मनमानापन हो आता है, 'लोकल' कहानी इसका बहुत नामालूम पर्दाफ़ाश करती है।

पत्रकारिता के बाद विमल की कहानियों का दूसरा सबसे मौलिक विषय है - प्रवचन इंडस्ट्री/धार्मिक धन्धेबाज़ी। कई कहानियों में यह यथार्थ सामने आया है। इस मामले में सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि मीडिया के साथ इसका बहुत ही गहरा और भारी गँठजोड़ बना है। 'एक शून्य शाश्वत' कहानी में एक जगह आया है कि मीडिया और बाबा इस सदी की सबसे ताक़तवर और भ्रष्टतम चीजें हैं - ''ये मीडिया और ये बाबा, सदी की दो सबसे ताक़तवर और भ्रष्ट चीों मिलेंगी तो कमाल तो होगा ही,'' (वही; पृ. 100)। इन दोनों का दरअसल एक ही स्लोगन है - ''बिज़नेस इज़ बिज़नेस।'' (वही)। अपनी ताज़ा प्रकाशित कहानी 'शुभचिंतक' में भी विमल धार्मिक धन्धेबाज़ी की बात उठाते हैं और वह भी बनारस के सन्दर्भ में - ''धरम के धंधे का वक्त हो गया था और ढेर सारे प्रकाश के बीच गंगा आरती शुरू होने वाली थी।'' (पहल 97; सितम्बर 2014, पृ. 189)। एक तरह से देखा जाए तो कथित उत्तरआधुनिकता के इस दौर में लगभग हर चीज़ बिज़नेस बन गई है। हर मामला अब गिव एण्ड टेक तथा प्रॉ$िफट के मद्देनज़र तय हो रहा है। यहाँ तक कि प्रेम/स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध भी। इस कहानी की मालविका और 'जैक, जैक, जैक रूदाद--नीरस प्रेम कहानी च' की वेदिका इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं, जहाँ प्रेम-संवेदना लाभ-हानि के आधार पर तय हो रही है। इन सारे प्रकरणों में एक ही स्थिति दिखाई दे रही है। लेखक के प्रतीक-विधान का सहारा लिया जाए तो कहना होगा कि ईश्वर के मरने की घोषणा करने वाला नीत्शे ही अब मर गया है! 'एक शून्य शाश्वत' कहानी में यह प्रतीक उस समय आया है जब राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के चोटी के बाबा शाश्वत को समझाने उसके फ़्लैट पर आते हैं और निराश होकर उसे कोसते हुए चले जाते हैं। इसी समय शाश्वत ललकारते हुए इन हरामख़ोर बाबाओं को खरी-खरी सुनाते हुए यह सब कहता है। वह कहता है- ''ख़तरा यह नहीं कि ईश्वर मर चुका है।'' &&& ''बल्कि ख़तरा इससे है आध्यात्मिक बनियो कि नीत्शे भी मर चुका है। मर गया है नीत्शे भी।'' (डर; पृ. 107)

नीत्शे का मरना पिछली शताब्दी की सबसे प्रधान और सबसे दुद्र्धर्ष घटना थी। ईश्वर के मरने न मरने से उतना फ़र्क नहीं पड़ता था, जितना उसकी मृत्यु की घोषणा करने वाले नीत्शे के ज़िन्दा रहे आने से पड़ता या पड़ सकता था। ईश्वर का मरना न मरना उतना महत्वपूर्ण और हस्तक्षेपकारी था भी नहीं। पर नीत्शे का जीवित रहे आना तो यथास्थिति में सीधे-सीधे हस्तक्षेप था। वह बराबर सर्वसत्तावादियों की आँखों में खटकता था। उसका ज़िन्दा रहना उनके मंसूबों पर पानी फेर सकता था। अत: यह स्वाभाविक था कि उसे मार दिया जाता या मरा हुआ घोषित कर दिया जाता। नीत्शे का मरना बहुत सारी मूल्यवत्ता, चेतना, हस्तक्षेपकारी मुद्रा, वैकल्पिकता की तलाश इत्यादि-इत्यादि का मरना था!

 

यह एक रेखांकनीय उल्लेखनीय तथ्य है कि विमलचन्द्र पाण्डेय अपनी कहानियों के मार्फत नीत्शे के मारे जाने का पुरज़ोर निषेध करते हैं और अपने अनेकानेक चरित्रों के मार्फत यह लगभग प्रमाणित करते हैं कि कौन कहता है कि नीत्शे मर गया? वे हरामी लोग हैं, जो यह सब झूठ प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं! नीत्शे अभी मरा नहीं है। बिल्कुल ही नहीं मरा है। उसके मरने के बारे में कोई भला सोच ही कैसे सकता है? वह तो अभी भी लगातार हमारी आत्मा में, हमारी शिराओं में ज़िन्दा है और लगातार अपनी उद्घोषणा ज़ारी रखे हुए है कि ईश्वर एकदम मर चुका है। अब उसे कोई चाहे भी तो पुनर्जीवित नहीं कर सकता! नीलू की अन्तरात्मा से यह शायद नीत्शे ही बोल रहा है, जब वह यह कहती है कि ''मुझे ज़िन्दगी गणित की तरह नहीं जीनी साहब। मुझे जीना है अपने तरीके से जो बाद में अगर गलत साबित हुआ तो देखा जाएगा। उन्होंने मुझसे भी कहा कि प्यार से पेट नहीं भरता और मैं तुम्हें भूल जाऊँ लेकिन आज मुझे लग रहा है कि प्यार से ज़रूर पेट भरता होगा तो लग रहा है बस्स।'' (उत्तर प्रदेश की खिड़की; पृ. 47)। आज के ज़माने में कोई युवती ऐसा कहे, यह एक नॉस्टेल्जिया ही तो लगता है। लेकिन नॉस्टेल्जिक होना कई बार भविष्य की कुंजी भी हो सकता है। 'एक शून्य शाश्वत' का शाश्वत भी अन्तत: इसी तरह के रास्ते का वरण करता है। जो लोग इसे नॉस्टेल्जिया कहना चाहें, वे शौक से कहें; नॉस्टेल्जिया यह हो भी सकता। अत: बहस यह नहीं है कि यह नॉस्टेल्जिक है या नहीं? बल्कि बहस यह है या होनी चाहिए कि मेरे अन्दर ऐसा नॉस्टेल्जिया है या नहीं? यदि है तो ठीक; अन्यथा मुझ में और ज़माने के भेडिय़ाधसान में फँसे लोगों में फ़र्क ही क्या रह जाएगा- ''मुझे मेरे पुराने निष्कपट और सच्चे दिन बुला रहे हैं जिन्हें मुझे फिर से पहन लेना है ताकि मैं इस जंगल समय में खुद को बचा सकूँ। मैं भाग रहा हूँ।'' ''कितना नॉस्टेलजिक है यह सब'', मैंने सोचा'' (डर; पृ. 117)। कोई चाहे तो लेखक के कन्धे पर रखकर यह  बन्दूक चला सकता है कि - ''&&& कोई लेखक अपने नायक को परिस्थितियों से हारता हुआ दिखाकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा?'' (वही;, पृ. 158)। अब भला नायक को परिस्थितियों से हारता हुआ दिखाकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा?'' (वही; पृ. 158)। अब भला कौन नहीं जानता कि लेखक अपने नायक को परिस्थितियों से हारता हुआ नहीं, बेतरह उनसे लडऩे की तैयारी में उसे ऐसा करते हुए दिखा रहा है!

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