चार पाप और एक हाइफन

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    अप्रैल २०१३
श्रेणी पहल विशेष
संस्करण अप्रैल २०१३
लेखक का नाम जितेन्द्र गुप्ता






समय के इस दौर में लगभग हर एक बौद्घिक, चाहे वह दक्षिणपंथ से हो, या वामपंथ से, की राय यही है कि दुनिया को समझने के जितने भी तरीके हैं, वह पुराने पड़ गए हैं। किसी को यह प्रतीत हो रहा है कि पूंजीवाद जैसी अवधारणा ही बेमानी है, और कोई इस राय को सामने रखता है कि आज के दौर की प्रगति ने वर्ग, जाति, समुदाय से लेकर दूसरी या तीसरी दुनिया के अस्तित्व को खत्म कर दिया है। समस्या दोनों के सामने केवल इतनी है कि इस समाज के पास जो संसाधन हैं, उनका उचित इस्तेमाल नहीं हो रहा है।
वैश्विक स्तर पर मौजूद बहस का अधिकांश हिस्सा इस बात को प्रस्तावित करता है कि समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिए अतीत में किया गया सबसे बड़ा प्रयास यानि ज्ञानोदय, रिनेसां और आधुनिकता एक असमाप्त परियोजना में तब्दील हो गया है। हाँलाकि जो परिस्थितियां हमारे और दूसरे समाजों में मौजूद हैं, उनको देखते हुए इतिहास के प्रति कुछ कम सचेत व्यक्ति पूर्वोक्त किस्म के निष्कर्ष आसानी से निकाल भी सकते हैं।
मनुष्य की गतिकी और ज्ञान में असाधारण प्रगति के बावजूद धर्म हर एक समाज में अपनी भूमिका निभा रहा है! एक ओर विज्ञान और दूसरी ओर धर्म! और दोनों के बीच असाधारण संतुलन! यदि सैद्धांतिकता के प्रति बहुत कट्टर आग्रह न हो, तो आप कह सकते हैं कि यह 'असाधारण संतुलन' हमारे आधुनिक समाज का सबसे बड़ा अंतर्विरोध है। इस अंतर्विरोध पर विश्वास हमारे समय के युग सत्य में तब्दील हो गया है। लेकिन इससे भी ज्यादा रोचक तथ्य यह है कि इस अंतर्विरोध ने विज्ञान की भूमिका को संदिग्ध किया है, धर्म की भूमिका को नहीं!
कहीं और का उदाहरण नहीं, बल्कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत का ही उदाहरण लें, तो स्थितियां ज्यादा स्पष्ट हो जाएंगी। नेहरू ने विज्ञान की महत्तर भूमिका के साथ देश के निर्माण का स्वप्न सामने रखा, आधुनिक 'मंदिरों' के निर्माण का आग्रह किया था। परन्तु आज हर कहीं से आवाज़ें सुनाई दे रही हैं कि इन मंदिरों ने जनता से धोखा किया है। बड़े बाँधों के निर्माण से विस्थापित हुए लोगों से लेकर भीमकाय कारखानों में खपत के लिए प्रयुक्त प्राकृतिक संसाधनों की लूट से परेशान, बेहाल आदिवासियों तक, हर कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विज्ञान के प्रति अविश्वास की अभिव्यक्तियां देखने को मिलेंगी। युग सत्य में तब्दीली कुछ इस तरह से है कि अब मुख्यधारा को य़कीन हो चला है कि समस्या 'विज्ञान' में ही है, और इसका विकल्प प्रबंधन है! आज के समय का युग सत्य 'प्रबंधन' हो गया है!
आदिवासियों की कातर पुकार हो या हाशिए के मानवीय समुदायों का संघर्ष, हर कहीं प्रस्तावित यह किया जा रहा है कि समाज में सत्ता और संपत्ति का वितरण उचित नहीं है, और इसका उचित ढंग से किया गया प्रबंधन इन सभी मांगों को पूरा कर देगा। सत्ता में भागीदारी, नागरिक समाज, आरक्षण आदि समस्त शब्दावली का उत्स 'प्रबंधन' ही है। हॉलाकि अतीत में भी इन शब्दों का प्रयोग होता रहा है, लेकिन प्रबंधन का अर्थारोपण 90 के दशक की ही परिघटना है। वैश्विक स्तर पर इस बदलाव को सोवियत संघ के पतन के साथ जोड़कर देखा जाता है। लेकिन विशुद्ध भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसका आरंभ 'इंदिरा युग' की समाप्ति से ही होता है। यह आसानी से स्मरण किया जा सकता है कि इंदिरा गांधी के ही कार्यकाल में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवाद' शब्द जोड़ा गया था। असल में इंदिरा गांधी का दौर भारतीय राष्ट्र-राज्य के संबंध में एक युग समाप्ति का दौर है, उस युग की समाप्ति का दौर, जो 'विज्ञान' के युगीन सत्य पर आधारित था।
आज के वक्त में समाज के वंचित वर्गों के लिये सत्ता जिन रियायतों को प्रस्तावित करती है, उसके लिए वह तर्क नहीं हैं, जो संविधान सभा मे डॉ. अम्बेडकर ने दिये थे। ये तर्क समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन न हो पाने की पृष्ठभूमि में दिए गए थे, जिसमें यह अंतर्निहित तथ्य था कि समाज का क्रांतिकारी परिवर्तन होना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर यह था कि यह परिवर्तन वैज्ञानिक नियम के अनुरूप है, तार्किक है और यह वैज्ञानिक व तार्किक इसलिए है, क्योंकि यह (वैज्ञानिक) विकासवाद की पुष्टि करता है।
आज इन तर्कों का कोई स्मरण नहीं करता है! समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन की ज़रूरत को कोई रेखांकित नहीं करता है। इस फिक्र के मायने खत्म हो गए हैं कि अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक विवाह की सामाजिक मूल्यवत्ता क्या है। अब प्रश्न केवल जड़ता और सुविधा का है। एक समुदाय खाप पंचायत जैसी सामाजिक संरचना पर यकीन रखता है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्र-राज्य से आरक्षण की मांग करता हुआ पूरे देश को बंधक बना लेता है! या वह एक धर्म, जिसका उदय ही 'समानता' की प्रतिश्रुति के साथ होता है, वह अपने भीतर मौजूद 'असमानता' को स्वीकारते हुए सत्ता से सुविधा प्राप्ति (आरक्षण) की मांग करता हुआ अपने धार्मिक कट्टरपंथ (सामंती सरंचना) को सुरक्षित रख पाता है!
इससे भी बड़े विस्मय की बात यह है कि सत्ता या समाज की नियंता शक्ति की ओर से इन सामंती संरचनाओं को किसी भी तरह से प्रश्नांकित नहीं किया जाता है। यह प्रश्न इसलिए नहीं किया जाता है, क्योंकि विज्ञान पर अविश्वास 'युग सत्य' है। स्वीकारा जाता है, तो प्रत्यक्ष दावा। लेकिन कोई भी दावा स्वीकारते हुए उसके पीछे का तर्क स्वयंमेव अपनी पुष्टि कर लेता है।
(2)
हजारों तर्कों के साथ 'यूरोपीय' ज्ञानोदय की असफलता का महाआख्यान प्रतिमाह अकादमिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता है, और इस महाआख्यान के आंशिक तर्क प्रतिदिन अखबारों में दोहराए जाते हैं। यूरोपीय ज्ञानोदय की मूल आत्मा 'तर्क' पर विश्वास करने की है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि रिनेसां के पहले तर्क मौजूद नहीं था। आखिर यह वाक्य रिनेसां के पहले भी कहा जाता होगा कि 'प्यास लगी है, पानी दीजिए'। रिनेसां और ज्ञानोदय के कारण मानवीय सभ्यता में जो परिवर्तन हुआ, वह यह था कि तर्क को विज्ञान के आधार पर पुष्टि की ज़रूरत हुई।
इसके बाद का युग तो विलक्षण मानवीय सभ्यता के विकास का है। स्वयं माक्र्स, 'मिस्र के पिरामिडों, रोम के जल सेतुओं और गोथिक कैथेड्रलों से भी कहीं ज्यादा बढ़कर चमत्कार' कहते हुए पूंजीवाद की उत्पादक उपलब्धियों को आसानी से निसंकोच रूप से रेखांकित करते हैं। लेकिन क्या यह पूंजीवाद की उपलब्धियां हैं? जाहिर तौर पर पूंजीवाद की उपलब्धियों से पहले ये विज्ञान या तर्क के युग की उपलब्धियां हैं। ज्ञानोदय की इस समग्र अंतक्र्रिया को ही 'आधुनिकता' की संज्ञा दी गई है। 'तार्किकता, तकनीक केंद्रणवाद, ज्ञान व उत्पादन का मानकीकरण, रैखिक प्रगति और सार्वभौम सत्य' को आधुनिकता के मानक स्तंभ माना जाता है। लेकिन आज के वक्त में इन स्तंभों से बौद्धिकों को आपत्ति है। मान्यता तो यहां तक है कि मनुष्य समाज में आज मौजूद समस्याओं का यही स्रोत हैं।
फेयरबैंड का कहना सही है कि अत्याधिक तार्किकता 'बहुत हद तक अवशता और निरंकुश रूपाकारों' का कारण होती है। कोई कारण नहीं कि फेयरबैंड से असहमति व्यक्त की जाए। लेकिन प्रश्न यह है ही नहीं, क्योंकि आधुनिकता 'अत्याधिक तार्किकता' का प्रस्ताव करने की दोषी ही नहीं है। यदि अतीत या इतिहास का स्मरण कर सकें, तो पाएंगे कि 'ज्ञानोदय की प्रक्रिया' का रोमैंटिसिज्म के साथ गहरा रिश्ता रहा है। यह रोमैंटिसिज्म बेदिली से भी 'अत्याधिक तार्किकता' का प्रस्ताव नहीं करती है। इस बजाए यह तार्किकता के सौंदर्यशास्त्रीय पक्ष की संरचना करता है। शेक्सपियर हेमलेट में किसी की दुहाई नहीं देते हैं, बल्कि इस रौमैंटिसिज्म की बदौलत अभिभूत होते हैं, 'मनुष्य क्या शानदार रचना है, तार्किकता में कितना असाधारण है, कितनी असंभव क्षमताएं इसमें निहित हैं, यह अपने रूप-स्वरूप और गतिकता में कितना अभिव्यक्तिपूर्ण है और कितना अधिक प्रेरणास्पद है, जब यह कार्य करता है, तो एकदम देवदूत के समान प्रतीत होता है, और अपने बोध में तो यह बिल्कुल खुदा सरीखा है।'
आधुनिकता का दूसरा 'पद्घतिगत पाप' तकनीक केंद्रणवाद कहा जाता है। सच कहा जाए तो यह मनुष्य समाज के समस्त दुर्भाग्य का स्रोत न सही, परन्तु अधिकतर दुर्भाग्य का स्रोत यही है। इस लेख की शुरुआत में व्यक्त लाखों-लाख विस्थापितों के दु:ख से लेकर आदिवासियों की विपत्ति का कारण यही है। परन्तु क्या इसका मूल स्रोत 'आधुनिकता' है? असल में यह कारण आधुनिकता इसलिए प्रतीत होता है क्योंकि विज्ञान और तकनीक में अंतर नहीं किया जाता है। तकनीक विज्ञान के अनुप्रयोग को कहते हैं। सभ्यतागत विकास के नज़रिए से देखें, तो पाएंगे कि पूंजीवाद विज्ञान पर नहीं, वैज्ञानिक अनुप्रयोगों पर आधारित है (यहाँ तक कि पूंजीवाद विज्ञान पर यकीन भी नहीं करता है)। डॉ. राधाकृष्णनन ने सर एडवर्ड मेमोरियल लेक्चर्स सिरीज में दिए गए एक व्याख्यान में इस बात को बिल्कुल स्पष्ट रुप से रेखांकित किया था कि 'मशीन पदार्थ पर मस्तिष्क की विजय का प्रतीक है। वह स्वयं में ही उद्देश्य नहीं है... मोटरकार में ऐसी कोई बात नहीं कि हम उसे तेजी से चलाकर पैदल चलते आदमी को मार डाले... विमान में ऐसी कोई बात नहीं कि हमें अपने सहयोगियों पर बम गिराने को बाध्य कर दे।'
यहां मौजूद सवाल यही है। विज्ञान अपेक्षाकृत निरपेक्ष है, परन्तु तकनीक हमेशा समाज सापेक्ष होती है। तकनीक हमेशा ही उत्पादन साधनों के मालिक वर्ग के हितों को पूरा करने का साधन रही है। तकनीकी विकास की नवीनतम् उपलब्धियों के संदर्भ में भी इन तथ्य की पुष्टि की जा सकती है। वेटिकन में दर्शन के लिए समय देने से लेकर तिरूपित में प्रसाद वितरण तक यदि कम्प्यूटर या सूचना माध्यमों का प्रयोग किया जाता है, तो यह विज्ञान का नहीं, बल्कि तकनीक का प्रयोग है। इस तरह सतही तौर पर यह कहा जा सकता है कि विज्ञान इस मामले में दोषी नहीं है, लेकिन यह मामला इतना सहज नहीं है। मानवीय विकास के संदर्भ में विज्ञान अपने अनुप्रयोग के बिना कोई भूमिका भी नहीं निभा सकता है। क्या विज्ञान के अनुप्रयोग के बिना मनुष्य की उत्पादक उपलब्धियों, जिनकी मार्क्स ने तारीफ की है, की कल्पना की जा सकती है? जाहिर सी बात है कि बिना सामाजिक स्थिति का आकलन किए, इस विषय में किसी भी निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता है।
वास्तव में विज्ञान मानवीय मुक्ति के लक्ष्यों में अपनी भूमिका को उचित ढंग से नहीं निभा पाया, तो इसका कारण पूंजीवाद नहीं है। इसके बजाए इसका कारण मानवीय सभ्यता में पूंजीवाद का निर्धारित समय से अधिक समय तक अस्तित्ववान बने रहना है। प्रलयकारी प्राकृतिक शक्तियों से संघर्ष से लेकर मानवीय चेतना की स्वतंत्रता व प्रसार में, पूंजीवाद का असाधारण योगदान है। परंतु पूंजीवाद का अन्तर्द्वन्द यह है कि वह उन नियमों से संचालित है, जहां मानवीय प्रगति का मायने यह है कि वह 'घृणित बुतपरस्त बुत जो अब अमृत नहीं, बल्कि मृतकों की खोपड़ी से रक्त पिएंगे' और पूंजीवाद को इस रक्त पिपासु व्यवस्था में जो कुछ बदलता है, उसके लिए मार्क्स ने इन शब्दों का प्रयाग किया था, 'संचयन, संचयन! यही मोज़े और यही पैगंबर है!... केवल संचयन के लिए संचयन, उत्पादन के लिए उत्पादन; इसी सूत्र से क्लासिकल अर्थवस्था बुर्जुआजी के ऐतिहासिक अभियान को व्यक्त करती है, और पल भर के लिए भी संपत्ति की प्रसवपीड़ा के प्रति स्वयं को निर्णायक नहीं बनाती है।'
इस विषय के साथ हमारी सभ्यता के समक्ष खड़े सबसे बड़े संकट का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। उत्पादन और प्राकृतिक संपदा के असीमित लोभ ने इस संकट को उत्पन्न किया है, जहां मनुष्य का अस्तित्व ही दांव पर है। यह संकट इतना भयावह है कि शायद नूह की नाव भी मनुष्य अस्तित्व को नहीं बचा पाएगी। पर्यावरणविदों की मानें तो इसके लिए आधुनिकता जिम्मेदार है! बेलगाम उत्पादन और मनुष्य के ऐश्वर्य के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इतना अधिक शोषण किया गया है कि इस पृथ्वी का जैव संतुलन बिगड़ गया है। साफ हवा, साफ धूप (हानिरहित धूप), साफ खाद्यान्न अगले 20-25 वर्षों में बिल्कुल अजायबघर की चीज़ों में तब्दील हो जाएंगे। इसी पर्यावरणिक संकट के एक आयाम या लक्षण पर गौर करें। ग्रीनपीस के अनुसार, 'वर्ष 1500-1970 के बीच साढ़े चार शताब्दी के दौरान केवल एक फीसदी वर्षा वन नष्ट हुए। लेकिन इसके (1970) बाद के तीन दशकों में 5,90,000 वर्ग मीटर जंगल नष्ट किए जा चुके हैं। यह अमेजन के जंगलों का 15 फीसदी हिस्सा है, जो फ्रांस के कुछ भू-क्षेत्रों से भी बड़ा है।'
अब आसानी से उस दोषारोपण का जवाब दिया जा सकता है, जो आधुनिकता को इसके लिए दोषी ठहराता है। 'इस सभ्यतागत संकट से परिचित कराने वाला आधार या प्रमाण क्या है?' और इसका उत्तर है - विज्ञान।
इसका तात्पर्य यही है कि विज्ञान भले ही निरपेक्ष (या कहें तो अंधा) हो, लेकिन विज्ञान का अनुप्रयोग सामाजिक शक्ति या उत्पादन के साधनों के स्वामी वर्ग के पास होता है, और वही अपने वर्गीय हितों के अनुरूप इसका इस्तेमाल करता है। इसलिए इस मामले में दोषी विज्ञान नहीं, बल्कि वह सामाजिक व्यवस्था है, जो इन वैज्ञानिक अनुप्रयोगों या तकनीक का इस्तेमाल करती है।
ज्ञान व उत्पादन का मानकीकरण आधुनिकता का तीसरा लक्षण कहा जाता है। ज्ञान और उत्पादन का मानकीकरण भले ही दो भिन्न धारणाएं प्रतीत हों, परन्तु सैद्धांतिक स्तर पर दोनों का उत्स समान है। असल में ज्ञान के मानकीकरण से तात्पर्य ज्ञान के विवेचन के सैद्धांतिक पक्ष की तार्किकता है। सरल शब्दों में इसका तात्पर्य यह है कि 'ज्ञान' की प्राप्ति के तरीके की तार्किकता। डिकेंस अपने लेखन में ईश्वर की दुहाई नहीं देते हैं। जाहिर सी बात है कि ईश्वर की दुहाई देने से कॉपरफील्ड की त्रासदी का उत्स नहीं खोजा जा सकता है। इसके बजाए बाल्जाक से लेकर शोलोखोव तक इस मनुष्य की त्रासदी के कारणों की खोज के लिए संपूर्ण सामाजिक संरचना की छानबीन करते हैं। इससे भी नज़दीकी उदाहरण प्रेमचंद का है। होरी भले ही ईश्वर की दुहाई दे, लेकिन प्रेमचंद के लिए होरी की त्रासदी तुलसीदास के राम की तरह दैवकृत नहीं है, बल्कि यह प्रकृति या कहें तो समाजजन्य है। तथ्यों की तार्किक जांच, विभिन्न तथ्यों का पारस्परिक अंतर्संबंध ज्ञान के मानकीकरण की प्रक्रिया है। जाहिर सी बात है कि जैसे-जैसे मनुष्य को अपने विषय में, अपने समाज, अपने परिवेश के विषय में जानकारी होती जाती है, ज्ञान का विस्तार होता जाता है। ज्ञान के माननीकरण का तात्पर्य जड़ता नहीं है। इसके बजाए ज्ञान के मानकीकरण का तात्पर्य ज्ञान प्राप्ति के तरीके या पद्धति की तार्किकता है। और इससे भी बड़ी बात यह कि ज्ञान प्राप्ति के तरीके या पद्धति की तार्किकता का लक्ष्य क्या है? यह लक्ष्य मनुष्य है, वह मनुष्य जिसकी क्षमताओं और सौंदर्य से शेक्सपियर मुग्ध हैं।
उत्पादन का माननीकरण वास्तव में इसी लक्ष्य (मनुष्य) को परिभाषित करता है। उत्पादन का मानकीकरण वास्तव में उत्पादन की वैज्ञानिक पद्धति को लक्षित करता है। वह पद्धति जिसमें मनुष्य को कम से कम श्रम से अधिक से अधिक से अधिक प्राप्य हो। उत्पादन के मानकीकरण का ही परिणाम है कि मार्क्स के पास यह कल्पना मौजूद है, 'एक कम्युनिस्ट समाज में किसी भी व्यक्ति की किसी गतिविधि के लिए कोई भी निर्धारित परिक्षेत्र नहीं होता है (होगा), बल्कि हर एक मनुष्य अपनी इच्छानुसार किसी भी क्षेत्र में निष्णात हो सकता है। समाज सामान्य उत्पादन (की गतिविधियों) को विनियमित करता है (करेगा), और इस तरह से मेरे लिए संभव होगा कि आज एक चीज़ करूँ, तो कल दूसरी। सुबह शिकार करूँ, दोपहर में मछली माँरु, शाम को पशुओं की देखभाल करूँ, रात को भोजन के बाद आलोचना करूँ, और यह सब मैं इसलिए करूँ कि मेरे पास दिमाग है, और मैं यह सब शिकारी, मछुआरा, गडरिया या आलोचक बने रहते हुए करूँ... (अब मनुष्य जाति को कुछ होने की आवश्यकता नहीं)...विशिष्ट रूप से चित्रकार, मूर्तिकार हुए बिना... एक कम्युनिस्ट समाज में कोई भी चित्रकार नहीं होता है, बल्कि ढेरों लोग होते हैं, जो दूसरी गतिविधियों के साथ चित्रकारी भी करते हैं।'
इसका तात्पर्य यह है कि मानकीकरण मनुष्यों में मौजूद उनकी आदिम अवस्था के चिन्ह यानि मनुष्य को अपनी नैसर्गिक ज़रूरतों के प्रति चिंता मुक्त करने का माध्यम है। इसका तात्पर्य यह भी है कि वैज्ञानिक उपलब्धियां मनुष्य की रचनात्मकता व सृजनशीलता को स्वतंत्र (बिल्कुल स्वतंत्र?)  करेंगी। ज्ञान व उत्पादन का मानकीकरण मनुष्य सापेक्ष है, और यही कारण है कि चेग्वेरा ने कहा था, 'मनुष्य सभी चीज़ों का सबसे बड़ा पैमाना है'।
लेकिन इस उदात्तता को किसने नष्ट किया? निसंकोच कह सकते हैं कि इसके लिए जिम्मेदार पूंजीवाद व पूंजीवादी व्यवस्था है। वास्तव में पूंजीवाद ने ज्ञान व उत्पादन के मानकीकरण के मूल तर्क को स्वीकारा ही नहीं। ज्ञान क्रियात्मकता से पृथक वस्तु नहीं होती है। कॉपरफील्ड या होरी की त्रासदी के जिम्मेदार तत्वों को पूंजीवाद कभी नहीं स्वीकारता है। उत्पादन के मानकीकरण के लक्ष्य यानि मनुष्य की मुक्ति को पूंजीवाद कभी नहीं स्वीकारता है, बल्कि वास्तविकता तो यह है कि इसने इस लक्ष्य को उस वर्गीय हित के लिए इस्तेमाल किया है, जिसका लक्ष्य 'संचयन' है।
ऐसी स्थिति में क्या ज्ञानोदय या आधुनिकता को दोषी ठहराया जा सकता है?
इसके बाद अंतिम मुद्दा रैखिक प्रगति और सार्वभौम सत्य का है। 'प्रगति' शब्द स्वयं में पारिभाषिक अंतर्विरोध समाहित किए हुए है, लेकिन यह अंतर्विरोध लक्ष्य आधारित है। सरल शब्दों में प्रश्न यह है कि क्या हर एक 'अग्रिमता' विकास या प्रगति होती है? जाहिर है इसका उत्तर नकारात्मक होगा। यानि विकास या प्रगति के मायने मात्र अग्रिमता नहीं हैं। कुछ बेईमान किस्म के धूर्त ही मार्क्सवाद के लिए ऐतिहासिक नियतिवाद की घोषणा करते हैं कि पहले आदिम साम्यवाद, फिर सामंतवाद और फिर पूंजीवाद के चरणों से गुजरते मनुष्य समाज साम्यवाद की प्राप्ति कर लेगा! हॉलाकि मार्क्स का इस धारणा से कोई लेना-देना नहीं है, न ही उन्होंने कभी इस तरह के 'गणित' को प्रस्तावित ही किया था। इसी कारण बाद में सार्त ने इस तरह के कठमुल्लों के मार्क्सवाद लिए 'निकम्मा मार्क्सवाद' पदबंध ही प्रयोग किया था।
असल में प्रगति (रैखिक) और सार्वभौम सत्य परस्पर आश्रित हैं। सार्वभौम सत्य वही, जिसका पीछे जिक्र किया गया, यानि मनुष्य। लेकिन यहां मनुष्य का तात्पर्य एकवचन में नहीं है, बल्कि बहुवचन में है,यानि इस पृथ्वी पर उपस्थित हर एक मनुष्य यह स्थिति कुछ वैसी ही है, जो महायान शाखा के बुद्ध की है, यानि जब तक समस्त मनुष्यों की मुक्ति नहीं हो जाती है, तब तक बुद्ध की मुक्ति नहीं होगी।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि रैखिक प्रगति की तार्किकता का हिन्दुस्तानियों से ज्यादा किसी और को अहसास नहीं होगा, क्योंकि यहां हजारों सालों से मनुष्य की आत्माएं मुक्ति के इंतजार में त्रिशंकु की तरह भटक रही हैं! पुरोहित वर्ग हजारों सालों से चक्राकार प्रगति यानि कलियुग की समाप्ति और सतयुग के आगमन की दुहाई देते हुए लगभग पूरी जनता को अंधे कुएं में धकेलता गया है। वास्तव में चक्रीय प्रगति का कोई अस्तित्व नहीं होता है, बल्कि प्रगति का अस्वीकार करते हुए यह काल (समय) की चक्रीय धारणा है, जिसमें पुनर्वापसी की प्रतिश्रुति अलौकिक आधार पर की जाती है। यदि तुलनात्मक रूप से देखें तो पाएंगे कि हिंदू धर्म के अलावा चक्रीय अवधारणओं को कोई अन्य नहीं स्वीकार करता है। ईसाई या मुस्लिम धर्म पैगंबर या न्याय के दिन के आगमन को तो ज़रूर स्वीकारते हैं, लेकिन युग (समय) की पुनर्वापसी का उनके पास कोई दावा नहीं है। सतयुग आने और राम की लीला दोहराये जाने की प्रतिश्रुति हिंदू पौराणिक धर्म ही करता है।
रैखिक प्रगति के मायने यह है कि वह समस्त कार्यवाही/राजनीति, जो मनुष्य की स्वतंत्रता में योगदान करे, वह प्रगति है, और रैखिकता के मायने यह है कि इस विकास में क्रमिकता विद्यमान है। इससे भी बड़ी बात यह है कि सार्वभौम सत्य या लक्ष्य के तार्किक आधार पर इस 'विकास' का आकलन किया जा सकता है। यहां कहना ज़रूरी है कि रैखिक विकास 'लीप' का निषेध नहीं करता, न ही विकास की प्रतिगामिता को अस्वीकार करता है। इस तथ्य को इस तरह से समझा जा सकता है कि प्रतिक्रियावादी शक्तियां विकास को प्रतिगामिता में बदल सकती हैं। 1973 में अलेंदे की लोकतांत्रिक सरकार चिली के इतिहास में विकास ज़रूर है, लेकिन इसी सरकार का हुआ तख्तापलट प्रतिगामी कदम है। रैखिक विकास कभी भी विकास की रक्षा करने का निषेध नहीं करता है। क्रामवेल ने इसी कारण कहा था, 'भगवान पर भरोसा रखो, और अपना बारूद सूखा रखो'। यहां एक शब्द कहने की ज़रूरत अभी भी है कि अलेंदे की सरकार मानवीय लक्ष्य में एक बढ़ा हुआ कदम था (यानि मनुष्य की मुक्ति में यह राजनीतिक व्यवस्था योगदान करने की स्थिति में थी), लेकिन इस सरकार के तख्तापलट ने मनुष्य की बेडियों में बढ़ोत्तरी की, अत: तख्तापलट प्रतिगामी कदम था।
सार्वभौम सत्य इस रैखिक विकास से किस तरह से संबद्ध है, पहले ही रेखांकित किया जा चुका है। यह सार्वभौम सत्य या कहें तो आधुनिकता के चारों 'पद्धतिगत पाप' एक दूसरे से स्वतंत्र नहीं है, बल्कि हर एक 'पाप' दूसरे पर आधारित है, निर्भर है, उसे पूर्णता प्रदान करता है। इस सार्वभौम सत्य (यानि मनुष्य की मुक्ति) की नियंता शक्ति तार्किकता, ज्ञान व विज्ञान है। यही कारण है कि 'मनुष्य की मुक्ति' के रूप में निर्धारित सत्य प्रकृति से शत्रुभाव नहीं रखता है, हालांकि वरीयता के स्तर पर द्वंद्वात्मकता ज़रूर मौजूद है।
(3)
इस विश्लेषण के बाद सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ज्ञानोदय और आधुनिकता की इतनी श्रेष्ठ परंपरा और प्रस्तावना के बावजूद मनुष्य समाज की इतनी विकृत व लक्ष्यविहीन स्थिति क्यों है? (वैसे इसका उत्तर पूर्व के विश्लेषण में आंशिक रूप से मौजूद है)
प्रो. रणधीर सिंह की स्पष्ट मान्यता है कि 'ज्ञानोदय के सबसे मूल्यवान उत्तराधिकारी के रूप में मार्क्सवाद मानवीय विचारों और कार्यवाहियों, गतिविधियों की जाँच के द्वारा मानवीय जीवन के लिए दृष्टिकोण और उद्देश्य की खोज करता है।' अब यह तथ्य आसानी से स्पष्ट हो जाएगा कि आधुनिकता को लेकर वर्तमान व्यवस्था यानि पूंजीवाद को इतना द्वेष क्यों है। हॉलाकि पूंजीवाद और इसकी समर्थक विचार श्रृंखलाएं आधुनिकता में निहित 'वृहद आख्यान' (सार्वभौमिकता) का व्यंग्य रूप में ही उल्लेख करती है, लेकिन वास्तविकता यही है कि आधुनिकता 'वृहद आख्यान' का समर्थन करती है। मार्क्सवाद इस 'वृहद आख्यान' के सच्चे उत्तराधिकारी के रूप में इसकी तार्किकता का विस्तार करता है। मार्क्सवाद निशंक रूप से वर्गीय सामाजिक संरचना को स्वीकार करता है। परन्तु अपने अंतिम लक्ष्य में मार्क्सवाद 'मनुष्य' की मुक्ति का प्रस्ताव करता है। संचयन की दासता में जकड़े पूंजीपति से लेकर केवल अपने श्रम पर जीवित मज़दूर तक, हर किसी के लिए सर्वोच्च सभ्यतागत लक्ष्य यानि मानवीय मुक्ति व स्वतंत्रता की प्रतिश्रुति करता है।
अब यह स्पष्ट हो गया है कि आधुनिकता द्वारा ज्ञापित मूल्यों से चुनौती किसको मिलती है। यह चुनौती पूंजीवादी व्यवस्था, उसके अराजक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विधिशास्त्र के लिए है। यह चुनौती पूंजीवाद को इसलिए है, क्योंकि वह मानवीय सभ्यता के सबसे उदात्त लक्ष्य को विकृत करके अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। यह चुनौती पूंजीवाद को इसलिए है, क्योंकि इसने मानवीय मुक्ति के महाआख्यान को भ्रष्ट वर्गीय परियोजना में तब्दील कर दिया है।
अधिकतर दार्शनिकों और राजनीतिक चिंतकों की मान्यता है कि माक्र्सवाद समाज के वर्गीय विभाजन पर यकीन करता है (यह स्वयं मार्क्स का ही विश्लेषण है)। परन्तु वास्तविकता में माक्र्सवाद वर्गीय विभाजन पर इसलिए यकीन करता है, क्योंकि पूंजीवाद या दूसरी सामाजिक संरचनाएं समाज का वर्गीय विभाजन करती है। माक्र्सवाद के दार्शनिक व राजनीतिक सिद्धांत के आधार पर गठित राजनीतिक दल या सामाजिक विन्यासों में अंतर्विरोध ज़रूर देखने को मिलेगा, लेकिन पूंजीपति वर्ग में इस तरह का अंतर्विरोध वैश्विक स्तर पर भी शायद ही देखने को मिले। यदि अंबानी को बैंक ऑफ अमेरिका के निदेशक मंडल में शामिल किया जाता है, तो इसका तात्पर्य यही है, जिसका पूर्वोक्त उल्लेख किया गया है, और ऐसे उदाहरणों की संख्या लाखों में है। स्पष्ट शब्दों में कहें, तो सर्वहारा एक वर्ग के रूप में भले ही न संगठित हों, लेकिन पूंजीपति वर्ग अपने उदय से ही अपने वर्गीय संगठन पर य़कीन करता है! वैश्वीकरण के बाद तो पूंजीपति वर्ग की वर्गीय एकता निरंतर बढ़ती ही गई है।
यह एक सामान्य सिद्धांत है कि जहाँ दो वर्गों, समुदाय, समूह या ऐसी ही किसी भी संरचना के बीच हितों को लेकर अंतर्विरोध होता है, वहाँ हर एक वर्ग की यही कोशिश होती है कि वह दूसरे वर्ग को संगठित न होने दे, और स्वयं को संगठित रखे। इसका कारण यह है कि दूसरे वर्ग के असंगठित होने की शर्त पर ही पहला वर्ग अपने हितों (वर्ग हितों) की रक्षा कर पाने में सक्षम होता है।
आधुनिकता और इसका सच्चा उत्तराधिकारी, माक्र्सवाद मनुष्य के सर्वोच्च लक्ष्य के लिए जनता के अधिसंख्य हिस्से से संगठन की मांग करता है, और यह स्थिति पूंजीपति वर्ग के हितों के विपरीत है। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि लक्ष्यों और तर्कणा के स्तर पर इस अधिसंख्य जनता के संगठन (और उसकी राजनीति) को प्रश्नांकित करना असंभव है (ध्यान रहे कि पूंजीवाद ने कभी 'तर्क' पर विश्वास नहीं किया है, बल्कि उसका अनुप्रयोग किया है)। ऐसी स्थिति में पूंजीवाद के दुमछल्ले बौद्घिकों ने (यदि क्रोध बहुत अधिक है, तो आप इन्हें षडयंत्रकारी भी कह सकते हैं) एक हाइफन के जरिए इस आधुनिकता को प्रश्नांकित करने की कोशिश की है। यह कोशिश कोई मामूली कोशिश नहीं, बल्कि अपने 'वर्ग अस्तित्व' के प्रश्न को संबोधित थी।
अस्सी की दहाई में शुरू हुए ये प्रयास किसी कुटीर उद्योग (माक्र्सवाद की जीवन परिस्थितियों को याद करते हुए) जैसे नहीं थे। इसके बजाए यह भीमकाय कारखानों के उत्पाद हैं, और बड़े-बड़े कारखानों के उत्पादों की तरह बहुत आकर्षक विज्ञापन, पैकिंग और छूट के वायदे के साथ इन्हें बाज़ार में पेश किया था। हजारों-हजार विश्वविद्यालय, शोध संस्थान और लाखों-लाख बौद्धिक इस उत्पादन कार्य में मुब्तला हैं, और अगणित मात्रा में यह उत्पादन हो रहा है। इस उत्पादन कार्य पर सबसे शानदार टिप्पणी काथा पोलेट की है, 'उत्तर-आधुनिकतावादी समान रूप से एक दूसरे की रचनाओं व लेखों को भी नहीं समझ पाते हैं, और किसी एक परिचित नाम या धारणा के माध्यम से किसी अंधकारमय तालाब में कुमुदनी के पत्तों पर मेंढकों की भांति उछल-कूद करते हुए पाठ के जरिए अपना रास्ता तलाश करते हैं।'
यह हाइफन आधुनिकता की एक सार्वभौम और पारस्परिक रूप से निर्भर ईकाई 'सार्वभौम सत्य' को नज़रअंदाज करके (कराके) यह प्रस्ताव करता है कि 'मनुष्य और मनुष्य के विभिन्न समुदायों में अपरिमित विविधता है। इसलिए आधुनिकता का कोई एक पैमाना उचित नहीं है। इसके बजाए हर एक समुदाय के सापेक्ष आधुनिकता का एक भिन्न पैमाना है।'
यह हाइफन मानवीय लक्ष्य से लेकर सार्वभौम सत्य तक किसी भी अन्य चीज़ का प्रस्ताव नहीं करता है। प्रस्ताव है, तो केवल हाइफन का!
इस स्थिति ने आधुनिकता के सारे मानकों को तब्दील कर दिया है। आधुनिकता जहां समग्रता के आधार पर मानवीय समाज की विषमता पर विचार करता था, अब यह कार्य जाति, नस्ल, समुदाय, धर्म आदि के आधार पर किया जाता है। और यह कार्यवाही कितनी ज्यादा आक्रामक, प्रसारित और लुभावनी है कि इसके दैनंदिन जीवन में ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे। इसका सबसे रोचक उदाहरण साहित्य में प्रचलित नए विचारों के रूप में दिया जा सकता है। अब दावा यह है कि एक खास समुदाय या लिंग के विषय में केवल वही लिखने का अधिकारी है, जो इस समुदाय का या लिंगीय समाज का सदस्य है। तात्पर्य यह है कि किसी भी श्वेत नस्ल के व्यक्ति का सुख अश्वेत नस्ल के व्यक्ति से भिन्न है (यहां सुख बृहतर परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त है)! हांलाकि किसी खास सामाजिक संरचना या सामाजिक व्यवस्था के सापेक्ष यह उदाहरण सत्य भी हो सकता है, लेकिन सार्वभौम सत्य के रूप में यह कतई सत्य नहीं है।
इस तरह का विचार और समग्र रूप से 'हाइफनजन्य' विचारधारा समाज की हर एक ईकाई, संस्था को लौह दुर्ग में कैद करने का प्रयास कर रही है। यह एक खास तरह का रूढि़वाद और प्रतिक्रियावादी स्थिति है। पूर्वोक्त उदाहरण का ही विस्तार करें, तो स्थिति ज्यादा स्पष्ट हो पाएगी। यदि स्त्री ही स्त्री के विषय में सही दृष्टिकोण से लिख सकती है, तो इसका तात्पर्य यह भी होना चाहिए कि स्त्री पुरुष के विषय में सही ढंग से नहीं लिख सकती है। ऐसी स्थिति में स्त्री द्वारा पुरुष के विषय में लिखा गया हर एक वाक्य गलत होगा, और पुरुष के विषय में किया गया हर एक मूल्यांकन महज कल्पना। ऐसी स्थिति में कहां पितृसत्ता और कहां पुरुष वर्चस्व? शोषण निर्धारित करने का मानक ही गलत है, फिर शोषण की स्थिति कैसे प्रमाणित होगी? और जब प्रमाण नहीं, तो शोषण ही नहीं!
यह तर्क पद्धति हर एक समुदाय, नस्ल, धर्म पर लागू की जा रही है। यही कारण है कि हर एक समाज और सामाजिक ईकाई एक बंद समाज व ईकाई में तब्दील होती जा रही है। यहां इस बात को रेखांकित करना बहुत ज़रूरी है कि बंद समाज में तब्दील होने के लिए सत्ता की ओर से असंख्य प्रेरणाएं व प्रोत्साहन मौजूद है। सत्ता पक्ष की ओर से इस कार्यवाही के कारण को पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। यह प्रेरणाएं व प्रोत्साहन कई बार बुर्जुआ सुविधाओं के रूप में हैं, तो कई बार दूसरे समूहों, समुदायों के प्रति भय पैदा करके उत्पन्न की जाती हैं।
हिन्दुस्तान के परिप्रेक्ष्य में इस संदर्भ में सबसे शानदार उदाहरण डॉ. अम्बेडकर का है। उनका मानना था कि दलित समाज की मुक्ति वास्तव में हिन्दू, ब्राह्मणवादी समाज की मुक्ति है। दलित समाज की सामाजिक विषमता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने आरक्षण की वकालत की थी, तो दूसरी ओर दोनों ही समुदायों की सामाजिक अंतक्र्रिया के लिए अंतर्जातीय व अंतर्धार्मिक विवाहों की हिमायत की थी। लेकिन आज राज्य सत्ता जिन मानकों को अपना कर दलित (या दूसरे समुदायों) को रियायतें दे रही है, उसकी पहली शर्त यही है कि वे एक 'बंद, लौहदुर्ग समान दलित समुदाय' के सदस्य हों।
यह स्थिति ऐसी है, जिसमें धार्मिक कट्टरपंथ से लेकर नस्लवाद के प्रति दुराग्रह समाज की विशिष्ट विशेषता के रूप में मौजूद है। हर एक समुदाय के लिए भिन्न समुदाय भय या तिरस्कार का कारण है। यह स्थिति परपीडन जैसी मन:स्थिति  को जन्म देती है, मूल रूप से एक बीमार समाज की रचना में योग देती है। इस परपीडन का शानदार उदाहरण लोकप्रिय कला रूपों में नैतिकता के गिरते मानकों और अश्लीलता के उभार के रूप में दिया जा सकता है। जिन नैतिक मान्यताओं या अश्लीलता के स्तर को अपने समुदाय के लिए नहीं स्वीकारा जाता है, उन्हीं मानकों का अनुकरण करता हुआ दूसरा समूह या मनुष्य पहले समुदाय के सुख या आनंद का कारण बनता है (किसी भी समकालीन हिन्दी या दक्षिण भारतीय सिनेमा में इस मिजाज़ की आवृत्ति आसानी से देखी जा सकती है)।
यहां अस्मिताधर्मी विचारधारा के समर्थकों और इस सामुदायिक किलेबंदी के पहरेदारों की ओर प्रश्न हो सकता है कि यदि ऐसी स्थिति में भी तो आपत्ति क्यों? जाहिर सी बात है कि यहां आपत्ति सुविधाओं के प्रति नहीं है, बल्कि आपत्ति इन सुविधाओं के पीछे छिपे तर्कों से है। यह तर्क एक समुदाय को दूसरे समुदाय के प्रतिपक्ष में, एक नस्ल को दूसरी नस्ल के खिलाफ ही नहीं, बल्कि मनुष्य की प्रतिद्वंद्विता में खड़ा कर देते हैं। यह स्थिति मनुष्य को 'सामाजिक जानवर' नहीं, बल्कि 'बर्बर मनुष्य' में तब्दील कर दे रही है।
संभव है कि पूर्वोक्त विचारधारक दुर्वासाओं को इन उत्तरों में कोई तार्किकता न मिले, संभव यह भी है कि उन्हें इन उत्तरों में किसी वाद की बू मिलने लगे। लेकिन िफदेल के इस सवाल से तो किसी तरह से भी बचना संभव नहीं है -
वैश्वीकरण एक वस्तुनिष्ठ यथार्थ है, जो इस बात को रेखांकित करता है कि हम सभी एक ही जहाज पर सवार है, और यह जहाज हमारा यह ग्रह है। लेकिन इस जहाज पर यात्रा करने वाले यात्री भिन्न-भिन्न परिस्थितियों (या श्रेणियों) में यात्रा कर रहे हैं।
तुच्छ किस्म के अल्पसंख्यक शानदार आरामदायक कमरों में इंटरनेट, सेल फोन और वैश्विक संचार संजाल की सुविधाओं के साथ यात्रा कर रहे हैं। ये पौष्टिक, प्रचुर और संतुलित भोजन ही नहीं, बल्कि स्वच्छ पानी का भी आनंद उठाते हैं। परिष्कृत स्वास्थ देखभाल से लेकर संस्कृति तक की सुविधा उनकी पहुँच के भीतर है।
बहुसंख्यकों के असाधारण संख्या वाले रेवड या झुंड कुछ उन्हीं परिस्थितियों में यात्रा कर रहे हैं, जिस तरह हमारे औपनिवेशक अतीत में अफ्रीका से अमरीका ले जाने वाले दासों को यात्रा करनी पड़ती थी। ये जहाज के 85 फीसदी यात्री है, जो गंदी जगहों पर भूख, बीमारी और असहायता से बेहाल स्थिति में यात्रा कर रहे हैं।
स्वाभाविक रूप से यह जहाज सीमा से ज्यादा अन्याय को अपने में समाहित किए हुए तैर रहा है और यह बिल्कुल अतार्किक व बेमानी किस्म के मार्ग का अनुकरण करते हुए यात्रा को अंजाम दे रहा है, जहाँ इसे (भविष्य में) कोई भी सुरक्षित घाट (बंदरगाह) मिल ही नहीं सकता है। यह जहाज किसी आइसबर्ग से टकराकर नष्ट होने के लिए अभिशप्त दिखता है। और यदि ऐसा होता है, तो हम सभी इसके साथ डूब जाएंगे।
(4)
हाइफन से उत्पन्न संकट सभ्यतागत या कहें तो मनुष्य के अस्तित्वगत संकट में तब्दील हो गया है। दुनिया के किसी भी कोने में जब धरती पर कुदाल की एक भी चोट की जाती है, वह हर एक चोट मनुष्य के अस्तित्व को संकट, गहरे संकट की ओर ले जाती है। जोसे मार्ती ने लगभग 300 सालों पहले कहा था कि 'कोई मनुष्य इतना गरिमावान नहीं है कि वह मकई के एक भुट्टे को भी तोड़ सके'। मार्ती यहां स्पष्ट रूप से प्रकृति के साथ मनुष्य के द्वंद्वात्मक नहीं, बल्कि शत्रुतापूर्ण रिश्ते की पहचान कर रहे थे।
सभ्यता का इतिहास बताता है कि प्रकृति के साथ इस शत्रुतापूर्ण संबंध की शुरुआत पूंजीवाद के साथ होती है। प्रकृति के साथ मनुष्य का रिश्ता बिल्कुल ट्रस्टी सिद्घांत (गांधी द्वारा प्रस्तावित वर्गीय ट्रस्टीशिप जैसा नहीं) पर आधारित है, जहां हर एक मनुष्य इस पृथ्वी के ट्रस्टी के समान है। अमरीकी आदिवासियों की अवधारणा ही है कि किसी भी इंसान अथवा इंसानों के समूह का इस पृथ्वी माँ के किसी भी अंश पर सार्वभौमिक अधिकार है, एक मिथक है, जो श्वेत मनुष्य की पैदाइश संबंधी कहानी पर आधारित है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य वहीं तक प्राकृतिक संपदा का सार्वजनिक (व्यक्तिगत नहीं) उपभोग करने का अधिकारी है, जहां तक उसे नुकसान न पहुंचे। इसके उपयोग के साथ मनुष्य की भी प्रतिश्रुति है कि वह इस धरती को अपनी अग्रिम पीढिय़ों को उसी अक्षत रूप में सौपेगा, जिस रूप में उसने प्राप्त की थी। लेकिन नोम चोमस्की के शब्दों में त्रासदी यह है कि 'सात बेहूदे अक्षरों के शब्द (profit) ने मनुष्यता को ही दांव पर लगा...'
जाहिर तौर पर यह मनुष्य की अपनी पहली प्रतिज्ञा के साथ वादाखिलाफी है।
इस प्राथमिक वादखिलाफी के अलावा भी इसके ढेरों उदाहरण मौजूद हैं। यह वादाखिलाफी उस संविदा के साथ है, जिसकी शर्तों या प्रतिज्ञा के बारे में रूसो ने बताया था। यह वादाखिलाफी संविधाननिर्माओं की ओर से है, जिन्होंने 'हम भारत के लोग...' कहा था, या यह वादाखिलाफी इंदिरा गांधी की ओर से है, जिन्होंने भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' शब्द शामिल करने के साथ की।
इसका मतलब क्या यह है कि एक हाइफन हमारी सभ्यता को ही नष्ट कर देगा? इस सवाल का जवाब खोजने से पहले यह कहना ज़रूरी है कि हिंदुस्तान के इतिहास में 60 की दहाई में एक हाइफन और था, जिसने हिन्दुस्तानी इतिहास में सबसे बड़ा परिवर्तन कर दिया था। यह परिवर्तन दो भिन्न समुदायों, जातियों को एकसूत्र में बांधने की सबसे रचनात्मक हस्तक्षेप की वजह से आया था। गाजी और पुर के बीच हाइफन हटाकर राही मासूम रज़ा ने एक वैकल्पिक इतिहास का ही प्रस्ताव किया था। विस्मय हो सकता है कि इसके आधी सदी बाद इस हाइफन के पुनर्जन्म ने फिर से इतिहास के वैकल्पिक पाठ को जन्म दिया है, लेकिन इस बार यह हर हिंदुस्तानी की कीमत पर है।
(5)
इन सारी निराशाजनक स्थितियों में हमेशा की तरह शास्वत प्रश्न यह है कि विकल्प क्या है (या विकल्प ही नहीं है, और क्या हम 'प्रलय' के लिए अभिशप्त है)?
इस प्रश्न का कोई भी बौद्धिक पूरा उत्तर नहीं दे सकता। यह उत्तर जनता के पास है।
हालांकि अरुंधती रॉय ने थोड़ी तसल्ली के लिए इस प्रश्न का आंशिक उत्तर खोजा है, 'यहां हिंदुस्तान में सारी हिंसा और लालच के बीच अब भी आशा की एक मात्रा है। अगर कोई इस काम को कर सकता है तो हम उसे कर सकते हैं। हमारे पास अब भी एक आबादी है जो पूरी तरह से उपभोक्तावादी सपने का उपनिवेश नहीं बन सकी है। हमारे पास उन जीवंत लोगों की परंपरा है... सबसे महत्व की बात यह है कि हिंदुस्तान में लगभग दस करोड़ आदिवासियों की जीवित आबादी है। वही है जो अब भी पोसने योग्य जीवन के रहस्यों से वाकिफ है।'
संभव है, 'भूल-गलती' लिखते वक्त मुक्तिबोध के मस्तिष्क में इन्हीं लोगों की छवि रही हो,
लेकिन, उधर उस ओर
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ जा पहुंचा,
अंधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पड़ों में,
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि वह बेनाम
बेमालूम दर्रो के इलाके में
(सचाई में सुनहले तेज़ अक्सों के धुंधलके में)
मुहैया कर रहा लक्सर;
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त सर्वणाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जाएगा!!









जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से शोध करने के बाद जितेन्द्र गुप्ता पुणे में एक फ्रीलांसर की तरह जीवन बसर कर रहे हैं। कुछ बहुत ही उल्लेखनीय अनुवाद कार्य ग्रंथ शिल्पी के लिये किया है। 'अकार' का एक विशेष अंक भी संपादित किया है।

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