द डार्क थियेटर

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    जुलाई - 2017
श्रेणी द डार्क थियेटर
संस्करण जुलाई - 2017
लेखक का नाम राजेन्द्र लहरिया





आख्यान





सूत्रधारा - उवाच

आदरणीय प्रेक्षकों!... मुझे आना पड़ा!... क्यों आना पड़ा, यह आप भी समझ रहे होंगे!... आप देख ही रहे हैं, यहाँ कितना अँधेरा है!... यह अँधेरा है कि अंधेरगर्दी! सोचिए ज़रा!... नाटक चल रहा है, और दर्शक-दीर्घा ही नहीं, मंच भी अँधेरे में डूबा है! ...इस स्थिति में आप कैसे देख पायेंगे कि मंच पर क्या किया जा रहा है!... इसीलिए मुझे आना पड़ा! अँधेरे के कारण आप देख नहीं सकते हैं; पर अँधेरे में भी आवाज़ तो सुन ही सकते हैं! इसीलिए मैं आया हूँ... मैं आपको सुनाऊँगा- वह सब सुनाऊँगा, जो मंच पर हो रहा है! ...मंच पर जो कुछ हो रहा है, उसे मैं आपको दिखा तो नहीं सकता; अलबत्ता सुना तो सकता ही हूं... तो लीजिए, मैं आपको, वह सब सुनाना शुरू करता हूँ जो मंच पर हो रहा है - नाटक की भाषा में नहीं, अपनी भाषा में - कहानी की तरह... सीन-दर-सीन...

(1)

...वह आदमी अभी-अभी खेत से लौट कर, अपने घर के आगे बने चबूतरे के किनारे बैठ कर लोटे के पानी से अपने हाथ-मुँह धो रहा था कि तभी उसकी कमीज की जेब में रखा उसका मोबाइल फ़ोन बजने लगा। उसने तुरंत साफी से हाथ पोंछ कर जेब में हाथ डाला और उसमें से निकाल कर अपना पुराना 'NOKIA ११००' सामने किया और उसका रिसीविंग बटन दबा कर, उसे कान से लगा कर कहा, ''हैलो!''
उसके बाद वह कुछ देर तक लगातार फ़ोन को कान से लगाए हुए चुपचाप सुनता रहा; और अंत में, ''ठीक है!'' कह कर जब उसने फोन कान से हटाया, तब उसके चेहरे का रंग बदला हुआ था- उसके चेहरे का वह बदला हुआ रंग उल्लास और उछाट प्रकट कर रहा था; इसके साथ ही उसके भीतर की ख़ुशी की उठती-उमगती लहरें उसकी भाव-भंगिमा में दृष्टिगोचर हो रही थीं! कुछ देर तक वह उसी स्थिति में रहा- जैसे उसके तईं समय एक जगह पर ठहर गया हो! कुछ देर बाद उसने चबूतरे पर रखा पानी का लोटा उठाया; और वह घर के भीतर को चल दिया। भीतर की तरफ़ जाते हुए उसके ज़ेहन में यह चल रहा था कि वह अपने भीतर की ख़ुशी को कैसे बयान करे! यह तो उसके तईं तय था कि वह अपनी ख़ुशी को सबसे पहले अपनी पत्नी को ही बतायेगा; किंतु वह यह तय नहीं कर पा रहा था कि बतायेगा किस तरह से और कैसे?...
दरअसल वह एक ऐसा आदमी था जिसे प्राय: ऐसी ख़ुशी का अवसर कभी हासिल ही नहीं हो पाता है! वह एक कॉमनमैन जो ठहरा! वह तो यही देखता-सुनता आया था कि उसके देश का आदमी हमेशा 'आम' ही बने रहने को अभिशप्त होता है! और इसके ठीक उलट कुछ लोग, जो ख़ास होते हैं वे, हमेशा 'खास' होने का ही जैसे वरदान पाये रहते हैं! उसके देश के आम आदमी यानी 'कॉमनमैन' के हाथ में तो बस 'मताधिकार' नाम का एक 'झुनझुना' होता है, जिसे 'बजा-बजा कर' वह अपने धनबली-जातिबली-धर्मबली-बाहुबली 'शासक' का स्वागत करता रहता है! उसके देश का आम आदमी और कुछ भी बन सकता है; परन्तु 'खास' नहीं बन सकता! खास, यानी 'शासक', 'लीडर', 'नेता' नहीं बन सकता! यही देखता-सुनता आया था वह हमेशा से। पर आज उसे अपना वह देखा-सुना असत्य लग रहा था। थोड़ी देर पहले उसने फ़ोन पर जो कुछ सुना था, उसी ने उसके अब तक के देखे-सुने को जैसे ध्वस्त कर दिया था।
वह यही सब सोचता हुआ चल कर घर के भीतर पहुँचा, तो आँगन में ही उसका सामना पत्नी से हो गया। वह कुछ क्षणों तक पसोपेश में रहा; फिर उसने निश्चित किया कि वह अपने भीतर की दुर्लभ ख़ुशी को एक ही झटके में खोल कर खत्म नहीं करेगा; इसलिए उसने उस समय पत्नी से कन्नी काट ली; और तय किया कि उसे वह रात को खाना खाने के बाद फुरसत में ही बतायेगा, जिससे कि उस विषय में विस्तार से बातें हो पायेंगी। और उसके बाद वह दिन भर अपने भीतर की खुशी में मस्त-व्यस्त बना रहा। उसकी हालत दिन भर कुछ इस तरह की रही कि 'गुरबत में मिली पीतर; बाहिर धरौं कि भीतर!' उसके कानों में दिन भर गूँजता रहा, '... अब दयाल भाई, दिल्ली को आपकी जरुरत आन पड़ी है... पार्टी ने तय किया है कि आपको कुछ महत्त्व का काम दिया जाये... इसलिए मैंने आपको सूचित करने के लिए यह फोन किया है... आप आ जाइये दिल्ली!'
'दयाल भाई' सम्बोधन मिला था उसे फ़ोन पर। उसका नाम दयालदास था। पर गांव में उसे 'दयालू' कहा-पुकारा जाता था। और यह 'दयाल भाई'! कितना सम्मानपूर्ण सम्बोधन! बेशक वह पढ़ा-लिखा आदमी था - बीए और एलएलबी किया था उसने एक ज़माने में - बीए करने के बाद, एलएलबी उसने वकालत करने के उद्देश्य से नहीं; बल्कि इसलिए किया था कि नियम-क़ानून की जानकारी हासिल हो सके! तो वह कला-स्नातक और क़ानून-स्नातक की डिग्रियाँ प्राप्त करने के बाद गाँव आ गया था; और तभी से अपना खेती-किसानी का काम करता आ रहा था - गाँव से मिले 'दयालू' सम्बोधन को स्वीकारे हुए।
उसके परिवार के पास एक छोटे किसान की हैसियत योग्य कृषि-भूमि रही आई थी। उसका परिवार छोटा ही था। उसका एक बेटा था, जो दूर के एक शहर में किरानी की नौकरी करते हुए वहीं रहता था; और उसकी एक बेटी थी, जो यथासमय शादीशुदा होकर अपनी ससुराल में थी। गाँव में वह अपनी पत्नी के साथ रहता था- लगभग एक-जैसे बँधे-बँधाये दिनों को गुज़ारता हुआ!
पर आज का दिन उसके लिए, पिछले बँधे-बँधाये दिनों से अलग था।
वह पूरा दिन उसने ख़ुशी के समंदर में डूबते-उतराते हुए बिताया।
रात को ब्यारू करने के बाद वह घर की छत पर चला गया। गर्मियाँ थीं; इसलिए वे पति-पत्नी उन दिनों छत पर ही सोते थे।
घर के कामकाज से निबटने के बाद उसकी पत्नी भी छत पर बिछी अपनी खाट पर आ गई।
दिन में लू की लपटें उड़ाती हवा, रात में शांत और सुहानी लग रही थी। गाँव की फ़ज़ा में अब तक सन्नाटा पसर चुका था। रात की फ़ितरत में शामिल अधअंधेरा -अधउजास छत पर क़ायम था। छत के ऊपर बिछी दो खाटों में से एक पर बैठे दयालू ने, बग़ल की खाट पर बैठी हुई अपनी पत्नी से कहा, ''सुनती हो...''
''हाँऽ... का है?...'' पत्नी ने कहा।
''मुझे दिल्ली जाना है।''
''दिल्ली?''
''हाँ...''
''काए?''
''वहाँ मुझे एक पद मिलने वाला है- बद्री की पार्टी में!.. बद्री को जानती हो तुम?''
''हाँऽऽऽ... वही... सही याद है तुम्हें... अब वही बद्री बहुत बड़ा आदमी है दिल्ली में... कहीं से कहाँ पहुँच गया वह! और हम झाँ के झईं डरे रहे!.... पर अब लग रहा है कि हमारी ऊ कुछ इज्जत-वकत बनने वाली है... दिल्ली से बद्री ने फोन किया था कि उसकी पार्टी को मेरी जरूरत पड़ रही है... कुछ महत्वपूर्ण काम देना चाहती है पार्टी मुझे... इसीलिए दिल्ली बुलाया है मुझे!''
''तुम्हारी का जरूरत पर रई ऐ बिन्हें?.... तुम तौ पहलें कबऊँ पाटी-फाटी में गये नहीं औ!... और महत्वपूरन कामु...?'' उसकी पत्नी ने कहा; उसकी कहन में जिज्ञासा और आशंका घुली-मिली हुई थीं।
''अब इतना तो बताया नहीं था अभी बद्री ने।'' दयालू ने पत्नी से कहा, ''पर इतनों तौ सोचि, कि कई सालिन ते मेरौ मोबाइल नंबर सम्हाल के रखें रहौ... लगभग पांच-छह साल पहलें शहर में मिलौ ओ एक कार्यक्रम में। तब मेरौ मौबाइल नंबर लओ बानें। बाके बाद तौ मिलबौ भऔ नहीं अब तक। पर अब इतने साल बाद फोन करो बाने... कही, 'दयाल भाई... आप आ जाइए दिल्ली!'....''
''तौ फिर... अब...?'' उसकी पत्नी फिर सवाल के साथ थी।
''अब क्या?... ऐसे मौके क्या बार-बार आउतएं।'' दयालू ने कहा, ''जाने की ही सोची है.... देखौ नहीं है, नेताओं की कितनी आवभगत होतै, पूछ-पहुँच होतै... अब ऐसा अवसर मिल रहा है, तो चला जाऊँगा!''
सुन कर उसकी पत्नी ने मद्धम आवाज़ में कहा, ''ठीक ऐ...'' ....

और फिर दयालू दिल्ली जाने के लिए तैयार था। सब कुछ सोच लिया था उसने - क्या-क्या सामान साथ ले कर जाना है; कौन-से कपड़े पहनना है, कौन-कौन से रखकर ले जाना है; किस गाड़ी से जाना है, वगैरह-वगैरह।
दयालू के भीतर तभी से उछात की हिलोरें-सी उठ रही थीं जब से उसके पास दिल्ली से बुलावा आया था। दिल्ली उसके लिए महज़ कोई नगर या महानगर नहीं था; बल्कि एक सपना था- ऐसा सपना, जो हमेशा सुंदर होता था! और अब उसे लग रहा था कि उसका सपना सच होने जा रहा है!... उस वक़्त जब मोबाइल फ़ोन की घंटी बजने पर उसने उसे कान से लगा कर 'हैलो' कहा था, तो उधर से जवाबी आवाज़ ने उसे रोमांच से भर दिया था... वह सुन रहा था, ''दयाल भाई, बद्री बोल रहा हूँ दिल्ली से... बद्री बैरागी... अब दयाल भाई, दिल्ली को आपकी जरूरत आन पड़ी है... आ जाइये!...'' बद्री ने मोबाइल फोन पर विस्तार से बताते हुए उसे आश्वस्त किया था कि अब 'उसका सपना' सच होने जा रहा है, ''हां दयाल भाई, पार्टी ने तय किया है कि आपको कुछ महत्त्व का काम दिया जाये... इसलिए मैंने आपको सूचित करने के लिए ही यह फोन किया है... आप आ जाइये दिल्ली!....''
यह सुनकर दयालू के जैसे पंख लग गये थे। दरअसल शुरुआत से ही दयालू का पसंदीदा फील्ड राजनीति रहा आया था। इसकी उसके तईं एक ख़ास वजह यह थी कि वह देखता आया था कि समाज में जैसा, जितना और जो सम्मान राजनीति से जुड़े व्यक्ति को मिलता है वैसा और उतना सम्मान दूसरे किसी भी फील्ड के व्यक्ति को नहीं मिलता! राजनीति का तो एक 'छुटभैया' यानी गली या नुक्कड़ का कार्यकत्र्ता भी लोगों की सलामें हासिल करता रहता है! ... तो उसका यह 'देखा हुआ' ही उसे राजनीति की तरफ़ आकर्षित करता रहा था। अलबत्ता यह दीगर बात थी कि अब तक उसे राजनीति से जुडऩे का कोई क़ायदे का अवसर नहीं हासिल हुआ था।
और अब जब उसे अचानक ऐसा अवसर मिलने जा रहा था- वह भी देश की राजधानी से - तो वह उछाह और ख़ुशी से भरा हुआ था।
उसे यह बुलावा बड़े मुफ़ीद समय में आया हुआ लग रहा था; क्योंकि फ़सल-कटाई के बाद खलिहान भी उठ चुके थे और खेती-किसानी का काम पूरी तरह निबट चुका था; इसलिए वह फ्री था!
इसके साथ ही उसकी ख़ुशी में इज़ाफ़ा करने वाली बात यह थी कि खुद बद्री ने फ़ोन करके उसे बुलावा दिया था। बद्री के बारे में वह जानता था कि इन दिनों वह दिल्ली में 'पार्टी' के एक बड़े ओहदे पर तैनात था!

बद्री बैरागी बुनियादी रूप से दयालू के ही गाँव का रहने वाला था। बद्री और दयालू तक़रीबन हमउम्र थे: बद्री की उम्र लगभग तिरेसठ-चौंसठ साल थी और दयालू की बासठ-तिरेसठ साल। बचपन में दोनों गाँव के स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ते थे। ...अलबत्ता इधर उससे दयालू को मिले अरसा हो चुका था। मिलना संभव भी कैसे होता, जबकि दयालू गाँव का हो कर रह गया था, और बद्री बहुतेरे टेढ़े-मेढ़े रस्ते नापता हुआ दिल्ली पहुँच चुका था!
बद्री की फ़ितरत ही कुछ ऐसी रही आई थी कि उसका एक पाँव गाँव में रहा, तो दूसरा 'आनगाँव' में! ...उसके जीवन का ज़्यादातर समय गाँव और घर से दूर और बीच-बीच की आवाजाही में ही बीता था...
...बद्री का ब्याह तक़रीबन पंद्रह-सोलह साल की उम्र में तभी हो गया था जब उसने मिडिल स्कूल की आठवीं कक्षा पास की थी। ब्याह के कुछ ही समय बाद, एक दिन पता चला कि बद्री घर पर नहीं है; बल्कि घर ही नहीं, गाँव में भी नहीं है! तो उसके माता-पिता हैरान-परेशान हो उठे थे। उसके बाद उसकी ढूंड़-तलाश शुरु हुई थी: पहले आसपास के गाँवों में उसे तलाशा गया; उसके बाद परिचितों-रिश्तेदारों में पूछताछ की गई; पर उसका कहीं भी पता नहीं चला था। तब उसके पिता गिरवरलाल बैरागी लगभग सदमे की स्थिति में जा पहुँचे थे कि आखिर कहाँ चला गया उनका बेटा।
गिरवरलाल बैरागी गाँव के ऐसे लोगों में थे, जिनकी गाँव में कुछ हैसियत थी, थोड़ी-बहुत इज़्ज़त और पूछ होती थी। गाँव में उनका पक्का मकान था; मौजे में एक बैलजोड़ी की खेती की ज़मीन थी। बद्री उनका इकलौता बेटा था! बेटे के गुम हो जाने के कारण वे बेआवाज़ से हो गये थे, और उनकी पत्नी, यानी बद्री की मां हमेशा आँसू ढारती रहती थी; और उनकी बहू, यानी बद्री की नवविवाहिता पत्नी- जिसकी उम्र लगभग चौदह-पंद्रह वर्ष थी- अपने भीतर ही भीतर घुटती रहती थी!...
उसके बाद, दिन बदलते-बदलते महीनों में तब्दील होते रहे और महीने वर्षों में; पर बद्री का कोई अता-पता नहीं था।
इस दरमियान इतना समय गुज़र गया कि लोगों के चेहरे ही नहीं, खुद समय का भी चेहरा बदल गया था - बीस साल से ऊपर समय बीत गया था; और इस दरमियान गांव में साफ़-साफ़ दीखते बदलाव तो यही थे कि गाँव के ज़्यादातर किसानों के हल-बखर और बैलों की जगह ट्रैक्टरों ने ले ली थी; कि कुछ लोगों के पास साइकलों की जगह मोटरसाइकलें आ गई थीं; कि गाँव की गलियों में बिजली के खंभे गड़ गये थे और उन पर कसे तारों में कुछ-एक घंटों तक बिजली भी रहने लगी थी जिसके चलते गाँव के कुछ-एक घरों में ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी सैट लग गये थे जिनके एण्टेना घरों की छतों पर खड़े दिखाई देते थे; और इस दरमियान गांव के लोगों में जैविक रूप से जो परिवर्तन हुए थे, वे ये थे कि नौजवान बड़े तो गये थे, जवान प्रौढ़ और बूढ़े! इसी दरमियान दयालू शादीशुदा होकर दो बच्चों का बाप बन चुका था; और उसके दोनों बच्चे-बारह साल की बेटी और नौ साल का बेटा- गाँव के स्कूल में पढऩे जाते थे; इसी दरमियान दयालू ने खेती करने के लिए बैंक से कर्ज़  लेकर एक एचएमटी 2511 ट्रैक्टर ले लिया था; और इसी दरमियान बद्री के पिता गिरवरलाल दुनिया छोड़ गये थे - वे अपने इकलौते बेटे के गुम हो जाने के दु:ख और वापस न लौटने की हताशा में धीरे-धीरे घुलते गये और कुछ वर्षों के भीतर दिवगंत हो गये थे; इस दरमियान बद्री की माँ बुढ़ापे की ओर बढ़ती हुई वैधव्य जीती रही थी और बद्री की पत्नी धीरे-धीरे जवानी की तरफ़ बढ़ती हुई लगभग वृद्धाओं/विधवाओं - जैसी बेरंग और बदनुमा ज़िन्दगी को ढोती रही थी...
गाँव ने तक़रीबन बीस साल लंबा समय झेल लिया था और वह अपनी चाल से चल रहा था कि अचानक एक दिन बद्री लौटकर गाँव में आ गया था; पर ऐसे रुप में कि एकबारगी पहचाना नहीं जा सका था। दरअसल वह ऐसा हुलिया लेकर लौटा था कि उसकी पुरानी शिनाख्त गुम थी! क़रीब बीस बरस पहले गाँव से जाते वक़्त की उनकी किशोर-दुबली देह अब भरी हुई थी; गाँव छोड़ते समय उसके सिर के क़रीने से कटे काले बालों की जगह अब सिर की हँडियानुमा घुटी हुई खोपड़ी नुमायां थी; और गाँव से गायब होने के समय का उसका मासूमियत भरा गोरा किशोर चेहरा अब किसी बुलडॉग के चेहरे-जैसा लगता था; और अपनी देह पर जिन कपड़ों को पहने वह गाँव से गुम हुआ था उसकी जगह अब उसकी देह पर गेरुआ रंग का चोगा था! पर इस सबके बावजूद अंतत: वह अपने बचपन के दोस्त दयालदास उर्फ दयालू के द्वारा पहचान लिये जाने से नहीं बच सका था- दयालू ने उसके सामने पहुँचते ही उसे पहचान लिया था: उस दिन बद्री गाँव तो लौटा था, पर अपने घर पहँुचने की बजाय गाँव किनारे मौजूद पीपल वाले महादेव के चबूतरे पर अपना आसन जमा कर बैठ गया था... उस दिन हुआ यह था कि पीपल वाले महादेव के चबूतरे पर एक 'साधूबाबा' को आया देखकर वहाँ गाँव के लोग और लड़के-बच्चे पहुँचने लगे थे; और गाँव-गँवइयत की रवाइत के अनुसार 'साधू बाबा' के पैर छू-छू कर उसके इर्द-गिर्द जमा बने हुए थे। कुछ देर बाद यह ख़बर पाकर दयालू भी वहाँ पहुँचा था, तो उसे वहाँ मौजूद 'साधू बाबा' के चेहरे में एक परिचित चेहरा मौजूद नज़र आया था; और उसे उस चेहरे में मौजूद बद्री बैरागी को पहचानने में तनिक भी देर नहीं लगी थी। अलबत्ता बद्री बैरागी को उस रुप में देखकर दयालू हैरत में पड़ गया था - ख़ास कर यह देखकर की बद्री अपने ही गाँव के लोगों और खुद दयालू के वहाँ होने के बावजूद, गोया मुँह सिये हुए बैठा, किसी की तरफ़ देख भी नहीं रहा था। उसकी बग़ल में कपड़े का बना एक झोला रखा था; और वह चबूतरे पर बिछी आसनी पर पालथी मारे बैठा अपनी नाक की सीध देखे जा रहा था। उन हालात में, थोड़ी देर तक दयालू वहाँ अन्य लोगों के साथ खड़ा रहा; फिर उससे रहा नहीं गया, तो वह, चबूतरे पर मौन साधे बैठे बद्री के सामने पहुँचा और उससे बोला था, ''बद्री, तुम्हें अपने पिताजी के बारे में मालूम है कि नहीं?...''
यह सुन कर बद्री ने पल भर को दयालू की तरफ़ देखा था और फिर पूर्ववत् हो गया था।
''वे अब इस दुनिया में नहीं हैं....'' दयालू ने बद्री से आगे कहा था।
सुन कर बद्री ने एक बार फिर दयालू के मुँह की ओर देखा था और कुछ पलों तक देखता ही रहा था। उसके बाद वह फिर निरुद्विग्न चेहरे के साथ पूर्ववत् हो गया था।
पर इसके बाद गांव भर को यह पता लग गया था कि पीपल वाले महादेव के चबूतरे पर आया 'साधू बाबा' कोई और नहीं, बल्कि गिरवरलाल बैरागी का लगभग बीस साल पहले घर छोड़ कर चला गया लड़का बद्री है!...
और फिर हुआ यह कि ख़बर पाकर बद्री की माँ पीपलवाले महादेव के चबूतरे तक दौड़ी-दौड़ी पहुँची थी और वहाँ अपने बेटे को उस रुप में बैठा देख कर डकरा-डकरा कर रोई थी।... उसके थोड़ी देर बाद, बद्री अपने झोला-आसनी काँख में दबाये अपनी माँ के पीछे-पीछे अपने घर की तरफ खरामा-खरामा चला जा रहा था। उसके पीछे गाँव के लोगों की भीड़ चल रही थी।
घर पहुंच कर बद्री ने बाहर की तरफ खुलने वाले, घर के उस बैठके में अपना आसन और झोला-झंडा जमा लिया था, जिसमें घर के भीतर की तरफ़ जाने का दरवाज़ा नहीं था।
और उस दिन की शाम तक गाँव के लोगों की भीड़ बद्री के घर के दरवाज़े और बैठके के आसपास बनी रही थी- बद्री के बाबा रूप को लेकर पैदा हुई जिज्ञासा के साथ। अँधेरा घिरने के साथ-साथ गांव के लोग अपने-अपने घरों की ओर चले गये थे। संभवत: तब तक उनके भीतर की जिज्ञासा शांत और तिरोहित हो चुकी थी।
उस दिन की रात बद्री की माँ ने बैठके में मौजूद अपने बेटे को पल भर के लिए भी नहीं छोड़ा था। वह उसी के पास रात भर बैठी आँसू बहाती हुई, उससे पूछती रही थी कि वह कहाँ चला गया था, और क्यों चला गया था, और उसने यह बाबा का रूप क्यों धर लिया है? पर बद्री की तरफ़ से उसे उसके सवालों का कोई जवाब नहीं मिल रहा था। बद्री तो रात भर अपनी आसनी पर सीधा तना मौन बैठा रहा था। उसने, अपनी माँ के सवालों के जवाब देना तो दूर की बात है, उसकी तरफ़ निगाह उठा कर देखा तक नहीं था। वह तो किसी ऐेसे स्थितप्रज्ञ की तरह व्यवहार कर रहा था जिसे संसार का तत्व ज्ञान प्राप्त हो चुका हो और जिसका रिश्ते-नातों से कोई वास्ता न रह गया हो! उसकी माँ, जो अपने पति को पहले ही असमय खो चुकी थी, अपने बेटे की हालत देख-देख कर ऐसी विह्वल थी कि उसे बेेटे की भूख-प्यास के बाबत बात करने का भी ख़्याल नहीं रहा था...
उधर घर के भीतर मौजूद बद्री की पत्नी ने भी वह रात अपनी आँखों में काटी थी। अलबत्ता वह बैठके में झाँकने तक नहीं आई। दरअसल उसके भीतर की दुनिया तो बहुत पहले ही वीरान हो चुकी थी; अब वह समझ नहीं पा रही थी कि अपने भीतर की उस वीरानी से कैसे बाहर निकले!
तो इन हालात में, रात बीत गयी थी; और अब पौ फटे का उजास फैल रहा था। यह देख कर अचानक बद्री की माँ का हवास लौटा कि पूरी एक रात यों ही बीत गई है और उसने इतने समय के बाद घर लौटे अपने बेटे की भूख-प्यास के बारे में सोचा तक नहीं! वह झटपट उठी और घर के भीतर चली गई और कुछ देरे बाद फिर लौट कर बैठके में अपने बेटे के पास आ गई थी।
सबेरा हो जाने के बाद गाँव के कुछ लोग द्वार पर आ गये थे, जिनमें दयालू भी था। थोड़ी देर में दयालू बैठके के भीतर आ कर बद्री के सामने पहुँचा था। उसने देखा कि बद्री उसी मुद्रा में आसान पर बैठा था जिसमें उसे बैठा छोड़कर वह रात में अपने घर गया था।
बद्री की माँ ने दयालू को बैठके में आ गया देखने के कुछ पलों बाद उससे कहा था, ''दयालू, देख तौ भीतर... रोटी बन गई हो तौ लै कें आ बद्री के काजें।''
सुनकर दयालू घर के भीतर चला गया; और जब लौट कर आया तो उसके एक हाथ में काँसे की थाली में परोसा खाना था और दूसरे हाथ में पानी से भरा लोटा। उसने खाने की थाली और पानी का लोटा बद्री के सामने रख दिये।
बद्री ने अपने सामने रख दी गई थाली के खाने को एक निगाह डाल कर देखा; उसके बाद वह फिर पहले की तरह सीधा-सामने देखने लगा था जैसे कि उसे खाने से कोई मतलब ही न हो!
उसकी मां थोड़ी देर तक उसे उस तरह खाने से मुँह फेरे हुए बैठा देखती रही; उसके बाद बोली, ''बेटा, लै, खानों खाइ लै अब...'' कहते हुए उसने खाने की थाली बद्री के और पास सरका दी थी।
बद्री फिर भी यथावत् बैठा रहा।
यह देखकर दयालू ने उससे कहा, ''बद्री, अब खाना तो खा लो... तुम्हारे मन में जो भी बात हो, उसे काकी से न सही, मुझसे तो कह सकते हो... पर पहले खाना खा लो... सामने आये भोजन का निरादर नहीं करना चाहिए...''
''हां, बेटा, सही कह रहा है दयालू...'' बद्री की माँ ने दयालू की बात को आगे बढ़ेते हुए मनुहार किया, ''खानो खाइ लै बेटा!''
सुन कर बद्री ने एक बार फिर अपने सामने रखी थाली में परोसी हुई पूडिय़ों, सब्ज़ी और खीर को देखा था। उसके बाद उसके हाथ हरकत में आ गये थे: सबसे पहले उसने लौटे में रखे पानी से आचमन किया; उसके बाद वह थाली में रखा खाना खाने लगा: थाली में रखी पूडिय़ाँ उसने ऐसी त्वरा के साथ ख़त्म कर दीं गोया बरसों का भूखा हो; उसके बाद कटोरे की खीर खाने लगा था।
उसकी माँ ने यह देखकर दयालू की तरफ़ देखा, ''और लै आ दयालू!''
''नहीं, बस्स!'' बद्री ने कहा। उसके मुँह से अनायास ही निकले इन दो शब्दों ने उसकी माँ को ऐसी तसल्ली से भर दिया जिसके लिए वह बरसों से तरस रही थी। वे 'नहीं, बस्स' सिर्फ दो शब्द भर नहीं थे जो तक़रीबन बीस सालों के बाद लौटे अपने बेटे के मुँह से उसकी माँ ने सुने थे, बल्कि वह एक 'आवाज़' थी जो लगभग बीस बरसों के अंतराल में एक किशोर-पिनपिनी आवाज़ से जवान-भारी-नकसुरी और खरखरी आवाज़ में बदली हुई, एक माँ को सम्बोधित आवाज़ थी!
बद्री की माँ अपने बेटे की इच्छा के विपरीत कुछ भी नहीं बोलना चाहती थी; इसलिए उसने कहा, ''ठीक है बेटा, बाद में खाइ लियौ... अबै आराम करौ उठि कें पलिका पै।'' कहते हुए उसने बैठके में पड़े निबाड़ से बुने उस पलंग की ओर हाथ से इशारा किया, जिसके सिरहाने की तरफ़ मुड़ा हुआ गद्दा और तकिया रखे थे। वह उठी और उसने पलंग के पास जाकर उसके सिरहाने रखा गद्दा बिछा कर तकिया लगा दिया; और बद्री से फिर कहा, ''राति पूरी बैठें-बैठें ही निकार दई... अब आराम करि लेउ!''
सुन कर बद्री आसन से उठा और पलंग की ओर बढ़ चला था।
यह देख कर उसकी माँ और दयालू बैठके के बाहर निकल गये थे।
उसके बाद के दिनों में बद्री के घर का बैठका ही उसका निवास और 'अड्डा' बना रहा था। वह बैठके में ही खाता; बैठके में ही गाँव के लोगों से मिलता-बतियाता; और बैठके में ही सोता था। सबेरे वह बैठके से लोटा ले कर खेत-फरागत और नहाने-धोने के लिए निकलता; और लौट कर फिर बैठके में ही आ जाता। घर के भीतर से उसका खाना-पानी बैठके में ही आ जाता और बैठके से जूठे-खाली बर्तन साफ़ होने के लिए घर के भीतर चले जाते। उसके लिए खाना, पानी और चाय वगैरह लेकर उसकी माँ ही बैठके में आती थी; और वही ख़ाली बर्तनों को वापस ले जाती थी। इस दरमियान न बद्री कभी घर के भीतर गया था; न ही उसकी पत्नी घर के भीतर से निकल कर बैठके तक आई थी।
तो इस प्रकार से एक-एक कर दिन गुज़र रहे थे।
और होली का त्योहार आ गया था।
उस दिन फागुन की पूर्णमासी थी - होलिका दहन की रात्रि! उस रात में गाँव के आसमान पर पूनों का चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ खिला हुआ था और गाँव के चप्प-चप्पे पर उसकी मलमल की तरह झीनी-उज्जवल-धवल चाँदनी फैली हुई थी।
गांव के हर घर की तरह बद्री के घर के आँगन में भी उस रात गोबर की बनी सूखी गूलरियों के साथ होलिका-दहन बद्री की माँ और पत्नी ने किया था। बद्री उस होलिका-दहन के वक़्त भी घर के भीतर नहीं गया था। वह बैठके में ही रहा था। उसका खाना बैठके में ही आ गया था। खाना खा लेने के बाद, वह कुछ देर तक, बैठके में आ गये गाँव के लोगों के साथ बतियाता-गपियाता रहा था। फिर उनके चले जाने के बाद अपने पलंग पर पसर कर सो गया था।
घर के भीतर बद्री की माँ भी निबट कर अपनी खाट पर सो गई थी।
पर उसी घर में, पूनों की उस चाँदनी भरी रात में, बद्री की पत्नी की आँखों में नींद नहीं थी - वह अपनी खाट पर लेटी हुई, खुली आँखों से एक 'दृश्य' देख रही थी जो बार-बार उसके ज़ेहन में आकार ले रहा था और उसकी आँखों तक नींद को नहीं आने दे रहा था। अंतत: वह अपनी खाट पर उठ कर बैठ गई; और कुछ देर तक सोचने-विचारने के बाद, घर के उस कमरे की तरफ चली गई, जिसमें उसका बक्सा और अन्य सामान रखा रहता था। कमरे में पहुँच कर उसने ढिबरी जलाई। एक हल्का पीला उजाला कमरे में हो गया। उस उजाले में उसने अपना बक्सा खोला, और उसके भीतर से अपना वह धराऊ जोड़ा निकाल लिया जो उसके ब्याह के समय का था। उसके बाद उसने अपनी देह पर पहने हुए साड़ी-ब्लाउज़ उतार कर एक तरफ़ रख दिये; और उसके स्थान पर शादी का वह धराऊ जोड़ा पहन लिया। उसके बाद उसने काजल की डिबिया निकाल कर आँखों में काजल आँजा था; कंघी उठाकर बाल सम्हाले थे; सिंदूर की डिबिया खोल कर माँग में सिंदूर भरा था। उसके बाद दर्पण लेकर अपना मुँह निहारा था: ढिबरी की पीली रौशनी में चेहरे के साथ-साथ माँग में भरा लाल सुर्ख सिंदूर दमक रहा था।... उसके बाद उसने अपने पैरों में पहनी हुई पायलें उतार कर बक्से में रख दीं; क्योंकि उन पायलों में लगे छोटे-छोटे चाँदी के घुँघरू चलते समय आवाज़ करते थे। उसके बाद वह पैरों में कुछ भी पहने बिना दबे पाँव-बेआवाज़ घर के मुख्य दरवाज़े से होकर बाहर निकल गई थी। अब उसके बेआवाज़ पैर उस जानिब बढ़ रहे थे जिधर घर के बैठेके का दरवाज़ा था। बैठके के खुले दरवाज़े के भीतर क़दम रखने के बाद वह कुछ पलों तक ठिठककर रुकी रही। फिर उसने मुड़ कर दरवाज़े के बाहर देखा: बाहर पूर्णमासी की जुन्हैया बिखरी हुई थी, जिसका किंचित उजास बैठके के भीतर तक आभासित था। उस उजास में उसके बैठके के भीतर आगे क़दम बढ़ाये और बिना आवाज़ किये वह कुछ ही पलों में उस पलंग के पास जा खड़ी हुई, जिस पर बद्री चित्त पड़ा बेसुध सोया हुआ था। बैठके के भीतर फैले हल्के उजास में उसने पलंग पर सोये हुए आदमी के चेहरे पर नज़र डाली, तो एक बारगी वह हैरत में पड़ गई; क्योंकि अपने सामने जिस चेहरे को वह देख रही थी, वह, वह चेहरा नहीं था जिसे उसने ब्याह के बाद देखा था - वह, वह चेहरा नहीं था जिसे उसने ब्याह के बाद के दिनों में अपने पति के रूप में पहचाना था! वह तो उसके लिए एक अपरिचित चेहरा था: सिर की खोपड़ी पर छोटे-छोटे खड़े-खड़े से बाल, ठोड़ी और गालों की जगह भी वैसे ही बालों से भरी; और इस सबके साथ चेहरे की बनावट ऐसी लग रही थी जैसी किसी जंगली बिलार की होती है! वह भीतर ही भीतर काँप उठी; और उन्हीं पैरों वहाँ से लौट पड़ी - लौटते हुए उसकी देह काँप रही थी। वह जिस तरह दबे पाँव घर के भीतर से बाहर बैठके तक आई थी, उसी तरह बैठके से लौटकर घर के भीतर घुसी और उस कमरे के भीतर पहुँची थी, जिसमें रखे बक्से से निकालकर उसने धराऊ जोड़ा पहना था और अपना साज-श्रंृगार किया था। कमरे में पहुँचते ही उसने बिना ढिबरी जलाये ही, अपनी देह पर पहना धराऊ जोड़ा उतार कर बक्से में पटक दिया था। उसके बाद अपने पुराने साड़ी-ब्लाउज़ पहनकर लिये थे, पैरों में पायलें अटका ली थीं और वह अपनी खाट पर लौट आई थी।
उसके बाद, उस बची हुई रात में खाट पर लेटी रही बद्री की पत्नी की आँखों में पल भर को भी नींद नहीं आई थी!
कुछ घंटों बाद सबेरा हो गया था - चैत महीने के पहले दिन का सबेरा; और होली के त्यौहार के दूसरे दिन का सबेरा!

बद्री फागुन लगते गाँव लौटा था; और अब चैत निकल कर बैसाख का दूसरा पखवारा चल रहा था। इस दरमियान बद्री ने अपने शरीर पर धारण किये रूप को धीरे केंचुल की तरह छोड़ दिया था।
अब बद्री के शरीर पर पैन्ट-शर्ट, सिर पर कटिंग से संवरे कंघी किये हुए बाल और पैरों में पॉलिश से चमकते जूते रहते थे। अलबत्ता अपनी रिहाइश वह अब भी बैठके में ही बनाये हुए था। पर अब बैठके के भीतर के रंग-ढंग बदले हुए थे - वैसे ही जैसे बद्री के रंग-ढंग बदले हुए थे! बद्री के रंग-ढंग अब ऐसे थे कि अगर जिस किसी ने उसको 'साधू बाबा' बनकर लौटा नहीं देखा हो, तो वह कभी  कल्पना भी नहीं कर सकता कि बद्री कभी 'साधू बाबा' के रूप में रहा होगा।
अब बद्री का बैठका दिन की शुरुआत से लेकर देर रात गये तक गाँव के कुछ ऐसे लेगों से आबाद बना रहता था, जिन्हें बद्री ने अपनी 'कलाकारी' से अपना मुरीद बना लिया था। गँव के उन्हीं लोगों में से एक दयालू भी था!
दयालू अक्सर देखता और महसूस करता था कि बद्री के बात करने में कुछ ऐसा 'जादू' था कि उसे सुनने वाला हिल तक नहीं पाता था। जब वह बोलता था तो उसके वाक्यों में ज़रूरत के हिसाब से वाल्यूम का उतार और चढ़ाव रहता था। किस बात को किस तरह बोलना है, किस शब्द पर ज़ोर डालना है, किस शब्द को धीमी आवाज़ में बोलना है, किसे फुसफुसा कर, और किसे ऊंचे सुर में - इसकी उसे समझ ही नहीं, बल्कि महारत हासिल थी। बात करते समय आवश्यकतानुसार आरोह-अवरोह और बोले गये शब्दों पर किये गये बलाघात और स्वराघात से वह सुनने वाले को जैसे शिकंजे में जकड़ लेता था।
दयालू बद्री के इस वाक्चतुर रूप को देखता, तो सोचता था कि स्कूल में साथ पढऩे वाला वह बद्री जो बहुत कम बोलता था - और यदि कभी बोलता भी, तो मिनमिनाती-लडख़ड़ाती-सी भाषा बोली में - वह अब इस कदर वाक्पटु और वाचाल कैसे और किस तरह से हो गया!
एक दिन उसने इस बाबत बद्री से पूछ ही लिया। उस दिन बैठका में बद्री के साथ अकेला दयालू था, तो उसने अपनी जिज्ञासा सीधे-सीधे बद्री के सामने प्रकट कर दी, ''बद्री भाई, एक बात बताओ कि ये बोलने की कला तुमने कहाँ से और कैसे सीखी है?... बोलते हो तो लगता है जैसे जादू कर रहे हो!...''
सुन कर बद्री ने निगाह उठाकर दयालू के मुँह की ओर देखा; और इसके साथ ही उसके मोटे होंठों पर एक महीन मुस्कान झलकी। उसने उसी अलक्ष्य-सी मुस्कान के साथ दयालू से कहा, ''ये सब मैंने जीवन की पाठशाला से सीखा है!''
दयालू ने ग़ौर से बद्री के चेहरे को देखा, जिसकी दायीं भोंह अभी तक किंचित् ऊपर को खिंची हुई थी और जिसके होंठों की मुस्कान अब वक्र नज़र आ रही थी। यह देखकर उसने कहा, ''अरे, बद्री भाई, साफ़-साफ़ बताओ'' जीवन की पाठशाला माने...?
बद्री ने दयालू की बात पूरी होने से पहले ही कहा, ''ईंट-पत्थरों से बनी पाठशाला में तो हम-तुम दोनों ने ही पढ़ाई की थी साथ-साथ! पर असली पढ़ाई तो जीवन की पाठाशाला में ही होती है'', कहते हुए बद्री का चेहरा अचानक पत्थर की तरह सपाट और सख्त दिखने लगा, ''यहाँ से जाने के बाद कैसी-कैसी पाठशालाओं में सबक सीखने को मज़बूर हुआ... कई दिन भूखे रह कर सि$र्फ पानी पीकर काम चलाया! पर चलना बंद नहीं किया! चलता रहा- आगे और आगे! उसी यात्रा के दौरान एक दिन सड़क किनारे एक चाय का ढाबा दिखा। उस चाय-ढाबे पर कुछ लोग बैठे हुए चाय-नाश्ता कर रहे थे। मैं वहाँ पहुँचा, और चुपचाप खड़ा रहा। कुछ देर में ढाबा-मालिक की निगाह मुझ पर पड़ी। तो उसे मेरी हालत देख कर शायद तरस आ गया होगा; इसलिए उसने मुझसे कहा, 'काम करेगा यहाँ?' और उसके बाद उसने चाय से भरा एक कप और डबलरोटी के दो टुकड़े मुझे दिये।... मैंने वे डबलरोटी के टुकड़े पलक झपकते खा लिए और चाय पी। उसके बाद मैं उस चाय-ढाबे पर काम करने लगा। काम था ग्राहकों को चाय-नाश्ता आदि देना और जूठे कप-प्लेट साफ करना। ढाबा-मालिक मेरे काम से संतुष्ट था। वह मुझे दोनों टैम भरपेट भोजन कराता, और दिन में दो बार चाय पीने को देता था। मैंने वहाँ बहुत दिनों तक काम किया!... पर बंधुवर, मुझे तो कहीं और पहुँचना था!... मैं एक दिन वह ढाबा छोड़कर आगे बढ़ गया। पता नहीं, दिमाग़ को क्या हुआ कि अच्छी-भली  दो टैम की रोटी देने वाला चाया-ढाबा छोड़ आगे की यात्रा पर निकल पड़ा! उसके बाद फिर से फाके की नौबत आ गई। भूखे पेट रहा। पर चलता रहा। तभी ऐसा हुआ कि एक दिन बंदरों का खेल दिखाने वाला एक मदारी मिला... वह सड़क-किनारे मजमा लगाये अपने बंदर-बंदरिया से करतब करा रहा था... मैं उसे देखने के लिए रुक गया। उसके तमाशे के दौरान मैंने ग़ौर किया था कि वह इस तरह से बोलता था कि लोग साँस साधे उसकी बातें सुनने और तमाशा देखने के लिए जमे रहते थे; और तमाशे के खत्म होने पर उसकी बिछाई चादर पर पैसों की बरसात कर देते थे! ...उस दिन मदारी का तमाशा देखता हुआ भी मैं भूखा था... तमाशा खत्म होने और दर्शकों के अपनी अपनी राह चले जाने के बाद मदारी अपनी चादर से पैसे बटोर रहा था; पर मैं वहीं बैठा था जहाँ बैठ कर मैंने तमाशा देखा था! दरअसल मुझे उस दिन लगा था कि मदारी के पास ऐसा कुछ है कि जिसके बलबूते वह पैसे कमा कर अपना पेट भर लेता है, अपने बंदर-बंदरिया का भी पेट भर लेता है! चादर के ऊपर पड़े पैसे बटोरने के बाद मदारी ने मेरी तरफ़ देखा, तो कुछ देर तक हैरानी से देखता रहा; फिर बोला, 'तुम क्यों अभी तक बैठे हो भई?... खेल तो खतम हो गया!' जवाब में मैंने कुछ नहीं कहा; बस, अपने सूखे से मुँह से मुस्करा दिया था। उसके बाद वह मदारी अपने बंदर-बंदरिया को लेकर एक पेड़ के नीचे जा पहुंचा। वहाँ उसने अपने झोले से निकाल कर कुछ खाया-पिया और अपने बंदर-बंदरिया को खिलाया-पिलाया... मैं भी उसके पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गया था और चुपचाप एक तरफ़ बैठा था। यह देखकर मदारी ने अपने झोले से निकाल कर एक रोटी मुझे दी। मैंने वह रोटी अपने हाथ में ली और देखी- वह सूखी और कड़ी थी। पर उस समय भूख के मारे मेरा बुरा हाल था। मैंने तीन-चार कौरों में ही वह सूखी और कड़ी रोटी खा ली!... दयालू, सच कहता हूं, उस दिन उस कड़ी और सूखी रोटी में जो स्वाद मुझे मिला था, वैसा स्वाद फिर कभी भी किसी भी खाने में नहीं मिला!... वह एक मात्र रोटी खा कर मैंने पानी पीने चला गया; और उसके बाद फिर से लौटकर उस मदारी के ही पास आकर बैठ गया था। जब तक मदारी उस पेड़ के नीचे रहा, मैं भी वहीं बैठा रहा- बिना कुछ बोले, चुपचाप! दोपहरिया ढल जाने और तनिक ठंडा हो जाने पर जब मदारी अपने बंदर-बंदरिया को लेकर चलने लगा, तो उसने मेरी तरफ़ देखा और कहा, 'जमूरा बनेगा?' यह सुन कर मुझे तो जैसे मुँहमाँगी मुराद मिल गई हो, मैंने 'हाँ' में अपना सिर हिलाया। यह देख कर उसने कहा, 'तो चल मेरे साथ!' सुनकर मैं उठ कर खड़ा हो गया और उसके साथ हो लिया। हालांकि मुझे उस समय जमूरा का अर्थ तक मालूम नहीं था; पर मुझे उस मदारी का खेल दिखाते समय का बोलना आकर्षित करता था; उसी की खातिर मैं उसके साथ चल दिया था!... उस दिन के बाद से लगभग तीन बरसों तक मैं उस मदारी के साथ ही रहा - उसके खेल का जमूरा बन कर!... कुछ समय गुज़रने के बाद, कभीकभार मदारी मुझे भी, अपनी ही तरह बंदर-बंदरिया का खेल दिखाने की छूट देने लगा; और लोगों को अपनी तरफ़ आकर्षित करने के लिए अपनी ही तरह बोलने और डमरू बजाने को कहने लगा, 'मेहरबान! कदरदान! आइए! देखिए! ऐसा खेल, जैसा इससे पहले आपने कभी और कहीं नहीं देखा होगा! आइए मेहरबान! कदरदान! देखिए, बंदर और बंदरिया का हैरतअंगेज़ कारनामा! आइए मेहरबान!' ... तो मैं मदारी की ही तरह बोलता और डमरू बजाता: 'डिम-डिम-डिम-डिम', 'डिम-डिम-डिम-डिम' हाथ में हिलते डमरू की आवाज़; और मुंह से निकलती 'मेहरबान-कदरदान' की पुकार सुन कर लोगों का मजमा लग जाता!... तब मैंने समझा दयालू, कि शब्द की ताकत क्या होती है! शब्द की वह ताकत इंसान को मुग्ध कर लेती है; सही ढंग से इस्तेमाल किये गये शब्द की ताकत कभी-कभी तो इंसान को वश में ही लेती है!... तो यह बोलना मैंने जीवन की उस पाठशाला में सीखा है, जिसका जिक्र मैं अभी कर रहा था!''
''पर बद्री भाई, तुम घर छोड़ कर गये ही क्यों थे एकाएक...?'' दयालू ने बद्री के मुँह की ओर देखते हुए अपनी अगली जिज्ञासा प्रकट की।
''गया नहीं था मैं! ले जाया गया था मुझे!'' बद्री ने दयालू की आँखों में आँखें डाल कर कहा।
''मतलब?... ले जाया गया था!.... कौन ले गया था...?'' दयालू ने कहा।
बद्री ने बताया, ''उस रात को मैं रोज़ की तरह ब्यालू करने के बाद, अपनी खाट पर जाकर सो गया था... रात में अचानक मेरी खाट के सामने एक आदमी आकर खड़ा हो गया, जिसका शरीर हृष्ट-पुष्ट, ऊँचा और नीले रंग का था; और जिसके लाल रंग के होंठों पर एक गहरी मुस्कान थी और बड़ी-बड़ी आँखों में प्रसन्नता; और जिसने शरीर पर कमर तक पीली धोती पहन रखी थी और कमर से ऊपर के हिस्से में कुछ नहीं पहना था, जिससे उसके उघारे कंधे-सीना और भुजाएँ अपनी बलिष्टता का प्रदर्शन कर रहे थे; और जिसने अपने एक हाथ में बहुत बड़ा धनुष थाम रखा था; और जिसके पूरे शरीर से एक उजाला-सा निकल रहा था!... तो ऐसे आदमी ने उस रात अचानक ही मेरी खाट के सामने आ कर मुझेसे कहा था, 'वत्स! उठो! यह सोने का समय नहीं है; तुम्हें भारतमाता की सेवा करनी है, इसलिए उठो! और भारतमाता की सेवा में लग जाओ!...' उसके बाद दयालू! मुझे कुछ भी नहीं पता कि कैसे हुआ कि अगले दिन जब सूरज देवता पगतिया भर चढ़ चुके थे, मैंने अपने-आप को एक ऐसे रास्ते पर चलता पाया, जो मेरे लिए अनजाना और अपरिचित था!... उस समय मुझे जैसे कुछ सूझ नहीं रहा था और मेरे भीतर आगे बढ़ते जाने - चलते चले जाने की धुन सवार थी... और मैं उस रास्ते पर बस आगे बढता जा रहा था!... उसके बाद के दिनों में मैंने क्या किया, क्या खाया, कहाँ रहा, कैसे रहा- यह सब आज मेरी स्मृति से ओझल है।... पर उसके आगे के दिनों की स्मृतियाँ किसी पाठशाला में पढ़े हुए पाठ की तरह मेरे भीतर स्थाई रुप से बसी-बनी हुई हैं...' कहकर बद्री ने मुस्कराते हुए, दयालू की तरफ़ देखा था।
यह सब सुन-देख कर दयालू ने हैरत भरी निगाहों से बद्री को देखा था; बेशक वह रहा चुप ही।
थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद उसने बद्री से पूछा, ''लेकिन बद्री, तुम तो एक 'दिव्य पुरुष' के कहने पर भारत माता की सेवा करने के लिए घर छोड़ कर गये थे या जैसा कि तुमने कहा, ले जाये गये थे... फिर साधूबाबा कैसे बने?''
''कौन कहता है कि मैं साधूबाबा बना था?'' बद्री ने तपाक से प्रतिप्रश्न किया।
''क्यों?... तुम जब यहाँ... गाँव में पीपलवाले महादेव के चबूतरे पर आये थे, तब साधूबाबा नहीं थे?'' दयालू ने कहा।
''वह तो सि$र्फ एक भेष था!... पर वास्तव में मैं कोई साधूबाबा-आबा नहीं था!''
''भेष था!... पर किसलिए?'' दयालू ने बद्री की बात पूरी होने से पहले ही कहा।
''उसकी एक अलग ही कहानी है दयालू!'' बद्री ने कहा, ''यहाँ से जाने के बाद लंबे समय तक मैं यों ही इधर-उधर भटकता रहा'' 'उस भटकने के दौरान ही, जैसा कि मैंने अभी बताया था, चाय-ढाबे पर काम किया, मदारी का जमूरा बन कर रहा, फिर मदारी का साथ छोड़ कर आगे बढ़ गया।... तो कुछ समय बाद मुझे एक आदमी मिला, जो मुझको एक ऐसी जगह में ले गया, जिसे 'देशसेवक' बनाने की पाठशाला कह सकते हैं - वह जगह 'देशसेवक संघ' नामक संस्था की कार्यशाला थी... असल में मुझे जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यहाँ से ले जाया गया था, यानी भारतमाता की सेवा के लिए, उसकी शुरुआत तो वास्तव में 'देशसेवक संघ' की उस कार्यशाला में पहुँचने के बाद ही हुई! उस कार्यशाला में, जो मेरे लिए तो एक पाठशाला की तरह थी, मैंने सब कुछ सीखा - सब कुछ, यानी वह सब कुछ जिसके माध्यम से भारतमाता की सेवा की जा सकती है - शास्त्र से लेकर शस्त्र तक मैंने उस कार्यशाला में सीखे! भारतमाता की सेवा के लिए जहाँ शास्त्र की आवश्यकता हो वहां शास्त्र; और जहां अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता हो वहाँ अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करना उस कार्यशाला में सिखाया जाता था'' वहीं मैंने सीखा कि 'भारत एक हिन्दू राष्ट्र है'; वहीं मैंने सीखा कि स्वधमो निधन श्रेय: परधर्म: भयावह:'; वहीं मैंने सीखा कि भारतमाता के सबसे बड़े शत्रु 'म्लेच्छ' हैं और म्लेच्छों का नाश करना ही भारतमाता की सच्ची सेवा है! वहीं मैंने सीखा कि म्लेच्छ-वंश का खात्मा कैसे किया जाता है; वहीं मैंने सीखा कि 'सिद्धांत' को किस प्रकार 'प्रयोग' से सत्यापित किया जाता है!'' 'देशसेवक संघ' की उस कार्यशाला में रहते हुए मैंने और मेरे सहयोगियों-सहकर्मियों ने समय-समय पर भारतमाता के सेवा के निर्धारित 'सिद्धांत' को देश की 'प्रयोगशाला' में 'प्रयोग' कर-कर के अनेक बार सत्यापित किया! ''तो दयालू, इस प्रकार से मुझे 'देशसेवक संघ' - कार्यशाला में सीखते और काम करते हुए लगभग चार-पांच वर्ष बीत गये थे, कि तभी एक दिन भारतमाता के लिए 'आपत्तिकाल' आ गया!''
''आपत्तिकाल...?'' दयालू ने बीच में ही पूछा।
''हां, दयालू!... 'आपत्तिकाल'!'' बद्री ने कहा, ''औरों के लिए भले ही उस 'काल' का नाम कुछ भी रहा तो, पर भारतमाता और हम भारतमाता के सेवकों के लिए तो वह 'आपत्तिकाल' ही था!... उन दिनों, मुझे घर को छोड़े हुए लगभग आठ साल हो रहे थे और मेरी उम्र तेईस साल के आसपास हो गई थी... एक दिन 'देशसेवक संघ' के सभी कार्यकत्र्ताओं को उस 'आपत्तिकाल' से बचाव के लिए 'अंडरग्राउंड' हो जाने के निर्देश मिले। उसके बाद हम सब अपनी-अपनी तरह से 'अंडरग्राउंड' हो गये थे!... मैं हिमालय की तरफ़ चला गया; और तुमने जिस 'साधूबाबा' के 'रूप' में मुझे पीपल वाले महादेव के चबूतरे पर लौटा देखा था, उस 'रूप' की शुरुआत 'आपत्तिकाल' के दौरान भूमिगत होने के लिए हुई थी!... उसके बाद मैं भूमिगत रहते हुए, यानी 'साधूबाबा' के रुप में ही 'देशसेवक संघ' के कामों को पूरा करता रहा... उसके बाद मुझे उस रुप की आदत ही पड़ गई... लगभग बारह बरसों तक 'साधूबाबा' का 'रूप' धारण कर रहने के बाद, एक दिन मुझे तुम-सब लोगों की, अपने गाँव की याद आई, तो लौटकर पीपलवाले महादेव के चबूतरे पर आकर बैठ गया था... तो यह है उस भेष की कहानी दयालू!'' कह कर बद्री ने अपने चेहरे पर गंभीरता ओढ़ ली थी।
दयालू बद्री के मुँह से उसकी रूप-कथा सुनने के बाद कुछ देर तक भौंचक-सा हुआ बैठा रहा।
इस बीच बद्री ने भी कुछ नहीं कहा।
थोड़ी देर बाद दयालू वहाँ से उठकर अपने घर की ओर चला गया था।

गाँव में लौटने के बाद, बद्री क़रीब साल-डेढ़ साल तक गाँव में टिका रहा। बेशक बीच-बीच में वह शहर जाता-आता रहा। जिस दिन उसे शहर को जाना होता था, उस दिन वह प्राय: सबेरे ही नहा-धोकर निकल जाता, और उसी दिन शाम तक या रात तक लौट कर गाँव आ जाता था। शहर वह किस काम से और क्यों जाता था - इस बारे में किसी को भी कुछ नहीं बताता था। यह निश्चित् था कि घर-गिरस्ती के सामान या सौदा-सुलफ के लिए वह शहर नहीं जाता था; क्योंकि घर-गाँव में रहने के बावजूद उसका घर-गिरस्ती से ज़्यादा वास्ता था ही नहीं! घर-गिरस्ती के किसी भी काम और सामान-सुलफ लाने अथवा मँगवाने या इसी तरह के अन्य कामों की जिम्मेदारी उसकी माँ ही सम्हालती थी। बद्री का वास्ता तो बस अपने बैठके तक सीमित था, जिसमें वह दिन भर गाँव के कुछ लोगों के साथ बैठता-बतियाता था; और रात को अपने पलंग पर सो जाता था। समय पर खाना-पानी उसे घर के भीतर से वहीं मिल जाता था। इससे ज़्यादा उसका घर से कोई वास्ता न था। पर बहरहाल, यह तो था ही कि वह गाँव-घर में टिका हुआ था।
इसी टिकने के दौरान एक दिन जब वह शहर गया था तो वहां से काँच के भीतर फ्रेम की हुईं कुछ तस्वीरें लाया था - वे तस्वीरें 15 इंच ऊँचाई और 12 इंच चौड़ाई वाले लकड़ी के ऐसे फ्रेमों में कसी हुई थीं जिसमें ऊँचाई की तरफ़ टाँगने हेतु कुंदे लगे हुए थे। उन फ्रेम की हुई तस्वीरों को उसने बैठक की दीवालों में कीलें ठोक कर टाँग दिया था।
अगले दिन जब दयालू उसके बैठके में पहुँचा, तो उसने बैठके की दीवालों पर टंगी तस्वीरों को देखा: वह उन तस्वीरों में मौजूद व्यक्तियों के चेहरों को ध्यान से देखता रहा; पर उसमें से किसी भी व्यक्ति के चेहरे को पहचान और नाम नहीं दे पाया; अलबत्ता वह देखता रहा था कि एक तस्वीर में मोटी मूँछें रखे, सिर पर टोपी पहने व्यक्ति मौजूद था; दूसरी तस्वीर में बंगाली कुरता पहने एक साधारण चेहरे-मोहरे वाला व्यक्ति था; तीसरी तस्वीर में बाबाओं की तरह लंबे केश और बढ़ी हुई दाढ़ी-मूँछें रखे व्यक्ति था; चौथी तस्वीर में होंठों पर झुकी मूँछों वाला व्यक्ति था! वे तस्वीरें बैठके में इस तरह टँगी हुई थीं जिस तरह सरकारी दफ्तरों में प्राय: गांधी जी, नेहरूजी, डॉ. आम्बेडकर आदि की तस्वीरें टँगी होती हैं; अथवा सामंती हवेलियों के बैठकखानों में उन हवेलियों के पूर्वजों की तस्वीरें या उन सामंतों द्वारा शिकार किये गये शेर, चीते, हिरन, बारहसिंगे आदि के सिर आदि टँगे होते हैं!...
दयालू ने उन तस्वीरों को कुछ देर तक देखते रहने के बाद बद्री की ओर जिज्ञासा भरी निगाहों से देखा। बद्री ने उसकी आँखों में मौजूद जिज्ञासा को भाँप कर, इससे पहले कि वह उन तस्वीरों में मौजूद महानुभावों के बारे में उससे कुछ पूछता, एक-एक कर हर तस्वीर के महानुभाव का नाम दयालू को बताया; साथ ही कहा, ''ये सब हमारे इस महान् राष्ट्र की वे महान विभूतियाँ हैं, जिनके कारण आज भारतवर्ष में हिन्दू धर्म सुरक्षित है!...''
इतना सुनने के बाद दयालू ने किंचित मुस्कान के साथ बद्री से कहा, ''वैसे एक बात बताऊँ बद्री, मैंने तो यह अंदाज लगाया था कि ये तुम्हारे पुरुखों की तस्वीरें होंगीं, जिन्हें तुमने शहर जाकर मँढ़वा के लाकर यहाँ बैठकें के भीतर टाँग दिया है!''
दयालू की बात सुनकर बद्री ने तुरंत कहा, ''एक तरह से तुम्हारा अंदाजा भी सही ही था दयालू!... ये सब हमारे पुरखे ही तो हैं... पुरखे याने क्या? पूर्वज! यानी जो हमसे पूर्व पैदा हुए वे!... ये सभी हमसे पहले ही तो पैदा हुए थे; और इन्होंने वही काम किया जो पुरखे या पूर्वज करते हैं - हिन्दू कौम को बचाने का काम!... तो इस तरह से तुम्हारा अंदाजा भी सही था...''
उसके बाद दयालू ने वह बात और आगे नहीं बढ़ाई थी।

उसके कुछ समय बाद, बद्री एक दिन घर से पैन्ट-शर्ट और पॉलिश किये - चमकते जूते पहन कर शहर की तरफ़ निकला; पर उस दिन की शाम तक लौट कर गाँव नहीं आया। वह उस दिन की शाम तक क्या, रात तक भी लौट कर नहीं आया, अगले दिन तक भी नहीं आया, अगले सप्ताह तक भी नहीं आया, अगले महीने तक भी नहीं आया, अगली साल तक भी लौट कर नहीं आया!... वह लौटकर गाँव आया तक़रीबन पाँच सालों के बाद - शरीर पर सफेद चूड़ीदार पाजामा-भगवा कुरता पहने; पैरों में काले-चमकते पंप-शू डाटे; गले में 'जयश्रीराम' छापवाला गमछा लपेटे, सिर के बालों को करीने से काढ़े, चेहरे पर दाढ़ी बढ़ाये; और कंधे पर टँगे बैग के भीतर बाबरी मस्जिद के ढाँचे का मलबा लिये! उसने बैग के भीतर ईंट-चूना-गारे के चंद टुकड़े इस तरह से सहेज कर रखे हुए थे, जैसे वह किसी टूटी हुई इमारत का मलबा न होकर किसी युद्ध में मिली जीत का तमगा हो! गाँव में उसने दयालू सहित अनेक लोगों को अपनी 'वीरता' का वह 'साक्ष्य', जो उसके बैग में मौजूद था, दिखाया था; और गर्व के साथ उद्घोष किया था, ''अब देश के कलंक को हमने मिटा दिया है!''
अपनी उस गर्वोन्मत्त गाँव-वापसी के बाद बद्री कुछ दिनों तक - गाँव से शहर और शहर से गाँव आवाजाही के साथ-गाँव में बना रहा था।
उसके बाद वह फिर गाँव से चला गया था; और फिर वापस गाँव नहीं आया था! इस दरमियान बरस-दर-बरस बीतते गये; और उन बीतते बरसों के दौरान, जो सूचनाएँ गाँव तक पहुँचती रहीं, उनका लुब्बोलुबाब यह था कि उन बरसों के दौरान बद्री बैरागी एक बड़ा नेता बन गया था; और उसने इस दौरान एक प्रदेश का सियासी भार अपने कंधे पर उठाये हुए, उस प्रदेश को हिन्दू धर्म की विजय के 'सिद्धांत' की 'प्रयोगशाला' बना दिया था; और अंतत: उस प्रदेश से आगे बढ़कर वह राष्ट्र के शिखर पर जा पहुँचा था! तक़नीकी रुप से राष्ट्र के उस शिखर को एक शब्द में कहा जाता है 'दिल्ली'!....
(2)
... और दयालू, जैसा कि उसने पहले से तय कर रखा था, पूर्वनिर्धारित दिन को ही पूर्व निश्चित् ट्रेन से दिल्ली के लिए रवाना हो गया। अपने ही गाँव के बद्री बैरागी का कहा हुआ - 'दयाल भाई, बद्री बोल रहा हूं दिल्ली से... बद्री बैरागी... अब दयाल भाई, दिल्ली को आपकी जरूरत आन पड़ी है... आ जाइये!'' ''दयाल भाई, पार्टी ने तय किया है कि आपको कुछ महत्त्व का काम दिया जाये... इसलिए मैंने आपको सूचित करने के लिए ही यह फ़ोन किया है... आप आ जाइये दिल्ली!...'' - उसके कानों के भीतर एक साफ तस्वीर बनाये हुए था; एक ऐसी तस्वीर जो आकर्षक थी, ग्लैमरस थी, चमकदार थी और इज्जतअफ़्ज़ा थी! किसी भी आम आदमी के लिए 'राजनीति' कुछ ऐसी ही चीज तो होती है! तो दयालू उस आकर्षक, ग्लैमरस, चमकदार और इज़्ज़तअफ़्ज़ा तस्वीर के आकर्षण में बँधा हुआ बिना किसी पसोपेश के दिल्ली के लिए रवाना हो गया था...
...उस दिन के सवेरे-सवेरे ही दयालू ने अपनी पत्नी से कहा था, ''आज शाम की गाड़ी से दिल्ली जाना है...'' और बैग में अपना सामान-कपड़े आदि जमाने में लग गया था। उसकी पत्नी को, उसके पास आये बद्री बैरागी के फ़ौन और बुलावे की जानकारी थी; इसलिए वह भी उसका सामान बँधवाने-लगाने में सहयोग करने लगी थी... ट्रेन शाम की थी, इसलिए दयालू दोपहर का खाना खाने के बाद ही अपने सामान का बैग लेकर शहर की ओर निकल पड़ा था...
शहर पहुँचकर उसने ज़रूरत का कुछ और सामान खरीदा था। उसके बाद स्टेशन पहँुच गया। टिकट-खिड़की पर लाइन में लग कर उसने नई दिल्ली का टिकट खरीद लिया। उसके बाद प्लेटफार्म पर बैठकर गाड़ी का इंतज़ार करने लगा था।
गाड़ी अपने निर्धारित समय से साढ़े चार घण्टे लेट चल रही थी: इस बात की सूचना एक निश्चित् अंतराल के बाद बार-बार अनाउंस की जा रही थी। वह उस सूचना को ध्यानपूर्वक सुनता हुआ, प्लेटफार्म पर बैठा गाड़ी के आने का इंतज़ार करता रहा।... रात में जब गाड़ी आकर प्लेटफार्म पर लगी तो उसे डिब्बे में अपने लिए सीट ढूँढऩे की चिंता से ज़्यादा इस बात की ख़ुशी थी कि उसको दिल्ली ले जाने वाली गाड़ी आ गई थी - उसे तसल्ली मिली थी कि चलो, देर-सबेर ही सही, पर उसका दिल्ली पहुँचना अब निश्चित् हुआ! वह अपने सामान का बैग कंधे पर टाँग कर जनरल डिब्बे की ओर दौडऩे लगा; और उसने जब हत्था पकड़ कर डिब्बे के दरवाज़े के भीतर क़दम रखा, तो देखा कि डिब्बे के दरवाज़े से आगे बढ़कर भीतर पहँुचने की गुंजाइश लगभग नहीं ही थी; क्योंकि वहाँ से लेकर आगे तक आदमी-औरतें ठुसे हुए-से खड़े थे। यह देख कर उसने जैसे-तैसे दरवाज़े के भीतर अपने पैर टिका लिये; और वह बैग को कंधे पर ही लटकाये हुए उसी जगह खड़ा रहा।
कुछ ही देर में गाड़ी प्लेटफॉर्म से आगे खिसकने लगी; और उसने रफ़्तार पकड़ ली। उसके बाद डिब्बे के भीतर ठसाठस भरी सवारियाँ गोया डिब्बे के भीतर समाने के लिए एडजस्ट करने लगी थीं। और तब दयालू को भी अपने लिए थोड़ी-सी जगह मिल गई - वह जगह ट्रेन के दरवाज़े के भीतर गलियारे में ही थी, जहाँ उसने अपने कंधे पर टँगा बैग उतार कर रख लिया और उससे पैर सटा कर वह खड़ा रहा। कुछ देर बाद, जब कुछ और रात गुज़र गई और डिब्बे के भीतर मौजूद सवारियाँ, डिब्बे में कहीं न कहीं और किसी न किसी तरह लेटे-बैठे सोने-झपकियाँ लेने पर विवश हो गईं; और डिब्बे में लगभग शांति छा गई, तब दयालू भी अपने बैग से टेक लगा कर गलियारे के फर्श पर ही बैठ गया और मुँदती-खुलती आँखों के साथ झपकियाँ लेने लगा। बीच-बीच में ट्रेन अलग-अलग स्टेशनों पर रुकती रही और अपने डिब्बों के भीतर सवारियों को लेती रही - दयालू वाले डिब्बे में भी सवारियाँ चढ़ती रहीं और दयालू के हाथों-पाँवों से टकराती-रगड़ती हुई डिब्बे के भीतर समाती रहीं।...
और अंततोगत्वा अगले दिन के सवेरे साढ़े सात बजे ट्रेन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर जा लगी। दयालू ने अपना बैग कंधे पर लिया, और जब उसने डिब्बे से निकल कर प्लेटफार्म पर पैर रखे, तो उस वक़्त उसके भीतर यह ख़ुशगवार अहसास था कि वह दिल्ली की सरज़मीन पर पहुँच गया है!
प्लेटफॉर्म पर आगे बढ़कर उसने वहाँ का नज़ारा लिया: भीड़-भाड़ थी, आवाजाही थी, शोर था, उद्घोषणाएँ थीं, दौड़-भाग थी...!
दयालू प्लेटफार्म पर एक जगह खड़ा था। बैग उसके कंधे पर टँगा था। रात में ट्रेन के भीतर ठीक से  बैठ और सो नहीं पाने की वजह से वह किंचित् थका हुआ महसूस कर रहा था। पर उसके भीतर इस बात का सुखानुभव और उत्साह था कि वह अपने गंतव्य पर पहुँच गया है।
उसने अपने कंधे पर टँगा बैग उतारा और ज़मीन पर रख दिया। उसके बाद जेब से अपना शुरुआती पुराना मोबाइल फोन NOKIA   ११०० निकाला और उसकी संपर्क सूची में जाकर वह नंबर निकाला, जिससे बद्री बैरागी ने उसे फ़ोन करके दिल्ली बुलाया था। वह नंबर डायल कर उसने फ़ोन कान से लगाया, तो उसे सुनाई दिया, 'आप जिस नंबर पै कॉल कर रहे हैं वह अभी बंद है, कृपया थोड़ी देर बाद कॉल करें...!'' दयालू ने सुना; और अपने फ़ोन के स्क्रीन पर डायल किया हुआ नंबर गौर से देखा: नंबर सही और वही था, जिससे बद्री ने उसे फ़ोन किया था; और जो अब उसके फ़ोन की कॉन्टेक्ट-लिस्ट में बद्री बैरागी के नाम से सेव था! उसने वह नंबर फिर डायल किया, तो फिर पहले ही की तरह सुनाई दिया, 'आप जिस नंबर पै कॉल कर रहे हैं वह अभी बंद है, कृपया थोड़ी देर बाद कॉल करें...।'' उसके बाद उसने वह नंबर कई बार डायल किया, परन्तु उसे हर बार उस नंबर के बंद होने की सूचना दी जाती रही। तब वह थोड़ा परेशान हो उठा। दिल्ली में वह किसी को भी जानता नहीं था सिवाय बद्री बैरागी के - वह तो दिल्ली आया ही पहली बार था, वह भी बद्री के ही बुलावे पर! और बद्री का फ़ोन कई बार डायल करने के बावजूद बंद बताया जा रहा था! दयालू ने एक बार फिर नंबर डायल किया...

...दरअसल देश की राजधानी दिल्ली के राजनीतिक हल्कों में उन दिनों राजनैतिक सरगर्मियाँ उबाल पर थीं! उन दिनों, अर्थात् कुछ-एक महीनों से! उस उबाल की कुछ वजहें थीं। यों तो दिल्ली के सियासी हल्के कभी भी शांत और चुप नहीं होते; पर उन दिनों की उबलती सरगर्मियों की जो एक ख़ास वजह थी, वह थी देश के एक बड़े सूबे में निकट भविष्य में होने वाला असेम्बली-इलैक्शन!...
... तो उसी सिलसिले में, उस दिन राजधानी दिल्ली के वीवीआईपी इलाके में स्थित एक बँगले के बंद कमरे में पार्टी के दो शीर्ष नेता मीटिंग कर रहे थे। उन दोनों नेताओं में से एक का नाम था बद्री बैरागी... और उस दिन की मीटिंग का एक मात्र एजेंडा था पार्टी की दलित-विरोधी छवि का काट!...

उस समय नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर मौजूद भीड़भाड़ के बीच एक तरफ़ अपना बैग रखे दयालू बार-बार फ़ोन लगा रहा था; और हर बार डायल किये गये नंबर के बंद होने की सूचना पा कर परेशान हो रहा था। परेशानी अब उसके चेहरे और माथे पर भी दिखाई देने लगी थी।
उस परेशानी का सबब उसके भीतर तो था ही; बाहर भी था; क्योंकि मौसम गर्मी और तपिश का था और उमस से भरा भी। रात भर दयालू ने ट्रेन के जनरल डिब्बे में भरपूर असुविधाओं के बीच यात्रा की थी। यात्रा करते हुए वह सोचता रहा था कि एक रात की ही तो परेशानी है; उसके बाद दिल्ली पहुँच कर वह बद्री के यहाँ नहायेगा-धोयेगा और आराम कर लेगा। परंतु नई दिल्ली स्टेशन पहुँचने के बाद, अब उसका बद्री बैरागी से फ़ोन-संपर्क ही नहीं हो पा रहा था! ऊपर से पसीने में नहलाती उमस भर गर्मी!
उसने प्लेटफॉर्म पर आसपास ही छत से लटके चल रहे पंखों की ओर देखा और पाया कि हर एक पंखे के नीचे लोग मऊख का छत्ता-सा बनाये खड़े-बैठे थे! उसे उन छत्तों का हिस्सा बनने में कोई फ़ायदा नहीं दिखा।
अंतत: उसने सोचा कि वह प्लेटफॉर्म पर फ्रेश होने की व्यवस्था ढूँढ़ कर सबसे पहले फ्रेश होगा आरै उसके बाद थोड़ा-सा कुछ नाश्ता करेगा; इस बीच वह बद्री को फ़ोन नहीं करेगा; तब तक शायद उसका फ़ोन खुल जायेगा!... उसने बैग उठाकर कंधे पर टाँगा; और प्लेटफॉर्म पर आगे बढ़कर टॉयलेट ढूँढने लगा। टॉयलेट उसे मिल गया। वहाँ लाइन लगी थी। वह भी बैग कंधे पर टाँगे-टाँगे लाइन में लग गया...
टॉयलेट से निबटने के बाद, उसने प्लेटफॉर्म के एक खोखे से 'पारले-जी' का पैकेट और एक कप चाय खरीदे। खोखे के पास खड़े-खड़े उसने चाय के साथ बिस्किट खाये; और वह कहीं बैठने की जगह तलाशने के लिए आगे बढ़ा। प्लेटफॉर्म पर जगह-जगह बैठने के लिए कुछ बैंचें तो थीं; पर कोई भी बैंच खाली नहीं थी - हर एक पर सटे-चिमटे हुए से लोग बैठे थे। दयालू ने देखा कि कुछ लोग - पुरुष भी-स्त्रियाँ भी - प्लेटफॉर्म की ज़मीन पर ही अपने-अपने बैग-लगेज़ रखे हुए आराम से बैठे हुए थे। दयालू को उस तरह से आराम से बैठने की न फुरसत थी, न ही ज़रूरत; इसलिए वह कंधे पर बैग टाँगे आगे बढ़ा; तो उसकी निगाह एक दुकान पर चल रहे टीवी पर गई; और वह ठिठक कर टीवी पर चल रहे दृश्य को देखने लगा: दृश्य में चार-पाँच आदमियों की नंगी पीठों पर कुछ लोग बेरहमी से कौड़े-जैसा कुछ मार रहे थे; और हर एक प्रहार पर वे नंगी पीठें दर्द और पीड़ा से सिहर-सिहर जा रही थीं! लगता था कि उन नंगी पीठ वालों को किसी जगह बाँध कर पीटा जा रहा था! प्रहार करने वाले उन नंगी पीठों पर प्रहार पर प्रहार किये जा रहे थे! टीवी रंगीन था; पर दृश्य धुँधला था; इसलिए प्रहार करने वाले लोगों के चेहरे-मोहरे साफ़ नहीं दीख रहे थे, अलबत्ता प्रहार सहती पीठें धुँधली नहीं, स्पष्ट दिख रही थीं। दयालू टीवी पर दीख रहे दृश्य को देख कर एकबारगी भीतर तक हिल और दहल गया था - उससे वह दृश्य बर्दाश्त नहीं हो रहा था; फिर भी वह उसे देखने को जैसे मजबूर था! ...वह उस दृश्य को देखकर एक बारगी भीतर तक हिल और दहल गया था - उससे वह दृश्य बर्दाश्त नहीं हो रहा था; फिर भी वह उसे देखने को जैसे मजबूर था! ...वह उस दृश्य के बारे में जानना चाह रहा था, परन्तु टीवी की आवाज़ अत्यन्त धीमी थी; इसलिए जो कहा जा रहा था, उसे वह सुन नहीं पा रहा था!... और फिर टीवी स्क्रीन पर दृश्य बदल गया था। यह देख कर दयालू आगे बढ़ चला था। उस वक़्त उसके भीतर एक अजीब तरह की बेचैनी की गिरफ़्त थी। प्लेटफॉर्म पर आगे चल कर उसे अख़बारों-पत्रिकाओं की एक दुकान दिखी: उस दुकान पर कुछ रंगबिरंगी पत्रिकाएँ इस प्रकार से टँगी थीं कि उनके कवर पर छपी तस्वीरें ग्राहक लोग आसानी से दूर रहते हुए भी देख पायें : दयालू ने देखा, टँगी हुई पत्रिकाओं में से एक के कवर पर वही दृश्य छपा हुआ था, जो उसने टीवी पर देखा था: प्रहार सहती नंगी पीठें! यह देखने के बाद दयालू को एक ऐसी जिज्ञासा ने घेर लिया, जिसका निवारण उसको चाहिए था; इसलिए उसने उस दुकान पर जाकर वह पत्रिका खरीद ली थी; और फुरसत में पढऩे के लिए अपने बेग के भीतर सम्हाल कर रख ली थी। फ़िलहाल तो उसकी प्राथमिकता बद्री बैरागी से संपर्क करने की थी। इसलिए वह आगे चल कर एक स्थान पर खड़ा हो गया; और उसने अपनी जेब से मोबाइल फ़ोन निकाल कर बद्री बैरागी का नंबर एक बार फिर डायल किया...
इधर दयालू बद्री बैरागी के फ़ोन नंबर को डायल कर-कर के उससे संपर्क करने की नाकाम कोशिश करते हुए परेशान था; उधर दिल्ली के वीवीआईपी इलाके के बंगले के एक बंद कक्ष में, बद्री बैरागी अपने विश्वसनीय साथी के साथ मीटिंग कर रहा था। मीटिंग यानी एक ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण वार्ता। उस वक़्त बद्री बैरागी और उसके साथी के चेहरों पर एक ख़ास तरह का तनाव था। अलबत्ता तनाव भरे चेहरे के बावजूद बद्री बैरागी की बातचीत का तेवर बरकरार था। वह अपने साथी के चेहरे की तरफ़ देखे बिना अपनी ही रौ में कहे जा रहा था, ''... यह पॉलिटिक्स है! और पॉलिटिक्स में तो क़दम-क़दम पर ओखलियाँ मिलती हैं जिनमें सिर डालने से बचा नहीं जा सकता, उनसे घबराया भी नहीं जा सकता! सिर्फ उनमें से सिर बाहर निकालने की स्ट्रेटजी पर ही विचार किया जा सकता है...''
''पर वह स्ट्रेटजी क्या...?'' साथी ने कहा।
सुनकर बद्री बैरागी ने कहा, ''इस बारे में मैंने सोच लिया है... इस के बारे में बात करने के लिए ही हम यहाँ बैठे हैं आज... कि सोची हुई योजना को सफलतापूर्वक अमलीजामा पहनाने के लिए क्या-क्या करना आवश्यक होगा?...''
''उस योजना की रुपरेखा क्या है?'' बीच में ही साथी ने कहा।
''नहीं, अभी उसे गोपन ही रखा जाना उचित होगा... इसलिए उस योजना की रूपरेखा के बारे में अभी लेशमात्र भी खुलासा नहीं करूँगा!.. हाँ, इतना अभी अवश्य कहूँगा कि उस योजना के अमल में आ जाने के बाद मीडिया को साधने की ज़रूरत होगी, उसके मैनेजमेंट पर अभी से फोकस करना शुरु कर दो!... प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक दोनों...!'' बद्री बैरागी ने साथी से कहा, ''हाँ, इतना अवश्य बता रहा हूँ कि वह योजना 'विषस्य विषमौषधम्' के सिद्धांत पर आधारित होगी, और उसका माध्यम एक व्यक्ति होगा... बस, अभी इतना ही!''
सुनकर उसके साथी ने कहा, ''मीडिया को मेरे जिम्मे छोड़ कर निश्चिंत हो सकते हैं आप!''
''हाँ, निश्ंिचत तो हूँ!'' बद्री बैरागी ने कहा; और इसके साथ ही उसका ध्यान अचानक जैसे किसी और दुनिया की तरफ़ खिंच गया।'' कह कर उसने जैकेट की एक जेब में हाथ डालकर मोबाइल फ़ोन निकाला, जो स्मार्टफ़ोन था। उसने उसे वापस उसी जेब में रख दिया; और दूसरी जेब में हाथ डाल कर एक छोटा-सस्ता मोबाइल फ़ोन निकाल कर हथेली पर ले लिया। उसके बाद उँगलियों से उसके बटन दबाते हुए उसमें से एक नंबर सर्च करने के बाद उसे डायल कर फ़ोन कान से लगा लिया...

इधर रेलवे स्टेशन पर खड़े-खड़े कई बार फ़ोन लगाने के बाद भी दयालू को यही सुनाई देता रहा था कि 'आप जिस नंबर पै काल कर रहे हैं वह अभी बंद है, कृपया थोड़ी देर बाद कॉल करें', तो हार कर दयालू ने फ़ोन जेब में रख लिया था। उसके बाद उसने सोचा था कि बद्री बैरागी एक बड़ा नेता है अब; तो उसके बारे में तो यहाँ हर कोई जानता होगा, इसलिए किसी से भी पूछ लेना चाहिए...! और यह सोच कर उसने चाय के खोखे वाले के पास पहुँच कर उससे पूछा था, ''भाई सा'ब, बद्री बैरागी के यहाँ जाने के लिए साधन कहाँ से मिलेगा?''
सुनकर खोखे वाले ने दयालू की तरफ़ ग़ौर से देखा था: एक साधारण चेहरे-मोहरे, खिचड़ी-सफेद बालों वाला, मामूली-से पेन्ट-शर्ट पहने और कंधे से बैग टाँगे आदमी उससे बद्री बैरागी के यहाँ जाने के लिए साधन के बारे में पूछ रहा था! उसे ग़ौर से देख लेने के बाद खोखे वाले ने उससे किंचित् उपहास भरी महीन मुस्कान के साथ कहा, ''बद्री बैरागी के यहाँ जाना है?''
''हाँ'', दयालू ने जवाब दिया और खोखे वाले के मुँह की ओर देखा था।
''क्यों? ... क्या बद्री बैरागी तुम्हारा रिश्तेदार है?'' खोखे वाले ने अपने उपहास को शब्दों में ढाल दिया था।
''नहीं, रिश्तेदार नहीं, मेरा दोस्त है!'' दयालू ने निहायत सरलता के साथ बेलागलपेट खोखे वाले से कहा था।
''दोस्त है तुम्हारा बद्री बैरागी!...'' कह कर खोखे वाले ने एक बार फिर ऊपर से नीचे तक दयालू को देखा; उसके बाद उसके चेहरे पर एक ऐसी तिरछी मुस्कान खिंच गई जो कह रही थी कि 'कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली'!
खोखे वाला अभी अपने भीतर के हास्य रस का मज़ा लेता हुआ, होंठों पर पतली-सी मुस्कान खींचे हुए दयालू की ओर देख ही रहा था कि दयालू की जेब में पड़ा मोबाइल फ़ोन बजने लगा।
दयालू ने जेब में हाथ डालकर मोबाइल फ़ोन निकाला और देखा, तो एकाएक उसके चेहरे पर खुशी की रेखाएं नुमायाँ हो उठीं: दरअसल वह फोन-कॉल बद्री बैरागी का था- स्क्रीन पर बद्री बैरागी का नाम आ रहा था। दयालू ने रिसीवर बटन दबाने के बाद फ़ोन कान से लगाकर ''हैलो' कहा; तो कान में बद्री बैरागी की आवाज़ पहुँची, ''कैसे हो दयाल भाई?.... और कहाँ हो?.... मैं बद्री बेरागी बोल रहा हूँ दयाल भाई...''
''हाँ, सेव है नंबर आपका... यहीं रेलवे स्टेशन पर हूँ मैं।'' दयालू ने बद्री बैरागी को बताया।
''रेलवे स्टेशन पर क्या कर रहे हो?''
''कर क्या रहा हूं... सवेरे यहां नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरा हूँ ट्रेन से... सवेरे से ही आपका फोन लगा रहा हूँ... लग ही नहीं रहा था!'' दयालू ने कहा।
''अरे, सौरी भाई! आपको कष्ट हुआ... पर अब चिंता मत करो... मैं गाड़ी भेज रहा हूँ... स्टेशन से बाहर निकलो, और पहाडग़ंज की तरफ के गेट के पास खड़े हो जाओ... कुछ अपने सामान वगैरह का ऐसा सिग्नल बताओ कि उसे देख कर ड्राइवर आपको पहचान सके... आपके पास क्या-क्या सामान है!''
''एक बैग है काले रंग का! उसी में सामान है!''
''कितना बड़ा है बैग?... ट्रॉली बैग है या कंधे पर टाँगा जाने वाला?''
''बहुत बड़ा नहीं है... कंधे पर टाँगा जाने वाला है... काले रंग का!''
''ठीक है। उस बैग को कंधे पर टाँग कर पहाडग़ंज की तरफ़ के गेट पर खड़े हो जाओ। आपको लेने गाड़ी पहुँचेगी अभी... आपके कंधे पर टँगा काला बैग देख कर ड्राइवर पहचान लेगा... ठीक है?''
''हां, ठीक है!'' दयालू ने कहा; और उधर से फ़ोन कट गया।
उसके बाद दयालू ने खोखे वाले की तरफ़ देखा और कहा, ''फ़ोन आ गया बद्री बैरागी का!... अब ये बताओ की पहाडग़ंज की तरफ़ वाला गेट किधर है?''
दयालू के मुँह से 'फ़ोन आ गया बद्री बैरागी का' सुनकर खोखे वाले ने हैरानी से उसे देखा; फिर उसे पहाडग़ंज की तरफ़ के गेट का रास्ता बताया था।
दयालू ने रास्ता समझा; और वह अपना बैग कंधे पर टाँग कर बताई गई तरफ़ चल दिया।
गेट पर पहुँचने के बाद वह कंधे पर बैग को टाँगे हुए ही एक ओर खड़ा हो गया।
कुछ देर बाद, एक आदमी ने उसके पास आकर उससे कहा, ''आप दयालदास जी हैं?''
''हां, मैं ही दयालदास हूँ... और आप?'' दयालू ने आगंतुक से कहा।
''आइए मेरे साथ! ...मैं आपको लेने आया हूँ... गाड़ी उधर खड़ी है।'' आगंतुक ने विनम्रतापूर्वक दयालू से कहा। इसके साथ ही, उसने दयालू के कंधे पर टँगा बैग उससे लेकर अपने कंधे पर टाँग लिया; और बोला, ''आइए''।
दयालू उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कार के पास पहुँचकर ड्राइवर ने उसका पीछे वाला डोर खोल कर पकड़ लिया; और दयालू को उसके भीतर बैठने के लिए कहा, ''बैठिए।'' दयालू कार में बैठ गया। उसके बाद ड्राइवर ने उसका बैग डिक्की में रखा; और वह अपनी सीट पर आ गया।
उसके बाद कार दिल्ली की सड़कों पर दौड़ती हुई दयालू को उसके गंतव्य की ओर लिये जा रही थी। एयरकंडीशंड-लक्ज़री कार की पिछली गुदगुदी सीट पर बैठे दयालू के भीतर उस वक़्त एक अलग ही तरह का अहसास था - एक ऐसा अहसास, जैसा इससे पहले उसे कभी नहीं हुआ था! स्वर्ग के सुख और ऐशोआराम की बातें उसने सुनी थीं; तो उसके ज़ेहन में उस वक़्त यही आ रहा था कि स्वर्ग के सुख और ऐशोआराम कुछ-कुछ ऐसे ही होते होंगे...!
कार के भीतर उसकी पिछली सीट पर बैठे दयालू को, कुछ ही देर में ड्राइवर एक ऐसे बँगले के भीतर ले जा पहुँचा, जिसके विशालकाय गेट की बग़ली में जड़ी बड़ी-सी प्लेट पर पीतल के बने अक्षरों से हिन्दी और अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था:

बद्री बैरागी
BADRI BAIRAGI

दयालू ने कार के भीतर बैठे हुए ही प्लेट पर दर्ज इबारत पढ़ ली थी।
ड्राइवर ने बँगले के भीतर कार को आगे ले जाकर नियत स्थान पर खड़ी करने के बाद उससे बाहर आकर कार का पिछला दरवाज़ा खोलते हुए, दयालू से कहा, ''आइए।''
दयालू कार से बाहर निकला। बाहर आते ही उसे लगा कि बाहर की दुनिया आँवे की तरह तप रही है!
ड्राइवर ने डिक्की से निकाल कर दयालू का बैग अपने कंधे से टाँग लिया; और दयालू को अपने पीछे-पीछे आने को कहा, ''आइए...''
सुनकर दयालू उसके पीछे हो लिया था।
कुछ ही देर चलने के बाद, ड्राइवर ने उसे एक कमरे में पहुँचा दिया। वहाँ उसे और उसके बैग को छोड़कर वह वापस चला गया था।
अब उस कमरे में अकेला दयालू था - कमरे की सज्जा, सुविधा और सम्पन्नता को देखता हुआ: कमरे में एक डबल बैड था; सोफा-सेट था; सोफों के सामने बीच में काँच की सेन्टर-टेबिल रखी थी, उसी के पास एक खूबसूरत-गोल स्टूल के ऊपर टेलीफ़ोन रखा हुआ था; सोफा-सैट के पास की दीवाल पर एक एलईडी टीवी सेट लगा हुआ था; कमरे के दरवाज़ों-खिड़कियों पर मोटे-मोटे परदे झूल रहे थे; फर्श पर क़ालीन था, छत पर लटके पंखे थे; ठंडी हवा छोड़ रहे दो ए सी आमने-सामने की दीवालों ऊपर छत से नीचे फिट थे; और कमरे का आकार इतना बड़ा था कि उतने में गाँव के किसी घर के चार कमरे बन जाते!...
दयालू कमरे में पहुँच कर लगभग भौचक्का था। वह एकबारगी समझ नहीं पा रहा था कि वहाँ वह क्या करे! उसके बैग को ड्राइवर बैड के ऊपर रखकर गया था। तो दयालू बैड के पास पहुँचा: लकड़ी के नक्काशीदार बैड के गद्दों के ऊपर सफेद मखमल की बड़ी चादर बिछी थी, जिसके ऊपर सफेद रंग के ही तकिये और कंबल यथास्थान क़रीने से रखे हुए थे।
दयालू अभी इस सब में ही खोया हुआ था कि उसकी जेब में रखा मोबाइल फ़ोन बजा। उसने जेब से निकाल कर बजता हुआ मोबाइल फ़ोन देखा, तो स्क्रीन पर बद्री बैरागी के नाम को पाया। उसने फ़ौरन बटन दबा कर कहा ''हैलो!''
''दयाल भाई, अपने कमरे में पहुँच गये हैं ना? .... व्यवस्था सब ठीक है?'' बद्री बैरागी पूछ रहा था।
''हाँ, पहुँच गया हूँ...'' दयालू आगे और कुछ बोल पाता; उससे पहले ही बद्री बैरागी ने कहा, ''तो नहाओ-धोओ अभी। तब तक खाना पहुँचेगा वहीं... उसके बाद आराम करो.. मिलते हैं!'' कहने के साथ ही उसने फ़ोन काट दिया।
दयालू ने अब बिस्तर पर रखे अपने बैग को खोला। उसके बाद वह कमरे में एक तरफ़ बंद दिखाई दे रहे दरवाज़े की ओर यह देखने के लिए बढ़ा कि क्या वही बाथरूम है...?
उधर अपने साथी के साथ चल रही बंद कमरे की मीटिंग को बद्री बैरागी ने अपनी दाँयी भोंह को ऊपर खींचते हुए यह कह कर समाप्त किया, ''देखो, हमारा फस्र्ट स्टेप उठ चुका है!... जिसकी आवश्यकता थी, वह तुरुप का इक्का अब हमारे हाथ में हैं!...''
(3)
दयालू को दिल्ली पहुँचे हुए लगभग महीना भर हो गया था। पर अभी तक बद्री बैरागी से उसकी मुलाकात नहीं हुई थी।
शुरु के दिन दयालू को जिस कमरे में पहुँचा दिया गया था, वह उसी में दिन भर बना रहता था। उसका नाश्ता, खाना, पानी आदि उसी कमरे में उसके पास समय से पहुँचता रहता था। रोज़ाना एक व्यक्ति नियम से ये सब चीजें उसके पास पहुँचाने आता था। बाक़ी सारी ज़रूरतों, मसलन नहाने, धोने, सोने आदि के साधन कमरे पर उपलब्ध थे ही।
यह सब चल रहा था। पर दयालू के कानों में तो हर घड़ी, बद्री का फ़ोन पर कहा हुआ गूँजता रहता था, 'दयाल भाई, दिल्ली को आपकी जरूरत आन पड़ी है... पार्टी ने तय किया है कि आपको कुछ महत्त्व का काम दिया जाये...' ...'मिलते हैं!' ...'दयालभाई, पार्टी ने तय किया है कि आपको कुछ महत्त्व का काम दिया जाये...' ...'मिलते हैं!' ...'दयाल भाई, पार्टी ने तय किया है कि आपको कुछ महत्त्व का काम दिया जाये...' ....'मिलते हैं!'...
पर अब तक दयालू की बद्री बैरागी से मुलाक़ात नहीं हो पाई थी!
अलबत्ता इसी बीच एक दिन एक आदमी उसके कमरे पर आया था, जिसने दयालू से कुछ काग़ज़ात पर दस्तख़त करवाये थे। उनमें कुछ छपे हुए फॉर्म थे। दयालू ने उन फॉर्मों को अपने हाथ से भरा था। वे पार्टी की सदस्यता के संबंधित फॉर्म थे। उन्हें भरने के बाद उसने उन पर अपने हस्ताक्षर किये थे। हस्ताक्षर करवाने के बाद उन सभी काग़ज़ात को वह आदमी अपने साथ वापस ले गया था। लौटते समय उस आदमी ने अपने साथ लिया हुआ एक पैकेट दयालू के पास छोड़ा था; और उससे कहा था, ''ये आपके लिए है।''
उस आदमी के चले जाने के बाद दयालू ने उस पैकेट को खोला था। उसके भीतर दो कुरते और दो पाजामे थे - दो अलग-अलग रंग के कुरते, और सफ़ेद रंग के दो सँकरी मोहरी वाले पाजामे! उसने वे कुरते-पाजामे खोल कर देखे; उसे वे बहुत बढिय़ा लगे। उसने उनमें से एक कुरता पाजामा उसी समय पहन कर देखा था- बाथरूम के शीशे के सामने उन कुरता-पाज़ामा को पहन कर जब वह पहुँचा, तब अपने-आप को देख कर उसके मुँह से निकला था, 'यह हुई ना बात!...'
परन्तु वह अभी तक बद्री बैरागी से मिलने का इंतज़ार ही कर रहा था; और उसके कानों में गूंजता रहता था, 'दयाल भाई, पार्टी ने तय किया है कि आपको कुछ महत्त्व का काम दिया जाये...' ... 'मिलते हैं!'....
बद्री बैरागी से मिलने हेतु उसने एक-दो बार अपनी तरफ़ से भी उसको फ़ोन लगाने की कोशिश की थी। परन्तु जवाब में उसे वही सुनाई दिया था, 'आप जिस नंबर पर कॉल कर रहे हैं वह अभी बंद है...'

(4)
दयालू को 'पार्टी में कुछ महत्त्व का काम' मिलने की आशा और 'मिलते हैं' के आश्वासन के साथ दिल्ली में दिन गुज़ारते हुए तक़रीबन तीन महीने हो गये थे।
वह लगातार इंतज़ार में था...
कि एक दिन उसे बद्री बैरागी ने फ़ोन किया; और उसको पार्टी की तरफ़ से दी गई ज़िम्मेवारी के बारे में बताने के बाद कहा था, ''बधाई!... मिलते हैं!''
उसके बाद फिर कुछ दिन गज़र गये।
और उन गुज़रे दिनों के बाद, एक ऐसा दिन आया, जिसमें दयालू को जो मिलना था, वह अंततोगत्त्वा मिल ही गया!... उस दिन की सुबह दिल्ली की एक सड़क पर पुलिस ने दयालू का शव बरामद किया - ख़ून से लथपथ चेहरे-शरीर और नये कुरते-पाजामे के साथ!...
उस घटना पर न मीडिया ने कोई बड़ा कवरेज दिया; न ही दिल्ली के राजनीतिक हल्कों ने ख़ास ध्यान! अलबत्ता बद्री बैरागी ने अपना एक और 'रूप' धरा था, जिसकी एक आँख खौफ़नाक व डरावनी दिख रही थी और दूसरी आँख सुकोमल एवं आँसुओं से भरी- उसकी निगाहें दूर अपने लक्ष्य पर लगी हुई थीं - उसका संवेदना-वक्तव्य मीडिया द्वारा प्रमुखता से दिखाया-सुनाया जा रहा था, ''दयालदास जी पार्टी का एक महत्त्वपूर्ण दायित्व सम्हाले हुए थे... वे पार्टी में दलितों के प्रतिनिधि के तौर पर काम कर रहे थे... वे पार्टी के दलित विंग के 'मंदिर-मोर्चा' के राष्ट्रीय संयोजक थे... दलित होते हुए भी वे मंदिर-निर्माण के लिए कटिबद्ध और प्रतिबद्ध थे!... उनकी मृत्यु कैसे और किन परिस्थितियों में हुई, इसकी उच्चस्तरीय जाँच होगी! परन्तु उनकी मृत्यु से पार्टी को बड़ी क्षति हुई है! हम उनकी आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं! साथ ही हम यह बताना चाहते हैं कि यदि  उनकी मृत्यु किसी षड्यंत्र का हिस्सा है तो दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा!... मुझे उनकी मृत्यु से बहुत भारी दुख और सदमा पहुँचा है... वे कुछ ही समय बाद 'मंदिर मोर्चा' - संयोजक की हैसियत से अपने साथियों के साथ 'मंदिर-नगरी' के लिए 'मंदिर-निर्माण-यात्रा' पर निकलने वाले थे... अब वह संभव नहीं रहा! ...किंतु मैं आप सबसे वादा करता हूँ कि वे, यानी दयालदास जी 'मंदिर-नगरी' में अवश्य होंगे! हम उनकी आदमकद भव्य मूर्ति उस पवित्र 'मंदिर-नगरी' में स्थापित करेंगे, जिस तक पहुँचने की  उनकी यात्रा प्रस्तावित थी!... उनकी मूर्ति का स्थान हमारी पार्टी के लिए किसी तीर्थस्थान जैसा ही पूजनीय और वंदनीय होगा!...''
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उस वक़्त, जब बद्री बैरागी का संवेदना-वक्तव्य मीडिया में चल रहा था, तब दयालू के पत्नी और बेटे-बेटी को इस बात की भनक तक नहीं थी कि दयालू सियासत के अँधेर कुएँ में समा गया है; और अब कभी उनके पास लौट कर नहीं आयेगा।

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