सत्य पर भारी पड़ता झूठ

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    जनवरी 2017
श्रेणी सत्य पर भारी पड़ता झूठ
संस्करण जनवरी 2017
लेखक का नाम आनंद प्रधान





विमर्श/तीन
उत्तर सत्य (पोस्ट ट्रुथ) परिघटना






 
उदारवादी लोकतान्त्रिक राजनीति, बाजार अर्थनीति और कार्पोरेट न्यूज मीडिया की नाकामियों की कब्र पर फलता-फूलता धुर दक्षिणपंथी राजनीति की झूठ का प्रोपैगंडा  

क्या राजनीति उत्तर सत्य (पोस्ट ट्रूथ) युग में पहुँच गई है, जहाँ सबूत-साक्ष्य से निकले वस्तुनिष्ठ तथ्यों और उनपर आधारित तर्क और सत्य बेमानी हो गए हैं? क्या लोग वस्तुनिष्ठ तथ्यों पर आधारित सत्य को ख़ारिज करके अपनी भावनाओं और निजी विश्वासों और आस्थाओं के आधार पर अपना सत्य गढ़ रहे हैं और तर्क और विवेक से परे अपना मत बना रहे हैं? पिछले कुछ महीनों से पश्चिमी देशों के उदार न्यूज मीडिया, बौद्धिक-अकादमिक और राजनीतिक हल्कों में इस मुद्दे पर बहस चल रही है। खासकर ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से अलग होने के मुद्दे पर हुए जनमतसंग्रह में ब्रेक्जिट (यूरोपीय संघ से अलग होने) के पक्ष में मतदान, अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में विवादित रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप की जीत और यूरोप के कई देशों में अनुदारवादी, धुर दक्षिणपंथी और उग्र राष्ट्रवादी शक्तियों के उभार के बाद से यह बहस और तेज हो गई है। 
आश्चर्य नहीं कि आक्सफोर्ड डिक्शनरी ने काफ़ी बहस, चर्चा और शोध के बाद उत्तर सत्य (पोस्ट ट्रूथ) को वर्ष 2016 के शब्द (वर्ड आफ द इयर) के रूप में चुना है। आक्सफोर्ड डिक्शनरी के मुताबिक, उत्तर सत्य (पोस्ट ट्रूथ) पद एक विशेषण है जो ऐसी परिस्थिति को इंगित करता है, जिसमें जनमत को बनाने वस्तुनिष्ठ तथ्यों से ज्यादा प्रभाव भावनाओं और निजी विश्वासों का हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि अब सत्य की कीमत नहीं रह गई है और न ही किसी को उसकी परवाह है। तथ्यों के मुकाबले निजी सोच और भावनाएं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई हैं। लोग अपनी निजी सोच या राजनीतिक रुझान के मुताबिक खुद अपना सत्य चुन या गढ़ रहे हैं और वस्तुनिष्ठ सत्य को नकार या अनदेखा कर रहे हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि सत्य को लेकर पहले भी होनेवाले दावों-प्रतिदावों से इतर यह परिघटना इस अर्थ में नई है कि इसमें वस्तुनिष्ठ और साक्ष्य आधारित सत्य गौण हो गया है। इस परिघटना की सबसे ख़ास बात यह है कि राजनीतिक चर्चाओं और बहसों में इस्तेमाल की जानेवाली सूचनाओं और तथ्यों, उठाए जानेवाले मुद्दों और तर्कों का झूठ सामने आ जाने के बाद भी राजनेता और राजनीतिक दल/समूह उसे दोहराते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में डोनाल्ड ट्रंप ने जितने बयान दिए, दावे किए या भाषण दिए, उसमें झूठ और अर्धसत्य ज्यादा था, लेकिन सच सामने आने के बावजूद ट्रंप ने उन्हें दोहराना नहीं छोड़ा।
राजनेताओं के बयानों की सच्चाई जांचनेवाली वेबसाईट- पोलिटीफैक्ट ने ट्रंप के बयानों/दावों/भाषणों की बारीकी से छानबीन की है. पोलिटीफैक्ट के मुताबिक, ट्रंप के बयानों/दावों/भाषणों में 33 फीसदी झूठ, 18 फीसदी लगभग झूठ और 15 फीसदी अर्धसत्य था, जबकि सिर्फ 4 फीसदी सत्य और 11 फीसदी ज्यादातर सत्य था। इसके अलावा कोई 18 फीसदी दावे/बयान ऐसे थे जो बिलकुल सफेद झूठ थे, जिनका कोई सिर-पैर नहीं था। इस तरह ट्रंप के लगभग 84 फीसदी बयान/दावे/भाषण झूठे या अर्धसत्य थे। लेकिन ध्रुवीकृत वोटरों ने या तो इसे अनदेखा किया या उसे सच माना। ब्रेक्जिट अभियान के पैरोकारों और डोनाल्ड ट्रंप से लेकर भारत में धुर दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी राजनीति और समूहों तक के प्रचार अभियान में इस पैटर्न को देखा जा सकता है।
झूठ को बेचने के लिए उसे 'कांस्पीरेसी थियरी', भावनाओं और निजी विश्वासों में लपेटकर पेश किया जाता है। इस तरह के प्रचार को नस्ली-धार्मिक-एथनिक आधारों पर ध्रुवीकृत भक्तों का बड़ा हिस्सा सहर्ष स्वीकार करने और उसे आगे बढ़ाने के लिए तैयार बैठा रहता है। 'उत्तर सत्य' युग परिघटना की यह खास बात है कि इसने विशेष तरह के जहरीले प्रोपैगंडा के लिए भक्तों की भीड़ तैयार कर दी है। ये भक्त इस कदर भावनाओं और आस्था से संचालित हैं कि उनके लिए तथ्य, तर्क और विवेक बेमानी हो गए हैं। वे प्रचार में इस तरह रंगे हुए हैं कि उन्हें प्रतिस्पद्र्धी विचारों को सुनने के लिए भी तैयार नहीं हैं।
इसका नतीजा ब्रिटेन में यूरोपीय संघ के मुद्दे पर हुए जनमत-संग्रह में उससे बाहर आने के पैरोकारों (ब्रेक्जिट) और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत, इटली में प्रधानमंत्री मैटियो रेंजी के संविधान संशोधन प्रस्ताव की जनमतसंग्रह में हार के अलावा फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड, हंगरी आस्ट्रिया, स्वीडन समेत यूरोप के कई देशों में धुर दक्षिणपंथी, फासीवादी और नव नाजीवादी ताकतों के उभार और उनके मुख्यधारा की राजनीति में आने के रूप में दिखाई पड़ रहा है। लेकिन यह केवल यूरोप और अमेरिका तक सीमित परिघटना नहीं है। इसे दुनिया के अनेक देशों में देखा जा सकता है। 2014 में भारत में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की भारी जीत या तुर्की में राष्ट्रपति एर्दुआन के कठोर शासन को इसी प्रक्रिया की परिणिति मानना चाहिए।
दरअसल, तथ्यों को तोडऩे-मरोडऩे का यह खेल इतना संगठित, सुनियोजित और औद्योगिक स्तर पर पहुँच चुका है कि, उसमें सफेद झूठ को भी सच की तरह पेश कर दिया जा रहा है और इस 'सूचना युग' में लोगों का बहुत बड़ा हिस्सा उसे सच मानकर स्वीकार कर ले रहा है. आश्चर्य नहीं कि 'उत्तर सत्य' युग में फ़ेक या फर्जी 'न्यूज' का तेजी से विस्तार और प्रसार हो रहा है। इसके लिए खासकर न्यू या सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा है, जहाँ से वह आसानी से मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में भी जगह बना ले रहा है। उदाहरण के लिए, अमेरिकी चुनावों के दौरान कई फेक न्यूज, वास्तविक खबरों की तरह चल पड़ी और लोगों में फैल गई। जैसे, पोप ने ट्रंप का समर्थन किया है या हिलेरी क्लिंटन 'इस्लामिक स्टेट' को हथियारों से लैस कर रही हैं।
अमेरिकी वेबसाईट 'बजफीड' के संस्थापक क्रेग सिल्वरमैन के मुताबिक, लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफार्म- फेसबुक पर पिछले साल अगस्त से 8 नवम्बर के बीच फेक न्यूज या फर्जी समाचारों को सबसे ज्यादा 87 लाख शेयर, कमेंट्स या प्रतिक्रियाएं मिलीं, जबकि उसी दौरान मुख्यधारा के समाचार माध्यमों के समाचारों को 73 लाख शेयर, कमेंट्स और प्रतिक्रियाएं मिलीं। इसे पता चलता है कि फेक न्यूज को कितने बड़े पैमाने पर स्वीकार्यता मिलने लगी है। लेकिन यह सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों या ब्रेक्जिट तक सीमित परिघटना नहीं है, बल्कि यह एक नई और स्थाई होती प्रवृत्ति या ट्रेंड का सूचक है।
फर्जी खबरों का संजाल
उदाहरण के लिए, वर्ष 2016 के दिसंबर के तीसरे सप्ताह में एक गुमनाम सी वेबसाइट- एडब्ल्यूडीन्यूजडाटकाम पर इजरायली रक्षा मंत्री के 'बयान' के आधार पर छपी एक 'ख़बर' का शीर्षक था कि अगर पाकिस्तान ने किसी भी बहाने सीरिया में अपनी सेना भेजी तो इजरायल, पाकिस्तान पर परमाणु हमला करके उसे बर्बाद कर देगा। इसके जवाब में पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाज़ा मोहम्मद आसिफ ने ट्विट्टर पर जारी बयान में इजरायल को चेताते हुए कहा कि वह न भूले कि पाकिस्तान भी परमाणु शक्ति है। अच्छी बात यह हुई कि पाकिस्तान और इजरायल के बीच यह तू-तू,मैं-मैं आगे नहीं बढ़ी, क्योंकि जल्दी ही यह पता चल गया कि एडब्ल्यूडीन्यूजडाटकाम पर छपी 'ख़बर' बिलकुल झूठी या $फर्जी थी। इजरायल के रक्षा मंत्री ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था।
यह घरेलू से लेकर वैश्विक स्तर पर फर्जी खबरों/समाचारों (फेक न्यूज) के बढ़ते प्रसार और उससे पैदा होनेवाले राजनीतिक-कूटनीतिक संकट की पहली मिसाल नहीं थी। इससे पहले वर्ष 2016 साल की शुरुआत में जर्मन और रूसी मीडिया में यह 'ख़बर' काफी चर्चा में रही कि एक रूसी मूल की 13 वर्षीय जर्मन छात्रा लीसा फे का स्कूल जाते हुए अपहरण करके मध्य पूर्व के शरणार्थियों ने सामूहिक बलात्कार किया है। हालाँकि जांच-पड़ताल के बाद बर्लिन पुलिस के मुखिया ने इसका खंडन करते हुए जानकारी दी कि लड़की ने अपने परिचितों के साथ 30 घंटे गुजारे। मेडिकल रिपोर्ट में उसके साथ बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई।
लेकिन इस बीच यह 'ख़बर' सोशल मीडिया और रूसी वेबसाइटों पर इतनी वायरल हो चुकी थी कि इस कथित बलात्कार के विरोध में जर्मनी में अति-दक्षिणपंथी और मुस्लिम विरोधी समूहों के साथ सैकड़ों लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। बात यहाँ तक पहुँच गई कि रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लवरोफ ने जर्मनी पर मामले को दबाने का आरोप लगाया तो जर्मन विदेश मंत्री ने आरोपों का खंडन करते हुए रूस को मामले का राजनीतिकरण न करने की चेतावनी दी। हालाँकि इस 'ख़बर' की सत्यता को लेकर विवाद है लेकिन जर्मनी में ज्यादातर का मानना है कि यह 'खबर' फर्जी है और इसे रूसी वेबसाइटों ने जानबूझकर उछाला ताकि जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल की शरणार्थी नीति पर सवाल खड़े हों और उनकी लोकप्रियता घटे।
भारत भी इस फर्जी ख़बरों की वायरल होती परिघटना का अपवाद नहीं है। हाल के वर्षों में यहाँ भी फर्जी और आधी सच्ची-आधी झूठी ख़बरों का बोलबाला बढ़ा है। सबसे ताज़ा उदाहरण लीजिये। मोदी सरकार के विमुद्रीकरण (डीमोनेटाईजेशन) के फैसले के तहत रिजर्व बैंक ने 2000 रूपये का नया नोट जारी किया है। लेकिन कुछ भक्तों ने इसे चमत्कारी नोट बना दिया और उसे लेकर कई तरह की फर्जी ख़बरें उड़ा दीं। इस नए नोट में नैनो जीपीएस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) चिप लगे होने और उसके माध्यम से नए नोट में कालाधन रखनेवालों को सरकार पाताल से भी खोज निकालेगी जैसी फर्जी 'खबर' व्हाटसएप्प मेसेंजर और फेसबुक जैसे दूसरे सोशल मीडिया के जरिये वायरल हो गई।
लेकिन सबसे हैरानी की बात यह है कि यह फर्ज़ी ख़बर वहीं सोशल मीडिया और व्हाट्सएप्प तक नहीं रुकी, बल्कि वह मुख्यधारा के न्यूज मीडिया तक पहुँच गई। हिंदी के प्रमुख राष्ट्रीय न्यूज चैनल- ज़ी न्यूज के प्राइम टाइम में उसके संपादक-एंकर ने बाकायदा इसे 'खबर' की तरह पेश किया जिसमें विस्तार के साथ बताया गया कि 2000 रूपये के नोट में लगा नैनो जीपीएस चिप किस तरह सैटेलाईट को सन्देश भेजेगा और किस तरह जमीन के 120 मीटर नीचे दबे होने पर भी इस नोट से सन्देश सैटेलाईट तक पहुंचेगा और सरकारी एजेंसियों उसकी लोकेशन पता कर लेंगी। कहने की जरूरत नहीं है कि मुख्यधारा के एक स्थापित न्यूज चैनल में जगह मिलने के बाद इस फर्जी खबर को कुछ समय के लिए ही सही विश्वसनीयता मिल गई।
अनेकों दर्शकों ने उसे सही मान लिया। यहाँ तक कि एक और प्रमुख न्यूज चैनल-आज तक की एक सीनियर एंकर का वीडियो वायरल हो गया जिसमें वह न्यूजरूम के अन्दर चमत्कारी नोट का नाटकीय अंदाज़ में बखान करती दिख रही हैं। हालाँकि यह 'ख़बर' दूसरे न्यूज चैनलों में चलने से बाल-बाल बच गई और उसकी सच्चाई उजागर हो गई। लेकिन इस चमत्कारी नोट की कहानियां इतनी आसानी से खत्म नहीं हुईं। सोशल मीडिया पर एक और फर्जी ख़बर चली कि इसमें रेडियो-एक्टिव स्याही का इस्तेमाल किया गया है जिसके कारण इस नोट को छुपाना संभव नहीं होगा। इसी तरह एक और फर्जी ख़बर सोशल मीडिया से निकली कि नए नोट को एक एप- 'मोदी कीनोट' से स्कैन करने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विमुद्रीकरण पर सन्देश चलने लगता है।
मजे की बात यह है कि इस 'ख़बर' के जांच-पड़ताल के दावे के बावजूद मुख्यधारा का एक और न्यूज चैनल- एबीपी न्यूज इस झांसे में फंस गया और उसे इस आधार पर सही ठहरा दिया कि सचमुच, 'मोदी कीनोट' एप से स्कैन करने पर मोदी का भाषण चलता है। लेकिन तथ्य यह था कि यह नोट का नहीं, एप्प का कमाल था जिसे इस तरह डिजाइन किया गया था कि उसमें मोदी का भाषण लोड था और उसका ट्रिगर 2000 रूपये के नए नोट को बनाया गया था। इस एप्प में राहुल गांधी का विमुद्रीकरण की आलोचना करता भाषण भी लोड किया जा सकता था और उसका ट्रिगर नए नोट को बनाया जाता तो स्कैन करने पर यह भाषण भी उसी तरह चल सकता था, जैसे मोदी का चल रहा था। हैरानी की बात यह है कि हिंदी-अंग्रेजी के कई अखबारों और उनकी वेबसाईट ने इस आधी सच्ची-आधी झूठी 'खबर' को एक ख़बर की तरह जगह दी।
लेकिन फर्जी और आधी सच्ची-आधी झूठी 'ख़बरें' सिर्फ विमुद्रीकरण तक सीमित नहीं हैं. ऐसे एक नहीं, कई और उदाहरण हैं जिनमें फर्जी 'ख़बरों' और सूचनाओं के जरिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक 'लार्जर दैन लाइफ' यानी एक अति-मानव की छवि गढऩे की कोशिश की जाती है। उदाहरण के लिए, इस साल जून में व्हाट्सएप्प और सोशल मीडिया के जरिये यह अफवाह फैलाई गई कि संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की संस्था- यूनेस्को ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री की पदवी दी है। इस फर्जी सूचना को भाजपा के कई नेताओं से लेकर कई और जाने-माने लोगों और सेलिब्रिटीज ने भी ट्वीट कर दिया।
लेकिन यह परिघटना सिर्फ सोशल मीडिया और व्हाट्सएप्प के जरिये फैलाई जानेवाली झूठी और फर्जी सूचनाओं और अफवाहों भर की नहीं है। मुख्यधारा के अखबारों और न्यूज चैनलों में भी ऐसी 'ख़बरें' दिखाई पड़ती रहती हैं। उदाहरण के लिए, देश के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार 'टाइम्स आफ इंडिया' ने 2013 में बादल फटने से उत्तराखंड में आई भीषण बाढ़ और आपदा के दौरान पहले पृष्ठ पर यह 'ख़बर' छापी कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी किस तरह देहरादून पहुंचे और अपने राज्य के अफसरों की मदद से दो दिन में आपदा में फंसे 15000 गुजराती पर्यटकों को निकालकर ले गए। (टाइम्स आफ इंडिया, 23 जून 13) जाहिर है कि इस दावे की सत्यता को लेकर कई गंभीर सवाल उठे। उसे एक पीआर अभियान और स्पिन डाक्टरिंग (चीजों को घुमा-िफराकर और अपने हितों के अनुकूल पेश करने की पीआर कला) का नमूना माना गया। (द हिन्दू, 28 जून 13)         
यह वह दौर था जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में गढ़ी जा रही थी। इसके लिए पीआर टीम ने रिप्ले के 'मानो या न मानो' की तर्ज पर बाल नरेन्द्र से लेकर सन्यासी नरेन्द्र और संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक नरेन्द्र मोदी से लेकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में अनेकों 'अनोखी, अकल्पनीय और चमत्कारिक' कथाएं प्रचारित कीं। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी ऐसी कथाएं न सिर्फ जारी हैं बल्कि ज्यादा बड़े पैमाने पर और संगठित तरीके गढ़ी और वितरित की जा रही हैं। हालाँकि इनमें से ज्यादातर कथाएं इंटरनेट, व्हाट्सएप्प और सोशल मीडिया के जरिये लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंचाई रही हैं, लेकिन कुछ कथाओं को मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में भी जगह मिल रही है। कुछ न्यूज चैनलों जैसे ज़ी न्यूज में ऐसी कथाएं अहर्निश चलती रहती हैं, लेकिन कई 'स्वतंत्र' और 'निष्पक्ष' चैनलों/अखबारों में भी अक्सर ऐसी 'ख़बरें' या कथाएं जगह पाने में कामयाब रहती हैं।
जैसे कई अखबारों/वेबसाइटों ने छापा और कई चैनलों ने चलाया कि प्रधानमंत्री किस तरह 20 घंटे से ज्यादा काम करते हैं। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था क्योंकि इससे मिलती-जुलती 'ख़बरें' पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बारे में भी छपीं थीं कि किस तरह वह 78 साल की उम्र में भी 18 घंटे काम करते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की सुपरमैन की तरह काम करने के बारे में सुबह पांच बजे भी अफसरों और मंत्रियों को फोन करने जैसी अनेकों कथाएं सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया में चलती और चलाई जाती रही हैं।
यहाँ एक उदाहरण देना पर्याप्त रहेगा। सोशल मीडिया साईट- 'कोरा' पर एक भाजपा के आईटी सेल से जुड़े होने का दावा करनेवाले पुष्पक चक्रवर्ती ने एक पोस्ट लिखी जिसमें विस्तार से बताया गया था कि कैसे प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तरी त्रिपुरा के एक आईएएस अफसर को रात दस बजे फोन करके बरसात में टूट गए नेशनल हाइवे 208 की मरम्मत के लिए मदद आग्रह किया, कैसे तुरंत फंड आवंटित हुआ और कैसे असम-त्रिपुरा-केंद्र सरकार की एजेंसियों ने चार दिन में 15 किमी सड़क ठीक कर दी। (टाइम्स आफ इंडिया, 29 अगस्त 16)
कहने की जरूरत नहीं है कि यह पोस्ट वायरल हो गई और दूसरे सोशल मीडिया पर भी शेयर की जाने लगी। इसके बाद इस पोस्ट को कई अखबारों/न्यूज पोर्टलों ने भी जगह दी। यह और बात है कि कुछ अखबारों/न्यूज पोर्टलों ने साथ में आखिरी लाइन में यह भी लिखा कि इन दावों की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं हो पाई है। एकाध में इन दावों पर सवाल भी उठाये गए। लेकिन जिस तरह से यह 'ख़बर' वायरल हुई और उसे फैलाया गया, उसमें एकाध के सवाल उठाने से फर्क नहीं पड़ता। वह या तो शोर में दब जाता है या उल्टे सवाल उठानेवाले पर सवाल उठाया जाने लगता है। इस तरह ये किस्से, गप्पें और फर्जी ख़बरें एक करेंसी हासिल कर लेती हैं और उसकी कोई प्रभावी काट न होने के कारण बहुतेरे लोग उसे 'सच' मानकर उसपर भरोसा भी करने लगते हैं।
ऐसा नहीं है कि ऐसी पीआर कथाएं, गप्पें और फर्जी 'ख़बरें' कांग्रेस नेता राहुल गाँधी या आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल या कुछ और दूसरे मुख्यमंत्रियों और कार्पोरेट प्रभुओं के बारे में नहीं गढ़ी और फैलाई जाती हैं। लेकिन उनकी संख्या/मात्रा प्रधानमंत्री मोदी की तुलना में बहुत कम है और उनके प्रसार का दायरा भी सीमित है। साफ है कि पीआर कथाएं, गप्पें और फर्जी 'ख़बरें' गढऩे, फैलाने और उसे मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में 'प्लांट' करने में अनुदार-धुर दक्षिणपंथी-राष्ट्रवादी खेमे का वर्चस्व है। नए तकनीक खासकर मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया और व्हाट्सएप्प से लेकर पारम्परिक मुख्यधारा के न्यूज मीडिया के इस्तेमाल में उनका कोई जवाब नहीं है। (फस्र्ट पोस्ट, 26 दिसंबर 16)
जनमत प्रबंधन का खेल 
निश्चय ही, इससे सत्ता में बैठे ताकतवर नेताओं, दूसरे प्रभावशाली नेताओं और कार्पोरेट जगत के प्रभुओं को अपनी 'लार्जर दैन लाइफ' छवि गढऩे, अपने अनुकूल सकारात्मक जनमत बनाने और अपने हितों के अनुकूल मुद्दों को आगे बढ़ाने और आमलोगों के बीच स्वीकार्य बनाने में मदद मिलती है। शासक वर्गों को सूचना की ताकत का अंदाज़ा है. जनमत बनाने या बिगाडऩे में सूचना/समाचार का महत्व सबसे अधिक है। यही कारण है कि शासक वर्ग हमेशा से सूचनाओं/समाचारों के प्रवाह को नियंत्रित और प्रबंधित करता रहा है। यह भी किसी से छुपा नहीं है कि जनमत के महत्व से वाकिफ सत्ता प्रतिष्ठान और प्रभु वर्ग उसे नियंत्रित करने, तोडऩे-मरोडऩे और अपने अनुकूल ढालने में कोई कसर नहीं उठा रखता है।
बीसवीं शताब्दी के शुरुआत से ही जनमत को अपने हितों के मुताबिक तोडऩे-मरोडऩे, नियंत्रित और प्रभावित करने की कोशिशें एक संगठित और सुनियोजित रूप लेने लगीं थीं। इसके कारण न्यूज मीडिया और उसके समाचारों के प्रबंधन और नियंत्रण में शासक वर्गों ने समय के साथ महारत हासिल कर ली है। जनमत प्रबंधन या मानस प्रबंधन की यह कला और तकनीक जनसंपर्क (पीआर), प्रोपैगंडा, विज्ञापन, मार्केटिंग, स्पिन और लाबीइंग के रूप में विकसित हुई और कालांतर में एक विशाल उद्योग में तब्दील हो चुकी है. उसकी ताकत का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि उसने लोकतान्त्रिक राजनीति को पूरी तरह से अपने गिरफ्त में ले लिया है और उसे छवि निर्माण, जनमत प्रबंधन और प्रोपैगंडा में सीमित और संकुचित कर दिया है। 
तथ्य यह है कि जनमत को नियंत्रित, प्रभावित और प्रबंधित करने की यह कला, आज एक ललित कला (फाइन आर्ट्स) में बदल चुकी है। जनमत और मानस प्रबंधन की इस कला में पहले भी तथ्यों को तोडऩे-मरोडऩे, झूठ को 'सच' बनाने, 'ख़बरों/समाचारों' को गढऩे और प्रचार/विज्ञापन के शोर में सच को दबाने की संगठित कोशिशें होती रही हैं। लेकिन आज इसके लिए बेशर्मी के साथ हर तिकड़म और दांव-पेंच का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके लिए सरकारें और जनमत प्रबंधक कहाँ तक जा सकते हैं, इसका अंदाज़ा 1997 में आई एक अंग्रेजी फिल्म- 'वैग द डाग' से लगाया जा सकता है। इस फिल्म में एक अमेरिकी स्पिन डाक्टर (राबर्ट डी नीरो) राष्ट्रपति चुनावों से कुछ महीने पहले सेक्स स्कैंडल में फंसे तत्कालीन राष्ट्रपति और अपने क्लाइंट के हक में माहौल बनाने और आम नागरिकों का ध्यान भटकाने के लिए हालीवुड के एक प्रोड्यूसर (डस्टिन हाफमैन) की मदद से एक दूर-दराज के देश अल्बानिया से फर्जी युद्ध रच देता है और विवादों और स्कैंडलों के बावजूद राष्ट्रपति को पुनर्निर्वाचित कराने में कामयाब रहता है।
संयोग देखिये कि इस फिल्म के रिलीज के कुछ महीनों बाद ही अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन इन्टर्न मोनिका लेवेंस्की के साथ सेक्स स्कैंडल में फंस गए जिससे ध्यान बंटाने के लिए कहा जाता है कि क्लिंटन प्रशासन ने सुदूर सूडान में अल-शिफा दवा फैक्ट्री पर यह आरोप लगाते हुए मिसाइल से बमबारी की थी कि इस फैक्ट्री में रासायनिक हथियार नर्व गैस बनाई जा रही थी और फैक्ट्री के मालिक के संबंध अल-कायदा से हैं। हालाँकि क्लिंटन प्रशासन के इन दावों में कोई दम नहीं था जिसे कुछ सालों बाद अमेरिकी अधिकारियों ने भी स्वीकार किया. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लोगों को बेवकूफ बनाया जा चुका था।
यही नहीं, इस बीच 2003 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने इराक के पास जनसंहार के हथियार होने और इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन पर तानाशाह और अल-कायदा से संबंध होने जैसे आरोप लगाकर हमला कर दिया। इस हमले के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए एक बार फिर युद्ध स्तर पर झूठ, फर्जी खबरों और तथ्यों को तोडऩे-मरोडऩे में कोई कसर नहीं उठा रखी। मजे की बात यह है कि इन दिनों फर्जी और झूठी ख़बरों की शिकायत करनेवाला मुख्यधारा का उदार कार्पोरेट न्यूज मीडिया इराक युद्ध के लिए अनुकूल माहौल और जनमत तैयार बुश प्रशासन का सबसे प्रमुख साथी था। यहाँ तक कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर पूरा पश्चिमी कार्पोरेट न्यूज मीडिया (उदार और दक्षिणपंथी सभी) अमेरिकी फौजों के साथ नत्थी (एम्बेडेड) था और अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की भाषा बोल रहा था।
दोहराने की जरूरत नहीं है कि इराक को युद्ध में बर्बाद कर दिया गया। सद्दाम हुसैन को पकड़कर फांसी पर चढ़ा दिया गया। तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने इराक युद्ध की जीत और सफलता की मार्केटिंग करके 2004 के राष्ट्रपति चुनावों में जीत और दूसरा कार्यकाल हासिल कर लिया। लेकिन आज तक इराक में जनसंहार का कोई हथियार नहीं मिला। अलबत्ता, इराक और पूरा पश्चिम एशिया आज तक उस युद्ध के नतीजे भुगत रहा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि उस समय और आज भी पश्चिमी उदार न्यूज मीडिया, उसके स्तंभकारों और बौद्धिकों ने यह नहीं कहा है कि इराक युद्ध के लिए अनुकूल जनमत बनाने के वास्ते जिस तरह सत्ता प्रतिष्ठान, राष्ट्रपति, मंत्रियों और फौजी अफसरों ने झूठ बोला और उसे बिना किसी आलोचनात्मक जांच-पड़ताल के मुख्यधारा के न्यूज मीडिया ने तथ्य और ईश्वरीय सच की तरह पेश किया, वास्तव में, वह 'उत्तर सत्य' (पोस्ट ट्रूथ) युग की शुरूआत थी।
सच पूछिए तो आज अमेरिकी राजनीति में धुर दक्षिणपंथी-अनुदार-प्रतिक्रियावादी (आजकल इसके लिए ऑल्ट-राइट यानी अल्टरनेटिव राइट पद का इस्तेमाल किया जा रहा है) ताकतों के प्रतिनिधि के रूप में डोनाल्ड ट्रंप का उभार और राष्ट्रपति चुनावों के दौरान खुलेआम झूठ बोलकर, तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ और आधी सच्ची-आधी झूठी बातें करके चुनाव जीतने और सोशल मीडिया आदि के जरिये फर्जी खबरों की बाढ़ को 'उत्तर सत्य' (पोस्ट ट्रूथ) युग की शुरुआत बताया जा रहा है, उसकी वैचारिक-राजनीतिक बुनियाद बुश या उससे पहले क्लिंटन या बुश सीनियर या और पहले रोनाल्ड रीगन और रिचर्ड निक्सन के कार्यकाल में पड़ चुकी थी।
मशहूर अमेरिकी पत्रकार आई एफ स्टोन का कहना था कि बिना अपवाद के सभी सरकारें झूठ बोलती हैं। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों और खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से प्रोपैगंडा उदार पूंजीवादी लोकतान्त्रिक राजनीति का अभिन्न हिस्सा रहा है।
उदार कार्पोरेट न्यूज मीडिया का संकट
यहाँ जाने माने अमेरिकी पत्रकार और बुद्धिजीवी वाल्टर लिप्पमैन का उल्लेख जरूरी है, जिन्होंने 1922 में छपी अपनी क्लासिक पुस्तक 'जनमत' (पब्लिक ओपिनियन) में एक बहुत मार्के की बात कही है- 'समाचार और सत्य एक चीज नहीं हैं और उन्हें अलग करके देखा जाना चाहिए।' (न्यूज एंड ट्रुथ आर नॉट द सेम थिंग एंड मस्ट बी क्लिअरली डिस्टइन्गुइशड)। समाचार माध्यमों (न्यूज मीडिया) की सीमाएं हैं। सत्य तक पहुँचने के लिए एक जटिल सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक प्रक्रिया की जांच-पड़ताल और खोजबीन जरूरी है। उसके लिए विभिन्न तथ्यों, सन्दर्भों और पृष्ठभूमि को तार्किक तरीके से सामने रखना जरूरी है, जिसके लिए आमतौर पर न्यूज मीडिया और पत्रकारों के पास समय, संसाधन, तैयारी और प्रेरणा नहीं होती है।
लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। बड़ी पूंजी का कार्पोरेट न्यूज मीडिया सत्ता संरचना के साथ इतने गहरे बंधा हुआ है कि वह झूठ बोलने के लिए बाध्य है। अमेरिकी बुद्धिजीवी नोम चोमस्की और एडवर्ड हर्मन ने अपनी क्लासिक पुस्तक 'मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट: द पोलिटिकल इकानामी आफ मॉस मीडिया' में विस्तार से बताया है कि किस तरह कार्पोरेट न्यूज मीडिया में पांच छननियाँ- मालिकाना, विज्ञापन राजस्व, समाचारों के स्रोत, ताकतवर समूहों की निंदा और विचारधारा- निरंतर काम करती रहती हैं, जिनसे गुजर कर ही कोई सूचना समाचार बन पाती है। चोमस्की और हर्मन के मुताबिक, मुख्यधारा का कार्पोरेट न्यूज मीडिया सत्ता प्रतिष्ठान के हितों और एजेंडे के मुताबिक प्रचार के लिए काम करता है। उसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी और सत्य को प्रकट करने का दायरा पूर्व निश्चित है और न्यूज मीडिया उससे बाहर नहीं जा सकता है।
साफ है कि सत्य की पैरोकारी का दावा करनेवाले उदार कार्पोरेट न्यूज मीडिया के डीएनए में सत्य नहीं है. हैरानी की बात नहीं है कि अमेरिकी सत्ता और कार्पोरेट प्रतिष्ठान की ओर से मुख्यधारा के उदार और अनुदार कार्पोरेट न्यूज मीडिया के जरिये दशकों से जिस सांस्थानिक झूठ, फरेब और झांसे को कम-बेशी 'समाचार' की तरह बेचा जा रहा था, उसके कारण पिछले दशकों में खुद उदार कार्पोरेट न्यूज मीडिया की साख बुरी तरह गिरी है। आम अमेरिकियों के एक अच्छे-खासे हिस्से को लगता है कि बड़े कार्पोरेट न्यूज मीडिया के सत्ता प्रतिष्ठान और कार्पोरेट्स के साथ गहरे रिश्ते हैं और इस कारण वे उनके हितों को सुरक्षित रखने और आगे बढ़ाने के लिए सच्चाई को दबाने, तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ करने से लेकर फर्जी ख़बरें तक प्रकाशित-प्रसारित करने से नहीं हिचकिचाते हैं।
हाल के वर्षों में आमलोगों का एक हिस्सा समाचारों और सूचनाओं के लिए वैकल्पिक माध्यमों खासकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल ज्यादा करने लगा है। लेकिन सोशल मीडिया के साथ सबसे बड़ी समस्या है कि उसमें अधिकांश उपयोगकर्ता (यूजर) अपने सम्बन्धियों/परिचितों/अपनी तरह के सोच-विचारवाले लोगों और उनसे जुड़े नेटवर्क में ही सूचनाओं/विचारों को साझा करते हैं। इस तरह जाने-अनजाने वे एक ही तरह के समाचारों/जानकारियों और सोच-विचार को शेयर करते हैं और उन्हीं से घिरे रहते हैं। यह एक तरह का प्रतिध्वनि कक्ष (इको चैंबर) बन जाता है जिसमें एक खास तरह की सूचनाएं और विचार गूँजते रहते हैं और उसमें प्रतिकूल समाचारों/जानकारियों और विचार को प्रवेश का मौका नहीं मिल पाता है।
धुर दक्षिणपंथी राजनीति का उभार
इस प्रक्रिया को पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक और घरेलू लोकतान्त्रिक राजनीति में अनुदारवादी-अति दक्षिणपंथी और फासीवादी ताकतों के उभार से भी गति मिली है। इस तरह की राजनीतिक ताकतें जो पिछले कुछ दशकों से पश्चिमी विकसित देशों में आमतौर पर हाशिये पर थीं, क्योंकि मुख्यधारा की दोनों प्रमुख उदार और अनुदार राजनीतिक पार्टियां (जैसे डेमोक्रेटिक बनाम रिपब्लिकन या लेबर बनाम कंजर्वेटिव) उनके एजेंडे और मुद्दों को थोड़ा और दायें खिसककर हड़प लेती रही हैं। लेकिन इसके कारण खुद इन पार्टियों का राजनीतिक चरित्र काफी बदल गया है। इसके कारण राजनीति और समाज में एक दक्षिणपंथी झुकाव बढ़ा है।
इसके अलावा 70 के दशक के उत्तर्राद्ध में अमेरिका में रोनाल्ड रीगन और ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर के नेतृत्व में जिस बाजारवादी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया गया और जिसे विश्व बैंक-मुद्रा कोष के जरिये पूरी दुनिया पर थोपा गया, उसमें मुक्त बाजार और उसे आगे बढ़ानेवाले निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण, विनियमन (डी-रेगुलेशन), मुक्त व्यापार के साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी कार्यक्रमों के बजट में कटौती को जोर शोर से प्रोत्साहित किया गया। कहा गया कि राज्य नहीं सब कुछ बाजार से तय होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी अपने मूल चरित्र में अति-अनुदार, बड़ी वित्तीय पूंजी और कार्पोरेट समर्थक और जन विरोधी आर्थिक सैद्धांतिकी है।
लेकिन इसमें अति-अनुदार अर्थनीति और कथित उदार लोकतंत्र और राजनीति के बीच एक अन्तर्निहित बुनियादी अंतर्विरोध भी मौजूद था। ऐसे में, इस अंतर्विरोध को उदारीकरण और वैश्वीकरण की कुछ 'चमकती हुई सफलताओं' की कहानियों और आश्वासनों के पीछे कितने दिन तक छुपाया और दबाया जा सकता था? आश्चर्य नहीं कि इन नीतियों ने पिछले तीन-साढ़े तीन दशकों में वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर देशों के अन्दर और उनके बीच बड़े पैमाने पर $गैर बराबरी और विषमता बढ़ाई है, बेरोजगारी बढ़ी है, सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती हुई है और आबादी का एक बड़ा हिस्सा हाशिये पर धकेल दिया गया है। दुनिया भर में प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक सम्पत्ति की कार्पोरेट लूट चरम पर पहुँच गई है। यही नहीं, 2008 के वैश्विक आर्थिक-वित्तीय संकट के बाद से वैश्विक अर्थव्यवस्था खासकर यूरोप और काफी हद तक अमेरिका में अर्थव्यवस्था की हालत बिगड़ी हुई है।
इन सब कारणों से दुनिया के तमाम देशों में इन नीतियों के खिलाफ आम लोगों में असंतोष, भविष्य को लेकर व्यग्रता और गुस्सा बढ़ा है। इस असंतोष, व्यग्रता और गुस्से को स्वर देने में कथित उदारवादी राजनीति की नाकामी और उसकी घटती विश्वसनीयता का फायदा धुर दक्षिणपंथी, फासीवादी और प्रतिक्रियावादी राजनीति उठा रही है। वे आमलोगों खासकर श्रमिकों, निम्न मध्यवर्ग आदि के बीच धार्मिक, एथनिक, सामुदायिक, जातीय (रेसियल), भाषाई जैसे संकीर्ण पहचानों (आइडेंटिटी) की राजनीति के तहत एक दूसरे के प्रति सच्चे-झूठे डर, अविश्वास और नफरत को भड़काकर ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। जैसे यूरोप और अमेरिका में शरणार्थियों, आप्रवासियों, धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों खासकर इस्लाम का हौव्वा खड़ा करके और उन्हें सारी समस्याओं की वजह घोषित करके घृणा और नफरत पर आधारित अंध राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काई जा रही हैं।
धुर दक्षिणपंथ की समानांतर प्रचार मशीनरी है सोशल मीडिया
इससे इन देशों में सार्वजनिक विमर्श काफी जहरीला और राजनीतिक-सामाजिक ध्रुवीकरण तीखा हुआ है। लेकिन यहाँ सबसे अधिक गौर करनेवाली बात यह है कि धुर दक्षिणपंथी, नस्लवादी, फासीवादी और नव नाजीवादी नेताओं, राजनीतिक दलों, संगठनों और समूहों ने अपने एजेंडे, मुद्दों और कार्यक्रमों के प्रचार के लिए एक समानांतर प्रोपेगंडा मशीनरी खड़ी की है। इसमें रैलियों, जनसभाओं और सीधे जनसंपर्क से ज्यादा वेबसाइटों, सोशल मीडिया, मेसेज एप्प्स आदि का इस्तेमाल किया जा रहा है। सच यह है कि इन शक्तियों ने इंटरनेट को पूरी तरह से कब्जे में ले लिया है और वे गूगल जैसे सर्व-शक्तिमान सर्च ईंजन और फेसबुक जैसे ताकतवर सोशल मीडिया प्लेटफार्म के अल्गोरिथम और आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस (एआई) का चतुराई से अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं।
यही नहीं, इस जहरीले और आक्रामक प्रोपेगंडा में किसी एथिकल सीमा या संकोच का ध्यान नहीं रखा जा रहा है और लोकतान्त्रिक राजनीतिक की मर्यादाएं और सीमाएं टूट चुकी हैं। राजनीति बिना नियम की फ्री-स्टाइल कुश्ती बन गई है जिसमें हर दांव जायज है।
इसमें मुख्यधारा के उदार न्यूज मीडिया को निशाना बनाना भी शामिल है। इसके जरिये ही वह अपने झूठ और फर्जीवाड़े को लोगों में स्वीकार्य बनाने में कामयाबी हासिल करते हैं। उदाहरण के लिए, ट्रंप ने न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और सीएनएन जैसे उदार न्यूज माध्यमों और कई पत्रकारों का नाम लेकर उन्हें खुलेआम निशाना बनाया और उनके बारे में गाली-गलौज भरी टिप्पणियां की। चूँकि आमलोगों का एक बड़ा हिस्सा मुख्यधारा के कार्पोरेट न्यूज मीडिया पर भरोसा नहीं करता है, इसलिए ट्रंप जैसे धुर दक्षिणपंथी-नस्ली नेता और ऐसी राजनीतिक शक्तियों को अपना झूठ बेचने और आगे बढाने में आसानी हो जाती है। भारत में भी धुर दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी राजनीति ने चुनावों से पहले और बाद में अपने प्रति आलोचनात्मक न्यूज मीडिया और पत्रकारों/बौद्धिकों के एक हिस्से को 'न्यूज ट्रेडर', 'प्रेस्टीच्युट', 'सिकुलर' और 'खान्ग्रेसी' कहकर निरंतर निशाना बनाया है। यही नहीं, उन्हें सोशल मीडिया पर भद्दी गालियाँ से लेकर धमकियाँ तक दी जाती हैं।
लेकिन फर्जी या तोड़ी-मरोड़ी गई 'ख़बरों' का एक और ज्यादा चिंतित करनेवाला ख़तरनाक पहलू है. हाल के वर्षों में सोशल मीडिया, इंटरनेट और मोबाइल को जहरीले सांप्रदायिक प्रोपैगंडा के लिए सबसे अधिक इस्तेमाल किया गया है। इसके तहत बहुत सुनियोजित और संगठित तरीके से मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया और व्हाट्सएप्प के जरिये अफवाहों, फर्जी खबरों और तोड़ी-मरोड़ी गई सूचनाओं को आगे बढ़ाया गया है जिनके कारण देश के कई हिस्सों में दंगे भड़कने, अल्पसंख्यक समुदाय या कमजोर वर्गों पर भीड़ के हमले और हत्या और सामूहिक पलायन तक की घटनाएं हुई हैं।
हालाँकि झूठी अफवाहें और आधी सच्ची-आधी झूठी 'खबरों' के जरिये दंगे भड़काने और सांप्रदायिक/एथनिक/जातीय ध्रुवीकरण की संगठित सांप्रदायिक राजनीति का अनुभव देश के लिए नया नहीं है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मोबाईल फोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया के तेज विस्तार के साथ फर्जी और तोड़ी-मरोड़ी 'ख़बरों' और अफवाहों के प्रसार की गति, विस्तार और प्रभाव कई गुना बढ़ गया है। देश में ऐसी $फर्जी खबरों, अफवाहों और आधी सच्ची-आधी झूठी सूचनाओं के जरिये सांप्रदायिक तनाव को निरंतर सुलगाये रखने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने/गहराने की संगठित कोशिशें एक स्थाई परिघटना बन गई हैं। (हिंदुस्तान टाइम्स, 17 अक्टूबर 16)
उदाहरण के लिए, जेएनयू में कश्मीर मुद्दे और संसद हमले के दोषी अफज़ल गुरु की फांसी पर हुए कार्यक्रम पर हुए विवाद का मामला हो या उत्तर प्रदेश के दादरी में गौ मांस रखने की अफवाह पर मोहम्मद अखलाक की पीट-पीटकर की गई हत्या हो या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना कस्बे से हिन्दुओं के कथित पलायन का भाजपा का आरोप हो या लव जिहाद या गौ हत्या के आरोप या फिर 2013 में मुज़फ्फरनगर में हुए दंगे और उसके बाद से आसपास के जिलों में सांप्रदायिक तनाव और झगड़ों की घटनाएं हों- मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया और व्हाट्सएप्प के जरिये संगठित तरीके से अफवाहें, $फर्जी या आधी सच्ची-आधी झूठी 'ख़बरें' फैलाई गईं। (फस्र्ट पोस्ट, 6 अक्टूबर 15) 
चौंकानेवाली बात यह है कि इनमें से कई मुख्यधारा के न्यूज मीडिया- अखबारों और न्यूज चैनलों में भी जगह पा गईं, जिससे उन्हें एक तरह की तात्कालिक विश्वसनीयता मिल गई या उससे सत्य विवादित हो गया। दोहराने की जरूरत नहीं है कि इन अ$फवाहों, $फर्जी और आधी सच्ची-आधी झूठी 'खबरों' के कारण हिन्दुत्ववादी और सांप्रदायिक दलों/संगठनों/समूहों को सबसे अधिक राजनीतिक फायदा हुआ है। लेकिन उससे अभी अधिक चिंता की बात यह है कि इससे पूरे समाज का साम्प्रदायिकरण बढ़ा है और सांप्रदायिक तनाव की भठ्ठि निरंतर सुलगती रहती है। अब सांप्रदायिकता तात्कालिक या मौसमी बुखार नहीं है बल्कि एक खास समय में तेजी से चढऩे के बाद उतर जाता है, बल्कि यह एक स्थाई बुखार में बदल चुकी है, जिसमें समाज का बड़ा हिस्सा लगातार तप रहा है।
'उत्तर सत्य' युग इस अर्थ में एक ख़तरनाक परिघटना है जिसने मानवता के विकास और उसमें वस्तुनिष्ठ और साक्ष्य आधारित सत्य, तर्क और विवेक की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका को चुनौती दी है। यह समाजों और देशों को अंधकार युग की ओर ले जाने की कोशिश है। यह समाज और लोगों को मानसिक रूप से बीमार बना रही है और उनकी स्वतंत्र रूप से सोचने-समझने और इसके लिए जरूरी सच्चाई को देखने-पहचानने की क्षमता को खत्म कर रही है। यह उन्हें एक अंध भक्तों की भीड़ में बदल रही है जो हमेशा अपने कल्पित दुश्मनों से बदला लेने के लिए उनके खून की प्यासी है और जो खुद की श्रेष्ठता साबित करने के लिए हर नस्ली-धार्मिक-एथनिक-भाषाई अल्पसंख्यक समुदाय, शरणार्थियों, आप्रवासियों, कमजोर वर्गों और समुदायों को निशाना बनाने के लिए व्यग्र है।      
दुनिया ने पहले भी ऐसे दौर देखे हैं। यूरोप में हिटलर और फासीवाद के उभार का अनुभव बहुत पुराना नहीं है। राजनीतिक रूप से 'उत्तर सत्य' युग कई मायनों में फासीवाद राजनीति और उसके कई तौर-तरीकों और हथकंडों की वापसी का ही संकेत है। यह लोकतान्त्रिक राजनीति के नकाब में बहु-संख्यकवादी फासीवादी राजनीति की पुनर्वापसी है। इसे नज़रंदाज़ करना खतरे से खाली नहीं है। यह सिर्फ फर्जी ख़बरों या झूठे प्रोपैगंडा और उसे आबादी के एक बड़े हिस्से द्वारा स्वीकार करने का मामला नहीं है। असल में, यह कहीं ज्यादा गहरी बीमारी का लक्षण भर है। यह बीमारी राजनीतिक है और उसकी जड़ें सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं और पूंजीवाद के संकट से जुड़ी हैं।
इसे पहचाने बिना इसका मु$काबला संभव नहीं है। यही नहीं, इसका मुकाबला भी राजनीति के दायरे में ही करना होगा। इसका कोई शार्ट कट नहीं है। यह एक लम्बी वैचारिक लड़ाई है। मुश्किल यह है कि यह लड़ाई अभी तक शुरू नहीं हुई है। 
                  
सन्दर्भ :
टाइम्स आफ इंडिया (29 अगस्त 16): व्हाई पीएम मोदी कॉल्ड दिस त्रिपुरा आईएएस आफिसर एट 10 पीएम (: : http://timesofindia.indiatimes.com/india/Why-PM-Modi-called-this-Tripura-IAS-officer-at-10pm/articleshow/53908586.cms
टाइम्स आफ इंडिया (23 जून 13): नरेन्द्र मोदी लैंड्स इन उत्तराखंड, फ्लाइज आउट विथ 15000 गुजरातिज: http://economictimes.indiatimes.com/news/politics-and-nation/narendra-modi-lands-in-uttarakhand-flies-out-with-vz………-gujaratis/articleshow/w…|wy…yy.cms $
फस्र्टपोस्ट (26 दिसंबर 16): फेक न्यूज इन रिव्यू: हियर आर द टाप 10 फारवर्ड्स इंडियंस (ऑलमोस्ट) बिलीवड इन 2016:  http://m.firstpost.com/india/w…v{-in-review-top-v…-fake-news-forwards-that-indians-almost-believed-xv|x}w….html 
फस्र्ट पोस्ट (6 अक्टूबर 15): फ्राम दादरी लिंचिंग टू मुजफ्फरनगर: हियर इज हाउ डिजिटल इंडिया इज व्हाट्सएप्पिंग, ट्वीटिंग कम्युनल रिवोल्यूशन:  http://www.firstpost.com/politics/how-digital-india-is-whatsapping-communal-revolution-from-dadri-to-muzaffarnagar-wyzy~w….html
हिंदुस्तान टाइम्स (17 अक्तूबर 16): रिलीजियस वायोलेंस कीप्स उत्तर प्रदेश'स पोलिटिकल पाट बोव्यलिंग: http://www.hindustantimes.com/india-news/religious-violence-keeps-uttar-pradesh-s-political-pot-boiling/story-UfrbPUgWDPprH|OUvyvgoL.html
द हिन्दू (28 जून 13): रिपोर्टर क्लेमस मोदी'ज '15000' रेस्क्यू फिगर केम फ्रॉम बीजेपी इटसेल्फ:   http://www.thehindu.com/news/national/reporter-claims-modis-15000-rescue-figure-came-from-bjp-itself/article4857739.ece

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