तिथि दानी की कविताएँ

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    नवम्बर 2016
श्रेणी तिथि दानी की कविताएँ
संस्करण नवम्बर 2016
लेखक का नाम तिथि दानी





कविता


तिथि दानी ने पहल के लिए लगभग पाँच वर्ष का इंतजार किया। उनकी कविताएं यत्र तत्र पत्रिकाओं में इतना प्रकाशित हुई हैं कि एक संग्रह छपने को तैयार है। उनकी ये कविताएं यू.के. प्रवास के दैरान लिखी गई हैं और इनमें नयी भाषा और विन्यास है।





सफेद पर्दे और गुलदान

परियों की कई पोशाकें दिखाई देती हैं दूर से
जिस पर रेत से लौटी लहरों ने की है कशीदाकारी
तेजी से पलटते हैं बचपन में सुनी परीकथाओं के पन्ने
नज़रों के सामने तैरते हैं सतरंगी बुलबुले
सूरज की किरणों पर सवार
निगाहें चली जाती हैं कांच की खिड़की के पार
जो ठहरती है वहां,
जहां सच में बदलती है फंतासी
झालरनुमा गोटेदार, सफेद पर्दों के साथ

और भी नज़दीक जाने पर
दिखता है शान से बैठा हुआ गुलदान
जिसमें भरा है एक मिश्रण
प्रेम से उठायी गई मिट्टी और करुणा से लिया गया जल
गुलदान में मुस्कुराते हैं गुल,
खुद पर पड़ती नज़रों से
बढ़ती है इनकी शोखी और गाढ़ा होता है रंग
यह दृश्य बेहतर कर देता है आंखों की रोशनी
नाक सूंघ लेती है अतीन्द्रिय गंध,
अचेतन से चेतन में प्रवेश करती है मुस्कान
फेफड़ों में भरती है ताज़ा प्राणवायु
दिमा$ग हो जाता है विचारशून्य,
नहीं रह जाता उसे याद
कोई जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय और वर्ण
नहीं सोचता, कौन है इस संपत्ति का मालिक
उसी क्षण होती है प्रेम और आनंद की अलौकिक जुगलबंदी

इसी क्षण में शामिल होती है मुक्ति
होता है आंतरिक और बाह्य युद्ध स्थानापन्न
यही वो समय है, जिसके इंतज़ार में कटती है जिंदगी,
चलो, निकल पड़ें एक लंबी यात्रा पर
समूची धरती पर लगा दें
स$फेद झालरनुमा गोटेदार पर्दे
और हर कोण पर सजा दें गुलदान।

दो सहेलियां झूले पर

स्कूल से अभी-अभी लौट कर आयीं
लाल रंग के दहकते स्वेटर पहने
वे दो सहेलियां थीं
पुराने टायर का झूला दर$ख्त पर बांधे
कुछ बेखुदी, कुछ होश में
वे झूल रही थीं आंखें मीचे
$िफर आंखें खोल खिलखिलाते
बचपन से जवानी के झूले पर चढऩे की तैयारी में,
वे बातें कर रही थीं
पृथ्वी से बाहर किसी ग्रह पर घर बनाने की

उनकी हँसी में समा गए थे पृथ्वी के प्राण,
आकाश झुक गया था उनके अभिवादन में,
चोटियों में बांध ली थी उन दो सहेलियों ने बारिश,
सांसों में खींच ली थी गुलाबों की खुशबू,
टायर में भर ली थी उन्होंने अल सुबह की पाक सा$फ हवा,
अपने शरीर के चुंबकत्व से
खींच ली थी उन्होंने कण-कण की ऊर्जा

वे उडऩे की जल्दी में थीं ये सब कुछ साथ ले कर,
इससे पहले कि पड़ जाएं किसी खतरे में उनके प्राण
छीन ली जाए उनसे,
उनके हिस्से की पा$क साफ हवा,
फिर फेंफड़ों में भर दिया जाए भय का कार्बन
कुरुक्षेत्र न बन जाएं उनके खेल के मैदान,
इस पृथ्वी पर रहते हुए न पड़ें
जवानी की दहलीज़ पर उनके कदम,
मोर की तरह नाचने से पहले
न कर ले कोई उनका शिकार

पृथ्वी ने भांप ली है उन सहेलियों की योजना,
और,
डेफोडिल्स के कालीन बिछाकर
उन्हें कर दिया है इशारा
कि,
पृथ्वी अब भी उर्वर है, संभावनाओं से भरी है,
और नहीं चाहती है अपने प्राण गंवाना

बचपन में लौटना

हां मैं मुकम्मल होना चाहती हूं
इसलिए कुदरत के फानूसों की नरमी को
छूने देती हूँ अपनी त्वचा
दरख्तों की सीढिय़ां चढ़ते हुए
मैं उनसे प्रेम करती हूं
वे सभी आवा•ों सुनना चाहती हूं
जो बजती हैं $िफज़ा के गिटार की तरह
मैं बातूनी होना चाहती हूं
मगर चिडिय़ा की तरह
हां, मैं एकता की आवाज़ बनना चाहती हूं
मगर झील में तैरती बत्तखों की आवाज़ की तरह

मैं हर भेदभाव खत्म करना चाहती हूं
मगर ज़र्रे-ज़र्रे तक पहुंचती मखमली हवा की तरह
मैं $खुशियों की प्याली में मुस्कुराहटें पीना चाहती हूं
मगर फूलों पर मंडराते भौंरे की तरह
हां मैं दुनिया की तमाम बुराइयां दूर करना चाहती हूं
इसलिए मैं अपने बचपन में लौटना चाहती हूं

प्रार्थनारत बत्तखें

नहीं है यहां विश्व के किन्हीं दंगाईयों, आतंकवादियों, उग्रवादियों
और ऐसे ही कई दुर्जनों का कोई गुट,
हवा में बहती है लैवेंडर की खुशबू
बनाया गया है यहां जंगल के बीचों-बीच अस्पताल
जिसके आसपास रहती हैं दो बत्तखें,
भागी भागी फिरती हैं ये
शायद इन पर लगा है मोरपंखी रंग चुरा कर
अपनी गर्दन पर स्कार्फ की तरह लपेट लेने का इल्ज़ाम,

क्वैक-क्वैक की अलहदा आवाज़ से
कुछ पलों के लिए रोक देती हैं
गुज़रते राहगीरों की ज़िंदगी में मची हलचल।
तमाम मनोरंजन नहीं बहलाते
खिड़की से सटे बिस्तरों पर लेटे मरीज़ों को
वे दर्द से कराहना बंद कर देते हैं
जब ये बत्तखें नृत्य करती हैं,

मैं भी गुज़रती हूं रोज वहां से
सुबह और रात होने के ठीक पहले,
उनकी गतिविधियों को करती हूं कैमरे में कैद
ये देख मुस्कुराती हैं बत्तखें
और फोटो लेते वक्त मेरे और करीब आ जाती हैं

दिनभर वे जुटाती हैं अपना दाना-पानी
और करती रहती हैं एक दूसरे के साथ मनमानी,
पर जब शाम दरख्तों के बीच से उनकी पीठ सहलाती है
वे घास के टीलों पर गर्दन पेट में छिपाए, पोटली बन जाती हैं
यही उनका तरीका है विश्व के लिए प्रार्थनारत होने का,
इसलिए सो जाती हैं वे बाकी सबसे पहले
ताकि आने वाले सभी दिन हों रुपहले

पेंसिल हील

पेंसिल हील धुरी है धरती की
जिसे पहन लिया है
पहली बार मध्यमवर्गीय से उच्चमध्यमवर्गीय हुई
नाज़िश भरी शख्सियत की
पचास साला कार्ला ने

अब पेंसिल हील
बगैर जुम्बिश
धरती को लिए जा रही है
असंख्य, अनंत, अज्ञात आकाशगंगाओं से मिलवाने
बर्फ की बारिश

बंद कर दो टीवी और म्यूज़िक सिस्टम
खिड़कियों से मत झांको
निकलो बाहर
अपने उग्र और नर्म दिमागों,
निस्तेज और सुस्त शरीरों से
अपनी लाचारियों और पशेमानियों से
अपने कृत्रिम और मायावी संसार से

सिर्फ घर के अंदर खड़े हुए मत मुस्कुराओ
बंद कर दो ये वीडियो रिकॉर्डिंग,
खुशफहमी में मत आज़माओ फोटोग्राफी के नए-नए ऐप,

जरा नीचे उतरो
आकर देखो
अपनी दृष्टि की प्यास दूर करो
महसूस करो इसे अपनी गहराइयों से
सर्वत्र पसरा ये उजाला मिटा देगा
तुम्हारे अंदर पसरा अंधेरा,
सांसों में भर लो ये ठंडक
ताकि तुम्हारा उबाल शांत हो,
अपने मन-मस्तिष्क पर ये सुंदर चित्रकारी होने दो,
देखो,
दैवीय बारिश नहीं होती रोज़
ये अलहदा और अपूर्व है
हर शय को गले लगाते
ये सिर्फ झक्क सफेद बादल के
बिखरे हुए टुकड़े नहीं
स्वर्ग से गिरे हर्फ हैं
आओ, इन्हें इकट्ठा करें
और बना लें
अपने-अपने लिए भाषा के घर

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