निर्वीर्य दुनिया के बाशिंदे

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    अप्रैल - 2016
श्रेणी स्त्री कविताएं
संस्करण अप्रैल - 2016
लेखक का नाम दीप्ति कुशवाह





अपनी ही देह कारा है इनके लिए
चिपका है माथे पर
प्रकृति की अक्षम्य भूल का कलंक
कोई दोष नहीं जिसमें इनका

कुल-परम्परा के
यशोगान से भरे धर्मग्रंथों में
इनकी कोई पहचान नहीं
बस नाम में एक झूठी गरिमा
किसी धनुर्धारी या सुदर्शनचक्रधारी के नाम से
जुडऩे के बाद
जो दिखाती है
किसी दैवीय परम्परा से सम्बन्ध

कलियुग में राज करने का वरदान भी
लिखा हुआ है
वहीं कहीं पीले पन्नों पर
और भोग रहे हैं
वर्तमान का शाप ये बेखबर
सुदूर अतीत की पीठ तक मिलते हैं
बूची ज़िन्दगियों के प्रमाण
मिस्त्र, बेबीलोन, मोहनजोदड़ो...
अपने इतिहास में
दबाए हुए हैं तह-दर-तह
नपुसंक आहों के निशान

'नपुंसक' शब्द एक गाली की तरह उभरता है
जिसमें छवि कौंधती है हरम की
जहां वे राजाओं के लिए
रनिवासों की रखवाली में
आश्वस्ति का प्रमाणपत्र थे
इनका अभयलिंगी व्यक्तित्व
मुफीद था गुप्तचरी के लिए
ख़त्म हुए राजा, ख़त्म हुए हरम
ये बचे रहे
वस्तु बन गए शरम की

जन्म लेते ही
परिवार के लिए बन जाते हैं अबूझ प्रश्नचिन्ह
जगहंसाई का सबब
बलैयां नहीं ली जातीं
इन किलकारियों की
जो मां के आंचल में उदासीनता
पिता के हृदय में कटुता घोलती हैं
गुलाबी या आसमानी कोई रंग नहीं होता
नाथ वाले इन अनाथों के लिए
बचपन में मिला नाम भी
साथ नहीं निभाता दूर तक
दुबारा नामकरण के साथ
हिस्सा बन जाते हैं
द्वंद्व से भरे विरूप संसार का
नकली उरोजों और स्त्रैण पोशाकों के साथ
फूहड़ कोशिशें करते हैं
सम्पूर्ण स्त्री दिखने की

पुंसत्व का त्याग एक बड़ा सवाल है

प्रकृति सौंपती है इन्हें
जीवन के सफर के लिए
धूप, हवा, पानी और अनाज की वही रसद
जो हम सबके हिस्से में है
संवेदनाओं में बख्शती है
एक सी तासीर
नर-मादा की किमया में डूबे हम
रहते गाफ़िल
कि हमारी फ़िक्र का एक टुकड़ा
कम कर सकता है

कापुरुषों के जीवनयापन की यंत्रणाएं
बढ़ा सकता है
विरोधाभासों के विरोध की हिम्मत

यहां घोषणाओं में लुभावने वादे हैं
विकास की परिभाषाओं में
प्रदान की जा रही सुविधाएं और आरक्षण
किसी भी शारीरिक कमी से पीडि़त लोगों को
वहीं इस अवयव विशेष के अविकास के लिए
सहानुभूति भी नहीं है किसी के पास
कोई दंड तय नहीं
उनके लिए जो दुत्कारते हैं इन्हें
बरसाते हैं बहिष्कार के चाबुक
कोई दरवाजा नहीं खुलता इन पर
न मानव का, न मानवाधिकार का
यौनिक पहचान की बंद भूलभूलैया में
स्वाहा हो जाने के लिए शापित है
इनका प्रच्छन्न सामाजिक जीवन

कटु और मधुर स्मृतियों के
धागों को तोड़ कर
इन्हें निकल जाना होता है
अंतहीन रास्ते पर
जहां नहीं होते मां-पिता की ममता के पेड़
भाई-बहन के नेह की लताएं नहीं होतीं
उस दुनिया में
आगे बढ़ते इन कदमों की किस्मत में
नहीं लिखी होती कभी घरवापसी

ये बंजर मरुभूमि है
कोई बीज नहीं डाला जाता आजीवन जिस पर
आद्र्रता भी नसीब नहीं होती प्रेम की
उपेक्षा के थपेड़े झेलते हुए
बस मेड़ पर ठहर जाता जीवन

''हर पुरुष में होती है एक स्त्री
हर स्त्री में होता है एक पुरुष''
यह कहने वाले ज्ञानी भी नहीं बता पाते
दर्शन की किस तहलीज पर
होगी सुनवाई
मनु के इन वंशजों की

स्त्री की देह में पुरुष का मस्तिष्क
या पुरुष की देह में स्त्री का!
डोलते पेंडुलम सा मन लिये
वे आपकी खुशियों में
अपनी खुशियां तलाशते हैं
शफ़ा उड़ेलते हैं अपनी दुआओं की
ताकि आपका सुख दो का पहाड़ा पढ़ सके
बदले में दुराग्रह का प्रसाद ले कर
लौट जाते हैं अपनी निर्वीर्य दुनिया में
किसी नये संग्राम के स्याह दस्तावेज पर
करने के लिए हस्ताक्षर
इनके आकाश की सीमा बस इनकी आंखों तक
किसी रहस्यमय संसार के बाशिंदों जैसे
अपने वंश की अंतिम इकाई
ये अर्धनारीश्वर

थकी उत्पीडि़त नींद के दौरान
भूले-भटके आने वाले सपनों में शायद
आता होगा कोई राजकुमार
सफेद घोड़े पर हो कर सवार
या कोई परी करती होगी इंतज़ार
हथेली पर भौंह का बाल रख
क्या मांगते होंगे वे!
या उड़ा दिया करते होंगे उसे
बिना कुछ मांगे
उस कृपण-कठोर दाता को
दुविधा से उबारने के लिए

अपनी सुप्त यौन इच्छाओं में
पहुंचना चाहते होंगे वे भी
पर्वत के शिखर तक
उतरना घाटी की गहराइयों में
किसी हरहराती नदी में
दूर तक बह जाने का आनंद
उनके मन को भी सहलाता होगा
उनका हित दाखिल नहीं होता
किसी परवाह में
बलात् सुख नोंचने वाले हैं बहुतेरे
पत्र निकाल कर फेंक दिए जाने वाले
लिफाफों सी है नियति इनकी

भले आक्रान्ता नज़र आते हों
ये अपने व्यवहार में
छुपाए होते हैं अपने अन्दर
अपने वंश को अपने साथ
खत्म होते देखने का डर
ठीक ठीक तर्जुमा कर पाना कठिन है
इनके बेसुरेपन का
ये भोगी हुई तल्खियां हैं उनकी
जिन्होंने अंतस की मिठास हर ली है
तालियों की कर्कश गूंज में छुपी हुई हैं
एकान्त की शोकान्तिकाएं
निर्लज्जपन दिखाकर ढांक लेते हैं
अपूर्ण इच्छाओं का सामूहिक रुदन

हारमोनों की
जटिल-कुटिल दगाबाज़ी में फंसे तृतीयलिंगी
सही पदार्थ नहीं हैं
नोबेल के लिए
चिकित्सीय हलकों में किसी सुगबुगाहट का
बायस ये नहीं
साहित्यिक विमर्श की कोई धारा भी
छूते हुए नहीं निकलती इनको
बाज़ार में चलने वाले सिक्के भी ये नहीं
शस्त्र और शास्त्रों में उलझे लोग
जो हर मनुष्य को उपयोग की वस्तु समझते हैं
इन्हें उपकरण में नहीं बदल पाए हैं अभी
इसीलिए इनकी मौत की खबर
अखबार में किसी कोने में नहीं छप रही
नहीं छप रहा
कि कुछ लाशें ज़मींदोज़ की जा रही हैं
गड्ढों में सीधी खड़ी करके
थूकी जा रही है जिन पर जुगुप्सा
अपनी ही बिरादरी द्वारा
चप्पलों से पीटी जा रही हैं
इस आस में
कि फिर कभी इस योनि में न लौटें

समय के समन्दर में
झंझावातों के बीच
बिना नाविक, बिना पतवार
भटकती हैं जो नौकाएं
डगमगाती और झकोले खाती
अंतत: कहां जाती हैं
कौन जानता है!!

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