विलगाव, आधुनिक विज्ञान और मध्यवर्ग

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    जनवरी 2016
श्रेणी विलगाव, आधुनिक विज्ञान और मध्यवर्ग
संस्करण जनवरी 2016
लेखक का नाम अच्युतानंद मिश्र





विमर्श/दो

इस क्रूर कमरतोड़ काम का सिर्फ एक फायदा था- कि इसने उसे संवेदनशून्य बना दिया। धीरे धीरे वह जड़ होती गयी- वह हमेशा चुप रहने लगी। शाम को वह,ओना और युर्गिस तीनों साथ घर लौटते थे लेकिन प्राय: कोई एक शब्द भी नहीं बोलता था। ओना को भी चुप रहने की आदत पड़ती जा रही थी, वही ओना जो एक समय चिडिय़ा  की तरह गाती रहती थी। वह बेहद कमज़ोर और बीमार थी और अक्सर उसमें इतनी ही ताकत बची रहती थी कि मुश्किल से खुद को घर तक घसीट कर ले जा सके। घर पहुंचकर जो कुछ भी मिलता उसे वे चुपचाप खा लेते और इसके बाद क्योंकि अपने दु:ख के अलावा बात करने को और कुछ नहीं होता था ,वे बिस्तर में घुसकर गहरी नींद में सो जाते और करवट भी बदले बिना तब तक सोये रहते जब तक उठकर मोमबत्ती की रौशनी में कपड़े बदलने और वापस मशीनों की गुलामी करने के लिए जाने का समय हो जाता। उनकी इन्द्रियां इस कदर संज्ञा शून्य हो गयी थीं कि अब उन्हें भूख से भी ज्यादा तकलीफ नहीं होती थी - खाना कम पड़ जाने पर सिर्फ बच्चे ही झीकते रहते थे। (149-150)


यह अंश अमेरिकी उपन्यासकार सिंक्लेयर के उपन्यास 'जंगल' से उद्धृत है। बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों का यह यथार्थ पूंजीवादी विकास और मजदूर वर्ग के विलगाव के चरम को हमारे  सामने रखता है। क्षरित हो रही मनुष्यता की इस मार्मिक दास्तान  को जब मैं पढ़ता हूँ तो जो प्रश्न मेरे जेहन् में आता है वह ये कि तकरीबन एक सदी बाद आज इस मनुष्यता के समक्ष हम कहाँ खड़े हैं। विलगाव की इस प्रक्रिया ने हमारे भौतिक के साथ साथ आत्मिक संसार को किस हद तक विनष्ट किया है ?
मनुष्य की अवधारणा को एक सदी में पूरी तरह बदल दिया गया है। मनुष्य के विषय में सोचते हुए लगता है कि कई तरह के भ्रम मेरे भीतर मेरे बाहर लगातार मेरे मानस को निर्मित कर रहे हैं। इन भ्रमों ने न सिर्फ हमारे वस्तु जगत बल्कि हमारे विषय जगत को भी बदल दिया है। अब मनुष्य के विषय में सोचना कामायनी के मनु की तरह शून्य में एकटक देखते रहना नहीं रह गया है। पिछली एक सदी ने मनुष्य की सृजनशील चेतना को ही बदलने का प्रयत्न किया है।
मनुष्य के विकासक्रम को कल तक एक तार्किक प्रक्रिया के तहत समझा जाता था। उस पर जब-जब संकट आये तर्क की परिधि का विकास किया जाता था। इस विस्तृत और समय सापेक्ष तर्क से मनुष्य की अवधारणा को पकडऩे की कोशिश अगर संभव न भी हो तो वह संभव सी प्रतीत होती थी। मार्क्सवाद के मूल में जो तार्किकता नज़र आती है, वह यूरोपीय नवजागरण के परिणामस्वरूप विकसित हुयी। वह सामाजिक सांस्कृतिक चेतना का ही विकसित और परिष्कृत रूप थी। उन्नीसवीं सदी का मार्क्सवाद वस्तुत: उसी तार्किक संगति से पैदा हुआ था, जिसका आरम्भ हम अठारहवीं सदी के अंतिम वर्षों में कांट के यहाँ देखते हैं। कांट ने क्रीटिक ऑफ प्योर रीज़न के माध्यम से आदर्शवाद और अनुभववाद के बीच मौजूद गहरी खाई को पार किया और उसके ऐतिहासिक सयोंग की अंतर्कथा निर्मित की थी। जिसके पश्चात शेलिंग, फिक्टे से होती हुयी हीगेल तक हम इस तार्किक चेतना के शीर्ष को देखते हैं।
हीगेल ने द्वंद्वात्मकता की अवधारणा के माध्यम से इस तार्किकता को न सिर्फ नया आयाम दिया बल्कि उसको नए क्षितिज तक ले जाने की संभावना भी निर्मित की। मार्क्सवाद के उद्भव को इन्हीं परिस्थितियों ने अनुकूल बनाया। यूरोपीय नवजागरण की एक धारा अगर पूंजीवादी वर्चस्व की ओर चली गयी तो यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि उसकी दूसरी और बेहद सशक्त धारा सतत् आलोचनात्मक बने रहने की चेतना भी विकसित करती थी और जिसकी परिणति कांट से होते हुए हीगेल तक जर्मन आदर्शवाद के रूप में आकार लेती है।
हीगेल तर्क से द्वंद्वात्मकता के विकास तक की ऐतिहासिक यात्रा तय करते हैं। इस कड़ी में मार्क्स का महत्व इसलिए सर्वोपरि हो जाता है, क्योंकि वे इस पूरी बहस में समाज के भौतिक अस्तित्व को व्यापक अर्थों में स्वीकारते हैं। इसी संदर्भ में उनका यह कथन - दार्शनिकों ने अब तक दुनिया की व्याख्या की है, सवाल उसे बदलने का है- समूचे जर्मन आदर्शवाद को और यूरोपीय नवजागरण को नया आयाम देती है। यहीं से यूरोपीय नवजागरण की उस धारा को, जो पूंजीवाद की ओर चली जाती है, चुनौती देने का तर्क विकसित होता है।
दरअसल मार्क्स जर्मन आदर्शवाद के उस बेहद सुसज्जित और आलिशान मकान में वास्तविक मनुष्यों को सामाजिक प्राणी के रूप में प्रवेश दिलाकर उसे सही अर्थों में घर बनाते हैं। उन्नीसवीं सदी में मार्क्स का यही ऐतिहासिक संघर्ष मार्क्सवाद के रूप में समूची दुनिया को बदलने के प्रण के साथ आरम्भ होता है। लेकिन बीसवीं सदी में एक हद तक राजनीतिक मार्क्सवादियों ने इस बात को भुला दिया कि मार्क्स यूरोपीय नवजागरण और उसकी सतत् आलोचनात्मक प्रवृत्ति का परिणाम थे। उन्हें इतिहास ने ही बनाया था। यानि एक तरह से कहें तो मार्क्सवाद में जो मौजूद तार्किकता है जो सतत् आलोचनात्मक बने रहने की गतिशीलता है, जो भौतिक दुनिया की व्याख्या के क्रम में द्वंद्वात्मकता की चेतना है वह सब यूरोपीय नवजागरण की परम्परा का ही विकास है। यहाँ तक कि हम देख सकते हैं कि मार्क्स के जो राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धांत हैं वे इस तार्किकता के बगैर संभव नहीं थे।
इस तरह मार्क्स उस समग्र को पकडऩे का प्रयत्न करते हैं जिसके माध्यम से मनुष्य और समाज की आन्तरिकता को नष्ट करने का प्रयत्न उस दौर में किया जा रहा था। मार्क्स यह दिखाने में सफल होते हैं कि यह जो मानव समाज है और जहाँ एक लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत यह तर्क विकसित हुआ है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है -उसे नष्ट किया जा रहा है। इस तरह पूंजीवाद मानव समाज की इस आन्तरिक संगति को नष्ट करता है। समाज की चेतना के विरोध में व्यक्ति की अवधारणा का विकास भी इधर की ही परिघटना है। सामाजिकता के सारे तर्कों को उलटकर आत्मविकास का तर्क विकसित किया गया लेकिन ऐसा करने के लिए यह जरुरी था कि मनुष्य की सतत् तार्किकता को नष्ट किया जाये। सतत् तार्किकता से अभिप्राय उस तार्किकता से है जिसे मनुष्य ने लम्बे ऐतिहासिक विकास क्रम में अर्जित किया है। जो मनुष्य के आधुनिक और सामाजिक होने के द्वंद्व में हर दौर में अभिव्यक्त होती है। जहाँ सामाजिक होने की प्रक्रिया में उसने अपने अस्तित्व को पहचाना है और परम्पराबोध के रूप में उसे मानवीय गरिमा का विषय बनाया है।
बीसवीं सदी में इस समूची तार्किकता को नष्ट करने के लिए और मार्क्सवाद की समग्रता को नष्ट करने के लिए, मार्क्सवाद को उसकी परम्परा से अलगाया गया। ऐसा सिर्फ पूंजीवादियों ने नहीं किया बल्कि बीसवीं सदी के उन तथाकथित राजनीतिक मार्क्सवादियों ने भी किया जिन्होंने मार्क्सवाद को मुक्ति की जगह वर्चस्व का एक नया सिद्धांत बना दिया। और यहीं बीसवीं सदी में उस तार्किकता का दामन छोड़ दिया गया। ऐसा करने के लिए राज्य की समूची अवधारणा को ताकत में बदला गया। यह न सिर्फ पूंजीवादी देशों में हुआ बल्कि मार्क्सवादी निजामों के अधीन देशों में भी हुआ। फूको इसी विकास को ताकत का नाम देते हैं। वे इसे महज़ राज्य तक सीमित नहीं मानते हैं बल्कि वे उसे 19 वी सदी में विकसित संस्थाओं के चरित्र से जोड़कर देखते हैं और यहीं वे ज्ञान-ताकत की परिकल्पना को सामने रखते हैं। फूको के लिए ज्ञान का वर्चस्व में बदलना आधुनिकता की परिणति है। वस्तुत: आधुनिकता की परिकल्पना में जिस सतत् आलोचना की परिपाटी मौजूद थी दरअसल उसे नष्ट ही इस तरह किया गया। वर्चस्व की अवधारणा का विकास तार्किकता की परिणति नहीं है, बल्कि उस तार्किकता से पलायन है जिसे लम्बे संघर्ष के बाद मानव सभ्यता ने अर्जित किया था।
संस्थाओं के माध्यम से मनुष्य के मस्तिष्क की क्षमता से बहुत आगे की जटिल परिकल्पना रची गयी। जिसके सामने मनुष्य का मस्तिष्क एक असहाय खिलौना नज़र आता है। ध्यान दें तो राजनीतिक अर्थशास्त्र की परिकल्पना रचकर मार्क्स न सिर्फ एक समग्रता को सामने लाते हैं बल्कि तार्किकता के उस अस्त्र की ताकत से भी वाकिफ कराते हैं जिसके तहत पूंजीवादी वर्चस्व की धार कम की जा सके।
बीसवीं सदी के आरम्भ में ज्ञान की प्रक्रिया को सूक्ष्म बनाने की कोशिशों के तहत मानव मस्तिष्क के कार्य करने की प्रक्रिया की व्याख्या की गयी। सबसे पहले भाषा के माध्यम से मनुष्य के मस्तिष्क की प्रक्रियाओं को उसके चेतन अवचेतन के द्वंद्व को व्याख्यायित किया गया। फिर कंप्यूटर के निर्माण के तहत मानव मस्तिष्क को ही चुनौती दे दी गयी। यह एक बहुत बड़ी परिघटना थी। मानव मस्तिष्क अंतर्निहित उस ऐतिहासिक तार्किकता को विनष्ट करने के लिए यांत्रिक तार्किकता की परिकल्पना रची गयी और सामाजिक जीवन में उस यांत्रिक तार्किकता के माध्यम से वर्चस्व को संस्थाओं के विकास क्रम में अंतर्भूत किया गया।
उदहारण के लिए अगर हम अर्थशास्त्र के प्रश्न को लें तो पाते हैं कि समूची उत्पादन प्रक्रिया को एक अव्याख्यायित जटिलता में बदल दिया गया। उत्पादन उत्पादक सम्बन्धों के बीच मौजूद सारे अन्त:सूत्रों को अमूर्त बना दिया गया।
जर्मन आदर्शवाद के परिणामस्वरूप बुद्धिवाद की परिणति उन्नीसवीं सदी में मार्क्सवाद के रूप में हुयी। हम यह कह सकते हैं कि मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद और वर्ग संघर्ष की जो परिकल्पना प्रस्तुत की उसने बुद्धिवाद और अनुभववाद के बीच के ऐतिहासिक संघर्ष को एक हद तक समाप्त कर दिया। दुनिया को देखने और उसे व्याख्यायित करने के मूल में दुनिया को बदलने की चेतना केंद्रीय हो गयी। मार्क्स ने वर्गों के खानों के भीतर मनुष्य की श्रेणीगत व्याख्या प्रस्तुत की। इसी व्याख्या में संघर्ष की चेतना भी अंतर्निहित थी। मार्क्स का ऐतिहासिक महत्व इस अर्थ में था कि उन्होंने ज्ञान के सैद्धांतिक और व्यवहारिक पहलुओं के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया। मार्क्स की वर्ग की अवधारणा में एक तरह का सामान्यीकरण भी मौजूद था और मार्क्स इसके खतरों से वाकिफ भी थे, इसीलिए मार्क्स ने इस अवधारणा के मध्य एक जगह छोड़ी, जिसे हम विलगाव (एलिनियेशन) के रूप में चिन्हित करते हैं।
वर्गीय भेदभाव के परिणामस्वरूप एलिनियेशन मनुष्य के नैतिक पतन की पराकाष्ठा थी। एलिनियेशन के पश्चात् मनुष्य एक ऐसे स्तर पर पहुंचा हुआ मनुष्य था जिसे भाषा या परिभाषा में पकडऩा कठिन था। मार्क्स के लिए चेतना के दोनों स्तर यानि बाह्य चेतना और आन्तरिक चेतना दोनों के स्तर पर जारी संघर्ष ही वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया को मूर्त करते हैं। एलिनियेशन को चुनौती देने के लिए मार्क्स मनुष्य की आन्तरिक शक्ति और नैतिक बोध दोनों को जागृत करने पर बल देते हैं। आन्तरिक शक्ति और नैतिक बोध से मार्क्स का तात्पर्य  मनुष्य होने की ऐतिहासिक प्रक्रिया से था। हर मनुष्य अपनी चेतना में इतिहास और परम्परा के द्वंद्व को अंतर्भूत करता है। यही प्रक्रिया उसे वर्तमान के प्रति नैतिक और आत्मिक दृढ़ता से भरती है।
मार्क्स के अनुसार यह जो भौतिक दुनिया है, इसमें जो भेदभाव हैं, अमानवीय स्थितियां हैं, क्रूरताएँ हैं, उन सबसे निकलकर आनेवाली मानसिक संवेदनाएँ मजदूर और श्रमिक वर्ग को स्व की चेतना से विरक्त कर देती है। यही विरक्ति एलिनियेशन कहलाती है। एलिनियेशन के सापेक्ष हमारे सामने हमेशा एक ऐसी दुनिया होती है, जहाँ मानवीय सम्बन्धों की लौकिक अभिव्यक्ति होती है। इस लौकिक दुनिया के सापेक्ष ही हम एक एलिनियेशन की पहचान कर सकते हैं। एक सापेक्ष दुनिया का मानचित्र निर्मित होता है। मार्क्स की इस परिकल्पना को सहज भाषा में इस तरह कहा जा सकता है कि पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग मजदूर आत्मसत्ता से विरक्त होता जाता है। यह आत्म विरक्ति उसकी वर्ग चेतना को भी विस्मृत कर देती है। मार्क्स के लिए एलिनियेशन की प्रक्रिया का स्पष्ट सम्बन्ध पूंजीवाद से है। पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया से है।
एलिनियेशन की प्रक्रिया श्रम के साथ मनुष्य के रचनात्मक सम्बन्ध को काट देती है। इस काटने की प्रक्रिया में वह श्रम के ऐतिहासिक रूपांतरण की प्रक्रिया से भी कट जाता है और इस तरह उसका इतिहासबोध नष्ट होता जाता है। जब बाजार में श्रमिक का श्रम एक बिकाऊ माल बन जाता है तो एलिनियेशन की प्रक्रिया आरम्भ होती है। एलिनियेशन की प्रक्रिया से गुजर रहे श्रमिक के भीतर संवेदनहीनता का प्रादुर्भाव होने लगता है। मनुष्य ने लम्बे ऐतिहासिक प्रक्रिया के दौरान संवेदना के धरातल को निर्मित किया है। बगैर संवेदना के मनुष्य के संघर्ष का क्या मोल रह जायेगा? क्या इस तरह किसी किस्म के वर्ग चेतना के निर्मित होने की संभावना बचती है?
फर्ज़ करें कि हम संवेदनहीनों  की दुनिया बना दें उसमें वर्ग संघर्ष का भविष्य क्या होगा। तो क्या मार्क्स जिस क्रमिकता में ''अब तक का ज्ञात इतिहास....'' पद का इस्तेमाल मैनीफेस्टो में करते हैं, वह किसी ऐसे मुकाम पर पहुँच गया है जहाँ गहरी खाई है। अंतत: संघर्ष मनुष्यता ही करेगी। विजय उसी ने पाना है। ये बातें उत्तरआधुनिकता के पक्ष में सुनाई पड़ती हैं जिसके प्रति दुनिया भर के अधिकांश मार्क्सवादियों की राय नकारने की है। सोवियत विघटन के वक्त इसे एक रणनीति के तौर पर स्वीकार भी किया गया, लेकिन आज तकरीबन पचीस वर्षों बाद यह पुनर्विचार की मांग करता है।
अगर कोई इतिहास के एक ऐसे अंधे मोड़ पर जन्म लेता है जब उसके इर्द गिर्द की अधिकांश दुनिया एलिनियेटेड हो चुकी हो तो उसका संवेदनात्मक विकास कैसा होगा। वह किस तरह का समाज बनाएगा? मार्क्स के इस पद में कि ''......  इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है'' वह किस तरह यकीन करेगा। भविष्य में यह चुनौती हमे मिल सकती है। तो क्या यह संभव है कि सारा का सारा समाज ही विलगाव की चपेट में आ जाये?  क्या यह किसी नये किस्म के विलगाव की प्रक्रिया होगी। मार्क्स के एलिनियेशन की प्रक्रिया के मूल में है उत्पादक-उत्पादन सम्बन्ध। एक समाज जरुरत से अधिक उपभोग करता है। दूसरा समाज अपने पूरे श्रम से अपनी सामान्य जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पाता। ऐसे में दूसरा समाज बचे रहने के लिए श्रम की गति को बढ़ाता है ,जिसकी कीमत उसे संवेदनात्मक रूप से जड़ होकर चुकानी पड़ती है। इस तरह वह एलिनियेट होता जाता है। मनुष्य के रूप में बचे रहने के लिए, वह मानवीय संवेदनाओं से धीरे धीरे अलग होता जाता है। वह खुद को विस्मृत कर एक मशीन की तरह उत्पादन की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है। अंतत: स्व की चेतना से कट जाता है। यह प्रक्रिया एक रैखिकीय नहीं होती श्रमिकों के आन्दोलन समय समय पर इस गतिरोध को तोड़तें भी हैं। सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि एलिनियेशन का स्तर क्या है। एक निश्चित सीमा से आगे निकल गये समाज को वापस नहीं लाया जा सकता। हालाँकि इसका निर्धारण भी समाज ही करेगा। एलिनियेशन के इस स्तर तक पहुँचने  का उपाय है उत्पादन की अबाध गति। ज्यों ज्यों उत्पादन की गति बढ़ती जाएगी एलिनियेशन का दायरा भी बढ़ता जायेगा। गति को बढ़ाने की जिम्मेदारी विज्ञान की है। विज्ञान का उद्देश्य सिर्फ पूंजीपतियों के लिए अनुकूल गति का अगला स्तर विकसित करना है।
जब गति अकल्पनीय रूप से बढ़ जाएगी समाज का एक हिस्सा पूरी तरह एलिनियेशन की चपेट में आ जायेगा। क्या यही वह बिंदु है, जहाँ द्वंद्वात्मकता से होती हुयी सापेक्षवाद तक आई दुनिया पक्ष विहीन नज़र आएगी। अंतत: रंगों की पहचान तो बहुत से रंगों के होने से ही होती है। अगर द्वंद्वात्मकता 19 वीं सदी का यथार्थ था और सापेक्षवाद 20 वीं सदी का तो फिर आगे क्या?
क्या हम एक ऐसे मोड़ पर आ गये हैं, जहाँ मनुष्य की संवेदना एक अभूतपूर्व संकट की गिरफ्त में नज़र आती है? यह संकट पहली बार आया हो, ऐसा नहीं है। जब-जब सभ्यता एक संक्रमण काल से गुजरी होगी यह सवाल उभरा होगा। लेकिन हर बार मनुष्य ने इससे अपने को उबार लिया होगा। इतिहास ने इसे युग परिवर्तन की तरह दर्ज किया गया होगा। तो क्या यह भी किसी युग परिवर्तन की आहट है। लेकिन जैविक इकाई के रूप में मनुष्य में आये इस परिवर्तन को इस तरह के सामान्यीकरण के हवाले कर निश्चिन्त तो नहीं बैठा जा सकता। आखिर हम यह जानते हैं कि मार्क्स की यह व्याख्या कि पूंजीवाद अपने बोझ तले नष्ट हो जायेगा -वर्तमान के संदर्भ गलत साबित हुयी। ऐसा क्यों हुआ? क्या मार्क्स ने कभी इस तरह की कोई बात कही जिससे यह अनुमान लगे कि उनके अनुसार पूंजीवाद की अवधि कितनी होगी? अगर पूंजीवाद अपनी अवधि को बढ़ा दे तो क्या मार्क्स के आकलन को गलत साबित नहीं किया जा सकता? लम्बी अवधि के पूंजीवाद के परिणामस्वरूप समाज और मनुष्यता की जो क्षति होगी उसकी भरपाई किस तरह की जा सकेगी? पूंजीवाद ने पचास के दशक के बाद स्वयं को उबारा। इस बात की तरफ कम लोगो का ध्यान गया कि पूंजीवाद जब समाज में मौजूद सामाजिकता की चेतना को नष्ट करता है तो लम्बी अवधि के पूंजीवाद के माध्यम से सामाजिक संघर्ष को किस हद तक कुंद किया जा सकता है? और किसी देश काल में पूंजीवाद सामाजिक संवेदना को जिस हद तक नष्ट करेगा, उसकी भरपाई कैसे संभव होगी?
माकर््सवाद के मूल में यह धारणा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जबकि पूंजीवाद मनुष्य को इकाई के रूप में देखता है। लम्बी अवधि के पूंजीवाद के परिणामस्वरूप समाज की मूल चेतना यानि उसकी सामाजिक संवेदना नष्ट होती जाती है। ऐसे में उन देशों के उदाहरण हमारे पास हैं जहाँ पूंजीवाद का सबसे आक्रामक रूप मौजूद है। हम जानते है वहां मनुष्य एक इकाई का रूप ले चुका है और उसकी सामाजिक संवेदना व्यापक तौर पर विकृत हो चुकी है। इस अर्थ में सामाजिक संघर्ष में उसकी भागीदारी किस हद तक होगी, इसका अंदाज़ लगाया जा सकता है। यहाँ इस प्रश्न का भी जवाब मिलता है कि क्यों रूस और चीन जैसे गैर पूंजीवाद देशों में ही सफल मार्क्सवादी क्रांति की शुरुआत हुयी। वह किसी औद्योगिक दृष्टि से अतिविकसित राष्ट्र मसलन ब्रिटेन या फ्रांस में नहीं हुयी तो इसका बड़ा कारण यह था कि वहां के लोगों की सामाजिक संवेदना बड़े पैमाने पर विकृत हो चुकी है और पूंजीवाद का प्रसार उन्हें अंतिम छोर तक ले गया यानी एलिनियेशन तक। यह स्थिति कमोबेश 1950 तक की है। हम जानते हैं आज की स्थितियां इस विश्लेषण से काफी आगे निकल चुकी हैं। कहने का तातपर्य यह कि लम्बी अवधि का पूंजीवाद ही उसे इच्छा मृत्यु तक ले जा रहा है।
पूंजीवाद जिसे अपने लिए एक विशाल गड्ढा खोदना था ताकि उसमें उसे दफन किया जा सके , वह उसमें दफन नहीं हुआ। मार्क्सवाद के कुछ प्रमुख सिद्धांतो को बीसवीं सदी के अंतिम दशकों ने बहस से बाहर कर दिया या अप्रासंगिक साबित कर दिया- मसलन वर्ग और इतिहास चेतना। इसे महज़ निराशा कहकर नकारने के आरंभिक वर्षों से हम काफी दूर निकल आये हैं। ऐसे में यह जरुरी लगता है कि इन पर गंभीरता से विचार होना चाहिए, बगैर इस शंका के भी कि पारम्परिक मार्क्सवादियों की दृष्टि में यह एक गैर मार्क्सवादी विश्लेषण ही होगा। यूरोप के बहुत से मार्क्सवादी चिंतकों ने इस तरह का जोखिम 50 के दशक में ही उठाया था। मार्क्सवाद और पूंजीवाद के संदर्भ में किये गये उनके विश्लेषण एक हद तक सही साबित हुए।
पूंजीवाद का आरम्भ एक नई परिघटना के साथ हुआ। यह परिघटना थी विज्ञान के युग का आरम्भ। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप विज्ञान के नये युग का विकास हुआ। इस नये युग ने उत्पादन की गति को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लिया जिसके परिणामस्वरूप एक वर्चस्ववादी युग का विकास हुआ। साम्राज्यवाद के मूल में वर्चस्व की इस चेतना की बड़ी भूमिका थी। साम्राज्यवाद से संघर्ष में तीसरी दुनिया के देशों में एक आत्मचेतना का विकास हुआ। अगर हम साम्राज्यवादी वर्चस्व से इस विज्ञान की चेतना को निकाल दें तो वह उस गन्ने की लुगदी की तरह रह जायेगा जिसका रस निचोड़ लिया गया है। यही वजह है कि साम्राज्यवादी वर्चस्व का विकास 19 वीं सदी में ही हो पाता है। आधुनिक विज्ञान के परिणामस्वरूप साम्राज्यवाद और फिर साम्राज्यवादी लूट की बन्दरबाँट की प्रक्रिया जिसके फलस्वरूप दो विश्व युद्ध। इस समूची प्रक्रिया के दौरान जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ निकलकर सामने आती है वह है तीसरी दुनिया का उद्भव। क्या यह स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए कि जब तीसरी दुनिया में 19 वीं सदी के शोषण की प्रक्रिया संभव नहीं रह गयी तो यह अनिवार्य हो गया कि साम्राज्यवाद के इस खूनी खेल को बंद कर दिया जाए, ताकि पूंजीवाद को मरने से बचाया जा सके। इसलिए यह जरुरी हो गया था कि समापन की प्रक्रिया एक धमाके के साथ हो ताकि आने वाली सभ्यता पर इसकी अमिट छाप छोड़ी जा सके। यह संभव होता है परमाणु बम के गिराए जाने से। 1945 में जापान पर अमेरिका द्वारा गिराए गये परमाणु बमों से आधुनिक विज्ञान और 19 वीं सदी के साम्राज्यवादी युग का अंत होता है।
मार्क्स तार्किकता के विकास को अध्ययन का विषय बनाते हैं। उनके अनुसार 16 वीं - 17 वीं सदी के दौरान समाज बनाम व्यक्ति की अवधारणा विकसित की गयी। धीरे-धीरे व्यक्तिगत हितों को सर्वोपरि बना दिया गया। सामाजिकता की अवधारणा को कमजोर किया गया। इस तरह सामाजिक तार्किकता (ह्यशष्द्बड्डद्य ह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठड्डद्यद्बह्ल4) के स्थान पर व्यक्तिगत तार्किकता के मूल्यों को स्थापित किया गया (द्बठ्ठस्रद्ब1द्बस्रह्वड्डद्य ह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठड्डद्यद्बह्ल4 )। ऐसा करने के लिए मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन, उसकी आशा आकांक्षा का महिमा मंडन किया गया। इसी व्यक्तिगत तार्किकता  के गर्भ से तकनीकी तार्किकता (ह्लद्गष्द्धठ्ठशद्यशद्दद्बष्ड्डद्य ह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठड्डद्यद्बह्ल4)का जन्म होता है।
व्यक्तिगत तार्किकता से तकनीकी तार्किकता के विकास की प्रक्रियाओं पर फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने गंभीरता से विचार किया है। इस संदर्भ में जर्मन -अमेरिकन चिन्तक हर्बर्ट मार्कुज का नाम महत्वपूर्ण है। मार्क्स का मानना था कि आलोचनात्मक चिंतन के विकास से ही द्वंद्वात्मक चिंतन का विकास होता है। वन डायमेंशनल मैन के हवाले से मार्कुज द्वंद्वात्मकता की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं और तकनीकी वर्चस्व के निर्माण की प्रक्रिया को उद्घाटित करते हैं। मार्क्स के अनुसार द्वंद्वात्मक चिंतन के माध्यम से स्थापित रूपों एवं विचारों की आलोचना की जा सकती है। गैर आलोचनात्मक चिंतन का विकास स्थापित अवधारणाओं एवं विचारों को परिपुष्ट करने से होता है। समाज में जो मूल्य और अवधारणाएं प्रचलन में आ चुकी होती हैं गैर आलोचनात्मक चिंतन उसे बनाये रखने का तर्क विकसित करती हैं। वे उसे स्थिर, शुद्ध बनाने का उपक्रम रचती हैं। संस्थाओं, राज्य की मशीनरी, न्यायालयों द्वारा उसे दीर्घकालीन बनाया जाता है। इसके विपरीत आलोचनात्मक चिंतन वैकल्पिक चिंतन की ओर उन्मुख होती है, वे समाज में हाशिये के मूल्यों की वकालत करती हैं। वहीं से आलोचनात्मक विवेक का विकास होता है। मार्क्स इसे विपरीत चिंतन (ठ्ठद्गद्दड्डह्लद्ब1द्ग ह्लद्धद्बठ्ठद्मद्बठ्ठद्द ) कहते हैं जो समाज में स्थापित मूल्यों को नकारता है और यथार्थ को उच्चतर संभावनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न करता है। उत्पादन की प्रक्रिया से मनुष्य के चिंतन को जोड़ते हुए मार्कुज लिखते हैं  ''वस्तुएं जिनका उद्देश्य जीवन को सुखी और समृद्ध बनाना है वे ही जीवन मूल्यों को नियंत्रित करने लगती हैं और इस तरह मनुष्य की चेतना पूर्णत: वस्तु उत्पादन की प्रक्रिया के अधीन हो जाती है'' (ह्म्द्गड्डह्यशठ्ठ ड्डठ्ठस्र ह्म्द्ग1शद्यह्वह्लद्बशठ्ठ- श्चद्द 273)। मार्कुज की यह बेहद महत्वपूर्ण उक्ति है इससे हम समझ सकते हैं कि किस तरह उत्पादन की प्रक्रिया ने श्रमिकों  के विलगाव को उन्नीसवीं सदी में संभव बनाया और उसमे विज्ञान की भूमिका किस हद तक महत्वपूर्ण थी। मनुष्य का अस्तित्व तभी होगा जब वह स्वतंत्र होगा। स्वतंत्रता की अवधारणा वैयक्तिक नहीं होगी बल्कि वह सामूहिक ही होगी, इसलिए मनुष्य की आत्म अभिव्यक्ति का अर्थ है विचार और अस्तित्व के बीच एकता। कहने का तात्पर्य  है कि जहाँ पंूजीवादी विलगाव की प्रक्रिया मनुष्य को विषय बनाकर उसे व्यक्ति में रूपांतरित करती है वहीं कोशिश यह की जानी चाहिए कि मनुष्य में अंतर्गुम्फित उन एकता के सूत्रों को चिन्हित किया जाये जहाँ अस्तित्व और विचार आपस में मिलते हैं।
1945 के बाद पूंजीवाद का पुनरुद्धार तभी संभव था, जब उसके निशाने पर मध्यवर्ग आये। यह नया युग विज्ञान के आधुनिक युग का दूसरा चरण है। विज्ञान के इस दूसरे चरण के लक्ष्य में मध्यवर्ग को रखा गया। यानि विज्ञान के हवाले से मध्यवर्ग के विलगाव की भूमिका सम्पन्न की जानी थी। पहले चरण की तरह इसमें राष्ट्र राज्य के विभाजन को प्रमुखता नहीं दी गयी। इसका एकमात्र उद्देश्य था मनुष्य की चेतना पर वर्चस्व। इसके लिए जरुरी था कि मनुष्य के भौतिक अस्तित्व को नाकारा जाये। इसे संभव करने के लिए जरुरी था कि परम्परा  बोध को नष्ट किया जाये। यानि मनुष्य के मस्तिष्क में मौजूद एवं क्रियाशील ऐतिहासिक चेतना को नष्ट कर दिया जाये। हम जानते हैं कि तर्क के विकास के साथ मनुष्य अपनी चेतना के निर्माण में सामाजिक निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा था। दूसरे चरण के विज्ञान ने इसे नकारने के लिए यानि मानवीय चेतना को नकारने के लिए वास्तविक दुनिया के सामानांतर छद्म दुनिया की अवधारणा रची। वास्तविक और गतिशील दुनिया के विरोध में छद्म और स्थूल दुनिया की परिकल्पना।
हमारे मस्तिष्क में चेतन और अवचेतन दो हिस्से होते हैं। हम जानते हैं कि दोनों ही विभाग अंतत: वास्तविक दुनिया को ही प्रतिबिंबित करते हैं। हमारा अवचेतन भी इसी वास्तविक दुनिया के साक्षात्कार से निर्मित होता है। बौद्रिला तक जिस अवचेतन की व्याख्या को हम देखते हैं वह भी अंतत: इस वास्तविक दुनिया की ही व्याख्या है, क्योंकि अवचेतन की जैविकता भी वास्तविक दुनिया का ही प्रतिबिम्ब है। फ्रायड के स्वप्न जगत के विश्लेषण को हम काल्पनिक मनुष्यता या अव्याख्यायित मनुष्य से जोड़कर नहीं देखते। यानि मार्क्स से लेकर फ्रायड तक और औद्योगिक क्रांति से आधुनिक विज्ञान तक की अवधारणा के केंद्र में यह क्लासिक पूंजीवाद है। पिछली शताब्दी के मध्य में इस क्लासिक पूंजीवाद का युग समाप्त होता है। विलगाव का संकट मध्यवर्ग की ओर प्रस्थान करता है। सबसे पहले विज्ञान में खासकर भौतिक और जैविक विज्ञान में भौतिक और जैविक को विस्थापित किया जाता है। भौतिक विज्ञान अमूर्त की व्याख्या करने लगता है। ऐसा करते हुए बार बार यह दिखाया जाता है कि इसके मूल में कोई राजनीतिक वैचारिक मूल्य या उद्देश्य नहीं है। विज्ञान को शुद्ध विज्ञान बनाने पर बल दिया जाता है। यह पिछले पचास वर्ष की ही परिघटना है, जब हम पाते हैं कि हमारा वैज्ञानिक हमे इस ग्रह, इस धरती, इस समाज, इस मनुष्यता से पूरी तरह विरक्त नज़र आता है। इस विरक्ति के मूल में ही एक ऐसी संकल्पना के निर्माण की प्रवृत्ति कार्य करती है जो बहुत तेज़ी से मध्यवर्ग के एलिनियेशन को अंजाम देती है।
सवाल यह है कि यह जो नया विज्ञान है, इसमें जो अवचेतन की अभिव्यक्ति है वह किसी वास्तविक जगत को प्रतिबिंबित नहीं करती। ऐसे में हम इसे कैसे व्याख्यायित करेंगे। किस अर्थ में यह हमारे उस पुराने अवचेतन से भिन्न है?
मूल प्रश्न इसी अवचेतन को व्याख्यायित करने का है। यह उस पुराने अवचेतन से इस अर्थ में भिन्न है कि इसके केंद्र में इस भौतिक दुनिया से उद्भूत संवेदना नहीं है। इस अर्थ में यह एक सौन्दर्यशास्त्रीय प्रश्न भी खड़ा करती है। इसे कुछ उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है। हम जानते हैं कि मनुष्य ने अपने ऐतिहासिक विकास के क्रम में विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षण की सहज चेतना अर्जित की है। अगर एक पुरुष एक स्त्री को देखता है उसके मन में उसके प्रति सहज आकर्षण पैदा होता है। चेतना में पहले से मौजूद स्त्री की छवि इस छवि से टकराती है। संवेदनात्मक प्रतिक्रिया होती है। चेतना के दो खाने बनते हैं। चेतन और अवचेतन। किसी क्षण जब वह पुरुष संवेदित होता है तब उसके अवचेतन में मौजूद यह स्त्री छवि किसी तीसरे रूप में प्रकट होती है। इसी अर्थ में अवचेतन को हम अब तक व्याख्यायित करते रहे हैं। परन्तु जब इन्टरनेट पर या मोबाइल स्क्रीन पर जब हम किसी स्त्री छवि से बावस्ता होते हैं तो उसके परिणामस्वरूप भी उसी तरह एक चेतन और अवचेतन निर्मित होता है। यह जो नया अवचेतन है जिसके मूल में मोबाइल या इन्टरनेट पर अंकित स्त्री छवि है वह उस जैविक स्त्री- छवि से निर्मित अवचेतन से किस रूप में भिन्न होगा। क्या इसकी संवेदनात्मक प्रतिक्रिया भी उससे भिन्न नहीं होगी? इसे कौन नियंत्रित कर रहा है? कहने का तात्पर्य यह कि छद्म दुनिया से निर्मित अवचेतन को हम कैसे देखें? इसे नियंत्रित करने में क्या हमारा ऐतिहासिक बोध कहीं सक्रिय हो पाता है। हम पाते हैं कि इस अवचेतन के समक्ष हमारा मस्तिष्क अक्षम नज़र आता है। इसे कोई और नियंत्रित कर रहा है। जिसके सामने हम कठपुतली की तरह नाच रहे हैं।
इसी प्रकार संख्याओं की व्यवस्था को देखना भी दिलचस्प होगा। संख्याओं के विकासक्रम में मनुष्य के विकासक्रम का बोध भी अंतर्निहित है। इसी अर्थ में तार्किकता के विकास को देखा जा सकता है और साथ ही संवेदना के विकसित होते रूपाकार को भी समझा जा सकता है। संख्याओं को नियंत्रित करने उसे व्याख्यायित करने की मानवीय क्षमता का भी विकास होता रहा। उत्पादन के विकास क्रम को जानने समझने में संख्याओं द्वारा निर्मित तर्कशक्ति की भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण है। औद्योगिक क्रांति ने भौतिक उत्पादन की गति को बढ़ा दिया। इस गति के साथ जब श्रमिकों का तालमेल असंभव होने लगा तो वे अपनी ही भौतिक चेतना से कटने लगे। अन्य होने की प्रक्रिया यही से आरम्भ होती थी। एक समय तक शीत युद्ध में बमों की संख्या के आधार पर युद्ध लड़ा जा रहा था। क्योंकि संख्याओं द्वारा निर्मित तार्किकता एक वर्चस्व को निर्मित करती थी। इस तर्क से मनुष्य की संवेदना एक जुड़ाव निर्मित करती थी। इस अर्थ में संवेदना भी मात्रात्मक होती थी। लेकिन आज कोई वर्चस्व बमों की संख्या के आधार पर निर्मित नहीं किया जा सकता। हम जानते हैं कि आज एक बटन के दबने से समूची दुनिया तबाह हो सकती है! ऐसे में  संख्याओं द्वारा निर्मित तार्किकता और तद्जनित संवेदनात्मकता का क्या अर्थ रह गया है ?

हमारे परिचितों का एक दायरा होता था। उसमे 50-100 लोगों की संख्या होती थी। उनसे संवेदनात्मक जुड़ाव हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती थी। हम इन परिचितों को उनके नाम स्थान और चेहरे से जानते थे। इनसे भौतिक जुड़ाव जिस तरह की संवेदना निर्मित करती थी, उसका हमारी चेतना पर एक निश्चित प्रभाव होता था। इन्हीं सम्बन्धों के विस्तार में, द्वंद्व में हम अपनी सामाजिकता को पहचानते थे। फेसबुक में मित्रों की संख्या पांच हज़ार हो सकती है, किसी मोबाइल में दस हज़ार लोगों के नाम सुरक्षित रखे जा सकते हैं। क्षण भर की देरी पर हम उनसे संवाद कर सकते हैं। क्या इस संवाद की प्रक्रिया में हमारा जैविक अस्तित्व उसी तरह सक्रिय होगा, जैसे कि वह पहले था। फिर इस पांच हज़ार की संख्या के साथ हमारे मस्तिष्क का तालमेल किस तरह का होगा?  किस किस्म की तार्किक संवेदना हमारे मस्तिष्क में निर्मित होगी? इस छद्म सामाजिकता से निर्मित सामाजिक चेतना किस तरह का सामाजिक बोध निर्मित करेगी? क्या यह वही चेतन-अवचेतन निर्मित करेगी। इस छद्म से निर्मित होने वाले अवचेतन को हम कैसे देखे? क्या जो नया मनुष्य बनेगा जो अपनी आत्म चेतना से, अपनी पारम्परिक संवेदना से विरक्त होगा वह किस किस्म का समाज निर्मित करेगा? क्या वह स्थायी रूप से अधिक क्रूर, अधिक यांत्रिक, अधिक अमानवीय नहीं होगा?
इस नये विज्ञान ने संख्याओं की मानवीय परिकल्पना को पार पा लिया है। तो क्या यह वह स्थिति नहीं आ रही है जब मस्तिष्क तर्क के अक्षय श्रोत के रूप में और संवेदना के अजस्र प्रवाह के रूप में अर्थहीन हो जायेगा। क्या ऐसे में उस पर नियंत्रण करना आसान नहीं हो जायेगा?
अगर किसी घोटाले मे अनुमानित राशि है- एक लाख पिचासी हज़ार पांच सौ करोड़ हो तो इस अनुमानित राशी से क्या हमारा मस्तिष्क कोई तालमेल बिठा सकता है? क्या यह राशी कोई तार्किकता निर्मित करती है? अगर इस राशि में चार-पांच हज़ार करोड़ घटा बढ़ा दिया जाये तो कोई फर्क पड़ेगा? संख्याओं का एक महाजाल हमारे समक्ष है। इसे व्याख्यायित करना अनुमानित करना और इसके आधार पर एक तार्किक संवेदना निर्मित करना अब हमारे मस्तिष्क के लिए असंभव होता जा रहा है। क्या यह एक नये किस्म की विरक्ति नहीं है?  एक नये तरह का एलिनियेशन नहीं है?
आज से पंद्रह वर्ष पहले तक संगीत को कैसेट्स के माध्यम से सुना जाता था। एक कैसेट् में तक़रीबन आठ-दस गाने होते थे। आप उसे अपनी मर्ज़ी से आगे पीछे करके सुन सकते थे। उसके साथ मस्तिष्क एक तालमेल निर्मित करता था। हम उन गीतों के गीतकार संगीतकार और गायक के नाम याद रख सकते थे। फुर्सत के क्षणों में हम उन्हें दुहराते थे। संवेदना का अजस्र प्रवाह बहने लगता था। एक हद तक हम नोस्टैल्जिक होते थे। रूमानियत और नोस्टाल्जिया के बीच झूलते हम खुद को अधिक भरा, अधिक परिपूर्ण महसूस करते थे। उत्पादन की तकनीक के विकास ने हमें एक डिजिटल दुनिया के समक्ष ला दिया। अब एक पेन ड्राइव में एक हज़ार से भी अधिक गाने भरे जा सकते हैं। हमारा मस्तिष्क इस संख्या के साथ कैसे तालमेल बिठाये। हम एक साथ इनको सुन नहीं सकते । क्षण भर की देरी में हम पाचवें से पांच सौवें गाने तक पहुँच सकते हैं। यानि यांत्रिकीकरण की इस प्रक्रिया के समक्ष मस्तिष्क की असहायता स्पष्ट है। एक असहाय मस्तिष्क अधिक नियंत्रण के काबिल होगा।
आधुनिक विज्ञान ने इसकी भूमिका रची है। इसके मूल में एक क्षद्म दुनिया के निर्माण की प्रक्रिया कार्यरत हैं। हमारे समक्ष एक अभूतपूर्व गति और मात्रा का संसार रख दिया गया  है। इस सूचना प्रौद्योगिकी के निशाने पर मध्यवर्ग है। कोशिश भी यही है कि मध्यवर्ग की परिवर्तन कामी चेतना को शिकार बनाया जाए। उसकी संवेदना का वस्तुकरण किया जाये। मध्यवर्ग के इस एलिनियेशन के पश्चात् भविष्य की दुनिया कैसी होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
इस क्षद्म वस्तुपरकता का विकल्प क्या है? क्या हम इस विलगाव से बच सकते हैं? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने होंगे। लेकिन इससे पहले यह जरुरी है कि हम इन प्रश्नों को समझें।
आने वाले दिन अधिक क्रूरता और नृशंसता से भरे दिन होंगे। इस क्रूरता और नृशंसता का विकल्प हमे ही ढूँढना होगा। सामजिक चेतना के रूपाकारों के विस्तार के लिए एक अधिक आत्मीय और ऊष्मा से भरी मनुष्यता के निर्माण के लिए एक सतत् गतिशील मानवीय गति की तलाश करनी होगी। इसके लिए जरुरी है कि उस मुक्तिबोधीय भविष्यवाणी को जिसमे चेतावनी भी अंतर्निहित है-अपने दिल में बिठाये।
वर्तमान समाज चल नहीं सकता
पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकता
स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को
जन को।



अच्युतानंद का यह लेख पिछले ढाई तीन सौ वर्षों के सामाजिक विकास पर केन्द्रित है। उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि किस तरह नई सदी में मध्यवर्ग को बाहर किया गया है। और किस तरह यह मजदूर से विलगाव से आगे की स्थिति है। इसमें आध्यात्मिक हो सकती है पर लेखक को यह लगता है कि अब वह काम आ गया है कि हम अपने अतीत ओर से निकलकर एक आलोचनात्मक नज़र बनाएं। यह लेख इसी मिल सके का एक प्रयत्न है। मो. 09213166256

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