ओ पाकिस्तान
तुम जो चीज़ें छोड़ गए हैं अब तलक दूर दूर तक मैदानों में ज्यों कि त्यों भुला देने के किसी इरादे की निगाह में नहीं
ये एक धूप की आँच के निशान हैं बीती मुलाकातों की सरसराहटें कोशिकाओं के द्रव्य में मनुष्यता की कविताएं ये छोड़ी हुई साँसों के मानसून में घुल जाने और फ़िर लौटने वाली बरसातें हैं हमारे हँसने, रोने में अक्सर आतीं हैं इतिहास से बाहर ललक उठने को
अपनी आवाज़ पर गौर करें लफ्जों के बीच ये अपने मायने बचा लेती हैं भले से देखें तो कुछ पल करीब करती हैं
हम सफर
एक खयाल है मुसलमान को हमेशा बोलते रहना चाहिए लफ्ज़ों में शख्सियत खुल जाने दें, आवाज़ों में पहचान की कई चीज़ें एक धुंधला सा पर्दा हट जाए
एक और खामोशी के हक मे है बहुत सारी जिन्दगी जहाँ मयस्सर है पाक खयालों की बेशुमार कौंधें और कितनी ही कामयाब बातचीतें
चलती रेल के हिचकोलों में तभी मियां जी ने खाने का डिब्बा खोल दिया जैसे भूख भी संवाद का ज़रिया हो
सकपका कर कई जनों ने जगह को आसान किया एक सुकून उठा कई पर्तों की मैल हटा कर कनखियों से देखते वे रोटियाँ चबाते जबड़ों की हरकतें पिघलती करुणा में शिथिल हुई शिराएं
पटरियों से उठते शोर में उठी एक लय सारी आवाज़ें फ़िर दिल को छू लेने वाली हुईं
अद्वितियता
मान लो मैं अपना अद्वितीय चेहरा लिए एक गुप्त संगठन का सदस्य बन विस्फोटक थैला रख दूँ एक से एक अद्वितीय चेहरों से नज़र बचा कर भीड़ के सामूहिक गुनगुनेपन से ताप ले कर क्षत विक्षत तस्वीरों को कहीं दूर से देखने के लिए गायब हो जाऊँ
भिनभिनाती मक्खियां मुझे शर्मिन्दा करेंगीं अपनी कमीज से मैं कभी आँख नही मिला पाऊँगा ज़ुबान का कर्ज मुझे किसी ईमान का नहीं छोड़ेगा जीवन की सारी रोटियाँ और नमक और खत में घुले भीड़ के तमाम स्पर्श मुझे मार डालेगें खामोशी से
शायद कभी कान विषाणुओं से संक्रमित हो जाएं, जीभ कहा नहीं माने। जब भी कोई सड़क पर चलता है उसका पता मिल जाता है यह ताकत हमेशा याद रखें कि अद्वितीय है
करवट
मैं करवट लेता हूँ तो चेहरे के ठीक सामने पाकिस्तान है या बंगलादेश तमीज़ की बात है मुँह में न रहे कोई बास
यह भी शऊर की बात नहीं कि भूल जाऊँ आने जाने के तमाम रास्तों को छोड़ दूँ रिश्तों को उनके हाथ जिन्हें भरोसा नहीं मुलाकातों पर जिनकी बुनियाद में लोकतन्त्र का पानी नहीं पहुँचा जो झट से मान लेते हैं दुश्मनियों की बात घुटने
एक दुनिया के लोग घुटने मोड़ बैठ कर काम करते हैं उम्रभर इनकी विनम्रता का अंत नहीं सानी नहीं इनकी तल्लीनता का हम अपनी टुच्ची आँखों से जैसे नहीं देखते है
इन घुटनों पर टिके है संविधान मर्यादाएं बनी हुई है सरकारें ढह जाएंगी जिस दिन ये सीधे होने को होएगें
खरीज
खरीज गिर पड़ती है अक्सर कपड़े बदलते वक्त बुरा नहीं लगता झुककर सिक्के उठाने पर संगीत है उनमें एक वाद्ययंत्र जैसा स्पर्श में हर दफे बचपन जैसी जिज्ञासा
बेशर्म रुपयों पर कभी भरोसा आता नहीं धोखा दे कर छिप जाते जालियों के साथ कोई सुराग उनकी बातों में नहीं रहती परेशान करने को खुसपुसाहट हमेशा
एक अप्रकाशित टिप्पणी
यह हटा लो भारत एक गरीब देश है लिखो चालू वित्तवर्ष में जी.डी.पी. साढ़े सात प्रतिशत रहने की उम्मीद है गरीब की मायूसी से हममें हँसने बतियाने की हिम्मत है औरतें ज्यादा थक जाती हैं जरूरतों को ढकने के प्रसाधनों में
गरीबों के रहने से हममें जान है हमारे चेहरों की हिंसा का पता नहीं पड़ता
राजेश सकलानी- कवि का सबसे ताज़ा कविता संग्रह 'पुश्तों का बयान' है। 1955 में पौड़ी गढ़वाल में जन्मे राजेश सकलानी विज्ञान के स्नातक हैं और भारतीय विद्या भवन से औद्योगिक सम्बंधों और प्रबंध की शिक्षा पूरी करने के बाद एक वित्त संस्थान में नौकरी की। देहरादून में बस गये। असद ज़ैदी ने उनके बारे में लिखा है कि ''राजेश सकलानी की कविताओं में एक निराली धुन, एक अपना ही तरीका और अनपेक्षित गहराइयाँ देखने को मिलती है - उनकी कविताओं में एक दिलकश अनिश्चितता बनी रहती है - पहले से पता नहीं रहता कि वह किधर जायेगी।'' |