चमरगिद्ध

  • 160x120
    जून 2014
श्रेणी कहानी
संस्करण जून 2014
लेखक का नाम लक्ष्मीधर मालवीय





 



सूर्यास्त हो गया होगा, मगर घनी बदली के पीछे उद्धस चमक, ठीक समय का अंदाजा न मिलता। तरंगायित जल से तीन-चार सीढ़ी ऊपर घाट के एक ओर टाट के आसन पर लोहर के आगे तांबे के पंचपात्र सजे थे, उसकी संध्या अभी पूरी न हुई थी। बाढ़ पूरे जोम पर, हहराती हुई। इंद्रदमन लगा था। मंदिर की सारी सीढिय़ाँ चढ़कर नदी जल दालान के काले सफेद संगमर्मर के चौकों पर छोटी छोटी लहरों में इठला रहा था। मर्दाने घाट पर तीन व्यक्ति कमर भर जल में उतरकर स्नान कर रहे थे। दाहिनी ओर सीढ़ी पर खड़ी होकर एक अधेड़ औरत अँजुली भर-भर कर अध्र्य दे रही थी। पिछले चार-पाँच दिनों से छाई गहरी बदली। मूसलधार बारिश तीन दिनों से एक बार भी थमी न थी। गंगा के मटमैले जल पर वर्षा की बड़ी-बड़ी बूंदे चेचक के दाग-जैसे छेद बनातीं।
लोहर ने कनखियाकर देखा, बीच धारा पार कर राधे मल्लाह का भारी डोंगा सवारियों से खचाखच भरा हुआ, नदी को तिरछा चीरता तीर की माफिक इधर आ रहा है। डोंगे की दोनों बगलें हिलोरते नदी जल से बस, चार अंगुल ऊपर रही होंगी! सवारियां अधिकतर उस पार के गांव के, चौमासे में हाथ पर हाथ धरे बैठने के बजाय पीतल के बर्तन बनाने वाले या चपड़ा कारखानों में मजदूरी कर चार पैसा कमाने वाले। रोज़ का नज़ारा - अधिकतर के साथ बाइसिकिल। उतरते ही साइकिल तिकोने से अपने कंधे पर टाँग सीढिय़ों पर चढ़ते फनाफन - कुछ छोरे एक रुपया ले साइकिल ऊपर चढ़ा देते।
लोहर गर्दन टेढ़ी कर उसी ओर घूरते हुए देख रहे थे कि अचानक घबराकर उठ खड़े हुए! डोंगा तो मैगल हाथी की तरह सीधा इधर ही मानों उड़ा आ रहा था! बेनी अगरवाल अपनी गीली धोती की चुनन खोल उसकी मोटी रस्सी बटकर पीठ जल्दी-जल्दी रगड़े जा रहे थे, कि अचानक वह चिल्ला उठे, ''साला पगला गया है क्या?''
बाईं ओर का घाट था, न जाने पचीस कि पचास साल से खंडहर। उसकी अधिकतर सीढिय़ों के पत्थर गिर गए थे, नीचे नदी के कटाव से भारी लंबा चौड़ा चौड़ा खोखला निकल आया था। न जाने कितने पुरसा गहरा। बाढ़ में उस दह के भीतर विशाल भँवर नदी जल को मथती रहती। अमूमन तो तैरता हुआ डोंगा उसी खोखले के अंदर जाता और प्रवाह के उल्टे घुमाव के साथ मुड़कर धीमा हो, राधे मल्लाह इस घाट की चौड़ी सीढ़ी से लगा देता।
डोंगे पर सौ से ऊपर सवारियाँ रही होंगी। सफेद कमीज़ पहने तीन व्यक्ति सबके आगे खड़े थे। अन्य दो पुरुष सवारियाँ अपनी-अपनी साइकिल के हैंडिल पर बाँह रखे, घाट पर नाव लगते ही, उतर पडऩे को तैयार। एकाएक दो सवारियों ने नदी में छलाँग लगाई। उनके पीछे तो दोनों ओर से सवारियाँ मेढ़कों की तरह नदी में कूदने लगीं। राधे मल्लाह का फक चेहरा, वह पतवार पर दुहराया हुआ पूरा दम लगाकर उसे एक ओर ठेले था मगर डोंगा मुड़कर कटाव के भीतर हो घाट के बराबर लगने के बजाय सीधा-लोहर आतंकित हो अचानक उठ खड़े हुए थे मगर कुछ पल को तो सिर से पैर तलक जड़ हो मूरत की विस्फारित आंखों से उधर घूरते ही रह गए!
सौ-सवा सौ सवारियों को अपने ऊपर उठाए हुए वह भारी नाव बहते हुए कूड़े के ढेर की भांति पूरे वेग के साथ आकर टकराई घाट की पक्की सीढिय़ों के कोने से! बम फटने का-सा भारी धमाका हुआ और पूरा घाट, ज़ोर का भूकंप आया हो मानों, एक बार थर्राकर रह गया! चरचराकर नाव दो-तीन टुकड़े हुई, फिर उसके पटरे-पटरे अलग हो जल पर उतराते हुए बिखरकर बहते गए! लोहर ने नदी में छलाँग लगाई; स्नान कर रहे तीन और व्यक्ति भी नदी में कूद पड़े।
चंद लमहों की खामोशी रही होगी मगर कितनी लंबी चुप्पी के साथ डूबते और चीखते बहते पुकारते हुए मनुष्यों के कोलाहल से आकाश भर गया। बाढ़ के उतने उग्र बहाव में तो अच्छे-से-अच्छा तैराक भी थम न पाए, देखते-न-देखते वे सारी चीखती-पुकारती हुई सवारियाँ तेज़ धारा में ऊभती-चूभती हुई बह गईं! इने-गिने अधेड़ बूढ़े ही तैरकर किनारे लगे।
कोई घंटे भर बाद टीवी कैमरा वाले संवाददाता, फोटोग्राफर आए। एक भी लाश न मिलने से अपना सा मुँह लिए लौट गए। कुछ बाद में दो उच्च पुलिस अधिकारी, अमले सहित। तब वहाँ दुर्घटना का कुछ रही न गया था - सिवा सीढ़ी के उखड़कर ऊँचे हुए लंबे पत्थर के पाटों के, सीधे आकर जिससे डोंगा टकराया था।
लोहर की दृष्टि के आगे दो चेहरे बार-बार तैर जाते। बदहवासी में उसके पूरे खुले हुए जबड़े में दाँतों की बत्तीसी ही दिखलाई दी थी और दोनों बाहें फैलाकर वह लोहर की ओर लपका कि लोहर ने भरपूर झापड़ मारा, उसके मुँह पर! फिर लोहर ने ही एक हाथ लपकाकर उसे पकडऩा चाहा मगर बुलबुले की भाँति उछलता हुआ वह पकड़ ही में न आया, बह गया - लड़का, रहा होगा 12-13 साल का... घाट की सीढ़ी पर अँधेरे में अब भी बैठी थी, सन जैसे सफेद बालों के बीच काली झुलसी हुई चमड़ी वाली जप्पल बुढिय़ा!
''अम्मा?'' लोहर ने निकट जाकर धीरे से उसे पुकारा तो वह भुकार मार कर आर्तनाद कर उठी!
''हाय मोर बचवा!'' बेटा और दो पोते उसके बह गए थे।
तभी नदी पार इंजन की सीटी सुनाई दी। चील्ह स्टेशन से फास्ट पसींजर खुली होगी।
चढ़ते भादों का महीना। लोहर शाम होने के पूर्व मंदिर दर्शन कर आने का इरादा कर ही रहे थे कि ध्रू का एक संगी लल्ली दौड़ा हुआ आया मगर बदहवासी में बोल इतना ही पाया, ''चाचा, ध्रू गंगा में...'' इसके आगे बोला न गया उससे।
पूरा सुना नहीं मगर लोहर मुसकराए। उस मुसकाने में पौने सोलह आना भरोसा था गंगापुत्र का, रत्ती भर आशंका, पिता की।
''डूब ही नहीं सकते ध्रू, नद्दी में!'' मगर मन न माना उनका, घाट पर जाकर देखने के इरादे से घर से निकले। आधी सीढ़ी पर आकर उनके पैर आप ही जड़ हो रहे!
सामने जहाँ तक दृष्टि जाती, उमड़ती-घुमड़ती बाढ़ की गंगा का मटमैला विस्तार - मानों क्षितिज पर जाकर वह नदी चौड़े झरने के समान नीचे गिर रही हो! जल-ही-जल; बीच-बीच में बहकर जाता दिखलाई देता काल धब्बा छपरैल की ठाट, गाय या बैल, चारपाई, पूरे पेड़ का हरा गुंबद! कि उनकी दृष्टि ठहर गई, दूर बीच धार में एक काली बिंदी पर, जो प्रवाह के साथ बह नहीं रही थी बल्कि थिर थी। नहीं, वह स्थिर न थी, बल्कि काँपती हुई किनारे की ओर खिसक रही थी! कुछ दूर बह-बहकर फिर-फिर किनारे की ओर।
सम्मोहित-से लोहर अपलक इस दृश्य को निर्निमेष देखते ही रह गए! और भी निकट आने पर अब उसे सा$फ पहचाना जा सकता था, दोनों हाथ तेज़ी से फेंकता हुआ वह तैराक किनारे की ओर खिंच आने का अथक प्रयास कर रहा है - और उसके पीछे खिंचा आ रहा है एक और काला धब्बा!
उस दूसरे काले धब्बे को चीन्हने में लोहर को पल भर भी न लगा! ध्रू की छोटी डोंगी, जिस पर वह सुबह-शाम, बेनागे, पार जाकर झाड़ा फिरते थे!
सीढ़ी पर से वापस मुड़ते हुए लोहर का मन किया, एक झापड़ दूँ, कि मुँह टेड़ा हो जाए! पुत्र से अनबोला ठाने रहे, लोहर पंडित, दो दिन।
गोबरधन पंडित। गौर वर्ण, गठीला शरीर; सिर पर गोल सफेद टोपी, बारहों माह। छोटे फुर्त कदम ढुलती चाल। मिर्जई के ऊपर कमर में पटका। गर्मी के मौसम में बर्फी जमाते और उसे मोटे कपड़े के बेठन में बर्फ से दबाकर लिए हुए पेरी लगाते, कभी संतरे की बर्फी, कबी फालसे की। ज्यादातर तो पास-पड़ोस ही में बिक जाती।
होली पर वह मुहल्ले के बच्चों को आगे किए चंदा उगाहने निकलते, ''होली माता दे असीस'' बालक वृंद अगली कड़ी पूरी करते, ''लड़के जीवैं लाख बरीस!''
मसखरे थे। एक रोज़ घर के आगे चबूतरे पर उकडूँ बैठे थे, एक पतला गमछा बाँधे - 'माल-असबाब' लटकाए, माल से असबाब कहीं बड़ा! सामने से एक व्यक्ति तरबूज़ लिए हुए गुज़रने को हुआ। उन्होंने ध्यान से उसका चेहरा देखा, वह आदमी मुहल्ले का न था मगर मुहल्ले से होकर जा रहा था। गोधन ने चार उँगलियों से इशारा कर उसे पास बुला लिया। हकला-बकला वह सामने आकर खड़ा हुआ तो गोधन बोले, ''ठग गए! तरबूज सड़ा है!''
उसने प्रतिवाद किया तो गोधन ने फिर कहा, ''सड़ा नहीं है, बिलकुल सड़ा है! उँगली कोंच दूं, अंदर घुस जाएगी उँगली! तब मानोगे?''
वह कुछ कहे उसके पहले गोधन ने तरबूज को तर्जनी मारी तो वाकई में वह तरबूज में घुस गई! वह व्यक्ति भौचक रह गया।
''अब मुँह बाए खड़े क्या हो? अरे, रास्ता नापो अपना! तरबूज़ हम फेंकवा देंगे।''
वह इतना डर गया कि गोधन को एकटक घूरता हुआ परे खिसकता गया - कोई दस कदम आगे जाकर उसने पलटकर देखा। इस तरह गुरू ने मौसम का पहला तरबूज़ खाया।
लोहर के घर से पाँच घर आगे था गोधन का मकान। दोनों के बेटों ध्रू और द्वारकी में दाँत काटी रोटी थी।
विसंगतियों के पुंज थे गोधन! मामूली पूजा-कथा कर-करा देते, फलित भी बाँच देते, यों दलाल थे। बस, अब यह न पूछा जाए कि किस-किस के! भगवती के भक्त थे ही, बालकृष्ण के भी उपासक। लेकिन सिफत यह कि केवल मनोजगत ही में। न जाने कितने दर्जन जनों को उन्होंने इस राह उतारकर घर बरबाद किए होंगे, प्रभु ही जानता है!
शहर बाहर, कोई 30-35 किलोमीटर दूर, बड़ा ही सुरम्य स्थान था, योगिनी टीला। गंगा उसकी अद्र्ध परिक्रमा करती हुई बहती है। बरसात छोड़ दूसरे मौसमों में मंदिर के आँगन से दिखलाई देती, लंबे-चौड़े मैदान के बीच रुपहली सर्पिल लकीर जैसी नदी की रेखा। बरसात में वही हो जाती समुद्र, और उसमें संतरण कर रहे विशाल पोत के उठे हुए मत्थे-सा योगिनी मंदिर! मंदिर के दालान के नीचे चार पग आगे डेढ़ सौ हाथ गहरा कगार और उफनती हुई उग्र जलराशि।
उधर गाँव या बस्ती न होने से पक्की सड़क से एक कच्चा रास्ता फूटता था, योगिनी मंदिर की ओर। यहाँ से खड़ी चढ़ाई थी, पत्थर की सीढिय़ों की। सीढिय़ाँ कितनी, कोई भी गिन न पाया - कहते हैं, ठीक गिन देने वाला अगली अमावस्या के पूर्व मर जाता। बीच में कहीं-कहीं सीढ़ी के पत्थर अपनी जगह से खिसक गए थे। ऊपर पहले एक आँगन पड़ता था, उसके बीच में बिना छत का सर्वतोमुखी का मंदिर था, चारों ओर घेरे हुए चौंसठ छोटे प्रकोष्ठ, हर एक में विरूप खंडित मूर्तियाँ। यह पुराना योगिनी मंदिर जौनपुर के शर्की सुल्तानों ने तुड़वाया था। इसके एक प्रकोष्ठ को फोड़कर बरगद का पुराना वृक्ष, एक चक्राकार मंदिर के खंडहर दालान पर छत्र सा छा गया था। एक नंगा बूढ़ा वहां इधर-उधर डोलता कभी-कभी दिखलाई देता।
भाद्रपद अमावस्या को यहां विशेष रात्रि पूजन होता था। अनेक व्यक्ति प्रसाद लेने पहुँचते। लोहर भी। आते तो थे पैदल चलकर; लौटते गंगा में तैरते हुए। एक बार किसी ने भड़ी पर लिया तो लोहर बरसात की बढ़ी गंगा में कूद गए - जलजंतु थे वह, उनके लिए बाढ़ की नदी और खेत की डाँड़ एक-बराबर! पुरुषोत्तम शाह, नगर के प्रसिद्ध आढ़ती व्यापारी, ने लोहर को 101 रुपया पारितोषिक दिया था।
शाह भी योगनी के दर्शन को आया करते थे - संयोग की बात, आज रात वह आए थे, विशेष पूजन कराने। माथे पर बलिपशु के रक्त का टीका लगवाए वह पहली सीढ़ी पर उतरने ही को थे कि बरगद की जटाओं के बीच से निकलते लोहर दिखलाई पड़े, तहमद बाँधे, सैंडो बनियान बाएँ कंधे पर।
''पंडित?'' शाह उस रोज विशेष मुदित थे, ''होती है बदी, तुम्हारी और हमारे इक्के की?''
शाह का हवाबाज़ नीमडंडा इक्का सीढिय़ों के नीचे खड़ा था।
शाह के साथ उनका साढ़ू भाई था, उसने बरकाना चाहा, ''छोड़ो भी शाह।'' भाव था, पागल है, उनकी जान को कुछ हो गया तो बेकार की तोहमत। लोहर को बुरा लगा, घोड़े से अपनी बराबरी, लहजा और भी तंज। लोहर ने कनखिया कर साह को देखा भर। वैसे ही देखते-देखते हुए उन्होंने पूछा, ''साह, कितने की?''
''सौ रुपया।''
''नहीं', लोहर ने अपनी नाक से उधर कोंचकर इशारा किया, 'शाह के कंधे की चादर-त्रिमुहानी पर।''
''और पंडित, जो तुम हारे तो?''
खुलकर हँसते हुए लोहर ने तर्जनी से अपने लिंग-स्थान की ओर हवा में दो बार कोंचते हुए कहा, ''मेरी तहमत!''
शाह खिलकर हँसे। वापस मुड़े, दालान पार किया फिर नीचे की सीढिय़ाँ उतरकर तीनों-चारों आए छज्जे पर। अँधेरे में जल का आभास भर था, मगर उसका गर्जन सारे आकाश में भरा हुआ था! नीचे थी दह में नाचती भँवर, यमराज के काले भैंसे की अकेली विकराल आँख-सी!
लोहर ने तहमद को कच्छे की तरह कसकर बाँधा और बाँस की बाढ़ के दूसरे ओर खड़े हो, ''ज य गं गे!'' की गर्जना के साथ लगाई छलाँग! अंधकार में भी जल पर एक उद्धस सूराख बनकर मिट गया। फुर्त कदम सीढिय़ाँ उतर, अपने इक्के पर सवार हो शाह ने इक्केवान से कहा, ''चल बे!''
भोर हुई ही थी। निर्जन त्रिमुहानी के बीच के गोले पर खड़े हो लोहर ने तहमद खोलकर अलग की और उसे निचोड़कर बदन पोछते मुस्कराए जा रहे थे, अलिफ नंगे। दूर, पसरट्टे की सड़क पर एकाध हलवाई की सुलगाई जा रही भट्टी से पक्के कोयले का नीला धुआँ उठ रहा था। गंगा स्नान को लोग अभी निकले न थे। अचानक लोहर को सुनाई दिया, ''कहो लोहर, सारी लाज-सरम सब धोकर पी गए क्या?''
लोहर ने चौंककर उधर देखा और पहचाना ''चाची, अपना मुँह उधर कर लो!'' लोहर ने तहमद जाँघों की जड़ पर चिपकाते हुए कहा। चाची कोसती बड़बड़ाती चली गईं। इसके कोई दस-बारह मिनट बाद सामने से शाह का इक्का तेज़ी से आता दिखलाई दिया। इक्का लोहर जहाँ खड़े थे, लोहर के सामने आकर रुका। तेज़रौ आया घोड़ा पसीने में नहाया हुआ था। लोहर का कल्ला दोनों कानों तक फैल गया। कोचवान के हाथ की चाबुक ले, उन्होंने उसकी नोक पर शाह के कंधे पर रखी टसर की पीली रेशमी चादर उठाकर अपने कंधे पर गिरा ली।
सिनेमा के दृश्य की भाँति अतीत के उड़ते-बिखरते हुए टुकड़े ही रह गए थे, लोहर के पास! हाँ, यह ज़रूर है कि उन्हें कभी-कभी ऐसा लगता कि कुछ है जो उनसे छिनता जा रहा है, लगातार! मगर वह है क्या, उनकी पकड़ में न आता! घर में भोजन एकदम सादा बनने लगा। चौसा का असली घी खाए कितने महीने, नहीं साल हो गए! कुरता कंधे पर से कई जगह झर गया है। ध्रू ने अपनी एक कमीज़ देनी चाही, मगर एक तो कमीज़, दूसरे नीले रंग की। लोहर ने न ली।
ध्रू पंडिताई क्या, इसे तो गंगालहरी का एक श्लोक तक कंठस्थ नहीं। बी काम करने के बाद क्या कहते हैं, एम काम किया मगर रहे बेकाम के बेकाम! बाबा मुरारी पंडित के उपकृत एडवोकेट साहब का बेटा एम एल ए था - उसकी सिफारिश से बिजलीघर में बिल जमा कराने की खिड़की पर बैठने की क्लर्की मिली - टेंपररी! सुपरिटेंडेंट ने कहा, मीटर रीडिंग का काम ले लो, वहाँ चांदी ही चांदी है! पता चला, वहाँ तो नीचे से लेकर ऊपर तक सब का हिस्सा बंधा है। ध्रू का मन तो हुआ मगर हिम्मत न हुई। तीन साल हो गए शादी किए, मगर बच्चा नहीं पैदा होने देते, मियां बीवी।
पता नहीं, दुनिया लोहर को छोड़ जा रही है कि उनकी ही पकड़ निर्बल हो गई है! चौड़ी गली के मुहाने पर दोनों ओर के मकान बिके एक महीना भी न हुआ कि दोनों को गिराकर मार्केट बनने को है। पुराना बजाजा गायब, वहाँ अब सुपर माल बना है, लकदक - साला पागल कुत्ता तक अंदर नजर नहीं आता। बचे हैं संकरी गलियों वाले मुहल्ले - जहां तक बुलडोजरों की पहुँच नहीं! बरस रहा है हुन चमाचम, आसमान के एक छोटे से सूराख से - बाकी से अंधेरा, दिन और रात!
चौधरी बुलाकी उधार वसूली, मकान ज़मीन खाली कराने का काम करते थे। उनके घर के अंदर चारों ओर गोल खंभेदार दालानों से घिरे आँगन की जगह दो पुरसा गहरी बावड़ी थी। उसमें दो-तीन बड़े-बड़े मगर पाल रखे थे, चौधरी बुलाकी ने। मगरों के बारे में तरह-तरह की अफवाहें!
एक अ$फवाह यह कि चौधरी बुलाकी ने अपने मगरों के तीन बच्चे नदी में बहा दिए थे - घाट पर स्नान करने वालों के डूबने - और उसकी लाश तक न बरामद होने पर इस प्रवाद ने और भी तूल पकड़ा। फिर, शहर ही का घाट नहीं, 12-15 किलोमीटर नीचे गहिया गाँव के कच्चे घाट पर स्नान करते-करते एक बूढ़ी लापता हुई और शव उसका भी न मिला।
अ$फवाहों के पंख होते हैं, मगर अब भगवान जाने क्या सच क्या झूठ!
इसे महीना भी न गुज़रा होगा कि गजब ही हो गया! साराशहर सन्न होकर रह गया! नए एस एस पी सिन्हा को आए चंद ही माह हुए थे। उसकी साली 24 साल की, शादी के तुरंत बाद पहली बार आई थी, जीजी जीजा के यहाँ। बड़ी बहिन उसे उसके और अपने ज़ेवरों से सजा, नई बनारसी चुनरी पहनाकर गंगा पुजाने ले गई थी। साथ में दो कान्स्टेबिल। दोनों बहनें घाट के एक कोने में कंधों तक जल में आपस में चुहल करती स्नान कर रही थीं कि एक वाक्य के अधबीच में छोटी बहिन के चौकने के साथ मुंह से लंबी चीख भर निकली आअ:! और इसी के साथ वह जल में समा गई। समाई क्या एक बार भी ऊपर न आई-आई ही नहीं! दोपहर की शाम की रात-अगले रोज़ भी उसका पता, न उसकी लाश का! गोताखोरों ने छान मारा, दूर-दूर तक जाल डाला गया! कोई पता नहीं! हफ्ता गुज़रा, गुज़र गया महीना। जैसे पिघलकर पानी हो पानी में मिल गई हो!
आज चौथा दिन है। कत्तो को पर्व-त्योहार पर भी नदी स्नान करते न देखा गया, वह कत्तो घंटों नहाता, डुबकी लगाता है! अकेले कत्तो नहीं, बगल के खंडहर घाट के पत्थर पर उतारे हुए कपड़े, कपड़ों पर नए नए दो कि तीन मोबाइल। बाप की मौत पर महीने भर को पैरोल पर जेल से छूटे रामचंदर समेत पूरी चंडाल चौकड़ी। आपस में बदकर, कि कौन अधिक देर तक बूड़ा रह सकता है!
पांचवें दिन की बात है, घाट पर कोई न था, लोहर ने कुर्ता धोती उतारकर चौकी पर रखा, लंगोट की पट्टी खींचकर पीछे खोंसी और गंगा की सतह पर झिलमिल करती चांदी-सोने की मछलियों के बीच छपाक से गोता लगाया। जल के भीतर नीले अँधेरे तथा हरे उजास की आपस में मिलती-घुलती सुपरचित सृष्टि थी। लोहर कुछ देर तक आँख खोलकर धीरे-धीरे आगे बढ़ते तो हाथ-डेढ़ हाथ आगे तक दिखलाई देता - जल में तैरकर जाते हुए अभ्रक के चमकते कण, शाम के घिरते अंधेरे में दिपते हुए तारों-से। दोनों उंगलियों के बीच से पीछे छूटता कीचड़ और रेत के गण और उसके पीछे तरल गाढ़े अंधकार की काली दीवार।
कोई लिजलिजी-सी चीज़ उनके कंधे से छुई तो लोहर की सारी देह झन्ना गई - जैसे कि बिजली का करेंट दौड़ गया हो! हवा के मंद झोंके से धीरे-धीरे बल खाती झंडी के समान लहराती हुई यह तो लोथ है, फूली और सड़ी हुई! हे भगवान्! आगे बढ़ाए हुए पंजों की उँगलियों में तैरते हुए खुले बाल उलझकर अलग तैर गए! लोहर का सारा बदन मिर्गी के रोगी के समान थर-थर कांपता रहा! साहस बटोरकर उन्होंने लाश को टटोलकर दोबारा छुआ। कंधे पर से नीचे, कुहनी के आगे हाथ न था। कमर में कपड़े का चिथड़ा था और मोटी रस्सी बंधी थी। लोहर की कंपकंपी रोक नहीं रुक रही थी! ऊपर उठने के लिए उन्होंने नीचे एक पंजा रखा तो हथेली पर कंकड़ा-सा गड़ा। उसे उन्होंने मुट्ठी में बंद कर लिया और एक हुमक में ऊपर आ रहे।
ऊपर आए तो ज़ोर-ज़ोर से उनका दम फूल रहा था, उत्तेजना के मारे। सीढिय़ों की ओर उन्होंने बायीं कनखी से देखा। बजाजेवाली जप्पल बूढ़ी अम्मा अभी आठ-दस सीढिय़ां ही उतरी थीं। दायें हाथ से दीवार पकड़कर नीचे उतरने में अभी उन्हें बीस मिनट से ऊपर लगेगा - अभी तो दीवार के मोकवे में से निकले पीपल के थाले पर बैठक दस मिनट वह सुस्ताएगी। लोहर ने फिर बुड़की मारी।
नीचे का डूबा हुआ संसार उसके लिए वैसा ही सुपरिचित था, जैसे अपने पुराने घर का गलियारा-कोठा। दायें हाथ के पंजे से सेवार एक ओर करते हुए वह अंदर की ओर बढ़े आगे मटमैला नीला उजास भी न था; यथा-कदा सामने से गुज़र जाते जल में मिले हुए अभ्रक के कण या कि उनसे मिलते-जुलते प्रकाशमान छोटे-छोटे जलजीव। पहलेवाले स्थान पर आकर वह टटोलकर लाश की कमर में बँधी रस्सी छूते हुए रस्सी के दूसरे छोर की ओर बढ़े। दूसरा छोर, शव बहने न पाए, पटिया के छेद से बंधा था। घाट के नीचे पंद्रह हाथ गहरे पाल में ऊभती-चूभती लाश बह तो भला क्या पाती! मगर कमाल है! भय का स्थान अचरज ने ले लिया। वह लाश के नीचे की मिट्टी लेकर मुट्ठी में मलने लगे। उनका अनुमान सही निकला। हर मुट्ठी का कीचड़-बालू बहने के बाद कई-कई मटरदाने मुट्ठी में बचे रहते! लोहर का दम टूटने को होता तो वह ऊपर आते मुट्ठी के सुनहले मटरदाने वह अपने टाट के नीचे दबाकर फिर गोता लगाते। एक बार और, उन्होंने सोचा।
हथेली के नीचे खोपड़ी! नहीं, लोटा था, औंधा हुआ! इस बार उन्होंने बेधड़क हो शव को टटोला। गले, एक बची हुई बाँह तथा कमर पर कोई आभूषण न था - एक पैर के टखने पर कोई हल्का गहना था - शायद पायल। उन्होंने एक बार पैर टिकाना चाहा लेकिन चिकनी मिट्टी के दलदल में पैर अंदर धंसता गया। उनका दम फूलने को था। झुककर वह दोनों हाथों से टटोलने लगे। बांई हथेली में एक कड़ा। दो मोटे चूड़े। इसे उन्होंने अपनी बांई उंगलियों में फंसा लिया। उनके दोनों हाथ फुर्ती से चल रहे थे, लीपने की तरह। उसी स्थान के आसपास से बटोरकर उन्होंने आठ-दस दाने अपनी लंगोट के अंदर खोंसे।
दो-अढ़ाई मिनट के उद्यम से उनकी दोनों मुट्ठियां भर गईं। तभी लिजलिजी लाश उनकी पीठ से फिर छू गई। लोहर बचने के लिए एक ओर हुए यह तो लाश नहीं, योगिनी मंदिर में रात को घूमने वाली चुड़ैल नकियाकर हंसती हुई उनकी पीठ पर चढ़ बैठी थी! नहीं-नहीं! लोहर ने उसे हथेली से परे ठेलना चाहा। मगर वह तो कई सौ मन की पत्थर की मोटी टेढ़ी सिल बनकर उन्हें दबोचे थी! पाल में न जाने कितने वर्षों से खुँसा हुआ घाट का पत्थर उनकी पीठ के धक्के से गिर आया। पटिया का एक सिरा अब तक कींचड़ में खुसा हुआ था - कई मन की पटिया के नीचे दबे हुए लोहर की दोनों मुट्ठियां दलदल में घंसती जा रही थीं! लगा, उनका दम -
लोहर आतंकित हो उठे। फेफड़े की दीवार फट पडऩे को थी। जय गंगे, उन्होंने मन में कहा और मुट्ठी खोल साब वहीं छोड़, दोनों हाथ पीछे ले जाकर पटिया पीठ पर से एक बगल गिराई और ताबड़तोड़ हाथ मारते हुए ऊपर आ गए। ऊपर आकर सीढ़ी पर लेटे, और लेटने के साथ बेहोश हो गए।
''लोहर! क्या हुआ लोहर पंडित!'' उन्हें होश आया तो बजाजेवाली अम्मा उन्हें पुकार रही थी। दूर पर सि$र्फ एक व्यक्ति स्नान कर रहा था।
होश में आने पर भी वह देर तक वहीं पड़े रहे। फिर डगमगाते पैरों से वह अपनी चौकी तक आए, टाट के नीचे रखे हुए सारे मटर दाने बटोरकर एकट्ठे किए और हाथ हवा में लहरा दिया। शाम का वक्त, सोने के टुकड़े जल में कहां-कहां गिरे, दिखलाई न दिया। जहाँ-जहाँ गिरे थे, सतह पर चमकते छेद बनाकर लुप्त हो गए। कुछ देर बाद वह लौटने को मुड़े, फिर झुककर अपनी पतली गद्दी चुटकी से पकड़कर उठाई और उसे छिछली फेंकने की तरह जल में फेंक दिया। घाट पर की खाली हुई जगह को वह गौर से देखते रहे!
यह मनुष्य है कि राक्षस! यह कौन? वे कि तुम? बड़ी देर तक वह सामने देखते रह गए - सामने कुछ न था  कुच्छ भी नहीं, जिसे वह घूरे जा रहे थे! फिर कुछ कुछ 'दृश्य' उन्हें सुनाई देने लगे - ''तुम्हारी गर्मी तो मैं ठंडी कर दूं साली, मगर हमल रह गया तो उसे गिरवायेगा कौन, तुम्हारा बाप!'' आवाज़ ध्रू की थी, आधी रात के अंधेरे में! लोहर अंदर के बजाय बाहर की बैठक में सोने लगे! ध्रू के पास भी अब काला मोबाइल हो गया है। बहू एक सिंधी मैडम के यहाँ से सिलने के लिए कपड़े ले आती है। पड़ोस की लड़कियों बहुओं ने आपस में चंदा कर कशीदाकारी की मशीन खरीदी है।
परसों रात सोते में उनके पैर की एक उँगली में मच्छर ने बड़ी जोर से काटा - उसे हाथ से झटका तो वह लद्द से गिरा - चूहे बहुत बढ़ गए हैं!
उन्हें लगा, कनपटियों पर की एक-एक नस तड़-तड़ तड़क जाएँगी! उन्हें कोतवाली ले जाया गया था।
''लगाओ स्साले को जूते, अभी सब उगल देगा! कानों में घडिय़ाल पर पड़ती चोटों-सा सुनाई दिया। सिकुड़ी हुई भौंहों के नीचे चमकती हुई आँखें, ध्रू के चेहरे में एस एस पी सिन्हा के तलवार मार्का मूछोंवाले चेहरे के सिवा और कुछ दिखलाई न दिया, लोहर को!
देह की शक्ति अंतिम बूंद तक दसों उंगलियों की इकट्ठा मुट्ठी में निचोड़कर चलाई लोहर ने, ध्रू का माथा पके हुए खरबूज़े की भांति फोड़ देने के मकसद से! मगर बीच ही में उनकी कलाइयों के गट्ठे इस्पाती शिकंजों में कसे जाकर कड़-कड़ टूटने को हुए!
''बाबू! होश में तो हो न!'' कहते हुए ध्रू ने उन्हें पीछे धकेला लोहर पीछे गिरे होते, कटे हुए रूख की तरह, यदि ध्रू ने उन्हें उन्हीं कलाइयों से पकड़कर खींच न लिया होता!
लोहर बेटे की पत्थर की पटिया-जैसे सीने पर गिर कर भुकार छोड़ते हुए रो पड़े। बेटे का रोयेंदार चकला चौड़ा सीना, ऐसा कि फालतू मांस चिमटी से भी पकड़ में न आए।
''एकदम्मै पागल तो नहीं हो गए!''अपने सिर से दो मूठी ऊंचे छब्बीस बरस के जवान बेटे पर हाथ उठाने को उद्यत पिता, पागल ही तो कहा जाएगा!
''ध्रू!'' खिचड़ी दाढ़ी पर आंसुओं की धार बह-बहकर गिरती भिंगोती रहीं बेटे के वक्ष को, ''सिनहा - कहा, स्साले को! - ध्रू!''
ध्रू की आंखें भर आईं; बोला कुछ न गया।
ज़िला जेल में रामचंदर की मौत हुई 8 दिसंबर को। जेल अधिकारियों ने रिहाई के कागज़ात पर लाश का अंगूठा निशान लगवाकर लाश जेल अस्पताल के पीछे फेंकवा दी थी - आठ घंटों तक हथकड़ी लगे शव पर चील-कौवे मंडराते रहे।
पहलाद घाट के खंडहर कंगूरे पर आकर एक गिद्ध बैठा। तीन-चार बूढ़े गिद्ध भारी-भारी पंखों पर ऊभते-छुभते-से उड़ते हुए अपनी-अपनी छल्लेदार गर्दन लटकाए हुए नीचे की ओर घूर रहे थे।
गिद्ध क्या बोल रहे थे? अरे, हँस रहे थे? या कि वे प्रतीक्षा कर रहे थे!
लोहर अब घाट पर नहीं बैठते। किनारे तक जाते हैं, किसी सीढ़ी पर कुछ देर बैठकर लौट आते हैं। एक रोज़ देखा, नदी पार किसी जानवर की अधखाई लाश के चारों ओर मरे हुए गिद्ध चील कौए बिखरे पड़े थे। मोतियाबिंद के सबब अब साफ दिखलाई नहीं देता। मगर वह जानवर की लहास कैसे- उसकी कमर के नीचे का बचा हुआ हिस्सा तो नीली जीन पैंट में था। तेज़ ज़हर पीकर जान दी होगी! गिद्ध, चील कौवे उसका मास खाकर मरे होंगे।
गंगा पर धूपछांह की मछलियाँ मचल रही थीं। पहलाद घाट के सबसे ऊपर कंगूरों के पीछे पिघले हुए सोने-सा आकाश भरा था।
''अरे पार उतर गैलेन ऊ!'' अचानक लोहर सिहर कर जाग उठे, छपाके की आवाज़ से। बुर्ज़ी से कूदकर कालीदह में समा गया था कोई तैराक।
उन्होंने चारों ओर नज़र दौड़ाई मगर वहां तो कोई न था। घाट की बुर्जी के कलश पर बैठा एक कौवा देर से लगातार कांव-कांव किए जा रहा था, वह भी अब वहां न था।
लोहर का मन आतंक से भर उठा।
''चक्र पूरा हो गया'',, लोहर ने सुना, कोई उनके कान में फुसफुसाते हुए कह रहा है। ''हां'', लोहर ने जोर से उसकी बात दुहराई, ताकि दूसरे भी उसे सुन लें, ''हां, चक्र पूरा हो गया। बहुआ, पूरा हो गया चक्र!''
कल सुबह की बात है, ध्रू की बहू कंधे पर नई धोती रखकर साबुन तौलिया हाथ में लिए आंगन से गुसलखाने की ओर जा रही थी। दालान के किनारे दोनों पैर लटकाए बैठे लोहर आगे बढ़ती हुई बहु से दीठ बांधकर उसे देखते रहे। बहु ने लोहर की निगाह बरियाते हुए तेज़ कदम बढ़ाये। रात वह अपनी सास से कह रही थी, ''चाची, मुझे डर लगता है बाबू से।'' सुनते हुए सास का सिर नय गया।
लोहर अक्सर लापता हो जाते मगर देर-सबेर आप ही घर लौट आते। घर में बोलते वह किसी से नहीं, दूसरा भी अपनी ओर से उनसे न बोलता।
एक रोज़ लोहर दोपहर से लापता हुए और अंधेरा होने पर भी न लौटे तो घरवालों को फिक्र हुई। उन्हें डूँढऩे के लिए ध्रू निकल ही रहे थे कि अग्रवाल का नौकर दौड़ा-दौड़ा आया और बोला, लोहर अग्रवाल के घर दक्षिण की दालान की चौकी पर बैठे हैं।
''गाय को सानी लगाकर अंदर आंगन में आया तो देखा, अंधेरे दालान में चौकी पर कोई बैठा है। समझा चोर घुस आया। पूछा कौन है बे! मगर जवाब नहीं। पास जाने पर पहचाना ये तो अपने लोहर पंडित हैं।''
अग्रवाल की मां को लोहर चाची कहा करते थे, उन्हें मरे पांच वर्ष बीत गए थे। उनका अंतिम कर्म लोहर ने कराया था। तब के बाद आज लोहर अग्रवाल के घर गए थे।
संध्या को लोहर घाट पर आकर बैठे। पत्थर की चक्की की ऊपरी एक पटिया के छेद में बंधी रस्सी से उसे बाएं हाथ में लटकाए हुए। रास्ते में कई परिचित व्यक्तियों ने उन्हें देखा और पहचाना भी मगर पागल सोचकर अनदेखा कर दिया।
ऊपर किनारे के शिवाले का घंटा बीच-बीच में बजता तो उसकी कमज़ोर गूंज यहां तक उन्हें सुनाई देती।
गङ्गा शम्भुशिरोजलं जलनिधिर् देवस्य लक्ष्मीपते: - फिर दूसरा शार्द्लविक्रीडित छंद... उजली रेत के चमकते हुए कण प्रकाश में भी झिलमिलाते हुए तारों के समान उनकी आंखों के आगे खेलते हुए - से आते - वह धीरे-धीरे मुस्कराने लगे!
गङ्गोत्तुङ्गतरङ्गरिङ्गणलधूत्सर्पन्मरुत्छीतलान्  - हाँ, गंगाजल से भिनी शीतल हवा की फुरेरी आ-आकर उनकी देह के उघारे हिस्सों पर लगती रही मगर उन्हें भान न हुआ। छोटे-छोटे एक जैसे पौधों के चिकने पत्तों के आधे-आधे हिस्सों पर धूप रुपहली चमक रही थी। उन पत्तों के बीच उड़ती मधुमक्खियों की हल्की भन्नाहट कानों में तेज़ से तेज़तर गूंजती -
गङ्गातीरतरङ्गशीतलशिला - शीतल लहरों के भीतर, कंठ से लटकी हुई शीतलतर शिला के साथ, दोनों फैली हुई बाहों की खुली मुट्ठियाँ!
उनकी आँखों के सामने और भी क्या कैसे-कैसे दृश्य आते-जाते रहे होंगे, किसी को भला क्या पता! 'जो आदमी पे गुज़रती है यास में हमदम, सिवा खुदा के किसी को खबर नहीं होती!'
भोर पहर, मगर अभी शुक्र तारा डूबा न था, कि मुँह-अँधेरे सीढिय़ों पर एक-एक सुस्त कदम उतरता हुआ कोई स्नानार्थी घाट पर आया, उस समय घाट पर और कोई न था - उससे पिछली शाम के बाद लोहर फिर कभी दिखलाई ही न दिए।

Login