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जून-जुलाई 2015

चुनौतियों का समय और हिंदुत्व की अर्थव्यवस्था

अभय कुमार दुबे

व्याख्यान
सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े पुणे स्थित संगठन लोकायत द्वारा आयोजित
वार्षिक गणतंत्र दिवस व्याख्यानमाला में दिया गया भाषण (26, जनवरी 2015)





इससे पहले कि मैं अपने देश के सामने मौजूद चुनौतियों की चर्चा करूँ, कुछ पुराना हिसाब साफ़ करना ज़रूरी है। जब से भारत आज़ाद हुआ है, उसके सामने चुनौतियाँ बनी हुई हैं और उनकी चिंता जारी है। मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि अभी लम्बे अरसे तक इस तरह की चिंता बनी रहेगी। अब मैं आपके सामने अपना एक तजरुबा रखना चाहूँगा। यह 1990 के शुरुआती वर्षों की बात है। यही था वह समय जब पी.वी. नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, और उन्होंने अपने तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह और वाणिज्य मंत्री पी. चिदम्बरम के साथ तिकड़ी बनाकर इस देश में नव-उदारतावादी अर्थव्यवस्था की शुरुआत करके भूमण्डलीकरण का आगाज़ किया था। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की भाषा का इस्तेमाल करें तो भारतीय अर्थव्यवस्था ने आर्थिक सुधारों और ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम के दौर में कदम रख लिया था। ऐसे ही समय में ग्रेनेडा के अर्थशास्त्री डेविसन बुधू का भारत आगमन हुआ। बुधू अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में काम करते थे। उनकी नीतियों से असंतुष्ट हो कर उन्होंने इस्तीफ़ा दिया और कोष के चेयरमेन माइकल कैमेडेसस के नाम एक लम्बा पत्र लिखा जो 'इनफ़ इज़ इनफ़' शीर्षक से एक दस्तावेज़ के रूप में प्रकाशित हुआ। बुधू जब भारत आये तो इस दस्तावेज़ के कारण काफ़ी चर्चित हो चुके थे।
बुधू के भारत आगमन पर हुई एक बैठक में नयी अर्थनीति के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त जुमलेबाज़ी हुई। चूँकि वे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ख़िलाफ़ संघर्ष के लोकप्रिय प्रतीक बन चुके थे, और संयोग से भारतीय मूल के भी थे, इसलिए उस बैठक में आशा और प्रेरणा के तत्वों की कमी नहीं थी। भारत के एक पूर्व वित्त मंत्री, योजना आयेग के एक पूर्व सदस्य, तीन बड़े रैडिकल अर्थशास्त्री, दो बड़े ट्रेड यूनियन नेता और स्वयंसेवी संस्थाओं के कई कर्ताधर्ता जोश में आ कर नयी अर्थनीति से होने वाले नुक़सानों का बड़ा डरावना चित्र उपस्थित कर रहे थे। बुधू ने उनकी बातें सुनीं और निर्लिप्त भाव से उत्तर दिया कि अगर आप मुद्रा कोष और विश्व बैंक को ठुकरा कर अर्थात् विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से ख़ुद को काट कर अपनी अर्थव्यवस्था बनाना चाहते हैं तो आपको एक नयी क्रांति करनी पड़ेगी। एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति, जो जनता के सांस्कृतिक सोच-विचार को स्पर्श करती हो और उसे अलग तरह की जीवन शैली के लिए दिमागी तौर पर तैयार करती हो। ऐसी जीवन शैली, जो पूँजी के उत्तरोतर विकास में बँधी न हो। बुधू ने कहा कि इस तरह की क्रांति के लिए फ़िलहाल आपके देश में कोई गुंज़ाइश नहीं है। गाँधीवादी, समाजवादी और मार्क्सवादी-लेनिनवादी अर्थात् तीनों तरह की परिवर्तनकामी विचारधाराओं के लोग वहाँ थे, लेकिन किसी ने चुनौती भरे स्वर में बुधू का प्रतिवाद नहीं किया। उनमें से कोई क्रांति के भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं था। क्रांति तो छोड़ ही दीजिए, उनमें से कोई यह कहने के लिये भी तैयार नहीं था कि अगर उसकी पार्टी सत्ता में आयी तो उन दावों को साकार कर दिखाएगी जो उन्होंने अभी-अभी किये हैं। दरअसल, उन महानुभावों में से कई ऐसे थे जिन्होंने सत्ता में रहते हुये नयी अर्थनीति को जड़ ज़माने में मदद की थी। सक्रिय समर्थन से लेकर मौन स्वीकृति का असहाय निष्क्रियता तक किसी-न-किसी रूप में वे सब कभी-न-कभी ख़ुद विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के स्वार्थों को पूरा कर चुके थे। बुधू की बात पर उनकी प्रतिवादहीनता बता रही थी कि उनका वर्तमान नहीं, सिर्फ अतीत ही परिवर्तनकामी था। वे एक तरह से नयी अर्थनीति के कृतज्ञ थे कि उसने उन्हें विपक्ष की भूमिका निभाने का मुद्दा दे दिया था। बुधू ने यह भी कहा कि जिस तरह की 'वैकल्पिक बातचीत' आप कर रहे हैं, वह विश्व बैंक और मुद्रा कोष के अनुकूल बैठती है। ये दोनों संस्थाएँ इस तरह का विरोध होने देती हैं और जब चाहती है एक वाक्य में इसे ख़ारिज कर देती हैं।
नयी अर्थनीति कुछ ऐसी ही विकट चीज़ है। वह अपने ख़िलाफ़ बोलने के लिए काफ़ी सामग्री देती है, लेकिन करने के लिए कोई गुंज़ाइश नहीं छोड़ती। आप अपनी बौद्धिकता से विचार और आँकड़ों के क्षेत्र में उसे तार-तार कर सकते हैं, लेकिन व्यवहार में आपको उससे तालमेल बैठाना ही पड़ता है। अमेरिकी अर्थशास्त्री  इसे ही 'एडजस्टिंग टु द रियलिटी' कहते हैं। वह आत्मगत विचार से परे एक वस्तुगत यथार्थ बन जाती है। यह अभूतपूर्व स्थिति वह हर जगह की विचारधारा के तत्वों को हर जगह की राजनीति के पहलुओं को अपना कर प्राप्त करती है। नयी अर्थनीति पूँजीवादी ज़रूरत है और एकल बाज़ार में विश्वास करती है, लेकिन पूंजी के पक्ष में राज्य के हस्तक्षेप की प्रबल समर्थक बन कर भी उभरती है। वह कहने के लिए निजीकरण की हामी है, लेकिन वह सार्वजनिक क्षेत्र को काफ़ी हद तक बनाये रखने की वकालत भी करती है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के पैरों पर वह दौड़ती है, लेकिन धार्मिक और अनुदारतावादी मूल्यों के आधार पर की गयी राजनीतिक गोलबंदी उसके ज़्यादा अनुकूल रहती है। लोकतंत्र, मानवाधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता उसके प्रिय नारे हैं, लेकिन वह सारी दुनिया में बेहद तानाशाह, दमनकारी और प्रतिक्रियावादी शासनों का समर्थन भी करती है। नयी अर्थनीति के वैचारिक और व्यावहारिक लचीलेपन का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिस दास प्रथा को समाप्त कर उसने औद्योगिक क्रांति के हित में श्रमिकों का मुक्त बाज़ार बनाया था, आज उसके बुद्धिजीवी उसी दास प्रथा को आर्थिक रूप से सक्षम संस्था के रूप में प्रतिष्ठित करने में लगे हैं। 1993 का नोबेल पुरस्कार आर्थिक इतिहासकार रॉबर्ट डब्ल्यू फॉजेल को मिला था। उन्होंने इसी विषय पर शोध की थी। कुल मिला कर नयी अर्थनीति पूँजी की उर्ध्वगामिता के प्रति वफ़ादारी को छोड़ कर एक मूल्यबद्ध श्रेणी नहीं है। वह किसी भी विचार और व्यवहार को अपना सकती है। वह कई रंग बदल सकती है। उसके खिलाफ़ संघर्ष करना बेहद मुश्किल है।
बुधू का कहना था कि हम जिस सामाजिक-आर्थिक मॉडल का चयन करते हैं, उसकी जड़ें इन्वेस्टमेंड गैप या निवेश अंतराल की अवधारणा से होती हैं। देशी पूँजी की कमी और विकास के लिये आवश्यक पूँजी के बीच का अंतराल ही निवेश अंतराल बन जाता है। हिंदुस्तान के आज़ाद होने से ठीक पहले औद्योगिक घरानों द्वारा बनाये गये टाटा-बिड़ला प्लान, जिसे बॉम्बे प्लान भी कहते हैं, ने अपने अध्ययन के आधार पर नतीजा निकाला था कि भारतीय अर्थव्यवस्था सात प्रतिशत निवेश अंतराल की समस्या से जूझ रही है। तत्कालीन पूँजीपतियों का एक प्रतिनिधिमण्डल इसी सात फ़ीसदी पूँजी की तलाश में एक लम्बे अंतर्राष्ट्रीय दौरे पर निकल गया था। अगर पचास के दशक में अमेरिका यह अंतराल भरने के लिये तैयार हो जाता तो शायद भारत की रूस की तरफ़ झुकने की भूमिका न बनती। इसी निवेश अंतराल में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं का पदार्पण होता है, और वे पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के हितों की मातहती में धकेल देती हैं। इस प्रक्रिया में आर्थिक विवशताओं की दलील की आड़ में राजनीतिक-सामाजिक प्रभु वर्ग भी इसी पूँजी के हितों का ताबेदार बन जाता है।
यह प्रभु वर्ग किसी एक विचारधारा का नहीं है। यह मिला-जुला है और कुछ कम या ज़्यादा सभी विचारधाराओं के राजनेताओं से मिल कर इसकी रचना होती है। यही कारण है कि भारत में लगभग सभी राजनीतिक धाराओं ने नयी अर्थनीति के आगमन में सहयोग किया है। जिन्हें सहयोग करने का मौक़ा नहीं मिला है, वे या तो उसका समर्थन कर रही हैं या उन्होंने उसके विरोध को पहले से ही मंद कर दिया है। इंदिरा गाँधी ने अस्सी के दशक में मुद्रा कोष से कर्ज़ लेकर भारतीय अर्थव्यवस्था को पहली बार विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से जोड़ा। राजीव गाँधी ने इस सूत्र को और मज़बूत किया। फिर आयी समाजवादी मंत्रियों से भरी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार, जिसके योजना आयोग में गाँधीवादी, समाजवादी और मार्क्सवादी बुद्धिजीवी सितारों की तरह टँके हुए थे। इन लोगों ने थोड़ी-बहुत वैचारिक बेचैनी दिखाने के बाद विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों द्वारा तैयार ढाँचागत सुधार कार्यक्रम को हरी झंडी दे दी। उस ज़माने में चंद्रशेखर वी.पी. सिंह सरकार के लिए आलोचक बने हुए थे वह औद्योगिक क्षेत्र में विदेशी पूँजी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए दरवाज़े खोल रही थी। लेकिन जैसे ही उन्हें प्रधानमंत्री पद सँभाला, वैसे ही उनके वित्तमंत्री ने अपना पहला दौरा कार्यक्रम मुद्रा कोष के प्रबंध निदेशक से मुलाकात का बनाया। यह अद्भुत सिलसिला उस समय जारी रहा जब भारतीय जनता पार्टी के नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने 'स्वदेशी' के लिये कुलबुलाते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रयासों के जवाब में साफ़ कह दिया कि 'स्वदेशी' सुनने में तो ठीक है, लेकिन व्यवहारिक नहीं है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बुद्धिजीवी एम.जी. बोकाड़े द्वारा रचित पुस्तक 'हिंदू इकॉनॉमिक्स' पढऩे के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने क्या सवाल पूछा था - 'और तो सब ठीक है, लेकिन हिंदू इकॉनॉमिक्स में पूँजी की व्यवस्था कैसे होगी?' यह वह केंद्रीय प्रश्न है जो हर राजनीतिक धारा के सामने आता रहा है। हमारा राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग ऐतिहासिक रूप से इस देश के विकास के लिए पूँजी की ज़रूरतें पूरी नहीं कर सकता। इस कारण पैदा होने वाले निवेश अंतराल में विदेशी पूँजी अपना मौका तलाश करती है। जिस तरह दो बड़े शिलाखण्डों को जोडऩे के लिए एक छोटा-सा पुल सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है, उसी तरह देशी पूँजी की कमी से पैदा हुए अंतराल को भरने के लिए विदेशी पूँजी कम होते हुए भी महत्वपूर्ण बन जाती है। मात्रा में कम, लेकिन शक्ति और महत्व में बहुत ज़्यादा। विदेशी पूँजी की यह क्वालिटी आज़ादी के बाद से ही क़ायम है। पूँजी कहाँ से आएगी- यह प्रश्न केवल अटल बिहारी वाजपेयी का नहीं है। भारतीय पूँजीपति वर्ग हमेशा यह प्रश्न उस समय पूछता है जब उसके सामने आत्मनिर्भरता की धारणा रखी जाती है। भारतीय जनता पार्टी की यह विशेषता है कि वह भारतीय पूँजीपति वर्ग के इस प्रश्न को अपने नेताओं के माध्यम से स्वर देती है। इसीलिए नयी अर्थनीति और हमारे अपने पूँजीपति भाजपा में अपना भविष्य देखें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मौज़ूदा दौर में नयी अर्थनीति एक सीमित क़िस्म के लोकतांत्रिक शासन की परिस्थितियाँ चाहती है जिन्हें उपलब्ध कराने में भाजपा समर्थ है। आम जनता की आर्थिक परेशानियाँ नयी अर्थनीति का अनिवार्य परिणाम हैं, इसलिए उसे ग़ैरर-आर्थिक मुद्दों पर जनगोलबंदी करने वाली राजनीतिक ताक़त बेहतर लगेगी ही। हिंदुत्व के नयी अर्थव्यवस्था के प्रति रुझानों का चर्चा मैं अपने व्याख्यान में आगे चल कर विस्तार से करूँगा। लेकिन, यहाँ यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कुल मिला कर पूँजीवाद के प्रति ज्योति बसु जैसे सतत सत्तासीन रहे मार्क्सवादी नेता का लास्य भी किसी से छिपा हुआ नहीं रह गया था। रैडिकल राजनीति का दावा करने वाला इण्डियन पीपुल्स फ्रंट भी 'बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सम्पत्ति ज़ब्त' करने का कार्यक्रम बनाते-बनाते उन पर 'कठोर नियंत्रण' की शब्दावली में फिसलने लगा था।
इस समय नयी अर्थनीति नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दक्षिणपंथी रथ पर सवार है। लेकिन, वह वामपंथी विमान पर भी सवार हो सकती है। इंदिरा गाँधी 1977 की घनघोर पराजय के बाद एक नये राजनीतिक आधार और शासक वर्ग की सहानुभूति की तलाश कर रही थीं। 'ब्राह्मण-मुस्लिम-हरिजन' का सेकुलर मतदाता गठजोड़ टू चुका था। उन्होंने 'हिंदू कार्ड' खेला और हिंदू वोट बैंक बनाने की शुरुआत की। साथ में आइ.एम.एफ. से कर्ज़ ले कर भारतीय पूँजीपति वर्ग को आश्वस्त किया कि वे अपने औद्योगिक लाभ की रुकी हुई वृद्धि दर को अंतर्राष्ट्रीय पूँजी से सहयोग-समझौता के ज़रिये पुन: गतिशील कर सकते है। इस तरह हिंदू कार्ड और मुद्रा कोष का कमोबेश एक साथ भारतीय दृश्यपटल पर पदार्पण हुआ। यह गठजोड़ अभी भी जारी है। भारत जैसे विविधतामूलक देश में एकल बाज़ार बनाने के पूँजीवादी 'प्रोजेक्ट' की सफलता के लिए एकरूपीकरण की सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रक्रिया आवश्यक है। भाजपा अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पूँजीवादी नीतियों के समर्थन के जरिये इस 'प्रोजेक्ट' में अहम योगदान कर सकती है।
नयी अर्थनीति लागू करने के लिए या तो संकटों में फँसी कमजोर सरकार चाहिए या ज़बरदस्त जन-समर्थन रखने वाली ऐसी सरकार जो राज्य की ताक़त का जम कर इस्तेमाल करने की हिमायती हो। नरसिंह राव की अल्पमत कमज़ोर सरकार को टिके रहने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवाद के सहारे की ज़रूरत थी, इसलिए उसने बाक़ी क्षेत्रों में अनिर्णय की स्थिति बरक़रार रखते हुए भी आर्थिक क्षेत्र में मुद्राकोष के निर्देश पर सुधार कार्यक्रम लागू करने में भारी निर्णयकारी आवेग का परिचय दिया। इस समय भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है। वह अल्पसंख्यक विरोध की कभी खुली-कभी छिपी अंतरधाराओं के साथ विकास का नारा देते हुए चुनाव जीती है। यह पार्टी परम्परागत रूप से एक अतिकेंद्रीकृत राज्य की समर्थक है और राष्ट्रीय एकता-अखण्डता के नाम पर पुलिस व फ़ौज के दमनकारी इस्तेमाल में विश्वास करती है। मानवाधिकार संगठन या ग़ैर-सरकारी संगठन उसे स्वाभाविक रूप से नापसंद है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी को ऐसी सरकार की ज़रूरत रहती है जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी जाये, पर इस कार्यक्रम के दुष्प्रभावों के कारण होने वाले जन-आंदोलनों की उपेक्षा करे और ज़रूरत पडऩे पर उनके साथ सख़्ती बरते।
नयी अर्थनीति राष्ट्र-निर्माण की जिस प्रक्रिया की देन है, वह लगभग एकरूपीकृत सांस्कृतिक और धार्मिक परिदृश्य में रहने वाले समाजों में चली थी। इस राष्ट्रवाद में अल्पसंख्यक तबक़ों को एक निश्चित दायरे में कुछ अधिकार दिये गये थे और शिक्षा, संचार और सांस्कृतिक मूल्यों को आरोपित करने जैसी खामोश विधियों द्वारा धीरे-धीरे उनका आत्मसातीकरण कर लिया गया था। इसलिए इन समाजों में धार्मिक संघर्ष साम्प्रदायिकता की शक्ल में सामने नहीं आये। वहाँ नस्ली संघर्ष उभरा, क्योंकि अफ़्रीकी मूल की जातियों ने दास से उजरती मज़दूर में बदलना तो पसंद किया, लेकिन धीरे-धीरे आत्मसातीकरण के बजाय तुरंत पूरे नागकि अधिकारों की माँग की। श्वेत पश्चिमी राष्ट्रवाद के साथ इन जातियों की हद्दोजहद आज भी जारी है। इसी तरह भारत में जब शक्तिशाली और विशाल अल्पसंख्यक समुदाय ने धीमी गति से आत्मसातीकरण स्वीकार नहीं किया आरै पृथक राष्ट्रीयता, पृथक राष्ट्र, पृथक पहचान, पृथक मतदाता मण्डल जैसी धारणाएँ पेश करना जारी रखा तो उनके बलपूर्वक आत्मसातीकरण का सिद्धांत अपनाया गया, जिसकी परणति बाबरी मसजिद गिराये जाने में हुई। यह तरीक़ा भी पश्चिमी राष्ट्रवाद के मिजाज के अनुकूल ही बैठता है। चूँकि सांस्कृतिक एकरूपीकरण के बिना एकल बाज़ार का निर्माण नहीं हो सकता, इसलिए पश्चिमी राष्ट्रवाद के सिद्धांतकारों ने उन समाजों के राष्ट्रत्व हासिल करने से शास्त्रीय तौर-तरीकों  से कुछ हट कर अपनी मंजिल पर पहुंचने की इज़ाजत दे दी है। वे मानते हैं कि जिन भू-भागों में वे लगभग एकरूपीकृत समाज नहीं हैं और बहुलवादी विचलन के शिकार हैं, उन्हें राष्ट्रत्व और राज्यत्व कुछ ऐसे तरीक़ों से भी मिल सकता है जिनमें आज़ादी, समता इत्यादि मूल्य शुरुआत में नहीं भी रह सकते हैं। इसके लिये ये सिद्धांतकार लोकतंत्र की धारणा, जो पूँजीवाद के साथ-साथ ही पली बढ़ी है, को भी थोड़े दिनों के लिए छोडऩे के लिए तैयार है। उनका कहना है कि आर्थिक विकास के बिना समाज लोकतंत्र ग्रहण करने के योग्य नहीं होता, इसलिए पहले संसाधनों के आबंटन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रयोग और निवेश की ज़रूरतें पूरी कर समृद्धि हासिल की जाए, फिर लोकतंत्र की आवश्यकता उत्पन्न होगी। दक्षिण-पूर्व एशिया के नवविकसित राष्ट्र भी ऐसी ही प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं। अब वे तानाशाहियों के तहत विकास कर चुके हैं, इसलिए उन्हें भागीदारीवाला लोकतंत्र 'प्रदान' किया जा रहा है। इस तरह नयी अर्थनीति तय करनी है कि किस देश को कितने लोकतंत्र की ज़रूरत है। इसी हिसाब से पूरा, अधूरा या एकदम अदृश्य लोकतंत्र अल्पविकसित देशों को मिलता है।
लेकिन, भारत में नयी अर्थनीति लोकतंत्र के पूर्ण स्थगन के बारे में नहीं सोचती। वह समझती है कि कितना भी एकरूपीकरण क्यों न हो जाए, वह इस बहुभाषी और बहुजातीय देश को युरोपीय देशों की तरह नहीं बना सकती, क्योंकि बहुलता इस भू-भाग के मूल में विद्यमान है और बहुजातीय देश को युरोपीय देशों की तरह नहीं बना सकती, क्योंकि बहुलता इस भू-भाग के मूल में विद्यमान है और एकरूपीकरण उस पर केवल थोपा जा सकता है। तालमेल बैठाने के लिए उसे एक तानाशाह किस्म की अनम्यता की नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक लचीलेपन की ज़रूरत पड़ती है। इसीलिए नयी अर्थनीति के वाहक एक राष्ट्रीय मतैक्य बनाने की चिंता में रहते हैं, ताकि उन्हें ज़्यादा कठोर तानाशाहीपूर्ण क़दम न उठाने पड़ें। इसके लिए रेडियो, टीवी और अख़बारों के कुशलतापूर्वक इस्तेमाल का हथकण्डा अपनाया जाता है। हम देखते हैं कि मीडिया लगातार इसी निर्धारित भूमिका को पूरा कर रहा है। एक तरफ़ वह हिंदुत्वादी साम्प्रदायिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार में व्यस्त है और सांस्कृतिक एकरूपीकरण की प्रक्रिया को तेज़ कर रहा है, दूसरी तरफ वह नयी अर्थनीति के प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है।
सांस्कृतिक एकरूपीकरण, हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता के प्रसार और नव-उदारतावादी अर्थनीति को एक साथ प्रभावी करने का सिलसिला इस समय सर्वाधिक सघन है। इसकी पेशबंदी बहुत चतुराई से नब्बे के दशक में 'स्वदेशी' के नाम पर की गयी थी। इसके पीछे चालाकी इस कदर थी कि कभी-कभी तो लगता था कि हिंदुत्ववादी ताकतें भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया का विरोध करने के लिए वामपंथी शब्दावली अपनाने लगी हैं। स्वदेशी के संघी संस्करण में वामपंथी आभा देखने वालों में बाज़ारवादी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका 'द इकॉनॉमिस्ट' सबसे आगे थी। 1998 में जब संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में सत्ता सँभाली तो इस पत्रिका ने लिखा, 'भाजपा को अक्सर दक्षिणपंथी कहा जाता है। इसे राष्ट्रवादी कहना ज़्यादा बेहतर होगा। यह पार्टी पहले से आत्म-निर्भरता की नीति पर बल देती है। इसके कई सदस्य विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को शुरुआती किस्म के साम्राज्यवादियों के रूप में देखते हैं। यह विश्व व्यापार संगठन पर भारत की सम्प्रभुता के हरण का आरोप लगाती है। इस तरह के मसलों पर भारतीय जनता पार्टी और भारतीय वामपंथियों में कोई अंतर नहीं है।' जाहिर है कि विचारों को हड़पने की इस बौद्धिक राजनीति के तहत न केवल गाँधी से स्वदेशी का सूत्र हड़पा गया था, बल्कि वामपंथियों की राजनीतिक अभिव्यक्तियों से भी कई बातें झपट ली गई थीं। इसकी असलियत समझने में कन्नड़ के विख्यात साहित्य-मनीषी डी.आर. नागराज सबसे आगे साबित हुए थे। नब्बे के दशक के मध्य में ही, जिस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रायोजित स्वदेशी जागरण मंच की गतिविधियाँ अपने शिखर पर थीं, नागराज ने स्वदेशी के इस संस्करण को गाँधी के स्वदेशी की श्रेणी में मानने से इनकार कर दिया था। उन्होंने इसे गाँधी से अलगाने के लिए संघ-स्वदेशी करार देते हुए अनर्थकारी विचारों की कोटि में रखा। नागराज ने संघ-स्वदेशी को 'विचारों को हड़पने की राजनीति' के रूप में चित्रित करते हुए दिखाया कि नारा रचने और सांस्कृतिक प्रतीकों के उपयोग के स्तर पर संघ परिवार ने उसी आदमी का इस्तेमाल किया है जो उन्हीं के हाथों मारा गया था। नागराज ने इसे 'श्मशान की प्रतीकात्मक राजनीति' भी कहा था। संघ-स्वदेशी के विचारकों डॉ. यशवंत पाठक और प्रभाकर घाटे के लेखों के साथ-साथ संघ के स्वदेशी से संबंधित दस्तावेज़ से उद्धरण देते हुए नागराज ने रेखांकित किया था कि कांग्रेस सरकार की नयी अर्थनीति की वामपंथियों जैसी आलोचना करने में संघ परिवार के पत्र 'ऑर्गनाइज़र' को महारत हासिल हो गयी है। नागराज आज हमारे बीच नहीं हैं। अगर वे होते तो कहते कि देखों मेरा कहना कितना सही था। लेकिन नागराज के विश्लेषण में एक पहलू और था जो सामने आने की प्रतीक्षा कर रहा था।
संघ-स्वदेशी के इस 'वामपंथ' की सैद्धांतिक अभिव्यक्ति का नमूना 1992 में उस समय देखने को मिला जब एम.जी. बोकाड़े की पुस्तक 'स्वदेशी इकॉनॉमी फॉर द वार ऑफ़ इकॉनॉमिक इंडिपेंडेंस एगेंस्ट इकॉनॉमिक इम्पीरियलिज़म' का स्वदेशी जागरण मंच ने प्रकाशन किया। बोकाड़े की शख्सियत भी कुछ इसी प्रकार की थी जिससे संघ-स्वदेशी की 'वामपंथी' आभा में और चमक पैदा हो जाती थी। (बोकाड़े सत्तर के दशक में फुले-आम्बेडकर-मार्क्स को मिला-जुला कर पढऩे वाली रैडिकल धारा के बुद्धिजीवी रह चुके थे। इसके बाद उन्होंने विदर्भ में कपास के किसानों के आंदोलन की सैद्धांतिक मदद की।) संघ-स्वदेशी को अपनी कार्यक्रमगत राजनीतिक अभिव्यक्ति 1992 में ही जारी किए गए भाजपा के अर्थनीति संबंधी दस्तावेज़ 'ह्यूमैनिस्टिक एप्रोच टू इकॉनॉमिक डिवेलपमेंट' में मिली। इस दस्तावेज का आह्वान था : 'भारत को उदारीकरण, औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण कराना ही होगा। लेकिन ऐसा करने के लिए उसे भारतीय विधि अपनानी होगी।... भारत को अपने ही प्रकाश में प्रकाशित होना होगा।' तीन साल बाद 1995 में भाजपा और शिव सेना की गठजोड़ सरकार ने महाराष्ट्र में बिजली बनाने वाली अमेरिकी कंपनी एनरॉन दाभोल परियोजना को निरस्त करके जम कर तारीफ़ बटोरी। इस प्रोजेक्ट को शरद पवार की कांग्रेसी सरकार ने मंजूरी दी थी। संघ-स्वदेशी के सिद्धांतकारों ने इस फैसले को अपनी 'भारतीय विधि' के अनुसार करार दिया। वैसे भी भाजपा-शिव सेना ने इस परियोजना को खारिज करने के वायदे के साथ ही चुनाव लड़ा था। लेकिन, उस समय सभी लोग चकित रह गये जब महाराष्ट्र सरकार ने एनरॉन के साथ दोबारा समझौता वार्ता की और दाभोल परियोजना पर मुहर लगा दी। नये करार के तहत एनरॉन को और सस्ती दर पर बिजली बनाने और उसी मँहगी दर पर बेचने की छूट मिल गयी जिस पर इस सरकार को पहले आपत्ति की थी। जब वामपंथी आलोचकों ने इस नये करार को अदालत में चुनौती दी तो भाजपा की सरकार के प्रतिनिधि ने बिना पलक झपकाये जज से कह दिया कि उसने जो एनरॉन-विरोधी मुहिम चलायी थी, वह तो राज्य विधानसभा का चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक हथकंडा मात्र था।
लेकिन इस घटना के बावजूद स्वदेशी जागरण मंच ने भाजपा-शिव सेना गठजोड़ के खिलाफ कोई मुहिम नहीं चलायी, और अपना 'वामपंथी' संघ-स्वदेशी जारी रखा। 1998 में जब भाजपा लोकसभा का चुनाव लडऩे उतरी तो उसने ऐलान किया: 'शुल्क-दर घटाने की पथभ्रष्ट नीतियों और भारतीय उद्योग को समान धरातल न देने के कारण भारत की अर्थव्यवस्था ज़बरदस्त दबाव में आ गयी है। ...हालाँकि कुछ अधिसंरचनात्मक क्षेत्रों में विदेशी पूँजी की भूमिका बेहद अहम है, लेकिन स्पष्ट है कि इस पूँजी का भारतीय अर्थव्यवस्था को न के बराबर ही फायदा होने वाला है। ...भले ही हर देश का घोषित एजेंडा मुक्त व्यापार है, पर असली एजेंडा तो आर्थिक राष्ट्रवाद ही होता है। भारत को भी अपने राष्ट्रीय एजेंडे पर चलना चाहिए। इसके मर्म में स्वदेशी का विचार है।' भाजपा ने 'कैलिबरेटिड ग्लोबलाइज़ेशन' की वकालत की जिसका मतलब था अर्थव्यवस्था के भीतर उदारीकरण की नीति जारी रखना, कुछ अधिसंरचनात्मक क्षेत्रों में विदेशी पूँजी को आमंत्रित करना और भारतीय उद्योग को विदेशी प्रतियोगिता से बचाने के साथ-साथ समग्र अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले विदेशी प्रभाव को विनियमित करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप की वकालत करना। भाजपा ने अपनी पीठ थपथपाते हुए कम्युनिज़म और कैपिटलिज़म को विदेशी मॉडल करार देते हुए खारिज कर दिया और देशी परम्पराओं से ऊर्जस्वित मॉडल की पैरोकारी की। संघ के विचारधारात्मक सिपहसालार मुरली मनोहर जोशी इसी आग्रह को व्यावहारिक नज़रिये से इस तरह कह चुके थे : 'कम्प्यूटर चिप्स यस, पोटाटो चिप्स नो'।
भाजपा की इस 'कैलिबरेटिड ग्लोबलाइज़ेशन' की असली परीक्षा उस समय शुरू हुई जब लालकृष्ण आडवाणी अपने नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ की सरकार के शपथ लेने के बाद संसद के केन्द्रीय कक्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देश भर में फैले हुए स्वयंसेवकों को धन्यवाद दे रहे थे कि उनके परिश्रम के कारण ही यह सरकार बनी है। संभवतढ ठीस उसी समय नागपुर और झंडेवालान स्थित संघ के रणनीतिकार यह तय करने में लगे हुये थे कि नयी सरकार का वित्त मंत्री कौन होना चाहिए। नये प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पसंद थे जसवंत सिंह जो पी.वी. नरसिंहराव की कांग्रेस सरकार के दौरान 'शैडो फाइनेंस मिनिस्टर' की भूमिका निभाने रहे थे। लेकिन संघ ने जसवंत सिंह को वित्त मंत्री बनने से रोक दिया। उसे शक था कि स्वतंत्र पार्टी की पृष्ठभूमि वाले जसवंत सिंह संघ-स्वदेशी के वैचारिक मर्म को ठीक से लागू नहीं कर पाएँगे। इसलिए नागपुर ने यशवंत सिन्हा के पक्ष में फ़तवा जारी किया, क्योंकि सिन्हा चन्द्रशेखर की 'समाजवादी' सरकार में वित्त मंत्री रह चुके थे। पर संघ सिन्हा से क्या करवाना चाहता था?
यशवंत सिन्हा ने 'कैलिबरेटिड ग्लोबलाइज़ेशन' की अनूठी व्याख्या की। वित्त मंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद उन्होंने कहा : 'भारत को अपनी फौजी ताकत के सापेक्ष शक्तिशाली आर्थिक राष्ट्र भी बनना है। और आप आर्थिक ताकत केवल तभी बन सकते हैं जब अपनी शक्तियों की परीक्षा दूसरों के मुकाबले करके दिखाएँ। इसका मतलब है बाहर निकलना और दुनिया के पैमाने पर प्रतियोगिता करना, साथ में दुनिया को अपने यहाँ आने देना और प्रतियोगिता करने देना। ...मैं स्वदेशी को बुनियादी रूप से एक ऐसे विचार के रूप में समझता हूँ जिसका मकसद भारत को महान बनाना है।... हम महान बन सकते हैं प्रतियोगिता करने में सक्षम हो कर ही। मेरा विचार है कि प्रतियोगिता ही असली चीज़ है। ... इसीलिए स्वदेशी, ग्लोबलाइज़र, और लिबरलाइज़र आपस में अंतर्विरोधी पद नहीं हैं। मेरी निजी राय है कि भूंडलीकरण स्वदेशी होने का सबसे अच्छा तरीका है।'जाहिर है कि यह भारत का वित्त मंत्री बोल रहा था और उनकी 'निजी राय' ही भाजपा के नेतृत्व में चलने वाली अर्थनीति थी। उसकी 'निजी राय' और कुछ हो भी कैसे सकती थी। उनका बेटा (जो अब मोदी सरकार में राज्य मंत्री है) अंतर्राष्ट्रीय कंसल्टिंग फर्म मैककिंसी में काम करता था और उनकी बहू न्यूयॉर्क स्थित इन्वेस्टमेंट बैंक ओपनहाइमर में काम करती थी। देखते देखते नये प्रधानमंत्री के कार्यालय, वित्त मंत्रालय, योजना आयोग और आर्थिक मामलों के मंत्रालय पर ऐसे लोग छा गये जिनके लिए स्वदेशी और ग्लोबलाइज़ेशन में कोई फ़र्क नहीं था। भूमंडलीकरण समर्थक इस मंडली के प्रमुख नाम थे : उद्योग मंत्री सिकंदर बख्त, विद्युत मंत्री पी.आर. कुमारमंगलम, आवास मंत्री राम जेठमलानी, वाणिज्य मंत्री रामकृष्ण हेगड़े, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा, वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, विनिवेश मंत्री अरुण शौरी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष जसवंत सिंह।
परिणाम यह निकला कि संसदीय विपक्ष के रूप में भाजपा की स्थिति के मुकाबले सत्ताधारी भाजपा 180 डिग्री घूम गई। भाजपा जब विपक्ष में थी तो उसने बीमा उद्योग को सरकारी जकड़ से छुड़ाने का समर्थन लेकिन उस क्षेत्र में विदेशी पूँजी के आगमन का विरोध किया था। लेकिन जब वह सरकार में आयी तो 1999 में उसने बीमा क्षेत्र में चालीस फीसदी विदेशी पूँजी की भागीदारी पर संसद से मुहर लगवाई। विपक्ष में रहते समय भाजपा ने पेटेंट कानून बदलने का विरोध किया था। लेकिन सत्ता में आने पर उसने पेटेंट बिल पास करवाया जिसके तहत प्रक्रिया को पेटेंट करने के बजाय उत्पाद को पेटेंट करने की इजाज़त मिल गयी। विपक्ष में भाजपा ने जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ़्स द्वारा तैयार किये गए डंकेल ड्राफ्ट में दर्ज विश्व व्यापार संगठन बनाने का प्रावधान का विरोध किया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद भाजपा की देखरेख में भारत विश्व व्यापार संगठन में बना रहा और उसकी सरकार ने आयात शुल्क क्रमवार खत्म करने और आयात पर लगी पाबंदियाँ हटाने के लिए आक्रामक कदम उठाये। विपक्ष में रहते हुए भाजपा इस पक्ष में थी कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश केवल उच्च प्रौद्योगिकी और अधिसंरचनात्मक क्षेत्रों में ही आना चाहिए। उसने ग़ैर-प्राथमिक क्षेत्रों में इस पूँजी के आने का विरोध किया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद वह उसने ग़ैर-प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को चिन्हित करने का कोई कोशिश ही नहीं की। शराब और तम्बाकू जैसे अ-प्राथमिक क्षेत्रों समेत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को चौतरफा इजाज़त मिलनी शुरू हो गयी। विपक्ष में रहते समय भाजपा ने स्वदेशी के विचार को आर्थिक राष्ट्रवाद के रूप में परिभाषित किया था। इसका मतलब था भारतीय उद्योग को विदेशी कंपनियों के समकक्ष प्रतियोगिता के लिए समान धरातल उपलब्ध कराना। लेकिन अब स्वदेशी का मतलब हो गया विश्व अर्थव्यवस्था के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को उत्तरोत्तर जोडऩा।
तो क्या संघ-स्वदेशी केवल एक झाँसा था? अगर नहीं तो फिर संघ परिवार ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार से नाता नहीं तोड़ा? स्वदेशी जागरण मंच ने छिटपुट बयानबाजी के अतिरिक्त इन आर्थिक नीतियों के खिलाफ कोई बड़ी आंदोलनकारी मुहिम क्यों नहीं चलायी? नागराज ने इसे अनर्थकारी विचार करार दे कर इसके कारण हो सकने वाले राष्ट्रीय नुकसा की भविष्यवाणी कर दी थी। भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी के सदस्य और अर्थशास्त्री जय दुबाशी के एक वक्तव्य ने संघ-स्वदेशी के रणनीति संबंधी आयामों के एक सर्वथा नये पहलू का उद्घाटन यह कह कर किया कि 'वाजपेयी कभी भी स्वदेशी के समर्थक नहीं थे। हर कोई यह बात जानता था। तब फिर उन्हें प्रधानमंत्री कैसे बनने दिया गया? इसलिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरबराहों ने अपने कारणों से उनके नाम पर हरी झंडी दिखायी और उनके इन कारणों का आर्थिक नीतियों से कोई ताल्लुक नहीं था।' आइए, देखें संघ-स्वदेशी नामक अनर्थकारी विचार के रूप में भूमंडलीकरण विरोधी ताकतों और मुहिम को कैसे झाँसा दिया गया, और भाजपा को इस दाँव की ज़रूरत क्यों पड़ी।
भारतीय जनता पार्टी का अतीत भारतीय जनसंघ था। संघ परिवार की इस राजनीतिक शाखा की अर्थनीति निजी पूँजी और उसकी सत्ता अभिव्यक्त करने वाले कारपोरेट घरानों के पक्ष में लामबंद होती थी। जनसंघ पब्लिक सेक्टर, लाइसेंस-कोटा राज और कांग्रेस के 'सरकारी समाजवाद' का विरोध करने के लिए जाना जाता था। उसकी अनुदार अर्थनीति का एक पहलू यह भी था कि वह उद्योग और व्यापार में छोटे और मँझोले दर्जे के आर्थिक हितों की पैरोकारी भी करता था। अस्सी के दशक में जब जनता प्रयोग विफल होने के बाद जनसंघ का नया संस्करण भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय मंच पर उभरा तो संघ के सरबराहों की इजाज़त से अर्थनीति संबंधी रुझानों में तब्दीली हुई। भाजपा ने लाइसेंस-कोटा राज का विरोध उग्र कर दिया और आर्थिक उदारीकरण की भाषा बोलने लगी। वह व्यापारियों ओर उद्योगपतियों का समर्थन अपनी ओर खींचना चाहती थी। लेकिन उस समय भाजपा कुछ परेशान हो गई जब उसने देखा कि 1991 में कांग्रेस की अल्पमतीय सरकार ने व्यवहार में उसी नीति को अपनाना शुरु कर दिया जिसकी वकालत खुद को कांग्रेस से अलग दिखाने के लिये कर रही थी।
जय दुबाशी ने 'द ऑर्गनाइज़र' में लिखा: 'कांग्रेस हमारी आर्थिक दावेदारियाँ ले उड़ी है। अब वह हमारा राजनीतिक आधार छीने ले रही है। ...जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था के दरवाजे खुलेंगे मध्य वर्ग को कांग्रेस से दूर रखना हमारे लिये उत्तरोत्तर कठिन होता जाएगा।' इन नयी परिस्थिति में संघ परिवार और भाजपा को एक नयी आर्थिक रणनीति सूत्रबद्ध करनी पड़ी। इसी प्रक्रिया में 1992 की शुरुआत में 'स्वदेशी' का फ़िकरा सामने लाया गया। स्वदेशी जागरण मंचका गठन किया गया। एम.जी. बोकाड़े ने उन्हीं दिनों 'हिंदू इकॉनॉमिक्स' शीर्षक से एक पुस्तक लिख डाली जिसका विमोचन सरसंघचालक द्वारा कराया गया। स्वदेशी का सीधा एक ही मतलब था: आर्थिक आत्मनिर्भरता। यही वह दौर था जब संघ ने कुछ दिनों के लिए विदेशी निवेश से मुक्त ऐसी अर्थव्यवस्था का सपना देखा। विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं के आयात को नियंत्रित करने की इच्छा भी इसमें शामिल थी। संघ ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बनायी जाने वाली 326 चीजों की एक सूची जारी की जिसके साथ वे हर चीज़ का एक वैकल्पिक उत्पाद भी था जिसे भातीय कंपनियों द्वारा बनाया जाता था। 'सांस्कृतिक रूप से अपवित्र' ये विदेशी वस्तुएं संघ की निगाह में पश्चिम की सुखवादी-आनंदवादी-भोगवादी विचारधारा की नुमाइंदगी करती थी। संघ ने उपभोक्ताओं से अपील की कि वे हर विदेशी वस्तु का इस्तेमाल त्यागें, और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करें। इस सूची को तैयार करने में संघ परिवार के बुद्धिजीवियों और रणनीतिकारों के बीच कई तरह के झंझट हुए। पर आखिरकार स्वदेशी की प्रतीक लिस्ट सार्वजनिक मंच पर पेश कर दी गई।
लेकिन, क्या भाजपा के भीतर स्वदेशी के इस व्यावहारिक रूप से लागू करने की किसी रणनीति पर अमल की योजना बन रही थी? 1995 में महाराष्ट्र भाजपा के एक उच्चपदस्थ संगठनककर्ता ए. भटकलकर ने इंटरव्यू देते हुए भाजपा के भीतर चल रहे ऊहापोह की जानकारी इस तरह दी, 'हमें पता है कि हम उपभोक्तावाद नहीं खत्म कर सकते। हर कोई एक अच्छी सी नौकरी, अच्छा सा घर, एक कार और एक सुंदर बीवी चाहता है। सरकार में आने पर इस हकीकत के कारण हम पर जो दबाव पड़ेगा, उसके बारे में सोच कर मुझे बड़ी चिंता होती है। अगर हम सत्ता में आए तो यह सोच कर मैं डर जाता हूँ कि हमसे जो उम्मीदें की जाएँगी उनका क्या होगा। लोग शिक्षा, अधिसंरचनात्मक सुविधाओं और उत्तम जीवन की माँग करेंगे। जबकि यहाँ तो गरीबी, अशिक्षा और बीमारी की बहुतायत है।' हम जानते हैं कि भाजपा के सभी संगठनकर्ता संघ की कतारों से आते हैं। भाजपा इन्हीं प्रचारक-संगठन मंत्रियों के दम पर चलती है। भाजपा में आप उपाध्यक्ष हो सकते हैं या कोई और पद मिल सकता है, पर संगठन मंत्री होने के लिए संघ का प्रचारक होना ज़रूरी है। यह शर्त भाजपा के संविधान में दर्ज है।
यह विश्लेषण बताता है कि जिस समय संघ भूमंडलीकरण के प्रतिकार में स्वदेशी का नाटक कर रहा था, जिस समय संघ गाँधी का नाम लेकर वामपंथी शब्दावली का इस्तेमाल करके अपने असली इरादों की पर्दापोशी कर रहा था, उस समय भाजपा के वास्तविक संगठनकर्ता पार्टी को भूमंडलीकरण के गर्भ से निकली मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षाओं के अनुकूल बनाने की रणनीति तलाश रहे थे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के पक्के समर्थकों की मंडली ने जिस रणनीति पर अमल किया, वह यही थी। उसका गाँधी के उस स्वदेशी से कोई ताल्लुक नहीं था जिसके आधार पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ जंग लड़ी गयी थी। संघ-स्वदेशी न केवल एक अनर्थकारी विचार था (क्योंकि उसने गाँधीवादी और वामपंथी शब्दावली हड़पी थी), बल्कि वह एक झाँसा था जिसमें कुछ समय के लिए कुछ लोग आ गए थे।
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को इस आवरण की आवश्यकता थी, क्योंकि पहली बात तो यह है कि उनके पास पूर्ण बहुमत नहीं था और दूसरे उस ज़माने में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया नयी थी और भारतीय समाज में उसकी स्वीकार्यता नेताओं के सामने स्पष्ट नहीं थी। भारतीय पूँजीपति भी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के चरित्र के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं थे, इसलिए उनके बीच का एक प्रभावी हिस्सा बॉम्बे ग्रुप बनाकर 'लैविल प्लेइंग फ़ील्ड' की माँग करता हुआ दिखाई देता था। आज यह ग्रुप निष्प्रभावी हो चुका है, और कॉरपोरेट पूँजी की अगुआई पक्के तौर पर अम्बानी-अडाणी एण्ड कम्पनी के हाथों में जा चुकी है। आज नरेंद्र मोदी की सरकार को स्वदेशी नामक किसी आवरण की ज़रूरत नहीं रह गयी है। इसीलिए संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पिछले साल जुलाई में ही स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ और भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठनों पर एक आंतरिक प्रतिबंध लगाते हुए निर्देश दिया था कि एक साल तक मोदी सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठायी जाना चाहिए। इसी योजना के तहत इन संगठनों को सावधानी और चालाकी के साथ केवल तभी सक्रिय किया जाता है जब मोदी सरकार की नीतियों के विरोध में कोई राष्ट्रीय पहलकदमी पनपती दिखाई पड़ती है। वैसे भी भाजपा का मज़दूर मोर्चा भारतीय मज़दूर संघ हड़ताल को 'पाशुपत अस्त्र' मानता है। ज़ाहिर है कि पाशुपत अस्त्र का तो यदाकदा ही इस्तेमाल हो सकता है। इस तरह की पार्टी और इस तरह का मज़दूर संघ नयी अर्थनीति के लिये वरदान है।
नरेंद्र मोदी की सरकार पहले कुछ समय में तीन तरह की माँगों के बीच संतुलन कायम करने की कोशिश करते हुए दिखेगी। इसमें पहली माँग है उस मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग और गरीब वर्ग की जिसे मोदी की तरफ़ से 'अच्छे दिनों' की उम्मीद है। जनता के प्रगतिकांक्षी हिस्सों की माँग जायज़ है और चुनी हुई सरकार का कर्तव्य है कि उसे पूरा करे। दूसरी माँग है उस कॉरपोरेट पूँजी की जिसने अपने इतिहास में पहली बार किसी एक नेता की राजनीति में इतना ज़बरदस्त आर्थिक और जज़्बाती निवेश किया है। उसने जो धन लगाया है, वह उसकी कई गुणा वापसी की अपेक्षा कर रही है। तीसरी माँग भाजपा और संघ की निचली और मँझोली कार्यकर्ता पंक्तियों की है जिन्होंने मोदी-मोदी के नारे लगा कर नरेंद्रभाई नामक क्षेत्रीय नेता को राष्ट्रीय आभा प्रदान की थी। हम जानते हैं कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और स्वयं सरसंघचालक मोहन भागवत मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के पक्ष में नहीं थे। यह इन्हीं कतारों का दबाव था जिसने उन्हें मोदी के पक्ष में झुकाया।
कॉरपोरेट पूँजी इंतज़ार नहीं कर सकती। उसे जो चाहिए था वह फरवरी के बजट में मिलना शुरू हो गया है। इसी तरह से अल्पसंख्यक विरोध की ख़ुराक पर पली हिंदुत्ववादी कतारें भी इंतज़ार करने के मूड में नहीं हैं। उन्हें भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की अपनी तमन्ना फौरन पूरी करनी है। ये इस समय 'ओवर-एक्टिव' हैं। मोदी ने किसी साक्षी महाराज को, किसी अशोक सिंघल को, किसी साध्वी निरंजन ज्योति को दण्डित करने की बजाय अपनी खामोशी से शह देने की रणनीति अपनाने का फैसला किया है। दूसरी तरफ, जनता के प्रगतिकांक्षी हिस्से इंतज़ार कर रहे हैं कि कब उन्हें रोजगार और ख़ुशहाली नसीब होगी। उनका मोह धीरे-दीरे भंग हो रहा है। वे कुछ दिन और इंतज़ार कर सकते हैं। लेकिन, सिर्फ कुछ दिन ही। मोदी ने भले ही पाँच साल तक प्रधानमंत्री रहने की शपथ ली हो, लेकिन जनता ने उनका पाँच साल तक समर्थन करते रहने की शपथ नहीं ली है।


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