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मार्च : 2015

यथार्थान्विति की एक दूसरी ही दुनिया

शंभु गुप्त

नये कहानीकार
प्रत्यक्षा के बाद रवि बुले, अगली बार सत्यनारायण





रवि बुले (1971) के दो कहानी-संग्रह अब तक छप चुके हैं - 'आईने, सपने और वसन्तसेना' (2008) और 'यूँ न होता तो क्या होता' (2012)। इन दोनों संग्रहों में कुल ग्यारह कहानियाँ हैं। पहले संग्रह में सात कहानियाँ हैं और दूसरे में चार। दोनों संग्रहों की कुल पृष्ठ संख्या लगभग साढ़े तीन सौ है। साढ़े तीन सौ पृष्ठों में ग्यारह कहानियाँ। तय है कि ये सभी कहानियाँ लम्बी कहानियों का दायरा छूती नज़र आती हैं। 'यूँ न होता तो क्या होता' तो घोषित रूप से चार लम्बी कहानियों का संग्रह है। स्पष्ट है कि रवि बुले लम्बी कहानियों के कहानीकार हैं। एक तरह से देखा जाए तो यह लम्बापन स्वयं लेखक का अपने लिए एक चुनाव है। रवि बुले ने अपने एक आत्मकथ्य- 'यह एक खूनी खेल हैं' में प्रारंभ में ही लिखा है - ''शुरुआती दो-तीन कहानियों को छोड़ दूं, तो उसके बाद की कहानियों का ताप मैं सालों-साल महसूस करता रहा हूं। शायद यही कारण है कि इन कहानियों में विस्तार है।'' (हिन्दी कहानी का युवा परिदृश्य-1, सम्पादक : सुशील सिद्धार्थ; सामयिक प्रकाशन, नं. दि. 2014; पृ. 165)
बात असल में काफी लम्बी है। एक तरह से देखा जाए तो इस पूरे आत्मकथ्य में आद्यन्त यह चर्चा अन्तव्र्याप्त है कि ये कहानियाँ लम्बी है। यह अन्तव्र्याप्ति बहुत सूक्ष्म है और अत्यन्त ही व्यापक है। इतनी व्यापक कि लगभग सर्वांगीण। लेखक अपनी अवधारणा की व्यक्तिगत स्वाभाविक प्रकृति के चलते अनजाने ही लम्बी कहानी की रचना-प्रक्रिया की एक के बाद एक सैद्धान्तिक परतें खोलता चलता है, इतने चुपचाप कि पता ही नहीं चलता कि हम किसी सिद्धान्त के समानान्तर चल रहे हैं। लम्बी कहानी की रचना और अधिगम दोनों की प्रक्रियाएँ लगातार यहाँ नमूदार होती चली हैं। इस पूरे आत्मकथ्यात्मक आलेख में इतने सूत्र तो मौजूद हैं ही कि बड़ी आसानी से इस सम्बन्ध में एक प्रामाणिक संहिता बाक़ायदा बनाई जा सकती है। रवि बुले अपनी व्यक्तिगत स्वाभाविक प्रकृति के चलते ही एक तीर से कम से कम दो शिकार तो करते ही हैं। दो से ज़्यादा भी हो जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं।
यहां सबसे पहली बात तो यह कि लेखक मुम्बई जैसे महानगर से अपनी रचनात्मक रसद ग्रहण कर रहा है। रचनात्मक भी और निजी जीवन के लिए भी। व्यक्ति रवि बुले-जो कि उनके आत्मकथ्य में थोड़ा-बहुत सामने आया है और लेखक रवि बुले-जो कि अपनी कहानियों में एक मुकम्मल हस्ताक्षर के रूप में उभरा है; में कोई खास और ज़्यादा बड़ा अन्तर मुझे दिखाई नहीं देता। व्यक्ति और लेखक की यह समान्तरता और अद्वैत इधर लगभग अदृश्य हो गए थे, अरसे बाद यह स्थिति देखने में आई है कि दोगलापन लगभग नगण्य है। रवि बुले के इस आत्मकथ्य में और लगभग इसी के सामानान्तर कहानियों में जो एक अनिवार और अपरिहार्य िकस्म की 'आत्मसम्भवा' तड़प, बेचैनी, संलग्नता, तत्परता, तद्वत्ता इत्यादि देखने में आती हैं, वह इधर एक विरल पाठकीय/आलोचकीय अनुभव है। रवि बुले के रूप में लेखकीय ईमानदारी के बक़ायदा दर्शन हमें होते हैं।
और एक सुखद आश्चर्य की बात यह कि यह ईमानदारी मुम्बई जैसे महानगर में न केवल पैदा हुई, अस्तित्व में आई, बल्कि लगातार क़ायम भी रही आई! यह बदले हुए समय का बदला हुआ तक़ाजा है जो सिर चढ़कर बोलता है। यह बदले हुए समय में महानगर की एक बदली हुई छवि है, जो एक रचनाकार के मार्फत सामने आई है। यह एक रचनाकार के मार्फत आई है, इसलिए विश्वसनीय है। रवि बुले अपने आत्मकथ्य में लिखते हैं - ''मेरा विश्वास है कि महानगरों की रफ्तार में भी रचा जा सकता है। महानगर में तीव्र गति से बहती जीवन ऊर्जा है। यदि आप उसके बहाव में बह नहीं जाएं और उसमें पैर जमाए रखें, तो अद्वितीय अनुभव पा सकते हैं।'' (वही; पृ. 169)। आगे अपनी बात को तर्कसंगति देते हुए वे कहते हैं कि ''आज जो कुछ भी ग्रामीण, शहरी या स्थानीय रह गया है, वह तेजी से ग्लोबल हो चला है। टेलीविजन और इंटरनेट के प्रसार के कारण उस पर महानगरीय छाप साफ नजर आ रही है। इन जगहों में तमाम राहें महानगरों की ओर ही जा रही हैं।'' (वही)। रवि बुले साफ तौर पर कहते हैं कि अब महानगर ही साहित्य के नए युग के सूत्रपात के स्रोताधार होंगे- ''मुझे लगता है कि अब हमें कहानियों और उपन्यासों के अगले उत्कर्ष के लिए महानगरों की ओर देखना चाहिए। वहां से नयी राह निकल सकती है। रचनाधर्मिता को नयी सांसें देने के लिए हम महानगरों पर विश्वास कर सकते हैं। उनसे अपेक्षा कर सकते हैं।'' (वही)
इस नए तर्क के आगे पिछली पीढिय़ों का यह अभिमत जिसके अन्तर्गत कि ''लेखक महानगरों को रचनाकार के वध-स्थल के रूप में देखते आए हैं और इस बात को जोर-जोर से कह कर स्थापित भी किया गया है'' (वही), लगभग एक पूर्वाग्रही धारणा ही सिद्ध होती है। रवि बुले शायद संकोचवश यह नहीं कह पाते कि इस धारणा के पीछे कौन-सी, क्या मानसिकता काम करती है। निश्चिय ही, इस धारणा के मूल में लेखक-समुदाय की मध्यवर्गीय सुविधाजीविता की लालची मनोवृत्ति काम करती नज़र आती है। इस मनोवृत्ति में संघर्ष से पलायन और सत्ता से समानुकूलन की प्रवृत्ति अन्तर्भुक्त है। महानगर में व्यक्ति को हर समय सक्रिय, सचेत और संघर्षयुत रहना पड़ता है। हाथ में हमेशा एक ऐसा आयुध-सा रखना होता है कि जिसे देखकर लोग हावी न होने पाएँ! अन्यथा तो वहाँ एक-दूसरे को हज़म करने हेतु लोगों की जीभें लपलपाती रहती हैं। कहना न होगा कि इस सावधानी और संघर्षशीलता का सम्बन्ध सृजनधर्मिता से गहरा है। यथार्थ से ज़्यादा से ज़्यादा और गहरे से गहरे रू-ब-रू होने के अवसर इसमें आते हैं। इतना तो लगभग तय है कि महानगर में 'लल्लू' बनकर काम नहीं चलता। वहाँ सेर पर सवा सेर की नीति पर चलना होता है। दरअसल महानगरों में जीवन की इतनी विविधता, व्यापकता, सर्वांगीणता, सर्वसमावेशिता मिलती है कि कोई चाहे तो जीवन-भर अपनी रुचियों की परिपूर्ति की सम्भावनाएं उसे मिल सकती हैं। महानगर में भयावह व्यस्तता है, भारी भाग-दौड़ है, वहां की स्थितियाँ जीवन पर बेहताशा दबाव बनाकर चलती हैं।
एक तरह से देखा जाए तो रवि बुले की लगभग सारी कहानियों का उद्गम स्रोत मुम्बई महानगर है। उनकी लगभग सारी ही कहानियों की विषयवस्तु, शिल्प-प्रविधि, भाषा-संरचना, कलेवर महानगरीय जैसा है। उन्होंने स्वयं अपनी कहानियों की लम्बाई के पीछे मुम्बई महानगर को ज़िम्मेदार ठहराया है,- ''मेरी आधा दर्जन कहानियां देश के सबसे बड़े सबसे व्यस्त, सबसे भाग-दौड़ वाले और जीवन पर सर्वाधिक दबाव बनाने वाले महानगर मुम्बई में लिखी गयी हैं। ये कभी कहानियां प्राय: लम्बी हैं।'' (वही); पर ऐसा मेरा मानना है कि केवल लम्बाई नहीं, बल्कि लगभग कहानी का सारा ही संरचन महानगरीय काट का है। इसका कारण सम्भवत: यह है कि नगरीय/महानगरीय जीवन-प्रणाली, जीवन-पद्धति एवं जीवनेच्छा-प्रविधि में रवि बुले को बेइन्तहा रुचि है। उन्होंने इस सारे प्रकरण की शुरुआत ही इस वाक्यावलि से की है- ''मैंने अपनी प्राय: सभी कहानियों को नगरीय और महानगरीय जीवन से लिया है क्योंकि मैं इसी में पला-बढ़ा हूँ। इसी का गवाह हूँ। एक लेखक के रूप में महानगरों की जिन्दगी और संस्कृति ने मुझे हमेशा आकर्षित किया।'' (वही) कहना न होगा कि सृजन और उसकी प्रक्रिया में महानगरों की भूमिका के बावत यह एक बदली हुई दृष्टि है, जो इस नई पीढ़ी और खास तौर से रवि बुले के मार्फत सामने आई है। रवि बुले के अलावा भी कई और नए युवा लेखक अनेक महानगरों में रहते, वहाँ से जीवन की रसद लेते सृजनरत हैं। उन्होंने बेहतर कहानियाँ दी हैं। पहले भी हालाँकि बहुत से लोग इस बात से नाइत्तिफाकी रखते थे पर अब तो यह लगभग सुनिश्चित हो गया है कि यदि महानगरों की अन्त:शक्ति-जो कि विविधरूप है और जिसका कि कोई ओर-छोर नहीं है- का अपने सृजनात्मक हित में सही-सही स्तेमाल किया जाए तो नितान्त मौलिक, नायाब और वैश्विक महत्व की सृजनधर्मिता सम्भव की जा सकती है। रवि बुले ने महानगरों की जिस जीवन-ऊर्जा का उल्लेख अपने आत्मकथ्य में किया है, वह इसके मूल में है।
कथाकार रवि बुले की यही तारीफ है कि जिसके बारे में पीछे मैंने कहा कि वे एक तीर से कम से कम दो निशाने तो साधते ही हैं। दो से ज़्यादा भी हो जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं। रवि बुले की कहानियों पर लिखते हुए मुझे बार-बार महाभारत के चक्रव्यूहों की याद आती है कि किस तरह वहाँ कोई भी चरित्र इकहरा नहीं है। हर व्यक्ति के अन्दर कोई न कोई घुंडी है जो सुलझ नहीं रही है! हर व्यक्ति अपने सिर पर कोई न कोई ऐसा बोझ लादे हुए हैं जो उस पर थोप दिया गया है लेकिन अब वही उसकी नियति बन चुका है। उसे अब उसी में आनन्द आ रहा है। हर व्यक्ति कन्फ्यू•ड है और यही कन्फ्यूज़न उसकी पहचान बन गया है। रवि बुले को, पता नहीं, महाभारत पसन्द है या नहीं और वे उस पर भरोसा करते हैं या नहीं, लेकिन मेरा ऐसा अनुमान है कि उन्होंने बहुत गहरे कई-कई बार उसका पारायण किया हुआ है और वे उसकी कथा-प्रविधि से मुहब्बत करते हैं। चक्रव्यूहात्मक प्रविधि का ऐसा शौक रवि बुले को चर्राया रहता है कि अपने आत्मकथ्य में भी वे अपनी इस आदत से बाज नहीं आते और बेखटके यह लिख ही तो जाते हैं कि ''दरअसल जैसे चिडिय़ों, तोतों, उल्लुओं और कौवों को पता हो जाता है कि किस पेड़ में कोटर या घोंसले बनाकर आराम से रहा जा सकता है, कहां अंडे देना सुरक्षित होगा... वैसे ही अपनी कहानियां लिखवाने के लिए भटकते पात्रों को भी यह बात खूब पता होगी कि किस लेखक की आत्मा में सुराख किया जा सकता है। किसके सिर पर सवार हुआ जा सकता है। नहीं मालूम कि मेरे बारे में उन्हें कैसे-कब यह राज मालूम चला? इस लेखक की न लिखने की जिद भी हो, तो उन्हें फर्क नहीं पड़ता। वे बरसों तक जमे हुए अपनी कच्ची-पक्की कहानियों के रचे जाने की प्रतीक्षा करते हैं। वे हर मौसम में, सुख-दुख में, तंगी-खुशहाली में साथ रहते हैं। ऐसे में कब तक उनकी उपेक्षा की जा सकती है? कितनी बार उन्हें लौट जाने को कहा जा सकता है?'' (वही; पृ. 170)। इस इतने लम्बे उद्धरण में लेखक की शैल्पिक/प्रविधिगत रणनीति को बराबर लक्ष्य किया जा सकता है। रवि बुले ने जैसे कसम खा रखी है कि कोई भी बात सीधे-सीधे नहीं कहेंगे! अपनी इसी बात को एक दूसरे तरीके से रवि बुले जिस तरह कहते हैं, वह केवल उन्हीं का तरीका कहा जा सकता है। अब तक कोई और इस तरह की शैली अपनाने की हिम्मत नहीं कर पाया है- ''हर रचनाकार अपने मूड से काम करता है। कभी ऐसी लहर भी आती है, जब आप रचनाधर्मिता को लेकर मूर्खता के शिखर पर चढ़कर 'शोले' के वीरू की तरह 'कूद जाऊंगा, फांद जाऊंगा, मर जाऊंगा...' टाइप तमाशा करते हैं। तब आपको एक जय की जरूरत होती है। जिनके पास जय नहीं होते, वे आत्महत्या में कामयाब रहते हैं। मैं नाकाम रहा क्योंकि मेरे पास जय है।'' (वही; पृ. 166)
इस जय का होना एक प्रतीक भी हो सकता है, हालाँकि जिस 'जय' का नामोल्लेख रवि ने किया है, (हबीब कैफी); वे एक जीवित सशरीर इन्सान हैं और हिन्दी के एक बहुत ही महत्वपूर्ण कथाकार हैं; अपना दूसरा संग्रह 'यूँ न होता तो क्या होता?' रवि बुले ने अपने इसी 'फ्रैंड फ़िलॉसफ़र एण्ड गाइड' को समर्पित किया है। जहाँ तक मैं श्रीमान हबीब कैफ़ी साहब को जानता हूँ, रवि बुले यहाँ कोई फाउल या मिसडायल नहीं करते। हबीब कैफी में व्यक्तिगत तौर पर वह कूवत है कि रवि बुले जैसे फन्ने खाँ कथाकार के फ्रैंड फ़िलासफर एण्ड गाइड बन सकें। हर कोई रवि बुले जैसे हरफनमौला रचनाकार का खैरख्वाह नहीं हो सकता! इसके लिए बहुत बड़ा जिगरा चाहिए! जो हो। कहना हमें यह है कि एक रचनाकार के रूप में यह जो ग़ज़ब धैर्य और गतिशील स्थैर्य रवि बुले में दिखाई देता है, यह जो पानी को, पानी की धार को देखने का स्वभाव इस लेखक में दिखाई देता है, वह इधर लगभग विरल है। आजकल तो लोग 'चट मँगनी पट ब्याह' की तरह कहानियाँ लिखने में लगे हैं। ऐसे में रवि बुले जैसे लेखक जो इस बात के अभ्यस्त हैं कि 'इन कहानियों की यात्राएं लम्बी हैं। वे ठिठक-ठिठक कर आगे बढ़ती रही हैं। उन्होंने अपने रास्ते खुद तलाशे हैं। वे आगे रास्ता न मिलने के कारण महीनों और वर्षों तक एक ही जगह पर ठहरी रही हैं। उसमें लगातार कुछ जुड़ता और बहुत कुछ घटता रहा है। इस दौरान मेरा स्वास्थ्य बदला है, मिजाज बदला है, विचार बदले हैं और अक्सर शहर भी। कहानियों के बीज बदलते हवा-पानी और मौसमों को सहते हुए धीरे-धीरे अंकुरित हुए, फूले और फले हैं।'(वहीं; पृ. 166)
इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा ज़ोर ठहरने पर है; एक ऐसा ठहरना, जो अगली मंज़िल की छलाँग भरने के मकसद से चुना गया होता है- ''ङ्गङ्गङ्ग कहानी की रचना का अहम हिस्सा वह नहीं होता, जब वह लिखी जाती है, बल्कि जब वह आगे बढऩे के लिए ठहरी होती है। दम साधे हुए एक लम्बी छलांग भरने के लिए इस दौरान वह अपने विस्तार के लिए ऊर्जा एकत्रित करती है।'' (वही; पृ. 165)। यहाँ तक भी बात सामान्य थी। असामान्य बात इसके आगे आती है - ''यह ऊर्जा उसे लेखक के जीवन से मिलती है। वह अपने अस्तित्व के लिए लेखक के जीवन को निचोड़ती है। यह काम वह बेहद निर्मम होकर करती है।''(वही) जहाँ तक मुझे याद आता है, लेखकीय रचना-प्रक्रिया पर विचार के क्रम में यह शहीदाना तेवर अरसे बाद हिन्दी में व्यवहार में आया है। मुक्तिबोध के बाद इक्का-दुक्का लोगों की जुबान से कुछ अरसे तक ये शब्द सुनने में आए थे पर उसके बाद तो परिदृश्य से ही ऐसे ग़ायब हुए कि लेखन-क्रिया के इस बेश$कीमती पड़ाव को लोगों ने सिरे से ही भुला दिया और इसकी जगह 'इन्स्टेंट' फूड की तरह की आदतें पनपने लगीं। हिन्दी में अब एक बार फिर इस पर चर्चा होना शुरु हुई है, तो निश्चिय ही यह एक शुभ संकेत है। सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नई युवा पीढ़ी इसे पुनर्जीवित कर रही है! सम्भवत: इसी अकूत लेखकीय ऊर्जा का यह प्रतिफल है कि 'आईने, सपने और वसन्तसेना' जैसी नायाब अैर उल्लेखनीय कहानी सम्भव हो सकी। इस कहानी की प्रक्रिया का लेखकीय पक्ष देखा जाए तो सबसे ज़्यादा मार्के की बात उसमें यह है - ''तब मालूम नहीं था कि वह सब फूलों के अर्क की तरह मन के किसी कोने में एकत्रित हो रहा है, जिसकी महक कहानी में बिखर जाएगी।'' (वही; पृ. 167)।
यह जो चीजों को, जीवन के अनुभवों इत्यादि को फूलों के अर्क की तरह मन के किसी कोने में एकत्र होने देते रहने की सामथ्र्य है; कहानी की रचनात्मकता का रहस्यमय उत्स दरअसल यहीं से फूटता है। मौलिकता और टटकापन का खज़ाना भी इसी में छुपा है। इतनी लम्बी-लम्बी कहानियाँ होने के बावजूद रवि बुले में कहीं भी नाम मात्र को भी दुहराव नहीं मिलता तो इसका कारण सम्भवत: यही है कि वे हर अगली कहानी को लिखते समय यह भूले रहते हैं कि इसके पहले क्या लिख आए हैं! लगभग हर जेन्युइन लेखक एक कोई चीज लिख चुकने/छप चुकने के बाद यही महसूस करता है- ''ङ्गङ्गङ्ग अपना रूप-आकार ग्रहण करने के बाद वह ऐसे छिटक जाती है, जैसे लेखक से उसका कोई सम्बन्ध ही न रहा हो या नाममात्र का सम्पर्क रहा हो। सो, उसका प्रतिफल भी वैसा ही रहता है। प्रकाशित होने के बाद मेरी कहानियों ने मुझे विशेष आकर्षित नहीं किया'' (वही; पृ. 165-66)। इस नई पीढ़ी के सन्दर्भ में यह वक्तव्य विशेष रेखांकनीय है क्योंकि पिछले दिनों जो आत्ममुग्धता, आत्योन्मुखता, आत्मकेन्द्रीयता इस पीढ़ी के कुछ लेखक/लेखिकाओं में दिखाई दी थीं और जिसने बरबस नई कहानी के दिनों के एक आत्ममुग्ध और अहम्मन्य लेखक-समूह-विशेष की याद ताज़ा कर दी थी, को यह अमान्य घोषित करता है और एक नई लेखकीय ईमानदारी की सम्भवशीलता की ओर हमें ले जाता है। न जाने लेखकीय ईमानदारी की यह कैसी फ़ितरत है कि इसके एवज़ में बहुत सारा कुछ लेखक को अदा करना होता है, इसकी भारी कीमत चुकानी होती है - ''एक कहानी की शुरुआत अक्सर आपकी चेतना को घायल करते हुए होती है। किसी भी पल यह घटना घट सकती है। ङ्गङ्गङ्ग शुरुआत में एक खूबसूरत खयाल की तरह लगने वाली यह बात आगे किसी खूनी खेल से कम साबित नहीं होगी। आपको अपना बहुत कुछ गंवाना पड़ेगा। सुबह-शाम, दिन-रात, मित्र-नातेदार, यात्राएं-हँसी, चेहरे की चमक, मन का स्वास्थ्य, दिमाग का चैन, सब कुछ बहुत निर्मम ढंग से। ...और अन्तत: इस अग्निपथ पर आपके अश्रु, स्वेद, रक्त से लथपथ जो हासिल होगा, वह आपका नहीं होगा!'' (वही; पृ. 166-67)।
मैंने कहा कि एक लम्बे अरसे बाद यह रचना-प्रक्रिया, रचना-प्रक्रिया का यह प्ररूप हिन्दी में दिखाई दे रहा है। मुक्तिबोध की याद आना यहाँ स्वाभाविक है। मुक्तिबोध की याद यहां इसलिए भी आना लाज़मी है कि कविता के लम्बा होने की लगभग यही प्रक्रिया हमें उनमें भी मिलती है। कहानी के मामले में योगेन्द्र आहूजा यहाँ याद आते हैं। उनके यहां भी कहानी का लगभग यही $खूनी खेल दिखाई देता है। योगेन्द्र के यहाँ तो पाठकों पर भी इस $खून के छींटे पड़ जाते दिखाई देते हैं! कहानी पढ़ते-पढ़ते वहाँ पाठक भी बग़लें झाँकने लग जा सकता है क्योंकि लेखक अपने साथ-साथ पाठक को भी खराद पर चढ़ाए हुए प्रतीत होता है। कहानी भी सम्भवत: यही वह प्रक्रिया है, जिसके तहत दो आवश्यक चीजें तय होती हैं। एक तो यह कि कहानी किसी फार्मूलाबद्धता का शिकार नहीं होती, पल-पल, छिन-छिन मौलिकता और टटकापन वहाँ अपने-आप सिरजता चलता है। यहाँ तक कि अपनी हर कहानी को हर बार वह एक नई ज़मीन से शुरू करता है। अपने को भी कभी दुहराता नहीं! - ''कहानी रचने का कोई एक फार्मूला नहीं होता। हर कहानी एक खास बिन्दु से शुरू होती है। उसके अपने रास्ते होते हैं। उसके रचे जाने की निजी मन:स्थिति होती है। उसका अपना टोन होता है। उसके अपने औजार होते हैं। अपना शिल्प होता है। कहानी अपने रचे जाने का फार्मूला खुद तय करती है और उसके रचे जाते ही यह सब कुछ बेकार हो जाता है। उसे पुन: काम में नहीं लाया जा सकता।'' (वही; पृ. 168)। और दूसरे यह कि; जो कि दरअसल उक्त पहली स्थिति का स्वत: परिणाम है; लेखक अपना एक 'निजी रचनात्मक हस्ताक्षर' बनाने की प्रक्रिया/पहचान में आने लगता है- ''हर लेखक का एक निजी हस्ताक्षर होता है, जो उसकी हर रचना में दिखता है, जिससे पाठक उसे पहचानता है। यह लेखक का कथानकों को पकडऩे का नजरिया, उसके पात्रों का चयन, उसका शिल्प, उसकी भाषा... कुछ भी हो सकता है। उसकी रचना प्रक्रिया को मोटे तौर पर इनमें देखा-समझा भी जा सकता है।'' (वही)।
रवि बुले बहुत ही ठोंक-पीटकर यथार्थ में हाथ डालते हैं और एक बार अन्तप्र्रवेश के बाद फिर उसके सारे कोने-आंतरे खँगाल और तलाश आते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में संश्लिष्टता, बहुलता/बहुआयामिता, अन्तरंगता इत्यादि उनकी लेखकीय अन्तर्दृष्टि के अविभाज्य हिस्से बन रहते हैं और इतने नामालूम तरीके से कि हम यह लगभग भूल जाते हैं कि हम कोई कहानी पढ़ रहे हैं, किसी कला-रचना के रू ब रू हैं! हम एक ऐसी दुनिया में पहुँचा हुआ खुद को महसूस करते हैं कि अरे! हम तो कब से यह सब जानते हैं! यथार्थ को प्रस्तुत करने, उसकी संरचना का एक ऐसा तरीका कि लगे की यह तो हमारे ही बीच का एक हिस्सा है! कहानी पढ़ते हुए लगातार यह महसूस होता रहता है कि हम हैं और यह चरित्र है, घटना है, इसके बीच का अन्तर्सम्बन्ध है और इस सबका जो आ$िखरी पड़ाव है, वह है! हमारे और इस सब के बीच न तो लेखक रह गया है, न 'कहानी' नाम की कोई चीज रह गई है! हम जैसे कुछ 'पढ़' नहीं, 'जी' रहे हैं! यह एक भिन्न पाठकीय अनुभव है, जो अमूमन लम्बी कहानी के साथ होता है। हम कहानी में इतने रम जाते हैं कि हमें कई बार यह ध्यान ही नहीं रह पाता कि कहानी पूरी हो गई है और लेखक हमसे विदा ले चुका है! लम्बी कहानी के साथ अमूमन यह घटित होता है। कहानी का लम्बा कलेवर पाठक को भी लेखक की ही तरह इस तरह बहा ले चलता है कि - ''यही वह पहला क्षण होता है, जब आप बेखयाली में लपक कर अपनी मेज पर जा बैठते हैं और यह मासूम खयाल के शिकार बन जाते हैं। ङ्गङ्गङ्ग जो शुरुआत आपने की, उसके अंत तक पहुंचे बिना आप आजाद नहीं हो सकते। अब आप एक तांगे में जुते हुए घोड़े हो गये। विचार, कल्पनाएं और किरदार आपको हाँकने लगते हैं। आप हांफिए, पर चलते रहिए। खुद को कोसते रहिए, रात-दिन, सुबह-शाम, हफ्तों, महीनों और बरसों तो...!'' (वही; पृ. 167)।
रवि बुले की प्रवृत्ति यह है कि वे कहानी की रचना और पाठ दोनों ही प्रक्रियाओं में बाक़ायदा पाठक को शामिल करते हैं। एक तरह से उसे किसी अदालती ज़िरह का गवाह-सा बनाते चलते हैं। एक युक्ति लगभग शुरू से ही रवि बुले में देखी जाती है कि उन्हें न जाने कहाँ से एक आधी-अधूरी कहानी, जो हो सकता है, एक डायरी के रूप में आधी-अधूरी, कटी-फटी, संकेतों में लिखी गई हो, कोई आधी-परधी सुनी, इस मुँह से उस मुँह कही-सुनी जाती हुई कहानी, कहानी की कोई आधी-अधूरी, कटी-फटी पाण्डुलिपि इत्यादि कहीं किसी व्यक्ति-विशेष से, किसी स्थान पर पड़ी हुई, मिल गई और उस कहानी से सम्बन्धित पात्र/चरित्र भी यक़ाय$क कहीं घूमते-फिरते हुए या सपने में या किसी और तरह उनसे टकरा गया और उन्हें विवश करने लगा कि ज़ल्दी से ज़ल्दी वह अपने उस लेखकीय दायित्व का पालन करे जो संयोग से उसे मिला है, व$क्त ज़ाया न करे, अन्यथा न जाने क्या से क्या हो लेगा! हो सकता है, खुद लेखक का भी कोई नुकसान हो जाए!
इस कथा-शैली का विकास कहाँ हुआ, दुनिया-भर के स्तर पर और खास तौर पर हिन्दी में किस-किस ने इसे अपनाया; यह एक शोध का विषय हो सकता है, इस पर लोग शोध करेंगे भी। हमारा ध्यान यहाँ जिस बात पर है, वह यह है कि इस युक्ति की रचनागत और पाठगत यानी कि लेखकीय और पाठकीय आख्या और अपरिहार्यता क्या है? क्यों रवि बुले जैसा एक भी शब्द ज़ाया न करने वाला, एक भी अनर्गल सन्दर्भ न लाने वाला, कहानी के इतना लम्बा होने के बावजूद उसमें बिखराव और आस्फालन न आने देने वाला, कहानी में निरन्तर कथात्मक सन्तुलन और वस्तु-केन्द्रिकता को साधे रहने वाला झोली-फटकार कथाकार बार-बार यह युक्ति अपनाने को विवश है? क्यों उसे लगता है कि यह घोंचा डालना ज़रूरी है, अन्यथा क्या पता, लोग इस पर भरोसा करें, न करें! हालाँकि लेखक ने कई जगह स्वयं को ही उत्क्रमित करते हुए इस युक्ति की धज्जियाँ भी उड़ा दी हैं। जैसे कि यह - ''परन्तु तमाम तर्कों से अकिंचन असन्तुष्ट था और उसके सामने एक सवाल बार-बार सिर उठा रहा था... व्हाट नेक्स्ट? इस सवाल की मथनी से पर्याप्त विचार मंथन के बाद आखिरकार तय हुआ कि लेखक अब तक तो पाण्डे जी के पकड़ाए जाल में मछलियाँ बीन रहा था, लेकिन वह अब खुद पाण्डे जी के जीवन-जलधि में छलाँग मारेगा और गहरे पानी में जो भी मिले, कंकड़-पत्थर-मोती... वह निकालकर लाएगा। अत: आगे जो कथा उर्फ पाण्डे जी की 'केस हिस्ट्री' आपके सामने है, वह लेखक के निजी प्रयासों और परिश्रम का नतीजा है।'' (यूं न होता तो क्या होता; हार्पर कालिंस, नई दिल्ली 2012; पृ. 106)
एक तरह से देखा जाए तो लगभग यही प्रविधि रवि बुले ने अपनी अधिकांश कहानियों में अपनाई है। 'डेढ़ कहानी' में भी लगभग यही स्थिति देखी जाती है। यह कहानी में भी लगभग उसी शब्दावली में लेखक कहानी को अपने हिसाब से आगे बढ़ाता है - ''अत: यह अकिंचन लेखक देवर्षि के श्रीमुख से प्रवाहित हो रही 'कथा' से सहमत नहीं हो पा रहा था। इसीलिए काफी विचार-मंथन करने के बाद आखिरकार उसने देवर्षि से क्षमा माँग ली और उनकी 'सत्य कथा' को आगे न लिखने का निर्णय लिया।'' (वही; पृ. 171)। इस कहानी में तो लेखक युक्ति पर युक्ति एक के बाद एक कुछ इस तरह अपनाता चला है कि सारी कहानी यदि ध्यान से न पढ़ी जाए तो एक गुंजलक-जैसी बन जाती है।
लेखक की इस अतिशय युक्ति-परस्ती की रचनात्मक/कथात्मक सार्थकता और अनिवार्यता पर विचार करने पर जो तथ्य सामने आते हैं, वे मूलभूत रूप से लेखकीय प्रतिबद्धता, यथार्थ के प्रति लेखक की सन्नद्धता, कथात्मक न्यायसंगतता इत्यादि से ताल्लुक रखते हैं। मोटे तौर पर यह लेखकीय कथात्मक मसखरी है, जिसकी अन्दरूनी तहों में गहरी और हैरतअंगेज़ विडम्बनाएं छुपी हुई हैं। निश्चय ही यह एक रचना-प्रविधि है लेकिन एक ऐसी प्रविधि जो पाठक को ध्यान में रखकर तय की गई है। जैसे कि 'डेढ़ कहानी' में लेखक को 'गल्प के गुरु देवर्षि' (वही; पृ. 182) की उस सत्यकथा से सख्त ऐतराज़ था, जिसमें 'सत्य' पर इतना अधिक ज़ोर था कि लेखक के अनुसार वह लगभग एकपक्षीय हो गई थी- ''इस लेखक का मानना है कि किसी भी कथा में सत्य पर ज़ोर देते ही, कथा एक पक्षीय हो जाती है। जबकि संसार भर के विद्वानों की राय में सत्य का सिर्फ एक पक्ष नहीं होता!! इस आधार पर एक अच्छी कथा के सत्य को भी बहु-पक्षीय होना चाहिए। ताकि रसिकों के हृदय में कथा के प्रति निरन्तर जिज्ञासा बनी रहे...।'' (वही; पृ. 171)। यहाँ 'रसिक' लेखक के लिए कितना प्राथमिक है, देखा जा सकता है। पाठक के प्रति यह आत्मीय भाव मनुष्य होने के तहत तो है ही, जैसा कि मैंने कहा; यह लेखकीय आवश्यकता और विवशता के तहत भी है। ऊपर से लेखक अपनी प्रविधि में चाहे कितनी भी मसखरी-सी या अन्योक्ति-जैसी दिखाए, अन्दर से वह बहुत ही पाठक एवं वस्तुपरक प्रस्थिति में सक्रिय है। वह जो बार-बार यह युक्ति लाता है कि ''यह कथा सुन कर अब तुम भी मेरी नियति के चक्र में बँध गए हो। यदि तुम इस कथा को सम्पूर्ण करने वाले प्रश्न का उत्तर नहीं दोगे, तो तुम्हें कभी कोई कथा नहीं सूझेगी। ...यही नहीं, जब तक तुम मेरी इस कथा को लिख कर संसार में प्रकाशित नहीं करा दोगे, तब तक तुम कोई अन्य कथा भी नहीं लिख पाओगे।'' (वही; पृ. 210)। या यह कि ''ङ्गङ्गङ्ग जब तक तुम मेरी कहानी नहीं लिख दोगे, मैं इसी तरह तुम्हारे सपने में आता रहूँगा।'' (आईने, सपने और वसन्तसेना; भारतीय ज्ञानपीठ 2008; पृ. 25)। या यह कि 'ङ्गङ्गङ्ग यह अमूल्य आईना वह मुझे दे सकते हैं। मगर एक शर्त है..' (वही; पृ. 130), 'वह चाहते थे कि आईने का यह किस्सा लिखा जाए।' (वही)।
रवि बुले के इस पूरे युक्ति-विधान और प्रस्तावनापरकता की तह में जाने पर अहसास होता है कि लेखक सबसे ज़्यादा अपने फ़ायदे के लिए इसका प्रावधान करता है। यह लेखक के अपने सुरक्षा-कवच की तरह काम आता हुआ एक सुविधा की स्थिति उसके लिए पैदा करता है, जिसके तहत प्रकारान्तरता की प्रविधि का इस्तेमाल करते हुए वह अपने निशाने साधता चलता है। मैंने पहले कहा है कि रवि बुले एक तीर से कम से कम दो निशान तो साधते ही हैं। एक तीर से कई-कई निशाने लगाने की यह क्षमता दरअसल इसी प्रकारान्तरता की प्रविधि से आती है। जैसे 'हीरो : एक लव स्टोरी' कहानी का यह सन्दर्भ- ''इससे पहले कि मुहूर्त का सरपट घोड़ा अपने ही गर्दो-गुबार में गुम हो जाए, मैंने फैसला किया खुद ही हीरो बन जाने का। अपनी कहानी का खुद ही हीरो! किसी भी कहानीकार के लिए आग के दरिया में छलाँग लगाने के समान है यह कहना कि वही अपनी कहानी का हीरो है। लेकिन मेरी मजबूरी है।'' (वही; पृ. 26-27)।
रवि बुले की तारीफ़ यह है कि एक बहुत ही साधारण, बेमालूम, घिसी-पिटी-सी फ़िल्मी-सी कहानी को उन्होंने एक रचना का प्ररूप दे दिया! यह रवि बुले का ही बूता था! लगभग फ़िल्मी तौर-तरीके से कहानी की शुरूआत करते हुए लेखक तो एक 'लक्ष्मण झूला'-सा कहानी में तैयार करता है, पाठक उस पर 'झूलने' का मज़ा भी लेता है और उसकी जान भी साँसत में फँसी रहती है। लेखक प्रारम्भ में ही पाठक को इस मसौदे में उलझा कर कि कहानी का हीरो कौन?; कहानी के सिर-दर्द से आधा मुक्त हो लेता है। अब पाठक उलझता रहे और अपना सिर फोड़ता रहे! यह लगभग हर कहानी में रवि बुले का शिल्प है। वह कहानी की शुरुआत से ही पाठक को 'पटा' कर चलता है; कुछ इस तरह कि आगे यदि कुछ 'गरिष्ठ' या अ-सुपाच्य या असामान्य कह दिया तो उसे भी वह किसी ना-नुकुर के सहजता के साथ ले ले! लगभग हर कहानी में रवि बुले इस नुस्खे पर चले हैं। 'डर और प्रेम' कहानी तो इसका जैसे पुलिन्दा ही बन गई है। लेकिन देखने की बात यही तो है कि लेखक इन्हीं 'टोटकों' के सहारे वस्तु से होता हुआ कहानी की अन्तर्वस्तु में इक कदर गहरे उतर जाता है कि लगभग सभ्यता-समीक्षा तक ही पहुँच जाता है। पाठक की स्थिति ठीक ऐसी हो आती है जैसी 'डर और प्रेम' कहानी के फिल्म डायरेक्टर की अपनी कहानी पढ़ते हुए यह हो गई थी- ''कहानी पढ़ते हुए वे दिन, वे पल उसे कहीं गहरे छू गये। ङ्गङ्गङ्ग वह वापस आकर कुर्सी पर बैठा और टेबल पर रखी कहानी को ऐसे देखने लगा मानो वे पन्ने अभी हवाई जहाजों और नावों में बदल जाएँगे, ...और वह उनमें यात्री की तरह सवार होकर, उन्हीं दिनों में लौट जाएगा, उसी जगह पर लौट जाएगा, जहाँ प्यार की पहली और अन्तिम बूँद उसकी जुबान पर गिरने से ठीक पहले 'फ्रीज' हो गयी थी!!'' (वही; पृ. 82-83)। पाठक में आती यह 'तद्वत्ता' 'आईने, सपने और वसन्तसेना' के उन मर्द और औरत जैसी है, जो जब चाहे वसन्तसेना और वसन्तसेना के प्रेमी में बदल जाते हैं! इन कहानियों के बारे में यह कहना एकदम ही अपर्याप्त होगा कि इन्हें पढ़कर हम वह नहीं रह जाते, जो इन्हें पढऩे से पहले थे। बल्कि इसके स्थान पर यह कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा कि इन्हें पढ़कर हम वह हो जाते हैं, कुछ ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हैं कि जिसकी कल्पना तक कहानी-पाठ के दरम्यान हमें नहीं थी! कौन-सी, कैसी स्थिति है यह? कुछ स्पष्ट नहीं क्योंकि कहानी जहाँ समाप्त होती है, वह कोई एक आदर्श जैसी या निष्कर्षमूलकतापूर्ण स्थिति नहीं है, जैसी कि पिछली कहानियों की हुआ करती थी। पिछली पीढ़ी के सामने चीज़ें इतनी धुंधली नहीं थीं, जितनी अब हो गई हैं। अब धोखा सबसे बड़ी सच्चाई बनकर उभरा है- ''धोखा...!/धोखे पे धोखा...!!'' (वही; पृ. 115)। इस धोखे के अलावा भावुकता-हीनता भी आज की नई पीढ़ी की विवशता है- ''आइए प्रिय पाठक, हम बेकार किसी भावुकता में पडऩे के बजाय अपने समय के यथार्थ को स्वीकार करें और आगे बढ़ें।'' (वही; पृ. 116)।
किसी तरह की भावुकता में पड़े बग़ैर अपने समय के यथार्थ को स्वीकार करना और आगे बढऩा; तय है कि उसे 'उलाँघकर' ही; जैसा कि रवि बुले 'लापता नत्थू उर्फ दुनिया ना माने' कहानी में कहते हैं- ''नत्थू की डायरी के पन्ने ऊपर ही समाप्त हो जाते हैं। इसलिए अब इस अभियान को पाठकों से सीधी बात करनी पड़ रही है।'' (वही; प-. 23) या जैसा कि 'एक असाहित्यिक कथा' में शुरू में ही वे लिखते हैं - ''सच मानिए ये गूमड़ अपनी कीमत में किसी निजाम के हीरे-मोतियों से टक्कर लेते हैं। जी हाँ, इन्हीं गूमड़ों से निकलेगी स्टोरी! सिर के बल खड़ा कर देने वाली।'' (वही; पृ. 95); इक्कीसवीं सदी के पहले दशक की नई कथा-पीढ़ी की नियति है और असल पहचान भी। रवि बुले अपने आत्मकथ्य में एक जगह स्थिति को एकदम साफ कर देते हैं- ''रचना प्रक्रिया में समय वह मैदान होता है, जिस पर यह सारा खेल चल रहा होता है। मैंने सबसे ज्यादा किस समय को देखा और महसूस किया, वही मेरी रचना की धड़कन है। इसी समय की कोख से मेरे पात्र जन्म लेते हैं। उनका जीवन और उनकी मृत्यु इस समय के सापेक्ष होती है लेकिन वे जरूरत पडऩे पर समय की सीमाओं को लांघने से नहीं चूकते।'' (हिन्दी कहानी का युवा परिदृश्य-1; पृ. 168)। समय की सीमाओं को लाँघना कोई हँसी-खेल नहीं है। इसके लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती है। हर पल हर किसी से हर मुक़ाम पर कोई न कोई मुठभेड़ करनी पड़ती है। इस मुठभेड़ से किसी हालत में निजात नहीं। लेखन इस मुठभेड़ का पर्याय ही तो है- ''लेखन एक कठिन, बहुत कठिन काम है। यह हर पल मुठभेड़ है, अपने आप से। अपने नजदीक और दूर के लोगों से। अपने समय से। अपने देखे हुए से। अपने अनदेखे से, अपनी हकीकत से। अपने समय से। अपने देखे हुए से। अपने अनदेखे से, अपनी हकीकत से। अपने सपनों से। यह मुकम्मल संघर्ष है।'' (वही; पृ. 165)।
आप किसी भी लेखक के बारे में आज दावे के साथ पहले की तरह यह नहीं कह सकते कि वह अमुक विचारधारा से जुड़ा है। किसी न किसी विचार/विचारधारा से जुड़ा वह ज़रूर होता है लेकिन उसका वह न तो उल्लेख करता है, न ऐसा किया जाना उसे ज़रूरी लगता है। 'पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?' यह प्रश्न अप्रासंगिक नहीं हुआ है; हाँ, कुछ लोग ऐसे ज़रूर हैं, जिनके लिए 'पॉलिटिक्स' ताश का खेल हो गया होगा; रवि बुले के बारे में कहा जा सकता है कि वे इन लोगों में नहीं हैं। 'पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?' यह प्रश्न लगातार उन्हें बेचैन किए रहता है; इस कदर बेचैन कि किसी न किसी तरह ऐसे या वैसे नहीं तो 'दरेरा' देकर कहानी को उधर खींच ले चलते हैं। रवि बुले की कहानियाँ जो इतनी चक्करदार हैं, कदम-कदम पर इतने ट्विस्ट वहाँ भरे पड़े हैं, पल में तोला, पल में माशा, पल में रत्ती हो जा लेती हैं तो इसका कारण सम्भवत: यही है कि उनकी कोशिश होती है कि किसी भी तरह वे अपनी प्रतिबद्धता कथा की ज़मीन पर ला सकें! और कुछ इस तरह कि किसी को इसकी कानों-कान $खबर तक न होने पाए! पाठक को इसकी भनक लगे बिना नहीं रहती, लेकिन यह भनक कुछ ऐसी होती है कि जैसे गूँगे का गुड़- ''यह स्वाद गूंगे का गुड़ है...!!'' (वही; पृ. 167)। उनकी कहानियों के लम्बा होने की प्रक्रिया पर ऊपर बात की गई। इस लम्बाई के पीछे एक वज़ह यह भी हो सकती है कि लेखक 'अपनी बात' कहने रास्ता तलाशते-तलाशते लगातार हाँड़ता रहता है, कहानी को भी 'हँड़वाता' रहता है और तब जाकर किसी तरह कहीं उसे अपनी मंज़िल मिलती दिखाई देती है! जैसे 'लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने' कहानी का अन्तिम अंश, जिसमें लेखक अन्तत: नत्थू के मसले पर अपनी चिन्ताएँ सामने लाए बिना नहीं रह पाता- ''डायरी को लेकर कई सवाल मेरे मन में थे। मसलन, ङ्गङ्गङ्ग मैं सोचता हूँ कि अब भी नत्थू कम से कम एक बार मेरे सपने में आए और मेरे सवालों का जवाब दे दे। मैं उनका जिक्र किसी से नहीें करूँगा।'' (आईने, सपने और वसन्तसेना; पृ. 24-25)। यह लेखक के शिल्प का कमाल है कि पाठक फिर भी उन सवालों से, उनके न दिए हुए ज़बावों से रू ब रू होता चलता है। यह लेखकीय प्रतिबद्धता का बदला हुआ रूप है जो समय के दबाव के सन्तुलन में पैदा हुआ है।
लेखकीय प्रतिबद्धता का यह बदला हुआ प्ररूप रवि बुले की लगभग हर कहानी में मिलता है। लेखक एक शैल्पिक रणनीति के तहत अपना काम अंजाम देता है। वह पिछली प्रविधियों की तरह घोषित रूप से किसी के साथ नहीं है; नायक-खलनायक, अच्छे-बुरे इत्यादि की श्रेणियाँ खत्म-सी हो गई हैं। लेखक बिना किसी विशेषोल्लेख, बिना अपनी पसन्द-नापसन्द ज़ाहिर किए इतिवृत्त को आख्यायित करता चलता है। यह पाठक का दायित्व है कि वह अपने मन्तव्य वहाँ तलाशना चाहे तो तलाश ले! जैसे की 'एक्सक्लूसिव स्टोरी' कहानी के उस नए सम्पादक का यह रूपांकन- ''उसकी मुसकान में क्रूरता थी। वह जब ज़ोर से हँसता था, तो उसके ऊपर के होंठ उसकी नाक को छूते थे और उसके दाँत भयानक ढंग से बाहर निकल आते थे।'' (यूं न होता तो क्या होता; पृ. 133)। यह पुराने िकस्म का रुपांकन लेखक के आग्रहों की पर्याप्त सूचना दे देता है और 'क्रूरता', 'भयानक' जैसे शब्द भी लेखक की मंशा की तसदीक करते दिखाई देते हैं पर बात सम्पादक तक सीमित नहीं है, वह आगे अखबार मालिक तक जाती है। अखबार मालिक के बाबत लेखक लगभग 'न्यूट्रल' रहता 'दिखाई' देता है है- ''उसने नए अखबार मालिक को आश्वस्त किया कि वह वर्तमान बजट से आधे में अखबार निकाल सकता है। उसकी प्रतिभा को परखने का इससे बेहतर पैमाना नए अखबार मालिक के लिए क्या हो सकता था?'' (वही)। स्पष्ट है कि दाल में कुछ काला ज़रूर था, अन्यथा लेखक इस तरह की शब्दावली प्रयोग नहीं करता। आगे इस सबकी असलियत धीरे-धीरे एक-एक कर खुलती चलती है, जब 'रिसेशन' और नएपन का असल रूप और मकसद सामने आना शुरु होता है। लेखक अपनी तरफ़ से कोई पक्षकारी टिप्पणी नहीं करता। पाठक स्वयं समझने की प्रक्रिया में आता चलता है कि किस तरह रिसेशन और नएपन का अर्थ पत्रकारिता का नीलामीकरण है, उसकी सौदेबाज़ी है, 'डील' करना (द्रष्टव्य, वही; पृ. 147) है। नएपन का अर्थ न जाने किस जादुई छड़ी से स्थापित मूल्यों और मानकों का उलटपन लिया जाना शुरु हुआ- ''लेकिन दीनदयाल पाराशर के देखते-देखते सब उलट-पुलट हो गया। पत्रकारिता 'मिशन' से प्रोफ़ेशन बन गई और फिर...? ङ्गङ्गङ्ग 'सौदेबाज़ी, कमीशनबाज़ी, दलाली, ब्लैकमेलिंग, चापलूसी... भैया अब तो यही पत्रकारिता के दूसरे नाम हैं। जिनको इन कामों में जितनी महारत हासिल, वह उतना ही बड़ा पत्रकार। बाकी सब भुच्च-गँवार...।' (वही; पृ. 125)
पत्रकारिता के बारे में तो यह कहानी जो कहती है, वह कहती ही है; राजनीति/सत्ता, पूँजी, हर तरह के माफ़िया, गुण्डई इत्यादि के साथ पत्रकारिता के सम्बन्धों, अन्तर्निर्भरताओं इत्यादि पर भी खुलकर बात करती है। नए सम्पादक का जो परिचय कहानी में दिया गया है, वही यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि पत्रकारिता का आने वाला समय अब कैसा होना है- ''वह रातोंरात अमीर बनने, हवाई यात्राएं करने, देश-विदेश घूमने, सैकड़ों स्त्रियों को भोगने के लिए पत्रकारिता में आया था। वह किसी भी सरकारी अफ़सर, नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्य मंत्री, केन्द्रीय मंत्री और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री के साथ 'कौन बनेगा करोड़पति' खेलने के लिए तैयार था। वह हर अमीर, हर बिज़नेस मैन, हर दलाल, हर वेश्या को 'आ गले लग जा' कहने के लिए तैयार था। वह अपनी नज़र में आदर्श था। वह चाहता था कि दूसरे भी उसे आदर्श मानें। उसकी सेवा करें। उसके लिए श्रम करें। उसे विश्वास था कि आने वाली नस्लें उसके बनाए रास्ते पर ही चलेंगी। उसे अपना मसीहा मानेंगी।'' (वही; पृ. 132-33)। पत्रकारिता के क्षेत्र में पनपी यह माफ़ियागिरी और संवेदनहीनता उस समय चरम पर पहुँच जाती है जब कहानी के अन्त में दीनदयाल पाराशर की मृत्यु की खबर छपने और शोक-सभा के विवरण है। दीनदयाल  की मृत्यु की $खबर ऐसे छपी मानो कोई सहकर्मी नहीं मरा हो, किसी अवांछनीय व्यक्ति से पीछा छूटा हो! जैसे कोई अनाथ/बेघरबार मनुष्य/प्राणी मरे! जैसे कीड़े-मकोड़े मरते हैं! उसके अपने कन्सर्न से लेकर पीएमओ तक सब इसके प्रति एक तरह की तदर्थता/संवेनहीनता/यथातथ्यता-सी में गिरफ्तार दिखाई देते हैं। सचमुच में दीनदयाल पाराशर जैसे लोगों से किसी को अब कुछ लेना-देना नहीं! मीडिया का यह वह नया/बदला हुआ रूप है, जो अन्य उपागमों की तरह ही किसी महामारी की तरह भूमण्डलीकरण/नवउपनिवेशीकरण की चपेट में सहर्ष आया है। पाठक सकते में है कि आिखर यह हो क्या रहा है?
यह हैरान कर देने वाला तथ्य है कि 'यूँ न होता तो क्या होता' की चारों कहानियाँ अन्त में मौत की इबारत पर जाकर खत्म होती हैं। ये ही नहीं, उससे पहले की भी कहानियों में अनेक इसी तरह की हैं जिनमें मृत्यु का परमच लहराता रह जाता है। जैसे कि 'लापता नत्थू उर्फ दुनिया ना माने', 'पुरखों का घर' और 'डर और प्रेम'। कुछ हद तक 'आईने, सपने और वसन्तसेना' भी क्योंकि यहाँ 'आईना' की मौत होती है और प्रकारान्तर से वसन्तसेना की भी! रवि बुले को, लगता है, ऐसी मृत्युपरक कहानियाँ लिखने में एक अलग िकस्म का आनन्द आता है। इन कहानियों को देखते हुए मुझे लगातार राजेश खन्ना की बहुत सारी फ़िल्में याद आती रहीं, जिनमें अन्त में नायक की दर्दनाक मौत होती है। वैसे तो बॉलीवुड में ऐसी मरणान्त फ़िल्में अरसे से बनती रही हैं लेकिन मेरी याददाश्त में राजेश खन्ना अभी भी जीवित है। यहां तुलना विषयवस्तु की नहीं, शिल्प-विधान की हो रही है, हालाँकि ये दोनों चीजें एक-दूसरे से इतनी जुदा-जुदा और अलहदा भी नहीं होतीं। कुल मिलाकर यह कि ये मौतें मूल्यनिष्ठा की हो रही हैं, ईमानदार और सत्यनिष्ठ लोगों की हो रही हैं, ऐसे लोगों की हो रही हैं जो प्रतिरोध में खड़ा होना चाहते थे, या ऐसे लोगों की, जो कतार में खड़े आखिरी आदमी (द्रष्टव्य, वही पृ. 122) की तरह चुपचाप अपनी सीधी-सादी ज़िन्दगी जिए जाते थे, पर यह भी समय की चाल को मन्जूर नहीं हुआ! जैसे कि 'यूँ न होता तो क्या होता' कहानी के पाण्डे जी। बाकी के लोग भी लगभग इसी तरह के सामान्य-साधारण ही हैं। रवि बुले की कहानियाँ बताती हैं कि अब एक ऐसा समय आ गया है कि ऐसे लोगों का जीना लगभग मुश्किल हो गया है। रवि बुले $खास तौर से यह ज़रूर सन्दर्भित करते हैं कि दरअसल यही सामान्य-साधारण लोगों का वह तबक़ा है, जो अभी भी मूल्यनिष्ठता की राह पर चल रहा है, अभी भी जिसके इरादे गड़बड़ाए नहीं हैं, अपनी प्रतिबद्धताओं और प्राथमिकताओं पर अभी भी जो पहले की तरह की सक्रिय और समर्पित है! जैसे कि दीनदयाल पाराशर: ''दीनदयाल पाराशर न देव थे, न ऋषि और न दार्शनिक। लेकिन फिर भी एक बेचैनी उनके भीतर भनभानाती रहती थी। दुनिया के, देश के, समाज के, व्यक्ति के... सवाल उन्हें परेशान करते थे।'' (वही; पृ. 125)। संकट यह खड़ा हो गया कि अब ये सवाल, ये चिन्ताएँ अरण्य-रोदन से ज्यादा कुछ नहीं रह गईं! क्योंकि सत्ता पर इस समय जो लोग क़ाबिज़ हैं, जिन लोगों के हाथ में लोगों के जीवन की कुंजी है, वे लोग किसी और ही दुनिया के जीव हैं। उन्हें यह सब मूर्खतापूर्ण और आउटडेटेड लगता है। दीनदयाल पाराशर जब एक बार यूँ ही अपने नए सम्पादक से अपनी इस तरह की बात शेयर करते हैं तो जो टका-सा ज़वाब इसका उन्हें मिलता है, वह देखने लायक था- ''तू तो बहुत इंटेलिजेंट है डीडी। सारे इकोनॉमिस्ट, सारे ब्यूरोक्रेट्स.. इतना बड़ा सिस्टम चलाने वाले.. देश चलाने वाले.. सब गधे हैं। तू ही समझदार है। एक काम कर... मैं हट जाता हूँ.. तू मेरी जगह बैठ..। ठीक..। ङ्गङ्गङ्ग डीडी.. मेरे साथ काम करना है, तो दिमाग से सोचा कर... दिल से नहीं...। समझा। चल, अब फूट...'' (वही; पृ. 141)। निश्चय ही भूमण्डलीकरण, नवउपनिवेशवाद, खुला बाज़ारवाद, नवपूँजीवाद ये सब चीजें दिमागी सोच की ही तो उपज हैं। यहाँ बरबस मुझे उदय प्रकाश की नब्बे के दशक में लिखी अभूतपूर्व कहानी 'पॉल गोमरा का स्कूटर' याद आती है। क्या प्रकारान्तर से रवि बुले की कहानियाँ इसी कथा-यथार्थ का अगली ज़रूरी विकास नहीं हैं? क्या यह देश अब पूरी तरह 'पॉवरपुल मनीड पीपुल्स' के हाथ में नहीं चला गया है? अब यहाँ रामगोपाल सक्सेना या कहें कि दीनदयाल पाराशर या पाण्डे जी जैसे दिल से सोचने, देश के लिए मर-मिटने का जज़्बा रखने वाले आम लोगों की क्या बिसात!
रवि बुले के मार्फ़त एक लगभग नया कथा-विन्यास इधर उभरकर सामने आया है। वह है, कथा के सत्य यानी यथार्थ का अनिवार्यत: बहुपक्षीय होना। इसकी ओर थोड़ा संकेत ऊपर किया गया है। रवि बुले में यह एक कथा-विन्यास भी है और एक युक्ति भी। इसके संरचनागत पक्ष पर भी यत्किंचित ऊपर विचार किया गया है। यह दरअसल लेखक की वैचारिक पक्षधरता, आग्रह से जुड़ा मसला है। मैंने ऊपर कहा कि अब लेखक के लिए यह ज़रूरी नहीं कि वह अपनी रचना में किसी तरफ़ हो ही। उसके लिए इतना काफी है कि वह सत्य के विविध पक्षों को, यथार्थ के सम्भावित रूपों को कथान्वित कर दे और परे हो जाए। हालाँकि अपनी कहानी के प्रति इस तरह तटस्थ हो रहना आसान बात नहीं। लेखक का सुझाव किसी न किसी के प्रति, चाहे एकदम नगण्य ही क्यों न हो, होता ही है। लेकिन जहाँ जंग छिड़ी है। लेखक के सामने एक नई चुुनौती दरपेश हुई है। कुछ इस तरह कि देखें, तुम्हारे अन्दर कितना दम है, कितनी देर तुम 'वस्तुनिष्ठ' रह पाते हो! वस्तुनिष्ठता की पिछली सारी परिभाषाएं सन्देह के घेरे में हैं। अपने वामपन्थी इरादों को वस्तुनिष्ठता की आड़ देकर तुमने खूब भुनाया है। अब समय बदल गया है। अब यह 'एकपक्षीयता' नहीं चल सकती। अब सत्य के दूसरो पक्षों को भी सामने लाना होगा। अपनी विचारधारा परे करनी होगी। विचार से ज़्यादा सच्चाई के विभिन्न पक्षों को सामने लाना आज ज़रूरी है। 'हैल विद योर आइडियोलोजी!' आप उसे अपने पास रखें। उसकी अब किसी को ज़रूरत नहीं!
यह कतई आश्चर्य की बात नहीं है कि नए लेखकों ने इस शर्त को बाक़ायदा मंजूर किया है और बावजूद इसके नायाब जनोन्मुख/जनवादी कहानियाँ दे रहे हैं। जनवाद दरअसल अब अकेले लेखक की जिम्मेदारी नहीं रह गया है, पाठक खुद आगे बढ़कर उसकी आख्या कर रहा है। यह रचनाधिगम का बदलता प्ररूप है, जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। उत्तर-आधुनिक पाठ-प्रविधि में इसे गहरे रेखांकित किया गया है। जो हो। कहना हमें यह है कि नए लेखक नए साहित्यिक निज़ाम की व्यवस्थाओं को उन्हीं के हिसाब से निबाहते हुए अपना मतलब साध रहे हैं। उन्हें जो कहना है उसे बामुरव्वत कह दे रहे हैं और किसी तरह का कोई 'समझौता' नहीं कर रहे हैं। रवि बुले का यह अभिकथन; जिसका ऊपर हमने ज़िक्र किया कि एक अच्छी कथा के सत्य को बहुपक्षीय होना चाहिए, इसी के अन्तर्गत है। एक तरह से देखा जाए तो यह बहुपक्षीयता लेखक के लिए एक रचनात्मक वरदान की तरह है। यहाँ उन लेखकों की बात नहीं की जा रही है, जो बहती गंगा में हाथ धोने में ही अपना कृतित्व सार्थक समझते हैं।
रवि बुले के बारे में कहा जा सकता है कि वे काफी वैचारिक तैयारी के साथ लेखन की दुनिया में आए हैं। उन्हें नए और पुराने बहुत सारे विमर्शों की बाक़ायदा जानकारी होनी चाहिए। जो हो। यह तय है कि वे सत्य या यथार्थ के इतने सारे पक्षों से सुपरिचित हैं कि कहानी पनाह माँगने लगती है। लम्बी होने के साथ-साथ कहानी यथार्थ-चित्रण की दृष्टि से इतनी स्वत: सम्पूर्ण होने लगती है कि कहीं और जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। रवि बुले की कहानियों पर एक साथ निगाह डालने पर प्रतीत होता है कि लेखक जैसे इसका पक्का, जमा हुआ खिलाड़ी है। वह शुरू से ही कहानी के कैनवास को इतना फैलाकर चलता है कि पाठक को यह होश ही नहीं रहता कि वह किधर ले जाया जा रहा है! इस मामले में लेखक भारतीय कथा-परम्परा की प्रविधियों का बेखटके इस्तेमाल करता है। पंचतन्त्र, वैताल पचीसी, हितोपदेश तथा और भी कई शैलियों-प्रविधियों को अपनाते हुए लेखक यथार्थान्विति की एक दूसरी ही दुनिया हमारे सामने खोल देता है। क्या इसे रवि बुले की अप्रतिहत कथा-प्रतिभा नहीं मानना चाहिए कि उन्होंने परम्परागत भारतीय कथा-प्रविधियों को आज के नए उत्तर-आधुनिक बहुलतावादी समय में नए सिरे से ज़बर्दस्त रूप से प्रासंगिक और अपरिहार्य बना दिया है? इन पुरानी कथा-प्रविधियों की अन्तर्निहित शक्ति से एक बार फिर हम नए सिरे से परिचित होते है! विचारों और विमर्शों की भूल-भूलैया में पडऩे की ज़रूरत ही नहीं, यह कथा-प्रविधि ही आपको इहलोक-परलोक की सैर करा देगी! रवि बुले की लगभग सारी ही कहानियाँ इसी रास्ते पर चली हैं। सत्य/यथार्थ की बहुपक्षीयता शुरू से ही उनका कथात्मक लक्ष्य रहा है। चाहे वे 'आईने, सपने और वसन्तसेना' की कहानियाँ हों या 'यूँ न होता तो क्या होता' की कहानियाँ इसी तरह की हैं। इनमें दो कहानियों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है - 'हिल स्टेशन पर औरत' और 'आईने, सपने और वसन्तसेना'। ये दोनों ही कहानियाँ सत्य के बहुपक्षीय होने की बेहतरीन मिसाल हैं। ध्यान देने की बात है कि ये दोनों ही कहानियाँ स्त्री-पुरुष के प्रेम/यौन की कहानियाँ हैं। प्रेम और यौन के दो पक्ष तो स्पष्ट हैं ही। पुरुषों और स्त्रियों के सन्दर्भों से इनके और भी कई-कई पक्ष एक-एक कर सामने आते चलते हैं। 'हीरा: एक लव स्टोरी', 'डर और प्रेम', 'एक असाहित्यिक कथा'  इत्यादि कहानियाँ इस लिहाज़ से देखी जा सकती हैं। इस दृष्टि से 'मैं, एक बयान' भी देखी जानी चाहिए। इस कहानी में एक भिन्न ही $िकस्म का हैरतअंगेज़ यथार्थ है। इस यथार्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे वर्गीकृत या श्रेणीबद्ध नहीं किया जा सकता है। यह इधर भी पाया जाता है और उधर भी। लेखक की सफलता इस बात में है कि वह जितना इसमें डूबा है, उतना ही इससे बाहर है और जितना इससे बाहर है, उतना ही इसमें गहरे धँसा है। इससे भी बड़ी बात एक यह है कि जब लोग समझते हैं या समझ सकते हैं कि लेखक कथावस्तु में डूबा है, वह शान से उससे बाहर मटरगश्ती करता घूमता नज़र आता है और जब लोगों को लगता है या लग सकता है कि लेखक बड़ी लापरवाही से इधर-उधर हाँड़ता फिर रहा है, उसे अपनी कहानी का कोई होशो-हवास ही नहीं है; पता चलता है कि वह तो अरसे से नज़र ही नहीं आया है, वह अपनी कहानी के न जाने किस तहखाने में घुसा बैठा न जाने किस कतर-ब्योंत में लगा है! एक तरह से यह जादू लम्बी कहानी की अपनी फ़ितरत भी कही जा सकती है।





शंभू गुप्त 'पहल' के शुरुआती दिनों से साझीदार रहे हैं। वर्तमान में महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, वर्धा से सम्बद्ध है।


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