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जनवरी 2015

इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां

जितेन्द्र भाटिया

प्रेमचंद का होरी:'पीपली लाइव' से 'बिटर सीड्स' तक

अजीब सानिहा मुझपर गुजर गया यारों
मैं अपने साये से कल रात डर गया यारों

हर एक नक्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक जख़्म मेरे दिल का भर गया यारों

भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क-ए-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारों

वो कौन था वो कहां का था क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख़्स मर गया यारों

शहरयार की गज़ल का यह 'सुररियलिस्टिक', अमूर्त रूपक हमें बेतरह बेचैन करता है। इसका स्मरण मुझे एक ऐसे चौंका देने वाले तथ्य को पढ़ते हुए आया, जिसे कुछ लोग प्रगति का परिचायक मानकर खुश भी हो सकते हैं—
''पिछले दस वर्षों से हमारे देश में 2774 नए नगर-उपनगर वजूद में आ गए हैं!'' — (''डाउन टु अर्थ'' अक्टूबर 2014)
क्या हम इस सूचना के मूर्त-अमूर्त निहितार्थ का अंदाजा लगा सकते हैं? क्या यह जानना ज़रूरी नहीं कि इन 2774 नए शहरों की कांक्रीट की तामीरों के नीचे इन 'नव-नगरों' से पहले क्या रहा होगा? कितने जंगलों, कितने खेलों, कितने खलिहानों, कितने पानी के स्रोतों, बगीचों और कितने परिंदे-चरिंदों की दुनिया उजाडऩे के बाद इस शहर को अपनी यह क्रांक्रीट की तामीर नसीब हुई होगी? बात चूंकि शायरी से निकली है इसलिए शहरयार से आगे सुदर्शन फाकिर से मिलते चलें—
चंद मासूम से पत्तों का लहू है 'फ़ाकिर'
जिसको महबूब के हाथों की हिना कहते हैं
और इससे भी आगे मोहसिन नकवी और गुलाम अली—
ये दिल ये पागल दिल मेरा, क्यों बुझ गया आवारगी
इस दश्त में इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी
प्रगति के नाम पर समूचे देश के शहरीकरण की यह प्रक्रिया दहला देने वाली है। चेन्नै की दीवारें धीरे-धीरे बढ़ती हुई अब महाबलिपुरम को छूने लगी हैं, जयपुर की सरहदें सोडाला और उससे आगे अजमेर तक पहुंच जाएंगी आने वाले समय में। पुणे और मुंबई के बीच अब कई-कई उपनगरों का अंतहीन सिलसिला बन चुका है। बेंगलूरू अपने साथी शहर मैसूर को छू लेने के लिए बेताब नज़र आता है। दिल्ली और गुडग़ांव का फर्क बहुत पहले मिट चुका है। कोलकाता सॉल्ट लेक सिटी एक, दो और तीन को पार करता हुआ एक दिन बांग्लादेश की सरहद तक फैल जाएगा। लेकिन यह तो सिर्फ बड़े शहरों के फैलाव की बात हुई जहां नगर निगम, नगर विकास और शहर योजना जैसी संस्थाओं का अस्तित्व है। इन सबसे  बाहर आएं तो पता चलेगा कि कस्बा, हर उपनगर और हर तहसील का इलाका अपने चारों ओर अव्यवस्थित झुग्गी-बस्तियां, टपरियां, छोटे-मोटे ढांबे, खटालें और पान के खोखे किसी बेशक्ल अमीबा के आकार में यहां वहां फैलाने लगे हैं। यदि इस समस्या को आम लोगों के नज़रिए से समझा जाए तो सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि ये सारे लोग— जाएं तो जाएं कहां?
देश में स्वतंत्रता के बाद से जनसंख्या का विस्फोट एक विकराल प्रश्न रहा है जिसकी रोकथाम का कोई कारगर रास्ता आज तक किसी की समझ में नहीं आया है। राजनीतिज्ञों से इसका हल ढूंढने की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं की जा सकती क्योंकि उनकी सत्ता का समूचा अस्तित्व ही इस वोटबैंक और इसके फैलते स्वरूप पर निर्भर होता है। दुनिया के दायरे में अपने देश को देखा जाए तो संकट यह है कि हमारे देश का भौगोलिक क्षेत्रफल दुनिया के समूचे जमीनी क्षेत्रफल का मात्र 24 प्रतिशत है, जबकि हमारे यहां दुनिया की 17 प्रतिशत जनसंख्या और इसके साथ-साथ दुनिया के 15 प्रतिशत मवेशी वास करते हैं। इनमें से हर एक को जीवित रहने के लिए दो बलिश्त जमीन, एक मुट्ठी आसमान, दो जून की रोटी चाहिए। देश के 55 प्रतिशत क्षेत्रफल पर खेती होती है और जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, इसकी उत्पादकता आज भी पूरी तरह मानसून की बारिश पर मयस्सर है। समस्या का सबसे गंभीर पक्ष यह है कि जहां एक तरफ हमारी जनसंख्या दुनिया में सबसे तेज रफ्तार से बढ़ रही है, वहीं खेती के लिए मुकर्रर क्षेत्रफल में पिछले कई वर्षों में न सिर्फ कोई इजाफा नहीं हुआ है, बल्कि शहरीकरण और औद्योगीकरण के दबावों तले इसका कुल सक्रिय क्षेत्रफल लगातार संकुचित होता चला गया है। देश के इन 2774 नए शहरों ने अपने फैलाव के लिए यह जमीन कहां से और कैसे हथियाई होगी, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए। आने वाले वर्षों में यह समस्या हमें और हमारे बच्चों को किस भयानक भविष्य की ओर धकेलेगी, इसकी कल्पना ही रातों की नींद उड़ाने या कि अपने साए से स्वयं ही डर जाने के लिए काफी होनी चाहिए।
वर्तमान राजनीतिक आबोहवा में बीजेपी सरकार जिस जोश-खरोश के साथ औद्योगीकरण को बढ़ावा दे रही है, जिस रफ्तार के साथ पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील इलाकों में अंधाधुंध खनिजों के दोहन की रुकी हुई प्रक्रिया फिर शुरू की जा रही है, जिस निकट-दृष्टिता के साथ सकारात्मक कृषि योजनाओं को राजनीतिक दबावों के तहत खारिज या मुल्तवी किया जा रहा है और पर्यावरण की ओर ध्यान खींचने वाले एनजीओ संस्थानों पर जिस तरह का अंकुश शिकंजा कसा जा रहा है, उससे भविष्य के लिए कोई खास उम्मीद भी नहीं जागती। बल्कि लगता यही है कि वर्तमान सत्ता के मधुमास हनीमून काल से आगे, निकटवर्ती भविष्य में कुछ 'और भी अच्छे दिन' हमारा इंतजार कर रहे हैं।
धरती हमारे जीवन का स्थायी सत्य है। वह हमारे पीछे से आयी है और हमारे आगे तक जाएगी। वह न बढ़ सकती है न कम हो सकती है। अपने आज के और आने वाले कल के सारे संसाधन हमें इसी तयशुदा धरती से उगाहने और बांटने हैं। यदि हमारी ज़रूरतें या हमारे खाने वाले मुंह अधिक हैं तो जिंदा रहने के लिए हमारे सामने धरती की उत्पादकता बढ़ाने के सिवाए कोई चारा नहीं। हमारे इस एक वाक्य की तीनों रेखांकित संज्ञाओं में हमारा दर्शन, हमारी विचारधाराएं, हमारा विज्ञान, हमारा समाजशास्त्र और हमारी सारी समझ समाहित है। लेकिन ध्यान से देखें तो हर संज्ञा के समानांतर एक दुरभिसंधि भी लगातार हमें अपने साथ चलती दिखाई देगी।
हमारा दर्शन और अध्यात्म हमें लगातार ज़रूरतें कम करने का सबक सिखाता है। ज़रूरतों को कम करने में कहीं अपव्यय रोकने और संसाधनों को नष्ट न करने का भाव भी समाहित है। यही प्रकृति का नियम भी है। जंगल का जानवर भी अपनी भूख से अतिरिक्त कभी शिकार नहीं करता। लेकिन इसके विपरीत खड़ा है हमारा विश्वयापी उपभोक्तावाद, जो लगातार हमें अपनी हैसियत से कहीं आगे निकलकर जरूरतों में इज़ाफा करने की सीख देता है। मीडिया और मार्केटिंग के तमाम लटकों-झटकों से यह उपभोक्ता को आकर्षित करने का हुनर बखूबी जानता है। संसाधनों की तात्कालिक किल्लत को कल पर टालने के कई प्रावधान भी इस उपभोक्तावाद के पास है। क्रेडिट कार्ड, ईएमआई, क्रेडिट नोट और बैंक से ऊंचे ब्याज पर पैसे उधार लेने के लिए कई तरह की 'लोन' योजनाएं। किश्त जमां न कर पाने पर उपभोक्ताओं को पहलवानों और गुंडों से पिटवा देने का मुकम्मल इंतज़ाम भी इसके पास है। आंकड़े बताते हैं कि देश में किसानों द्वारा आत्महत्या की अधिकांश वारदातों का मूल कारण बैंक या साहूकार को ब्याज की किश्त न अदा कर पाना और इसके परिणामस्वरूप ज़मीन से हाथ धोना रहा है।
खाने वाले मुंहों की गिनती का सीधा रिश्ता देश की जनसंख्या से हैं। निस्संदेह इसे नियंत्रण में लाना एक बड़ी चुनौती है। लेकिन दूसरी ओर हकीकत यह भी है कि इस धरती पर फिलहाल सभी के लिए पर्याप्त भोजन और संसाधन हैं और वास्तविक समस्या इन संस्थानों के अभाव की नहीं, बल्कि इनके सुचारू वितरण और बंटवारे की है। आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में 30 से 35 प्रतिशत फलों का उत्पादन संरक्षण के साधनों की कमी के कारण नष्ट हो जाता है। अमरीका जैसे देश में मक्का और दूसरी फसलों के हज़ारों टन अतिरिक्त उत्पाद को जलाकर राख कर दिया जाता है, ताकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में उसकी कीमत ज़रूरत से ज़्यादा गिरने न पाएं। वहीं दूसरी तरफ अधिक बड़ा सवाल संसाधनों के न्यायसंगत, जनतांत्रिक और मानवतावादी बंटवारे का है। 'बहुजन सुखाय' के भारतीय सिद्धांत के विपरीत पूंजीवाद अपने धन से और अधिक धन उपजाने (क्रीएशन ऑफ वेल्थ) की सीख देता है। इसके दूसरी ओर माक्र्स का समाजवाद दुनिया की जनसंख्या को मोटे तौर पर पूंजी लगाने वाले और श्रम बेचने वाले किसानों/मजदूरों में बांटता है। वह इन दोनों के बीच एक तीसरे निर्णायक मध्यवर्ग को भी परिभाषित करता है जो एक तरह से समाज में उत्प्रेरक या 'कैटेलिस्ट' का किरदार अदा करता है और जिसके निर्णायक वोट से ही आने वाली दुनिया में परिवर्तन आना संभव है। पूंजी लगाने वाले पाले से बाहर खड़े दोनों साधन-विहीन वर्गों की संख्या बहुत अधिक है, लेकिन फिर भी वे निर्णायक भूमिका में नहीं हैं क्योंकि संसाधनों पर सारा नियंत्रण पूंजी वाले वर्ग के हाथ में है। हमारा संविधान देश के हर निवासी को भोजन, शिक्षा और जीवन-यापन की सुरक्षा और समानता मुहैया कराता है लेकिन हम सब जानते हैं कि देश के ज़मीनी हालात संविधान के इन सूत्रों से कितनी दूर हैं।
उत्पादकता एक सापेक्ष शब्द है जिसका अर्थ अक्सर इस्तेमाल करने वाले के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। हमारी ज़रूरतों और इन ज़रूरतों की तलबगार जनसंख्या को देखते हुए ज़मीन की उत्पादकता बढ़ाना एक अत्यंत महत्वपूर्ण मसला है। लेकिन किसी ज़मीन की उत्पादकता वहां कल पुर्जे निर्यात करने का कारखाना बिठाकर या फिर वहां एक फाइव स्टार होटल खड़ा कर भी बढ़ायी जा सकती है। पूंजीवादी समाज उत्पादकता को पूंजी निवेश और उस पर होने वाले लाभ (रिटर्न ऑन इनवेस्टमेंट) के इकहरे आर्थिक नज़रिए से आंकता है जबकि एक छोटा किसान उसे अपने छोटे से खेत में पैदा होने वाले टमाटरों के वज़न से आंकेगा। नज़रिया उसका भी लाभ-परक ही है, लेकिन अपनी खेती से वह इंसान की मूलभूत आवश्यकता उपलब्ध कराता है। टमाटरों की यह जरूरत कल-पुर्जों या पांच सितार होटल के वातानुकूलित कमरों से पूरी नहीं हो सकती। इसलिए हमें मानना होगा कि कृषि के लिए मुहैया ज़मीन पर औद्योगिक गतिविधियों की घुसपैठ स्वीकार्य नहीं है। उस जमीन का इस्तेमाल सिर्फ कृषि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए ही किया जा सकता है। कोई भी सभ्य और विकसित समाज अपनी जमीन की हर तरह से रक्षा करता है। उसमें खेत, खलिहान, जंगल, आवास स्थल, कारखानों और खेल के मैदान—सबके लिए एक जगह मुकर्रर होती है और किसी भी कीमत पर इनमें से एक को दूसरे में स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। जीवन की कुछ आवश्यकताएं और उनसे जुड़े कुछ शाश्वत मूल्य ऐसे होते हैं कि उनका न तो मोल-भाव किया जा सकता है और न ही उन्हें पूंजीवाद के 'रिटर्न ऑन इनवेस्टमेंट' के काले चश्मे से परखा जा सकता है।
तो ले-देकर हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते है कि 'क्रिएशन ऑफ वेल्थ' के रास्ते 'बहुजन हिताय' के लक्ष्य तक पहुंचना नामुमकिन है क्योंकि दुनिया में कुछ चीज़ों का मूल्य पैसों में नहीं आंका जा सकता। ये हमारे जीवन का अपरिहार्य हिस्सा होती हैं। हमारी चिंता जीवन के इन्हीं अपरिवर्तनीय, अपरिहार्य तत्वों पर मंडराते खतरों को लेकर है और इस श्रृंखला में भी हर बार हम जीवन के कुछ ऐसे ही खरीद-फरोख्त की परिधि से बाहर शाश्वत मूल्यों को बचाने की जोखिम भरी लड़ाई लड़ते हैं। दुष्यंत के शब्दों में—
जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में, गुलमोहर के लिए
ऐतिहासिक समय से हमारा देश कृषि प्रधान रहा है। सदियों से हमने अपनी सरजमीन पर धरती के बंटवारे और उसके छिन जाने की लड़ाई लड़ी है और आज भी लड़ रहे हैं। बल्कि आज के समय में हालात पहले से कहीं अधिक संगीन हो उठे हैं क्योंकि आज खतरा गैरों से नहीं, बल्कि अपने स्वयं के साये से, या कि उन पहरेदारों से है, जिन्हें हमने बहुत खुलूस के साथ अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी है। बकौल 'शकील' —
मेरा अज़्म इतना बुलंद है, कि पराये शोलों का डर नहीं
मुझे खौफ आतिश-ए-गुल से है, ये कहीं चमन को जला न दे
हमारी अधिकांश खेती आज भी छोटे किसानों के बल-बूते पर टिकी है। 2010-2011 की जनगणना के अनुसार 2 हेक्टेयर या इससे कम जमीन के मालिक किसान-खेतिहर इनकी कुल संख्या का 85 प्रतिशत थे, जब कि उनके द्वारा जोती जाने वाली ज़मीन कुल जोती जाने वाली ज़मीन का मात्र 44 प्रतिशत थी। आंकड़े बताते हैं कि कृषि के लिए उपलब्ध कुल ज़मीन में छोटे किसानों द्वारा जोती जाने वाली ज़मीन का हिस्सा लगातार कम हो रहा है, यानी यह ज़मीन या तो बड़े किसानों और कॉर्पोरेटों के नाम स्थानांतरित हो रही हैं या फिर इन ज़मीनों का इस्तेमाल गैर-कृषि कामों के लिए होने लगा है।
एक अन्य सरकारी स्रोत के आंकड़ों के अनुसार पिछले दो-तीन दशकों में छोटे किसान लगातार कृषि से विमुख होते जा रहे हैं क्योंकि इसके ज़रिए अपने और अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी मुहैया करना भी अब मुश्किल हो गया है। देश में किसानों की आत्महत्या और इन आत्महत्याओं से जुड़ी मीडिया और राजनीति की उठापटक को नयी निर्देशिका अनुषा रिज़वी ने अपनी फिल्म 'पीपली लाइव' में विमर्श का विषय बनाया है। इस फिल्म की कहानी भी अंत में हमें उसी मोड़ पर छोड़ती है जहां मुख्य किरदार नत्था अपनी ज़मीन से हाथ धो चुकने के बाद हमें नई बहुमंजिला इमारतों की 'साइट' पर मजदूरों की टोली में चुपचाप बैठा नजर आता है। इसी के साथ फिल्म खत्म होने से पहले सरकारी हवाले से यह सूचना भी हमें देती है कि पिछले एक दशक में छ: लाख से अधिक अधिकृत भूमिस्वामी किसानों ने खेतीबाड़ी छोड़कर छुट्टी मजदूरी की तलाश में शहर की ओर पलायन किया है। इस छ: लाख के मामूली आंकड़े में कितने ही हजारों नाम छूटे होंगे और कितने आज बड़े शहरों की जगह देश के उन 2774 'नव-नगरों' की 'फ्लोटिंग' जनसंख्या का हिस्सा बन ढाबे में जूठे बर्तन धोने या भीख मांगने के व्यापक व्यवसाय में जुटे होंगे, इसका अंदाज़ा आप सहज ही लगा सकते हैं।
कुछ सुधी समीक्षकों ने 'पीपली लाइव' को किसानों की आत्महत्याओं का 'बॉलीवुड' संस्करण और 'मंहगाई डायन खाए जात है..' जैसे गीतों तथा गांव में मीडिया के जमावड़े को सिनेमा की 'फिल्मी नौटंकी' बतलाया था। उनकी जानकारी के लिए हम उन्हें आंध्रप्रदेश के पूर्व गोदावरी जिले में छोटे से गांव टाटीपार्थी गांव में ले चलते हैं जहां हालात 'पीपली लाइव' जितने नाटकीय तो नहीं, लेकिन अपने निहितार्थ में इस फिल्म से कई गुना अधिक संगीन है। 12 मार्च 2013 को वहां के एक परिवार के एकमात्र जीविका जलाने वाले सपूत 25 वर्ष के हरिबाबू ने 'टिक ट्वेंटी' कीट नाशक की बोतल गले में उड़ेलकर अपनी जान ले ली। परिवार के पास अपनी जमीन नहीं है और वे बीसियों वर्षों से एक बड़े ज़मींदार की 0.4 हेक्टेयर ज़मीन पर साल के पंद्रह हजार रुपये चुकाकर वहां धान और कपास उगाते हैं। हरिबाबू के पिता वसंतरायडू को टी बी है और साहूकार का डेढ़ लाख का कर्ज़ सिर पर चढ़ चुका है। साहूकार उन्हें 36 प्रतिशत सालाना ब्याज पर पैसे उधार देता है। साल भर पहले आंध्र के समुद्र तट पर आए 'निलम तूफान' ने उसकी सारी खेती को नष्ट कर दिया था। लेकिन साहूकार ने अपना ब्याज वसूलने या कम करने में कोई रियायत नहीं दी। जब पूछा गया कि तूफान के बाद क्या सरकार ने उन्हें फसल का मुआवजा नहीं दिया, तो हरिबाबू के पिता ने बताया कि वह पैसा तो जमीन के मालिक को मिलता है, भूमिहीन किसानों का उससे क्या वास्ता। उन्हें इस बात की जानकारी भी नहीं थी कि एक वर्ष पहले राज्य में लागू हुए नियम के अनुसार भूमिहीन किसान भी अपनी फसल के लिए सरकार से कर्ज़ ले सकते हैं। हरिबाबू के माता-पिता ने अपने बेटे की आत्महत्या की खबर तक पुलिस या राजस्व अधिकारियों को नहीं दी है। उन्हें पुलिस और पोस्टमार्टम से डर लगता है। टाटीपार्थी के गोल्लाप्रोलू में 'टिक ट्वेंटी' की खूब बिक्री है और निलम तूफान के बाद से उस अकेले ब्लॉक में हरिबाबू सहित तेरह छोटे किसान आत्महत्या का शिकार हो चुके हैं। इन्हीं में एक नाम बागम्मा का भी है, जिसके किसान पति और बाधित लड़के ने हाल ही में अपनी जान ले ली। पूर्वी गोदावरी जिले में 'ऑल इंडिया किसान सभा' के जिला सचिव जी अप्पारेड्डी के अनुसार जिले में पिछले पांच महीनों से कम से कम 50 आत्महत्या के मामले सामने आए हैं। मरने वालों में से अधिकांश अनुसूचित जाति के भू्मिहीन किसान हैं। चूंकि उनके परिवार वालों के पास अपनी खेती के पूरे कागजात तक नहीं हैं, इसलिए उन्हें न तो बैंक से कर्ज़ मिल सकता है और न ही वे सरकार से किसी तरह के मुआवजे के हकदार बनते हैं। (एम सुचित्रा की लाइव रिपोर्ट से)
आंध्र प्रदेश देश में सर्वाधिक आत्महत्याओं वाले राज्यों में से एक है। राष्ट्रीय  अपराध आकलन ब्यूरो के अनुसार यहां 1995 से 2011 के बीच किसानों की 33,326 आत्महत्याएं दर्ज हैं। इनमें से अधिकांश भूमिहीन या फिर ऐसे छोटे किसान हैं जिनके पास आधे हेक्टेयर से कम भूमि है। ऑल इंडिया किसान सभा के राज्य सभापति एस मल्ला रेड्डी के अनुसार प्रदेश में लगभग चालीस लाख ऐसे किसान हैं। चूंकि इन लोगों के पास अपनी काश्तकारी या भूमि-स्वामित्व के दस्तावेज नहीं है, इसलिए इनके आत्महत्या के मामले भी अक्सर प्रकाश में नहीं आते। यही कारण है कि राज्य सरकार के आंकड़ों में जहां 2011 में पूरे प्रदेश में 141 आत्महत्याओं के अधिकृत मामले बताए गए हैं, वहीं ऑल इंडिया किसान सभा के अनुसार इस वर्ष में आत्महत्याओं की वास्तविक संख्या 2206 है। पूर्व और पश्चिमी गोदावरी मिलाकर इन दोनों जिलों में कुल पांच लाख भूमिहीन किसान हैं जो यहां की कुल आधी से अधिक खेती की जिम्मेदारी उठा रहे हैं। इन ज़मीनों के 'प्रॉक्सी' मालिक ज़मींदार पेशे से ठेकेदार, उद्योगपति, व्यापारी, मिल-मालिक, सरकारी कर्मचारी और राजनीतिज्ञ हैं, जिनमें से अधिकांश हैदराबाद और विशाखापट्टनम जैसे बड़े शहरों में रहते हैं, या फिर विदेश में बस गए हैं। त्रासदी यह है कि भूमि से जुड़ी सारी आर्थिक सुविधाएं, फसल पर कर्ज़, प्राकृतिक विपदाओं का मुआवजा और इनश्योरेंस का पैसा इन 'प्रॉक्सी' मालिकों को मिलता है, जब कि खेत में खून पसीना एक करने वाले और इन सुविधाओं के वास्तविक हकदार गरीब किसान आर्थिक बदहाली में आत्महत्या की ओर ढकेल दिए जाते हैं।
प्रेमचंद के महानायक 'होरी' का जीवन अपने समय में भी आसान नहीं था, लेकिन उस समय वह कम से कम प्रेमचंद जैसे महान लेखक द्वारा कृषि-प्रधान कुरुक्षेत्र में लडऩे वाले सिपाही की तरह रेखांकित तो हो रहा था। कल का वह महानायक आज या तो हरिबाबू की तरह बेमौत मारा जा रहा है या फिर 'पीपली लाइव' के नत्था की तरह उसे दिहाड़ी के मज़दूरों की कतार या मंदिर के बाहर बंटने वाले दान के तलबगार भिखारियों की भीड़ में पहचानना तक मुश्किल हुआ जा रहा है। उसकी इस भयानक दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? किसने उसे गांव में कीटनाशक की बोतल गले में उतार लेने या गांव की सुरक्षित सीमारेखा से बाहर शहरी जंगल की घिनौनी दहलीज पर तिल-तिल मरने और भीख का कटोरा फैलाने पर मजबूर किया है?
खेती के जरिए जीविका चलाने की दुश्वारी में अन्य चीजों के अलावा सबसे बड़ा हाथ रहा है खेतों में पैदावार के निरंतर कम होते चले जाने का। पिछली सदी में लगने वाले 'हरित क्रांति' और 'बंपर क्रॉप' के तमाम गलाफाड़ नारों के बावजूद सच यह है कि अनाज की तमाम स्थानीय मंडियों में छोटे किसान का हिस्सा लगातार कम होता चला गया है। महबूब की 'मदर इंडिया' में शकील के शब्दों में गायक मन्ना डे ने किसान की जिस दुर्दशा का उल्लेख किया था, हमारा छोटा किसान आधी शताब्दी गुजर जाने के बाद भी शोषण के उसी चक्रव्यूह से अपने-आपको छुड़ा नहीं पाया है—
चुंदरिया घटती जाए रे, उमरिया कटती जाए रे...
काम कठन है जीवन थोड़ा, काम कठन है रे...
काम कठन है जीवन थोड़ा, पगला मन घबराए,
चुंदरिया घटती जाए रे उमरिया कटती जाए रे...
दुख दर्द सहे बनजारे भइया, धूप में देखे तारे
दिन रात बहाए पसीना रे कछु हाथ न आए हमारे
हमरी सारी मेहनत माया, ठगवा ठग ले जाए
चुंदरिया घटती जाए रे उमरिया कटती जाए रे...
धरती पे कितने बारामासे
बीत गए रे आके, रामा बीत गए रे आके
दुनिया के लिए है लीला तेरी, हमरे भाग में फाके रामा
हमरे भाग में फाके
कागज हो तो बॉच लूँ रामा, भाग न बांचो जाए
चुंदरिया घटती जाए रे, उमरिया कटती जाए रे...
संसार में तेरे लूट मची और जान के पड़ गए लाले
अब रोक जनम की चक्की रे, संसार चलाने वाले!
काल पड़ा है रोटी का और दुनिया बढ़ती जाए
चुंदरिया कटती जाए रे, उमरिया घटती जाए रे...
कृषि के अलाभकारी होने और किसान के गांव छोडऩे से गांवों में पारम्परिक रोज़गार भी सिमटते जा रहे हैं। किसी भी कृषि-प्रधान देश में किसान वहां की अर्थव्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण इकाई होता है। अपनी मेहनत से वह फसल उगाकर अपना पेट ही नहीं पालता, उसके इस उद्यम पर कई भूमिहीन किसानों और छूटटे मजदूरों की रोटी-रोज़ी भी टिकी होती है। उसके अतिरिक्त यहां हल या ट्रैक्टर मरम्मत करने वाले ठठेरों, बढ़ई और मेकैनिकों से लेकर लिट्टी या चाय बेचने वालों और शाम के समय देशी का ठेका आबाद करने वालों की आमदनी का ज़रिया भी वही किसान होता है। उसके चले जाने से वह पूरा तंत्र ही गांव से उखड़ जाता है। ज़ाहिर है कि ऐसे कठिन समय में मंहगाई से दम तोड़ते किसान और उसके शाश्वत व्यवसाय को बचाने के लिए कई तरह के कदम उठाना किसी भी सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन ऐडवर्टाइजिंग के युग में सरकारें काम करने से अधिक यकीन उसके प्रचार और उसके विज्ञापन में रखती हैं। ग्रामीण रोजगार योजना के अंतर्गत यही सब हुआ, जलाशयों की योजनाओं की अंदरूनी कहानी भी यही थी और कचरा चाहे न हटा हो लेकिन सुपरिचित सेलेब्रेटी चेहरों के हाथ में थमे झाडू की तस्वीरें पूरे मीडिया में छा गयीं।
कृषि की उत्पादकता और फसल की पैदावार का सीधा संबंध बीज की नस्ल के अलावा खेत की मिट्टी और उसकी उर्वरा शक्ति से होता है। किसान की भाषा में इसे 'मिट्टी का कमजोर पडऩा' कहा जाता है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति में ह्रास के प्रमुख कारण हैं हवा और पानी के प्रभाव के मिट्टी में मौजूद उर्वरक तत्वों का बह जाना, रासायनिक उर्वरकों को अत्यधिक इस्तेमाल और पूरे साल में एक ही फसल का बार-बार उगाया जाना। आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में हर साल लगभग 530 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी विभिन्न कारणों से नष्ट हो जाती है। देश की कुल 3300 लाख हेक्टेयर जोती जाने वाली जमीन में से एक तिहाई से भी अधिक आज क्षरण का शिकार है। इसमें से 75 प्रतिशत जमीन पर बारिश/बाढ़ या तेज/तूफान ने कहर ढाया और 20 प्रतिशत में क्षार या अम्ल की मात्रा बढ़ चुकी है, जब कि शेष 5 प्रतिशत जमीन को निकटवर्ती खदानों और उद्योगों के कचरे अथवा पानी के ठहराव ने खोखला कर दिया है। हवा और पानी द्वारा भूमि के प्राकृतिक क्षरण के पीछे भी अक्सर इन्सानी शक्तियों का योगदान होता है। पेड़ों के काटे जाने घास से जलाए जाने या भूमि पर चरवाहों और पशुओं के आवश्यकता से अधिक चरने, गलत पद्धति से खेती करने, अपर्याप्त सिंचाई और रासायनिक उर्वरकों के अत्याधिक इस्तेमाल से भी धरती धीरे-धीरे अनुपजाऊ और बंजर होने लगती है। धरती पर घास के मैदानों और वनस्पति के नष्ट होने से हवाओं, बारिशों और स्थानीय आबोहवा में परिवर्तन आने लगते हैं और इनसे धरती के क्षरण की गति और बढ़ जाती है। बंजर और अनुपजाऊ ज़मीन और उर्वरा शक्ति को लौटाना मुश्किल काम है और इसमें लंबा समय भी लगता है। इसके लिए सरकार एवं संस्थानों  का सक्रिय सहयोग आवश्यक होता है। फसलों को बदलने, बंजर जमीन पर पौधे और पेड़ लगाकर हवाओं का रुख फिर से बदला जा सकता है। लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों में अक्सर ऐसा कुछ भी होने से पहले ही वह ज़मीन सरकारी और गैर-सरकारी नज़रों में आकर गैर-कृषि उपयोगों, भवन निर्माण, खनिजों की खुदाई और औद्योगिक विकास के लिए मुकर्रर कर दी जाती है और यह एक तरह से वहां वर्षों से हो रही खेती का आखिरी दर्दनाक अध्याय होता है। विकास के नाम पर हर साल कमजोर हो चुकी जमीन के साथ-साथ बेहिसाब उपजाऊ कृषि जमीन कैसे सरकार और औद्योगिक ताकतों की मिली-भगत से किसानों से दलालों और फिर उनके जरिए उद्योगपतियों के कब्जे में आ जाती है, इससे जुड़े अनगिनत किस्से, स्कैंडल और स्कैम हम आए दिन समाचारों में देखते हैं, लेकिन किसी भी जमीन के वापस कृषि को लौटा देने की कोई कहानी हमने शायद ही कभी सुनी होगी।
कृषि मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'स्टेट ऑफ इंडियन ऐग्रिकल्चर' के अनुसार 1951 से 2010 के साठ वर्षों में गैर-कृषि भूमि का प्रतिशत 33 प्रतिशत से बढ़कर लगभग तीन गुना यानी 8.6 प्रतिशत हो गया है।
और इक्कीसवीं सदी के पहले दस वर्षों में यह ग्यारह प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ा है। इस दौरान कुल 26 लाख हेक्टेयर नयी जमीन गैर-कृषि उपयोगों के लिए मुहैया की गयी। ऐसे में स्वाभाविक ही था कि देश में जगह-जगह भूमि को लेकर टकराव और संघर्ष की वारदातें देखी जाती। इस मामले में बंगाल, झारखंड, आंध्र प्रदेश और हरियाणा सबसे आगे थे क्योंकि इन प्रदेशों में ज़मीन के कृषि से दूसरे महकमों में स्थानांतरित किए जाने की घटनाएं भी सबसे अधिक थीं।
इन सारे संघर्षों की तह में कहीं हमारी यह छोटी सोच और आम मानसिकता भी है कि खेती के लिए ज़मीन का इस्तेमाल उसका सबसे घटिया उपयोग है और उसे दूसरे कामों में लगातार उससे कहीं अधिक तात्कालिक लाभ कमाया जा सकता है। दरअसल हम सब इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि 'मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती...' का चमत्कार सिर्फ मनोजकुमार की फिल्मों में हो सकता है, वास्तविक जीवन में नहीं। कृषि को लेकर हमारी यह अलाभकारी धारणा भी हमें कृषि के क्षेत्र में कुछ बेहतर कर गुज़रने और भूमि की उत्पादकता को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाने से रोकती रही है।
हमारे देश में कृषि विज्ञान से जुड़े कई उच्च संस्थान हैं, लेकिन पिछले कई दशकों में इनके माध्यम से कृषि को व्यापक रूप से प्रभावित करने वाली एक भी क्रांतिकारी खोज प्रकाश में नहीं आयी है। ये सभी संस्थान सरकार के महकमे में आते हैं। 2011 में हमारे देश ने कृषि अनुसंधान पर 7471 करोड़ रुपये खर्च किए जो हमारी कृषि की सकल उत्पाद का कुल 0.59 प्रतिशत है जबकि इसी के समानांतर ब्राजील जैसा विकासशील देश कृषि सकल उत्पाद का 2.8 प्रतिशत तक कृषि अनुसंधान-शोध पर खर्च करता है और चीन, अपने विशालकाय कृषि सकल उत्पाद के बावजूद उसका 1 प्रतिशत कृषि अनुसंधान-शोध पर खर्च करता है। भारत में कृषि अनुसंधान में होने वाले मामूली खर्च का लगभग 20-30 प्रतिशत भारतीय कृषि अनुसंधान आयोग के खाते में आता है। त्रासदी यह है कि कृषि से जुड़े अनुसंधान-शोध की सबसे अधिक आवश्यकता देश के सबसे छोटे और निर्धन किसानों को हैं, लेकिन देश में बीजों के कुल व्यवसाय का 80 प्रतिशत निजी क्षेत्रों और उनसे जुड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में है, जहां से साधनहीन किसान को किसी तरह की सकारात्मक मदद मिलना मुश्किल ही नहीं, लगभग असंभव है। ये कम्पनियां अपनी बिक्री का 10 से 12 प्रतिशत पैसा शोध पर खर्च करती हैं और इनकी सालाना प्रगति की रफ्तार 20 प्रतिशत या इससे भी अधिक है। राष्ट्रीय बीज संस्थान के अनुसार मिर्च, टमाटर, खरबूजे, लौकी, बैगन और भिंडी के बीजों पर निजी क्षेत्र की इन कंपनियों का लगभग पूरा नियंत्रण है।
देश में आम अन्न फसलों की उत्पादकता के न बढऩे और इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में अभिजात निजी क्षेत्र की मनमानी का असली खामयाजा हमारा गरीब किसान भुगतता है। 1990-91 में हमारे देश में बासमती चावल का निर्यात 176 करोड़ था जो 2012-13 आते-आते लगभग 70 गुना बढ़कर 20,000 करोड़ हो गया है। ऐसा इस अभिजात अन्न की नस्लों पर हुई महंगी शोध से संभव हुआ। लेकिन यही शोधकार्य चावल की सामान्य नस्लों पर भी हो सकता है। यही हाल गेहूं का है जहां हमारी औसत उत्पादकता 2.9 टन प्रति हेक्टेयर है जब कि चीन जैसे देश में प्रति हेक्टेयर लगभग दुगुना यानी 4.8 टन गेहूं उगाया जाता है। हमारी इस कमी का प्रमुख कारण है देश में अच्छे हाइब्रिड बीजों के विकास पर होने वाले शोधकार्य का अभाव। उत्पादकता में इजाफा न हो पाने के कारण कई क्षेत्रों में हमारे अत्यंत आवश्यक अन्नों का उत्पादन अलाभकारी होता है जा रहा है। पूरे दक्षिण और केरल का मुख्य अन्न चावल है। लेकिन केरल से आने वाली एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि वहां के छोटे किसान के लिए उत्पादकता की कमी के कारण धान उगाना अब नुकसानदेह होता चला जा रहा है और वहां के ये किसान अब क्रमश: अपने धान के खेतों को रबर 'प्लैंटेशनों' में बदल रहे हैं। ज़ाहिर है कि इससे आने वाले समय में सस्ते चावल की भयानक कमी पैदा हो जाएगी। इस संकट का समाधान समय रहते चावल की स्थानीय किस्मों पर अनुकूल शोधकार्य के जरिए ढूंढा जा सकता था।
लेकिन तकलीफदेह हकीकत यह है कि जहां हमारा छोटा किसान मंहगाई के मारे दम तोडऩे की हालत तक पहुंचा जा रहा है, वहीं किसी मज़ाक की तरह सरकारी कृषि संस्थानों से निकलने वाली सारी शोध 'आउटपुट' कृषि के इस व्यापक संकट से बेखबर, निरर्थक और उलझाने वाले आंकड़ों से भरपूर शोध-पत्रों तक ही सीमित है। राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के सभापति आर बी सिंह के शब्दों में —
''यदि कृषि विफल होती है तो देश में कुछ भी सफल नहीं हो सकता। हमारे पूरे कृषि अनुसंधान कार्यक्रम में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।''
इसी के समर्थन में भारत में हरित क्रांति के जन्मदाता और भारतीय कृषि अनुसंधान आयोग के डायरेक्टर जनरल रह चुके डॉ. एम एस स्वामिनाथन एक इंटरन्यूह में कहते हैं—
''पचास और साठ के दशक में हमारी पहली जिम्मेदारी कृषि की उत्पादकता को बढ़ाना थी। हमारे समय के वैज्ञानिक किसानों के कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में अपनी टेक्नॉलॉजी को दिखाने की कोशिश करते थे।... आज ये वैज्ञानिक शोधकर्ता से अधिक महज सरकारी नौकर बन गए हैं, हालांकि आज के वैज्ञानिक को पहले से कहीं अधिक पैसा तनख्वाह में मिलता है और उसके पास प्रयोगशाला के संसाधनों की भी कोई कमी नहीं है, लेकिन फिर भी मुझे हर तरफ एक स्थितप्रज्ञता  दिखाई देती है...''
इसी अभिप्राय को व्यक्त करने वाले शोध संस्थान के एक अन्य निदेशक अनौपचारिक बातचीत में कृषि वैज्ञानिकों का वर्णन करते हुए कहते हैं—
''भाई यह पूरी तरह सुरक्षित नौकरी है और इसमें तनख्वाह भी खूब मिलती है। नौ वर्षों में असिस्टेंट रिसर्च साइंटिस्ट हर हालत में सीनियर साइंटिस्ट और पंद्रह वर्षों में प्रिंसिपल साइंटिस्ट बन जाता है। बस इसके बाद उसे हाथ पर हाथ रखकर बैठे भर रहना होता है। उसकी सालाना आय-वृद्धि तक को कोई माई का लाल रोक नहीं सकता...''
कृषि की घटती पैदावार फसल का पूरी तरह वर्षा पर निर्भर रहना, समय-समय पर प्राकृतिक विपदाओं का सामना, तंत्र का इन विपदाओं से जूझने में असफल रहना और समय आने पर हमेशा बड़े जमींदार के पक्ष में खड़े होना— इन सारे मुश्किल हालात के बीच छोटे और भूमिहीन किसानों को अपने सामने बहुत कम विकल्प दिखाई देते हैं। हकीकत यह भी है कि इनमें से अधिकांश अशिक्षित हैं और सरकार की ओर से उन्हें उचित और सबसे अनुकूल पैदावार लगाने की कोई माकूल सलाह भी नहीं मिलती है। घटती पैदावार और गहरे आर्थिक संकट के बीच जब किसान विकल्प की तलाश में स्थानीय मंडियों के चक्कर लगाता है तो उसका सामना उर्वरक और बीज बेचने वाली कंपनियों के काइयां दलालों से होता है। वे उसे फसल बढ़ाने के लिए तरह-तरह के रासायनिक उर्वरकों और अनुवांशिक रूप से परिवर्तित बीजों के इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं और उनसे होने वाले फायदों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं, जब कि वास्तविकता इसकी ठीक उलट होती है।
रासायनिक उर्वरकों के निरंतर इस्तेमाल से न सिर्फ ज़मीन कमज़ोर हो जाती है, बल्कि इससे प्राकृतिक जल-धाराओं और पानी के स्रोतों का प्रदूषण भी होता है। अनुवांशिक रूप से परिवर्तित बीजों से एक बार तो फसल अच्छी होती है, लेकिन उसी को दूसरी बार इस्तेमाल करने से फसल बांझ निकलती है और तब कंपनी के महंगे दामों पर कुछ और बीज खरीदने के सिवा कोई चारा नहीं बचता। दो-तीन वर्ष के अंतराल में ही वह घटती आमदनी और इसके समानांतर उर्वरकों/बीजों के बढ़े हुए दाम के बोझ तले एक गहरी दलदल में फसता चला जाता है। इसी हताशा में वह खेतीबारी छोड़ देने, मजदूरी की तलाश में शहर निकल जाने या फिर कई बार अपनी जान को ही दांव पर लगा देने के चरम फैसले तक भी पहुंच जाता है।
आइए इस मोड़ पर मिलें अमरीका/इस्राइल के एक अत्यंत महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंटरी निर्देशक मिका पेलेड से। इन्होंने वैश्वीकरण पर तीन फिल्मों की एक 'ट्रिलॉजी' बनायी है जिसे दुनिया भर में 22 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। इसमें पहली फिल्म थी 'स्टोर वॉर्स: वेन वॉलमार्ट कम्स टू टाउन' जिसमें उन्होंने प्रसिद्ध रीटेल दैत्य 'वॉलमार्ट' की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं का खुलासा किया था। फिर उसके बाद आयी दूसरी फिल्म 'चाइना ब्लूज' जिसमें चीन के एक जीन्स बनाने के कारखाने की अमानवीय स्थितियों का वर्णन था। और पेलेड की तीसरी फिल्म हैं 'बिडर सीड्स' जिसमें यवतमाल, महाराष्ट्र के गांवों में किसानों की आत्महत्याओं की पृष्ठभूमि में इन हादसों में मोनसांटो के अनुवांशिक रूप से परिवर्तित बीजों के योगदान को रेखांकित किया गया है।
दुनिया के कृषि जगत में अनुवांशिक फेरबदल वाले ('जनेटिकली मॉडिफाइड या जीएम') बीजों के इस्तेमाल से जुड़ा विवाद कई दशकों से चला आ रहा है। जी एम बीज बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी मोन्सांटो पर दुनिया के विकासशील देशों की बीज सम्पदा को नियंत्रण करने का आरोप है। जी एम बीजों के इस्तेमाल से फसल में एक तात्कालिक वृद्धि दिखाई देती है, लेकिन इसे साल-दर साल कायम रखने के लिए कम्पनी से हर साल पारंपरिक बीजों से चार गुना अधिक महंगे इन बीजों को खरीदना जरूरी हो जाता है। किसान पारम्परिक तौर पर अपने बीज आपस में बांटते या मंडियों से सस्ते दाम पर खरीदते रहे हैं। लेकिन एक बार जीएम बीज खरीद लेने के बाद उसका प्रयोग बंद करना मुश्किल हो जाता है और इससे पैदावार पर विनाशकारी असर होता है। इस तरह जी एम बीज किसानों को एक तरह से बीज बेचने वाली कम्पनी का बंधक बना देते हैं। यदि व्यापक राष्ट्रीय स्तर पर बात की जाए तो इससे देश अपनी बीज सम्पदा के लिए स्थायी रूप से इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का गुलाम बन जाता है। यही नहीं, इन जी एम बीजों का पर्यावरण पर दीर्घकालीन प्रभाव अभी तक स्थापित नहीं हो पाया है। यही कारण है कि पूरे योरोप, ऑस्ट्रेलिया, जापान और कई दूसरे देशों में जी एम बीजों का इस्तेमाल इतने वर्षों के बाद भी वर्जित है। जी एम बीजों का सर्वाधिक इस्तेमाल सोयाबीन, कपास, मक्का और राई की खेती के लिये किया गया है, लेकिन मूल रूप से इस अत्यधिक विवादास्पद पद्धति से तैयार बीजों से सब्जियां भी उगायी जा सकती हैं। जिन देशों ने जी एम बीज पद्धति को स्वीकृति दी है, उनमें प्रमुख देश अमरीका, अर्जेन्टीना, ब्राजील, कनाडा, चीन और अब भारत है। हमारे देश में मोनसान्टो की जी एम कपास (बी टी कॉटन) का इस्तेमाल पिछले दस से भी अधिक वर्षों से हो रहा है। जहां एक ओर इसके प्रयोग से पैदावार में वृद्धि बतलाई गई है, वहीं बीजों पर होने वाला खर्च कई गुना बढ़ गया है और एक बार इसका इस्तेमाल कर चुकने के बाद पारम्परिक बीजों की ओर लौटना भी संभव नहीं रहा। कई क्षेत्रों में इसे किसानों की आत्महत्याओं से भी जोड़ा गया है।
पेलेड की फिल्म 'बिटर सीड्स' जी एम बीजों के विभिन्न संकटों को उजागर करती है। अधिक रसायन खाद का इस्तेमाल, अधिक पानी की आवश्यकता, और इन सबके साथ-साथ बीजों को चुनने का विकल्प भी। पेलेड कहते हैं कि इन बीजों ने किसानों को जुआरियों की तरह अपना सब-कुछ इन बीजों पर लगाने पर मजबूर कर दिया है और अब वे इसके बंधक बन गए हैं। उनमें से अधिकांश कर्जों की किस्तें बैंक या साहूकारों को अदा करने में असमर्थ बनते जा रहे हैं और यही किसानों की व्यापक आत्महत्याओं का मूल कारण भी है। इन्हीं अर्थों में वे इन जी एम बीजों को 'हत्यारे बीजों' की संज्ञा भी देते हैं। इस तथ्य को अमरीका में बनी एक और फिल्म 'सीड्स ऑफ डेथ' (निर्देशक गैरी नल) से जोड़ा जा सकता है जो मोनसांटो और दूसरी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को जी एम बीजों की जन-विरोधी टेक्नॉलॉजी का दोषी पाती है। पूरी दुनिया में जहां मोनसांटो जैसी कम्पनियां विकासशील देश की बीज सम्पदा पर अपना शिकंजा कसने में सफल हो रही हैं, वहीं विश्व के विभिन्न महकमों से इनके विरुद्ध प्रतिरोध के तीखे स्वर भी उभर रहे हैं।
जीएम बैगन की जैविक डकैती
जी एम या अनुवांशिक फेरबदल बीजों की टेक्नॉलॉजी पहली बार 1986 में अमरीकी कम्पनी मोनसान्टो द्वारा विकसित की गयी थी। इसमें मिट्टी में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले कीटनाशक जीवाणु 'बैसिलस थुरिंगिएन्सिस' - संक्षिप्त नाम बी टी, को आनुवांशिक इंजीनियरिंग से बीज में जोड़कर एक नया बीज बनाया जाता है जिसमें फसल के कीड़ों का प्रतिरोध करने की आंतरिक क्षमता होती है। लेकिन इन अनुवांशिक फेरबदल वाले बीजों और इनसे तैयार होने वाली फसलों का प्रकृति एवं पर्यावरण पर दीर्घकालीन प्रभाव क्या होगा, यह अभी तक तय नहीं हो पाया है। भारत में जी एम बीजों के आगमन की शुरुआत कपास के बीज बी टी कॉटन से दस वर्ष पहले हुई थी और आज देश का लगभग 90 प्रतिशत कपास बी टी कॉटन में उगाया जाता है और इसने थानीय कपास के बीजों का लगभग सफाया कर दिया है। 2005 में मोनसान्टो की भारतीय सरकारी कम्पनी - महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड कम्पनी मेहको-जिसमें मोनसान्टो की 26 प्रतिशत हिस्सेदारी है, को जी एम बैगन पर पेटेंट का अधिकार इस शर्त पर मिला कि वह इसके ज़रिए बैगन की स्थानीय किस्मों को मिलाकर हाइब्रिड बैगन बनाने की कोशिश नहीं करेगी। इस नियम का सीधा उल्लंघन करते हुए मेहको ने तमिलनाडु और कर्नाटक के दो कृषि विद्यालयों से मिलकर स्थानीय बैगन की पांच किस्मों से मिलाकर जी एम बीज बनाने की कोशिश की और मामला कर्नाटक बायोडायवर्सिटी बोर्ड तक फैसले के लिए पहुंचा। मुकदमा करने वाले पक्ष का कहना था कि इस बैगन किस्मों को उगाने वाले स्थानीय समुदाय के हितों की रक्षा किए बगैर इन विकसित जी एम नस्लों के परीक्षण नहीं किए जा सकते। सारे पक्षों को सुनने के बाद तात्कालिक पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इन परीक्षणों को अनिश्चित काल के लिए रोक दिया था। इस वर्ष की अगस्त में बीजेपी की नयी सरकार ने इन परीक्षणों का रास्ता फिर से खोल दिया है और पिछले महीने उसने महाराष्ट्र की निजी क्षेत्र की कम्पनी बी जे सीड्स को जी एम बैगन को प्रयोगात्मक स्तर पर बाज़ार में लाने की इजाजत भी दे दी है।

सवाल उठता है कि अनुवांशिक फेरबदल वाले ये जी एम फसलें कितनी सुरक्षित है? इन्हें प्रचारित करने वाली कम्पनियों का कहना है कि इसके इस्तेमाल से कीटनाशकों का प्रयोग कम होता है और इनसे अन्न की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। वे यह भी कहते हैं कि मनुष्य पुराने समय से ही अन्न बढ़ाने के लिए अनुवांशिक विज्ञान के सहारे मिली-जुली फसलें उगाता रहा है। लेकिन इस दावे के साथ दिक्कत यह है कि जी एम की यह टेक्नॉलॉजी पहले के किसी भी उपाय से भिन्न है क्योंकि इसके ज़रिए ऐसी इकाइयां बनायी जाती है जिसका प्रकृति में उससे पहले अस्तित्व नहीं था। इन इकाइयों के प्रभाव पूरी तरह जाने बगैर इनका इस्तेमाल करना खतरे से खाली नहीं है। 1999 में जी एम बीजों की खोजबीन करने वाले वैज्ञानिक अर्पाद पुज़ताई ने योरोप यूनियन को बताया कि उसने प्रयोगशाला में लंबे प्रयोग के बाद पाया कि जिन चूहों को जी एम पद्धति से उगे आलुओं का निरंतर सेवन कराया गया, उन सबमें कैंसर के कोश विकसित पाए गए और उनके मस्तिष्क तथा गुर्दों पर भी इसका प्रभाव था।  इस एवं इससे जुड़े दूसरे शोध अध्ययन के आधार पर पूरे योरोप, आस्ट्रेलिया, जापान और विश्व के दो दर्जन से अधिक देशों में जी एम बीजों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा हुआ है। दुनिया भर में वैज्ञानिक इस बात से चिंतित है कि अनुवांशिक फेरबदल वाले भोजन के सेवन से हमारे पेट में पाए जाने वाले प्राकृतिक जीवाणुओं के गुणों में भी परिवर्तन आ सकता है। देखा गया है कि जी एम बीजों के जीवाणु आसपास की दूसरी नस्लों के जीवाणुओं को भी बेतरह प्रभावित करते हैं। इसका दीर्घकालीन प्रभाव कितना विनाशकारी हो सकता है, यह हम अब तक समझ नहीं पाए हैं।
जी एम बीजों से तैयार होने वाली फसलों से उत्पादकता बढ़ती है या इससे कीटनाशकों के इस्तेमाल में कटौती आती है यह भी अभी सिद्ध नहीं हुआ है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि इनका इस्तेमाल सुरक्षित नहीं है और इन पर किए गए अधिकांश परीक्षण इनके बढ़ते इस्तेमाल से भविष्य में आने वाले गंभीर खतरों का संकेत देते हैं।
कृषि विज्ञान की भूलभुलैया, दवाओं-कीटनाशकों और विवादास्पद बीजों के जहरीले प्रचार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा विकसित देशों की सरकारों पर बढ़ते दबाव के बीच पिसते गरीब किसान और उसके श्रम की रोटी खाने वाली इस बढ़ती दुनिया के लिये रास्ता कहां से निकलेगा?
पत्रकारिता का एक मूलभूत सिद्धांत है कि 'दुविधा आए, तुरत हटाओ!' (व्हेन इन डाउट, कट इट आउट)! कुछ इसी अंदाज में हमें रसायनों, कृत्रिम पदार्थों, प्लास्टिक वस्तुओं, मानव जन्य जहरीली गैसों, सिंथेटिक साज़ो-सामान और विस्फोटों-हथियारों की विषाक्त दुनिया को काटते हुए फिर एक बार जीवन के सहज-सीधे, खांटी-परखे हुए मूल्यों की ओर लौटना होगा। दुनिया के बहुत से समझने-सोचने वाले लोगों को आज अपने बहुत कुछ समझे हुए को खारिज कर जीवन को फिर एक नए सिरे से समझना ज़रूरी लग रहा है और इसी में उन्हें भविष्य की विनाशकारी संभावनाओं से मुक्ति का एकमात्र रास्ता भी नजर आ रहा है।
और इस नए रास्ते का नाम है जैविक खेती! जैविक खेती क्या है? बहुत सादे शब्दों में यह वह खेती है जो हमें बताती है कि रासायनिक कीटनाशकों, सिंथेटिक उर्वरकों और अनुवांशिक छेड़-छाड़ के बगैर भी पर्याप्त मात्रा में अच्छा और स्वास्थ्यकर भोजन उपजाया जा सकता है। जैविक खेती प्रकृति के साथ एक सामंजस्य बनाकर फसल उगाने वाली पद्धति है, जिसमें हर इस्तेमाल किया और बचा हुआ अंश, हर फेंका हुआ सामान फिर से समुचित काम में लाया जाता है। लेकिन यह सोचना बिल्कुल गलत होगा कि इस पद्धति में विज्ञान के लिए कोई जगह नहीं है। बल्कि यहां ज्ञान और जानकारी को हर संभव तरीके से मानव और प्रकृति के तात्कालिक और लंबे हित में मोड़कर लाभ के लिये इस्तेमाल किया जाता है। फसलों की भूसी, पशुओं का गोबर और मूत्र सब इस पद्धति के बहुमूल्य कच्चे सामान हैं। इनमें वह सारी जानकारी भी है जो हमारे पुरखों के पास थी, लेकिन कालांतर में जिसे हमने आधुनिक उपभोक्ता संसार की आपाधापी में विस्मृत हो जाने दिया। पशु-मूत्र को इकट्ठा कर उसमें बचे हुए बीज और भूसी मिलाकर उसका किण्वन किया जाता है जो फसल के लिए श्रेष्ठ उर्वरक का काम करता है। इसी पद्धति से नीम की पत्तियों को कीटनाशकों में बदला जाता है। फसलों में साल के विभिन्न समय में और साल-दर साल परिवर्तन किया जाता है ताकि धरती की उर्वरा शक्ति लगातार बनी रहे। मूंगफली की हर फसल के बाद ज्वार उगायी जाती है, ताकि वायु में विद्यमान नाइट्रोजन को नष्ट होने की जगह बांधा जा सके। जल का समुचित संयोजन किया जाता है और मेंड़ बनाने एवं हवा का रुख बदलने के लिए सबसे उपयुक्त स्थानीय पौधे और वृक्ष लगाए जाते हैं। कुल मिलाकर अनुवांशिक तत्वों से छेड़छाड़ की जगह उनकी जैविक विविधता का समुचित उपयोग किया जाता है। पश्चिमी देशों में जैविक खेती से उगायी जाने वाली पैदावारों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है और ये बाजार में आम पैदावारों से 30 प्रतिशत से 50 प्रतिशत अधिक दाम में बिकती है। अब इन उत्पादों पर कई तरह के पंजीकरण और प्रमाण पत्र की योजनाएं भी बन चुकी हैं—आई एस आई के लेबल की तरह।
दुनिया में जैविक खेती के मामले में ऑस्ट्रेलिया सबसे आगे है जहां 1.2 करोड़ हेक्टेयर से भी अधिक क्षेत्रफल पर जैविक खेती होती है। इनके मुकाबले भारत में अभी सिर्फ 6 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर जैविक खेती होती है जिसका एक तिहाई से अधिक हिस्सा मध्यप्रदेश राज्य में है। जैविक खेती के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र आज भी कुल खेती वाले क्षेत्र के एक प्रतिशत हिस्से से भी कम है। छोटे किसानों की बहुतायत वाले इस देश में ऐसा होना दुर्भाग्यपूर्ण है। जैविक खेती की इस धीमी प्रगति के लिए मुख्य रूप से सरकार जिम्मेदार है जिसके पास आज भी जैविक खेती को लेकर कोई सक्रिय योजना या नीति नहीं है।
सौभाग्यवश देश के कई राज्यों ने इस मामले में कदम उठाए हैं और मध्यप्रदेश के अलावा कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और हिमाचल में जैविक खेती को लेकर एक स्पष्ट नीति कारगर है। इसके अलावा चार अन्य राज्यों— उत्तराखंड, सिक्किम, नागालैंड और मिजोरम ने आने वाले वर्षों में सारी पैदावार को जैविक खेती में बदलने का संकल्प लिया है। हिमाचल में, जहां 6 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती का लक्ष्य रखा गया है, इसे 48 समूहों में बांटा गया है। कृषि विभाग जैविक खेती की ओर जाने वाले किसानों को पहले तीन वर्षों तक 1500 रुपए महीने की आर्थिक सहायता देता है और इसके अतिरिक्त प्रति समूह को 3750 रुपए कॉमपोस्ट खाद बनाने के संयंत्र के लिए भी मिलते है। उत्तराखंड में मात्र बत्तीस हजार हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती करने वाले 47 हजार से अधिक छोटे किसानों का समूह कार्यान्वित हो गया है। हैदराबाद में सेंटर फॉर सस्टेनेबल ऐग्रिकल्चर के निदेशक जी वी रमनजनेयालु के प्रयासों से आंध्रप्रदेश में लगभग 15 लाख हेक्टेयर ज़मीन को रासायनिक कीटनाशकों से छुड़ाकर जैविक खेती की ओर ले जाने के लिए गांव वालों द्वारा चलायी जाने वाली एक संस्था की शुरूआत हुई है।
सरकार के अलावा भारत के अलग अलग हिस्सों में कई एन जी ओ संस्थाओं और व्यक्तियों ने कोऑपरेटिवों के जरिए गांवों में जैविक खेती फैलाने का मुहिम शुरु किया है। राजेश्वर रेड्डी सीलम, जो एक जमाने में किसानों को रासायनिक खाद बेचते थे, आज अपनी संस्था स्रेस्टा के ज़रिए आठ हजार से अधिक किसानों को बारह राज्यों में बारह हज़ार हेक्टेयर जमीन पर जैविक खेती से लगभग 60 किस्म की फसलें उगाने में जुटे है। उनका '24 लेटर मंत्रा' आज देश में जैविक उत्पाद बेचने वाला शीर्षस्थ स्टोर है। हरिद्वार में भारतीय किसान क्लब के 324 सदस्य जैविक गन्ना उगाते हैं और यहां हर किसान को प्रति क्विंटल गन्ने पर बाजार से दस से बीच रुपये अधिक मिलते हैं। अपने प्रयासों से उन्होंने देश का पहला अधिकृत जैविक चीनी का कारखाना भी खोला है जहां 2011-2012 में कुल 900 टन जैविक चीनी बनायी गई। आंध्र प्रदेश में एन जी ओ 'टिम्बकटू कलेक्टिव' ने आत्महत्याओं से ग्रस्त अनंतपुर जिले में 140 गांवों के 850 किसानों की मदद से धरनी कोऑपरेटिव की स्थापना की है जहां न सिर्फ किसानों को कृषि की शिक्षा दी जाती है, बल्कि फसलों के चुनाव और जैविक उत्पाद को शहरों में बेचने की व्यवस्था भी दी जाती है। ये सब उत्साहवद्र्धक प्रयास हैं जिनसे भविष्य में बहुत सारी उम्मीदें जागती हैं।
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इस ग्रह पर जब तक जीवन है, तब तक कृषि इंसान की सारी गतिविधियों का केंद्र बिंदु रहेगा। निस्संदेह कृषि के जगत में आज भी बहुत अंधेरा है और बहुत सारी शक्तियों की व्यक्तिगत और कॉरपोरेट उठापटक ने इस जगत के मुख्य किरदार छोटे किसान को दहलीज के बाहर धकेल दिया है। आज के बाद भी कितने नत्था और हरिबाबू हमारी इस संपन्न दुनिया से निष्कासित किए जाते रहेंगे, मालूम नहीं। उनके जीवन की व्यथा-कथा को किसी लेखक के शब्दों में नहीं भरा जा सकता। उसके लिए हज़ारों लाखों लोगों के मनोबल, विश्वास और सही सोच की आवश्यकता हमें होगी। जैसा कि महादेवी जी अक्सर कहा करती थी, अंधेरा लाठी से नहीं टूटता, उसके लिए कहीं न कहीं दीपक जलाना होगा। हमारे देश का 'होरी' हमारे परिवार को दो जून की रोटी खिला चुकने के बाद भी, आज तक अपने जीवन के अंधेरे में ऐसे ही किसी दीपक के जलने का अंतहीन इंतज़ार कर रहा है।


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