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जून 2014

ऐ काश जानता न तेरी रहगुजर को मैं

अच्युतानंद मिश्र

बहस जारी: एक नये प्रस्थान बिंदु के साथ



पिछले दिनों पहल में नब्बे के दशक की कविता को लेकर एक बहस शाया हुई। मूल लेख मृत्युंजय का था। हालांकि हिंदी कविता में नब्बे को लेकर बहस पिछले कुछ दिनों से कई पत्रिकाओं और ब्लॉग्स पर देखने को मिली। पहल-92 में शाया हुई बहस की इसी कड़ी में देखा जा सकता है। वागर्थ में जो बहस चली उसमें नब्बे दशक के कुछ कवियों ने स्वयं के उभार को एक काव्यात्मक परिघटना के रूप में चिन्हित करने का प्रयास किया। पहल-94 में विवेक निराला ने मृत्युंजय की कुछ मान्यताओं पर असहमति दर्ज़ करते हुए नब्बे दशक की काव्य परिघटना के महत्व को उजागर किया, पहल-95 में मृत्युंजय ने विवेक निराला द्वारा उठाये गये प्रश्नों का जवाब देने का प्रयत्न किया। इस तरह इस बहस का चक्र पूरा होता है।
पहले बात मृत्युंजय के मूल आलेख के संदर्भ में। नवें दशक की कविता पर कुछ नोट्स के माध्यम से मृत्युंजय नब्बे के काव्य परिदृश्य को विश्लेषित करने का प्रयत्न करते हैं। नब्बे के दशक से ठीक पहले के काव्य परिदृश्य की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं - ''मुबाहिसे हुए और तय पाया गया कि अस्सी के दशक की कविता में फूल-पत्ती-चिडय़ा-बच्चे बारम्बार मौजूद हैं। न सिर्फ नक्कादों ने, बल्कि खुद अस्सी दशक की कविता के हरावलों ने इसे माना। असल में यह सवाल कविता की जमीन का था। सत्तर के दशक में आन्दोलनों की धधक और राजनीति ने कविता में कठोर यथार्थ के प्रति कई नजरिये विकसित किये थे- पहला था अराजकतावादी नजरिया और दूसरा क्रांतिकारी वाम का। राजकमल चौधरी और धूमिल दोनों धाराओं के प्रतिनिधि कवि कहे जा सकते हैं।''
यहां इस समूचे परिदृश्य को उजागर करने में मृत्युंजय कई तरह के सरलीकरण का इस्तेमाल करते हैं। अगर राजकमल अकविता (अराजकतावादी) के प्रतिनिधि कवि थे तो इस लिहाज़ से उनकी प्रतिनिधि कविता किसे कहेंगे? क्या मुक्तिप्रसंग अकविता थी? क्या वह अपनी संवेदना और स्वरूप में उसी तरह की कविता है जैसी कि सौमित्र मोहन की लुकमान अली या जगदीश चतुर्वेदी की इतिहासहन्ता। वस्तुत: मृत्युंजय जिन दो धाराओं की चर्चा साठोत्तरी कविता के संदर्भ में करते है। राजकमल उन दो धाराओं के बीच में खड़े कवि हैं, वे संक्रमणकाल के कवि है। मुक्तिप्रसंग का स्वर अगर उत्तरोत्तर राजनीतिक होता जाता है तो इस संक्रमण को समझने की आवश्यकता है। यह निश्चित रूप से अराजकतावादी धारा से अलगाव की कविता है। मेरा स्पष्ट मानना है कि राजकमल के संदर्भ में मुक्तिप्रसंग को किसी भी तरह से नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। वह राजकमल की प्रतिनिधि कविता है। ऐसे में राजकमल को किसी एक धारा का प्रतिनिधि कवि कहना उस धारा के  प्रति हमारी समझ के सरलीकरण और परिदृश्य के सरलीकरण की तरफ ही इंगित करता है। जिस अराजकतावादी धारी की चर्चा मृत्युंजय करते हैं उनके प्रतिनिधि कवि ये सौमित्र मोहन, श्याम परमार, जगदीश चतुुर्वेदी एवं मोना गुलाटी। श्याम परमार तो अकविता के सिद्धांतकार ही थे। इस संदर्भ में उनकी पुस्तक अकविता और कला संदर्भ अकविता की सैद्धान्तिकी निर्मित करती है और साथ ही उसकी ऐतिहासिक भूमिका को भी रेखांकित करने का प्रयत्न करती है। दूसरी तरफ धूमिल को क्रान्तिकारी वाम का प्रतिनिधि कवि कहना भी उस पूरी काव्य परिपाटी को सीमित करना है। धूमिल अकविता में भी थे। उससे पहले वे गीत लिखते थे। अगर धूमिल किसी कवि के सर्वाधिक निकट हैं तो वह राजकमल ही हैं। धूमिल भी एक तरह से संक्रमणकाल की कविता लिखते हैं। उनकी तमाम महत्वपूर्ण कविताओं में अकविता का स्वर तो मौजूद है ही लेकिन उसका रुझान राजनीतिक है इसलिए न तो उसे अकविता ही कहना संगत है और न ही उसे पूर्णतया प्रतिबद्ध कविता (क्रान्तिकारी वाम) कहा जा सकता। वह इन दोनों के मध्य कहीं है। धूमिल को अगर हम थोड़ी गंभीरता से पढ़े तो पाएंगे की वे रेटोरिक के कवि हैं। दूसरे उनमें वैचारिक स्पष्टता का निश्चित रूप से अभाव है। हालांकि यह स्पष्ट है कि वे अराजकतावाद से वाम चेतना की तरफ अग्रसर होते हैं। ऐसे में जिस क्रांतिकारी वाम की बात मृत्युंजय करते हैं वह नक्सलबाड़ी की ही धारा थी और उसके प्रमुख कवि थे वेणुगोपाल, कुमारेन्द्र, कुमार विकल और आलोक धन्वा। बाद में इसी धारा को अधिक मूर्त और स्पष्टता के साथ विकसित करने का काम गोरख पाण्डेय ने किया। वह भी अस्सी के दशक में जब कविता के सन्दर्भ में इसे पूरी तरह खारिज कर दिया था। यह अतिरिक्त जोखिम ही उन्हें सचेत राजनीतिक कवि के रूप में विकसित होने का अवसर देता है। अगर नक्सलबाड़ी चेतना का सर्वाधिक विस्तार किसी एक कवि में देखना हो तो वह धूमिल नहीं गोरख पाण्डेय ही होंगे। मृत्युंजय अगर धूमिल को प्रतिनिधि कवि बनाते हैं तो इसके मूल में यह है कि आठवें दशक की पूरी अवधारणा जो कि सत्तर के दशक का एक क्रिटिक भी तैयार करती है को बरस्ते धूमिल एक कुपाठ में परिवर्तित कर दिया जाये। ऐसा करने वाले मृत्युंजय कोई पहले शख्स नहीं हैं। यही काम राजेश जोशी भी करते हैं - धूमिल के साथ-साथ कविता में नायकों की विदाई का अंतिम गीत गाया जा चुका है। (एक कवि की नोटबुक)। यहां भी सत्तर के दशक के मूल्यांकन के केंद्र में धूमिल ही हैं और धूमिल के यहां जो वैचारिक अस्पष्टता एवं रेटोरिक है वह निशाने पर है। तो क्या यही वजह है कि आठवें दशक के अधिकांश कवि गोरख के संदर्भ में कुछ नहीं कहने की नीति पर अमल करते हैं, क्योंकि धूमिल का विस्तार गोरख में नहीं नज़र आता है। मृत्युंजय दशकों को लेकर भी एक खास तरह के भ्रम का शिकार नज़र आते हैं। वे नवें दशक और नब्बे के दशक को एक ही समझ लेते हैं। मुझे लगता हैं यहां थोड़ी स्पष्टता की आवश्यकता है। यह जो आठवें दशक की कविता है वह इमरजेंसी के बाद की कविता है, यानि 1975 के बाद से 1972-1982 के बीच अधिकांश कवियों मसलन मंगलेश डबराल, असद जैदी, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, विजय कुमार, नरेंद्र जैन, विनय दुबे के पहले संग्रह का प्रकाशन होता है। मूलत: इन संग्रहों के आधार पर कविता एक नए इलाके में प्रवेश करती है, जिसे हम आठवें दशक के रूप में चिन्हित करते हैं। यह स्पष्ट है कि इन कवियों ने काव्य परिदृश्य को बदला है। इन्होंने वैसी कविता नहीं लिखी जैसा की सत्तर के दशक के कवि लिख रहे थे बल्कि उससे एकदम अलग रंग की कविता लिखी। आठवें दशक के कवियों के बीच अगर हम कॉमन की तलाश करें तो कुछ-कुछ इस परिकल्पना को समझा जा सकता। इन कवियों का यह मानना था कि कविता की अंतर्वस्तु राजनीतिक हो सकती है लेकिन कथ्य तो जीवन-अनुभव, इर्दगिर्द का समाज, रोजमर्रा का जीवन ही होगा। यानि कि कवि के बेहद निकट की दुनिया। इसने यहां एक ओर कविता को एक संवेदनात्मक प्रामाणिकता प्रदान की वहीं उसे एक खास वर्गीय दायरे में संकुचित भी किया। आठवें दशक के कवियों ने इस खतरे को उठाया। मृत्युंजय ने इस संदर्भ में ठीक ही लिखा है कि 'मध्यवर्गीय समाज के बारीक जीवनानुभवों में राजनीति के असर को देख पाना और उसी के सहारे प्रतिरोध रचने की कोशिश, इस दशक की कविता के लिए शक्ति का मूल उत्स था।' यही वजह है कि इस कविता में दृश्यात्मकता पर जोर है। यह घटना प्रधान कविता है। कवि के अनुभव और पाठक के अनुभव को एक साझा जमीन देने का प्रयास यहां अधिक है। आठवें दशक के सन्दर्भ में मृत्युंजय आरम्भ में ही यह कहते हैं कि 'सत्तर के दशक की दिशा जो गांव-कस्बा-शहर थी, अस्सी के दशक में बदलकर यह शहर-कस्बा-गांव की दिशा' हो गयी। कुमार विकल की कविता में गांव नज़र नहीं आता। यही बात एक हद तक वेणुगोपाल के संदर्भ में भी कही जा सकती है। आलोकधन्वा की तब तक जो तीन-चार कवितायें प्रकाशित हुयी थी उनमें भी गांव शहर का विभाजन ठीक नहीं लगता। इसी तरह क्या आठवें दशक की कविता की दिशा शहर-कस्बा-गांव थी? यहां यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अगर आठवें दशक के कुछ कवियों के यहां शहर बहुतायत में नज़र आता है तो क्या वह आठवें दशक की केंद्रीय प्रवृति थी? और अगर नहीं थी तो इस तरह के सूत्र को महज़ सरलीकरण कहकर नकारा नहीं जा सकता। कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसा करते हुए मृत्युंजय किन्ही खास कवियों को केंद्र में रखते हैं। मुझे लगता है कम से कम अरुण कमल और विनय दुबे सरीखें कवियों के संदर्भ में तो यह सूत्र बहुत उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। हां इसके केंद्र में असद जैदी, विजय कुमार, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी हो सकते हैं। नरेंद्र जैन भी इसके उपयुक्त उदाहरण नहीं कहे जा सकते। यानि मृत्युंजय आठवें दशक के संदर्भ में भले अनेक कवियों का नाम लेते हों लेकिन फेनोमेना के तौर पर वे कुछ कवियों को अधिक केंद्रीयता देते हैं। यानि मृत्युंजय आठवें दशक का भी सत्तर के दशक की ही तरह कोई प्रामामिक चित्र पेश नहीं करते। मुझे लगता है कि आठवें दशक की कविता के सामने शहर और गांव का अन्तर्विरोध उतना मुखर नहीं था जैसा कि मृत्युंजय देखते है बल्कि उसकी मूल प्रवृत्ति थी बेहद निकट के जीवनानुभव को दृश्यात्मकता और ऐंद्रिकता के साथ प्रस्तुत करना। ऐंद्रिकता और चाक्षुष बिम्बों पर आठवें दशक के कवियों का अधिक बल था यही वह बिंदु था जिसके आधार पर वे सत्तर के दशक की कविता को खारिज करते हैं। आठवें दशक की कविता में राजनीति मौजूद है लेकिन वहीं तक जहां जीवन अनुभव का हिस्सा बनती है। यहां अपनी बात को स्पष्ट करने के क्रम में, मैं दो उदाहरण पेश करना चाहूँगा। दोनों ही उदाहरण अरुण कमल के संग्रह अपनी केवल धार से -
कौन नहीं चाहता जहाँ जिस जमीन उगे
मिट्टी बन जाये वहीं
पर दोमट नहीं, तपता हुआ रेत ही है घर
तरबूज का,
जहाँ निभे जिंदगी वहीं घर वहीं गांव (यात्रा)
* * *
भौजी, हाथ में डोल लिए
मत जाना नल पर पानी भरने
तुम गिर जाओगी
और बउआ... (धरती और भार)
काबिले गौर है कि इन कविताओं में मौजूद ऐंद्रिकता ही वह मूल तत्व है जो इन्हें पिछली कविता से भिन्न बनाती है। यहां राजनीति का संदर्भ मनुष्य के दैनिक जीवन में है, एक तरह से कहें तो रघुवीर सहाय की राजनीति चेतना का विस्तार इन कवियों में देखा जा सकता है, लेकिन इनमें से कई कवि रघुवीर सहाय के राजनीतिक दृष्टिकोण से बाहर निकल कर अपना रास्ता तलाशते हैं। खासकर राजेश जोशी, अरुण कमल और विनय दुबे। विनय दुबे तो अलग ही अंदाज की राजनीतिक कविता लिखते हैं। कई बार वे ब्रेख्तियन मुहावरे के बेहत करीब नज़र आते हैं। इस संदर्भ में 1980 में ही प्रकाशित उनका संग्रह महामहिम चुप हैं आठवें दशक के काव्य परिदृश्य को नया विस्तार देती है। यहां में विनय दुबे पर जोर इसलिए दे रहा हूं क्योंकि मेरे देखे अब तक कोई ऐसा लेख नहीं दिखा जिसमें आठवें दशक के संदर्भ में विनय दुबे को प्रमुखता दी गयी हो। कहने का तात्पर्य यह है कि मृत्युंजय कुछ कवियों को केंद्र में रखकर, जिस आठवें दशक की परिकल्पना को उजागर करते हैं वह आठवें दशक को विश्लेषित नहीं करता।
नवें दशक के अंतिम दौर में इनमें से अधिकांश कवियों के दूसरे संग्रह आये। यहां भी आधारभूमि यही थी। कुछ ने खुद को दुहराया कुछ न दुहरा सकने के कारण खराब कविता लिखने लगे। और एक तरह से काव्य परिदृश्य में बहुत परिवर्तन इन कुछ वर्षों में नहीं होता है और अगर हम काव्य पीढ़ी या फेमोमेना के तौर पर इसे आंठवा दशक ही कहें तो कुछ लगत नहीं होगा। क्योंकि कविता की भावभूमि इस दौरान नहीं बदलती है। राजेश जोशी की जिस कविता की चर्चा आठवें दशक के संदर्भ में अक्सर होती है वह है बच्चे काम पर जा रहे हैं। गौरतलब है कि यह कविता जनवरी 1990 की है।
कविता की समकालीनता और समय की समकालीनता के बीच फर्क होता है। ठीक उसी तरह जैसे कि सामाजिक-राजनैतिक सत्य होता है उसी तरह काव्य सत्य भी होता है। यहां मेरी बात से यह ध्वनित न हो कि मैं दोनों के बीच किसी किस्म के विरोध की बात कह रहा हूं। मेरा कहना सिर्फ इतना है कि काव्य-सत्य और सामाजिक राजनैतिक सत्य के बीच गहन अंतर्संबंध होते हैं लेकिन उनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी होता है। यही वजह है कि दशक के बदलने से काव्य दशक भी अनिवार्य रूप से बदल जाये यह जरूरी नहीं। अपने अंदाज़ में मृत्युंजय भी इस बात को कहते हैं। ''कविता राजनीति का सीधा अनुवाद नहीं होती। राजनीति सचाईयां उस पर असर डालती जरूर हैं पर हम यह मांग किसी दौर की कविता से नहीं कर सकते कि उसने फलां-फलां घटना पर क्या लिखा। इसका क्लासिकल उदाहरण निराला हैं। निराला ने देश की आजादी या विभाजन पर कुछ नहीं लिखा। देश के आजाद होने से पहले उनकी कविता में नेहरू और कांग्रेस मॉडल की आलोचना जरूर मिलती है, पर आजादी-विभाजन के दौर में वे कुछ नहीं लिखते।'' जब मृत्युंजय के समक्ष यह स्पष्ट ही है कि कविता राजनीति का सीधा अनुवाद नहीं होती तो वह यह क्यों चाहते हैं कि निराला आजादी विभाजन के दौर में कुछ लिखें। जहां तक निराला का सवाल है निराला ने तो आज़ादी को लेकर जिस उद्दात के साथ लिखा वह साम्राज्यवाद से जूझते किसी भी देश के लिए न सिर्फ सांस्कृतिक गौरव बल्कि राष्ट्रीय सम्मान की भी बात थी। यहां यह समझना जरूरी है कि नयी कविता से पहले कविता में तात्कालिक सचाइयों को व्यक्त करने का अपना अंदाज़ था। उसको नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। हम यह न भूले कि आज़ादी की आकांक्षा व्यक्त करने वाली सैकड़ों कवितायें निराला ने लिखी। विभाजन पर नहीं लिखा तो किस हिंदी कवि ने विभाजन पर गंभीरता से उस दौर में लिखा। सिर्फ निराला ही क्यों? और सिर्फ विभाजन ही क्यों? तेलंगाना, तेभागा, नाविक विद्रोह पर भी हिंदी में कवितायें नज़र नहीं आती। उर्दू में तो नज़र आती हैं। मखदूम लिख रहे थे मजाज़ लिख रहे थे। हिंदी कविता की अपनी प्रकृति थी निराला ने उसे बदला था। निराला के बाद भी कविता बदलती है।
मृत्युंजय नब्बे दशक यानि सदी के आखिरी दशक की कविता पर बात करना चाहते हैं। वे इसका मूल्यांकन करने का प्रयत्न करते है कि यह जो कविता की भूमि का विस्तार इस दौर में होता है वह क्या कविता की भावभूमि को परिवर्तित करता है या उसे ही दोहराता है और विस्तार देता है। आठवें दशक की कविता की भावभूमि को नब्बे के दशक की कविता की भावभूमि के समक्ष रखकर देखने का प्रयत्न मृत्युंजय करते हैं। वे इस संदर्भ में कविता में नब्बे दशक में आये कुछ विशिष्ट दुखों की चर्चा काव्य प्रविधि के रूप में करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि नब्बे दशक के कवि लोक की नई जमीन तैयार करते हैं। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध कविता नये तरह से आकार लेती है। इससे यह तो स्पष्ट होता ही है कि एक नई काव्य पीढ़ी कविता में सामने आती है। बकौल मृत्युंजय देवीप्रसाद मिश्र, कुमार अम्बुज, पंकज चतुर्वेदी, अष्टभुजा शुक्ल आदि के रूप में नई पीढ़ी देखने को हमें मिलती है। परन्तु क्या इतने से ही काव्य परिदृश्य बदल जाता है। मृत्युंजय शुरूवात में यह तो स्वीकार करते हैं कि ''पीढ़ी'' बदलते-बदलते, कविता कई-कई बार बदल जा रही है। एक पीढ़ी के कवियों की एक दशक में लिखी हुई कविताओं का सुर उन्हीं कवियों की अगले दशक में लिखी गयी कविताओं के सुर से भिन्न है। यह ''दशक'' भी देखने का कोई कोई पुख्ता तरीका नहीं, पर जैसा कि हर तकसीम के पहले तर्क दिया जाता है, यह सुविधा के लिए है। यानि संदेह स्वयम मृत्युंजय को भी है। वे अंत तक यह स्पष्ट नहीं कर पाते हैं कि यह पीढिय़ों का बदलना है कि काव्य परिदृश्य का। वे इस बदलाव को आठवें दशक का विस्तार भी नहीं मानना चाहते हैं। लेकिन वे जिस बदलाव की ओर इंगित करते हैं वैसा बदलाव तो आठवें दशक के कई कवियों के दूसरे संग्रह में भी देखा जा सकता है। लोक की भावभूमि पर तो अरुण कमल भी खड़े हैं। लेकिन वे जानते हैं कि लोक के रास्ते में रूमानियत के कांटे बिछे है, अरुण कमल की कविता रोमानियत का पूर्णत: निषेध तो नहीं करती लेकिन वह लोक को रूमानियत में बदलती भी नहीं। वह रूमानियत की जमीं पर खड़े होकर लोक से संवाद स्थापित नहीं करती। भौजी के लिए उपजी करुणा बउआ के लिए चिंता में रूपांतरित होती है। ऐसा अगर बद्रीनारायण, निलय उपाध्याय या बोधिसत्व की कविता में नहीं होता तो यह कविता का आगे बढऩा हुआ या पीछे हटना? महज़ अलगाव को चिन्हित करने से, पीढिय़ों के अंतर दिखाने से, कविता की भावभूमि बदल ही जाये यह जरूरी तो नहीं। काबिले गौर यह भी है कि जिन भिन्नताओं की चर्चा मृत्युंजय अनेकानेक प्रसंगों में करते हैं, वह आठवें दशक की अनेकानेक प्रवृतियों का विस्तार ही है क्योंकि जिन संदर्भों को मृत्युंजय नब्बे दशक के कवियों में देखते हैं वह आठवें दशक के कई कवियों के दूसरे तीसरे संग्रह में भी नज़र आता है। मृत्युंजय उद्धरण सिर्फ नब्बे के दशक के कवियों का देते हैं ताकि ऐसा प्रतीत हो की यह सब कुछ इन्हीं कवियों की विशेषता है। मैं यहाँ इस संदर्भ में आठवें दशक के कवि नरेंद्र जैन का संग्रह उदाहरण के लिए से दो उद्धरण सामने रखना चाहूंगा।
बहुत कम चीज़ों ने नहीं बदला अपना स्वभाव
उदाहरण के लिए नमक और पानी
जबकि रंग इतने धूमिल हो चुके हैं
कि सफेद काले में और
काला सफेद में तब्दील हो चुका है (उदाहरण के लिए)

यातना बढ़ती है
तब जले हुए कमरे में रखे हारमोनियम से
फूटती है एक उदास धुन (विलाप)

स्पष्ट है कि जिन अलगावों की चर्चा मृत्युंजय करते हैं नब्बे दशक के सन्दर्भ में वे अलगाव से अधिक विस्तार प्रतीत होते हैं। दूसरे यह कि मैंने यहां जानबूझकर आठवें दशक के कवियों के उद्धरण दिए हैं ताकि यह स्पष्ट हो सके कि जिस बदलाव/विस्तार की चर्चा मृत्युंजय करते हैं वह एक स्वाभाविक विस्तार ही था। उससे किसी नई काव्य परिपाटी का विकास नहीं होता। यहाँ मैं यह पूछना चाहूंगा की जिस तरह का बदलाव कविता के स्तर पर धूमिल, कुमार विकल, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, विजेंद्र, वेणुगोपाल आदि के मुकाबले आठवें दशक के कवियों में आता है क्या उसी तरह का गुणात्मक परिवर्तन नब्बे के कवियों में आठवें दशक के मुकाबले नज़र आता है अगर ऐसा था तो क्या नब्बे दशक के कवियों ने उसे सैद्धान्तिक रूप से विकसित करने की अनिवार्यता महसूस की? क्या वह महज़ शिल्पगत या तात्कालिक राजनीतिक विषयगत परिवर्तन हैं। नब्बे के कवियों का अपनी पिछली पीढ़ी से किस तरह का आलोचनात्मक संवाद रहा? किन सन्दर्भों में वे आठवें दशक से असहमति दर्ज करते हैं? अगर किसी नई पीढ़ी के उद्भव को एक नई काव्य परिघटना के रूप में हम रेखांकित करते हैं तो, मुझे लगता है कि इन प्रश्नों के जवाब हमें देने चाहिए। अगर हम पिछले सत्तर वर्षों की हिंदी कविता पर नज़र डाले तो यह देखना कठिन न होगा कि जब भी कोई नई पीढ़ी आकार लेती है और नई काव्य परिपाटी को विकसित करती है तो वह अपने ठीक पहले की पीढ़ी के साथ एक आलोचनात्मक सम्बन्ध निर्मित करती है। वह पुरानी परिपाटी को खारिज कर ही नई परिपाटी विकसित करती है। प्रगतिवाद के विरोध में प्रयोगवाद की अवधारणा को रखने के लिए तार सप्तक का प्रकाशन हुआ। प्रयोगवाद से नई कविता के संक्रमण और स्वतंत्र विकास के क्रम को स्पष्ट करने के लिए मुक्तिबोध नई कविता के आत्म संघर्ष की चर्चा करते हैं। विजयदेव नारायण साही लघुमानव की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं।  नई कविता की रूढि़ के विरुद्ध अकविता का प्रकाशन होता है और साथ ही श्याम परमार अकविता की अवधारणा की विस्तृत व्याख्या के क्रम में अकविता और कला संदर्भ के माध्यम से अकविता की वैचारिकी को सामने लाते हैं। अकविता की अंध अराजकता के विरोध में समकालीन कविता की अवधारणा के क्रम में कुमारेन्द्र काव्य भाषा का वामपक्ष के माध्यम से हस्तक्षेप करते हैं। आठवें दशक की अवधारणा को विश्लेषित करने के लिए राजेश जोशी एक कवि की नोटबुक तो विजय कुमार कविता की संगत और साठोत्तरी कविता एवं परिवर्तित दिशाएं प्रस्तुत करते हैं। नब्बे के दशक में ऐसा नहीं होता। यहां यह भी पूछा जा सकता है कि नब्बे के दशक के किन कवियों ने आठवें दशक की अपर्याप्तता को चिन्हित करने का प्रयत्न किया? इस तरह के किसी बिंदु की चर्चा मृत्युंजय नहीं करते हैं।
विवेक निराला ने मृत्युंजय पर प्रश्न उठाये हैं। उनकी प्रश्नाकुलता का कारण यह है कि मृत्युंजय जिस नब्बे दशक की परिघटना को रेखांकित करते हैं उसे लेकर वे बहुत स्पष्ट नहीं हैं। वे अलगाव की बात करते हैं लेकिन उसके महत्व को दूर तक रेखांकित नहीं करते हैं। विवेक निराला का स्पष्ट मानना है कि नब्बे दशक में काव्य परिघटना बदल जाती है। कविता की नई परिपाटी विकसित होती है। मृत्युंजय की तरह विवेक निराला के मन में कोई द्वंद्व नहीं हैं। वे सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन को सीधे-सीधे कविता से जोड़ देते हैं। वे लिखते हैं - ''सोवियत संघ का विघटन और बाबरी मस्जिद का ध्वंस 90' के दशक के अधिकांश कवियों के महास्वप्न का ध्वंस था। कवियों की पृथ्वी उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ी की पृथ्वी नहीं रह गयी थी।'' ये घटनाएं महास्वप्न या यूटोपिया के खात्मे की बात तो थी लेकिन क्या ये इतनी जल्दी और इतनी तीव्रता से ये कविता को भी बदल देते हैं? ऐसा प्रतीत होता है जैसे कवियों को इन घटनाओं का पूर्वाभास था और इसलिए उनकी तैयारी पूरी थी। उदासी और साम्प्रदायिकता विरोध नब्बे की काव्य परिघटना नहीं थी। उदासी के समाजशास्त्र के मूल में सोवियत विघटन की बजाय मध्यवर्गीय असहायता बोध की भूमिका अधिक थी और वह कविता में पहले से ही मौजूद थी। इस उदासी के मूल में इमरजेंसी के मध्यम से लोकतंत्र पर हमला और परिणाम स्वरूप मध्यवर्ग के भीतर एक डर की व्याप्ति से इंकार करना कठिन होगा। आठवें दशक के कवियों ने सत्तर की बहुत सारी राजनीतिक कविताओं को इसलिए खारिज कर दिया था क्योंकि उनके अनुसार वह कृत्रिम उत्साह और छद्म क्रियाशीलता को दर्शाती थी। विवेक निराला नब्बे की उदासी को एक नई परिघटना के रूप में चिन्हित करते हैं लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि यह उदासी आठवें दशक की उदासी से किस तरह भिन्न थी। क्या उदासी की परिघटना या फेनोमेना कविता में पहले से मौजूद नहीं थी? क्या इसका अर्थ यह निकला कि नब्बे के कवियों ने पहले से आ रही काव्य परिघटना को ही विस्तृत किया? यह बात तब और भी स्पष्ट हो जाती है जब स्वयं विवेक निराला इसे समझाने के लिए आठवें दशक के कवियों के उदाहरण पेश करते हैं।
मुझे लगता है इस पूरी बहस का उद्देश्य नब्बे को एक नई परिघटना के रूप में चिन्हित करना है। विवेक निराला के लिए इसमें कोई दुविधा नहीं है, मृत्युंजय भी कुछ अगर मगर के साथ अन्तत: इसे विमर्शों के स्तरपर ले जाकर स्वीकार कर लेते हैं - नब्बे के दशक में स्त्री और दलित अस्मिता को कई मजबूत स्वर मिले। कई कवियों के पहले-दूसरे संग्रहों में दलित-क्षेत्र का विस्तार दिखता है। यहां एक बात और गौर करने की है। सिर्फ पुरुष-क्षेत्र और स्त्री जगत में ही नहीं-दलित कवियों के काव्य-और गैर, स्त्रियों और दलितों की कविता की अलहदा दुनिया भी कविता के इलाके में वजूद में आ चुकी थी। इसके चलते कविता का लोकतंत्रीकरण हुआ। स्त्री और दलित समुदाय के दुखों को दर्ज करने की परम्परा हिन्दी कविता में रही आयी है, पर इस दशक की कविताओं में नई खास बात है परकाया प्रवेश की कोशिश।
यहां भी मृत्युंजय के निशाने पर दूसरे कवि हैं इसलिए वे न तो किसी दलित कवि का जिक्र करते हैं और न ही किसी स्त्री कवि को इसका श्रेय देते हैं। लेकिन इस खूबसूरत मोड़ या हैप्पी एंडिंग पर मृत्युंजय अन्तत: नब्बे की कविता को लाकर रखते हैं। यहां मुझे हिंदी की इधर की कुछ (तथाकथित) लम्बी कहानियों की याद आ जाती हैं जिसमें एक संतुलन निर्मित करने के लिए स्त्री या दलित पात्रों को जोड़ दिया जाता है हालांकि कहानी के मूल कथ्य से उनका बहुत जुड़ाव नहीं होता। आखिर मृत्युंजय स्त्री और दलित विमर्श को आखिर में ही क्यों जगह देते हैं। क्या वे भी किसी किस्म के संतुलन को निर्मित करते हैं? बहरहाल मुझे लगता है कि बहस की दिशा यूँ भी हो सकती थी कि अगर नब्बे के बाद कविता मूलरूप से बहुत परिवर्तित नहीं होती या कविता में लगातार दुहराव नज़र आता है तो इसके मूल में कौन से कारक हो सकते हैं? नब्बे के बाद जो समय और समाज में परिवर्तन आता है उसने कविता के समक्ष कौन सी चुनौतियां प्रस्तुत की? इन चुनौतियों से नब्बे के कवि किस तरह टकराते हैं? नब्बे ही क्यों बल्कि नब्बे से लेकर वर्तमान तक के कवि। मुझे लगता है कि यह बहस हर साल में नब्बे से शुरू होकर आज की कविता तक आयेगी ही, क्योंकि नब्बे के बाद से देश-काल किन्हीं खास दिशाओं में लगातार गतिशील रहा है और ऐसी स्थिति में न सिर्फ कवि के लिए कविता पर सोचने समझने वाले हर सचेत व्यक्ति को इन खास दिशाओं का कविता पर पडऩे वाले असर पर बात करनी ही होगी। यह दिलचस्प है कि न तो मृत्युंजय और न ही विवेक निराला कविता पर आसन्न संकट की कोई बात करते हैं। संभव है उनके लेखे कविता का यह सुखद काल हो परन्तु मैं ऐसा नहीं मानता और ऐसा न मानने के पीछे कुछ बिन्दुओं की चर्चा में संक्षेप में करना चाहूँगा।
वागर्थ में जो पिछले दिनों बहस चली उसमें नब्बे की कविता के लिए नाइंटीजकी अवधारणा रखी गयी। कभी एडोर्नो नें लॉन्ग नाइनटीन्थ सेंचुरी की अवधारणा रखी थी और प्रबोधन की प्रक्रिया से उसे जोड़ा था। हालाँकि यहां उसके विस्तार में मैं नहीं जाऊंगा, लेकिन मैं यहाँ इतना जरूर कहूंगा कि फूको ने प्रबोधन को ज्ञानवाद और तार्किकता के युग के रूप में चिन्हित किया था। यह भी कोई नई बात नहीं थी लेकिन फूको इसे आगे बढ़ाते हुए, ज्ञानवाद और तार्किकता को ज्ञान के वर्चस्व एवं बुद्धिवाद की प्रवृत्ति के हावी होने के रूप में चिन्हित करते हैं। मैं यहां पूकों की इस बात को रखते हुए पूछना चाहूंगा कि क्या लॉन्ग नाइनटीज को कविता  में हम बुद्धिवाद और तार्किकता के वर्चस्व के रूप में देखना चाहेंगे? क्या यह एक ऐसा कविता युग है जिसमें कविता की संवेदनात्मकता को दरकिनार कर बुद्धिवाद को स्थापित किया गया है। मुझे लगता है कि निश्चित रूप से कविता में ज्ञानवाद और तार्किकता का वर्चस्व तो इधर बढ़ा है और यह कविता के लिए बहुत सुखद स्थिति नहीं हैं। याद करें कि मुक्तिबोध ने ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की बात की थी। वे ज्ञान के संवेदनात्मक रूपांतरण की बात करते हैं, मुझे लगता है कि ज्ञान के वर्चस्वाद का नकार इसमें निहित है, मुक्तिबोध से यह महत्वपूर्ण बात हम सीखते हैं। नब्बे के बाद की कविता में ज्ञान का वर्चस्वाद बढ़ता है कविता की संवेदनात्मकता पर ज्ञान वर्चस्व हावी होने लगता है। तीस के दशक में वाल्टर बेंजामन ने लिखा था -
The Work of Art in the Age of Mechanical Reproduction। ध्यान दें कि बेंजामिन जब ऐसा कह रहे थे तो वे न तो प्रथम विश्वयुद्ध की त्रासदी को दरकिनार कर रहे थे और न ही दूसरे विश्वयुद्ध की संभावना को नकार रहे थे, लेकिन वे ज्ञानोदय के परिणाम स्वरूप ज्ञान के उत्पादन के यांत्रिक उत्पादन के रूप में बदलने की प्रक्रिया को चिन्हित कर रहे थे, यानि बीसवीं सदी की कला के संकट को समझने के लिए वे उन्नीसवीं सदी तक जाते हैं। मैं यह जरूर कहना चाहूँगा कि कला में जो परिवर्तन होते हैं वह एकदम पास की राजनैतिक और सामाजिक प्रक्रिया का मूलभूत परिणाम नहीं होते हैं हालांकि इस बात की चर्चा मृत्युंजय भी करते है लेकिन वे इस पर अमल नहीं करते। इस सन्दर्भ में देखे तो मुझे लगता है कि जिस तरह वागर्थ में चली बहस और विवेक निराला ने सोवियत विघटन को नब्बे की कविता की केंद्रीय प्रवृत्ति के रूप में रेखांकित करने का प्रयास किया है असल में ऐसा नहीं हैं। इसके बनिस्पत अगर हम इस कविता के रूप रंग छवियों और मुद्राओं एवं आशयों को संचार क्रांति के सन्दर्भ में देखने की कोशिश करें तो स्थिति अधिक स्पष्ट होगी। संचार क्रांति ने जिस तरह हमारे मन मस्तिष्क पर गूगल और विकिपीडिया का साम्राज्य स्थापित किया है, जिस तरह ज्ञान का वर्चस्व स्थापित किया है उसने एक हद तक हमारी काव्यात्मक संवेदना को कुंद कर दिया। यहां मेरा मानना बस इतना है कि पिछले तकरीबन दो दशक की कविता पर संचार क्रांति का प्रभाव हावी होता गया। बुद्धिवाद ने धीरे-धीरे कविता को अपनी जद में ले लिया।
आठवें दशक तक कविता तीन रूपों में हमारे सामने आती है यातो वह संग्रह के रूप में, ध्यान दें तो हमारे अधिकांश बड़े कवि (आठवें दशक के कवि) अपने पहले संग्रहों से ही चर्चा के केंद्र में आ गये। हालांकि इनमें से कई अपने दूसरे संग्रह में इसे दुहरा नहीं सके। कविता के प्रसार का दूसरा रूप अखबार और पत्रिकाएं थी और तीसरा माध्यम थी गोष्ठियां। मुख्यत: यही तीन माध्यम थे कविता के प्रसार के। लेकिन नब्बे के बाद हमारे यहां इन्टरनेट की शुरूआत होने लगी। 2000 के बाद के प्रकाशन में इसकी भूमिका अहम् होने लगी। इन्टरनेट यूजर्स कविता के पाठक होने लगे। यहां मैं एक चीज़ की तरफ और ध्यान आकृष्ठ करना चाहूँगा कि 2000 के बाद से यानि इन्टरनेट के व्यापक प्रसार के बाद से कविता के लिए अखबारों में स्थान की कमी नज़र आने लगी। बड़े पैमाने पर कविता या कहानी के स्थान पर समीक्षाएं प्रकाशित होने लगी। इसका एक फायदा यह हुआ कि अखबारों में साहित्य सम्पादक की हैसियत थोड़ी बढ़ी। लेकिन परिणाम यह हुआ कि लेखक और कवि अपने रचना पढऩे पढ़वाने के स्थान पर समीक्षा छपवा कर गौरवान्वित महसूस करने लगे। यह इन्टरनेट के माध्यम के रूप में इस्तेमाल के परिणामस्वरूप पारम्परिक काव्य प्रसार की राह में आया पहला रोड़ा था। यह कविता के लिहाज़ से बहुत बुरा हुआ। आज कविता के उत्पाद का सेवन करने वाला वर्ग बहुत हद तक इन्टरनेट यूजर्स है। इसने बहुत हद तक कविता के मिजाज़ को बदल दिया है। कविता लिखे जाने के साथ-साथ प्रसारित हो रही है पढ़ी जा रही है और उस पर राय व्यक्त की जा रही है। यानि लिखने की प्रक्रिया-प्रसारित होने की प्रक्रिया, पढ़े जाने की प्रक्रिया और उस पर राय व्यक्त की जाने की प्रक्रिया के बीच तमाम अन्तराल नष्ट हो चुके हैं। इन तमाम अंतरालों के नष्ट होने ने कविता को एक फास्ट फूड में तब्दील कर दिया है। इस सबका परिणाम यह हुआ कि कविता पर पूर्वनिर्मित छवियों का एक आतंक सा है। चूंकि उपरोक्त अंतराल नष्ट हो चुके हैं इसलिए कविता में समय की फांक को देखना बहुत कठिन हो गया है।
कविता में अंतरालों के नष्ट होने ने बहुत हद तक हमारी काव्य चेतना को कृत्रिम बना दिया है। कविता का बहुत बड़ा हिस्सा यांत्रिक फुनरुत्पादन की प्रक्रिया का अंग बन गया। तो क्या यह कहना प्रासंगिक होगा कि यह जो नब्बे के बाद की कविता है, यानि संचार क्रांति युग की कविता है वह बहुत हद तक आठवें दशक की कविता का पुनरुत्पादन है। जहां एक और आठवें दशक की कविता का प्रारूप है तो दूसरी तरफ ज्ञान और तर्कवाद का वर्चस्व।
कवि जब शून्य में टकटकी लगाये देखता था तो दरअसल वह प्रकृति के साथ हो लेता था। एकांत की खिड़की प्रकृति की ओर खुलती थी। दुर्भाग्य से अब window 8 की की तरफ खुलती है। संचार क्रांति ने सबसे बड़ा हमला हमारे इसी एकांत पर किया है। अडोर्नो जिस फुर्सत के क्षणों के नष्ट होनेकी बात कल्चर इंडस्ट्री में करते हैं वह एक बेहद गंभीर मसला है। फुर्सत के क्षणों के नष्ट होने ने हमारी चेतना में एक ऑर्गेनिक परिवर्तन ला दिया है। हमारी संवेदना रूपांतरित हुयी है। इस बात बात को आज समझना कठिन नहीं कि इस अर्थ में पूंजीवाद ने कला के लिए कितना बड़ा संकट ला खड़ा किया है क्योंकि कला ही मनुष्यता की एकमात्र ऐसी शरणस्थली है जो पूंजीवाद के लिए सबसे बड़े प्रतिरोध का सृजन करती है। मैं यहाँ जोर देकर कहना चाहूंगा कि संचार क्रांति के माध्यम से पूंजीवाद का पुनर्जागरण होता है। वह पुनर्जागरण कला के विरोध में खड़ा होता है क्योंकि यह सृजन की परम्परा को नष्ट करता है। मनुष्य के जीवन के एकांत का गायब होना एक बेहद गंभीर मसला है। यहां कलाओं के अस्तित्व का सवाल है।
क्या हम फिलहाल ऐसी कविता लिख रहे हैं जिससे हम अपने युग को पहचान सके फिर ऐसा क्यों हैं कि इस कविता को बढ़ते हुए कभी विष्णु खरे, कभी मंगलेश डबराल, कभी राजेश जोशी, कभी अरुण कमल याद आते हैं। मैं यहां यह नहीं कहना चाह रहा हूं कि सर्वस्व ऐसा ही है। मैं सिर्फ मूल अंतर्विरोध की तरफ ध्यान आकृष्ट करना चाह रहा हूं। इन्टरनेट के इस युग ने काव्य सृजन को भले एक उत्सव में बदल दिया हो। काव्य सृजन की प्रक्रिया में भले ही तमाम अंतरालों को नष्ट कर दिया गया हो बुद्धिवाद ने भले ही कविता पर अपने दावे और घेरे को मजबूत किया हो लेकिन कविता में इस लहर के विरोधी स्वर भी सुनाई दिए हैं। पिछले दिनों जहां आठवें दशक के अधिकांश कवि जहां अपनी बनाई सीमाओं से नहीं उबर पा रहे हैं और विभिन्न संग्रहों के रूप में यांत्रिक पुनरुत्पादन की प्रक्रिया पर जोर दे रहे हैं वहीं कुछ महत्वपूर्ण संग्रह भी हमें देखने को मिले हैं। मुझे लगता है नए कवियों में भी कई कवि उपरोक्त संकट से वाकिफ है और वे ऐसी कविता लिखने की कोशिश में है जिसमें हमारे समय की वास्तविक आहट, अनुगूंज मौजूद हो। साहित्य, या कला के संदर्भ में कही गयी कोई बात अंतिम नहीं होती है, उसमें लगातार बदलाव, परिवर्तन की गुंजाईश होती है, होनी चाहिए। नब्बे के बाद की कविता पर एक बहस चल पड़ी है कुछ लोग इस हड़बड़ी में है कि इसके साथ ही पीढिय़ों की घोषणा हो जाये। लेकिन वह न तो कविता के मूल्यांकन का सही तरीका होगा और न ही इससे आज की कविता की ठीक-ठीक पहचान हो सकेगी, क्योंकि भविष्य का रास्ता तो वर्तमान से ही निकलेगा। वाल्टर बेंजामिन लिखते हैं - ''वर्तमान के ऐतिहासिक संघर्ष के परिणाम से अतीत भी प्रभावित होता है, समाज और साहित्य के इतिहास में वर्तमान का विचारधारात्मक संघर्ष वर्तमान और भविष्य के लिए ही नहीं होता, वह अतीत के लिए भी होता है''। इसलिए यह जो बहस है वह महज़ वर्तमान के लिए नहीं है वह अतीत के लिए भी है। नब्बे के बाद की कविता पर यह बहस भविष्य में एक गंभीर विचारधारात्मक संघर्ष का रुख अख्तियार करेगी क्योंकि वर्तमान कविता के गतिरोध का प्रश्न इससे जुड़ता है। यह जो कठिन समय है वह हमसे गम्भीर मगर ईमानदार विश्लेषण की मांग तो करता ही है।


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