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जून 2014

संपादकीय

ज्ञानरंजन

पाठकों, खेद है कि आलोचक रविभूषण का नामवर सिंह की आलोचना पर लेख वायदा करके भी हम इस अंक में नहीं दे पा रहे है। उनको थोड़ा और समय चाहिये था सो अगली बार। रविभूषण जी हिन्दी के सर्वाधिक यात्राएं करने वाले और शिष्टाचार में अव्वल आलोचक है, उत्कृष्टता के आग्रही, इसलिए भी अतिरिक्त समय लगा है लेकिन प्रियम अंकित का धारावाहिक विभाजन की त्रासदी और हिन्दी उपन्यास वाला स्तंभ इस बार उनके अतिशय विलम्ब के कारण स्थगित है। उन्हें बदीउज़्जमा के उपन्यास 'छाको की वापसी' पर लिखना था।
लक्ष्मीधर मालवीय की कहानी हम गहरी कृतज्ञता के साथ प्रकाशित कर रहे है जो उन्होंने कुछ बरस पहले लिखी थी। काफी लोग लक्ष्मीधर से परिचित है। वे भाषाविद, संपादक, अध्यापक और साहित्यकार हैं। लगभग 50 वर्ष पूर्व वे जापान चले गये थे और इस पूरे दौर में उन्होंने अपनी बोली (अवधी) और भाषा को उन्नत और जीवित रखा। अपने जापानी परिवार को भी हिन्दी सिखाई और जापानी भाषा में भी पारंगत हुये। लक्ष्मीधर अपने दुर्लभ शोध कार्य और सृजन की पटरी में समांतर चलते आये हैं। लक्ष्मीधर मालवीय महामना मदन मोहन मालवीय के परिवार से सीधे आते हैं और फोटोग्राफी तथा वामपंथी राजनीति उनकी प्रारंभिक क्रियाशीलता रही है। पहल ने इस तथ्य को शुरुआती दौर में छापा था कि अपने वृहत परिवार में वे पहले कामरेड थे और लम्बे संवाद के बाद उनके पिता ने इसे स्वीकृति दी थी। यह 1957 का समय था।
आधुनिक हिन्दी कविता पर जो बहस पहल में शुरू हुई थी जिसे मृत्युंजय ने शुरू किया उसे विवेक निराला के बाद इस अंक में अच्युतानंद मिश्र ने नये मुद्दे और आयाम दिये हैं। हम इसे जारी रखना चाहते है पर इस बहस में सामाजिक पृष्ठभूमियों को भी विपुल रूप में शामिल किया जाय यह हमारा आग्रह है। संजय कुंदन ने अपने समीक्षात्मक लेख में मंगलेश डबराल के नये संग्रह के संदर्भ में भी नये औजारों की बात की है और इस युग में शत्रु से लडऩे का स्वागत किया है। इससे किंचित संतोष यह हुआ कि बड़ी चिंताओं को कम से कम स्पर्श किया जा रहा है क्योंकि हिन्दी की समकालीन कविता कुछ आलोचनात्मक और व्यंग्यात्मक आक्रमणों के साथ लगता है इसी व्यवस्था में अपना स्पेस बनाने का प्रयास कर रही है जबकि चिंता, बेचैनी, प्रतिरोध और उसका रक्तछंद पूरी तरह स्वाहा हो गया है, यहां तक कि 50 साल पहले के मुक्तिबोध को भी उसने छोड़ दिया है। हमारे कवियों ने बच्चे काम पर जा रहे हैं जैसी पंक्तियां तो लिखीं पर 'बारबेरियन्स आर कमिंग' जैसा वाक्य कविता को नहीं दे सके।
संजय कुंदन ने इसी अंक में लिखा है कि कवि नये औजार ढूंढ रहे है। कवि औजार ढूंढ रहे है या तेज़ कर रहे हैं ताकि अपनी कविता को समकालीन चमक से भर सकें। दरवाजे पर फासिज्म आ गया है, यह पता नहीं कब से चला चल रहा था। अब तो नंदलाला बड़ी देर हो चुकी है। जब विकास प्रणालियों और उसके जघन्य जीवन दर्शन का खुलकर विरोध नहीं किया। जब इस नई दुनिया को आपने अस्वीकार नहीं किया। एक नरम सुखद जीवन जीते रहे और सफलताएं (एक प्रकार की सत्ता) अर्जित करते रहे और थक गये। इसलिये हिन्दी कविता एक व्यंग्य के बाद फिस्स हो जाती है। कविगणों का यह हाल है कि हर सप्ताह दो सप्ताह में फेसबुक पर उनका सूचीपत्र आ जाता है और महीने दो महीने में रंगीन फोटुओं की अदा बदल जाती है। इनको यह भी पता है कि देश के जेलों में सैकड़ों नौजवान, संस्कृति कर्मी लम्बी यातनाएं झेल रहे हैं, उन पर मुकदमें भी नहीं चलते। यह लम्बा किस्सा है।  सांस्कृतिक दलदल और अंधकार के बगल से बाईपास से निकल जाना आसान है।
पाठकों, यह जो भारतीय इतिहास की सर्वाधिक घिनौनी तानाशाही हमारे दरवाजों पर आ गई है यह हमारे सैकड़ों कविता संग्रहों को निरर्थक कर देगी। इन संग्रहों को न तो तानाशाह की औलादें पढ़ेंगी, न अंधकार युग की समाप्ति के बाद इनमें कुछ तत्व बचेगा और न ही परिवर्तन कामी, क्रांति के आकांक्षी कविता प्रेमियों के लिए इसका अस्तित्व होगा।
इसलिए एक साहित्यिक पत्रिका का निकाला जाना, निखार के साथ निकाला जाना आज असंभव हो गया है। हम लगातार बेहतर की खोज करते हैं, बहुत अस्वीकृत भी करना होता है। इस अंक में इरशाद कामिल और निधीश त्यागी की कविताएं हमारे साथी राजकुमार केसवानी ने उपलब्ध कराई है। कामिल जगह जगह लिखते थे, जगह जगह कहते थे कि 'पहल' ने उन्हें बहुत बार रिजेक्ट किया है पर हमारा लक्ष्य ही बेहतर से बेहतर प्राप्त करने का है। निधीश त्यागी की कविताएं कवि के सार्वभौम नजरिये से उत्पन्न हुई हैं। संजय चतुर्वेदी बहुत अर्से बाद मिले, वे भी जल्दी नहीं निकालते। और हरीशचंद्र पांडे तथा दिलीप चित्रे हमारा हासिल हो सकते हैं। दिलीप चित्रे पर बड़ा शानदार काम हो रहा है। विजय गौड़ और नित्यानंद गायेन पहल में पहली बार आये हैं। एक नयी सिरीज रोहिणी अग्रवाल शुरू कर रही है। आगामी अंक में देवीप्रसाद मिश्र की कविता पर एक गंभीर आकलन हमें मिल गया है। बस प्रतीक्षा-
ज्ञानरंजन


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