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दिसम्बर 2013

कैसे टूटे तिलिस्म ये सत्ता का

शिवप्रसाद जोशी




हिमालय को संवेदना की आँखों से देखें तो आप समझ सकेंगे कि हमारी राजनीति, अर्थनीति, विकासनीति ने ही नहीं, धर्म की आधी-अधूरी समझ और उसकी सांप्रदायिक व्याख्या ने भी हमारा कम नुकसान नहीं किया है।
- कुमार प्रशांत

पहाड़ की त्रासदी के हवाले से कुछ बातें

उत्तराखंड में आई प्रलयंकारी आपदा के बाद अब भी पहाड़ में जीवन पटरी पर नहीं लौट पाया है। कई प्रभावित इलाकों में राहत की स्थिति ये है कि मुट्ठी भर अनाज के लिये लोगों को मीलों पैदल चलकर आना पड़ रहा है, लोग शिविरों में गुजारा कर रहे हैं, स्कूल-कॉलेज खुल नहीं पाए हैं और रास्ते अभी भी कटे हुए हैं। लगातार भूधंसाव हो रहा है, कई जगह राहत सामग्री सड़ रही है और ज़रूरी सामान लोगों तक पहुंच ही नहीं पा रहा है।

अगस्त में राखियां यहां से वहां जानी थीं। मिसाल के लिए देहरादून से आपदाग्रस्त इलाकों में भेजी राखियां लिफाफों और बोरियों में ही होंगी। जोशीमठ से चली राखियां कहीं नहीं पहुंची। चमोली जिले में जोशीमठ सड़क से लगा कस्बा है। यहां ये हाल है। सड़क टूटी है पैदल चलने लायक ही बन पाएगी। घरों में राशन की किल्लत हो रही है। बच्चे कॉपियों में सटा सटाकर लिख रहे हैं। अक्षर और शब्द इतने पास आ रहे हैं कि टकरा रहे हैं। उन्हें कॉपियां देर तक चलानी हैं। पेंसिलें खडिय़ा किताबें जैसे अपने ही भीतर चली गई हैं। एक पूरा जीवन ही अपने अंधकार में चला गया है। वहाँ से वो कब उबरेगा। हम नहीं जानते।
पेड़ों की जड़ें और शाखाएं और मकान का मलबा सरिया पत्थर टीन लोहा इस्पात सब कुछ इतना मुड़ातुड़ा और यहां वहां फैला हुआ है और एक दूसरे से ऐसे गुंथा हुआ है मानो हम तबाही नहीं कोई सर्रियलिस्ट पेंटिंग देख रहे हैं, हमारे रोंगटे भी खड़े नहीं होते। यह एक गहरा शॉक (ह्यद्धशष्द्म) है। अतिवृष्टि ने अतियथार्थ बना दिया है। सब गुमसुम है। इस बारे में न बोला जा सकता है न लिखा जा सकता है। गमबूट गिरा हुआ है, पीटी के सफेद जूते और सफेद जुराब पड़े हैं और ताज्जुब है मलबे में उनकी सफेदी नहीं डूबी है। नई जिल्द लगी किताबों का गट्ठर वैसा का वैसा पड़ा है। पास में पेंसिलें और स्केच पेन बिखरे हुए हैं। जर्जर शिक्षा अपने स्कूल के साथ डूबी।
पानी की धार कुल्हाड़ी से तेज़ है। उसने नीवें काटी। पेड़ काटे। मकान काटे। सीढिय़ां काटी। खेत काटे। एक जीवन को ही झटके में काटकर दूर फेंक दिया। इतनी विकरालता थी।
उत्तरकाशी में नदी आड़ी तिरछी हो गई है। उन लकीरों में लौटती हुई जो बरसों पहले उसका प्रवाह थीं। सब कुछ आदिम भयावहता में लौट रहा है। वहां होटल घर मकान ऐसे हड़बड़ाकर गिरे जैसे किसी ने उन्हें खींच लिया हो। उस वेग में हमारा मीडिया भी बहा।
टिहरी की झील अब प्रतापनगर की पहाड़ी को डूबो रही है। उसने वो पूरा पहाड़ इतना गीला कर दिया है कि उसके पानी में आ जाने की भयानकता स्वाभाविक सी लगने लगेगी।
एक विराट उजाड़ बरबादी का अपार फैलाव कुछ दिनों में लगने लगेगा कि यह ऐसा ही तो था। कहां कुछ हुआ था। टिहरी को देखकर हम अब कहां उस भूगोल को याद करते हैं जो न सिर्फ एक शहर था। बनाया राजा ने बेशक लेकिन बसाया हुआ लोगों का, वो अन्न से भरी पट्टी किसे याद है। लेकिन कुछ लोग हैं जो अब भी उस झील के पास से गुज़रते हैं या उस झील को पार करते हैं उनके दिलों में गहरी हूक उठती है। उसे न सुना जा सकता है न उसे डिस्क्राइब किया जा सकता है। वो अपने अतल अवसाद में गिर जाती रूंधे गले की एक गड़प है बस। उतनी ही देर में सब कुछ वैसा ही हो जाता है। झील की सतह पर कंकड़ की रेखाएं भला कितनी देर रहेंगी।
मामा नाव से घर जा पाए। वहीं टिहरी के मालीदेवल के ऊपर मरोड़ा गांव। यह रोमांटिक लग सकता है लेकिन पहाड़ जल जंगल उकाल (चढ़ाई) के वक्तों को डुबोकर आया नाव का वक्त भला कैसा रोमान बनाएगा। वह तो और छाती तोड़ता है। सड़क धंस चुकी है पुरानी सड़क तो पहले से पानी के नीचे हैं।
पिथौरागढ़ को लुभावना देखा है तस्वीरों में रहस्य भरा पास बुलाता हुआ और आज की तस्वीरें देखिए वो हरियाली बरछों की तरह चुभती है। लूट का धंसाव है, कुदरत और मिट्टी का नहीं।
गांव का मेरा घर जैसे किसी ने बीच से काट दिया हो। अब वो धीरे धीरे नीचे आएगा। हम उसे ढहता हुआ देखेंगे। एक मृत गदेरा कैसे विकराल ज्वार में तब्दील हो जाता है। एक बहुत बड़ा पत्थर हमारे दादा दादी के समय से उस गदेरे में पड़ा था। हमारे घर का पहरेदार। हम सुस्ताते थे उसके ऊपर, खेलते, कैसा मैदान लगता था वो और कितनी थरथराती हुई थी वो ऊंचाई। हम उस पत्थर तक पर्वतारोही की तरह पहुंचते थे। गांव से सब लोग निकलते गए। वो रास्ता बंद हुआ। झाड़ झंखाड़ फैल गया। घास ऊंची हो गई। कंटीली झाडिय़ों ने पत्थर को घेर लिया। पर वो जैसे बुरे व$क्त में भी डटा रहा हिला नहीं। यहां तक कि उसने काला पडऩे से भी इंकार कर दिया। इतनी निश्चल रही होगी उसकी आत्मा। इस बारिश में वो पत्थर जब हिला और गिरा तो सहसा यकीन नहीं होता था। वह हमारे बचपन का भरोसा था। पानी के रौद्र वेग से लुढ़कता हुआ खेत पार करता हुआ सड़क तोड़ता हुआ वो नीचे नदी में जा गिरा। पत्थर अपने विस्थापन में भी पत्थर है।
यह विपदा पहली बार नहीं टूटी है। कुदरत इसी तरह से प्रहार करती आई है। आंकड़े और इतिहास सब है। हम उन त्रासदियों का लेखाजोखा नहीं बताना चाहते हैं। हम जो अब कुछ निर्णायक और आगे की कुछ बातें करना चाहते हैं।
16-17 जून 2013 का प्रहार विध्वंसक था, जानलेवा था। सैलानी थे शोर था वाहन थे धर्मांधता थी। और वर्चस्व और विवाद थे। और इधर जब आंसू सूख चुके हैं और दूर गिरी ज़िंदगियां थके कदमों से लौट रही हैं तो ऐसे में नया शोर आ रहा है। विपदा जैसे कहर बरपाकर बौद्धिक और एनजीओइक उत्पात मचाने निकल गई है। इतनी सब को पहाड़ की बेबसी याद आ रही है और इतना क्लाइमेट चेंज,ग्लोबल वॉर्मिंग, पर्यावर'न', प्रदूषण, तूतूमैंमैं, तू समर्थक मैं विरोधी तू कविता मैं बयान तू निष्क्रिय मैं हैरान हो रहा है कि सत्ताएं आंखें झपकाए सुस्ताने चली गई हैं। बोल लें तो हम अपने मन की करें। ऐसी निर्विकारता और बेशर्मी है।
उत्तराखंड की त्रासदी पर विलाप जारी हैं, हिसाब साफ किए जा रहे हैं, एक दूसरे को धकियाना धमकाना और धिक्कारना जारी है। ताज्जुब है ऐसे ऐसे व्याकुल लोग प्रकट हुए हैं जिन्होंने उत्तराखंड के पिछले 13 साल में एक भी किसी जनविरोधी मुद्दे पर टीका करना गंवारा न समझा था। इस आपदा ने तो जैसे सारे ताले खोल दिए हैं। सारे मुंह उत्तर और हिमालय की ओर हुआं हुआं करते हुए दिखते हैं। क्या ऐसा था इस आपदा में कि सारे जोर आ गए। कोसने की एक अभूतपूर्व बेला आ गई। सारे दर्द छलक पड़े। और एक अजीब किस्म की अश्लीलता...आसान लड़ाइयां चुनी गई हैं।
खुलेआम लूट है। और सिर्फ पक्ष विपक्ष ही बना है। तुम सरकार बनो हम विपक्ष। तुम संसद हम सड़क। उत्तराखंड मानो कोई लेबोरेटरी है। बनी बनाई परियोजनाओं का विरोध आसान है बनिस्पत की प्रस्तावित बांध के पहले पत्थर के  पास आमरण अनशन पर बैठ जाना। न बनने देने की अटूट ज़िद के हवाले से डटे रहना। अब चिल्लाते हो। बांध के लिए सिर्फ। पहाड़ की पूरी गतिशीलता को और  संभावनाओं को भंग करने के लिए और क्या क्या हुआ नहीं बोलोगे। टिहरी बांध सत्तर से होता हुआ दो हजार से आगे तक आकर बन गया। आंदोलन हुए और टूट गए। पुनर्वास भ्रष्टाचार की सदाबहार एक्सरसाइज़ बन गया।
कितने लोग पेड़ से चिपके हैं और जंगल को बचाया है। कितने लोग बांध के लिए मशीन आते ही उसके आगे लेट गए हैं। कितने लोग बांध के पहले पत्थर के ऐन पास आमरण अनशन पर बैठ गए हैं। जैसे जैसे पानी बढ़ता है तंबू डेरे जाने लगते हैं। गले गले तक पानी क्यों नहीं आने दिया। सरकार को क्यों नहीं डराया। टिहरी में अशोक सिंघल को घुसने दिया। कैसे। और क्यों। पुनर्वास की लड़ाई गंगा प्रवाह के अवरूद्ध होने या न होने की लड़ाई बन गई। इस एजेंडे पर सब चुप क्यों थे। पर्यावरण के एजेंडे ने धर्मांधता के एजेंडे के आगे घुटने टेक दिए थे। या वो असल में एक ही तंबू से निकली एक ही एजेंडे की दो धाराएं थीं। मानते तो फिर ऐसा मानते जैसा नियमागिरी के आदिवासी मानते हैं। हरा दिया है। इष्ट देवता के घर को खोदने नहीं दिया। मानते कि वैसी आस्था है। ऐसी अद्भुत भक्ति। ऐसा तपस्वी समर्पण और उनका विरोध किसी अध्यात्म के हवाले से नहीं आता था। मंगलेश डबराल की कविता के हवाले से कहें वो गहरा अरण्य उनका अध्यात्म नहीं उनका घर है।
विकास के पुरोधा कहते हैं कि आदिवासियों को डिट्राइबलाइज़ करना होगा, वे कब तक अपने अंधेरों में रहेंगे। भाला बरछी तीर धनुष और अजीबोगरीब पोशाक, अजीबोगरीब भाषा और अजीबोगरीब जीवन के साथ। उन्हें मुख्यधारा मे लाना होगा। और कैसे लाते हैं। उनके लिए अच्छी शिक्षा अच्छा पोषण अच्छा स्वास्थ्य अच्छी सुविधा लाकर उन्हें संबल नहीं देते। उन्हें उनके जीवन और संस्कृति से बेदखल करके उस कथित मेनस्ट्रीम में लाते हैं जिसे कन्ज़मयूमरिज़म कहते हैं। मास मीडिया के उत्पादों का जखीरा वहां भिजवाते हैं और उन्हें सांस्कृतिक उत्पादों का हैरान परेशान उचका हुआ उपभोक्ता बना देते हैं। जो कटेंट रवाना किया जाता है वो लुभावना है। चमकदार जिंदगियों की दावत देता हुआ।
हमारा सवाल यही है कि नियमागिरी जैसे इलाके क्योंकर इस दावत को ठुकरा कर जैसे हैं वैसा ही बने रहना उचित समझते हैं और क्योंकर उत्तराखंड के पहाड़ों में विकास बुखार की तरह फैल जाता है और संक्रामक हो जाता है। पहाड़ की परंपराएं और सामाजिक व्यवस्थाएं छिन्न भिन्न हुई हैं। चार धाम की यात्रा के लिए कहे जाने वाले रास्तों पर आखिरी कोनों तक आप चले जाइये, पहाड़ का स्थानीय भोजन नहीं मिलेगा। दाल मक्खनी, पनीर मसाला, नान, मैगी नूडल, कोक, पेप्सी, फेंटा और कुछ ऐसा ही मैदानी ढाबावाद। स्कूलों के, अस्पतालों के, बीमारी से सावधानी बरतने के, सामाजिक कामों के जागरूकता विज्ञापनों से ज्यादा कच्चे घरों और चट्टानों और साइन बोर्डों पर मास मीडिया उत्पादों के इश्तहार हैं।
पहाड़ की चट्टानों को जितना सीमा सड़क संगठन के डायनामाइटों ने उड़ाया है उतना ही ये नई रंगीनियों के निमंत्रण के इन इश्तहारों ने उन्हें फोड़ा है। चट्टान गायब हुई उस जैसा विरोध भी नहीं रहा। पहाड़ सिर्फ भूकंप के ज़ोन पांच और ज़ोन चार के अवश्यंभावी भूगर्भीय संकट से नहीं घिरे हैं, वे गैर कुदरती आफतों के लपेटे में भी हैं।
प्रतिरोधी कार्रवाईयां धुंधली पड़ जाती हैं और दुविधाएं आने लगती हैं और एजेंडे घुलमिल जाते हैं तो यही होता है। एक के बाद एक घातक वार। लोग ठेकेदार को एक ''सेवियर'' की तरह देखने लग जाते हैं, वह नौकरी देगा, घर में कुछ राशन और कुछ राहत देगा। वे अपनी विवशता में इतने टूटे हुए लोग हो जाते हैं। सरकारें उन्हें बहलाती हैं। उद्योग और संभावित रोज़गार से रिझाती हैं। खेत को हमारे हवाले कर दो और हम तुम्हें अन्न के बदले रूपए देंगे। नौकरी देंगे। अवसर देंगे। तुम्हें हम शहर भेज देंगे। तुम्हारा यहां क्या काम।
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और भूमंडलीय ''नाट्य'' कंपनियों के एजेंडे में एक महत्वपूर्ण बिंदु ये भी है कि कितने लोग गांव देहातों से शहरों की ओर रवाना होते हैं। शहरों की ओर उन्हें खदेडऩे का एक अघोषित लेकिन सुनियोजित अभियान रहा है और सरकारी अर्ध सरकारी और एनजीओ वालों के कार्यक्रम इस दिशा में सहयोग करते हैं। उनकी मशीनें और उनके अफसर और उनके विचार और उनके पंफलेट और प्रचार ऐसी हवाएं उड़ाते हैं कि लोग बौखलाए से निकलते हैं। उन्हें अपनी जगहें अचानक ही दुश्मन जमीन लगने लगती है वे दैवीय कोप या ईश इच्छा या नियति कहकर या तरक्की की एक निरीह सी कामना लेकर निकल जाते हैं और लौटते नहीं।
रही सही कसर कुदरती आफतें पूरा कर देती हैं। भूर्गभीय रूप से नवजात पहाडिय़ां भारी बारिश में दरकने लगती हैं, घाटियों में घनीभूत बारिश जमा हो जाती है और मकान और मिट्टी का धंसाव शुरू हो जाता है जैसे कोई अदृश्य आरी इस गीली धरती को काटती आ रही है। नदियां इस मलबे से भर गई हैं, उनमें निर्माण का मलबा जमा है और ये निर्माण बांध से लेकर होटलों तक का है।
खेत और जमीनें खाली हो रही हैं और आने वाले वक्तों में किसी न किसी रूप में से इलाके कॉरपोरेट के हवाले हो जाने वाले हैं। बिजली और उद्योग तो छोड़ ही दीजिए, खेती भी कॉरपोरेट ही होगी। खाद्य सुरक्षा कानून अपनी तमाम बुनियादी अच्छाइयों के बावजूद अंतत: पलायन की एक बहुत तीखी पुडिय़ा है। ये पुडिय़ा देने का काम उत्तराखंड में शुरू हो चुका है। किसान अब धूल मिट्टी बीज खाद गोबर और अन्न से सने और लथपथ व्यक्ति को नहीं कहेंगे, भूमंडलीय भाषा में किसानी नए मुकुट से सजी एक कॉरपोरेट युक्ति होगी। वो मैनेजमेंट का पार्ट होगी। कुछ लोग कहेंगे ठीक तो है क्या किसान का वही मेटाफर बनाए रखना चाहते हो। वो भी तो तरक्की करता हुआ भूमंडल में प्रवेश करेगा। सत्यजित रे की फ़िल्मों के बारे में भी कभी ऐसा ही कुछ कहा गया था कि वे देश की अथाह मायूसी दिखाती हैं और क्यों दिखाती हैं। खैर।
हम खेती किसानी के बदलाव की बात कर रहे थे। अब आप इसे बहुआयामी, बहुपरतीय और कई कोनों से आते हुए हमलों की तरह देखिए। बांध तो पीछे छूट गए हैं। अगर आप जलबिजली परियोजना के लिए मना करेंगे तो वे एटमी परियोजना लाएंगें। अगर आप परियोजनाएं नहीं चाहेंगे तो वे कोक का प्लांट ले आएंगे। भूजल का दोहन दूसरे ढंग से होगा, पर्यावरण का विनाश होगा और मास मीडिया संस्कृति पनपेगी। ये हमले के भीतर का हमला है।  हम जानते हैं कि नियमागिरी की लड़ाई में उनकी निर्णांयक हार नहीं हुई है। वे नए निशाने ढूंढ रहे हैं और खनिजों से उत्तराखंड के पहाड़ भी भरे हैं। हिमालय कमजोर और कच्चा और शिशु पहाड़ हुआ तो क्या। जितना जल्दी वो धराशायी हो उतना अच्छा क्योंकि उसके अंदर और उसके नीचे का अतुल भंडार और स्पष्ट दिखेगा। यानी ये कामना इतनी प्रबल है कि इससे आंखें और दिमाग चौंधिया गए हैं। हिमालय गिरेगा तो क्या बचेगा। किसे फुरसत है।
पंचायत अधिकार शून्य हैं। उन्हें समझने और बरतने वाले और भी बड़े शून्य में घिर जाते हैं। सत्ता संस्कृति ऐसा बना देती है। गठजोड़ की वो पहली कड़ी है। उद्योगपति और सितारे लोग तो हेलीकॉप्टर में आते हैं और केदारनाथ बदरीनाथ के दर्शन कर निकल जाते हैं। उनके लोग ज़मीन पर काम में लगे हैं।
क्या आपको अपने ही लोगों के खिलाफ आगे बढ़ती एक नए किस्म की फौज नज़र नहीं आती। बहुत ध्यान से आप देखेंगे तो ये फौज बढ़ी चली आ रही है और पहाड़ में कोई क़िले नहीं है। सारे दुर्ग ढह गए हैं। जनता बचीखुची सामथ्र्य और बचेखुचे अविश्वास के साथ जब तक है तब तक है। छटपटाहट इस समय पूरे पहाड़ का चक्कर काट रही है।
ऐसे इन अति पेचीदा, जटिल और मुश्किल समयों में कैसी लड़ाई चाहिए होगी। उसका स्वरूप क्या होगा। उसे भी वैसा ही परतदार और कई आयाम वाला होना होगा जैसे कि हमले हैं। तुम पर्यावरण पर्यावरण चिल्लाकर इस लड़ाई को जीत नहीं सकते, ये खेल होगा एक सिस्टेमैटिक मूवमेंट चाहिए। नारों से और कपटी किस्म के संरक्षणवाद से लोगों को मत बहलाओ। असमंजस के और तकलीफ के एक बहुत गहरे कुएं में धकेल दिए जाते हैं वे। उन्हें कहां तो एक मुकम्मल लड़ाई के लिए तैयार रहना था कहां वे विरोध और समर्थन के बीच झूल जाते हैं।
सरकारें और उनके नुमायंदे उनके संसाधनों को खसोटें और तुम सरकारों को और उनकी मशीनरी को घेरो खसोटो। इनाम अटेंशन और फंड बटोरो और निकल जाओ नए इलाकों की तरफ। लड़ाई को एक शक्ल लेने की नौबत बनने से पहले ही क्योंकि तुम्हें फिर लौटना पड़ सकता है। तुम जनता को झोंके रखोगे और दूर से सबको दिखाओगे देखो वह जनता मर रही है। जबकि जहां तुम दिखाते हो वहां से जनता टूटे कदमों से कबकी लौट चुकी होती हो। तुम भटकती हुई छायाएं देखते हो। वे मृतात्माएं हो सकती हैं।
थोड़ा जलबिजली के हवाले से कुछ देखते हैं। आज उत्तराखंड में चालीस हजार से ज्यादा एनजीओ हैं। 12 साल में परियोजनाएं देखें तो राज्य में 98 जलविद्युत परियोजनाएं चालू हैं और 111 निर्माणाधीन हैं। वर्तमान कार्यरत परियोजनाओं की कुल स्थापना क्षमता 3600 मेगावाट है। 21,213 मेगावाट की 200 परियोजनाएं योजना में हैं। ये उत्तराखंड जलविद्युत निगम के आंकड़े हैं। योजना आयोग ने 2032 से उत्तराखंड से 1,32,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा है। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार देश की 89 प्रतिशत जलविद्युत परियोजनाएं स्थापना क्षमता से कम उत्पादन कर ही हैं। उत्तराखंड भी उत्पादन के मामले में अलग नहीं। फिर ये परियोजनाएं क्यों। और उत्पादित हो रही बिजली। क्या वो हमें मिल रही है। नगण्य और रोजगार वह भी नगण्य। क्या चालीस हजार एनजीओ एक साथ आ जाते और प्रतिरोध की एक महान दीवार खड़ी कर देते तो क्या 70 सीटों वाली विधानसभा में 12 मंत्रियों के साथ बैठने वाली सरकार की हिम्मत होती कि वो हमारे जल जंगल का ऐसा दोहन करती आती। उसे किसी को भी कुछ भी सौंप देने की जुर्रत होती। अपनी जनता को वो चंद अवसरों और चंद रंगीनियों में उलझाकर पहाड़ को रौंदने के लायसेंस दे देती।
और ये तो आप भी मानेंगे कि अगर अंधेरे में निकलना है तो टॉर्च की रोशनी सब तरफ घुमाएंगें। सारा अंधकार परखेंगे फिर आगे बढ़ेंगे। टॉर्च लेकर अपने लायक रास्ता और रोशनी बनाकर आगे बढ़ेंगे तो कहां जाएंगे। उस अंधकार को कौन टटोलेगा जो आपके साथ साथ चला आता है।
बिजली की ही बात करते हैं। विकल्प तो दो। एटमी ऊर्जा लगा दें। रूस या कहीं और से उधार लेकर संदेहों और खतरों से भरी हुई। हमें बांध नहीं चाहिए। पर हमें बिजली तो चाहिए। नदी के वेग से मुकाबला करने की तकनीकी सामथ्र्य तो दो. क्या वो विक्रांत और अरिहंत और कुडनकुलम के लिए ही है। नदी का रास्ता नहीं रोकेंगे लेकिन अच्छा हमारे बच्चों को स्कूल भिजवाने का जतन तो करो। हमारी स्त्रियों के लिए अस्पताल करो। वहां रोशनी का इंतज़ाम करो।
सत्ताएं हमारी जरूरत को लूट का बिंदु बनाती हैं। दलाल पूंजीवाद पहाड़ फोड़ता है सुरंग डालता है खनन करता है। निम्न दर्जे का रोजगार देता है। माल ढुलाता है दिहाड़ी देता है। फिर हमें कहता है दफा हो जाओ। ये बिजली बाहर जाएगी। इस तरह हमारा विकास हो जाता है कि बांध आ आता है कि हमें वही चाहिए एक स्कूल और एक पुल और एक मास्टर और कुछ किताबें और एक अस्पताल और कुछ गीली दवाइयां ले आई जाती हैं बस।
हम कहां जाएं। एक भी किसी बड़े पूंजीपति का पहाड़ में कोई कल्याणकारी प्रोजेक्ट है। धर्म और आस्था की फैक्ट्रियों की बात हम नहीं कर रहे। कोई एक बड़ा और सुगम और सुविधा संपन्न अस्पताल है। कोई एक ऐसा स्कूल है जो सरकारी किरपा और कुप्रबंध से बाहर का हो। कोई सड़क है जो बुरे मौसमों और बुरे ठेकों से बाहर जाती हो। कोई उद्योग है जिसमें एक कोऑपरेटिव महक आती हो और वो चंद बिचौलियों और चंद मुनाफाखोरों के लिए न हो। सरकार के ऐसे किसी प्रोजेक्ट का नाम बताइये।
ठीक है। लड़ाइयां कमतर नहीं। बांध विरोध की लड़ाई भी कमतर नहीं। लेकिन इसका इतिहास क्या बता रहा है हमें। वे ही कॉरपोरेट जलजले जो पहाड़ को हिलाते हैं और डुबोते हैं। वे ही हम साथ हैं उत्तराखंड जैसे इमोश्नल लिलिजेपन के साथ टीवी कार्यक्रम  पेश करते हैं और कई करोड़ जुटाकर उन्हें ही सौंप देते हैं जो नदियां बचाने की लड़ाई के मशहूर या किंचित मशहूर नाम हैं। उन्हें ही बीड़ा सौंपते हैं जो बड़े औद्योगिक घरानों की सीएसआर कार्रवाइयों के लिए निर्मित किए गए प्रतिष्ठान हैं। फिर ये लड़ाई अंजाम तक कैसे जाएगी। दुष्चक्र कैसे टूटेगा। क्योंकि इसकी घिर्री तो बांध की टरबाइनों से ज्यादा तेजी से घूम रही है। भरते रहिए कागज, जाते रहिए कोर्ट। करते रहिए शोध, कौन रूक रहा है।
एक थोड़ा तीखा सवाल और है। पहाड़ में ऐसा कोई आंदोलन बड़े बांधों के खिलाफ क्यों नहीं उठा जैसा नर्मदा पर मेधा पाटकर का रहा है। क्यों। टिहरी बांध से कितना विस्थापन और किनका पुनर्वास हो रहा है। कब तक जारी रहेगा। पहाड़ों को छलनी करने के लिए ठेकेदार और मजदूर बाहर से नहीं बुलाए गए थे। वे वहीं के लोग हैं। उत्तराखंड की जीडीपी की छलांगें उनसे आई हैं। जनता ने क्योंकर एक सीमा के बाद विरोध करना बंद किया। क्योंकर माना कि चलो देखा जाता है घरों के लड़के काम पर लगे हैं। चार पैसे आएंगे। आने दो। उनमें वैसी अदम्य भावना क्यों नहीं आई जैसी नियमागिरी के दस हज़ार आदिवासियों में आ गई। ये सही है कि प्रतिरोध के खिलाफ दमन भी उतना ही मुस्तैद रहता है और वो आंदोलनों को तोड़ता है लेकिन क्या आंदोलन समय के साथ इतने लचीले होते जाते हैं।
अपनी ही कुदरत के बीच हम ही उसके खलनायक बन गए हैं। जबकि हमारा ऐसा नाता नहीं था। पर्यटन को पूंजी से जोड़ा हमारी गरीबी का इतना निर्माण किया कि हमें अंतत: निर्माण के निवेश में ही उतरना पड़ा। होटल बनाए नदियों को कुचला जंगल काटे बीज हटाए खेत उजाड़े और अब सब तुम्हारे हवाले हैं। पहाड़ पर दमन भट्टियां धधक रही हैं।
हमने प्रतिरोध की संस्कृति को डुबो दिया है। वो आग कबकी बुझ चुकी। अब ''मुछाळे'' (गढ़वाली शब्द-रोशनी और चूल्हे में आग जलाने के लिए चीड़ की गोंद वाली लकड़ी को जलाकर मशाल की तरह इस्तेमाल किया जाता है) लेकर बातों का विप्लव करते हो। रही सही आग को लालसा और महत्वाकांक्षा और नकली वीरता के तालाब में बुझा देते हो। ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के। कहां हैं वे मशालें कहां हैं वे लोग कहां हैं वे मेरे गांव। अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के। कैसी बदकिस्मती है हमारी कि ये लाइनें सरकारें गाती हैं। ठेकेदार आह्वान कर रहे हैं इन लाइनों के साथ। बल्ली भीमा आप माफ करिएगा। पर्सनली न लीजिएगा। लेकिन इन लाइनों के हवाले से इशारा उस गहरी विडंबना और उस विद्रूप की ओर है जिससे हम जूझ रहे हैं। हमारी प्रतिरोधी चेतना जूझ रही है। उन्होंने हमारी ही लाइनें लेकर उन्हें हमारी बरबादी के गान में बदल दिया है बल्ली।
हम विकास के इस मॉडल की भरपूर भत्र्सना करते हैं। और इसे मॉडल कहकर बेनेफ़िट ऑफ डाउट भी हम देना पसंद नहीं करेंगे। पहाड़ की लूटखसोट बंद करनी ही होगी। ये दमन बर्दाश्त नहीं है। लेकिन हम विरोध के उत्तरआधुनिक मॉडलों का भी पुरजोर विरोध करते हैं। कल्चरल भूमंडलीकरण और मास मीडिया की भव्यता में आयोजित भावनात्मक घिनौनेपन और उसके तत्वों की हम मुखालफत करते हैं। कॉरपोरेटी दया के मोहताज बने रहना हमें गवारा नहीं। हम दस्तावेजों और बहसों और सेमिनारों के ज़रिए बौद्धिक चमकीलेपन की जुगाड़ में रहने वाली शक्तियों से भी परिचित हैं और उन्हें बेपर्दा करने का निश्चय रखते हैं।
लड़ाई की और वेदना की एक पूरी की पूरी हिस्टॉरिक तफ्सील को धुंधला कर देने की एक बहुत शातिराना चाल की जा रही है। गैर माक्र्सवादी कुटिलता, एनजीओइम आस्था आस्था चिल्लाकर पर्यावरण पर्यावरण खेलकर नवसांप्रदायिकता के लिए जगह बनाने की फ़िराक है। पर्यावरण आने वाले दिनों में कोई आश्चर्य नहीं कि धर्म के खाते से आएगा। कथित आस्थावादी सबसे ज्यादा यही गाएंगें। हक हकूक के मूल सवाल नहीं रहेंगे। पहाड़ कोई स्वप्निल जगह है क्या, पांव पड़ते ही देवत्व प्राप्त कर लेने की गुफा। हमारा घर है वो। हमारे खेत और लोग हैं वहाँ। ये कौनसे ईश्वर और कौनसे महाराज लेकर आ गए वे। हमारे पूर्वजों के पत्थर हिल रहे हैं, लुढ़क रहे हैं, नदी में जा रहे हैं, पहाड़ से हर किस्म की ये नाजायज़ कमाई बंद करो।

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वस्तुत: हमें प्रकृति की उस विशाल, विराट प्रयोजन दृष्टि के बारे में कुछ पता नहीं। समुद्रजलों का यह विशाल आत्ममंथन, शताब्दियों से आकाश भेदते इन सन्यासी शिखिरों का निर्निमेश ब्रह्मांड में बिना पलक झपकाये देखते रहना, मेघ बनकर दिशा दिशा में जल का भटकना, बिजली-आंधियों का कोड़े खाये अश्वों सा हिनहिनाते हुए आकाश रौंदते हुए पृथ्वी पर टूट टूट पडऩा या फूलों की सज्जा के साथ अलभ्य रूपवती वेश में खड़े रहना ऐसे कोटि कोटि व्यापार क्या निष्प्रयोजन है? समुद्र हांफने लगते हैं, हवाएं चिंघाड़ती रह जाती हैं, पहाड़ों के टुकड़े-टुकड़े उड़ जाते हैं पर प्रकृति है कि उसे किसी की तलाश है।
- नरेश मेहता


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