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अप्रैल २०१३

रानीखेत एक्सप्रेस

गीत चतुर्वेदी

मैं उससे प्रेम नहीं करता था, लेकिन उसे हमेशा यह विश्वास दिला सकता था कि मैं उससे प्रेम करता हूं।
वह मुझसे प्रेम करती थी और किसी भी समय मुझे यह विश्वास दिला सकती थी कि वह मुझसे प्रेम नहीं करती।
यह हम दोनों के बीच का सबसे बड़ा फर्क था। और हम दोनों यह काम एक साथ कर सकते थे। यानी हम दोनों एक साथ एक झूठा विश्वास एक-दूसरे में रोप सकते थे। हम दोनों एक साथ, एक ही सच से दूर हो सकते थे।
पर मैं सच से दूर नहीं था। वह भी अपने बारे में जानती थी।
वह होली से ठीक एक दिन पहले की बात है, जब मैंने पहली बार उसे चूमा था। नहीं, ऐसा कहना गलत होगा कि मैंने उसे चूमा था।
दरअसल, उसने मुझे चूमा था। वह एक फेक-किस थी। पर फेक-किस क्या होती है? वह तो किस ही होती है।
कॉलेज के जेन्ट्स बाथरूम के सामने वह बेखौफ आई थी। यह देखते हुए भी कि वहां होली का हुड़दंग चल रहा था। हम सारे लोग भयानक दिख रहे थे। हम रंगों में डूबे हुए थे और अभी हमारी जेबों में रंग बाकी थे। वह हमसे एक सुरक्षित दूरी पर खड़ी थी। एक पिलर के सहारे। उसे एक पल को भी यह डर नहीं जान पड़ रहा था कि अभी इन्हीं लड़कों में से कोई उस पर रंग उड़ेल देगा, या उसे खींचकर हुड़दंग करते लड़कों के बीच ले आएगा और तब कोई उसके बूब्स पर हाथ डालेगा, कोई उसके हिप्स सहलाएगा और कोई उसकी टी-शर्ट फाडऩे की कोशिश करेगा। रंग लगाने के नाम पर कुछ भी संभव था।
मैं चिल्ला रहा था। सीटियां बजा रहा था। रंग उड़ा रहा था। बीच-बीच में नाच रहा था। वह पिलर से टिकी सबको देख रही थी। वह शायद मुझे देख रही थी। मैं जान गया था कि वह वहां खड़ी है, लेकिन मैंने उसे गौर से नहीं देखा। जैसे ही उससे नजर मिली, उसने अपनी तरफ बुलाया। मैंने उसे अनदेखा किया। वापस अपने हुल्लड़ में शामल हो गया। लेकिन एक बार मिली हुई नज़र बार-बार उसकी नज़र से घुल जाने को व्याकुल थी। सीधी और थोड़ी सावधान मुद्रा में आ गई थी।
इस बार उसने नज़रों से बुलाया, सिर को हिलाकर भी बुलाया और अपने होंठ खोलकर वाणी से भी बुलाया। मुझे उसकी आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी, लेकिन उसके होंठ जिस तरह खुले थे, उसे देखकर अंदाजा लगाया कि उसने शायद कम हियर जैसा कुछ कहा है।
एक साथ तीन बुलाहटों का भी मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा।
मैंने वापस नज़र उससे दूर की और अपने दोस्तों के साथ हुल्लड़ में व्यस्त हो गया। इसी बीच मैंने यह भी सोचा कि यह मुझे क्यों बुलाना चाहती है? क्या यह इतने सारे सड़कों, इतनी सारी मस्ती के बीच यह तो नहीं कह देगी कि पानी में इतना मत भीगो, तबीयत खराब हो जाएगी? या यह पूछ लेगी कि कल के नोट्स तुमने अगर पूरे कर लिए हों, तो मुझे दे सकते हो? हालांकि यह बात वह मुझसे अच्छी तरह जानती थी कि किसी भी स्म काक़ि नोट्स हो, मैं क्लास में सबसे आख़िरी बच्चा होता हूं, उसे पूरा करने वाला।
यही सोचते-सोचते और न चाहते हुए भी मैंने तीसरी बार उसकी तरफ देख लिया। अब वह झल्ला रही थी।
उसकी नज़रें मुझे बुला रही थीं। ऊपर से नीचे की ओर हिलता हुआ सिर मुझे बुला रहा था। होंठों को खोलकर इधर आ यार की ध्वनि मुझे बुला रही थी। इस बार उसके हाथ भी मुझे अपनी ओर बुला रहे थे।
मुझे लगा, वह अकेली नहीं बुला रही है। एक साथ इतने सारे लोग मुझे बुला रहे हैं। शायद उसके शरीर का हर अंग, उससे मन की हर अनुभूति मुझे बुला रही थी।
वह अपनी संपूर्णता में मुझे बुला रही थी।
मैं ज़िद्दी बालक था। उन वानरों की तरह ज़िद्दी, जो तपस्या करते साधुओं के गले में मरा हुआ सांप डाल आते थे और अपनी तरफ बुलाती अप्सराओं को पेड़ की डाल से लटक मुंह चिढ़ाते थे।
मैं इस बार भी उसकी बुलाहटों को नहीं सुना। मैंने आवाज़ देते उन चारों को, उसके हर अंग को, उसकी हर अनुभूति को सुनने से इंकार कर दिया और वापस अपनी मस्ती में डूब गया।
जिस समय उसने मेरा हाथ पकड़ा था, मैं नाच रहा था। ऊपर से नीचे तक गीला। रंगों में डूबा हुआ। मेरी टी-शर्ट आगे से फट चुकी थी और मेरी बाईं छाती अपने सारे बालों के साथ उसमें से झांक रही थी।
जिस समय उसने मेरा हाथ पकड़ा था, सारे लड़के सनाका खाकर चुप हो गए। अपनी मस्ती के चरम के बीच एक साफ-सुथरी, रंगों से दूर खड़ी एक लड़की को पाकर वे एकदम चुप रह गए थे। शायद उनमें से किसी ने यह भी सोचा होगा कि अब यह लड़की इसे रापचिक धोएगी।
जिस समय उसने मेरा हाथ पकड़ा था, उस समय वह चीखकर एक साथ दो जगह बात कर रही थी। वह मुझसे 'दो मिनट मेरे साथ चलो' कह रही थी और उन लड़कों से कह रही थी, 'मुझ पर एक भी बूंद रंग की गिरी, तो मुझसे बुरा कोई न होगा।'
मेरा नाचना बंद हो गया था। लड़के चुप होकर किनारे हो गए थे। और ग्यारह नंबर मेरा हाथ पकड़कर मुझे एक ओर खींचे ले जा रही थी। मैं खिंचते समय ग्यारह नंबर को नहीं देख रहा था, बल्कि खुद से दूर होते दोस्तों को देख रहा था और भीतर ही भीतर एक उम्मीद भी कर रहा था कि इनमें से कोई आगे बढ़ेगा, ग्यारह नंबर को पूरी तरह भिगो देगा और मुझे उससे छुड़ाकर वापस अपनी मस्ती के गिरोह में घोल लेगा। और अगर ऐसा न हो पाया, तो वे सब मस्ती रोक देंगे क्योंकि कायदे से मुझे मस्ती का सरदार होना था और अगर मैं ही मस्ती के मैदान में न रहा, तो उन सबको मस्ती करना सिखाएगा कौन?
लेकिन ऐसा कुछ भी न हुआ। वे कुछ सेकंड्स के लिए दंग थे, फिर वे हंसने लगे, और मेरे दस कदम दूर पहुंचते-पहुंचते वे यह भूल भी गए थे कि उनसे बीच अभी कुछ सेकंड्स पहले तक मैं भी मस्ती कर रहा था। वे उसी तरह हुल्लड़ करते रहे, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
तब मैंने खुद को पहली बार ग्यारह नंबर से छुड़ाने की कोशिश की। किसी भी स्थिति में वह मुझसे मज़बूत न थी, लेकिन उसने मेरा हाथ इतनी नज़ाकत से पकड़ रखा था कि मुझे ज़ोर-आज़माइश करने में शर्मिंदगी हो आई। मैं उससे पूछता रहा - 'कहां ले जा रही है बे तू? ओए तेरी नाक में रस्सी, धीरे ले चल। मारूंगा अभी तेरे कान के नीचे। ओये। अच्छा सुन। सुन। मैं चलता हूं। खुद चलता हूं। पहले बोल तो सही। अबे बोल। कहां ले जा रही है चाची?'
सच कहूं, उस समय मैं घबरा भी रहा था। मैं याद कर रहा था कि हाल के दिनों में कहीं मैंने इसका कोई अपमान तो नहीं कर दिया है अनजाने में, जो इस तरह लड़कों के सामने मुझे घसीटकर ले जा रही है। कहीं यह पीटना तो नहीं चाहती मुझे। अगर क्रोध में इसने मुझे एक भी थप्पड़ मार दिया, तो मैं, सच में, कहीं का नहीं रहूंगा।
उसने अपनी पकड़ और ढीली छोड़ दी थी। अब मैं उसके साथ चल रहा था। वह बाईं तरफ को मुड़ सीढिय़ों पर चढऩे लगी। वह एक सीढ़ी आगे चल रही थी। मैं उससे पीछे था। और मुझसे पीछे मेरे शरीर से चू रहा पानी था। उसमें रंग मिला हुआ था। मटमैले फर्श पर वह काले चकत्तों की तरह हम दोनों के ठीक पीछे चला आ रहा था। बाएं हाथ से उसने मुझे वैसे ही पकड़ रखा था कि मैं छुड़ाने की ज़रा-सी कोशिश करूँ, तो उसे गिराते हुए अलग हो जाऊं।
हम बीस सीढिय़ां चढ़कर ऊपर के फ्लोर पर पहुंचे। वह पूरी तरह सुनसान था। वहां नीचे के हुल्लड़ की आवाज़ नहीं आ रही थी। कॉलेज में ऐसी वीरानी कभी नहीं सुनी थी। यह होली से एक दिन पहले का समय था, जब आधे से ज़्यादा बच्चे हुड़दंग के डर से नहीं आए थे। और जो आए भी थे, उसमें से कुछ सुबह से चल रही हुड़दंग में शामिल हो गए थे या उसे देख तुरंत घर को लौट गए थे।
वह मुझे लेकर एक क्लास में घुस गई। मैंने कभी खाली क्लास नहीं देखी थी। वह इतनी सुनसान और भयानक होती है, मुझे इसका अंदाज़ भी नहीं था। उस तर$फ की पूरी दीवार खिड़कियों से भरी हुई थी। उनमें से छनकर रोशनी फर्श पर गिर रही थी। रोशनी और फर्श के बीच कोई हवा स्थिर थी। स्थिर हवा में धूल के कण अस्थिर बेचैन भटक रहे थे। अपनी भटकन में वे एक अबूझ आकार भी बना रहे थे।
जब ग्यारह नंबर रोशनी और फर्श के बीच स्थिर उस हवा के बीच से गुज़री, तो धूल के उन कणों की अस्थिरता व बेचैनी और ज़्यादा बढ़ गई।
जब मैं उसे देख रहा था, वह धूल के उन्हीं कणों की तरह अस्थिर और बेचैन थी।
वह जिस तरह मेरा हाथ पकड़कर मुझे ले आई थी, इस समय वह उसके ठीक विलोम में थी। वह मुझसे बहुत दूर खड़ी थी। मैं इस दीवार के साथ टिका था। और वह खिड़की से आ रही रोशनी के बीच किसी सिलुएट की तरह।
वह अभी थोड़ी देर पहले मेरा हाथ पकड़कर मुझे घसीट रही थी और अभी मुझसे बहुत दूर खड़ी थी।
ग्यारह नंबर के साथ मेरी स्मृतियां ऐसे ही जुड़ी हुई हैं। वह एक पल को बहुत करीब महसूस होती है, और अगले पल बहुत ही दूर। मुझे कुरबत और दूरी का यह खेल कभी नहीं भाता था। मैं खिलाड़ी नहीं था। मैं या तो करीब हो सकता था, या फिर दूर। मैं दोलन नहीं कर सकता था। मुझसे आना-जाना दोनों एक साथ नहीं हो सकते।
आज इतने बरसों बाद मेरी समझ में यह आ रहा है कि प्रेम स्थिरता का नाम नहीं होता। एक ही पल में आप दूर हो रहे होते हैं, ठीक उसी पल में आप करीब भी हो रहे होते हैं। बड़ी अजीब प्रक्रिया है, प्रेम जिस समय आ रहा होता है, उसी समय जा भी रहा होता है।
प्रेम ज्यामिति के नियम से नहीं चलता। प्रेम, दरअसल, किसी भी नियम से नहीं चलता।
ग्यारह नंबर प्रेम करती थी, इसीलिए वह स्थिर नहीं थी।
ग्यारह नंबर प्रेम करती थी, इसीलिए वह एक पल के लिए बहुत करीब आती थी, और इसीलिए वह अगले पल बहुत दूर चली जाती थी।
ग्यारह नंबर प्रेम करती थी, इसीलिए वह कुरबत और दूरी के खेल को जीती थी। क्योंकि दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के बिना नहीं हो सकता। दूरी है, तभी तो $कुरबत भी है।
ग्यारह नंबर प्रेम करती थी, इसीलिए वह अस्थिर रहती थी। अस्थिर होने के बाद भी शांत बनी रहती थी।
प्रेम अस्थिरता की आराधना है। प्रेम एक अस्थिर आराधना है। प्रेम दरअसल गतिमान शांति है। एक ऐसी शांति, जो अपनी गति में लगातार आपसे दूर होती रहती है, लगातार आपके पास आ रही होती है। ऐसी शांति, जिसमें मिठास और कड़वाहट, सुख और पीड़ा, दोनों के अणु एक साथ गति करते हैं। शांति धोखादेह ढंग से स्थिर दिखती है, लेकिन उसकी गति प्रेम का निर्धारण करती चलती है।
प्रेम एक गतिमान स्थैर्य है और शांति एक स्थिर गति। जीवन में हम दोनों खोजते हैं, प्रेम में शांति और शांति में प्रेम खोजते हैं।
भटकाव अगर कोई तिजोरी है, तो उसकी यही दो चाभियां हैं।
प्रेम, सुख और पीड़ा दोनों से भरा होता है। सुख पीड़ा देता है, पीड़ा सुख देती है, लेकिन दोनों ही बीत जाने के बद। प्रेम में सुख बीत गया, तो पीड़ा होगी। प्रेम में पीड़ा बीत गई, तो सुख होगा। और यह चक्र चलता ही रहता है। यही उसका गतिमान्य है। इसी में वह गति करता रहता है।
प्रेम को स्थिर समझने की भूल करने वाले प्रेम को उसी तरह खो देते हैं, जैसे मैंने सत्रह साल पहले खोया था।
मुझे लग रहा था कि सत्रह साल पहले भयानक खालीपन से भरे उस कमरे में उतनी ही स्थिरता होनी चाहिए थी, जितनी कि खालीपन में होती है। इसीलिए मैं एक स्थिर अवकाश की कामना में था। इसीलिए जब चीज़ें मुझ पर से हवाई जहाज़ की परछाईं की तरह गुज़रीं, तो मैंने अस्थिरता से अवसाद महसूस किया।
सत्रह साल पहले उस कमरे में वह मुझसे दूर खड़ी थी। खिड़की से आती रोशनी और फर्श के बीच अस्थिर धूल के कणों की तरह।
मैं पानी चुआते मेघ की तरह सकुचाया खड़ा था। समझ नहीं पा रहा था कि इतने सारे लड़कों के बीच से वह मुझे इस तरह घसीटकर क्यों ले आई है।
मैंने उससे यही सवाल पूछा भी। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
ज़ाहिर है, मैं चिढ़ गया था उस चुप्पी से।
मैंने सवाल दोहराया। वह फिर चुप थी।
मैंने कहा, अब जाता हूं मैं।
उसने कहा, हिलना भी मत अपनी जगह से।
और बाकसम, मैं हिला तक नहीं था। मैं वैस ही उसे चकबक देखता रह गया।
वह अपने भीतर की पूरी शांति से मुझे देख रही थी और उसके चेहरे पर सारी अस्थिरता दोलन कर रही थी।
मैं बस तुम्हें देखना चाहती हूं। देर तक।
इस तरह? मैं अभी देखने लायक भी नहीं।
इसीलिए देखना चाहती हूं। मैं तुम्हें सबसे खराब रूप में देख रही हूं। तुम इतने रंगे हुए हो कि कौन हो, यही नहीं समझ में आ रहा है। मैं तुम्हें इस तरह देखकर सहेज लेना चाहती हूं कि तुम्हारी सबसे बदरंगी से भी मैं परिचित हो सकूं, ताकि तुम्हारा असली रंग हमेशा मेरी स्मृति में सुरक्षित रहे। तुम्हें सबसे खराब रूप में देखना, तुम्हारे सबसे अच्छे रूप की स्मृति को सशक्त करना है।
इतना ही खराब दिख रहा हूं, तो मत देखो मुझे। देख भी रही हो और बार-बार $खराब बोलकर मुझे हीन भी जता रही हो।
तुम हीन नहीं हो। तुम श्रेष्ठ हो। अपनी बदरंगी में भी श्रेष्ठ हो तुम।
फिर खराब-खराब क्यों बोल रही?
उसे तुम कभी नहीं समझ पाओगे, क्योंकि तुमने कभी खराब की उपस्थिति से प्रेम करना नहीं जाना। श्रेष्ठता और खराब दोनों एक ही समय, एक साथ मौजूद होते हैं। जब आप प्रेम कर रहे होते हैं, तब आपको दोनों से प्रेम करना होता है। किसी एक से प्रेम करके आपमें पूर्णता नहीं आ सकती।

गीले शरीर का अर्थ यह नहीं होता कि आपका मन भी गीला ही हो और आपके भीतर हर शिला को तिरा ले जाने का हुनर भी हो।
गीले शरीर का अर्थ यह नहीं होता कि आपका मन भी गीला ही हो और उसमें इतना गहरा पानी भरा हो कि हर शिला को डुबो ले जाने की पनीली कला भी हो।
उसने सच कहा था, मैं उसकी बात नहीं समझ सकता था।
मुझमें सब्र नहीं था
वह धैर्य की शिला थी।
मैं उड़ता हुआ परिंदा था।
वह अपनी शिला से मुझे दाबे हुए थी।
मेरे पंख छटपटाने ही थे।
मैं फिर चलने को हुआ। दरवाज़े की तरफ घूमा ही था कि जाने किस तेज़ी के साथ वह मेरे आगे आ गई। उसने मेरी छाती पर अपने दोनों हाथ रखे और मुझे पीछे की ओर धक्का दे दिया। मैं सीधा दीवार से जा टिका।
उसने बायां हाथ मेरी गरदन के पीछे डाला और मेरी पोनी टेल को ज़ोर से पकड़ लिया। पूरी ताकत से उसने मेरा चेहरा अपनी ओर किया। मेरे रंग लगे होंठों पर उसने अपने होंठ रख दिए। वह मुझे चूम रही थी।
वह ऐसे चूम रही थी, जैसे वह उसके जीवन का आख़िरी क्षण है और उसके बाद उसे कोई चुंबन नसीब नहीं होगा।
वह ऐसे चूम रही थी, जैसे वह मुझे पहली बार नहीं चूम रही, बल्कि हज़ार बरसों से मेरे होंठों की दरारों से परिचित हो। जैसे यहां के सारे भित्ति-चित्र इन हज़ार बरसों में उसी के चूमने से बने हों।
वह ऐसे चूम रही थी, जैसे मेरे होंठ नहीं, बादल थे और वह ग्यारह नंबर नहीं, बल्कि हवा थी।
जैसे हवा बादल को चूस लेना चाहती है। उसके भीतर का सारा जल अपने भीतर बसा लेना चाहती हो।
मैं चौंका था।
मैं आनंदित हुआ था।
दोनों स्थितियों के बीच उतनी ही दूरी थी, जितनी उसके होंठों और मेरे होंठों में।
वह, बिल्कुल, एक-दूसरे से सटी हुई दूरी थी।
उसकी आंखें बंद रही होंगी। उसका दायां हाथ मेरी छाती पर था। मेरी छाती के गीलेपन पर उसकी हथेली की गर्मास थी। वह एक तर्कहीन अनुभूति थी।
मेरी भी आंखें बंद रही होंगी। मेरे हाथ उसकी पीठ पर थे। मैंने उसे भींच लिया था।
एक हाथ पीठ से हटाकर मैं, हम दोनों के सटे हुए शरीर के बीच ले आया और उससे उसका बायां स्तन थाम लिया।
उस स्तन पर मेरे दबाव ने किसी बटन की तरह काम किया। बाद में मैं देर तक पछताता रहा कि आख़िर क्यों मैंने उसके स्तन पर अपना हाथ जाने दिया। वह पीठ पर ही बेहतर था। क्योंकि होंठ, होंठों पर ही बेहतर थे। क्योंकि शरीर बिल्कुल पास, सटा हुआ ही बेहतर था।
वह क्षण, जब उसने मुझे चूमा था, पहले हवा की तरह झूमकर, फिर बादल की तरह झूलकर, जिस क्षण उसका बायां हाथ मेरे बालों में था और दायां मेरी छाती पर, जब दोनों हाथों से मैंने उसकी पीठ को भींच रखा था, वह बेहतरीन क्षण था। वह मेरे जीवन का सबसे दीर्घ क्षण था। इतना दीर्घ क्षण कि वह आज इतने बरसों बाद भी व्यतीत नहीं हुआ है। एक अकेला क्षण... और उसकी इतनी लंबी उम्र। असंभव जितना लंबा वर्तमान।
वह क्षण आज तक भंग नहीं हुआ है। इसीलिए वह स्मृति कभी क्षणभंगुर रही भी नहीं।
और वह क्षण, जिसमें मैंने उसके बायें स्तन को अपने दायें हाथ से थामने की कोशिश की, वह मेरे जीवन का सबसे छोटा क्षण था। उससे लघु कुछ नहीं था। उसकी उम्र उतनी भी नहीं थी, जितनी एक क्षण की होती है। वह कब आया, कब गया, मुझे नहीं पता। उस लघुक्षण में मैंने उसके बायें स्तन पर अपना हाथ रखा था, उसके स्पर्श और आकार का आभार भी मुझ तक नहीं पहुंचा था, इससे पहले ही ग्यारह नंबर छिटककर दूर खड़ी हुई थी।
वह अप्रत्याशा थी। लड़की थी। बादल थी। बारिश थी। जो कुछ थी, शब्दकोश में उसका अर्थ अप्रत्याशा था।
जिस अप्रत्याशा में उसने मुझे चूमा था, उसी अप्रत्याशा में वह मुझसे दूर छिटकी थी।
जिस अप्रत्याशा में वह मेरा हाथ पकड़कर ऊपर ले आई थी, उसी अप्रत्याशा में वह खिड़की के पास दूर खड़ी थी।
उसके चुंबन से मैं विद्युत के आवेशित कण की तरह था।
चूमने और छिटक जाने से वह नदी किनारे खड़ी एक उलझन की तरह थी।
तैरूं या बह जाऊं?
कूदूं या डूब जाऊं?
डग भरूं या डिग जाऊं?
थोड़ी देर पहले वह अचानक मुझे चूमने लगी थी। इस समय वह अचानक फिर से दूर खड़ी है। वह लड़की नहीं है, देह और आत्मा से बना हुआ अचानक है।
मैं आधे में छूट गए चुंबन को पूरा करना चाहता था। उसकी ओर बढ़ा। वह और पीछे हो गई। मैं उसके $करीब पहुंच गया। ठीक उसी की तरह मैंने एक हाथ उसकी गरदन के पीछे डाल उसके बालों को पकड़ा और उसके होंठों की तरफ यात्रा शुरू की।
उसने मुझे दूर कर दिया। और हाथों से इशारा कर मना कर दिया।
मैं उससे पूछता रह गया। वह कोई शब्द नहीं कह पा रही थी। एक हाथ उसने अपने हृदय पर रखा था, जैसे बढ़ी हुई धड़कनों को वह हाथ से दबाकर रोक लेना चाहती हो।
या उस बढ़े हुए स्पंद को हाथों से छूकर सहेज लेना चाहती हो। तब उस स्पंद की स्मृति हृदय में भी रहेगी, उसकी ध्वनि का स्पर्श हथेलियों में भी सुरक्षित रहेगा।
शायद उसके बाद उसके स्पंदन की ध्वनि ने उसके हृदय से निकलना बंद कर दिया था। अब वह ध्वनि हमेशा उसकी हथेलियों से निकला करती होगी।
यह चुंबन की भाषा के बाद बना मौन था। जैसे ओम के नाद से सृष्टि की उत्पत्ति के बाद बिखरे हुए मौन में ओम का स्पंदन अवाक रहता है, इस मौन में चुंबन की अवाक् स्मृति थी।
मैं और चूमना चाहता था। मेरे होंठों पर उसकी उपस्थिति का ताज़ा निशान था। वे लरज़ रहे थे।
वह शांत होना चाहती थी। लंबी-लंबी सांसें ले रही थी। हर लंबी सांस एक मंत्र थी, उसकी उत्तेजना के शांति-पाठ का मंत्र।
'बस इसी कमरे में रहो। कहीं मत जाओ। नीचे तो बिल्कुल नहीं। यहीं रहो। तुम्हें देखना चाहती हूं मैं।'
'मैं तुम्हें छूना चाहता हूं।'
उसने हथेली आगे कर दी। 'छू लो। लेकिन सि$र्फ मेरी उंगलियां छूना।'
मैंने उसका हाथ छू लिया। अपनी हथेली में फंसाकर कहा, 'लेकिन मैं तुम्हारे होंठों को छूना चाहता हूं।'
'बिल्कुल नहीं।' उसने अपना हाथ भी छुड़ा लिया।
'तुम्हें इसी कमरे में रहना है, मेरे साथ। कुछ और कोशिश करोगे, तो मैं दरवाज़ा बाहर से बंद कर दूंगी। तब तुम अकेले ही रहोगे इस कमरे में।'
'मुझे कैद करने लाई हो?'
'फूह!'
उसने कोई जवाब नहीं दिया।
शांति-पाठ पूरा हो चुका था। वह उचककर एक डेस्क पर बैठ गई। मैं किनारे दीवार पर पैर टेके खड़ा था। कभी उसके होंठों को देखता, कभी उसके स्तनों को।
जिस समय उसने मुझे चूमा, वह दनु थी।
दनु बादल का छोटा-सा टुकड़ा होता है, जो आसमान के किसी कोने में अपने वैराग्य में विचर रहा होता है। वह पानी से भरा होता है, लेकिन सि$र्फ उन्हीं मौकों पर बरसता है, जब उसके बरसने की उम्मीद भी नहीं की जाती। वह दो-तीन मिनट से ज़्यादा कभी नहीं बरसता। दनु अप्रत्याशा है। दनु अचानक है। दनु छत पर सूखते कपड़ों को समेट लेने की हड़बड़ाहट है। दनु अस्थिर कर देने वाले विचार का एक झोंका है।
ग्यारह नंबर दनु थी। दनु की तरह वह प्रेम के जल से भरी हुई थी, लेकिन उस समय बरसी, जिस समय मैंने सोचा भी नहीं था। उतनी ही देर के लिए बरसी, जितनी देर के लिए दनु बरसता है। जेठ की गर्मी में बरस पड़ता है। कड़ी धूप में बरस पड़ता है। बिनी किसी उम्मीद के बरस पड़ता है। और जब उसके बरसने से ज़्यादा की उम्मीद बंध जाती है, वह अपना बरसना रोक लेता है।
ग्यारह नंबर ने दो मिनट के लिए मुझे चूमा और मुझ देह के गीले पर प्रेम बनकर बरसी। जिस वक्त मैंने उम्मीद की कि वह अब इतना बरसे कि मैं देह का गीला, आत्मा से भी गीला हो जाऊं, उसने अपना बरसना स्थगित कर दिया।
ऋग्वेद कहता है, आसमान में एक ही समय में सात दनु होते हैं।
मेरी स्मृति कहती है, उस समय कमरे में बस एक ही दनु थी।
दनु सिर्फ शरारत में बरसता है, तप रही धरती को खिझाने और उसकी प्रतीक्षा का मखौल करने के लिए बरसता है।
ग्यारह नंबर प्रेम के अतिरेक में बरसी थी। उसे संयत न कर पाने के विवश में बरसी थी।
दनु से दानव हुए थे। ग्यारह नंबर ने मुझ पर जो बरसात की है, उससे मैं क्या होऊंगा?
क्या ग्यारह नंबर ने मुझ देह के गीले को चूमकर दानव बना दिया है?
मुझे नहीं पता। आने वाले बरसों में मेरे साथ जो हुआ, क्या ग्यारह नंबर के उस दनु-चुंबन से ही उस सबका रेखाचित्र बना?
वह सामने डेस्क पर बैठी है, तो उसके चेहरे पर वैसी ही मुस्कान क्यों है, जैसी शरारत में बरस रहे दनु के होंठों पर होती होगी?
वह उस समय सिर्फ इतना चाहती थी कि मैं उस कमरे से बाहर न जाऊं। और यही वह शरारत थी, जो उसके चेहरे पर बहुत गौर से देखने पर दिखने वाले रोओं की तरह दमक रही थी।
तुमने मेरे भीतर कोई उम्मीद जगा दी है। मैं उसे एक प्यारे स्वप्न की तरह देख रहा था। उस मिठाई की तरह, जिसके स्वाद की कल्पना कब से कर रखी हो। उस खिलौने की तरह जो मुझ ही को तोड़कर बनाया गया हो।
लेकिन वह संयत थी। संयम लड़कियों का सबसे बड़ा हथियार होता है। वे संयम ओढ़ती ही इसीलिए हैं कि सामनेवाला अपना संयम उतार फेंके।
लंबी चुप्पी के बाद उसने कहा, एक कहानी सुनाती हूं।
वह मिथिहास की गुफाओं से निकलकर आई किसी ऋषि की तरह है, जो हर फुरसत में कहानी सुनाने लगता है।
जब उसकी कहानी खत्म होती है, मैं, मैं नहीं रह पाता। मैं उसकी कहानी के खत्म होने के बाद उसके बचे हुए प्रभाव की तरह रहता हूं।
मैं उसकी कहानी में उसी तरह रहता हूं, जैसे कोई नदी, समंदर किनारे की तमाम हवाओं के भीतर रहती है।
उसने अपनी कहानी शुरू की -

जब दो लोग एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, तो कभी एक बराबर प्रेम नहीं करते। दोनों में से कोई एक हमेशा ज़्यादा प्रेम करता है। जैसे लैला और मजनूं का प्रेम देखो। लैला शादी करके बगदाद चली जाती है, लेकिन मजनूं अपना होश खो बैठता है। वह पागल बनकर रेगिस्तान में भटकता है। सोहनी को तैरना नहीं आता था, लेकिन वह खुद से घड़ा बांधकर नदी पार करती थी और उस पार बैठे महिवाल से मिलने जाती थी। शीरीं अपने महल में खुसरो के साथ सो रही होती थी, जब फरहाद एक पहाड़ खोद रहा होता था। हमेशा ऐसा होता है। दोनों में से कोई एक प्रेम में हमेशा आगे खड़ा होता है। प्रेम को हमेशा नेतृत्व की ज़रूरत होती है। एक प्रेम में नेतृत्व करता है,दूसरा उसका अनुसरण करता है। एक गति करता है, दूसरा उसके पीछे चलता है। प्रेम पहल से आकार लेता है। अगर दोनों में से एक भी पहल न करे, तो प्रेम हमेशा एक शैशवावस्था में पड़ा रहता है। एक दीर्घायु शिशु, जिसके होने का भान दोनों को होता है, जिसे ठुमक-ठुमक चलते देखने की इच्छा भी दोनों में होती हैं। स्पर्श के लिए बढ़ा हुआ हाथ भी पहल होता है और सकुचाकर पीछे कर ली गई हथेली भी पहल ही होती है। इस आगे और पीछे चलने की क्रिया में भी संघर्ष चलता रहता है। कभी-कभी आगे चलने वाले को लगता है कि वह अकेले प्रेम करता है, कभी-कभी पीछे चलने वाले को लगता है कि वह अकेले प्रेम करती है, क्योंकि अगर वह प्रेम करता होता, तो इतनी दूर क्यों खड़ा होता। प्रेम करते हुए भी आपके साथ अकेलापन खड़ा रहता है,जैसे आप दोनों के बीच पतली-सी दरार देखते ही नरीमन पॉइंट का समंदर आ बैठता है। जिस पल वे दोनों साथ-साथ चलने लगते हैं, वे अपने प्रेम पर अविश्वास करने लगते हैं।
इस कहानी में भी दो लोग प्रेम करते हैं। एक प्रेम में आगे चलता है, दूसरा उसका अनुसरण करता है। लड़की हमेशा प्रेम में आगे चल रही है, ग्रीक सेनापति उसके पीछे-पीछे चल रहा है, जैसे हवा में पड़ रहे उसके पदचिन्हों को खोजकर उन पर अपने पदचिन्ह बनाना चाहता है। जब पहली बार दोनों ने एक दूसरे को देखा था, तो ऐसा ही दृश्य था। वे बाज़ार में थे। सुंदर-सी लड़की किसी गली से निकली और सेनापति उस पर मोहित। उसके पीछे चल पड़ा। उसके घर तक पहुंच गया। और फिर उसके हृदय में घर बनाकर रहने लगा। वह पाता है कि लड़की शादीशुदा है और उसका पति महल में ही चौकीदार है। वह दिन-भर घर में सोता है और रात भर महल में नौकरी करता है।
पहली बार सेनापति उसके घर पहुंचा था, लेकिन बाद के दिनों में लड़की खुद आधी रात को अपने घर से निकलती और कड़ी सुरक्षा में रहने वाले सेनापति के घर के भीतर पहुंच जाती। सेनापति अपनी जान के खतरे के कारण रात को अपने घर से निकलता ही नहीं था। लड़की रोज रात अपनी जान का खतरा मोल लेती। और रोज़ सेनापति को आगाह करती कि अगर मैं तुम्हारी सुरक्षा भेद कर यहां तक पहुंच सकती हूं, तो कोई भी पहुंच सकता है। पर सेनापति को यह समझ में न आता।
और एक रात सबसे भयानक हुआ। सेनापति को पता भी न चला कि उसकी हत्या की साज़िश रची जा चुकी है। जब लड़की उस सेनापति के कमरे में थी, तो अचानक उस पर हमला हुआ। दोनों बिस्तर में थे। लड़की ने हमले की आहट जानते ही खुद को सेनापति के बदन पर बिछा लिया और अपने हाथों से उसका मुंह दबा दिया। ऊपर से मोटी रज़ाई ओढ़ली। हत्यारों ने बिस्तर पर रज़ाई के नीचे एक शरीर का आकार पाया, जिसे उन्होंने महज़ सेनापति का शरीर समझा। उन्होंने तलवार से उस शरीर को गोद दिया। जो चीख निकली, उसका कोई लिंग न था। वह जनाना चीख थी या मर्दाना, यह कोई जान न पाया। यह भी कोई नहीं जान पाया कि दरअसल चीखा कौन था? लड़की या सेनापति? लेकिन रज़ाई खून से लथपथ थी। बाहर तक बह रहा था। हत्यारों ने पल में तलवारें चलाई थीं, पल में वे गायब हो गए थे। हर रात उस लड़की के प्रेम में डूबा रहने वाला सेनापति इस समय उसके रक्त में डूबा हुआ था। सेनापति पर प्रेम ढाल की तरह छाया था। लड़की पर प्रेम मृत्यु और रक्त की तरह।
किसी को प्रेम बचा लेता है, और किसी को प्रेम मार डालता है। कोई प्रेम के अमृत से जीवनदान पाता है, तो कोई प्रेम के विष से कंठ का वर्ण नील कर लेता है।
सेनापति को प्रेम ने बचाया। प्रेम में लाश बन गई एक देह ने बचाया। प्रेम में जो बचा रह जाता है, वह बहुत पीछे छूट जाता है। जिस दिन उसे पीछे छूट जाने का अहसास होता है, प्रेम उसके लिए पीड़ा बन जाता है। देह उसका भार बन जाती है। वह प्रायश्चित में गलता है और गंगाओं की तरह बहता है।
उसके बाद सेनापति ने बहुत युद्ध लड़े। बहुत-सी औरतों के साथ सोया। हर सुबह उसे याद आता कि वह जीवित है, लेकिन हर सुबह वह उस लड़की को उतना ही भूलता जाता। एक सुबह वह उठा, तो उसने ध्यान ही नहीं दिया कि वह जीवित है। उस पर उसे कोई अचरज भी नहीं हुआ। उस दिन वह उस लड़की को पूरी तरह भूल चुका था।
बहुत बरस बाद, जब वह बूढ़ा हो गया, तब एक सुबह अचानक उसे याद आया कि अरे, वह तो कितने बरसों से जीवित है। जिस दिन उसे अपने ज़िंदा होने का अहसास हुआ, उसी दिन वह लड़की उसे फिर से याद आ गई। पूरी तरह याद आई। उस दिन उसे अनुभव हुआ कि प्रेम लाश बनकर भी आपकी रक्षा कर सकता है। उनसे बड़ा पुण्यवान कोई नहीं होता, जिनके जीवन में प्रेम एक रक्षक की तरह आता है।
उसने अपने घर के आंगन में एक मज़ार बनवाई। रोज़ सुबह वह वहां फूल चढ़ाता था और रोज़ शाम मोमबत्तियां। फूल की हर पंखुड़ी से वह उस लड़की का पता पूछता था। मोमबत्ती की हर लौ से वह कहता था - तुम जलती हो, तो गलती हो, गलकर कहां चली जाती हो? जली हुई लौ कहां जाती है? आया हुआ प्रकाश कहां चला जाता है? मुझे पता है, वह वहीं जाता है, जहां तुम गई हो। जाना, उससे कहना, तुम मुझे बहुत पीछे छोड़ गई। इतना पीछे कि मैं पीछे छूट जाने के अपमान में संतप्त रहता हूं।
आधी रात जब उसके महल में सारे लोग सो जाते, वह उठता था, और उस मज़ार के ऊपर जाकर वैसे ही लेट जाता था, जैसे एक भयानक रात वह लड़की उसके ऊपर लेती थी।
एक सुबह सबने देखा, मज़ार पर एक रज़ाई बिछी हुई है। उसके नीचे बूढ़ा सेनापति पेट के बल लेटा हुआ है। मृत्यु उसके पास भी पेट के बल लेटकर आई थी।
लड़की सेनापति के मुकाबले उस प्रेम में कहीं आगे खड़ी थी।

ऐसा कहने के बाद ग्यारह नंबर मुझे देखने लगी। वह मुझसे दूर खड़ी थी, लेकिन वह आगे खड़ी थी या पीछे, यह मुझे नहीं पता। आगे और पीछे जांचने के लिए सबसे पहले जो चीज माननी होती, वह था प्रेम।
और मेरे पास ऐसी कोई अनुभूति नहीं थी। मेरे पास चुंबन की स्मृति थी। स्तनों का स्पर्श था। उसकी त्वचा की कांति की सुगंध थी। पर ये सब प्रेम के सिंगार होते हैं, ऐसा भान मुझे कतई न था।
लेकिन उसे यह बात नहीं पता थी।
दरअसल, जो प्रेम कर रहा होता है, वह यह बात कभी नहीं जान पाता कि सामने वाला उससे प्रेम कर भी रहा है या नहीं। वह उसके 'साधारण साथ' को भी उसके 'प्रेम का साथ' में अनुवाद कर लेता है। वह सि$र्फ अपना प्रेम देख पाता है, दूसरे का अ-प्रेम नहीं।
नीचे से हो-हल्ले की आवाज़ आने लगी। मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर जाने को हुआ, तो ग्यारह नंबर ने मुझे फिर रोक लिया -
'नहीं, तुम इस कमरे से बाहर नहीं जाओगे।'
'कुछ हो रहा है नीचे? शायद मारा-मारी।'
'होने दो। जब तक हुड़दंग की आवाज़ आएगी, तुम्हें नीचे नहीं जाना है।'
'अरे?'
'हां, बिल्ककुल नहीं जाना है।'
मैं उसकी बात उसी तरह मान रहा था, जैसे आज्ञाकारी प्रेमी माना करते हैं। जिन्हें यह भान होता है कि न मानने पर प्रेमिका इस कदर रूठ सकती है कि उसे मनाने में नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं।
और कुछ देर बाद जब हम दोनों नीचे गए थे, तो वहां सन्नाटा था। जहां होली का हुड़दंग हो रहा था, वहां रंगों का गीलापन था। प्लास्टिक की कुछ थैलियां एक किनारे पड़ी हुई थीं। दीवार पर रंगीन हथेलियों की छापें थीं। एक पिलर पर किसी ने रंग में तर्जनी डुबोकर आई लव यू लिखने की कोशिश की थी, लेकिन वह संदेश किसके लिए था, उसका नाम नहीं था। गलियारे की फर्श पर सूखा हुआ गुलाल बिखरा हुआ था। यह सब कुछ इतना शांत लग रहा था, जैसे यह हुड़दंग के नहीं, किसी मातम के निशान हों।
एक रंगीन मातम। इस समूचे गीलेपन में रंगों से एक इंद्रधनुष उगा हो, जो दरअसल मातम का इंद्रधनुष हो।
बाहर निकलते-निकलते चपरासी मिल गया और उसने बताया कि अचानक प्रिंसिपल ने छापा मारा और हुड़दंग करते 17 लड़कों को पकड़ लिया है। उन्हें तुरंत प्रभाव से अगले पंद्रह दिनों के लिए निलंबित कर दिया गया है। उसी ने यह भी बताया कि अगर लड़के अपने पैरेंट्स को नहीं लाए, तो उनका निलंबन और लंबा हो सकता है।
मैंने उससे पूछा, 'सारे लड़के कहां हैं फिर?'
'अभी भी प्रिंसिपल के रूम में हैं। माफी मांग रहे हैं सब।'
मैं प्रिंसिपल के रूप की तरफ जाने लगा, लेकिन ग्यारह नंबर ने फिर रोक लिया।
'तुम कहीं नहीं जा रहे, पूरा समय मेरे साथ रहोगे।'
'पर वे मेरे दोस्त हैं। मैं भी उनके साथ होली खेल रहा था।'
'वहां गए, तो तुम भी फंस जाओगे। और अगर तुम पंद्रह दिन कॉलेज नहीं आए, तो मैं क्या करूंगी? कैसे मन लगेगा मेरा कॉलेज में?'
मैं ग्यारह नंबर का चेहरा देखता रह गया। उस पर से वह मुस्कान गायब थी, जो दनु के चेहरे पर रहा करती थी। वहां कोई मुस्कान ही नहीं थी। अगर सावन के मेघों का कोई चेहरा होता, तो यकीनन वह ग्यारह नंबर का ही चेहरा होता, जिसका सियाह रंग रिमझिम के अनुराग और थिरता के अवसाद से बना होता है।
'तो क्या तुम्हें पहले से पता था?'
'हां, मैं जानती थी।'
'तो सबको क्यों नहीं बताया?'
'मुझे सबसे कोई मतलब नहीं था। और वैसे भी, जैसा माहौल था वहां पर, अगर मैं कहती भी कि प्रिंसिपल छापा मारने वाला है, तो सब मेरा मज़ाक ही उड़ाते।'
'लेकिन हम सबको बचा सकते थे।'
'लेकिन मुझे सिर्फ तुम्हें बचाना था।'
'क्यों ऐसा?'
'... ... ... फूह!'
ग्यारह नंबर चुप हो गई थी।
बहुधा, वह अपनी चुप में इतनी सहजता से रहती थी, जितनी सहजता से शक्कर के केलासों के बीच मिठास रहती है।

आज सत्रह साल बाद जब माद्रिद के एक उपनगर में एक होटल के कमरे में सारी बत्तियां बुझा लैपटॉप की रोशनी में मैं उसकी कहानी लिख रहा हूं, मैं दरअसल ग्यारह नंबर से शिकायत करना चाहता हूं कि मेरे उस सवाल के जवाब में तुम्हें चुप नहीं होना चाहिए था। वह बात तुम्हें खुद कह देनी चाहिए थी, जिसे तुम मेरे मुंह से सुनना चाहती थी।
मैं शरारती वानर था। नादान वानर। मुझे गला देखकर सूखे हुए सांपों की स्मृति आती थी, पुष्पों से बने हार की नहीं। मुझे मुस्कान देखकर खिझाने का हौसला आता था, उस मुस्कान को अपने होंठों से छू लेने का नहीं।
ठीस इस समय, मैं यह कह सकता हूं कि सारी गलती ग्यारह नंबर की थी। अगर आप प्रेम करते हैं, तो आपको कहना ही चाहिए। एक बार कह देना चाहिए।
ग्लानियों को भीतर छिपा लेना चाहिए। वे मृत्यु के बाद आत्मा के साथ जाती हैं।
प्रेम को बांट देना चाहिए। उसे, जिससे आप प्रेम करते हैं। किसी भी आत्मा को अपने भीतर प्रेम बचाकर नहीं ले जाना चाहिए। मृत्यु के बाद आत्मा के भीतर बचा रह गया प्रेम सबसे बड़ा दबाव होता है, सबसे बड़ा भटकाव।
उसी तरह, जैसे खाने के बाद थाली में जूठन नहीं बचनी चाहिए।
यह अक्षम्य अपराध है।
ग्यारह नंबर ने अपराध किया है।
मुझे बचा ले जाने का अपराध। मुझसे प्रेम करने का अपराध। करके भी साफ-साफ, एकदम साफ-साफ न कहने का अपराध।
कुछ लोगों को कविता समझ में नहीं आती। कुछ लोगों को संगीत समझ में नहीं आता। कुछ लोगों को संकेत समझ में नहीं आते।
ऐसों से बहुत खुलकर कहना चाहिए, ग्यारह नंबर!
उस दिन वह सिर्फ मुझे बचाना चाहती थी, क्योंकि वह चाहती थी कि सिर्फ मैं यह बात जानूं कि वह मुझसे प्रेम करती है। वह सबको बचाती, तो वह प्रेम नहीं होता। मित्रताएं होतीं। दया और करुणा होती।
जब आप सबकी रक्षा की कामना करते हैं,तब वह एक सर्वकल्याणकारी कृत्य होता है।
जब आप किसी एक की रक्षा की कामना करते हैं, तब वह प्रेम होता है।
प्रेम सर्वकल्याणकारी कृत्य कभी नहीं होता।
उसका प्रेम उस दिन मुझ पर ढाल बनकर बिछ गया था। उसने एक कमरे में ले जाकर मुझे चूमा था, ताकि मैं उसके साथ रुका रह सकूं। वह पीछे हट गई थी, ताकि प्रेम का सारा रहस्य उस कमरे में ही खत्म न हो जाए।
इसीलिए उसने उस दिन वह कहानी सुनाई थी, जिसमें लड़की अपनी जान देकर अपने प्रेमी की रक्षा करती है। प्रेम में एक को हमेशा आगे होना होता है। ग्यारह नंबर अपना आगे होना बता रही थी, वह अपने और मेरे बीच कदमों के फासले को गिना रही थी।
उस दिन वह एक रोक की तरह मेरे जीवन में आई थी। उसने मुझे गलियारे में मस्ती करने से रोका। उसने मुझे एक कमरे के भीतर रोका। उसने मुझे चूमकर रोका। और मुझे चूमने से रोका। उसने कमरे से बाहर निकलने से रोका। उसने अपराध में प्रवेश से रोका। उसने एक अनंत प्रायश्चित से तुरंत बाहर निकल सकने की जुगत से रोका। उसने हाथ थामकर रोका। उसने होंठ छूकर रोका। उसने प्रेम के एक अत्यंत सुंदर पल के भीतर मुझे  रोका। उसने चाहा कि मैं वहीं रुका रहूं। हमेशा।
जब प्रेम में डूबी हुई लड़की आपको इतने तरीकों से रोक रही हो, तब ये फर्ज़ होता है कि कदम गति के अवबोध से ही ब$गावत कर दें, वे ताउम्र वहीं रुके रहें।
पर कदमों ने कोई बगावत नहीं की।
की, लेकिन वह उसकी रोक के ख़िलाफ गई।
मैं प्रेम नहीं था, लेकिन निरंतर गतिमान था।
अ-प्रेम भी कोई स्थिर तो होता नहीं।








गीत चतुर्वेदी, 'पहल' और आम तौर पर हिंदी साहित्य के लिए अब कोई नया नाम नहीं है। पहले अपने कवि रूप में मान्यता पाकर 2006 में 'पहल' में अपनी लम्बी कहानी 'सावंत आंटी की लड़कियां' के साथ कथाकार के रूप में खुद को प्रस्तुत किया। इस कहानी ने हिन्दी साहित्य के ढेर सारे ऊंघते-आंघते लोगों को नींद से जगा दिया और हिंदी के पाठकों में एक नई अपेक्षा और विश्वास भी पैदा किया। इन दिनों अपना पहला उपन्यास 'रानीखेत एक्सप्रेस' लिख रहे हैं, जिसका एक अंश यहां प्रस्तुत हैं। अपने कथन में लफ्ज़ की बारीक नक्काशी के साथ ही गद्य में भी कविता की सुगंध, गीत के लेखन की विशेषता रही है जो इस उपन्यास अंश में और भी सघन रूप में प्रस्तुत होती दिखाई देती है। सम्पर्क : डी-30, न्यू मिनाल रेसीडेंसी, जे के रोड, भोपाल-462201, फोन : 9713000963, ईमेल :- geetchaturvedi@gmail.com


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