मुखपृष्ठ पिछले अंक अभूझमाड़/किस्सों का कोठा के अंश तीन
सितम्बर - अक्टूबर : 2020

अभूझमाड़/किस्सों का कोठा के अंश तीन

लोकबाबू

उपन्यास अंश

यह अरण्य तो दण्ड का है महाराज

 

 

 

वे डरते हैं

किस चीज से डरते हैं वे

तमाम धन दौलत

गोला बारूद, पुलिस-फौज के बावजूद

 

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और गरीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे।

                   - गोरख पांडे

 

                                                              1.

 

- टपका साले को, मुखबिर है साला!

बस्तर के बियाबान ऊँचे और घने जंगल में एक दादा की आवाज गूंजी। साल-सरई के पेड़ों पर बैठे पंछियों ने अपने पर धीरे से फडफ़ड़ाये। कुछ ने अपनी शाखायें बदल लीं। शाम हो चुकी थी। धुंधलके ने जंगल को अपने पाश में लपेटना शुरू कर दिया था। एक बाल पंछी अनायास चिंहुक पड़ा। जैसे बड़ों से पूछ रहा हो - नीचे कुछ हो रहा है, आपने कुछ सुना? बड़ा पंछी जैसे उसे डांटते हुए चिंहुका - चुप बैठा रह! कुछ सुनायी भी पड़े तो समझ, नहीं सुना। इस अरण्य में कुछ न सुनने में ही भलाई है! बाल पंछी भौंचक हुआ, मगर शांत भी। गर्मी का मौसम बीतने-बीतने को था। बरसात भी अब तक आने-जाने की थी, मगर जाने कहां ठिठक कर रुकी पड़ी थी। बरसात की प्रतीक्षा में बेताब इस उष्णकटिबंधीय वन के ज्यादातर पेड़ धूप में झुलसे, पत्रहीन होकर नंगे खड़े थे। जमीन पर सूखे पत्तों की रजाइयां बिछीं थीं। व्याभिचार की आशंका लिए अरण्य, अनिच्छा से अपने आकाओं की प्रतीक्षा में कसमसाता, सकपकाता, आंखें बंद किये, हर आहट पर चौंकता, चित्त पड़ा था।

रग्घू दो दिनों से इन दादाओं के चंगुल में आन पड़ा था। जंगल-जंगल, पहाड़-पगडंडी, गिरते-पड़ते, इन भटकती आत्माओं के साथ तालमेल बिठाये फिरता रहा। पहले, दिन के समय उसकी आँखों पर पट्टी बांध दी गयी थी, फिर अपने एक साथी की उंगली कृपापूर्वक सुलभ करवा दी गई थी, जिसे थामे-थामे उसने न जाने कितनी यात्रा कर डाली थी। दिन भ्र वह उस उंगली को थामे उनके पीछे-पीछे चलता रहा था। पैरों के नीचे पड़ती जमीन से वह अंदाज लगाता रहा, यह मैदान है, अब वे सूखे पड़े खेतों से गुजर रहे हैं, अब वे खेतों की मेड़ पर हैं! दूर कहीं से एक कुत्ते के भौंकने की आवाज आयी तो वह समझ गया कि वे लोग किसी गाँव के करीब से गुजर रहे हैं। वह साहसी कुत्ता गाँव से बाहर निकल जरा-जरा देर में भौंके जा रहा था। उस कुत्ते का यूं भौंकना उसे पसंद नहीं आया। एक ने अपने सीनियर से पूछा - कामरेड धरमू, कहो तो मैं इस कुत्ते का मुँह हमेशा के लिए बंद कर दूं? 'नहीं’ - धरमू ने कहा - 'हमारे लिए बंदूक की गोलियां बहुत कीमती हैं, इन्हें फिजूल खर्च नहीं कर सकते!’ फिर धरमू और उस युवक ने मिट्टी के ढेले उस कुत्ते की ओर उछाले। शायद कोई ढेला कुत्ते को जा रहा होगा, वह कांय-कांय करता गाँव के अंदर चला गया और उसका साहस उसकी दुम से लिपट गया!

ये लोग गाँव के अंदर नहीं गये। गाँव से थोड़ी दूर, नाले के ऊपरी हिस्से में, जहाँ के पेड़ों में नये पत्ते आ चुके थे, नीचे छाया थी, उन्होंने थोड़ा विश्राम किया। बाद में उनमें से दो लोग गाँव में गये और वहाँ से कुछ अनाज, बर्तन गाँव वालों से मांग लाये। फिर उन्होंने आग जलायी और खाना बना लिया। सबों ने खाना खाया। इसे भी दिया। डेढ़ घंटें में खा पीकर वे फिर आगे चल पड़े। गाँववालों के बर्तन वे उसी जगह छोड़ गये। उन्हें मालूम रहा होगा, गाँव वाले आकर अपने बर्तन बटोर ही लेंगे।

जंगल की ताजी हवा रग्घू के नथुनों में समा रही थी। वह उस युवा दादा के पसीने की तेज गंध भी अपने नथुनों में अलग से महसूस कर रहा था। उसकी उंगलियां भी कई बार फिसल-फिसल जाती थी, तब वह दादा अपनी गंदी पतलून से उस उंगली को पोंछ कर उसे फिर (कृपापूर्वक) थमा देता था। उस दादा को विस्वास था, कल रग्घू अपनी 'परीक्षा’ में पास होकर उनके समूह का अंग बन जायेगा। 'ऐसे पढ़े लिखे जवान’ - जैसा कि उसके एक बड़े लीडर ने कुछ माह पूर्व उन्हें समझाया था - 'हमारी क्रान्ति के लिए जरूरी हैं, बस ये दगाबाज न हों!’

रात में जब रग्घू के आँखों की पट्टी खोली गई तो देखने के लिए चारों तरफ अंधेरा ही था। वैसे वह जंगल का ही जीव था, मगर उसे नहीं पता कि वह इस जंगल में किधर से आया है। परायी जगह पर दिशा-भ्रम तो होता ही है, और ऐसी स्थिति में वह कभी नहीं पड़ा था। पहले कभी उसने जंगल को इतनी गहराई में आंका भी नहीं था। उसे लगा जंगल उसकी नासमझी पर हँस रहा होगा! मगर वह बेबस था। उसका ज्यादातर समय जंगल से बाहर कस्बे और शहर में गुजरा था। फिर भी उसने मन ही मन जंगल को आश्वस्त किया - बस यहाँ थोड़ा समय गुजारने और दिन में खुली आँखों से चहुँ ओर निहार लेने की बात है! अगर वह यहाँ से साबूत निकल जायेगा तो फिर किसी दिन जरूर इस जगह पर लौटेगा! यह पता करेगा कि यहाँ आने का सीधा-सरल रास्ता कौन सा है! यह जगह कौन-सी है जो उसक लिए अबूझ बनी रह गई थी! मगर यह तब ही, जब चारों ओर 'शांति’ आ जायेगी! 'शांति’.. वह मन ही मन बुदबुदाया। यह 'शांति’ भी कमाल की चीज है, जिसके लिए सभी 'अशांत’ फिर रहे हैं! पता नहीं यह 'शांति’ कभी इस अरण्य में आयेगी भी या नहीं! कहीं इसके आते इतनी देर न हो जाये कि फिर इसकी जरूरत ही न रह जाये, क्योंकि तब यह अरण्य ही कहाँ होगा, नहीं?

देर रात वे किसी और गाँव पहुँचे। वहाँ अधजगी रात काटी और सुबह फिर चल पड़े। घुमन्तू जीवन उसे थका दे रहा था, मगर उसे आशा थी, जरूर वह 'उससे’ मुलाकात कर पायेगा! रायपुर के सिनेमा घर में उसने कुछ साल पहले एक फिल्म देखी थी, जिसका नाम उसे अभी याद नहीं आ रहा था। वह उस रोज फिल्म देखने निकला भी नहीं था, मगर कॉलेज वापसी के रास्ते में उसे बरसात ने रोक लिया था। वह पैदल था और उसने छतरी या बरसाती कुछ भी नहीं रखी थी। जिस भवन की छत के नीचे वह खड़ा था, उसके सौ कदम पर एक सिनेमाघर था। उसने अपनी नोटबुक अपनी कमीज के अंदर छुपायी, रूमाल सिर पर रखा और बिना ज्यादा विचार किये उस ओर दौड़ पड़ा, तो भी वह आधा भीग गया था। टिकट काउन्टर चालू था। भीड़़ नहीं थी। टिकट लेकर वह अंदर चला गया। अंदर भी कम ही लोग थे। वह स्वयं भी मजबूरी में आया था, मगर फिल्म उसे अच्छी लगी थी। फिल्म के आखिर-आखिर में वहाँ भी बरसात हो रही थी और एक ही आटो में बैठे फिल्म के नायक, नायिका एक दूसरे से अपरिचित, एक दूसरे की तलाश कर रहे थे। पाश्र्व में एक गीत बज रहा था। उसे हैरत हो रही थी कि अभी जान के लाले पड़े हुए हैं और वह पाश्र्व गीत के बोल बार-बार उसके जेहन में उठ रहे थे - जिन्दा रहने के लिए तेरी कसम, एक मुलाकात जरूरी है सनम!

पहले दिन वह इन दादाओं से खूब डरा था। डर तो अब भी है मगर कम। उसे मालूम था, उसका कोई अंदर है और उसकी ओर ही शायद ये लोग उसे ले चल रहे हैं। मगर अपने तई वे उसकी ठीक से जाँच-परख कर लेना चाहते हैं! संदेह हो पर बंदूक से उड़ा भी सकते हैं। मगर उसे लग रहा है, उसने दादाओं का कुछ विश्वास हासिल कर लिया है, शायद वे ऐसा न भी करे!

आज शाम को उसे एक दोनाली बंदूक थमा दी गयी थी। जीवन में पहली बार उसने ऐसे किसी हथियार का स्पर्श किया था, जो दूसरों की तत्काल जान ले सकता था। बंदूक पुरानी थी और उसके पीछे लकड़ी वाले हिस्से पर खरोंच के अनेक निशान थे। उस बंदूक पर हाथ फेरा। उसने बंदूक के सामने के छिद्र की गोलाई को अपनी उंगलियों से स्पर्श किया। उसने तनिक उत्सुकतावश बंदूक की लटकती पट्टी के अपने कन्धे पर चढ़ाया तो बंदूक उसकी पीठ पर आकाश की ओर तन गई, गोया अब दुश्मन उधर ही हो! उसने बंदूक को देखा और भयमिश्रित उत्सुकता की एक लहर उसके अंदर हिलोर गई। वह उसे जल्दी चलाकर देखना चाहने लगा। बंदूक थामे उसने अपने को 'बड़ा’ और 'सम्मानित’ महसूस किया!... क्या इरमा (उसकी मंगेतर) ने भी ऐसा ही महसूस किया होगा, जब उसने बचपन में पहली बार बंदूक का स्पर्श किया था?

                                                          2.

इरमा.. लेकामी इरमा... एक जंगली फूल! जामुन की ढेरी पर आ गिरा एक महुआ!... एक जवान होती, रम्भाती भूरी बछिया! रग्घू की किस्मत में आ पड़ा सुख का एक बटुआ! अपनी घाटियों में रहस्य छुपाये, तने हुए उरोज़ों सी उठी, पहली बरसात में हरियाली एक छोटी डोंगरी!

इरमा रग्घू के गाँव की नहीं थी। नारायणपुर से लगभग दस किलोमीटर दूर देवगाँव के पास के किसी टोले के अपने पोखर की एक मछली थी, जो अपने परिवार पर हुए अनपेक्षित वृष्टि में बहकर उसके इलाके में आ पहुँची थी। दर ग्यारह साल की उम्र रही होगी तब इरमा की। उससे पाँच साल छोटी, मगर उससे एक इंच बड़ी। रग्घू को उसके नाम का उच्चारण बड़ा प्यारा लगता था। शुरू शुरू में वह उसके पूर नाम से पुकारता था - लेकामी इरमा, अगर बाद में सिर्फ 'इरमा’ कहना ही ज्यादा ठीक लगा था।

नई जगह पर इरमा अपने शुरूआती दिनों में एकदम खामोश और अकेली रहना पसंद करती थी। अपना जन्म स्थान, गाँव-गली, जीव-जंगल, सहेलियों-संबंधियों को छोडऩे का दुख उसे सालता रहता था। अगर वह मजबूर थी। निर्णय बड़ों ने लिया था, उचित अनुचित जानकर, मगर उस निर्णय का बोज वह अपने दिल में लिए कुछ दिनों तक गुमसुम बनी रही थी।

इरमा ने अपने वास्तविक पिता को कभी नहीं देखा था। न उसकी माँ लेकामी हिड़मा ने भी कभी इस संबंध में किसी को कुछ बताया था। माँ हिड़मा भी 'उसके’ सम्बंध में ज्यादा कुछ जानती नहीं थी। वह कोई वनरक्षक था और एक दिन जंगल में सूखी लकडिय़ाँ बटोरती, उन्हें काटती हिड़मा को उसने रंगे हाथों पकड़ लिया था। उसकी कुल्हाड़ी छीन ली थी। कुल्हाड़ी हिड़मा के परिवार के लिए कीमती और बहुउपयोगी थी। वह कुल्हाड़ी छोड़कर भाग नहीं सकती थी। वह गिड़गिड़ायी, वनरक्षक के पांव छुए, अपने कान पकड़े, कसम खायी कि दोबारा इधर नहीं आयेगी, मगर वह वनरक्षक (जो मानवरक्षक नहीं था) नहीं माना। उसकी नजर हिड़मा की उघड़ी छातियाँ से होती हुई, समूचे तन पर तनी हुई थी। एक सांवली सुडौल जवान हिरनी उसके सामने कुलांचे मारकर भागने को तैयार, मगर अभी मजबूर! उसे भारी पड़ रहा था अपने बुजुर्गों की चेत को बिसारना - हिरना, समझबूझि वन चरना!... वनरक्षक ने एक हाथ से हिड़मा की कलाई पकड़ी और दूसरे हाथ से उसके बालों में खोंचें गये चार पडि़य़ाओं1 को निकाल फेंका। फिर वह किया जो उसकी मर्जी थी। आख्रि वह बोला था - कल इसी समय फिर आना और कुल्हाड़ी ले जाना! किसी को अपने साथ नहीं लाना। और हाँ, जिन लकडिय़ों को तूने बीन-बांध रखा है, उसे ले जा सकती है!

चीते की झपट से किसी तरह छुटी घायल हिरनी ने अपनी लचकी टांगों को झटकर सीधा किया, अपने आंचुलू2 को लपेटा, जमीन पर बिखरी चारों पडिय़ा उठायी, लकडिय़ों का गट्ठर सिर पर रखा और थकी हारी घर चली आयी। वनरक्षक की जबरदस्ती से वह आहत थी, मगर अपनी कुल्हाड़ी के छुटने का उसे ज्यादा दुख था। वह दूसरे दिन नियत समय पर अपनी कुल्हाड़ी के लिए आ पहुँची। वहां वनरक्षक अपनी मोटरसाइकल की सीट पर बैठा, इंतजार करता, पहले से आ गया था।

- 'नावा टांगी टून हीम बाबू, भगवान मिकून भला कियर... (मेरी कुल्हाड़ी दे दो बाबू, भगवान तुम्हारा भला करेगा)!’

- 'मेरा भला तो तुम भी कर सकती हो, भागने की अभी जरूरत नहीं है! और हाँ देखो वो ढ़ेर सारी लकडिय़ाँ, जितना चाहो ले जाओ!’

वह मुस्कुराया था। उसने एक ओर पड़ी ढेर सारी लकडिय़ों की ओर इशारा किया। हिड़मा ने उस ओर देखा, ये लकडि़य़ाँ तो कल यहाँ नहीं थीं! अच्छा है, आज उसे लकडिय़ों के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। बाबू साब तो खुद ले जाने को बोलता है तो अब डर काहे का!... आज तो वह जल्दी लौट जायेगा, अगर उकी टांगी?... वनरक्षक ने आज भी उससे जबरदस्ती की। हिड़मा ने कल के मुकाबले आज उसका कम विरोध किया। जाने क्यों अधेड़, किन्तु हष्ट पुष्ठ गौरांग वनरक्षक के प्रति उसके मन में कुछ कमजोरी घर करने लगी। लकडिय़ाँ लेकर लौटते उसने फिर निवेदन किया - 'नावा टांगी टून हीम बाबू... मेरी टांगी दे दो बाबू!’

- 'क्या लेना है? क्या बेचना है?’

- 'नावा बरा गोगोड़ कोरदुन ममियाना आंद। हयोर, कमका माटीनीय तनाना (मैं अपना एक मुर्गा बेचुंगी। और नमक, हल्दी, मिट्टीतेल लेना है)। बाबू, मुर्गा बिक गया तो एक आंचुलू भी लूंगी!’

- 'चलो, तुम्हारा मुर्गा मैं खरीद लूंगा। तुम्हें कल नमक, हल्दी और एक बोतल मिट्टी तेल भी यहीं पर मिल जायेगा। आंचुलू फिर कभी जाकर खरीद लेना। तुम्हें कल कोसों दूर जाने की जरूरत नहीं है! तुम्हारे टोले वालों को जाने दो। तुम यहाँ आना और अपनी कुल्हाड़ी भी ले जाना।’

वनरक्षक फिर हँसा। उसके पान खाये मुख पर धूर्त मुस्कान खिली रही। हिड़मा के चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं। मगर फिर वह रोज का क्रम बन गया। हिड़मा की जरूरत की सारी चीजें वनरक्षक कस्बे से लाकर उसे मुहैया कर देता। कभी कभी वह दो चार रुपये भी उसे दे देता, जिसकी अब हिड़मा को ज्यादा जरूरत नहीं रह गई थी। घने जंगल के बीच वनरक्षक ने एक छोटी-सी लकड़ी की कुटिया डाल ली थी। कुटिया में एक चटाई, पीने के पानी का एक घड़ा, खाने की चीजों के कुछ पैकेट, महुआ के शराब से भरी प्लास्टिक की केन, एक लोटा और दो गिलास हमेशा सेवा में तत्पर, किन्तु उपयोग की प्रतीक्षा में अलसाये पड़े रहते। साल, सागौन, तेन्दू, सल्फी, बांस, बीजा, खैर, इमली, आम, पलास आदि पेड़ों को छूकर आती मंद बयार, और उसमें मंदाये दो यार! कुटिया के कोने में हिड़मा की कुल्हाड़ी मुस्कारती पड़ी रहती। वह अपनी मालकिन को रोज आते देखती और हिड़मा उसे कल ले जाऊंगी का आश्वासन इशारे से दे जाती।

वनरक्षक की मुस्तैदी के अभाव में जंगज अधिक उदार और समावेशी हो गया था। अपनी जरूरत की चीजें लाने ग्रामीण आदिवासी दिन में निश्ंिचत होकर जंगल में हर जगह घुस जाते। फल-फूल, कंद-मूल, पान-पत्ते, शहद, लकड़ी आदि चीजें बटोर ले जाते। जंगल में कुछ गोपनीय जगहें भी थीं, जहाँ उन्होंने तम्बाकू और गांजे के पौधे उगा रखे थे। सरकारी महकमे की नजरों से ओझल इन पौधों को जंगल पालता-पोसता, बड़ा करता और छुपाकर इन निर्धन आदिवासियों के जीवन में रस घोल देता। जंगल और आदिवासियों के बीच का यह मित्रभाव सदियों से कायम था। मगर यह मित्रता आजकल लुकाछिपी से निभायी जा रही थी। सरकारी, अद्र्धसरकारी कर्मचारी की दहशत से आदिवासियों का आदिम दिल सहम जाता। वह परेशान हो सोचता - नल बुम पडंता... (धरती भगवान ने बनायी), हम भगवना की संतान, ये 'सरकार’ बीच में कहाँ से आ गई।

                                                            3

हिडमा के साथ वनरक्षक का खेल कुछ माह चला। फिर एक दिन वनरक्षक ने उधर आना बंद कर दिया। हिड़मा रोज उस कुटिया तक जाती और वनरक्षक का इंतजार करती। वह वनरक्षक की मोटरसाइकिल की आवाज सुनने की कोशिश करती। हवा में जब वह आवाज सुनायी नहीं देती, तो वह पगडंडी की जमीन पर इतने नीचे कान सटा देती कि जब वह उठती तो उसके गाल, बाल और कान में मिट्टी लगी होती। मगर नियति उस पर मेहरबान नहीं थी। जंगल का भांय-भांय करता सन्नाटा टूटता नहीं था। फिर पन्द्रह दिनों बाद हिड़मा के कानों में मोटरसाइकिल की आवाज सुनायी दी। वह कुटिया से पगडंड़ी की ओर दौड़ी। देखा, वनरक्षक ही था, मगर कोई नया। उसके साथ एक युवक भी था, जो इस वन इलाके के रास्तों का जानकार था, एक कस्बाई लफूट लड़का।

हिड़मा को देख वनरक्षक ने मोटरसाइकिल रोकी। उसे गुस्सा और आश्चर्य था कि उसे देखकर वह भागी नहीं। एक तरह से यह उसके ओहदे का अपमान था। वह गुर्राया - 'तू जंगल में इधर क्या कर रही है? मालूम नहीं ये प्रतिबंधित इलाका है?... और वो झोपड़ी तेरी है क्या? तूने यहाँ झोपड़ी कैसे बना ली? इसे तोड़ और भाग यहाँ से!’

हिड़मा नहीं भागी। उसे साहस कर पूछा - 'बाबू साब, मुने तोर साब वायुर बा (बाबू साहब, वो पहले वाला साहब नहीं आया)?’

- 'कौन साहब?’

हिड़मा ने उस साहब का सिर्फ सरनेम ही सुना था, जिसे वह उसका नाम ही समझती रही। उसने लडख़्रड़ाती जुबान से कहा - 'पानी गिरहि साब!’

- 'अच्छा, पाणिग्रही साहब! वह तो साला नौकरी छोड़कर अपने परिवार के पास जैपुर1 चला गया। उसकी जगह मुझे यहाँ मरने के लिए भेज दिया गया है!’

हिड़मा का दिल धक्क से बज उठा। अब..अब उसका क्या होगा? अपने गर्भाशय में कुछ दिनों से कुछ ठहरने का एहसास हो रहा था। उसने कुछ दिनों पहले ही साहब को यह बात बतलायी थी। कहा था - 'लगे माइता लोपा बाताय रोमाता। नाकुन मरमिंग किम... साब (लगता है अंदर कुछ ठहर गया है! मुझसे शादी करोगे न साब)?

और साहब का चेहरा तत्काल उतर गया था। उसका शरीर ढीला और पीला पड़ गया था। उसके मुँह से बस इतना ही निकला - 'कुछ तो करना पड़ेगा रे!’

हिड़मा को लगा, साहब राजी हैं। उसने ऊँचे सपने देखने शुरू कर दिये थे। उस दिन साहब ने उसे जल्दी लौटा दिया था। खुद भी ऑफिस में काम है, कहकर अपनी मोटरसाइकिल से लौट गया था। आज पन्द्रह दिन हो रहे ते, उसके दर्शन नहीं हुए। हिड़मा को बरसों बाद पता चला कि बस्तर में एक कड़क कलेक्टर आये थे, कोई शर्मा जी। और जनों के लिए वे चाहे कड़क हो, मगर आदिवासियों के बड़े हमदर्द और मददगार थे। उन्होंने ही सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए ऐसा दिशा निर्देश जारी कर रखा था कि अगर किसी व्यक्ति का किसी आदिवासी युवती से सम्बंध सिद्ध होता है तो उसे उस युवती से शादी करनी पड़ेगी और उसे दण्डित भी किया जा सकता है!

इधर नया वनरक्षक अपने साथी के साथ मोटरसाइकिल से उतरा। ुसने हिड़मा की छातियों पर नजरें गड़ाते हुए कहा - 'झोपड़ी में तू क्या क्या छुपा के रखा है, हमें भी तो पता चले!’

हिड़मा ने अपने आंचुलू से छाती ढ़ंक ली और रूंआसी, उदास झोपड़ी के द्वार पर एक ओर खड़ी हो गई। दोनों उसके शरीर को रगड़ते-से झोपड़ी में घुसे।

'सर जी, यहाँ तो सब इंतजाम है!’ - लफूट लड़का झोपड़ी में रखे सामान को देखकर भौंचक हुआ। उसने महुआ की शराब के केन का ढक्कन खोलकर सूंघा और प्रसन्न होकर बोला - 'महुऔ है, चरा मुर्रा है, चटाई और लेकी (लड़की) भी है!... बस सरजी, आज की यात्रा यहीं खत्म करते हैं!’

नया वनरक्षक झोपड़ी का मुआयना करता हुआ चटाई पर बैठ गया। लड़के ने गिलासों से महुआ डाली। वे बहुत देर से प्यासे भी थे। फटाफटा एक-एक गिलास महुआ पी गये। लड़का फिर दूसरा पेग तैयार करने लगा। वनरक्षक ने द्वार पर खड़ी हिड़मा को पुकारा - 'अरे तू वहाँ क्यों खड़ी है? आजा अंदर हमारे साथ बैठकर पी। पाणिग्रही न सही, पाटिल भी बुरा नहीं!’

हिड़मा को उनके इरादों का आभास था। अब उसका यहाँ रूकना ठीक न था, मगर उसकी टांगी? अचानक वह झोपड़ी में तेजी से घुसकर कोने में धरी अपनी टांगी का ओर बढ़ी। वनरक्षक ने उसके घुटनों पर लटकते आंचुलू को पकडऩे की कोशिश की। लड़के ने हिड़मा के एक पांव पर चुटकी ली। दुख, अपमान और क्रोध से उत्तेजित हिड़मा ने लड़के को एक लात मारी और झपटकर अपनी टांगी उठा ली। हिड़मा का हाथों में कुल्हाड़ी देखकर उन दोनों की हवा निकल गई। वे चटाई पर गिर पड़े। उन्हें रौंदते हुए हिड़मा बाहर आयी। फिर बिना पीछे देखे अपने गाँव टोले की ओर हाँफते, कांपते, रोते दौड़ पड़ी।

हिड़मा जब से वनरक्षक के चक्कर में आयी थी, वह देवगाँव के गोटुल1 में जाना ही भूल गई थी। गोटुल में उसके चार प्रेमी थे, जिन्होंने उसे पडिय़ा भेंट कर प्रेम निवेदन किया था। मगर अब तक उसने किसीको डरपोल2 का गीकी3 या तम्बाकू देकर उनके निवेदन को स्वीकार नहीं किया था। अब लगा कि उसे इस दिशा में आगे बढऩा होगा। दोएक बार उकी दो साइगुती4 घर पर उसे गोटुल से चलने आयी भी थी, मगर उसने मना कर दिया था। साइगुती और कुछ गांववालों को भी धीरे-धीरे हिड़मा के वनरक्षक से मेलजोल की खबरों का पता चल गया था। मर इससे हिड़मा का मान ही बढ़ा था। वनरक्षक और बाहरी लोगों से सब डरते थे। वनरक्षक द्वारा भेंट नहाने की साबून, मोटा नमक तौलिया, कपड़े, कंघी,दर्पण, मिक्चर के पैकेट, खुशबूदार तेल आदि से हिड़मा के पिताकी झोपकड़ी जगमग थी।

हिड़मा की माँ चार साल पहले जंगल में भालूओं के आक्रमण में मारी जा चुकी थी, जब वह ठकेदार के लिए तेंदूपत्ता तोड़ रही थी।

पिता की आँखों में मोतियाबिंद घर कर रहा था, फिर भी वह और लोगों के साथ जंगल जाते और जो कुछ भी फल-फूल, कंदमूल, बटोर सकते, बटोर लाते। झोपड़ी की बाड़ी में सागभाजी के अलावा कुछ अनाज भी उगा लेते। महुआ की शराब बनाते और आसपास हाट बाजार, मड़ई मेले में बेच आते। बाद में कुछ बकरियाँ और मुर्गियाँ भी पालने लगे। उम्र और जिन्दगी की जोत यूं ही टिमटिमाती, स्वयं को गरियाती जले जा रही थी।

हिड़मा बड़ी हो गई थी, मगर इधर यूं भी अपनी संतानों के शादी ब्याह की बहुत चिंता घर वालों को नहीं रहती थी। मावली माता, कुप्पार लिंगो और अन्नमदेव ने जहाँ और जैसे बदा होगा, वैसे ही होना है, तो फिर उसकी चिंता में घुलना क्यों? - एक आम आदिवासी परिवार सोचता और निश्चिंत रहता। जब वनरक्षक के साथ हिड़मा के चक्कर का पता पिता जैतराम दुग्गा को चला, तब भी उन्होंने सिर्फ यह कहकर कि 'बाहरी लोगों से दोस्ती और दुश्मनी दोनों बुरी है’ अपने काम से काम रखा और जब वनरक्षक के दगा देकर जाने की बात सुनी, तब भी वे उत्तेजित नहीं हुए।

एक दिन फिर हिड़मा की दो साइगुती शाम को उसे फिर गोटुल ले चलने आयीं। इस बार हिड़मा तैयार हो गई। उसने बाल संवारे, नई आंचुलू पहनी, आंचुलू के छोर पर तम्बाकू के पत्ते बांधे, गले में सिक्कों की माला पहनी। चार पूर्व प्रेमियों द्वारा दी गई पडिय़ाओं को, जिसे उसने झोपड़ी की छत की लकडिय़ों में खोंच रखा था, निकालकर बालों में खोंच लिया। थोड़ी देर दीवार की खूंटी में टंगे दर्पण में खुद को निहारा। चेहरा कुछ जँचा नहीं। उसने गीले कपड़े के खूब रगड़ रगड़कर चेहरा पोंछा। कान में झुमके लटकाये और दोबारा दर्पण में निहारा। अबकी चेहरा बेहतर नजर आया। नाक में चमकती पीतल की फुल्ली देखकर आत्मविश्वास जागा। उसने अपनी बगल में एक गीकी दबायी और अपनी साइगुतियों के साथ घर से निकल गई। रास्ते भर वह मन ही मन वनरक्षक द्वारा कहे शब्दों की जुगाली करता रही - कुछ तो करना पड़ेगा रे!

शाम का समय था। अंधेरा धीरे-धीरे बढ़ रहा था। गोटुल के आंगन में अलाव जल उठा था। उसके आसपास गाँव टोले के युवक युवतियाँ और कुछ किशोरवय के लोग भी बातें करते बैठे हुए थे। दिन भर के अपने अनुभव, कोई कथा-कहानी, कोई चुटीली बात आपस में सुन-सुनाकर आनंद ले रहे थे। हिड़मा ने पहुँचते ही सब के 'सेवाजोहार’1 किया। पास ही लकड़ी के कुछ बड़े कु्दे पड़े थे, वह और उकी साइगुतियाँ एक कुन्दे पर जा बैठीं। थोड़ी देर बाद हिड़मा की दोनों साइगुती उसके पास से उठीं और अपने अपने चेलिक2 के पास अलाव के करीब जा बैठीं। सिरदार3 हिड़मा की लगातार अनुपस्थिति से नाराज था। दो बार उसकी शिकायत उसके पिता से (जो बेटी की मर्जी में दखल नहीं देना चाहते थे) कर चुका था और बीस-बीस रुपये दण्डस्वरूप उनसे वसूल चुका था। मगर हिड़मा फिर भी अनुपस्थित चल रही थी। नाराज सिरदार फिर किसी दिन उसके पिता से आखिरी शिकायत करने वाला था कि - 'अपनी बेटी को अब खुद सम्हालो! वह बहक रही है और उसे गोटल से बहिष्कृत किया जा रहा है!’ मगर आज हिड़मा को उपस्थित देख उसने राहत की सांस ली, कि उसे फिर शिकायत का बीड़ा नहीं उठाना पड़ेगा! वह स्वयं शिकायत करके लज्जित था, कि गोटुल की मोटियारिने1 उसके बस में नहीं हैं! मगर अब सिरदार ने मादर (नगाड़े) पर थाप देकर हिड़मा का स्वागत किया। गोटुल में लगभग पचास लोगों की उपस्थिति थी। ज्यादातर जवान, कुछ जवानी के क्रम में और कुछ उनसे भी जरा छोटे।

तभी चालकी2 उठा और उपस्थित सभी लोगों को तम्बाकू और साल के पत्ते बांटने लगा। चेलक और मोटियारिनों ने खुशी-खुशी उन्हें स्वीकार किया। साल के पत्तों में तम्बाकू का पत्ता रख कुछ ने तुरन्त चिलम (चोंगी) बनायी और सुलगा भी ली। जिन्हें यह पसंद नहीं था, उन्होंने गोटुल का यह उपहार नहीं लिया, खासकर किशोरों ने। हिड़मा ने उपस्थित सभी लोगों पर नजर दौड़ायी। उसके चारों चेलिकों में केवल तीन वहाँ उपस्थित थे, जिन्होंने उसे कभी पडि़ाय भेंट की थी। उन तीनों में दो को अपनी मोटियारिने मिल गई थीं, और वे उन्हीं के साथ बैठे थे। सेवा जोहार के बाद उन्होंने हिड़मा की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा था। तभ तीसरा उठकर उसके पास आया और झिझकते हुए अपने हाथों से उसे अपनी तम्बाकू भेंट की, जिसे हिड़मा ने ले लिया। वह चेलिक उससे कुछ पूछना, कहना चाह रहा था, मगर उसकी झिझक उसका मुँह दबोचे थी। अलबत्ता हिड़मा ने ही उससे पूछ लिया - 'लेकामी हूंगा ओह नाह अयोर, वायोर बदम (लेकामी हूंगा नहीं दिख रहा है, क्या नहीं आया)?’

उस चेलिक ने बातचीत का मौका पा लिया। बोला - 'हूंगा की तबीयत खराब है. उसे जरपैता (मलेरिया) हुआ था। हफ्ता भर हो गया, वह घर पर ही है। वड्ढे3 उसका इलाज कर रहा है। वैसे अब तो कुछ ठीक हो गया है। कल जंगल जाते समय मैं उससे मिला था। थोड़ी-थोड़ी कमजोरी है उसको।’

हिड़मा ने मन ही मन हूंगा के बारे में सोचा। गोटुल का सबसे बिटबिट्टा4, घुंघराये भूरे बालों वाला, सबसे शर्मिला और हमेशा मुस्कारते रहने वाला चेहरा उसके सामने आया। उसे याद नहीं पड़ता कि उसने कभी किसी काम में किसी का विरोध भी किया हो। गोटुल के अलाव के लिए लकडिय़ाँ लाने, छत छाने, खाना बनाने, सिरदार द्वारा दिये काम (चाहे रात में गश्त लगाने, लोगों की उपस्थिति रखने) आदि में वह हमेशा तत्पर ही रहता था।

हिड़मा ने इस (तीसरे) चेलिक के दिये तम्बाकू को साल के पत्ते पर रख चोंगी (सोंगा) बनायी, फिर उठकर अलाव में जलती छोटी लकड़ी उठायी और महीनों से छुटी चोंगी सुलगा ली। एक कश लिया और उस चेलिक से (जो उस पर ही नजर गड़ाये था) पूछा - 'उसकी (हूंगा की) कोई माीेटियारिन बनी?’

- नहीं, अब तक तो नहीं।... मेरी भी नहीं है!’

हिड़मा मुस्कुरायी। चेलिक ने सोचा, शायद हिड़मा अपने साथ लायी गीकी उसे भेंट कर उसके प्रेमनिवेदन को स्वीकार लेगी। मगर हिड़मा उसके पास से उठ कर एक अन्य साइगुती के पास जा बैठी और उससे बातें करने लगी।

थोड़ी देर ढोल, नगाड़े, टिमकी और बाँस की बनी तुरही का स्वर अलाव के चारों ओर गूँजने लगा। फिर चेलिक और मोटियारिनें उठीं और अलाव के चारों ओर नाचने लगीं। जिसका कोई प्रेमी या प्रेमिका नहीं थी, वह भी नाच में शामिल हो गया। जंगल में, खेतों में, बाड़ी बखरी में, घरद्वार में, दिन भर की मेहनत थे थके शरीर में नई जान आ गई। आनंद से सराबोर मुख से गीत फूट पड़े-

तेरे ना नी ओ

तेरे नाना ना ने नांव रे

तीना ना मुर ना नारे नाना

ना मुर नाना हो..!

हिड़मा थोड़ी देर मोटियारिनों, साइगुतियों के साथ ताल से ताल मिलाती नाचती रही, मगर महीनों से नृत्य में भागीदारी छुटने और शरीर में कुछ भारीपन महसूस होने से, उसने जल्दी थकान अनुभव किया। जब अगला नृत्यगीत शुरू होने गा तो उसने साथवाली साइगुती से कहा - 'बहन मैं परछी में बैठ रही हूँ!’ और गोटुल के ऊँचे बरामदे में जा, पैर लटकाकर अकेली बैठ गई। वहीं से टुकुर-टुकुर वह नृत्य देखने लगी, मगर उसके मन में कुछ ओर चल रहा था। उसने फिर एक बार अपने तालु में चिपके शब्दों को दुहराया - कुछ तो करना पड़ेगा रे!

 

 

 

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