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जून - जुलाई : 2020

क़ारोबारी विकास और विकास का क़ारोबार

शशिभूषण मिश्र

कहानी अंक का पहला विमर्श

 

 

सन्दर्भ- इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी

 

लोकतंत्र का जामा पहने सरकारें ही जब क़ारोबारी हितों की संरक्षक बन गयी हों और क़ारोबार से होने वाला मुनाफ़ा ही नीति निर्माण का आधार बन गया हो; ऐसे में यह स्वीकार करना कठिन नहीं रह जाता कि हमारा समय 'राजनीति की क़ारोबारी लिप्साओं का समकाल है’। बहुत ही सोची समझी रणनीति के तहत सार्वजनिक संस्थाओं-संस्थानों और उद्यमों को एक एक करके निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। आज़ादी के चौहत्तर सालों में पहली बार देश का वित्त मंत्री बजट प्रस्तुत करते हुए एक तरफ कर प्रावधानों के अंतर्गत 'बचत’ को ठेंगा दिखा रहा है तो दूसरी तरफ़ पूंजीपतियों को निवेश के लिए तमाम रियायतें दे रहा है। बहरहाल, सरकारें  चाहे जिन दलों की रही हों, उनका जोर 'विकास के कारोबारी मॉडल’ पर ही रहा न कि विकास के मूलभूत मुद्दों पर। विकास के बुनियादी सवालों के पीछे छूटते जाने और क़ारोबारी शक्तियों के लगातार मजबूत होते जाने की प्रक्रिया के बीच रचनाकार का चिंतित होना स्वाभाविक है। प्रस्तुत आलेख इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी के बहाने क़ारोबारी विकास के गर्भ से उपजे उन विचारणीय बिन्दुओं को तलाशने की कोशिश में लिखा गया है जिनका सम्बन्ध हमारे समकाल से है।

नयी सदी में क़ारोबारी विकास को लक्षित करने वाली कई कहानियाँ हाल के वर्षों में लिखी गयीं, बावजूद इसके ऐसी कहानियों की संख्या बहुत कम हैं जिनमें 'कारोबारी व्यवस्था की रणनीतिक समझ’ हो। क़ारोबारी व्यवस्था और उसकी 'विकास लीला’ की गहरी समझ रखने वाले कहानीकारों में ओमा शर्मा उल्लेखनीय हैं। हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य में ओमा की कहानियाँ 'नए सांचे में ढल रही अर्थव्यवस्था और अर्थतंत्र’ को समझने का प्रवेशद्वार हैं। ध्यान रहे उनकी अधिसंख्य कहानियाँ विवरण बहुल होने के साथ परिदृश्यकेंद्री हैं। 'घोड़े’, 'एक समय की बात’, 'शरणागत’, 'कारोबार’ ऐसी ही कहानियाँ हैं जिनमें क़ारोबारी प्रबंधन की रणनीति को बारीकी से विश्लेषित किया गया है। उभरती वित्तीय और वाणिज्यिक संस्थाओं की गति से कदमताल करती 'घोड़े’ कहानी कारोबारी दुनियां की भीतरी सतहों तक प्रवेश कर उसके भीतर चल रही उठापटक का जायज़ा लेती है। इसमें एक ओर खाए अघाए वर्ग की ऐय्याशी, महत्वाकांक्षा और पतन है तो दूसरी ओर 'रेसकोर्स’ और उससे जुड़ी सट्टेबाजी है। यहाँ रेसकोर्स की हरेक गतिविधि पर लेखक की नजऱ है जिसमें 'पैडाक में विचरते घोड़े, विजेता को मिलने वाली मर्सिडीज के पास लाल सुर्ख लिबास में पोज़ देती कोरियाई माडल, एल्विस प्रिसले की दुम बना फिरता नील बर्गी नाम का फिरंगी गायक और मादक और फूहड़ दोनों तरह के सेलिब्रिटीज के क्लोज-अप हैं’। कहानी में उपभोक्ताओं की प्रोफाइल को भली तरह समझ लेने के बाद उसके मुताबिक़ अपने लक्ष्य में फेरबदल करने वाली कारपोरेट नीतियाँ हैं, स्टाक मार्केट और फाइनेंस कंसल्टेंसी के कामकाज हैं, खाने पीने के विश्वस्तरीय ब्रांड्स और अड्डे हैं और इन सबके बीच 'कला-संस्कृति और मनोरंजन के नाम पर’ बिजनेस करने की स्ट्रेटजी है। इस तरह के विषय को लेकर इतनी व्यवस्थित कहानी हिन्दी में संभवत: पहली बार लिखी गयी है।

'क़ारोबार’, 'शरणागत’ और 'एक समय की बात’ कहानियों में कारोबारी हलकों में पनपी बेइन्तहाँ चालाकियों और फ्राड्स के किस्से गुंथे पड़े हैं। 'कारोबार’ कहानी में जहां तिकड़म और जालसाजी से कमाई हुई अथाह दौलत का साम्रज्य है वहीं इसका टैक्स चुराने वाले व्यापारियों की दुनिया हैं। ओमा दिखाते हैं कि हमारे देश में टैक्स चोरी का भी एक बड़ा कारोबार है, जिसमें जावेद जैसे जाने कितने कारोबारी टैक्स डिपार्टमेंट को चूना लगा रहे हैं। जावेद के पास इफरात में बेनामी दौलत है- 'आठ दुकानें चमनपुरा बाज़ार में, पांच नवाबगंज में, सुकून सुपर मार्केट में आधे की भागीदारी, नीलमबाग़ से थोड़ा आगे पांच हजार ग़ज का प्लाट जिसमें एक बिल्डर के साथ मिलकर फ्लैट्स-दुकानों के निर्माण का काम शुरू होने वाला है, तीन पेट्रोल पंप, तीन टैंकर और बाईस ट्रक, निजी वाहनों में तीन लांसर, दो हौंडा सिटी, दो कालिस, तीन सेंट्रो और एक टाटा सूमों।’ कहानी की नज़र से अपने आसपास के जावेदों को देखिए और अनुमान लगाइए कि अवैध बेहिसाबी संपत्ति किस तरह फल फूल रही है। यही नहीं, मुंबई जैसे शहर में 'हर रोज के तीस लाख के बाजार में आठ लाख का हिस्सा रखने वाला एक थोक व्यापारी साल भर में सौ करोड़ के आसपास कमा रहा है। जिस ट्रेड को आज तक हाथ नहीं लगाया गया उसका तो पूरा कारोबार ही बेहिसाबी है।’  (कारोबार, कारोबार तथा अन्य कहानियां, पृष्ठ,11)

'शरणागत’ कारोबारी समय की नब्ज पकडऩे वाली कहानी है जिसमें औद्योगिक इकाइयों को चमकाने और गिराने के हथकंडे हैं, उत्पादन से मुनाफ़ा कमा लेने के बाद उसे गैर उत्पादक संपत्ति घोषित करने के दाव-पेच हैं, नए बनते विशेष आर्थिक जोन हैं, चालीस साल में चालीस गुना कारोबार करने वाली इकाइयां हैं, प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड की मनमानियां हैं, दिवालिया घोषित कर दी गयी इकाईयों की बैंकों में रुकी हुई कर्ज अदायगियां हैं और इन सबके साथ बैंकों से सौदा करके 'साठ करोड़ के ऋण का आठ करोड़ में निबटारा’ है। उनकी अन्य कहानी 'एक समय की बात है’ में भी चारों ओर धड़ल्ले से फैला कारोबार है और उसको ताक़त देने वाला भ्रष्टाचार। यहाँ ऐसी फ़र्जी स्कीमों की भरमार है- 'जिसमें हर निवेशक एक लाख सात हजार देगा जो तीन महीने बाद तीन लाख बीस हजार हो जाएगी। मिलने वाली रक़म के चेक भी अग्रिम रूप में दे दिए गए थे और हर निवेशक को तीन निवेशक बनाने थे जिसके लिए बोनस का प्रावधान अलग से मुकर्रर था। आनन फानन  में आठ करोड़ जमा कर लिए गए। पहली क़िस्त के चेकों को भुनाने का आनंद भी लोगों को मिला मगर तीसरे महीने जब चेक बैंक से बाउंस हो गए तब मामले का भंडाफोड़ हुआ।’(शरणागत, दुश्मन मेमना, पृष्ठ-16)

समकालीन रचनाजगत में मनोज रूपड़ा विकास की तहकीक़ात करने वाले उम्दा कथाकार हैं। फ़रेब में लिपटी कारोबारी दुनियां की हौलनाक सचाइयों का विश्वसनीय रेखांकन करने और उसके रेशे रेशे को कहानी के भीतर पिरोने का हुनर उन्हें ख़ूब आता है। 'रद्दोबदल’, 'टावर आफ साइलेंस’ और 'प्रेत छाया’ ऐसी रचनाएं हैं, जिनकी संरचना में कारोबारी शक्तियों की अपराजेयता और उसके समक्ष नतमस्तक होते राष्ट्र-राज्य की तल्ख़ हकीक़त पैबस्त है। 'रद्दोबदल’ में वैश्विक क़ारोबारी अभियान की नुमाइंदगी मिसेज लिबर्टी जैसी ताकतें कर रही हैं। कारोबारी दुनिया की हिरावल बनी लिबर्टी जैसी शक्तियां एक ऐसे अभियान को अंजाम पर पहुंचाने में पुरजोर ताक़त झोंक रही हैं जिसमें इंसान को इंसानी रूप में  नहीं सिर्फ उपभोक्ता रूप में पहचाना जाए। अभियान के नियंताओं को माल खपाने के लिए उपभोक्ताओं की कमी महसूस हो रही है और चाह कर भी रातोंरात यह तादाद बढ़ाई नहीं जा सकती, इसलिए यह तय किया गया है कि 'हर इंसान अपनी ज़रूरत से तीन गुणा ज्यादा चीजों को इस्तेमाल करे। नयी दुनिया को ऐसे इंसानों की ज़रूरत नहीं है जो चीजों के इस्तेमाल में कोताही और कंजूसी बरतते हैं।’ (रद्दोबदल, टावर आफ साइलेंस,पृष्ठ-123) कहानी उस दृष्टिबिन्दु तक ले जाती है जहां से साफ़तौर पर देखा जा सकता है कि क़ारोबारी हुकूमतों की 'खिलाफ़त की हिमाक़त करने वाला कोई नहीं है।’ उनकी ताक़त की आँधी से मूंगफली, तिल-गुड़ की पपड़ी, गन्ने का रस, नींबू शरबत, तरबूज, कुल्फी, चाट-पकौड़ी, भजिया, समोसे, लस्सी और जलेबी बनाने-बेचने वालों के साथ धोबी, दरजी, मोची, बढ़ई, कुम्हार, बसोड, कसेर, लुहार, मछेरे अपने ठौर से उजाड़ दिए गए हैं।

'टावर आफ साइलेंस’ क़ारोबारी व्यवस्था के 'निर्मम लोभ’ की मार्मिक कथा है, जिसमें इम्प्रेस मिल का मिटना स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारतीय समाज को आत्मनिर्भर बनाने की सोच से उपजे भारतीय पूंजीवाद का भी मिटना है। मिल के बंद होने के मूल में 'नयी तकनीक’ नहीं, उत्तर उपनिवेशवादी नीतियाँ हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा  है। अगर यह मामला केवल 'पुरानी तकनीक’ का होता तो मिल में नयी तकनीक आधारित मशीनें लगाई जा सकती थीं लेकिन ऐसा नहीं किया गया। कहानी में आए उस कथन को यहाँ नत्थी कर रहा हूँ जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि मिल बंद होने का एक मात्र कारण मुनाफ़े का कम होना है; पुरानी तकनीक तो बस बहाना भर है। इम्प्रेस मिल में अपना जीवन लगा देने वाले रोमिंगटन दस्तूर, मिल बंद होने के बाद एक भयानक अवसाद और आत्महंता स्थितियों से गुजरते हुए अपने बेटे टैम्पटन दस्तूर से कहते हैं कि- 'जमशेद जी टाटा सच्चे जरथोस्त्री थे। उन्होंने यह महान अनुशासन इस गुलाम देश की कमनसीब प्रजा को सहारा देने के लिए किया था और ख़ासतौर से अंग्रजों के सामने आत्मनिर्भर बनाने के लिए वो भट्टियां जलाई थीं लेकिन हाल की पारसी औलाद सचमुच बदनसीब हैं। वह अपने ऐसे महान पूर्वज के इस पवित्र इतिहास से वाकिफ़ होना नहीं चाहतीं। प्रतिस्पर्धा तो तब भी थी और आज भी है, लेकिन प्रतिस्पर्धा करके अपनी भट्टियों की अग्नि को जीवित रखना एक तरह का पुण्य है और मिल को लिक्विडेशन में डालकर हाथ खींच लेना एक अज़ाब है।’ (टावर आफ साइलेंस, पृष्ठ-37)

'प्रतिस्पर्धा करके मिल की भट्टियों की अग्नि को जीवित’ रखने की सोच के पीछे भारतीय मूल्य-दृष्टि काम कर रही है; ध्यान दें केवल व्यवसाय में ही नहीं जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी इसका प्रभाव आजादी के बाद दिखाई देता है, फिर चाहे वह राजनीति हो अथवा शिक्षा, चिकित्सा या पत्रकारिता। आज यह मूल्य-दृष्टि एक सिरे से ग़ायब है। भट्टियों की अग्नि को जिलाए रखने में 'दूसरों के भूख की चिंता’ है तभी तो रोमिंगटन दस्तूर मिल के बंद होने साथ इस अनिवार्य पहलू को नहीं भुलाते कि यह हमारे देश की पहली मिल थी, जिसमें 'लेडीज़ वर्कर्स के नन्हें बच्चों के लिए जमशेदजी ने क्रेच बनवाया’ था। काम भी हो, उत्पादन भी हो, लाभ भी हो और जीवन की मुस्कराहट भी बरकरार रहे, पर जब 'मिल को लिक्विडेशन में डालकर हाथ खींच लेना’ क़ारोबार की सबसे कुशल नीति बन जाए तो क्या कहना! भूमंडलीकरण से उपजी कारोबारी मंशाओं ने कितनों के पेट पर लात मार कर अपने टार्गेट अचीव किए हैं इस बात का प्रमाण कहानी में उपलब्ध है।  केवल अपने मुनाफ़े के लिए मेहनतकश लोगों का रोजगार छीनना 'अज़ाब’ नहीं तो और क्या है?

इम्प्रेस मिल के मिटने की त्रासदी के बीच इस नितांत ज़रूरी सवाल से जूझना भी जरूरी है कि अगर 'उत्पादक इकाइयां’ पुरानी मशीनों से काम करती रहेंगी तो वैश्विक कारोबारियों की नयी मशीनें और नयी तकनीक कैसे बिकेगी? उन्हें कौन ख़रीदेगा? उनके क़ारोबार और मुनाफ़े का क्या होगा? इस सवाल के मूल में जाए बिना नयी तकनीक और पुरानी तकनीक के वैश्विक तर्क की चालाकी को समझना मुश्किल है कि, 'सिर्फ आदमी ही रिटायर नहीं होता, टेक्नोलाजी भी रिटायर होती है।’ (वही पृष्ठ-25)

उत्तर आधुनिक सभ्यता ने विकास के नाम पर मानव जीवन के बुनियादी प्रश्नों को ही नहीं प्रकृति और पर्यावरण को भी हाशिए पर ठेल दिया है। इस सन्दर्भ में अगस्त, 2019 में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित तरुण भटनागर की कहानी 'प्रलय में नाव’ को 'क़ारोबारी सभ्यता की विनाश गाथा’ के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। मिथक, पुराण और इतिहास के हवाले से वर्तमान और भविष्य को एक साथ नाथ कर तरुण के कथाकार ने विकास की दावेदारी करने वाली ठेकेदारी-व्यवस्था के 'लोभी सरोकारों’ की छानबीन की है। कहानी अपनी शुरुआती पंक्तियों में ही 'विकास की विनाश लीला’ का संकेत कर देती है- 'जंगल की खौफ़नाक दिखने वाले जीवों को न तो शिकारी की नीयत का पता था और न हीं यह बात कि धोखे से उन्हें मारे जाने को सभ्य समाज में बहादुरी कहा जाता है। इस तरह उनकी प्रजातियां भी विलुप्त हो गयी  थीं। बहुत से कीड़े मकोड़ों की पूरी कौम खत्म थी, वे थे ही कीड़े मकोड़े। पौधों और पेड़ों की बहुत सी प्रजातियाँ गायब हो चुकी थीं। आधुनिक विकास के लिए उनका समूल नाश जरूरी था।’

कहानी में संकेतों का इतना कला-कुशल प्रयोग किया गया है कि पाठक रहस्य और रोमांच के बीच अपने आगामी समय को टटोलते हुए एक ऐसे भविष्य में प्रवेश करता है जहां ऊंची ऊंची इमारते हैं, चारो ओर वाहनों की रेलमपेल है; धुआं इतना बढ़ गया है कि लोगों ने मास्क लगा रखे हैं और घरों में ऑक्सीजन यंत्रों की सप्लाई हो रही है; खुले बाजार खत्म हो गए हैं और उनकी जगह चारों ओर से बंद बाज़ार उग आए हैं जिनके भीतर साफ हवा फेंकते हज़ारों यंत्र लगे हैं। वह भौचक्का होकर देख रहा है कि आसमान में रात को नकली चांद निकल आता है और नकली चांद के सामने असली चांद की कोई औकात नहीं है; जब भी बारिश की ज़रूरत होती है मौसम विभाग आसमान में बादलों का जमघट लगा देता है। ठंड का मौसम खत्म हो गया है, हरियाली भी बहुत कम रह गई है। शहर में म्यूजियम बना दिए गए हैं, जहां तमाम किस्म के पेड़-पौधे लगे हैं; अतीत में दुनिया में पाए जाने वाले पेड़-पौधे अब बदल चुके मौसम में नष्ट हो चुके हैं। लोग इन पेड़-पौधों को देखने आते हैं और इन्हें देखने के लिए उन्हें खासे पैसे खर्च करने पड़ते हैं। म्यूज़ियम में बाहर एक बोर्ड लगा है जिसमें लिखा है- 'आइए जाने धरती का इतिहास’। 

कहानी पढ़ते हुए यह चिंता और सघन होती जाती है कि कारोबार-जनित विकास कितना कृत्रिम और प्रकृति विरोधी है! उसे हर पुरानी समझ में बुराई दिखती है। उसे मितव्ययी तौर-तरी$कों से सख्त चिढ़ है। वह दुनिया को अपने नियमों से हांकना चाहता है, तभी तो प्रलय से बचाने के लिए बनायी जा रही नाव की मरम्मत करने वाले व्यक्ति को उन नियमों का हवाला दिया जाता जो क़ारोबारी व्यवस्था द्वारा बनाए गए हैं। जिनमें लकड़ी काटना एक ज़ुर्म है। इस व्यवस्था का निर्देश है कि उस व्यक्ति को लकड़ी जंगल के बजाए, ठेकेदार से खरीदनी चाहिए। विकास के इस अंतर्विरोधी चरित्र पर गौर किया जाना चाहिए कि प्राकृतिक संपदा और पारिस्थितिकी को विनाश की तरफ धकेलने वाले लोग ही नियामक बने हुए हैं और सदियों से जंगल ही जिनका घर रहा है उन्हें जंगल के नियम बताए जा रहे हैं। पेड़ों और वनस्पतियों की रक्षा करते हुए जिसके पुरखों ने अपनी पूरी ज़िन्दगी होम कर दी, उसे अब ठेकेदार से लकड़ी ख़रीदकर नाव की मरम्मत करनी पड़ेगी।

आधुनिक विकास के निर्देशों के अनुसार उस व्यक्ति की एक ठेकेदार से मुलाक़ात होती है। अपनी पहली ही मुलाकात में ठेकेदार ने भांप लिया था कि इतने गैर दुनियादार और जंगली लोगों को बहुत आसानी से बेवकूफ़ बनाया जा सकता है। यहीं पर कहानीकार यानी वाचक की ओर से एक टिप्पड़ी की गयी है कि- 'ऐसे समय में जब दुनियां में रिश्तों के मतलब बदल चुके थे, चालाक ठेकेदार ने नाव बनाने वाले व्यक्ति से एक विश्वसनीय रिश्ता बना लिया था।’ लेखक के इस कथन में आधुनिक प्रबंधन की क़ारोबारी रणनीति की ओर संकेत किया है कि इसमें  कितनी चालाकी  और छद्म  है। आज के प्रबंधन युग में शायद इसे ही 'टेलेंट’ कहते हैं! ठेकेदार अगर इतना टेलेंटेड न होता तो क्या ठेकेदारी जैसे क़ारोबार में कहाँ टिक पाता? बहरहाल, अपने टेलेंट का अधिकतम उपयोग करते हुए ठेकेदार ने नाव की मरम्मत के लिए उस व्यक्ति को लकड़ी से ज्यादा मजबूत मटीरियल का 'आफर’ दिया। उसका आफर था कि उसके पास लकड़ी से ज्यादा मजबूत ख़ास मटीरियल से बने ऐसे बत्ते और फट्टे हैं जो कभी खराब नहीं होते और इन्हें लगाना भी बहुत आसान है।

कहानी के अंत में जल प्रलय का दृश्य है जिसमें 'लकड़ी से ज्यादा मजबूत बत्ते और फट्टे’ की पोल तब खुलती है जब लहरों से संघर्ष करती नाव के भीतर पानी घुसने लगता है।  पानी के इस रिसाव के कुछ ही समय बाद उन फट्टों के भीतर से भूसे जैसा भरा हुआ कुछ भरभराकर बिखर जाता है और नाव में रखी खाद्य सामग्री डूबने लगती है। फट्टों और बत्तों की बाहरी चमक से ऐसा बिलकुल अनुमान नहीं लगाया जा सकता था कि वह लहरों का झटका भी न सह पाएंगे। जल-प्रलय से बचने का नाव ही एक सहारा थी पर.. अब कुछ किया जा सकना शेष न था और दुनिया को बचाने का सपना भी धराशायी हो गया था।

देखा जाए तो दुनिया के लगभग सभी धर्मों के 'प्राचीन धर्म-ग्रंथों’ या लोक कथाओं में 'जल प्रलय’ का मिथक  मिलता है, जिसमें ईश्वर किसी नेक बंदे को यह आदेश देते हैं कि वह एक नाव तैयार कर इस जल प्रलय से लोगों को बचाए। तरुण 'जल-प्रलय से धरती को बचाने के लिए बनायी जा रही नाव’ की कथा को फैंटेसी में ढालकर उसका आधुनिक सन्दर्भों में अर्थ-विस्तार करते हुए समय के अलग अलग पड़ावों में दाख़िल होकर सभ्यतागत विकास के चरणों में घटने वाली घटनाओं और उस काल के समाजेतिहासिक परिप्रेक्ष्य से रू-ब-रू कराते हैं। उनके कथाकार की इतिहास-दृष्टि इतनी पुष्ट है कि वह ऐतिहासिक घटनाओं और चरित्रों पर चढ़े आवरणों को हटाकर उनका तर्काधारित आकलन मुहैया कराते हैं। 'प्रलय में नाव’ ही नहीं उनकी अन्य कई कहानियाँ भी ऐतिहासिकता का पुनर्संधान करती हैं।

विकास के क़ारोबार की क्रूर हकीक़त को उघाडऩे वाली कहानियों में जयश्री राय की 'खारा पानी’ का ज़िक्र बेहद ज़रूरी हो जाता है। कहानी के केंद्र में है- गोवा के आसपास चल रहा विकास,जिसमें दया जैसे जाने कितने मछुवारों की रोज़ी-रोटी छीनी जा रही है। विकास के इस अभियान में उनकी बस्तियों को तो उजाड़ा ही जा रहा है पूरे इको-सिस्टम को भी नेस्तानाबूत किया जा रहा है। दया की बेबसी को उन हजारों-लाखों मछुवारों की बेबसी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए जो गोवा के भूगोल में चारो ओर फैले समुन्दर के आसपास के इलाकों में रहते आए हैं। दया देख रहा है कि जो समुन्दर उसके जीवन का आधार था, प्रदूषण से हांफ रहा है। तेल का क़ारोबार जब से तेज हुआ है तब से जाने कितने जहाज लहरों को रौंदते निकल रहे हैं और उनसे हजारों लीटर तेल समुन्दर में रिसता हुआ तटवर्ती हिस्से में आकर इकठ्ठा हो जाता है। दया यह देखकर बुझ सा गया है कि तटों पर फैली जलराशि में कालिख़ की परत चढ़ी हुई है और थोड़ी दूरी पर एक पंछी तेल में लिथड़े पंखों से उडऩे के प्रयास में बार बार छटपटा रहा है। समुद्र के किनारों में पानी के ऊपर तेल की परत के कारण मछलियाँ तटवर्ती हिस्सों से गायब हो गयी हैं। दया जानता है कि इससे बड़े जहाज वालों का मुनाफ़ा नहीं रुकेगा पर उस जैसे मछुआरे का क्या होगा? इतनी छोटी नाव के सहारे समुद्र के अन्दर तक वह कैसे जाए!

दया की इस विवशता के मूल में क़ारोबारी विकास की क्रूरता है। इस विकास (?) से न केवल पर्यावरण का अपार क्षरण हो रहा है बल्कि श्रमशील तबके का रोजगार सिमटता जा रहा है। कहानी बड़े सधे अंदाज में दया और उसकी पत्नी 'रूप’ की प्रेमभरी दुनियां के साहचर्य और संघर्ष के समानांतर क़ारोबारी विकास की तल्ख़ हकीक़त को सामने लाती है। उस रात जब मछुवारों की पंचायत बैठी थी, उसी में एक मछुवारा पूँछ रहा है- 'कोई कहेगा दद्दा ये हमारा गोवा है? कभी यहाँ हरियाली, समंदर और चारो तरफ़ खुशहाली थी। और अब...? सिर्फ मरती हुई मछलियाँ और कंगाल दरिया...रोज नए नए क़ानून बनाकर ये हमसे हमारी जमीन और दरिया हथियाने में लगे हैं।’ (खारा पानी, गौरतलब कहानियाँ,पृष्ठ-90)

कहानी में ऐसे कई दृश्य आते हैं जो पर्यावरणीय विनाश की गवाही देते हैं, मसलन बहुत बड़ी कम्पनी के बंगले के लिए साफ़ होते जंगल, हरियाली मिटाकर खड़ी की गयी कालोनियां, तहस नहस कर दी गयी पहाडिय़ां, बारूद के विस्फोट से तोड़ी जा रही चट्टानों से निकली बारूद की गंध, धुंआ और धूल का गुबार, दैत्याकार मशीनों का कोलाहल, सैलानियों द्वारा फेकी गयी प्लास्टिक की बोतलों का अम्बार आदि। दया अक्सर अपनी रूप से बुझे हुए स्वर में कहता कि पैसे के लालच में सब अपनी जमीन बेंच रहे हैं जब कुछ न बचेगा तो लोग रहेंगे कहाँ और खाएंगे क्या?

कथादेश पत्रिका के फरवरी, 2020 अंक में संतोष चौबे की पुनर्प्रकाशित कहानी 'नौ बिन्दुओं का खेल’ प्राइवेट पूंजी से विकास को रफ्तार देने, निवेश से अर्थव्यवस्था को ताक़त देने के नाम पर चल रही कारोबारी चालबाजियों और कारनामों को सामने लाने के साथ ही रोजगार के नए अवसर पैदा करने और विकास के नाम पर सार्वजनिक उद्यमों को अरबपतियों के हाथों बेचे जाने के मूल में 'राजनीति की कारोबारी लिप्साओं’ का पर्दाफाश करती है। रमेश चन्द्र गुप्ता (जो नाम बदलकर रमेश चंद्रा हो गया है ) जैसे फ्ऱाड कारोबारियों से इस बात की उम्मीद करना बेमानी है कि उनसे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी! शिल्पगत कमियों के बावजूद कहानी में विन्यस्त वास्तविक सूचनाओं और घटनाओं की रोशनी में हम देख पाते हैं कि इस समय देश के औद्योगिक घरानों के पास बैंकों का लगभग एक लाख पचास हजार करोड़ का कर्ज है जिसे चुकाया नहीं जा रहा है। आई.टी. क्षेत्र की नामी एमएनसी जिसने अपना नाम तो 'सत्यम’ रखा पर काम सारे झूठे करते हुए किस कगार पर पहुँच गयी। कंपनी में दस हजार कर्मचारी कार्यरत दिखाए जा रहे थे पर थे कुल पांच हजार, बांकी पांच हजार कर्मचारियों की तनख्वाह कैश में निकाली जा रही थी, जिससे कम्पनी के मालिक ने हजार एकड़ से अधिक जमीन खरीद ली थी। इसी समय देश भर को सहारा देने का दम भरने वाले एक चालाक उद्योगपति ने लोगों को धोखा देकर 24,000 करोड़ रुपए इक_े कर लिए थे जिन्हें वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद लौटा नहीं रहा। उधर चिटफंड कम्पनी चलाने वाले पति-पत्नी, राजनीतिज्ञों के साथ मिलकर चार हजार करोड़ रुपए इकठ्ठा कर चुके थे।

धोखाधड़ी और जनता को गुमराह करने वाली नीतियों के बीच कहानी दिखाती है कि उसी समय एक मुख्यमंत्री प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए एक बड़े वैश्विक सम्मलेन का आयोजन में मशगूल हैं। इस आयोजन में लगभग तीन सौ करोड़ रुपए खर्च होने वाले हैं। उस राज्य की पूरी सरकार, पूरा अमला, सारे मंत्री, उद्योगपतियों की सेवा में लगे हैं और लोगों से सीधे मुंह बात न करने वाले कई सरकारी अफसर नकली मुस्कान चिपकाए, काउंटर खोले बैठे हैं कि आइए और समझौते पर दस्त$ख्त करिए। सम्मलेन के अंतिम दिन समाचार पत्रों में बड़ी हेडलाइन में छपा था - '2,56,000 करोड़ के समझौते’। नयी सोच रखने वाले उद्यमी कार्तिक त्रिवेदी की चिंता इस बात को लेकर है कि 'दो साल पहले ही हुए’ करीब 1,50,0000 करोड़ के समझौतों का क्या हुआ! कार्तिक त्रिवेदी के मित्र और उद्योग विभाग के महाप्रबंधक अनुराग श्रीवास्तव के माध्यम से इन समझौतों और वर्तमान पूंजी निवेश की राजनीतिक सांठगांठ को समझना मुश्किल नहीं रह जाता। वह कार्तिक से कहते हैं- 'निवेश किसे करना है? यहाँ तो अपने नाम और अपनी कंपनी की प्रतिष्ठा का लाभ उठाकर जमीनों और खदानों पर कब्ज़ा करने की होड़ लगी है। पिछली बार इसी पेट्रोकेमिकल वाले ने 20,000 करोड़ का निवेश करने की घोषणा की थी और बहुत सी कोयला खदाने अलाट करवा ली थीं।’ (कथादेश,पृष्ठ-37)

कहानी जिन संकेतों की ओर इशारा करती है उनके मद्देनज़र पिछले दो दशकों के राजनीतिक और आर्थिक घटनाक्रमों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि क़ारोबारियों और राजनीतिज्ञों के बीच जबरदस्त घालमेल हुआ है। इस कृत्य की भयावहता पर गौर करिए कि देश के गृह और वित्त जैसे  बेहद अहम मंत्रालयों पर लगभग दस वर्षों तक क़ाबिज रह चुके बहुत ही सम्मानित राजनीतिज्ञ को प्रवर्तन निदेशालय ने हाल ही मंस दोषी माना है। उन पर आईएनएक्स मीडिया केस में फारेन इन्वेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड से गैरकानूनी तौर पर मंजूरी दिलाने के लिए रिश्वत लेने का आरोप है। ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं जिनसे राजनीति की कारोबारी गतिविधियाँ स्पष्ट होती हैं।

'विकास के कारोबार’ ने पूरे बैंकिंग सिस्टम को खोखला कर दिया है। इस देश की अधिकांश आबादी को पता ही नहीं है कि भीतर ही भीतर कितना बड़ा खेल चल रहा है। बैकों को राजनीतिज्ञों की सह पर कारोबारियों द्वारा चूना लगाया जा रहा है। कहानी दिखाती है कि - 'सरकारी बैंकों के घावों से खून रिस रहा है। करीब डेढ़ वर्षों के भीतर ही 82,000 करोड़ रूपए के ऋण,खराब ऋणों में तब्दील हो चुके हैं जिन्हें अब वसूला नहीं जा सकता।’ कहानी की इन पंक्तियों को पढ़ ही रहा था कि 'भारत की प्राइवेट बैंकिंग इतिहास की सबसे बड़ी घटना’ याद आ गयी जिसका मामला आजकल चर्चा में है। भारत के सबसे हाई प्रोफाइल बैकरों में से एक 'यस बैंक’ के संस्थापक ने न केवल दीवान हाउसिंग फाइनेंस कारपोरेशन को फ्राड तरीके से धन मुहैया कराया बल्कि आर्थिक धोखाधड़ी को भी अंजाम दिया। इस बात को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता यह बैंक अनिल अम्बानी ग्रुप, सीजी पावर, एस्सार पावर, रेडियस डेवलेपर्स  जैसे कारोबारी घरानों को कर्ज देने में आगे रहा। आज यह बैंक कारोबारी करतूतों के चलते तबाह हो चुका है। अगर इकोनोमिक टाइम्स में प्रकाशित आंकड़ों की बात की जाए तो इस बैंक ने वित्तीय वर्ष 2014 में 55000 करोड़ ऋण दिए और आगे 2015 में 75000 करोड़, 2016 में 98 000 करोड़, 2017 में 132000 करोड़, 2018 में 203000 करोड़ और वित्तीय वर्ष 2019 में 241000 करोड़ हो गए। सरकारों की पोल खोलने वाला यह इतना संगीन मामला है कि रिजर्व बैंक के कई दिग्गजों को इस्तीफ़ा तक देना पड़ा। रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल, डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य और अभी डिप्टी गवर्नर एन.एस.विश्वनाथन के इस्तीफों की कडिय़ों को जोडिय़े और सोचिए कि हमारा देश 'राजनीति और कारोबार की दुरभिसंधि’ के कितने गंभीर दौर से गुजर रहा है! नियमों पर चलने वाले अधिकारी टिक नहीं पा रहे, उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ रहा है और आरबीआई को हमारे देश की राजनीति 'कारोबारी हितों के अनुरूप’ हांक रही है।

सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ 'विकास के राजनीतिक मुहावरे’ का काट हैं। इस संदर्भ में  'गम्मत’ और  'लाल छींट वाली लूंगड़ी का सपना’ महत्वपूर्ण हैं। 'गम्मत’ विकास के ढीठ दावों के बीच शिक्षा व्यवस्था की बदहाली,आदिवासियों की दुर्दशा,स्वास्थ्य सेवाओं की चिंताजनक स्थितियों का प्रतिकार करती है। यह गम्मत खेतों,उजाड़ टीलों से होते हुए उन दूरवर्ती आदिवासी इलाकों तक पहुँचती है जहां कोयला, बाक्साइड, चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं को लूटने का खेल चल रहा है। कहानी दिखाती है कि जिस सभा में मुख्यमंत्री को आना है वहाँ के खेतों के लिए कुएं, ट्यूबबेल या पानी का कोई साधन नहीं है जबकि आदिवासियों को बांटे गए पर्चों में सीएम  के इस दावे की पोल खुलती है कि 'जिले में हजारों कुएं कपिलधारा योजना के अंतर्गत खुदवाए गए हैं’। (गम्मत,लाल छींट वाली लूंगड़ी का सपना,पृष्ठ-78)

कहानी उस 'हृदय प्रदेश’ का रिपोर्ट कार्ड है जिसके एक मुख्यमंत्री ने 'पंद्रह वर्षों’ तक आधारभूत सुविधाओं को ठेंगा दिखाते हुए संसाधनों को लूटने का जिम्मा कम्पनियों के हवाले और सार्वजनिक कार्यप्रणाली को तबाह करने का जिम्मा 'ठेकेदारी’ व्यवस्था के हवाले करने का 'अभूतपूर्व प्रयोग’ किया था। इस अभूतपूर्व प्रयोग के बाद से 'अपनी पार्टी’ में उनकी हैसियत इतनी बढ़ गई कि कुछ भी बोलने से पहले उन्हें सोचने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। उनके बाद बारी आई 'मामा’ की। मामा ने मुख्यमंत्री रहते हुए विकास को इस तरह मैनेज किया कि ह्रदय प्रदेश का ही नहीं भारत के इतिहास का ऐसा अभूतपूर्व 'व्यापम घोटाला’ सामने आया; जिसने  सिलसिलेवार ढंग से सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया।

सत्यनारायण विकास की इकहरी प्रक्रिया को 'लाल छींट वाली लूंगड़ी का सपना’ के माध्यम से सामने लाते हैं । कहानी के केन्द्रीय चरित्र 'डूंगा’ का दोष सिर्फ इतना है कि वह अपना खेत किसी हाल में बेचने के लिए तैयार नहीं है जबकि 'दलाल’ किसी भी हाल में बिकवाने की जोर आजमाइश कर रहे हैं। उसे तरह तरह के प्रलोभन दिए जा रहे हैं,रिश्तेदारों के माध्यम से दबाव बनाया जा रहा है, डराया भी जा रहा है। दरअसल उसके खेत गाँव की उस सीमा के निकट हैं, जिसके बगल से व्यापारिक शहर के लिए सड़क जाती है- 'सड़क के किनारे डूंगा के गाँव में और उसके आसपास के गाँव के उन छोरों को दलाली का काम मिल गया था...गाँव के छोरे अब आईटीसी, रिलायंस या ऐसी किसी भी बड़ी कम्पनी के नुमाइंदों के सम्पर्क में रहने लगे...रिलायंस और एस्सार के कई पेट्रोल पंप खोलने के लिए जमीन बिकवाई। आईटीसी को अपना हब और चौपाल सागर खोलने को जमीन बिकवाई। पिछले चार पांच साल से दलाल 'डूंगा’ के पीछे पड़े थे कि वह अपना खेत बेच दे।’ कहानी विकास की लहालोट के बीच सवाल खड़ा करती है कि, 'विकास किन लोगों के लिए किया जा रहा है?’ सवाल पूछा जाना चाहिए कि एस्सार और रिलायंस के पेट्रोल पम्प खुलने से डूंगा जैसे लोगों का क्या हित होगा?

'नया ज्ञानोदय’ पत्रिका के सितम्बर, 2019 अंक में प्रकाशित प्रदीप जिलवाने की कहानी 'गांधी सिंड्रोम’ सत्यनारायण पटेल की 'लाल छींट वाली लूंगड़ी का सपना’ से आगे की गाथा है जिसमें बिसेसर बाबू के गाँव से निकलने वाले फोर लेन हाई-वे की घोषणा के साथ ही गाँव की हवा पलट गयी है, 'कभी कभी तो रात से सुबह तक में जमीन का भाव सवाया हो जाता है!...बिसेसर बाबू को समझ नहीं आ रहा है कि अधिकांश गाँव वालों को लालच ने क्या इतना अंधा कर दिया है कि वो अपने गाँव की अच्छी भली उपजाऊ और सिंचित जमीनों को कांक्रीट में तब्दील करने पर तुले हैं।’ (पृष्ठ-22) चूंकि पूरे गाँव की जमीनों के भाव लालच की सीमाओं को पार करते हुए बढ़ रहे हैं, ऐसे में, बोली लगाने वाले दलाल, ब्रोकर टाइप लोग बिसेसर बाबू के घर और उनके बेटे के दफ्तर तक पहुँच रहे हैं। बहुत प्रयास के बाद भी जब ज़मीन बेचने के लिए उनकी तरफ़ से मनाही हो जाती है तो डी.सक्सेना जैसे रसूखदार डेवलपर उनकी पोती को कोचिंग से ग़ायब करवा देता है। कहानी कुछ फ़िल्मी तरीके आगे बढ़ती है पर इन सबके बीच पूरी व्यवस्था की हालत देखकर घिन पैदा होती है। कहानी सोचने के लिए बाध्य करती है कि हमारी विकास की समझ कितनी भोथरी है। 'विकास की स्पिरिट’ भौतिक चीजों के भार तले अपना दम तोड़ चुकी है।

'तद्भव’ पत्रिका के तीसवें अंक में प्रकाशित नीलाक्षी सिंह की लम्बी कहानी 'बाद उनके’ रियल इस्टेट सेक्टर की भूमिगत तहकीकात करती यह सोचने को बाध्य करती है कि पिछले दो दशकों में जमीनों के भाव इतने कैसे बढ़ गए! इस सेक्टर में अथाह पूंजी कहाँ से आ रही है, जबकि भारत के मध्यवर्ग ने अपनी सुख-सुविधाओं में इतनी बढ़ोत्तरी कर ली है कि उसकी सैलरी या आमदनी की राशि महीने के अंत तक बामुश्किल बच पाती है! क्या यह नए तरह की क़ारोबारी शिफ्टिंग नहीं है जिसमें राजनेता, उद्योगपति, कारपोरेट घराने, बड़े व्यापारी, ठेकेदार, भ्रष्टाचार से बड़ी कमाई करने वाले अधिकारी जमीन खरीदने-बेचने, प्लाटिंग करने और कालोनी-मल्टीस्टोरी बनाकर अकूत कमाई वाले इस 'क़ारोबार’ में टूट पड़े हैं। स्थानीय लोगों से जमीन ख़रीदना, अच्छी रक़म देकर नक्शा पास कराना, स्वीकृत नक्शे के कुल क्षेत्र और अन्य प्रावधानों की धज्जियां उड़ाकर आसपास की और भी जमीनों को शामिल कर अपार्टमेन्ट बनवाना, बैंकों से बड़े -बड़े कर्ज लेना, इस पूरी योजना के अहम हिस्से हैं, जिन्हें कहानी एक्सपोज करती है। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि रियल इस्टेट के कारोबार में इनकी अवैध कमाई की जबरदस्त मौजूदगी है। ऊपर वर्णित दोनों कहानियों (लाल छींट वाली लूंगड़ी का सपना और गांधी सिंड्रोम) में ज़मीन ख़रीदने की मची होड़ के मूल में काम रही शक्तियों की पहचान आप इस कहानी में भी कर सकते हैं। तीनों कहानियों को जोड़कर कारोबार की 'शातिर रणनीति’ पर विचार कीजिए कि सब कुछ नियंत्रित करने वाली शक्तियां प्रत्यक्ष तौर कहीं भी मौजूद नहीं है।

पहल पत्रिका के 111वें अंक में प्रकाशित किरण सिंह की कहानी 'राजजात यात्रा की भेड़ें’ में कारोबारी विकास के पंजों में जकड़े  'कांसुआ’ की कराह पूरे पहाड़ी जीवन की कराह बन जाती है और उसके साथ बरते जाने वाला 'राजा जाति’ का खेल पहाड़ों में बसे गाँवों के साथ बरता जाने वाला खेल बन जाता है। कहानी के अंत में 'कांसुवा’ के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहने वाली लक्षमी पुलिस अधिकारी को डलहौजी कहकर पुकारती है। कितनी निर्मम हकीक़त है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही डलहौजी की भूमिका में उतर आई है और 'कांसुवा’ जैसे न जाने कितने गाँवों को  'पूंजी के ढेर पर बैठे आकाओं की ऐशगाह बनाने के लिए’ उजाड़ा जा रहा है। यह सत्ता और पूंजी का 'क्रूर गठजोड़’ है जिसके विषैले पंजों से लहूलुहान 'कांसुवा’ बेतरह हांफ रहा है।

'गाँवों’ को उजाडऩे का क्रम जारी है जिसकी अगुवाई राजकीय अधिकारी खुद कर रहे हैं। इस पूरी यात्रा का नेतृत्व राजा जाति (सांसद) के हाथों में है। गाँवों में बचे खुचे स्कूलों को बंद कर दिया गया है और इन अ_ारह गाँवों में जिनमें कासुआं भी एक है, कुल आठ दस लोग ही बचे हैं। जिन घरों के लोग मजदूर बन कर राजधानी चले गए हैं उनके घरों में ताले लगवाए जा रहे हैं और विशिष्ट वर्गीय हितों के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया गया है। मास्साब लक्षमी से कहते हैं- 'ये पहाडिय़ां आपकी नहीं हैं बेंची जा चुकी हैं । जहां हम खड़े हैं, जहाँ हम रहते हैं, सब बिक चुका है। यहाँ रिसार्ट बनेगा...इन्हें राजधानी के भवनों के लिए मजदूर चाहिए और भवनों में रह रहे मालिकों के मनोरंजन के लिए पहाड़ चाहिए।’

कांसुवा छोड़कर वहां के ग्रामीणों का राजधानी में बसने का अंतहीन सिलसिला जारी है। सब तो भाग गए अपनी अपनी जान बचाकर। क्या तो विसम्भर काका, उनका बेटा रमेश, मदन भैया, शीला चाची, चन्दन, विद्या सब के सब तो चले गए।  एक तो प्राकृतिक आपदाओं ने उत्तराखंड के पहाड़ी गाँवों को सुनसान कर दिया है तिस पर 'राजा-जाति’ का यह खेल! क्या यह राजजात की यात्रा ऐसे ही चलती रहेगी और ऐसे ही 'चौसिंग्या’ भेड़ा (मास्साब जैसे लोग)  मारा जाता रहेगा?  

पंकज मित्र की कहानियाँ हमारे समय का विश्वस्त चेहरा हैं। ग्लोबल समय के बदलावों को पहचानने की अचूक दृष्टि और उदारीकरण के दुश्चक्र को भेदने की जिद्द से बनी 'सेंदरा’ की अर्थ ध्वनियों को अनसुना नहीं किया जा सकता। 'कहानी’ सरकार की सुनियोजित कारवाईयों का हलफ़नामा है जिसके हर्फ-हर्फ में आदिवासियों के साथ बरती जाने वाली अमानवीयता दर्ज है। 'सेमरा’ जैसे भोले आदिवासियों के साथ व्यवस्था दुश्मनों जैसा बर्ताव करती है और पुलिस जब चाहे दबिश देकर जेलों में ठूंस देती है। उस दिन उसे ही नहीं उसके जीवन-संघर्षो की साथी, चांदो को भी पुलिस उठाकर ले गयी थी। चांदो के साथ जो हुआ उसे बर्दाश्त कर पाना उसके बूते में न था, इसलिए सेमरा को हमेशा के लिए निपट अकेला छोड़ गयी। 'सेमरा’ का वज़ूद जिस बेरहमी से रौंदा गया था उसके बाद और कोई रास्ता भी नहीं बचा था। एक ऐसी लड़ाई जो बेच दिए गए पहाड़ों और जंगलों के पक्ष में है।

'सेंदरा’ से बिलकुल भिन्न प्रकृति की कहानी 'राजजात यात्रा की भेड़ें’ के बीच  तुलना में कई समानताएं उभरकर सामने आती हैं। मसलन सेंदरा में आदिवासियों को खदेडऩे का जो अभियान चल रहा है वही 'राजजात यात्रा की भेड़ें’ में भी जारी है। एक तरफ ग्रामीणों को जबरन दर-बदर किया जा रहा है तो दूसरी तरफ आदिवासियों को। पुलिस की भूमिका दोनों ही जगहों पर अलोकतांत्रिक और हिंसक है। एक जगह सोमरा का 'नक्सली’ के रूप में शिकार किया जाता है तो दूसरी जगह चौसिंग्या भेड़े की आड़ में मास्साब को मारा जाता है। सत्ता की मिलीभगत से कारोबारियों ने केवल नियमों और क़ानूनों को अपने पक्ष में कर लिया है बल्कि जंगलों, पहाड़ों, नदियों तक को अपने हितों के लिए उपयोग करने की हैसियत अर्जित कर ली है। इन कहानियों की सबसे बड़ी ताक़त है - मुख्य चरित्रों की संघर्ष क्षमता, जिसके बल पर वह परिस्थियों के आगे घुटने टेक देने के बजाए एक निर्णायक लड़ाई की ओर बढ़ते हैं।

कहानियों  के 'पाठ के बाहर’ आते ही इस कड़वे सच को नकारने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि सत्ता में काबिज़ ज्यादातर राजनीतिज्ञों के परिवार का कोई सदस्य,रिश्तेदार या मित्र किसी वित्तीय योजना, निकाय, फंड, फर्म या नियामक बोर्ड से जुड़ा है तो कोई रेलवे, मेट्रो, माइनिंग, पेट्रोलियम, विद्युत या एक्सप्रेसवे जैसी बड़ी परियोजना में सप्लायर या भागीदार है; कोई किसी कापरेटिव सोसायटी,एनजीओ का संचालन कर रहा है तो कोई प्रोजेक्ट कंसल्टेंट है या किसे छोटे-बड़े कारपोरेट घराने का संचालक है। शिक्षा, स्वास्थ्य,संचार, होटल, टूरिज्म, प्रबंधन, रियल स्टेट, डेवलपर्स और जाने कितने क्षेत्रों तक इनकी घुसपैठ है। इससे इस बात को समझना बहुत कठिन नहीं रह जाता कि आखिर क्यों सत्ता प्राइवेट सेक्टर को बढ़ाने और सार्वजनिक सेक्टर को कमजोर करने पर तुली है!

इस लेख में इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी के उन सीमांतों को चिन्हित करने का प्रयास किया गया है जिनसे 'विकास और क़ारोबार के अंतर्संबंधों’ को समझने में मदद मिलती हो। हिन्दी कहानी में बाजार का 'स्यापा’ अधिक है, जबकि जरूरत 'बाजारीकरण की प्रक्रिया’ को समझने और उसके मूल में काम कर रही कारोबारी शक्तियों की मंशा को पहचानने का है। विकास के नाम पर जिस कारोबारी साम्राज्य की नींव पिछले कुछ वर्षों से डाली जा रही है उसके आर्थिक-राजनीतिक निहितार्थो को भी समझने की ज़रूरत है।

 

 

शशिभूषण मिश्र: हिन्दी के पाठक इस युवा आलोचक से खूब परिचित हैं। पहल के लिए एक गंभीर सिरीज़ कर चुके हैं, बांदा में रहते हैं, प्राध्यापक हैं। कहानी अंक के लिए यहाँ उन्होंने विशेष रूप से लिखा है। पाठक शशिभूषण का लेखन कभी-कभार समालोचन ब्लॉग पर भी देख सकते हैं।

 


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