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जून - जुलाई : 2020

एक नदी तडफ़ती है

एस आर हरनोट

 लंबी कहानी

 

 

वह नदी दादी सुनमा की आंखों में बहती थी। जब कभी ज़मीन पर बहती तो एक लड़की काग़ज की नाव पर बैठ कर नदी पार किया करती। उतर कर वह नाव को हाथ में उठाकर उस खेत के किनारे चली आती जहां दादी सुनमा अपनी गाय चराया करती थी।

उस लड़की की कमसीनी, कुमारीत्व और शिशुवता तितलियों जैसा आकर्षक था। बहुत से रंग थे उसमें। अनगिनत उड़ाने समाहित थीं। उसकी उदात्तता, अचपलता, गांभीर्य, संजीदगी, नटखटपन और चांचल्य दादी सुनमा को बहुत भाता था। बहुत रूप एक साथ परिलक्षित होते थे उसके। कभी अलौकिक, कभी मायावी तो कभी तिलिस्मी। गज़ब का सम्मोहन था उसकी आंखों में। कभी जब दादी उसकी गहरी आंखों में आंखें डाल कर देखती तो उनमें भी एक विशालकाय नदी बहती दिखती। दादी इस अभिमंत्रण में जैसे पूरी तरह कैद हो जाया करती। वह लड़की जब आनंदविभोर, आहल्लादित, पुलकित, और हर्षोन्मत्त होती.... तो सारा वातावरण रंगोलियों से आच्छादित हो जाता। और जब कभी उदास या क्रोधित होती तो उसकी आंखों में बहती नदी में भयंकर बाड़ आ जाती। ज्वारभाटा उठने लगता। मानो पल भर में कोई प्रलय होने वाला है। वातावरण भयंकर और डरावनी चीखों, चित्कारों और कराहटों से भर जाता।... फिर पलभर में सब कुछ सामान्य, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। कितनी अलमस्त थी वह। औघड़, उन्मुक्त, बिंदास, अल्हड़, और स्वछन्द... न जाने और क्या-क्या? वह जब चली भी जाती तो अपना अद्भुत आलोक, प्रदीप्ति, ज्योतिता और आभा जैसे उस उजाड़ खेत को दे जाती। दादी के अवसाद भरे मन में उड़ेल जाती। गाय की पीठ पर बांध जाती।

नदी का पौराणिक नाम शतद्रु था। प्रचलित नाम सतलुज लेकिन लोग उसे दरिया के नाम से ही जानते थे।

नदी जब बहती थी दादी सुनमा उन दिनों सुनमा देई के नाम से जानी जाती थी। वह नदी की तरह जवान थी। नदी की तरह बहुत सुन्दर और ऊर्जित।

कितनी प्यारी लगती थी वह बहती हुई। उसकी उन्मुक्तता और स्वछन्दता देखते ही बनती थी। उसका अप्रतिबंधित और अलमस्त वेग जैसे पहाड़ों और घाटियों को साथ लिए रहता था। उसका कुलांचना, ठनठनाना, सरसराना कितना आनंदित करता था। वह जहां से भी गुजरती धरती में यौवन भरती जाती। खेतों में धान, गेहूं और मकई की फसलें बोती-उगाती जाती। सेब, आड़ू, बेमी, चूली और पलम के बागीचों के साथ केसर के बाग सजाती व महकाती जाती। लोगों की ज़रूरतों के लिए निर्जीव घराटों में जीवन का संचार करती। आटा पीसती। घराट के पूड़ों पर बेजान फडफ़ड़ाती घूघती को पंख दे जाती। देवदारुओं को बादलों तक पहुंचने की ऊंचाई प्रदान करती। मछलियों के घरबार और परिवार बसाती जाती। नदियों में उसकी कुलीनता और उच्चवर्णीयता सबसे श्रेष्ठ थी क्योंकि वह वेदों से निकली अप्सरा थी, शतद्रु थी। शतु थी। सतलुज थी। नदी के जलतट खूब विस्तारित थे जिनके तटातीत गांव बहुत सुन्दर लगते थे। उसके अनगिनत रूप थे। कभी वह अपराजिता, आदिशक्ति व ईश्वरा लगती। कभी उग्रा, उमा, इरावती और कामाक्षी। कभी गांधर्वी, गायत्री, चामुंडा तो कभी पंचाननी, वेदमाता, भ्रामरी और भुवनेश्वरी। शारदा, सिंहवाहिनी, सर्वमंगला, महिषासुर मर्दिनी और शिवदूती जैसी वह विजया और विकराला थी। शांत थी। वेगमय थी। देवी थी और मां भी।

बावज़ूद इसके इन सर्वमंगला रूपों पर दुर्जनों की नजरें हमेशा लगी रहतीं। अधम, असंत, कुटिल और ख़बीस जैसी प्रवृत्तियों के लोग, जो कम्पनी के बड़े बाबुओं और नेताओं की शक्लों में मौजूद थे, अनेकों आधुनिक यंत्रों के साथ उस पर आक्रमण करने को तत्पर थे और ये कशाघात अब बहुत बेरहमी से शुरू भी कर दिए गए थे। नदी धीरे-धीरे कई मीलों तक घाटियों में जैसे स्थिर व जड़ हो गई थी। उसका स्वरूप किसी भयंकर कोबरे जैसा दिखाई देता था मानो किसी ने उसकी हत्या करके मीलों लम्बी घाटी में फैंक दिया हो। अब न पहले जैसा बहते पानी का नदी-शोर था न ही कोई हलचल। सच में एक नदी का यूं मर जाना कितना भयंकर आभास होता है। लगता नदी के साथ जैसे नदी ही नहीं, पानी ही नहीं अनगिनत लोग, उनके घरबार, उनकी उपजाऊ जमीनें, खलिहान, बांवडिय़ां, घराट और पशु-पक्षी भी जड़ हो गए हों। उसकी गतिहीनता, अटकापन, अवरूद्धता, बाधिता और प्रगतिहीनता स्तब्ध कर देती थी।

सुनमा का निपट गंवई रूप बेहद आकर्षक था। उसकी नीली आंखे जैसे नदी के निर्मल पानी से बनी थी जो नदी की ही तरह गहरी थी। उनमें अनगिनत रंगबिरंगी मछलियां तैरती रहतीं। सूरज, चांद और सितारों की परछाईयां जैसे उन आंखों के पोरों में निरन्तर उलझी-उलझी डोलती दिखतीं। उसके बाल अमावस्य की रात जैसे काले और लम्बे थे जिनमें लाल और हरे रंग का एक रेश्मी पुरांदू सजा होता। गर्दन के बिल्कुल ऊपर चांदी का छोटा सा चाक बंधा रहता मानो नदी पर तटबंध लगा हो। कानों में चांदी के लम्बे-लम्बे झूलते कांटे उसके हल्के सुनहरी गालों से बातें करते रहने को आतुर। सिर पर सुनमा नदी के रंग का दुपट्टा ओढ़े रहती जो बालों को कमर के नीचे तक ढके रहता। कलाईयां हमेशा कांच की भांति-भांति की चूडिय़ों से भरी रहतीं। इन्हें वह हर वर्ष नदी के किनारे लगने वाले मेले से खरीदती थी। उठते-बैठते, सोते-जागते और घर-बाहर का काम करते हुए उनका छनछनाता संगीत नदी की लहरों की मांनिद घर-आंगन में भरा रहता। बैसाखी के गीत गाता रहता और इस तरह मेले के रंग और मिठास वर्ष भर के लिए घर में घुले-मिले रहते। कुल मिलाकर सुनमा उस नदी जैसी ही थी जो निरन्तर बहती रहती जिस पर गृहस्थी की नाव हमेशा चलती रहती।

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नदी के दांईं छोर पर सुनमा का पुशतैनी घर था और उसके नीचे घराट। घराट और घर के बीच सात सीढ़ीनुमा क्यार थे जिनमें खूब धान होते थे। इसके अतिरिक्त भी काफी हल लगी, बंजर ज़मीन और घासणियां थीं। घराट के लिए नदी से लाई गई कूहल के पानी से ही इन खेतों/क्यारों को सींचा-रूमा जाता था।

सुनमा का पति बालक राम उर्फ बालकू कुशल तैराक था जो अपने घराट के पास से लोगों को नदी से आर-पार करवाया करता था। उसके पास कोई नाव नहीं थी। एक पीतल की बड़ी टोकणी और भेड़ की खाल से बना एक दरींया था। वह नदी की चाल देखकर दोनों का प्रयोग किया करता था। पीतल की टोकणी से नदी पार करना थोड़ा कठिन होता था जबकि दरींए पर सुरक्षित। दरींए में खूब मशक्कत के बाद हवा भर कर उसे फुलाया जाता था जबकि खाली टोकणी के सिरे पर नाभी सटा कर वह मगरमच्छ की चाल नदी पार कर लेता था। इसी के साथ घराट और छोटी-मोटी किसानी भी उसी के ज़िम्मे थी। पांच फुट सात इंच के कद वाला वह गबरू आठवीं तक पढ़ा था और गांव-परगने में अपनी ज़मींदारी के लिए अब्बल माना जाता था। उसके इन्हीं हुनरों की वजह से इलाके में दूर-दूर तक उसकी खूब साख थी।

बालकू के घराट की दूर-दूर तक पूछ थी। उन दिनों मशीनों का ज़माना नहीं था। आटा-चक्की शहर तक सीमित थी। लोग मक्की और गेहूं की पिसाई इसी घराट में करवाते थे। दिन भर रौनक लगी रहती और आटा पिसाई के साथ-साथ वह लोगों और स्कूल के बच्चों को नदी आर-पार भी करवाया करता। वह चाहता तो इससे भी अच्छी-खासी कमाई कर सकता था परन्तु उसे उसने धर्म के खाते में रख छोड़ा था। घराट के बाहर दूब से भरा छोटा सा आंगन था जिसके किनारे-किनारे नदी के पत्थर चिने गए थे। इन पत्थरों की आकृतियां तरह-तरह की थीं जिन्हें नदी का पानी अपने भीतर ही भीतर तराशा करता था और फिर बहुत सी रेत के साथ उन्हें अपने छोरों पर छोड़ देता। सुनमा जब दोपहर का भोजन लेकर घराट आती तो इन पत्थरों को देख कर भावविभोर हो जाती। वह सोचती रहती कि इस नदी के भीतर न जाने कितने मजदूर कलाकार रहते होंगे जो इन पत्थरों को सुन्दर घड़ाई करने के बाद बाहर छोड़ दिया करते हैं। कभी वह सोचती कि क्या नदी की मछलियां तो कहीं इन पत्थरों को तो नहीं तराशती होंगी? वह घराट के आंगन से नीचे उतर कर नदी के छोर पर बैठ जाती और फिर अपनी झोली में कई आकृतियों के पत्थरों को सांज कर भर लेती और घर ले आती। वहां भी उसने जो फूलों की क्यारियां बनाई थीं उनके दोनों ओर सजावट के लिए वही पत्थर लगा रखे थे जिससे आंगन भी कई बार नदी जैसा लगने-दिखने लगता था। वह उन पत्थरों में कई बार अपना दाहिना कान लगा कर नदी की आवाज़ सुन लिया करती थी। उस आवाज़ को वह अपने घर के भीतर के कोनों में भी महसूस किया करती। यहां तक कि जब बालक राम और वे दोनों एक-दूसरे के गले लगकर खूब प्यार करते तो सुनमा उस नदी का बहना उसकी सांसों में भी महसूस करती थी। इस तरह घर कई बार उसे नदी का घर जैसा लगता था जहां उसके सपनों की न जाने कितनी मछलियां पानी की लहरों में तैरती रहतीं।

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एक दिन बालक राम नदी पार करते डूब गया। दरीआं फट गया था। पलक झपकते नदी उसे पता नहीं कहां ले गई। सुनमा पर जैसे पहाड़ गिर गया था। भीतर की उस नदी ने अचानक अथाह वेदना का रूप धारण कर लिया। उसका संसार ही जैसे आंखों से ओझल हो गया। सुन्दर सपनों की जगह घने अंधेरे आंखों में बस गए। घराट और सुनमा देई अकेली रह गईं। सुनमा के लिए पति का बिलगाव असहनीय था। उन दोनों के कोई औलाद भी नहीं थी। घर में बैल की जोड़ी थी। दो गाए और दो-चार बकरियां। किन्नौरी नस्ल का एक कुत्ता और एक प्यारी सी बिल्ली। सुनमा का अब यही परिवार था। जैसे-कैसे उसने अपने को संभाला था। हालांकि अकेले रहना बहुत मुश्किल था पर पता नहीं क्यों उसे लगने लगा था जैसे वह नदी अब उसके बहुत पास और भीतर रहने-बसने लगी है।

अब घराट ही सुनमा की रोजी-रोटी थी। दो-चार पैसे आटा पिसाई की पेहाई से ही मिल पाते थे। एक दिन उसके साथ अज़ीब अनहोनी हो गई। वह दोपहर को घराट में आटा पिसाई कर रही थी। आज उसका कुत्ता भी साथ नहीं था। गांव की पांचायत का एक मैंबर मक्की लेकर पिसाई के लिए आ गया। सुनमा ने मक्की घराट में पिसाई के लिए लगा दी और जैसे ही बाहर आने लगी मैंबर ने उसे बांह से पकड़ लिया और जबरदस्ती करने लगा। सुनमा पर यह अप्रत्याशित हमला था जिसकी अपने ही गांव में न वह कभी उम्मीद कर सकती थी और न ही ऐसे हादसे के निपटाव के लिए वह तैयार ही थी। इस घटना ने उसे बहुत डरा दिया था। वह देर तर छटपटाती रही पर उस आदमी की बाहों के कसाव मजबूत होने लगे थे। उसकी आंखों में वासना का भूत सवार था। वह जानती थी कि नदी के शोर में उसका चीखना-चिल्लाना व्यर्थ होगा। इसलिए उसे अपना बचाव जैसे-कैसे खुद ही करना है। उस वासना के भूखे भेडि़ए से लड़ते हुए उसे अचानक लगा जैसे नदी में बाड़ आने लगी है। धीरे-धीरे अपने भीतर के हौसले को बांधते हुए उसका नदी जैसा विराट रूप होने लगा। एकाएक वह उसकी गिरफ़्त से आज़ाद हो गई और डर कर बाहर भागने के बजाए उस पर उल्टी झपट पड़ी। एक ही लात से वह घराट के घूमते हुए पूड़ के पास पीसे हुए आटे के बीच गिर गया। सुमना ने पहले उसके मुंह और आंखों के ऊपर आटा फैंक दिया जिससे उसकी आंखे बंद हो गई। वह नीचे से बाहर आने का प्रयत्न करने लगा पर आंखों में आटा घुसने की वजह से जैसे अंधा हो गया था। सुनमा की सारी घबराहट अब उस आदमी के भीतर पसर गई थी। उसने दरवाजे के पास रखे दराट को उठाया। एक मन किया कि उसकी गर्दन काट डाले लेकिन किसी घोर अपराध की गंध ने उसे रोक दिया। दराट की नोक उसके कालर में फंसाकर उसे बाहर खींच लिया और फिर लात-घूंसों से उसकी अच्छी खासी मरम्मत कर दी। उसकी आंखे अभी भी खुल नहीं रही थी और भिखारियों की तरह गिड़गिड़ाने लगा था। सुमना का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसे घसीटती हुई नदी के किनारे तक ले गई और उसका मुंह पानी में ठूंस दिया। अधमरा सा वह छटपटाता रहा। सुनमा का एक मन हुआ कि उसे नदी में फैंक दें पर ऐसा विचार आते ही उसे किसी ने पीछे से पकड़ लिया था। देखा तो उसके गांव की औरत थी जिसे वह बड़ी भाभी कहती थी। अब कुछ और लोग भी वहां आ गए थे। इस पूरे दृश्य और माजरे को देख-समझ कर सभी हतप्रद थे। उन्होंने सुनमा को शांत किया। वह आदमी नदी के किनारे रेत पर पड़ा हांफ रहा था। सुनमा ने रोते-रोते सारी घटना गांव वालों को सुनाई। सुनते ही उसकी बड़ी भाभी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उसने दरवाजे के पास पड़ा दराट उठा लिया। पर गांव के लोगों ने उसे बहुत मशक्कत से पकड़ लिया अन्यथा वह अनर्थ कर देती।

इस घटना ने पूरे गांव-बेड़-परगने तक हिला दिया था। मामला पंचायत तक पहुंचा और पंचायत में उसकी बड़ी फजीयत हुई। उसे सर्वसम्मति से पंचायत की सदस्यता से निष्काशित कर दिया गया। कुछ दिनों बाद उसने शर्म के मारे नदी में कूद कर अपनी जान ही दे दी।

सुनमा की दबंगता का लोहा हर तरफ मनने लगा। उसकी हिम्मत की खूब दाद दी जाने लगी। लेकिन उसके भीतर इस घटना ने जैसे बहुत कुछ छिन्न-भिन्न कर दिया था। वह घराट में अब अकेले रहने से डरने लगी थी। इसलिए या तो अपने कुत्ते को साथ रखती या फिर ही आती जब गांव की औरतें उसके साथ होतीं। समय गुजरता चला गया। न जाने उसकी उम्र के कितने पल नदी के पानी के साथ बहते चले गए और वह धीरे-धीरे जीवन के आखरी पड़ाव तक आ पहुंची। बावज़ूद इसके भीतर ही भीतर वह नदी और भी गहरी होती रही, बहती रही। जीती रही। उठती बैठती रही। सोती जागती रही जिसके साथ-साथ सुनमा बहुत सी विषाक्त परिस्थितियों का सामना करती चली गई।

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एक दिन पंचायत में गांव की बहुत बड़ी बैठक हुई थी जिसमें सूचना दी गई कि जल्दी ही नदी पर बांध बनने वाला है जिसकी अधिसूचना सरकार ने जारी कर दी है। कम्पनी के साथ तहसील के पटवारी और दूसरें लोगों को बांध की डूब में आने वाली ज़मीन के अधीग्रहण के कागज़ात तैयार करने के आदेश दे दिए गए हैं। उपस्थित लोग यह सुनकर हक्के-बक्के रह गए। सुनमा का तो हाल देखने वाला था। उसने पंचायत में ही डट कर इस बात का विरोध किया कि सरकार बिना उनकी सहमति के कैसे उनके घर और ज़मीने ले सकती है? पर प्रधान और पंचायत के सदस्यों ने समझाया कि अब कुछ नहीं हो सकता। बांध देशहित में बन रहा है और सबकी जगह, ज़मीन और घर के अच्छे पैसे दिए जाएगे। जिसके पास जगह नहीं होगी उसे घर-जगह भी दी जाएगी। न जाने कितने सपने और आश्वासन वहां लोगों को दिखाए-दिए गए थे।

बांध निर्माण की खबर ने नदी के आर-पार बसे गांव के लोगों की नींद हराम कर दी। कुछ विरोध के स्वर भी उठे पर उसका अब कुछ लाभ होने वाला नहीं था। इन विरोधों में सुनमा ने बहुत बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था। बहुत से ग्रामीणों ने उसका साथ भी दिया पर बांध के निर्माण का फैसला तो किसी भी हालत में टलना नहीं था। इतना ज़रूर हुआ कि दादी के गांव के ग्रामीणों को ज़मीन की अच्छी कीमत मिल गई भी। कम्पनी की तरफ से कुछ और सुविधाओं के एलान भी हुए पर कभी पूरे नहीं किए गए। धीरे-धीरे सभी आश्वासन झूठे साबित होते रहे और कम्पनी के लोग सरकार के आदमियों और विशेषकर स्थायी नेताओं के साथ मिलकर अपनी-अपनी रोटियां सेंकते गए। कुछ ही महीनों में सभी के पुशतैनी घर और ज़मीनें सरकारी देखरेख में कम्पनी वालों ने ख़रीद ली। सुनमा देई का घराट, घर और छ: क्यार/खेत और घासणी भी चले गए। पैसा मिला पर चैन चला गया। आंखों की नींद गायब हो गई। गांव के बहुत से ऐसे लोग थे जिन्हें अपने घरबार और ज़मीने छोड़ कर कहीं दूसरी जगह बसना पड़ा। सुनमा के पास दोघरी में थोड़ी ज़मीन थी जो बांध की डूब में नहीं आई थी और धान के क्यारों में से एक क्यार/खेत जो नदी के बिल्कुल ऊपर था। कुछ घासणियां बची रह गईं। अब उसे दोघरी में अपना रहना-ठिकाना करना था। दोबारा अपनी ही ज़मीन में बसना था जो बहुत कठिन था। पर दूसरा विकल्प कोई नहीं था। सुनमा ने हालांकि उन पैसों से एक छोटा सा घर और एक गौशाला तो बना ली परन्तु मन अपने पुशतैनी घर और क्यार में ही बसा रहा। नदी की तरह वे कभी उसकी मन आंखों से नहीं जा पाए थे।

सुनमा देई अब धीरे धीरे दादी सुनमा हो गई थी। नदी बांध बन गई। बांध में न जाने नदी किनारे बसे कितने गांव और खेत समा गए। कम्पनी और सरकार के साथ मिलकर जिन लोगों ने बिचौलियों का काम किया उन्हें अच्छा खासा पैसा भी मिला। बहुत सी और सुविधाएं भी। लेकिन बहुत से गरीब परिवारों के साथ खूब बेइंसाफी हुई। उनकी जितनी ज़मीन गई उतना पैसा भी नहीं मिला। न ही किसी ने उनकी आवाज़ें सुनी। सुनमा की तरह उन गांव में कोई विरोध करने वाला भी नहीं था।

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दादी सुनमा का कहीं मन नहीं लगता था। अपना साथ खोने के अलावा अपना पुश्तैनी मकान, घराट, गौशाला और क्यार के न रहने का ग़म उसे भीतर ही भीतर सालता रहता था। वह सुबह ही नदी के किनारे अपने एक मात्र बचे उजाड़ क्यार(खेत) में गाय लेकर आ जाया करती। उसमें कई तरह की कांटेदार झाडिय़ां उग आई थीं। खेत की हालत देखकर कोई भी अंदाजा लगा सकता था कि बहुत अर्से से किसी ने उसे जोता-बाहया नहीं होगा। हल नहीं चलाया होगा। पानी की कूहल नहीं फेरी होगी। धान की रोपाई नहीं की होगी। बावज़ूद इसके बैलों के खुरों की खुरखुराहट और हल के फाले की सनसनाहट बाक़ायदा उस खेत की बीड़ और सीत में मौजूद रहती थी। धान रोपती गांव की औरतों के पांव की छपछपाहट और चूडिय़ों की खनखनाहट खेत के ओर-छोर बसी रहती जिसे या तो दादी सुनमा सुन सकती थी या वह लड़की जो कागज़ की नाव पर वहां चली आती थी। वहां औरतों के धान रोपते हुए गाए लोगगीतों की मधुर ध्वनियां भी मौजूद थी जो हवा की सरसराहटों के साथ कानों में हर वक्त बसी रहती थी। कुछ चिडिय़ां आसपास की झाडिय़ों के झुरमुटों में अपने-अपने घोसलें बनाया करतीं और जब वे चहचातीं तो ऐसा लगता मानो वे धान रोपती औरतों से सीखे लोकगीतों को गा रही हो। ये धुने दादी सुनमा के भीतर ताजा जख़्मों की तरह जीवित थीं। बहुत से घोसलें और चिडिय़ां के डेरे भी जिनका संगीत और रहाव केवल दादी ही महसूस कर सकती थी। दादी ने इस उजाड़ खेत में कई बसन्त जी लिए थे। पंछियों के घोसलें उन्हें बहुत हिम्मत देते थे। दादी देखती थी कि बसंत आने पर ये पंछी अपने घोसलें पेड़ों और झुरमुटों में बनाते हैं और फिर उन्हें छोड़ अपने-अपने बच्चों के साथ कहीं निकल जाते हैं। दूसरे बरस किसी नई जगह घोसले बना कर कुछ दिनों के लिए पुन: परिवार बसा लेते हैं। शायद इन पंछियों की तरह ही दादी सुनमा या जो विस्थापित ग्रामीण थे उनका जीवन भी हो गया था। फर्क इतना था पंछी खुशी-खुशी अपने ठोर-ठिकाने बदल लिया करते जबकि आदमी के लिए यह कतई संभव न होता, पर आज घर से बेधर होने के अथाह दर्द ने उन्हें बहुत तोड़ दिया था। वह टूटना महज इंसानो का नहीं था। साथ-साथ पीढिय़ों और अपनी परम्परा और संस्कृतियों का भी था जिन्हें नई या दूसरी जगह बसाना संभव न था।

वह लड़की कभी जब नदी के बीच नाव में होती तो दादी सुनमा खेत की बीड़-बीड़ और सीत-सीत से वैसे ही चलती जैसे उसका पति बालकू पानी सने क्यार में हल जोतते हुए बैलों के साथ-साथ फाटों की सीध में चला करता। फिर वह अपने फेरीदार पजामें को थोड़ा घुटनों तक छूंगती और कुरते को भी। कई पल किसी लोकगीत की धुन गुनगुनाती धान रोपाई जैसा कुछ करती रहती। जब भी गाय के साथ उस खेत में आती तो ऐसा करना कभी नहीं भूलती। यही कारण था कि दादी सुनमा कभी अकेली वहां नहीं होती... उसके साथ कहीं न कहीं उसका पति और दो बैल भी होते... एक हल होता... जुंगड़ा, जोच और दो छिकडिय़ां भी मौजूद रहतीं... पानी से भरा खेत होता और धान रोपती गांव की औरतें होतीं। खेत की मुंडेर पर पहली फाट से थोड़ी दूरी पर मिट्टी के नीचे एक उपला दबा रहता जिसमें दिन भर की आग मौजूद होती....उसका धीमा-धीमा धुंआ कभी बालकू तो कभी दादी के पीछे-पीछे चलता रहता....। आज जबकि ऐसा कुछ भी वहां नहीं था पर दादी सुनमा के साथ-साथ वे सभी चीजें जीवंत थीं जैसे उनकी तमाम स्मृतियां दादी ने अपने चादरू में बांध कर सिर पर उठा रखी हो। दादी को यह भी लगता जैसे वह आग का उपला कहीं भीतर उनकी छाती में दबा है जिसकी तपन कभी-कभार बहुत तीखी होने लगती है।

नदी जब बांध नहीं हुई थी तभी से दादी सुनमा ने अपने बचे हुए उस एक मात्र क्यार में निरन्तर बैठना शुरू कर दिया था। अब न तो घराट था न घर का ही कोई बड़ा कामकाज था। एक गाय थी। कुत्ता भी नहीं था न वह बिल्ली ही रही थी। उस गाय को लेकर वह रोज इस क्यार/खेत में आ जाया करती और नदी को निहारती रहती। अभी बांध बनना शुरू हुआ था। नदी को जल्दी ही रोका जाना था। हालांकि उन्होंने अपना घर, गौ शाला और घराट छोड़ दिया था पर दादी खेत में गाय के साथ आने से पूर्व वहां जाना नहीं भूलती। वह कुछ पल अपने घर के आंगन में फूल की क्यारियों और नदी के पत्थरों के साथ बैठ लिया करती थी। अब दादी को नदी की वे मीठी आवाजें सुनाई नहीं देती थी। बस भयंकर और डरावना शोर सुनाई देता था जैसे हजारों लोग उस नदी के पीछे भाग रहे हो। आंगन में एक घूटन सी महसूस होती थी। दादी को कई बार लगता जैसे उस बिके हुए घर के भीतर वह नदी घुट-घुट कर मर रही है। तडफ़ रही है। चीख रही है। दादी को पुकार रही है कि दरवाजे को खोल कर उसे बाहर ले जाए।

एकाएक वही घटना सामने आ जाती जो घराट में बहुत पहले दादी के साथ घटी थी। जैसे वैसा ही कुछ भीतर नदी के साथ भी हो रहा है। वह  उदास-निराश फिर घराट के पास चली जाती जहां का सन्नाटा भीतर तक साल देता। नदी से आती कूहल सूख-टूट गई थी। घराट के ऊपर छत पर जो पत्थर थे वे भी भीतर की ओर गिर गए थे। दादी को लगता जैसे घराट का पूड़ बहुत जोर से घूम रहा है और उस पर रखी लकड़ी की बेज़ान घूघती घर्ड़-घर्ड़ करती किसी अज़नबी का आटा पीस रही है। बिना पानी के ही घराट के पूड़ को घुमाने वाला बजीवरा अज़ीब सी चींचिचाहटों की आवाज़ें करता हुआ कराह रहा है। ये चीखें, चिल्लाहटें और कराहटें दादी के भीतर अनायास ही प्रवेश कर जाती और उनकी छाती और मन बहुत भारी होने लगते। मानो घराट का वह पूड़ किसी ने उनकी छाती पर रख दिया हो। उसके ऊपर फंसी घूघती उडऩे को छटपटा रही हो। वह बाहर भागना चाह रही हो। आंखों की नदी फूट-फूट कर रोती हुई बहने लगी हो। न जाने कितनी वेदनाएं और अतीत की स्मृतियां दादी वहां से लेकर भारी मन से लौट आया करती थी।

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एक दिन जब सुबह दादी गाय के साथ उस उजाड़ खेत में आई तो नीचे का दृश्य देखकर हैरान रह गई। वहां नदी नहीं थी बस दूर-दूर तक पानी ही पानी फैल गया था। दादी का पुश्तैनी घर, गौशाला और घराट का कहीं अता पता नहीं था। न ही क्यारों और ज़मीन का। अब वहां पानी ही पानी था। एक बहुत बड़ी झील थी वहां। आर-पार जो गांव बसे थे वे सभी उस झील के भीतर समा गए थे। नदी पार ही एक प्राचीन तीर्थ था वह भी कई मंदिरों और विशाल पीपल के पेड़ों के साथ नदारद था। महज़ पानी के भीतर से उस पीपल की कुछ अधमरी शाखाएं पानी के बाहर निकलती दिखाई देती थी मानो वह मदद के लिए चीख रहा हो।

 दादी हर साल या साल में कई बार उस तीर्थ में स्नान के लिए जाया करती थी। वर्ष भर वहां कई मेले लगे रहते। नदी के साथ-साथ स्वत: ही गर्म पानी निकला होता जिसके लिए लोग जगह-जगह नदी के छोर पर छोटे छोटे चश्में बना लिया करते जिनमें गर्म पानी जमा होता रहता और उसी में स्नान करते। इसे बहुत पवित्र माना जाता। ठीक उन गर्म पानी के चश्मों के ऊपर स्थानीय पंडे तुलादान के पंडाल लगाया करते और उन्हीं के बीच अंसख्य मनयारी, मिठाईयों और दूसरी चीजों की दुकानें सजाए रखते। दूर-दूर से लुहार, कुम्हार, जुलाहे और बांस बुनने वाले लोग खुली जगह पर अपने-अपने उत्पाद सजाए रखते। लुहार कुल्हाडिय़ां, दराट, दराटियां, गैंतियां, हथोड़े और न जाने लोहे का कितना सामान वहां ला कर प्रदर्शित करते। कुम्हार तरह-तरह के मिट्टी के बर्तन, जुलाहे कारघ और खड्डी के बने पट्टृ, मफलर और शालें तथा बांस-बुनकर किल्टे, डालें और टोकरियां वहां सजाए रखते। लकड़ी के कई पारम्परिक हिंडोले बच्चों और महिलाओं के आकर्षण थे। महिलाएं जोडिय़ों में झूलने के साथ पहाड़ी लोकगीत गंगी गाया करतीं जिससे मेले की रौनक में चार चांद लगे रहते। लोग खूब खरीददारी करते। दादी ने भी न जाने कितनी ऐसी चीजों से अपना घर भरा हुआ था। वे साल में एक बार जीवन पंडे के पंडाल पर जाकर तुला दान जरूर करवाती और किसानी की चीजें खरीद कर ले आतीं। अब सब कुछ समाप्त हो गया था। बस उनकी यादें ही यादें बांध के गधले पानी के ऊपर तैरती रहतीं जैसे वे सभी कहीं भीतर मर गए हैं। और उनकी सांसे पानी के ऊपर तडफ़ती हिलोरे ले रही हैं। नदी की तडफ़ और झटपटाहटें बस सुनमा दादी ही महसूस कर पाती थीं।

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नदी का सौदा हो गया था। उसका पानी बूंद-बूंद बिक गया था। उसके बहाव, उसकी निरन्तरता और उसके निर्मल जल से सनी लहरों पर कम्पनी का कब्ज़ा हो गया था। न जाने कितनी पीढिय़ों से अपनी-अपनी ज़मीन पर रचे-बसे लोग, उनके घर-आंगन, बाहर-भीतर स्थापित देवताओं की छोटी-छोटी देहरियां, गौशालाएं, उनकी कच्ची भीतों में पसरी पशुओं की रम्भाहटें देखते ही देखते वहां दफन हो गईं थीं। खेत की मुंडेर पर बैठी उदास-निराश दादी सोचती रहती जैसे आज कुछ भी अपना नहीं रह गया है। न नदी, न तीर्थ, न पीढिय़ों से बसे हाट-दुकानें, न मंदिर न उनमें बसे देवता। दादी की आंखों से पानी की वर्षा होने लगती। उस नदी का एकालाप उनको बहुत आहत और परेशान करता था।

उजाड़ खेत (क्यार) भी दादी सुनमा की उम्र जैसा लगता था। बिल्कुल अनुर्वर। उसकी ऊसरता, वीरानगी और सहराई उनके भीतर जैसे बस गई थी। उस खेत की उजडऩ दादी के चेहरे पर साफ दिखाई दे जाती थी। अब यही ऊसरपन, बंजरता और रुखाई जैसे उनके शरीर के मुख्य प्रसाधन, संवरण, और श्रृंगारक हो गए थे। परन्तु दादी भले ही थकाऊ लगती थी पर भीतर का अदम्य आत्मविश्वास और स्वाभिमान कतई ऊसर नहीं हुआ था। पता नहीं ऐसे कौन से उत्प्रेरक रहे होंगे जिन्होंने उनके भीतर की जिंदादिली, तमक और उत्साह कभी कम नहीं होने दिया था। आखिर अब अकेले ही गांव, परगने के बीच जीना था इसलिए उन्होंने अपने भीतर का उत्साह कभी कम नहीं होने दिया। दिखने में हमेशा चुस्त, जोशीली, पुरजोश और दमदार। भले ही अंदर न जाने कितनी टूटन भरी पड़ी थी जिसका एहसास कभी उन्होंने अपने आस-पड़ोस को नहीं होने दिया था। कभी जिस सुनमा की जवानी पके हुए धान के खेत जैसी उर्वर थी, नदी जैसी सुन्दर, भरी और निर्मल थी मानो वह किसी भयंकर बाड़ ने क्षत-विक्षत कर दी हो।

दादी सुनमा ने बेहद दबंगता से जीवन जिया था। उनके अनगिनत हुनर थे। गांव बेड़ के अतिरिक्त दूर-दूर के परगनों में उनकी चर्चा होती रहती थी। दादी जिरहबाज़ी और तर्कवितर्क में माहिर भी थी। उनकी विद्वता और हाज़िरजवाबी कई बार लोगों को चकित कर देती थी। उनकी दलीलबाजी के आगे पढ़े लिखे निरक्षर लगने लगते। उनकी किसी भी मसले पर दलीलें अकाट्य रहतीं। महकमें के जिन अफसरों से आमजन भय खाते उनके आगे दादी छाती तान और ठोक कर जिरह किया करती थी। उनके वाद प्रतिवाद और निरूपण विस्मित कर देते थे। बावजूद इसके वे अति विनम्र और आज़िज थी।

अपने गांव इलाके में शोषण और अन्याय के प्रति उनके विरोध तर्कसंगत होते थे। यही कारण था कि कई गांवों को डुबा कर वहां बांध के निर्माण को लेकर उनकी असहमतियां, अस्वीकृति और खिलाफ़त जगजाहिर थी। इसको लेकर सरकार, कम्पनी और उनके अपने गांव के कुछ बिचौलियों से उनका बार-बार टकराव भी होता रहा था। पीढ़ी दर पीढ़ी बसे गांव और तीर्थ के उजाड़ का प्रतिरोध जब अवरूद्ध होने लगता तो दादी सुनमा का विरक्त होना स्वभाविक था। सब कुछ समाप्त होने की विरक्ति जैसे उनके भीतर स्थाई घर कर गई थी। अपनी माटी से यह वियोग, अलगाव और बिछुडऩ असहनीय थी। विछोह के दर्द बहुत बड़े और गहरे थे। विरहाकुल वह बांध के विराम और ठहराव को निर्जल और निरीह आंखों से देखती रहती थी। अपने विस्थापन से अधिक वेदना उनकी नदी के मर जाने की थी। नदी के अस्तित्वहीन होने की थी। वे कुछ करने में पूर्णतया असमर्थ थी। निसहाय और अक्षम। नदी का मानव के हाथों समापन उसकी सुनियोजित हत्या जैसा ही उन्हें लगता था। 

*

 

बांध में समाई नदी दादी को अब अनाथ और बहुत अकेली लगती थी। बिल्कुल अपंग, अशक्त और गतिहीन। अशरण, निरीह और निस्साहाय। नदी का आर्तनाद और अभिक्रंदन, उसका आर्तस्वर, उसका उद्राव, उसकी दहाड़ें, चीत्कारें और हाहाकार केवल दादी ही सुन सकती थी। जो लड़की दादी के पास बैठी रहती वे आवाजें कभी कभी दादी को उसी के भीतर से आती आभासित हुआ करती थी। पहले वह नदी कितनी अंतहीन थी। कितनी अछोर और अनंत।

उस लड़की की कहानी भी अनंत थी। नदी की तरह ही। जिसे परिभाषित करना असंभव था। दादी सुनमा की आंखों से वह दृश्य आज भी नहीं जाता जब एक दिन अचानक बहुत तेज हवा के साथ जैसे उस बांध का पानी आसमान छूने लगा था। वह झील जैसे उन्मुक्तता से अपने तटबंध तोडऩे को आतुर हो रही थी। दादी ने उसके भीतर जगह-जगह भयंकर वर्तुल देखे थे जिनमें पानी घराट के पूड़ की तरह घूमते हुए कहीं भीतर समा जाता और पल भर में ही किसी दूसरी जगह से ऊपर उठ जाता। अचानक हवा का एक बवंडर पानी से भीगा हुआ सा दादी तक पहुंचा और पूरा नहला गया। उनकी एक पल के लिए सांस रूक गई मानो वे भी उसके साथ पानी में समा जाएगी। दूसरे पल ही वह शांत हो गया। उन्होंने अपने हाथों से मुंह पोंछा और फिर हाथ सिर पर चले गए। बाल भीगे थे लेकिन दुपट्टा गायब हो गया था। नंगा सिर था दादी का। उन्हें याद नहीं कभी उनके सिर का चादरू सिर से हटा होगा। वे झटपट उठीं और खेत में चारों तरफ नज़र दौड़ाई पर वह कहीं नहीं था। तभी दादी को झील के ऊपर से एक कागज की नाव आती दिखाई दी। जैसे-जैसे वह समीप आई दादी हतप्रद सी रह गई। उसमें एक बहुत सुन्दर लड़की बैठी थी। लड़की जब किनारे पहुंची तो उसने नाव एक हाथ में पकड़ ली। उसके दूसरे हाथ में दादी का दुपट्टा था।

दादी सुनमा को पता ही नहीं चला कि वह लड़की कब आकर उनकी बगल में बैठ गई थी। कुछ देर पूर्व जो कुछ भी उन्होंने देखा था वह अब आंखों और मन से अदृश्य था। झील का जल पूर्वरत शांत था। उनके अपने मन ही की तरह। अचानक लड़की की बहुत मीठी आवाज उनके कानों में पसरी,

''दादी! दादी! आपका दुपट्टा। उधर उड़ गया था।’’

दादी ने उसे झटपट पकड़ कर अपने सिर पर ओढ़ लिया। बिना किसी प्रतिक्रिया और अचरज के, जैसे उन्होंने ही कुछ देर पूर्व उस लड़की को उसे ढूंढने भेजा हो।

लड़की ने हाथ से उस कागज की नाव को अपने और दादी के बीच बचे थोड़े से खाली स्थान में रख दिया था। हवा से न उड़े इसलिए उस पर एक छोटा सा पत्थर भी रख छोड़ा था। वह नदी का पत्थर था।

दादी सोचने लगी कि उसकी यह नाव इतनी छोटी कैसे हो गई...? उन्होंने सहजता से पूछा लिया,

''यह तुम्हारी नाव है......?’’

''हां दादी यह मेरी नाव है। मैं इसी में आती-जाती हूं। जब नदी बांध नहीं बनी थी तो नाव बहते पानी और लहरों पर तैरती थी। जोर नहीं लगता था। अब बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। नदी नहीं है न, बस गधला खारा पानी ही पानी हैे। खड़ा पानी। मरा हुआ पानी। वह अब नहीं हिलता। अभिश्रापित जैसा। मानो किसी तपस्वी ने उस नदी को श्रापित कर दिया हो।

दादी सुनमा अपलक उस बच्ची की तरफ देखती रही कि वह इस तरह की गूढ़ बातें भी कर सकती है। इससे पहले कि कुछ और सोचे, लड़की कहने लगी थी,

''दादी वह दादू का दरीयां नहीं है अब, जिससे वे स्कूल के बच्चों को नदी पार करवाया करते थे।’’

दादी को जैसे कोई कंटीली छाड़ी स्पर्श कर गई हो। मन में प्रश्न उठा कि इतनी छोटी बच्ची यह कैसे जानती है कि मेरे पति के पास दरीयां भी होता था। इसी सोच में थी दादी कि लड़की फिर बोल उठी,

''पता है दादी इस नदी का क्या नाम था?’’

''बच्चू! हम तो इसको दरिया ही बोलते थे। पर अब तो यह कोलडैम बन गया है। नदी कहां रही अब।’’

''नहीं नहीं दादी नदी अभी भी है। हर जगह। मेरे और तुम्हारे भीतर। ऊपर आसमान में। धरती के नीचे। ये जो आर-पार हरी भरी डालियां हैं न, इन सभी में। मछलियों के भीतर। चिडिया की चोंचों में। और ये जो बांध है न इसके पानी के भीतर भी तो नदी ही है। हमें लगता है न दादी वह मर गई है। नदी कभी नहीं मरती, दुश्मनों से छिप जाती है। उनके गंदे इरादों और कृत्यों से दूर भागती है वह।’’

दादी फिर अभिभूत सी उसे देखती रही थी। कितनी बड़ी-बड़ी आंखें थीं उसकी, जैसे वह नदी की आंखें हों। उन्हीं में कहीं छिपी हो। चौड़ा माथा। लम्बे-लम्बे बाल, दो गुतों में गूंथे हुए से जिन्हें उसने आकाशबेल की हरी जड़ों की डोरियों से बांधा था और दोनों तरफ कूजो के सफेद फूल गूंथे हुए थे। गालों में सूर्य उगने जैसी लालिमा और ओंठ तीज के चांद जैसे बारीक व दोनों तरफ फैले हुए से। वह जब बोलती और हंसती तो उसके नन्हें दांत ऐसे लगते मानों सरग के तारे चमक रहे हो।

दादी ने अचानक पूछा था,

''बच्चू तुम्हारा नाम क्या है.....?’’

यह सुन कर वह जोर से हंसी। उसकी हंसी साधारण नहीं लगी दादी को। पहली प्रतिक्रिया गाय ने दी। वह दूर चर रही थी लेकिन उस हंसी को सुनते ही वह दौड़ती उन्हीं के पास आ गई। दूसरी प्रतिक्रिया बांध के पानी की दादी ने देखी। जैसे वह हंसी उस पानी में घुलमिल कर हिलोरे लेने लगी हो। फिर वह धीरे-धीरे आर-पार फैली घाटियों से टकराई और वापिस जैसे दादी के भीतर चली गई।

''मैं शतद्रु....छोटा नाम शतु है दादी।’’

उन्होंने यह नाम पहली बार सुना था। उन्हें कुछ कुछ सतलुज जैसा स्मरण हो आया था। उस दरिया को बहुत से लोग सतलुज नदी भी कहते थे। दादी बहुत कुछ और भी पूछना चाहती थी पर जैसे कुछ भी याद न रहा हो।

''मैं चली दादी! तुम भी जाओ घर। रात हो रही है न। मैं अब रोज आया करूंगी। खूब बातें करूंगी तुम्हारे साथ। और हां दादी, कल न मैं नदी की कथा सुनाऊंगी तुम्हें।’’

यह कहते हुए वह उठी और पास रखी कागज़ की नाव के ऊपर से पत्थर उठा कर नीचे झील में फैंक दिया। पानी में पत्थर गिरने की भयंकर आवाज हुई। मानो दादी के कान फट गए। पूरी झील में एक पल के लिए जलजला सा आ गया। पहले डरावना शोर और पलभर में घोर सन्नाटा। लड़की धीरे-धीरे संकरी पगडंडी से नीचे झील में उतर रही थी। चलते हुए दादी ने देखा लड़की ने नदी के रंग की फ्रॉक पहनी थी जिसके बीच-बीच में असंख्य मछलियों की आकृतियां बनी थी। वह नंगे पांव थीं। कितने प्यारे लगे थे दादी को उसके नन्हें-नन्हें पैर जैसे दूध से निकले ताजा मक्खन की डलियां हो। पलक झपकते ही वह लड़की उस नाव में कहीं दूर चली गई है।

आज रात दादी सोई नहीं थी। उसी लड़की के बारे में सोचती रही। कौन होगी वह। किस गांव की होगी। वह कागज की नाव पर कैसे आ-जा सकती है ? इतनी बड़ी बातें उसने कहां से सीखी होगी। किस स्कूल में पढ़ती होगी वह। उसे कैसे पता कि मेरे पति के पास एक दरीयां भी था जिससे वह स्कूल के बच्चों को नदी पार करवाया करता था। मेरे साथ उसका रिश्ता क्या है? उसे अब से पहले कहीं भी नहीं देखा था। दादी को अचानक उसकी हंसी याद आ गई थी। कैसे खिलखिलाकर हंसी थी वह। मानो पानी में ज्वारभाटा आ गया हो। फिर उसके नाम पर मन केन्द्रित हो गया।.....शतू। पूरा शतद्रु दादी ने सुना तो था पर वह बोला नहीं गया। जैसे सतलुज। जाना पहचाना सा नाम था वह। न जाने ऐसे कितने प्रश्न दादी के मन में उमड़ रहे थे। निश्चित किया था कि कल जरूर बहुत सी बातें उस लड़की से पूछेगी और नदी की कथा भी सुनेगी। फिर कथा शब्द पर मन अटक गया था। वह नन्हीं सी लड़की कैसे जानती होगी नदी की कथा?

दादी बहुत देर उस कागज़ की नाव के बारे में सोचती रही थी। उन्हें अपना बचपन याद आ गया जब पशु चुगाते हुए गांव के कई बच्चे नदी के किनारे आकर बैठ जाया करते थे। दादी घर से एक पुरानी कॉपी चुरा कर ले आया करती थी जिसके पन्ने वह सब बच्चों में बांट देती जिससे कागज की नाव बनाई जाती। जो बच्चा नाव बनाना नहीं जानता था उसे दादी सिखा देती थी। फिर उन नावों को नदी में डाल दिया जाता। शर्त यह होती कि जिस बच्चे की नाव सबसे आगे पानी में निकल जाएगी वह दिनभर किसी पेड़ की छांव में आराम करेगा और उसके पशु की रखवाली वह बच्चा करेगा जिसकी नाव सबसे पीछे तैरती जाएगी। पानी और हवा के बहाव के साथ सभी बच्चों की नावें एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगाए रखती और फिर नदी उन्हें कहीं दूर अपने साथ ले जाती। लेकिन वह तो एक खेल था, पर वह लड़की कागज की नाव में कैसे आती होगी? अब तो नदी का पानी कहीं आता-जाता भी नहीं है। कभी जब बांध के कीवाड़ खोले जाते हैं तो पानी नदी की तरह नहीं बहता। ऐसा लगता जैसे किसी पिंजरे में बंद बाघों का झुण्ड बदहवास सा भागा जा रहा हो। दादी सोचती कि नदी का पानी अब बहना भी भूल चुका होगा।

उस लड़की को लेकर उनकी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी। उनके मन में अनेक प्रश्न जमा हो रहे थे जिन्हें वे कल सुबह उस लड़की से कथा सुनने से पहले जरूर पूछना चाहेगी। नदी और लड़की को याद करते-करते दादी की कब आंख लग गई थी पता ही नहीं चला।

*

 

आज दादी सुनमा पहले से जल्दी ही अपनी गाय के साथ खेत में चली आई थी। दादी के यहां नियमित आने का विशेष कारण था। खेत की मुंडेर से पहले दूर घाटी में नदी का विस्तार दिखाई पड़ता था और अब जैसे पूरा बांध झील के रूप में उनके सामने बस गया हो। जिस खेत में दादी बैठती थी वह नदी के मुहाने पर था जिसके नीचे के खेत डूब में चले गए थे। सामने से दांई ओर उनका पुश्तैनी मकान और घराट था जो पानी के भीतर कहीं डूब गया था। जब बांध का पानी कम होता तो उनके अवशेष दिखाई पड़ते थे। दादी अब इसी आस में यहां आया करती थी कि कभी कभार उनकी एक झलक दिख जाए। अब यहां आने का दूसरा कारण वह लड़की थी। दादी आज जल्दी वहां जा कर लड़की को पानी की तहों पर से कागज की नाव में आते देखना चाहती थी पर उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब देखा कि वह पहले से ही खेत की मुंडेर पर बैठी गिट्टियां उछाल रही है और पास ही वह कागज की नाव रखी हुई है। उसे देखते ही दादी सब कुछ भूल गई कि आज लड़की से क्या-क्या जानना है। पूछना है। उसके पास जो गिट्टियां थीं वे नदी के किनारे के छोटे-छोटे गोल पत्थर थे। लड़की ध्यानमग्न थी। दादी पास जा कर उसे चौंकाना चाहती थी लेकिन उनसे पहले ही उनकी गाय उसके पास चली गई थी और लड़की बहुत प्यार से उसके गले में झूलने लगी थी। दादी की समझ में नहीं आया कि गाय कैसे और कब उसके पास पहुंची थी और जिस प्यार से वे दोनों एक दूसरे में रमी थी लगता था उनका कोई जन्मजनमान्तर का रिश्ता है।

दादी कुछ बोलती, लड़की ने ही पूछा था,

''जल्दी आ गई दादी.....?’’

ज़वाब कुछ सूझा नहीं, बस लड़की की आंखों में अपनी बूढ़ी आंखें डालकर उसे एकटक देखती रही। सचमुच नदी जैसी गहरी बहती, उछलती आखें। जैसे वह नदी, उसके आर पार बसे अनगिनत गांव, मंदिर, पेड़ और वह तीर्थ उन्हीं में कहीं भीतर जीवंत हो। कितना सम्मोहन था उसकी आंखों में। सोचती रही दादी कल उसने क्या नाम बताया था। याद आया, शतु। नाम याद करके दादी उसकी बगल में चुपचाप बैठ गई। गाय अब खेत की सीत में चरने लगी थी।

लड़की ने गिट्टियां इकट्ठी कीं और दादी को दे दी।

''इन्हें तुम ले जाओ दादी। पहले वाले नदी के पत्थर तो सब डूब गए न। इनको अपने आंगन की क्यारी में सजावट के लिए लगाना। कितने भले लगेंगे।’’

दादी को झटका सा लगा।

''तो क्या लड़की यह भी जानती है कि मेरे आंगन में बहुत से नदी के पत्थर थे.....?’’

 ''बैठो दादी, मेरी कथा सुनो। मेरी मतलब नदी की। कल बोला था ना आपको कि नदी की कथा सुनाऊंगी। तुम देखना दादी यह अंतिम कथा होगी जो मैं तुमको सुनाऊंगी। उसके बाद नदी की तरह उसे भी भूल जाएंगे लोग। यह भी कि कभी एक विशाल नदी इन घाटियों में बहा करती थी। सरस्वती की तरह नहीं रहेगी वह भी। छिप जाएगी। नदी और औरत एक जैसी होती है न दादी। बिल्कुल मां ही की तरह। तुम्हारी जैसी भी। तुम भी नदी ही तो हो न दादी।’’

निरुत्तर थी दादी। क्या कहती। क्या बोलती। कुछ सूझ नहीं रहा था। बस यही सोच सोच कर परेशान थी कि इस तरह की बातें करने वाली यह लड़की आखिर कौन होगी...?

लड़की ने एक गहरी सांस ली और छोड़ दी। कागज की किश्ती बहुत जोर से हिली। साथ ही उस झील का पानी भी कंपकंपा गया और फिर एकदम शांत।

''बहुत पहले की बात है दादी। महाभारत से भी पहले की। किन्नर देश में एक महानगर था कामरू। और दूसरा था शोणितपुर। दोनों का आपसी बैर था। शोणितपुर का राजा बाणासुर था। कामरू का शासन तीन भाई चलाते थे। बाणासुर को बर्वाद करने की दृष्टि से उन्होंने एक दिन वहां से बहने वाली एक नदी में टनों के हिसाब से ज़हर डाल दिया जिससे बाणासुर का समस्त राज्य नष्ट हो गया। अपनी प्रजा को बेमौत मरते देख बाणासुर बहुत आहत हुआ। वह शिव भक्त था। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करे, कहां जाए। मन के विचलन को शांत करने की दृष्टि से वह हिमालय की ओर निकल पड़ा। लम्बी यात्रा के बाद वह हिमालय पर स्थित एक विशाल झील के किनारे पहुंच गया। वह मानसरोवर थी। समुद्र की तरह विशाल। वहां के दृश्य देखकर बाणासुर भावविभोर और अचम्भित हो गया। वे परिदृश्य असाधारण थे। कौतुकपूर्ण और मायावी। मोहक और विराट। विलक्षण और हैरतअंगेज। यह साकार उसके लिए अचम्भित करने वाला था।’’

दादी अचम्भित सी उस लड़की को देखती जा रही थी। उनको टीवी पर रामायण और महाभारत के बहुत से दृश्य याद आने लगे। उन्हें एक बारगी लगा कि जैसे विशाल रथ पर बैठे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता उपदेश दे रहे हैं।

दादी ने इतनी बढिय़ा और मन को छूने वाली वाणी और भाषा केवल उन्हीं सीरियलों में सुनी थी। उन्हें समझने में भी कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। आखिर वह एक विद्वान पंडित के घर की बेटी थी। उनके पिता इलाके में माने हुए ज्योतिषविद थे। इसलिए हिन्दी और संस्कृत उन्होंने अपने पिता से ही सीखी थी। उन दिनों एक तो पाठशालाएं बहुत कम होती थीं। दूसरे लड़कियों को स्कूल भेजने का भी ज्यादा रिवाज़ नहीं था। बावजूद इसके उन्हें पढऩे लिखने का बहुत शौक था और इसीलिए दादी अपने पिता की बैठकों में घण्टों बैठी रहती थी। यह दादी का भाग्य ही था कि उन्हें शादी के लिए कोई बड़ा घराना नहीं मिला। अपनी ही बिरादरी तो मिली लेकिन अपने मायके की तरह का माहौल नहीं। फिर भी उन्होंने अपनी ससुराल को अपने मायके से भी बढ़ कर स्नेह दिया। खूब काम किया। खेती-बाड़ी और तमाम कामों मेें बढ़चढ़ कर हाथ बंटाया। आज भले ही उनका घर, घराट और बहुत सी ज़मीन कोलडैम में चली गई पर उनके पास अब भी काफी जगह थी। दोघरी थी। जहां उन्होंने नया मकान बना लिया था। एक पुराना मकान पहले से भी वहां मौजूद था पर उसकी स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी। दादी को डूब में आई जगह और घर-घराट के भी अच्छे खासे पैसे मिले थे। पर उनका इस उम्र में दादी क्या करती ? अकेली जान और वह भी बूढ़ापे में कितना कुछ खर्च कर लेती।’’

''एक बात पूछूं दादी।’’

''पूछ न बच्चुआ।’’

''तुम्हारी जेब में जो बैंक की पासबुक है न। कितने पैसे होंगे इसमें?’’

दादी को काटो तो खून नहीं। उनका हाथ झटपट जेब में घुस गया। पास बुक सुरक्षित थी। विस्मित होकर लड़की को देखती वह सोचती रही कि यह लड़की कोई जादू तो नहीं जानती। दादी कुछ कहती, लड़की बोलने लगी थी,

''संभाल कर रखना दादी इन पैसों को। लाखों में हैं न। बहुत भली जगह लगेंगे तुम्हारे ये पैसे। बहुत पुण्य कमाओगी तुम। बस जैसी हो न खुले दिन की वैसे ही रहना। कभी कंजूसी न करना। कुछ नहीं जाता साथ। पाप-पुण्य ही जाता है और अच्छाई पीछे रह जाती है। हो सकता है तुम्हारे ये पैसे किसी की मुसीबतों के बारिस बन जाए।’’

दादी को कुछ सूझ नहीं रहा था कि इन बातों का क्या उत्तर दें? लड़की की बातों पर बार-बार हैरान होने के सिवा कुछ और करना या कहना संभव भी कहां था।

लड़की ने नदी की कथा कहनी जारी रखी थी।

''कुछ देर के बाद उस झील में भयंकर उथल-पुथल होने लगी। बाणासुर ने देखा कि भगवान शिव तांडव कर रहे हैं। एक हाथ में त्रिशूल है और दूसरे में डमरू। बाल खुले हुए हैं। जैसे वह विशाल झील उनकी काली जटाओं ने पूरी तरह से ढक ली हो। देखकर अवाक् रह गया था बाणासुर। वह शिव भक्त था इसलिए दंडवत हो गया। अनेक नामों से उनकी अराधना करने लगा... अर्धनारीश्वर, आशुतोष, कामेश्वर, काशीनाथ, कैलाशनाथ, गंगाधर, जटामाली, डमरूवादक, त्रिनेत्र, त्रिपुरारि, ़पशुपति, भूतनाथ, विश्वेश्वर, भैरव, भोलानाथ, विषपायी, सोमनाथ, नीलकंठ, गौरीनाथ. अब जैसे वे बाणासुर की संगीतमय स्तुतियों के साथ महानृत्य करने लगे थे।

अचानक झील के रंग बदलने लगे। देखते ही देखते उस झील के किनारे से कई जल-धाराएं प्रस्फूटित हुईं और चारों दिशाओं में बहने लगीं। उन्होंने नदियों के आकार धारण कर लिए। एक नीलवर्णी धार बाणासुर की ओर बहने लगी और उसने नदी की शक़्ल अख़्तियार कर ली। भगवान शिव ने आशीर्वाद रूप में आदेश दिया कि वह उसे अपने देश ले जाए। वह नतमस्तक हो गया। अश्रुविगलित हो गया। मन का अवसाद शांत और स्थिर हो गया। उसने देखा कि वह नदी जैसे अनगिनत आभूषणों से आभूषित अप्सरा जैसी है। देवदूतीय, नैसर्गिक और सुरम्य स्वरूप सूर्य के तेज से कहीं प्रखर और चांद की शीतलता से कहीं सहज है। उसकी अलौकिकता, इंदुवदन, अभिरूप, और अनेक अलंकार असमान्य है। इस वक्त उसके मन में एक पिता का स्नेह भर गया। मानो वह नदी को नहीं अपनी बहुत सालों से बिछुड़ी बेटी को अपने घर ले जा रहा हो।’’

''मानसरोवर झील तो बहुत दूर होगी न बच्चु।’’

दादी की आंखे भरी हुई थी। अपने चादरू से आंखे पोंछते उन्होंने लड़की से पूछा था।

वह लड़की दादी की भीगी आंखों की तरफ एक नजर देते हुए हल्की सी मुस्करा दी। दादी को लगा उसके ओंठों के बीच से कूजो के अनगिनत फूल झड़ रहे हैं।

''हां दादी बहुत दूर है। वहां भगवान शिव का घर है। वे मां पारवती और गणेश जी के साथ वहां पर्वत पर रहते हैं। नंदी जी भी वहीं होते हैं।’’

दादी ने दोनों हाथ ऊपर की ओर जोड़ दिए थे।

''और दादी बाणासुर और नदी पता नहीं कितने ग्लेशियरों, बीहड़ों, खुंखार झंखाड़ों, घने जंगलों और घाटियों के बीच से रास्ता बनाती आगे बढ़ते चले गए। बाणासुर जब शोणितपुर पहुंचा तो उसने नदी को अकेले ही आगे बढऩे का आदेश दिया। वह एक पल के लिए ठहर सी गई। उसे शायद पिता समान बाणासुर से  विलगाव अच्छा नहीं लगा था। पर उसे तो बढऩा था। बहना था। अविरल। निरन्तर। वह वियोगिनी चुपचाप आगे बढ़ती गई। आहिस्ता आहिस्ता। पहले गतीहीन सी चींटी की तरह, टहलते-टहलते, मंदता के साथ। मंद मंद और मजे-मजे में। तदोपरान्त किसी अजग़र सी खूंखार, बर्फानी बाघ की तरह तीव्र चाल में और शेर की तरह दहाड़ती हुई। बाणासुर इस मंदता और तीव्रता को बहुत दूर तक देखता रहा... भीगी आंखों से। आहत मन से। लेकिन अब अकेले बहना नदी की नियति थी और अकेले अपना पुन: साम्राज्य स्थापित करना बाणासुर की।’’

उस लड़की के चेहरे पर कई रंग उभरे। उसकी आंखें कभी लाल, कभी पीली, कभी सुनहरी तो कभी भयंकर काली होने लगीं। दादी के मन में किसी अनजान भय ने सिहरन पैदा कर दी। पल भर में लड़की की आंखों का रंग गहरा नीला हो गया...।  लड़की ने अपनी गोदी में रखी कई गिट्टियां उठाकर बांध की झील में फैंक दी। वे पानी में किसी विशाल भूखंड की तरह गिरीं। पानी में एक भूचाल सा आ गया। उफनती लहरों ने फिर लड़की, गाय, खेत समेत दादी को भिगो दिया। दादी को पहले लगा वह नदी किनारे स्थित उस तीर्थ में स्नान कर रही है। झींटे पहले गर्म महसूस हुए फिर एकदम ठंडे। दादी झटके से उठी थी।

''क्या हुआ दादी?’’

दादी सुनमा जैसे नींद से जाग गई। अपने हाथ से सिर, दुपट्टा और पूरा शरीर छुआ-देखा, कुछ नहीं था। तो फिर वह भीगना क्या सपना था? दादी ने अपने आप से ही सवाल पूछा था।

''वह नदी फिर अकेली-अकेली बहुत दूर समंदर में चली गई।’’

लड़की ने एक गहरी सांस ली थी।

दादी ने भी ऐसा ही किया और आगे की कथा सुनने के लिए उत्सुक हो गई।

''उस नदी ने किन्नर देश और बाणासुर की राजधानी शोणितपुर को पुन: नया जीवन दिया। हरियाली लौट आई। लोगों ने फिर अपने-अपने गांव बसा लिए। नदी की तरह बाणासुर का प्रताप भी बढ़ता गया। उसने बहुत से महानगर और देश अपने अधीन कर लिए।’’

दादी ने फिर अपने हाथ नीचे की ओर नदी को प्रणाम करने के लिए जोड़ दिए थे।

''श्रीकृष्ण जी भी तो आए थे शोणितपुर। कितने दिन उन्होंने अपनी सेना के साथ इस नदी कि कई घाटों पर पड़ाव डाले थे। उसका निर्मल जल ग्रहण किया था। उससे भोजन बनाया था।’’

''श्रीकृष्ण.........भगवान.......दादी की आंखे अपार श्रद्धा से भर गईं।’’

''हां दादी। बाणासुर असुर था न पर था महा शक्तिशाली। भगवान शिव ने उसे उसकी घोर तपस्या के लिए बहुत से वरदान दिए थे। बताते हैं उसकी सहस्त्र भुजाएं थीं जिनसे वह युद्ध करता था। उसने किन्नर देश की एक असुर देवी हिरमा से ब्याह किया था और उनके अठारह पुत्र-पुत्रियां हुए। उनमें एक बहुत सुन्दर कन्या उषा थी। उसे श्रीकृष्ण के पुत्र अनिरूद्ध से स्नेह हो गया और अपनी बहन चित्रलेखा के सहयोग से उन्होंने उसे उसी के महल से बंदी बनाकर शोणितपुर अपने महल में कैद कर लिया। इसलिए श्रीकृष्ण को उसे छुड़वाने वहां आना पड़ा था। बाणासुर और उनका घोर युद्ध हुआ। बाणासुर की पराजय हुई लेकिन शिवभक्त होने के नाते भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी सारी भुजाएं काट कर केवल दो ही शेष रहने दी और जीवित छोड़ दिया।’’

''और जानती हो दादी सूर्यपुत्र कर्ण ने जब कुरूओं के लिए दिग्विजय की थी तो उन्होंने इस नदी के किनारे बसे कई राज्य जीत कर अपने अधीन कर लिए थे। पांडव भी अपने वनवास के दौरान इसी नदी के किनारे होते हुए हिमालय की ओर गए थे।’’

दादी सुनमा को सुनने के सिवा कुछ पूछना सूझ नहीं रहा था। वह चुपचाप वैसे ही बैठी रही जैसे घर में सत्यनारायण की कथा करवाते बैठी रहती थीं। लड़की अनवरत बोलती जा रही थी।

''भगवान परशुराम का अत्याचारी संसरबाहु से यहीं युद्ध हुआ था। उसी तीर्थ के किनारे जो डूब गया। जहां तुम्हारा घराट था न उसी के ठीक सामने था ऋषि जमदग्नी और रेणुका मां का आश्रम। उनके पास कामधेनु गाय भी थी।’’

दादी को पता ही नहीं चला कि उनकी गाय कब उस लड़की के पीछे खड़ी होकर उसके बालों को चाटने लगी थी।

''संसरबाहु उस गाय को अपनी राजधानी ले जाना चाहता था पर उन्होंने नहीं दी। जब उसने जबरदस्ती की तो वह आसमान में उड़ गई। क्रोध में उसने वहां उत्पात मचाना शुरू कर दिया और तभी माता रेणुका ने अपने पुत्र परशुराम को पुकारा था जिन्होंने आकर उसे मार दिया।’’

''नदी के आर-पार परशुराम जी ने कई गांव और मंदिर बसाए थे जो आज भी मौजूद हैं। कितनी महान थी यह नदी दादी जिसे लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए तवाह कर दिया। उसे मार दिया। जगह-जगह उस पर बांध बनाते रहे। उसके रास्ते रोकते और बदलते रहे। सुरंगों से उसे निकाल कर उसकी दिशाएं बदल दीं। उसे न जाने कितनी मशीनों में पीसा गया। काटा गया। लडफ़ा-तडफ़ा कर मार दिया गया। उसके हाल एक बेसहारा लड़की की तरह कर दिए गए। उससे बार-बार सामुहिक बालात्कार हुए। उसके अंग छिन्न-भिन्न कर दिए गए और नोच-नोच कर फैंक दिए गए। वह जहां से आती थी, बहती थी वे रास्ते अब निर्जन हो गए हैं। एकाकी हो गए हैं। उनमें सूखी रेत और विशाल चट्टानों के अंबार दिखते हैं। लोगों ने उन रास्तों को हथिया लिया है। यहां तक कि नदी किनारे पशुओं, भेड़-बकरियों के जो चरांद थे उनमें अपने कब्जे जमा लिए।’’

कुछ देर वह लड़की खामोश रही। यह खामोशी दादी को बहुत डरावनी लगी। इस अप्रत्याशित भय से दादी का पूरा शरीर कांपने लगा था। गाय उस उजाड़ खेत में बदहवास सी रम्भाने लगी थी। मानो पल भर में कोई प्रलय हो जाएगा। एक सरसरी नज़र लड़की के चेहरे पर दादी ने जब डाली तो थरथरा गई। लड़की का चेहरा खून से सना हुआ था। न जाने कितनी खंरोचे थीं उस सुन्दर चेहने पर मानो किसी भेडि़ए ने अपने खूंखर नाखूनों से उसे नोच-खसोट दिया हो। बाल बेरतीबी से बिखर गए थे। भय से आच्छादित सहमे हुए दादी ने आंखे बंद कर ली।

उन्होंने धीरे-धीरे अपने मन को शांत किया। भीतर के भय को बहुत उत्साह के साथ निकालने का प्रयास किया। आंखे धीरे से खोली तो बगल में झांका। लड़की वहां नहीं थी। उसके बैठने की जगह पर ढेर सारे कई आकृतियों वाले सफेद रंग के नदी के पत्थर थे। कागज की नाव भी वहां नहीं थी। दादी की गाय लड़की की जगह ऐसे सहमी खड़ी थी जैसे उसने अभी अभी किसी बाघ को देखा हो। दादी ने सिर उठा कर बांध की ओर देखा। एक सफेद नाव में बैठी वह बच्ची कहीं दूर उल्टी दिशा में चली जा रही थी। दादी को उसका बिछोह भला नहीं लगा। मानो वह उनका कलेजा काट कर ले जा रही हो। एक आवाज़ उनके कानों में बहुत जोर से आई,

''मैं फिर आउंगी दादी। चिन्ता मत करना। वैसे मैं हमेशा तुम्हारे पास ही तो हूं। तुम्हारे मन में। तुम्हारे घर-आंगन में। घर के भीतर। कोने-कोने में। आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादलों में। वर्षा की बूंदों में और बर्फ के सफेद फाहों में भी। कहां नहीं हूं मैं।’’

दादी को लगा जैसे उस नाव में खड़ी होकर वह अपने नन्हें-नन्हें हाथों को हिलाती जा रही है। टाटा बाई-बाई करती हुई।

*

 

दादी निस्तब्ध सी बैठी रही थी बहुत देर। किसी बुत की तरह। पुन: वही अनगिनत प्रश्न उनके मन में उत्पन्न होने लगे। कौन थी वह लड़की? या कौन है वह शतु? कहां से आती होगी? कहां चली जाती होगी? उसके अम्मा-बापू कौन होंगे? वह अकेली ही है, डरती नहीं होगी? ज़माना कितना खराब है। जिन आतताईयों ने नदी को नहीं छोड़ा उस कमसिन को क्या वे छोड़ देंगे? इन प्रश्नों से डर जाती है दादी। लेकिन दूसरे ही पल कोई उनके बालों को जैसे सहलाने लगता है। पीछे मुड़ कर देखती है। उनकी गाय है जो बालों को चाट रही है। बहुत दिनों बाद दादी अपनी ही गाय के गले बच्चों की तरह लिपट जाती है।

*

 

दादी ने नदी के न जाने कितने रूप-रंग अपने जीवन में देखे थे। उसी लड़की की तरह। वह जानती थी कि नदी वर्ष भर में दो एक बार ही भयंकर रूप लेती थी। एक उस समय जब हिमालय में बर्फ पिघलती और दूसरा तब जब बरसातें होती और असंख्य सहायक छोटी-छोटी नदियां और नाले पहाड़ों और घाटियों के शिखरों से उसमें आकर मिल जाते। उसकी निर्मलता गायब हो जाती। दादी के घराट के आंगन तक वह कूदती उपद्रव करती आती। जब वह अप्रसन्न, अक्रोशित, उच्चंड और क्षुब्ध होती तो उसकी क्रोधान्विति भयंकर उत्पात मचाती। उसका आमर्श सांतवे आसमान पर होता। उसके इस क्रोधोन्माद के लिए कोई और नहीं आजका मानव दोषी था जो उसे तरह-तरह से अपने स्वार्थ के लिए यातनाएं दिया करता। उसके तटबन्धों को तोड़ता जाता।

दादी सुनमा सोचती रहती कि लोगों को क्या हो गया है कि वे प्रकृति को ही लीलने के लिए हमेशा आतुर है। जल, जंगल और ज़मीन को नष्ट करने के लिए आमादा है। लोगों की धर्मशीलता, खुदायी, इनसानियत और साधुशीलता कहां गायब हो गई। उनकी आंखें शायद अपने-अपने स्वार्थों और जातिगत असमानताओं ने अदीप्त, निस्तेज, अस्वच्छ और धुमैली कर दी है जिस वजह से वे लोग अपने भीतर तिल-तिल मरते आदमी का अग्निवाह भी नहीं देख पाते। मनुष्य क्यों अपनी अनुतेजना, आत्मनियंत्रण, पक्कापन और अविकार खोता चला जा रहा है। उसकी दिनोदिन बढ़ती अकुलाहट, अशांति और खलबली न जाने किस विनाश की ओर ले जा रही है। न जाने क्यों वह अपने नंगेपन को नहीं देख पा रहा है। अनाभूषित, अश्लील, निर्लज्ज और कंगाल सा वह जिंदा रह भी कहां गया है, एक मृत ठूंठ जैसा पल-पल झरझरा रहा है। फिर भी उसे ये सब कहां दिखता है?

दादी सुनमा मनन करती है कि वह नदी अकेली नहीं है जिसका वर्चस्व, स्वतन्त्रता और अल्लहड़पन छीना गया है। अनगिनत हैं उसकी बहने जो इस पुरूषत्ववादिता की शिकार हुई है। कोई सुरक्षित नहीं है... न यमुना, कावेरी, कृष्णा न गंगा, गोदावरी, गोमती और राप्ती। न करतोया, कोसी, चन्द्रभागा, स्पिति और न चंबल, चिनाव, झेलम और ब्रहम्हपुत्री। महानदी, शिप्रा, नर्मदा और दामोदरा भी कहां जीवित रही है। वध कर दिए गए हैं सभी के। सरयु, सिंधु और सोन सभी घुट घुट कर मर रही है। लडफ़ रही है। गायब कर दी गई है। प्रदूषित हुए वे सांसे कहां ले पा रही है। अब शायद कोई बाणासुर जैसा योद्धा बलशाली नहीं आएगा जो सतलुज जैसी किसी नदी को ईश्वर से मांग कर ले आएगा।

यह सोचते हुए दादी सुनमा अपने आप से ही बड़बड़ाने लगती है। सुनती है तो दीवारें। या वह निर्जीव सा धान का खेत। भीतर का अकेलापन। सन्नाटा जैसे यह दुनिया अंतकों की है। विध्वंसकों की है। नाशकर्ताओं की है। संहारकों की है। अंतकरों की है जिनके खतरनाक, घातक, तबाहकुन और राक्षसी मनसूबे न किसी शतद्रु, यमुना और गंगा को बख्शेंगे और न किसी निर्भया और गुडिय़ा जेसी बेटियों को। वे न किसी ईश्वर से डरते हैं और न किसी कानून से। उनके पास स्वार्थ, असंवेदनहीनता और अमानवता के इतने नृशंस और क्रूर औजार हैं, जो प्रकृति और सृष्टि के मान-सम्मान व उसके अस्तित्व को निरन्तर तवाह करने में अग्रसर हैं। वे नदियों के प्रवाह रोक सकते हैं। उनकी गति को अवरूद्ध कर सकते हैं। जंगलों को उजाड़ सकते है। विरोध में उठती जबानों को काट सकते हैं। यह अपध्वंस और नेस्तनाबूदी खतरनाक है।

बांध के भीतर जैसे नदी मृतप्राय: सी थी। वेगहीन। दादी को वह अत्यंत भयभीत लगती थी। डरी सहमी हुई सी। आतंकित और आकुल लगती। उसकी उद्विग्नता और कंपकपाहट दादी को भीतर तक अशांत कर देती। नदी खुद भी अशांत ही तो थी। हवा के वेग जब पानी की सतहों पर दौड़ते तो नदी की थरथराहट और कंपकपाहट कलेजा चीर देता था। जड़ीभूत वह स्वतन्त्र होना चाहती थी। बन्धनमुक्त होना चाहती थी। दादी सुनमा से उसका संत्रास देखा नहीं जाता था।

दादी सुनमा जानती है नदी की तरह उसकी मौत अभिनिश्चित है। अटल है। अनुबंधित और सुनिर्धारित है। वैसे भी वह और नदी या तमाम दुनिया अकरूण, अमोही, कसाई, जल्लाद, निष्ठुर, निर्मम, पत्थरदिल और पाशविक लोगों से घिरी है। कितने निर्धन है, कमजोर है, जरूरतमंद है, असंपन्न है जिनकी पुकार कहीं नहीं पहुंचती। बांध के दरवाजे खुलने के बाद का जो भयंकर शोर उठता है, मशीनों के बीच नदीजल के पीसने की जो अथाह वेदानापूर्ण चित्कारें उठती हैं, उनकी फरियादें, अनुनय, भूखी पुकारें उसी में समाहित होकर मर जाती है।

पहाड़ों और नदियों के साथ जो नृशंसता, लूटपात, छीनाछपटी, जोराजोरी, नोचखसोट और अराजकता हो रही है, दादी और अन्य आमजन का विस्थापन इसी का फल है। हर तरफ कम्पनियों के लोग यमदूतों की तरह जल, जंगल और ज़मीन के मालिकों के डेथ वारंट लिए घूमते नजर आते हैं। उनके लिए आदमी, आदमी नहीं है। जीवन, जीवन नहीं है। सांसे, सांसे नहीं है। जीना, जीना नहीं है। रहना-बसना कुछ भी नहीं है। अपने मुनाफे के लिए वे कोई भी, कैसा भी नरसंहार कर सकते हैं। सरकार ने ज़मीन, जंगल और नदियां उन्हें उपहार में क्या दे दी दी है जैसे लोगों की सांसे भी उन्हें ही बेच दी हैं। गिनो जब तक गिन सको। बचो जब तक बचा जा सकता है। जीओ जब तक जी सकते हो। विस्थापन तो निश्चित है। मृत्यु की तरह ही।

दादी सुनमा को हमेशा लगता कि नदी उनसे अनुनय कर रही है कि उसे दानवीय और आततायी अमानुषों की कैद से आजाद करवा दें। पर नदी की अभियाचना उन बूढ़ी आंखों में आंसूओं की बूंदे बन कर रह जाती। भीतर की अकुलाहट और बेचैनी उन्हें यह सोचने पर विवश कर देती कि क्यों न बांध में कूद कर अपनी जान दे दे। तभी दादी को लगता कि वह लड़की उनकी गोदी में अपना दो गुतों वाला सिर रख कर सोई हुई है। वह उसके रेशमी काले बालों को अपनी उंगलियों के पोरों से सहलाने लगती और अचानक दादी के भीतर का अवसाद और तडफ़ कम हो जाती। अपनी पूर्व सोच पर पश्चाताप होने लगता कि क्या उनके इतने बुरे दिन आ गए हैं कि वह उसी बांध में डूब कर अन्यायपूर्ण मौत मरे जिसनेे उस नदी को छीन लिया है...? उनका साहस लौटने लगता। गोदी में सोई लड़की उनकी कमर में अपने हाथों के अनुबंधों को जोर से कस लेती.......दादी सुनमा सरकार और कम्पनी के लिए उस वक़्त जितने भी अपशब्द, दुर्वचन, कटुभाषा का प्रयोग कर सकती थी करती रहती। इस दुरालाप को बच्ची धीरे-धीरे अपने नन्हें हृदय में जैसे आत्मसात कर लेती और उन्हें सामान्यता की ओर ले जाती। फिर वह नदी दादी के भीतर आहिस्ता-आहिस्ता और बेहद अतिशयता के साथ पुन: बहने लगती।

*

 

दादी सुनमा ने अपने सोने के कमरे में बहुत पहले रंगीन टीवी लगा लिया था और साथ ही केबल का कनैक्शन भी लिया था। वही उनका साथ था। अकेले का सहारा था। वह देर रात तक उस पर चैनल बदल-बदल कर समाचार देखती रहती थी। सीरियल दादी ज्यादा नहीं देखती। केवल रामायण और महाभारत उनके बहु पसंदीदा थे जो उनके हृदय में उस नदी की तरह बस गए थे। इन दिनों ये दोनों सिरियल दोबारा शुरू हो गए थे। इनका शुरू होना मात्र संयोग नहीं था। यह सरकार की बहुत सोची-समझी योजना का हिस्सा था। दादी को समाचारों से ही पता लगा था कि देश में किसी खतरनाक महामारी ने दस्तक दे दी है जिसकी वजह से पूरे देश को बंद कर दिया गया है। खबरें थीं कि विदेशों में इस बीमारी ने हजारों-लाखों लोग बीमार कर दिए हैं और बहुत सी मौते हो रही हैं। दादी बहुत ध्यान से इन समाचारों को सुनती और देखती रही थी। उन्हें स्मरण नहीं है कि अपने अस्सी पार जीवन में कभी ऐसा बुरा समय देखा होगा। फिर भी शहरों की अपेक्षा गांव का माहौल और वातावरण खुशगवार तो था लेकिन एक भय हर तरफ पसर गया था।

एक दिन जब गांव का प्रधान कुछ पंचायत के सदस्यों के साथ उनके गांव आया तो दादी सुनमा को जरूर यह अहसास हुआ था कि इस खतरनाक महामारी ने गांव भी प्रभावित कर लिए हैं। उनके साथ स्वास्थ्य विभाग के कुछ कर्मचारी भी थे जो बहुत सी बातों की छान-बीन कर रहे थे। इनमें इस बात पर ज्यादा जोर था कि गांव में कोई बाहर से तो नहीं आया है या किसी को बुखार, खांसी या सर्दी-जुखाम तो नहीं है। उनको यह भी समझाया गया कि अब वे कहीं इधर-उधर न जाए। उनका इस बात पर अधिक जोर था कि साठ व सहत्तर पार बुजुर्गों के लिए घर से निकलना खतरे से खाली नहीं है। प्रधान ने दादी को कपड़े के दो मास्क अर्थात मुंहबंद भी दिए थे जिनको पहन कर दादी घर से बाहर छोटे-मोटे कामकाज के लिए निकल सकती थी। दादी ने जब उन्हें ध्यान से देखा तो टीवी पर देखे समाचार व लोग याद आ गए जो अब ऐसे ही मुंहबंद पहने हुए रहते थे। दादी सुनमा के लिए मौत से अब भय नहीं लगता था। क्योंकि वह जानती थी कि अब उनका जीवन आखरी पड़ाव पर है जहां खोने और पाने को कुछ भी नहीं है। मात्र एक बूढ़ी गाय है जिसें दादी जैसे-कैसे भी पाल लेगी।

बांध निर्माण के बाद दादी ने जिस दोघरी में रहना शुरू किया था उसे और उस उजाड़ खेत के बीच से सड़क गुजरती थी जहां दिन भर बसों और छोटे वाहनों की आवाजाही लगी रहती थी। परन्तु जब पहला देशबंद हुआ तो सड़क खाली हो गई। गाड़ी तो क्या कोई आदमी भी अब चलता नजऱ नहीं आ रहा था। बंद से पहले शहरों में नौकरी-पेशा गांव के लोग अपने बच्चों के साथ गांव आ गए थे जिससे वहां की चहल-पहल बढ़ गई थी। दादी देख रही थी कि लोग अब अपने खेतों और घासणियों में काम करने लगे हैं। जिन खेतों की तरफ कोई मुड़ कर भी नहीं देखा करता अब दिन भर उनकी झाडिय़ों की कटाई और सफाई होने लगी है। सुनसान आंगन परिवारों से भरे रहते हैं।

दादी ने कुदरत में भी कई बदलाव महसूस किए थे। क्योंकि उनको रोज अपने खेत में उस गाय को चराने लाना होता था इसलिए पहला बड़ा बदलाव जो उन्होंने देखा वह बांध की झील में था। वह नदी के निर्मल पानी जैसी नीली साफ हो गई थी जिनमें तैरती मछलियां गिनी जा सकती थी। आर-पार धारों पर जो घनी धुन्ध व कोहरा हर वक्त जमा रहता था वह छंट गया था जिससे दूरपार की बर्फीली चोटियां बहुत सुन्दर दिखने लगी थी। सड़क के चारों ओर जो डीजल और पैट्रौल का धुआं भरा रहता था अब नदारद था। कई बरसों बाद दादी ने झील के किनारे प्रवासी पंछियों के घने समूह देखे थे जो पहले नदी के पाटों पर बसेरा डालने आया करते। परन्तु बांध बनने के बाद उन्होंने वहां आना छोड़ दिया था। यही नहीं बहुत से छोटे-बड़े पंछी भी डालियों और खेतों में चहचाते बहुत भले लगते थे। दादी सुनमा के लिए ये सारे बदलाव अप्रत्याशित तो थे लेकिन उनका सोचना अब पूरी तरह सही होने लगा था कि इस प्रकृति को हम मनुष्यों ने बर्वाद कर दिया है। उस नदी ही की तरह जिसका आज नामोनिंशा कहीं नजर नहीं आता। मनुष्य के बिना सचमुच यह दुनिया कितनी सुन्दर लगती है...?

*

 

दादी सुनमा इन दिनों समाचारों में मन को विचलित कर देने वाली खबरें देखने-सुनने लगी थीं। दुनिया को किसी बेहद खतरनाक महामारी ने ग्रसित कर लिया था। उसके सिवा कोई दूसरे समाचार अब नहीं आते थे। जगह-जगह से वही सुनने को मिल रहा था कि आज कितनी मौते हुईं और कितने लोग इसके शिकार हो गए। दादी देख रही थी कि इस छूत की महामारी ने आदमी को आदमी से कितना दूर कर दिया है। अपने ही घरों में कैद कर लिया है। चारों तरफ अवसाद और भय का माहौल बनता जा रहा है। आदमी अपने हाथों और घर से ही डरने लगा है। शुरूआत में 21 दिनों का जो बंद लगाया गया था उसने बहुत उम्मीदें जगाई थीं। इसी बीच जब एक दिन ताली थाली बजाने का फरमान दादी ने समाचारों में सुना तो उस रात उन्होंने भी अपने घर के आंगन में खड़े होकर कांसे की थाली बजाई थी। घर-घर से ऐसी ही आवाजें आ रही थीं।

परन्तु जब दूसरी बार का बंद घोषित हुआ तो अचानक दादी ने टी.वी. पर देश के कोने-कोने में असंख्य लोगों की भीड़ उमड़ती देखी जो अपने सामान, बच्चों, औरतों और बूढ़े परिजनों के साथ सड़कों पर अपने-अपने घर जाने को बेचैन और बेताब थे। ख़बरों में बताया जा रहा था कि बहुत से मजदूर तो मीलों लम्बा सफर पैदल ही तय कर रहे हैं। उन्हें जगह-जगह पुलिस के डंडे खाने पड़ रहे हैं। उनके पास अब खाने और कमाने को कुछ भी नहीं बचा है। वे महामारी के बजाए अब भूख से मरने को विवश हैं। सरकारें बहुत दावे कर रही हैं कि उनके लिए राशन-पानी सब मौजूद है, दिया जा रहा है पर मजदूरों की कथा-कहानियां विचलित कर दे रही हैं। उनके पास घर जाने के लिए भी पैसे नहीं। उन्हें जैसे मरने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया हो। दादी उस रात इन समाचारों को सुन-देख कर बिल्कुल भी सो नहीं पाई थी। उन्हें उस लड़की की बहुत याद आ रही थी जो कई दिनों से कहीं दिखाई नहीं दी थी। उनका मन अनगिनत आशंकाओं से भर गया था कि कहीं नदी की तरह ही तो उसके साथ कुछ बुरा नहीं घट गया होगा। परन्तु उन्हें यह विश्वास जरूर हो गया था कि वह कोई साधारण लड़की नहीं है।

आज दादी सुनमा जब गाय लेकर सड़क में पहुंची तो उन्होंने एक लम्बी कतार लोगों की अपनी ओर आते देखी। उनके मुंह में मुंहबंद लगे थे। सामान के साथ किसी के कन्धे पर बच्चा था तो किसी ने अपने बूढ़े परिजन को पीठ पर उठा रखा था। दादी एक जगह खड़ी हो गई। जैसे-जैसे वह लोग नजदीक आने लगे दादी को समझते देर नहीं लगी कि वे भी मजदूर ही होंगे। सड़कों पर चलती इसी तरह की लम्बी कतारें उन्होंने पिछली रात टीवी पर भी देखी थीं।

उनके चेहरे भयंकर अवसाद और भय से सने हुए थे। चलते हुए वे ऐसे लग रहे थे मानो अपने को जबरदस्ती घसीट रहे हों। ओंठ सूखे हुए और शरीर बिल्कुल थका हुआ था। भीतर धंसतते हुए पेट और आंखें उनकी लाचारी और भूखेपन की शिकायतें कर रही थीं। यह सब देखकर दादी भीतर तक दहल गई थीं। जैसे नदी के मर जाने की वे छिपी वेदनाएं एकाएक उमड़ पड़ी हो। अचानक उस लड़की की कही बातें याद आने लगीं। मजदूरों का वह झुण्ड जैसे ही उनके पास पहुंचा दादी ने उसे रोक दिया। सबसे आगे जो आदमी था वह उनका शायद मुखिया था। उसकी पीठ पर एक बेबस बूढ़ी औरत थी। दादी ने गाय को एक तरफ हांका और उनके रास्ते खड़ी होकर पूछने लगी थी,

''भई किधर से आ रहे हो तुम लोग..?’’

उसने एक सरसरी नजर दादी पर डाली। सोचा होगा कि इस बूढ़ी औरत को बताने का क्या लाभ? जैसे ही कदम आगे बढ़ाए दादी बहुत विनम्रता से कहने लगी थी,

''देखो, तुम्हारा मुंह और चाल बता रही है कि तुम बहुत दूर चल कर आए हो और भूखे भी हो। मुझे बताओ मैं तुम लोगों के लिए क्या कर सकती हूं..?

यह सुनकर उसके पांव ठिठक गए। इस आश्वासन ने पीछे चल रहे साथियों को भी रोक दिया था। उनकी सूनी आंखों में अचानक एक उम्मीद की चमक पसर गई। टूटे-बिखरे शब्दों में वह बताने लगा था,

''मालिक हम कई किलोमीटर दूर पैदल चल कर यहां पहुंचे हैं। हम सब जम्मू के रहने वाले हैं और बांध वाली कम्पनी में काम करते थे। लॉकडाउन के बाद कम्पनी ने काम बंद कर दिया और हमें नौकरी से निकाल दिया। हमारे पास जो पैसा और राशन था वह एक ही महीने में खत्म हो गया। किसी ने हमारी मदद नहीं की। हमने बहुत कोशिश की पर कुछ नहीं हुआ। कम्पनी वालों से बहुत गुहार लगाई कि हमें अपने घर भेज दो। कोई गाड़ी बस कर दो लेकिन सभी ने हाथ खड़े कर दिए। इसलिए हम पैदल ही चल पड़े। कुछ रोटी बिस्कुट थे जो भी अब खत्म हो गए हैं।’’

यह कहते-कहते वह फूटफूट कर रो दिया। उसी तरह की सिसकियां पीछे से भी सुनाई देने लगी। दो-चार छोटे-छोटे बच्चे पता नहीं कब दादी की टांगों में चिपट गए थे जो निरीह व भूखी आंखों से उनके चेहरे की ओर ही देख रहे थे। उस मजदूर ने न जाने किस आस में अपनी पीठ पर उठाई बूढंी मां को उतार कर सड़क पर लगे पैराफिट पर बिठा दिया था। दादी ने एक नज़र उसकी तरफ  दी तो जैसे कलेजा मुंह हो आ गया। वह औरत के बजाए फटे-पुराने चिथड़ों की एक गठरी भर लग रही थी। काले-सफेद बालों के बीच उसकी आंखे और मुंह जैसे नदारद थे।

''देखो तुम रोओ नहीं। घबराओ भी नहीं। मेरे साथ चलो। मेरा घर सड़क से थोड़ा ऊपर है। पहले कुछ खा-पी लो फिर और बातें करेंगे।’’

''मालिक हम बहुत हैं। उन्नीस लोग हैं बच्चों समेत।’’ उसने पीछे मुड़कर खड़े लोगों की तरफ इशारा किया।

''तो फिर क्या हुआ? तुम लोग पच्चास भी होते तो सभी को रोटी खिलाती मैं।’’

यह सुन कर पैराफिट पर बैठी बूढ़ी औरत ने कब उठ कर दादी का हाथ पकड़ लिया था पता ही नहीं चला। कुछ देर पहले जिन आंखों और चेहरों पर भूख और मीलों पैदल चलने की बेबसी थी, रोटी की आस में वे जैसे कहीं गुम हो गई थी। आस या सांत्वना भी थमी हुई जीवन-गति को पंख लगा देती है। दादी ने सड़के के किनारे चरती गाय को वापिस घर की ओर हांक दिया। पीछे-पीछे सभी मजदूर भी चल पड़े। चलते हुए दादी सुनमा ने कई बाद जेब में रखी अपनी पासबुक को छुआ। दादी हमेशा उसे अपने कुरते की जेब में ही रखे रहती थी। तभी लड़की की बात याद आ गई थीं, ''संभाल कर रखना दादी इन पैसों को। लाखों में हैं न। बहुत भली जगह लगेंगे तुम्हारे ये पैसे। बहुत पुण्य कमाओगी तुम।’’

अकेली दादी की दोघरी उन्नीस लोगों से भर गई थी। आज पुराना घर काम आ गया। उसके चार कमरे थे और बाहर की तरफ खुला बरामदा। एक रसोई भी थी उसमें। दादी ने नए घर के भीतर से पांच-सात खजूर की मंजरियां निकालीं और बरामदे में बिछा कर सभी को वहां बिठा दिया। उन में से दो मजदूरों को साथ लेकर उन्हें पानी का घड़ा, सात-आठ गिलास और एक लोटा थमा दिया। खुद सभी को चाय बनाने लग पड़ी थी। चाय के साथ कुछ देने-खाने को नहीं था। उन्हें याद आया कि पिछली फसल पर एक बोरी भूनी हुई साबुत मक्कियों की सत्तु के लिए रखी है। झटपट उसे निकाला और उन लोगों को दे दिया।

दादी ने पुराने घर की रसोई खोल दी थी और उसी के चूल्हे में आग जला कर चावल, आटा और दाल मजदूरों को सौंप दिए थे ताकि वे खुद अब खाना बना सके। साथ ही समझाया भी कि उनका पैदल जाना खतरे से खाली नहीं है। जब समा अच्छा हो जाएगा वे जहां चाहे जा सकते हैं। यहां जब तक रहना चाहें रह सकते हैं। अभी काम नहीं है तो कोई बात नहीं। उन्होंने चाय पिलाने के बाद दो चार मजदूरों को अपने साथ लिया और राशन की दुकान पर चली गईं। एक साथ महीने भर का राशन डलवाकर वापिस घर लौटी थी। दुकानदार और कुछ लोग जो वहां बैठे थे दादी की इस दरियादिली पर हैरान रह गए।

जब राशन लेकर दादी आंगन में पहुंची तो सारे मजदूर वहां हाथ जोड़ कर जैसे उनके स्वागत के लिए खड़े थे। सभी को अब भरोसा हो गया था कि वे बेमौत नहीं मरेंगे। उन्होंने दादी को घेर लिया था और बारी-बारी आभार स्वरूप उनके पांव छूने लगे थे। छोटे-छोटे बच्चों ने भी ऐसा ही किया। इस दृश्य और गज़ब के स्नेह तथा आदर ने दादी को रूला दिया था। तभी एक अधेड़ उम्र का मजदूर हाथ जोड़ कर उनके सामने खड़ा हो गया। दादी ने जब उसके चेहरे की तरफ देखा तो लगा वह कुछ कहना चाह रहा है पर संकोचवश कह नहीं पा रहा है। यही हालत औरों की भी थी। बहुत हिम्मत जुटा कर उसने कहना शुरू किया था,

''मालिक........।’’

इस पर बार दादी ने टोक दिया था,

''देखो तुम मेरे को मालिक न कहा करो। मैं कोई मालिक-वालिक नहीं। तुम्हारी जैसी आदमी हूं। वह तो ऊपर है जो सब का मालिक है।’’

दादी ने आसमान की ओर सर उठा कर दोनों हाथ से नमस्कार किया था।

फिर कहने लगी थी...,

''मैं तुम सब की दादी हूं दादी। दादी बोला करो मुझे।’’

सुनकर सभी के चेहरों पर हल्की मुस्कान आ गई थी।

वे अभी भी वैसी ही मुद्रा में खड़े कुछ और भी कहना चाहते थे।

''कुछ और बात है तो बोलो।’’

दादी ने पूछा था।

वही मजदूर कहने लगा था।

''मालिक... नहीं...नहीं... दादी जी। हम इतने लोग हैं। हमारे पास पैसे भी नहीं है। हमको अच्छा नहीं लग रहा है कि आप इतना कुछ हमको करो। हम जैसे कैसे चले जाएंगे। जो किसमत में होगा देखा जाएगा।’’

दादी सुनमा को उनका यह अख़लाक़, पाकीज़गी और सदव्यवहार भीतर तक छू गया। वह अब थोड़ा डांट-अधिकार से कहने लगी थी,

''सब चुपचाप बरांदे में चले जाओ। तुम अब मेरा परिवार हो। जब हालत सुधर जाएंगे, चले जाना। मेरा है भी कौन। तुम सब आ गए एक भरा पूरा परिवार हो गया। मैं जानती हूं तुम लोग मेहनत की कमाने-खाने वाले हो। पर अभी टाइम अच्छा नहीं है। मैं तुमको मुफ्त थोड़े ही खिलाउंगी। खूब काम करवाऊंगी और मजदूरी भी दूंगी। तुम लोगों से जो बन सके करते रहना। मेरी इतनी जगह-ज़मीन अभी है, उसे ठीक करो। साथ गांव में यदि कोई काम मिलता है तो वहां ध्याड़ी लगाओ। मैं भी प्रधान को बोलूंगी। कुछ न कुछ काम तो मिलेगा ही। गांव में कोई परेशानी नहीं है अभी।’’

काम के नाम से उन सभी के चेहरे खिल गए थे। अब उनका आत्मसम्मान भी बच गया, काम और आश्रय भी मिल गया था। उन में से एक मजदूर औरत जो देखने में बहुत भली और सुन्दर थी, बहुत धीरे से कहने लगी,

''दादी हम वापिस कम्पनी में नहीं जाएंगे। हमने अपना खून पसीना उनके लिए बहाया। रात दिन खूब काम किया परन्तु आज जब बुरा वक़्त आया तो उन्होंने नौकरी से निकाल दिया। वेतन भी नहीं दिया। बोले अभी पैसा नहीं है न रहने की जगह है। जब बंद खुलेगा फिर आना। अब आप बताओ हम कहां जाते। पहले सोचा बांध के पानी में डूब कर जान दे दें। फिर हिम्मत जोड़ी कि कुछ भी हो, जैसे-कैसे अपने घर निकल जाएंगे। और सरकार का भी कोई आदमी उधर नहीं आया। हमने फोन भी किए पर आश्वासनों के सिवा कुछ नहीं मिला।’’

कम्पनी का नाम सुनते ही दादी के भीतर की नदी अचानक जाग गई थी। वेदनाएं और तडफ़ उनकी आंखों में साफ दिखने लगीं। उनका चेहरा गुस्से में लाल हो गया था। मजदूरों ने जब उनके चेहरे पर नज़र डाली तो कुछ पल के लिए घबरा गए। कारण कतई समझ नहीं आया उनको। आता भी कैसे, वह नदी और दादी सुनमा के बीच की गूढ़ बातें जो थीं। अचानक दादी को क्या हो गया है। वे नहीं जानते थे कि सरकार और कम्पनी के नाम से उन्हें कितनी चिढ़ थी। उन मजदूरों की तरह ही उन्हें भी अपनी ही ज़मीन, घर और घराट से बेदखल होना पड़ा था। यह तो ईश्वर का वे शुक्र मनाती थी कि उनके पास दोघरी थी। ज़मीन थी। अन्यथा वह इस बुढ़ापे में कहां जाती। कितने ही गांव के ऐसे लोग थे जिनके तमाम घर, ज़मीन और ज़ायदाद डूब में चली गई थी। पैसा तो मिला पर बेदखली के दंस झेलते न जाने वे कहां-कहां चले गए थे। बस गए थे। उजाड़ के दर्द एक जैसे होते हैं। वह चाहे कम्पनी या नौकरी से हो या अपनी ज़मीन से। पैसा उनकी भरपाई नहीं कर सकता था। दूसरे कम्पनी की वजह से ही उनकी प्यारी नदी आज खत्म हो गई थी। आखिर विस्थापन या विलगाव का दर्द उनसे ज्यादा कौन जान सकता था। इन्हीं वेदनाओं ने दादी सुनमा को मजदूरों के मन से जोड़ लिया था।

बहुत गुस्से में उन्होंने कहा था,

''तुम लोगों को उनके पास जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं जब तक ज़िन्दा हूं तुम सब यहीं रहोगे। यहीं काम करोगे। मैं समझती हूं तुम लोग बिना काम-धन्धों के बैठ नहीं सकते। किसी का एहसान लेना या मुफ्त का खाना तुमको पसन्द नहीं। मेहनत से खाने-कमाने की जो आदत है। अपने-अपने घर फोन से बोल दो कि तुम सब बहुत अच्छे से हो। मेरे पास गौशाला है। एक गाय है। जहां सड़क पर तुम मिले थे वहां देखना कई गाए और बैल सोए रहते हैं। उनके मालिकों ने उन्हें भी अपने घरों से बेदखल कर दिया है। उजाड़ दिया है। वे बेजुबान बेचारे लौटने के लिए दिन-रात रंभाते रहते हैं। कितना अत्याचार हो रहा है इस दुनिया में और शायद इसी लिए आज लोग घरों में बंद है। उनके पास सबकुछ है। बंगले, गाडिय़ां, धन, दौलत सब कुछ, पर देखो तो इस बीमारी की कोई दवा नहीं है। आज पैसा किसी काम नहीं आ रहा। यह कुदरत का इंसाफ ही तो है। जैसा बोओगे वैसा ही खाओगे और भोगोगे। कोई नहीं बचेगा कुदरत की मार से।''

दादी को वह लड़की शतु फिर याद आ गई थी। कहती थी, ''दादी! बहुत बुरा वक़्त आएगा, देखना तुम।’’ वह वक़्त आज आ गया है। वह यह भी कहती थी, ''तुम इन पैसों को संभाल कर रखना, किसी बड़े पुण्य में लगाना।’’ सच कहती थी वह। आज पुण्य में ही लग रहे हैं। भगवान का दिया मौका है। मेरा क्या है इसमें। जो है उसी मालिक का है।’’

अब दादी को घर का कुछ भी काम नहीं करना पड़ता था। रोटी भी बनी बनाई मिलती थी। गाय भी अब ज्यादा चल फिर नहीं सकती थी। उसे मजदूरने खूंटे पर ही घास पानी दे दिया करतीं। उसके साथ के लिए गौशाला में अब कई और पशु भी आ गए थे जिन्हें मजदूरों ने सड़क से लाया था। दादी की दोघरी जैसे पूरे एक गांव में बसने लगी थी।

*

 

 रात के खाने के बाद दो चार मजदूर और उनकी औरतें दादी के कमरे में टेलीवीजन देखने आ जाया करते थे। आज भी दादी के साथ सभी टीवी देखने बैठ गए थे। अब ज्यादा खबरें मजदूरों के पलायन और उनके पैदल चलने की ही आने लगी थी। जैसे पूरा देश ही सड़कों पर आ गया था। आज देश के बड़े नेता का भाषण होना था। वह जैसे ही शुरू हुआ सभी चुपचाप उसको सुनने लगे। उसने बहुत कुछ बातें की जो ज्यादा दादी की समझ में नहीं आई। फिर बड़े विश्वास के साथ वह कहने लगा,

''भाईयो बहनों और विशेषकर मेरे मजदूर साथियों। बहुत दु:ख से कहना पड़ रहा है कि आप घर जाने की जल्दी में हैं और सड़कों पर आ गए हैं। लेकिन जैसा मैंने पहले कहा था कि आप जहां है वहीं रहिए। आपको अपनी जगह ही सबकुछ मिलेगा। कोई आपसे किराया नहीं लेगा। आपकी तनख्वाह भी काटी नहीं जाएगी। आप सभी को राशन-पानी आपकी जगह मिलेगा। मेरी सरकार ने सभी के लिए बढिय़ा प्रबंध किए हैं।''

दादी यह सुनकर ऐसे उठी मानो उन्हें बिच्छु ने काट खाया हो। पास बैठे मजदूर भी चौंके थे। वह जैसे आक्रोश में चीख ही गई थी,

''हरामी झूठ बोलता है।’’

...और यह कहते हुए दादी ने टेलीवीजन पर ही उसके मुंह पर थूक दिया था। भीतर बैठे मजदूरों ने एक दूसरे का मुंह देखा और बात समझते हुए उन्होंने भी ऐसा ही किया था। उनके चेहरे भी इस झूठ से तमतमाने लगे थे। दादी ने झटके से टेलीवीजन की तार खींची और उसको बंद कर दिया। पता नहीं क्या हुआ, उस नेता की धुंधली सी आकृति अभी भी टीवी स्क्रीन पर चिपकी हुई थी जो थूक से लथपथ हो गई थी।

दादी सुनमा शेर की मानिंद छाती ताने बाहर निकली। उन्हें ऐसा लगा जैसे बरसों से छाती पर रखा घराट का पूड़ किसी ने उतार दिया हो। वह घर के पिछवाड़े चली आई जहां आम के पेड़ के नीचे से बांध दिखाई देता था। अब वह बिल्कुल सहज और शांत थी। नजऱ झील के बीच पड़ी। पूर्णिमा का चांद जैसे उसके भीतर उतर आया था। दादी की आंखें उस पर स्थिर हो गई। वह धीरे-धीरे एक कागज़ की नाव में परिवर्तित होने लगा। उस नाव में शतु बैठी खिलखिला रही थी। वह हंसी पहले पूरे बांध के पानी पर बिखरी और फिर आम के पेड़ और उसके पत्तों पर ओस की बूंदो जैसी ठहर गई। बहुत धीरे जब वह दादी के कानों से मन में उतरी तो एक मीटी मीठी टीस महसूस हुई। दादी ने देखा वह नाव चलने लगी है और वह लड़की दादी सुनमा को हाथ हिला कर टाटा, बाई बाई कर रही है।

बहुत दिनों बाद उनका मन हुआ कि क्यों न भीतर जा कर एक बीड़ी सुलगा कर पी ली जाए।

 

 

 

हरनोट शिमला हिमाचल से आते हैं। लंबी रचना यात्रा और स्थानीय उपेक्षाओं के मध्य लंबा संघर्ष किया। हिमाचल की संस्कृति और मंदिरों पर क़िताब। एक संकलन अंग्रेजी में भी। पहल में कई कहानियां प्रकाशित।

 


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