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जून - जुलाई : 2020

महामारी, मानव और मशीन: यह राह कहाँ जाती है ?

स्कंद शुक्ल

शुरुवात/दो

विज्ञान/प्रबोधन

 

 

 

दिसम्बर 31, 2019। जब पूरी दुनिया नववर्ष सन् 2020 के स्वागत में डूबी 2019 को विदा कर रही है, तभी विश्व-स्वास्थ्य-संगठन को चीन के वूहान शहर में एक अज्ञात न्यूमोनिया की सूचना मिलती है। उस दिन से आज के समय तक लगभग छह महीनों में बहुत कुछ घट गया है। कोविड-19-पैंडेमिक ने संसार-भर को बदल कर रख दिया है।

पैंडेमिक उन महामारियों को कहा जाता है , जो वैश्विक होती हैं। वर्तमान कोविड-19 यानी कोरोनावायरस-डिज़ीज़ के मूल में एक विषाणु है, जिसको सार्स-सीओवी 2 नाम दिया गया है। मानव-समाज को संक्रमित करने वाला यह पहला कोरोनावायरस नहीं है, बल्कि इससे पहले छह कोरोनावायरस हमारे बीच समय-समय पर संक्रमण पैदा करते रहे हैं। इनमें से चार कोरोनावायरस-प्रजातियों से होने मामूली ज़ुकाम के लक्षण उत्पन्न करते हैं। पांचवां सार्स-सीओवी का पता हमें सन् 2002 में चला और छठें मर्स-सीओवी का सन् 2013 में। पिछले चार मामूली कोरोना विषाणुओं की तरह सार्स-सीओवी और मर्स-सीओवी मामूली लक्षण नहीं पैदा करते, इनके कारण व्यक्ति को गम्भीर न्यूमोनिया हो सकता है, जिससे जान भी जा सकती है।

सातवां और वर्तमान कोरोनाविषाणु कई मायनों में पुराने सार्स-सीओवी से मिलता-जुलता है और अनेक प्रकार से यह उससे भिन्न भी है। किसी कोविड-संक्रमित व्यक्ति के खाँसने-छींकने-थूकने-बोलने से यह विषाणु हवा में नन्ही बूँदों से चिपक कर फैल जाता है और यदि कोई व्यक्ति समीप होता है, तो साँस के रास्ते उसके भीतर प्रवेश कर जाता है। इस नये व्यक्ति की गले व फेफड़ों की कोशिकाओं सार्स-सीओवी 2 के पसन्दीदा स्थान हैं, जहाँ यह कोशिकाओं की सतह पर मौजूद प्रोटीनों से अपनी प्रोटीनों के माध्यम से पहले चिपकता है और फिर कोशिकाओं के भीतर प्रवेश करता है। इतना ही नहीं यदि संक्रमित व्यक्ति के खाँसने-छींकने-थूकने-बोलने से निकली विषाणु-युक्त बूँदें हवा में तैरती हुई किसी वस्तु पर बैठ जाती हैं और दूसरा व्यक्ति इस वस्तु को छू लेता है , तब भी संक्रमण उस नये व्यक्ति तक पहुँच जाता है।

सार्स-सीओवी 2 विषाणु की संरचना एकदम सरल है: एक प्रोटीन-खोल में बन्द एक आरएनए का टुकड़ा। बस। केवल तीस जीन हैं इसके पास, जबकि हमारे पास 25000 हैं। फिर भी यह हमारी कोशिकाओं में प्रवेश करके उन्हीं की सहायता का दोहन करके अपनी प्रतियाँ बनाता है। ढेर सारी प्रतियाँ बनाने के बाद कोशिकाएँ नष्ट हो जाती हैं और नये विषाणु नयी कोशिकाओं की तलाश में निकल जाते हैं। प्रतिरक्षा-तन्त्र तरह-तरह से इस विषाणु मुकाबला करने और इससे संक्रमित कोशिकाओं को नष्ट करने का प्रयास करता भी है, किन्तु ढंग से सफल नहीं होता।

किसी भी संक्रमण में दो बातें महत्त्वपूर्ण होती हैं: पहली उसकी संक्रामकता और दूसरी उसकी मारकता। संक्रामकता को नापने के लिए वैज्ञानिक बेसिक रिप्रोडक्शन नम्बर या आर-ज़ीरो की बात करते हैं। आसपास मौजूद जितने स्वस्थ लोग किसी संक्रमण-रोगी से सीधे संक्रमित होते हैं , वह उस संक्रमण की आर-ज़ीरो संख्या होती है। मसलन खसरे के मामले में आर-ज़ीरो 12-18 है , यानी एक ख़सरे का रोगी खाँसने-छींकने-बोलने-थूकने से आसपास के 12-18 लोगों को सीधे संक्रमित कर सकता है। इबोला के मामले में यह आर-ज़ीरो 2 के आसपास है , यानी कि एक इबोला-रोगी आसपास के दो लोगों में अपना संक्रमण सीधे पहुँचा सकता है। कोविड-19 संक्रमण के मामले में यह आर-ज़ीरो 1.5-3.5 आँकी गयी है।

आर-ज़ीरो जहाँ हमें किसी संक्रमण की संक्रामकता के बारे में तो बता सकती है, पर इससे हमें उस संक्रमण की मारकता पता नहीं चलती। कोई ज़रूरी नहीं जो रोग बहुत संक्रामक हो , वह उतना ही मारक भी हो। कई बार अतिसंक्रामक रोग अल्पमारक हो सकते हैं और अल्पसंक्रामक रोग अतिमारक। रोग का मारकत्व पता करने के लिए हम एक ख़ास अनुपात का प्रयोग करते हैं जिसे केस-फेटलिटी-रेशियो का नाम दिया गया है। मरने वाले लोगों की संख्या को संक्रमित लोगों की संख्या से भाग देकर इसे प्राप्त किया जाता है।

अब समस्या यह है कि मृत्यु की संख्या पाना तो आसान है, पर कुल संक्रमित लोगों की संख्या हमेशा ठीक-ठीक जानी नहीं जा सकती। कोविड-19 के सन्दर्भ में ही संक्रमित लोगों की वास्तविक संख्या जान पाना आसान नहीं रहा है। जब यह विषाणु सार्स-सीओवी 2 मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करता है, तब यह हमेशा लक्षण उत्पन्न नहीं करता। बल्कि जितने लोगों में यह लक्षण उत्पन्न करता है, उससे अनेक गुना लोग इससे संक्रमित होने के बाद लक्षणहीन रह जाते हैं। इन लक्षणहीन लोगों के शरीरों में विषाणु मौजूद रहता है, वह पनपता भी है, किन्तु उनमें उसके कारण कोई लक्षण पैदा नहीं होते। ज़ाहिर है , ऐसे लोगों से संक्रमण दूसरे लोगों में तो फैल सकता है, पर स्वयं उनका पता लगाना टेढ़ी खीर बन जाता है।

सार्स-सीओवी 2 विषाणु जब किसी व्यक्ति में प्रवेश करता है, जब लक्षणों को जन्म देने से पहले ही यह दूसरे व्यक्ति में फैलने लगता है। यानी पहले व्यक्ति में लक्षण उत्पन्न हुए नहीं और तब तक विषाणु ने दूसरे व्यक्ति में प्रवेश करने लगा। फिर लक्षणों के दौरान और उनके समाप्त होने के दस-से-चौदह दिन बाद तक यह दूसरों में पहुँचता रहा। इस तरह से तीन प्रकार के संक्रमित लोग इस विषाणु को दूसरों में फैलाते रहे: लक्षणहीन संक्रमित, लक्षणपूर्व संक्रमित और लक्षणयुक्त संक्रमित। इनमें से सबसे बड़ा समूह पहला यानी लक्षणहीन संक्रमित लोगों था, जिन्हें चिह्नित न कर पाने के कारण यह संक्रमण दुनिया-भर में फैलता गया।

कोविड-19 की केस-फेटेलिटी-रेशियो 3 %  के आसपास आँकी जा रही है। सम्भव है कि अगर सभी लक्षणहीन रोगियों को पहचान पर इसे ठीक-ठीक निकाला जाए, तो यह 1% से भी कम आये। लेकिन फिर भी कोविड-19 को साधारण ज़ुकाम-खाँसी कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। साधारण ज़ुकाम जिसका वास्तविक नाम इन्फ़्लुएन्ज़ा है, उसमें मृत्यु-दर अत्यधिक कम होती है। कोविड-19 के सन्दर्भ में यह फ़्लू की तुलना में अधिक है।

बुख़ार, सूखी खाँसी, साँस फूलना -- कोविड-19 के प्रमुख लक्षण रहे हैं। इनके अलावा अन्य कई लक्षण भी डॉक्टरों द्वारा देखने को मिले हैं। गले और फेफड़ों के अलावा अन्य अंगों को भी इस विषाणु ने प्रभावित किया है। केवल लक्षणों के आधार पर किसी रोगी को कोविड-रोगी नहीं कहा जा सकता। इसके लिए आवश्यक जाँचों की ज़रूरत होती है। इन जाँचों में दो जाँचें महत्त्वपूर्ण हैं। पहली है आरटीपीसीआर और दूसरी है एंटीबॉडी-जाँच। आरटीपीसीआर के लिए आशंकित रोगी के गले से द्रव का नमूना लिया जाता है और उसमें विषाणु के आरएनए की उपस्थिति जाँची जाती है। जबकि एंटीबॉडी-जाँच में कोविड-संक्रमण के बाद बनी एंटीबॉडी नामक रक्षक प्रोटीन की उपस्थिति पता लगायी जाती है। आरटीपीसीआर प्रत्यक्ष जाँच है और इसका महत्त्व अधिक है। किन्तु यह महँगी भी हैऔर इसकी अनेक व्यावहारिक समस्याएँ हैं । इसलिए व्यापक जनस्तर पर अनेक देश एंटीबॉडी-जाँच का प्रयोग कर रहे हैं, जिसमें ( लोगों के खून के नमूने में ) यह पता लगाया जा रहा है कि किस-किसके खून में कोरोनावायरस के खिलाफ एंटीबॉडी नाम प्रोटीन बन चुकी हैं और किस-किसमें नहीं।

वर्तमान कोरोनाविषाणु से संक्रमित होने पर सभी के गम्भीर रोगग्रस्त होने और मृत्यु की आशंका एक-समान नहीं होती। आम तौर पर बढ़ती उम्र के साथ आशंकाएँ बढ़ती जाती हैं। बहुधा प्रौढ़ों व वृद्धों की तुलना में युवाओं और बच्चों में यह विषाणु अपेक्षाकृत बहुत कम परेशानी पैदा करता है। जिन लोगों को हृदयरोग, डायबिटीज़, दमा, कैंसर, गुर्दा व यकृत के अन्य गम्भीर रोग हैं, उनमें भी इस विषाणु का दुष्प्रभाव अधिक गम्भीर और मारक पाया गया है। बालकों-युवाओं में अपेक्षाकृत कम दुष्प्रभाव दिखाने के बावजूद यह बात जाननी ज़रूरी है कि यह कितना अजीब होगा कि कोई सार्स-सीओवी 2 संक्रमित किन्तु लक्षणहीन युवा अपने घर पहुँचे और उसके अस्सी वर्ष के बूढ़े दादाजी संक्रमित होकर काल-कवलित हो जाएँ! मामूली ज़ुकाम-जैसे लक्षणों के साथ कोई युवती किसी रिश्तेदार से मिलने जाए और वहाँ उपस्थित किन्हीं पैंसठ वर्ष की डायबिटीज़-ग्रस्त महिला को कोविड-न्यूमोनिया हो और उन्हें वेंटिलेटर लगाना पड़ जाए!

समस्या यही है। कोविड-19 और उसके विषाणु सार्स-सीओवी 2 को समझते समय हमें समाज के रूप में सोचना है, न कि व्यक्ति के रूप में। हम नहीं चाहेंगे कि हम किसी ऐसे संक्रमण से ग्रस्त हों ,जो हमपर न्यूनाधिक दुष्प्रभाव लाये किन्तु हमसे दूसरे संक्रमित हों और वे जीवन-मृत्यु की लड़ाई हार बैठें। ऐसे में इस विषाणु से अपनी रक्षा हमें केवल अपने लिए नहीं करनी, बल्कि अन्य के लिए करनी है। हमें बचना है, क्योंकि हमारे बचाव में अन्य का बचाव भी सम्मिलित है।

बीते कई महीनों में व्यक्ति-से-व्यक्ति का सम्पर्क काटने के लिए राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय प्रयास किये गये हैं। संसार जिस सीमा तक वैश्विक हो चुका है, उसमें लोगों का परस्पर सम्पर्क काटना आसान नहीं है। बल्कि स्वयं लोग भी इसके लिए तैयार नहीं हो पाये हैं। फिर भी सोशल डिस्टेंसिंग, चेहरे (नाक व मुँह) को मास्क से ढँकना, लोगों से कम-से-कम मिलना और बार-बार हाथों को साबुन-पानी से बीस सेकेण्ड तक धोना रोकथाम के प्रयासों में शामिल है। अनेक देशों में क्षेत्रीय व राष्ट्रीय लॉकडाउन भी इसी क्रम में लागू किये गये : ऐसा करने से विषाणु का प्रसार धीमा पडेगा, जिससे सरकारी एजेंसियों को पैंडेमिक की तैयारी करने में मदद मिलेगी। अस्पताल आवश्यक संसाधन जुटा पाएँगे, ताकि तेज़ी से बढ़ती कोविड-रोगी-संख्या के आवश्यक सेवाएँ प्रदान की जा सकें। कोविड-19 की सबसे बड़ी चुनौती ही यही है: ढेर सारे लोगों को एक-साथ संक्रमित करके यह देश की समस्ता स्वास्थ्य-सेवाओं को निचोड़ देता है। मान लीजिए किसी स्थान पर सभी अस्पतालों में पचास वेंटिलेटर व पन्द्रह आयसीयू हैं, वहाँ अगर एक-साथ एक ही समय में एक-हज़ार कोविड-न्यूमोनिया के गम्भीर रोगी पहुँच जाएँ, तब क्या होगा? इतने सारे लोगों की जान कैसे बचायी जा सकेगी? फिर अन्य बीमारियाँ और उनके गम्भीर रोगी भी तो हैं। उनका क्या होगा? उन्हें आवश्यक सुविधाएँ क्या मिल पाएँगी?

ढेरों स्थानों पर स्वास्थ्य-कर्मियों ने अभूतपूर्व कर्मनिष्ठा का परिचय दिया है। मास्क-पीपीई की पर्याप्त व्यवस्था न होने के बावजूद उन्होंने कोविड-रोगियों को यथासम्भव सेवाएँ दी हैं। लोग अपने शरीर की सफ़ाई के प्रति अधिक जागरूक हुए हैं: हस्त-स्वच्छता में सकारात्मक वृद्धि देखने को मिली है। किन्तु इसके बाद तमाम जगहों पर कोविड-रोगियों के प्रति दुर्भावना-प्रदर्शन अथवा उनका उपचार कर रहे डॉक्टरों के प्रति दुव्र्यवहार भी किया गया है। लोग एक-दूसरे से तो नहीं मिल रहे हैं, पर वे सामाजिक मीडिया पर परस्पर और-अधिक संयुत हो गये हैं। तमाम कॉन्सपिरेसी-मत और असत्य खबरें आपस में शेयर की जा रही हैं, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। इन सब झूठी मान्यताओं का प्रयोग राजनीतिक स्वार्थों के लिए जहाँ-तहाँ किया जा रहा है।

कोविड-19 का विकास-काल वैज्ञानिक जानकारियों के लिए तरलता का समय भी रहा है। यद्यपि इस समय में दुनिया-भर की सरकारों और निजी संस्थाओं ने इस नये विषाणु पर शोध के लिए धन बहाया है, पर पहली बार ढेरों लोगों ने विज्ञान की गतिविधियों को रोज़ विकसित होते देखा है। इसकी उन्हें आदत नहीं रही है। पाठ्यपुस्तकों में वर्णित विज्ञान ठोस और काफी हद तक स्थिर हो चुका है, किन्तु वर्तमान कोविड-19 के सन्दर्भ में रोज़ नयी-नयी जानकारियाँ मिल रही हैं। ऐसे में लोग अगर जानकारियों को ठोस-स्थिर विज्ञान की तरह पढ़-जान रहे हैं , तब उनका भ्रमित होना स्वाभाविक है। वैज्ञानिकों के लिए भी यह विषाणु उतना ही नया है , जितना आम लोगों के लिये। इसलिए जो कुछ शोध में सामने आ रहा है, उसे 'तरल’ मानकर पढऩे और समझने की ज़रूरत है।

महामारी भूकम्प-आगजनी-सुनामी-बाढ़ की तरह एक दिन या महीने की घटना नहीं होती। यह विषाणु भी मानव-समाज से जाने के लिए नहीं आया है। पिछले तमाम विषाणुओं और जीवाणुओं की तरह अब यह भी हमारे सूक्ष्म-जैविक समाज का अंग बन चुका है और हमें इसके साथ जीना सीखना पडेगा। संसार-भर में कोविड-19 के कारण होने वाली मौतों में सीधे तौर पर केवल विषाणु का ही हाथ नहीं है, मानव-प्रतिरक्षा-तन्त्र भी उत्तररदायी है। अर्थात् विषाणु और प्रतिरक्षा-तन्त्र के परस्पर संघर्ष के दौरान शरीर को पहुँचने वाली रासायनिक क्षति के कारण लोग अपनी जान से हाथ धो बैठ रहे हैं। ऐसे में दुनिया-भर के डॉक्टर व वैज्ञानिक इस संघर्ष पर यथासम्भव नियन्त्रण पाने में लगे हुए हैं। वे विषाणुरोधी दवाओं पर भी काम कर रहे हैं, टीकों को बनाने में भी शोधरत हैं।

कोविड-19 के खिलाफ दवाओं के निर्माण का जहाँ प्रयास जारी है, वहीं दूसरी ओर पहले से उपलब्ध दवाओं की कार्यकुशलता को भी समझा जा रहा है। ऐसी ही एक दवा रेमडेसिवीर को गम्भीर कोविड-19 रोगियों में प्रयोग की सहानुभूतिक अनुमति मिल गयी है। यह दवा अत्यधिक कारगर तो नहीं है, किन्तु उपलब्ध दवाओं में अब-तक सबसे बेहतर नतीजे इसी के हैं। साथ ही दुनिया-भर में इस विषाणु के खिलाफ तरह-तरह से टीका बनाने की युक्तियाँ जारी हैं। टीकों पर अभी ट्रायल चल रहे हैं , समय ही आगे सिद्ध करेगा कि हम ( क्या?) और कब-तक इस विषाणु के खिलाफ सफल टीका बना सकेंगे।

भारत में कोविड-19 का प्रसार आरम्भिक दौर में धीमा रहा था। इसका श्रेय अनेक कारणों को दिया गया। कुछ ने सरकारी लॉकडाउन की प्रशंसा की, तो कुछ ने भारतीय जनता की प्रतिरक्षा की तारीफ की। अनेक कयास लगाये गये। तापमान से विषाणु के मरने और महामारी के थमने के तर्क सामने आने लगे। बीसीजी के टीके और मलेरिया के संक्रमण से सुरक्षा मिलने की बात भी की जाने लगी। विषाणु की संरचना में बदलाव की बात भी की गयीं। लेकिन कोई पुष्ट कारण नहीं जान पड़ता कि भारत (और दक्षिणी एशिया) में इस विषाणु का प्रसार कम देखने को मिले। स्थूल तौर पर हम उतने ही संक्रमण-आशंकित हैं, जितने दुनिया के दूसरे क्षेत्रों के लोग। ऐसे में स्वयं को अकारण सुरक्षित मान कर लापरवाह जीवन जीने से और रोकथाम के उपायों पर ध्यान न देने से संक्रमित होने की आशंका घटी नहीं, बल्कि बढ़ जाती है।

जब विज्ञान शोधरत होता है, तब एक असहाय-भाव आम जन को घेर लेता है। विज्ञान की सफलता एक दिन या एक महीने में चटपट नहीं मिलती, उसमें समय लगता है। असफलता की आशंका भी लगातार बनी रहती है। ऐसे में असहाय-भाव के कारण लोग लगातार समाज में किसी-न-किसी व्यक्ति, वर्ग-विशेष या देश-विशेष पर महामारी का ठीकरा फोड़ रहे हैं। दुनिया-भर में चीन व विश्व-स्वास्थ्य-संगठन की भूमिका पर प्रश्नचिह्न उठ रहे हैं। यह सच है कि चीन ने अपारदर्शिता दर्शाते हुए देर तक इस महामारी को संसार से छिपाया है और विश्व-स्वास्थ्य-संगठन ने भी इसमें शिथिल भूमिका निभायी है, लेकिन यह कहना सही नहीं है कि यह विषाणु किसी प्रयोगशाला में निर्मित किया गया है। संसार-भर के वैज्ञानिकों ने बार-बार इस बात का तर्कपूर्ण खण्डन किया है, लेकिन अफवाहें थमने का नाम नहीं ले रहीं। वर्तमान कोविड-19 में चीन की सन्दिग्ध भूमिका विषाणु-निर्माण में नहीं है, विषाणु-प्रसार के छिपाव में है। यद्यपि विषाणु लैब-निर्मित नहीं है, किन्तु चीन का विश्व-सहयोग धीमा और विलम्बित रहा है।

संसार-भर में ऐसे अनेक स्थान चिह्नित किये जा चुके हैं, जहाँ कोविड-19 जैसी महामारियाँ जन्म ले सकती हैं। ये वे हॉटस्पॉट हैं , जहाँ मानव जंगली व पालतू पशुओं के सम्पर्क में है। जंगल काटे जा रहे हैं, बाँधों और सड़कों का निर्माण किया जा रहा है, खनन और शहरीकरण के नामपर न जाने कितने ही जानवरों के अस्तित्व को संकटग्रस्त किया जा रहा है। ऐसे में इन जंगली जानवरों में पल रहे तमाम विषाणु दूसरे जीवों के शरीर ढूँढऩे पर विवश हो जाते हैं। नतीजन ये एक जीव से दूसरे जीव में पहुँचकर वृद्धि करते हैं और यहीं से महामारी का आरम्भ होता है।

चीन के वूहान शहर की गीली मांस-मण्डियों से वर्तमान कोविड-19 का आरम्भ माना जा रहा है। गीली मांस-मण्डियों में ढेर सारे विभिन्न जानवर एक-साथ अत्यन्त बुरी परिस्थियों में रखे जाते हैं। मल-मूत्र-रक्त एक शरीर से दूसरे में जाते रहते हैं, एक शरीर से दूसरे में कीटाणुओं को प्रवेश का रास्ता मिल जाता है। इन गीली मांस-मण्डियों में केवल पालतू पशु ही नहीं काटे जाते, बल्कि यहाँ जंगली जानवरों का मांस भी तैयार किया जाता है। इसी क्रम में मारे गये चमगादड़ों से एक ख़ास िकस्म के कोरोनाविषाणु का प्रवेश किसी मनुष्य की देह में हुआ। हो सकता है कि यह सीधे चमगादड़ से मानव-शरीर में आ गया हो अथवा किसी मध्यस्थ जीव (जैसे पैंगोलिन) से होते हुए मानव के भीतर पहुँचा हो। यह घटना मेडिकल भाषा में स्पीशीज़-जम्प कहलाती है : यानी एक प्रजाति के जीवों (चमगादड़) से विषाणु का दूसरी प्रजाति के जीवों (मनुष्य) में जाना और पनपना।

जन्तुओं से मानवों तक स्पीशीज़-जम्प करके आने वाला सार्स-सीओवी 2 पहला विषाणु नहीं है। चेचक, एचआईवी और इबोला जैसे विषाणु भी कभी-न-कभी पशुओं से मनुष्यों में प्रविष्ट हुए थे। मानव और विषाणु का सम्बन्ध स्थिर नहीं रहता, यह सतत परिवर्तनशील है। विषाणु समय-समय पर अपनी संरचना में परिवर्तन करता रहता है, मानव-शरीर भी इससे जूझने और जीतने के लिए नयी-नयी युक्तियाँ बनाता रहता है। विकास-क्रम में मानव और विषाणु विडाल और मूषक की तरह धावन करते रहते हैं।

दुनिया-भर में जितने लोग सीधे-सीधे इस विषाणु से मरे हैं, उससे कहीं अधिक परोक्ष रूप से गरीबी, कुपोषण और विस्थापन के दुष्प्रभाव झेल रहे हैं। नौकरियाँ जाती रही हैं, व्यापार ठप्प पड़ गये हैं। आर्थिक स्थिति चरमराने से लोग शारीरिक और मानसिक रोगों के शिकार होने लगे हैं। व्यक्ति-परिवार-समाज के स्तर पर तरह-तरह की व्यावहारिक विकृतियाँ सिर उठा रही हैं। एंग्जायटी, डिप्रेशन और आत्महत्या के मामले बार-बार सामने आ रहे हैं।

लोग विज्ञान से ऐसी दु:स्थिति में समाधान चाहते हैं। लेकिन विज्ञान अपनी गति से और अपने ढंग से चलता है। जनहित में वह अपने मूल्यों से अगर समझौता कर बैठा --- तब वह विज्ञान ही नहीं रहेगा, अज्ञान हो जाएगा। परन्तु आपदा के इस दौर ने वैज्ञानिकों पर भी अभूतपूर्व दबाव बनाया है। टीकों और दवाओं के लिये मानव, कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्दिमत्ता निरन्तर निरत हैं; त्वरित सफलता के लिए वे अपेक्षाकृत कम आवश्यक कर्मकाण्डों को भी त्यागने को तैयार हैं।

डॉक्टरों अजीब परिस्थति से जूझ रहे हैं। उनके सामने एक ऐसा सूक्ष्म शत्रु है, जिसे वे केवल विगत छह महीनों से जानते हैं। कोविड-19 के लगातार नये मामले उनके सामने आ रहे हैं, उन्हें ज्ञात जानकारी के अनुसार सीमित संसाधनों के साथ इन रोगियों का उपचार करना है। साथ ही स्वयं को सुरक्षित बनाये रखना है। एक डॉक्टर का कोविड-ग्रस्त होना सामान्य व्यक्ति से अधिक दुष्प्रभाव डालता है, क्योंकि बीमारी के कारण उसे आयसोलेट करने पर स्वास्थ्य-सेवाएँ क्षीण होती हैं। देश-दुनिया में अनेक मामलों में समाज ने जहाँ एक ओर उन पर फूल बरसा कर उन्हें योद्धाओं की तरह वीरोपाधि से अलंकृत किया है, वहीं दूसरी ओर उनके व उनके परिवार के साथ अस्पृश्य बर्ताव भी किया है। प्रशासन की अविवेकी सख़्ती के कारण भी अनेक डॉक्टरों को कोविड व अन्य रोगियों के उपचार में कठिनाइयाँ सामने आयी हैं। यह कैसा विषाणु-मानव-युद्ध है, जिसे हम डॉक्टरों के कार्य में बाधा डाल कर और उनके प्रति अछूत व्यवहार करके जीतना चाहते हैं! बिना पर्याप्त सुविधाओं के क्या केवल शब्द-पुष्पों की वर्षा से चिकित्सक जनता की सुरक्षा के प्रयास कर सकते हैं?

इस विषाणु के खिलाफ टीका कब तक तैयार हो जाएगा --- यह प्रश्न बार-बार जनता और मीडिया पूछते हैं। धरातलीय सत्य तो यही है कि तमाम सकारात्मक शोधों के बाद भी इसका कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। टीका बन भी सकता है , हो सकता है कि कभी न बन सके। पिछले छह कोरोनाविषाणुओं में से किसी भी के भी खिलाफ हम टीका बना नहीं पाये हैं। यदि टीका बनाने में सफलता मिली , तब भी इसमें (और इसे इस व्यापक जन-स्तर पर उत्पादित करने में) एक-से-डेढ़-साल का समय लग सकता है। ऐसे में स्वच्छता के पारम्परिक तौर-तरीकों का ही हमें आश्रय लेना समझदारी समझी जानी चाहिए। सोशल डिस्टेंसिंग ( जिसे अब अँग्रेज़ीदाँ लोग स्पष्टीकृत करके िफज़िकल डिस्टेंसिंग कहने लगते हैं, हाथों को ठीक से बार-बार साबुन-पानी से धोना और चेहरे को अनावश्यक छूने से यथासम्भव बचना और मास्क लगाकर बाहर निकलना ही विषाणु के खिलाफ हमारे सुरक्षा-कवच बने हुए हैं।

कोविड-19 से ज्यों-ज्यों हम कोविडोत्तर संसार में प्रवेश करेंगे, हमें पुरानी दुनिया की ढेरों बातें न मिल सकेंगी। ढेरों विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया अब उत्तर-पूँजीवादी दौर में जा रही/चुकी है। वैश्वीकरण के गुब्बारे की हवा निकल गयी है और संसार पुन: क्षेत्रीयता को अंगीकार करने की प्रक्रिया में है। यह दौर विस्थापन पर प्रतिविस्थापन को और निकटदृष्टि को दूरदृष्टि पर वरीयता देने का दौर है। मानवीय रिश्तों को पुन: टटोला जा रहा है , निष्क्रिय पड़े सम्बन्ध खँगाले जा रहे हैं। जन्मदिन, विवाह, मातम और मीटिंगें तकनीकी की सेवाओं का प्रयोग करके अधिकाधिक आभासी हो गयी हैं। हर मानव-सम्बन्ध को वास्तविकता में जीने से पहले हम उसकी आवश्यकता टटोल रहे हैं, अनावश्यक अथवा अल्पावश्यक जान पडऩे पर उसे कम्प्यूटर से पूरा कर ले रहे हैं। ऐसे में विषाणु ने हमें अतिमशीन-निर्भर बना छोड़ा है, जिससे भौतिक जीवन जहाँ एक ओर सरल हुआ है, वहीं मानसिक जीवन कष्टप्रद और रोगग्रस्त होता गया है।

मशीन पर बढ़ती जाती यह निर्भरता भविष्य के उन कार्यों का पायलट-प्रोजेक्ट हो सकता है, जिनके लिए मानव को अपदस्थ किया जाना सोचा जा रहा है। ऐसे ढेरों काम जिन्हें आज कुशल-अकुशल तौर पर मनुष्य कर रहे हैं, आगे मशीनें करेंगी। ऐसे में कोविड-19 ने इक्कीसवीं सदी के मशीन-युग के विकास को और तीव्र कर दिया है। इससे एक भय भी पैदा हुआ है: उन लोगों का क्या होगा जिनसे ये उन्नत मशीनें इनके रोजगार छीन लेंगी!

पर्यावरण के स्वच्छता और स्वास्थ्य की ज्यों-ज्यों पुनर्वापसी हुई है, अनेक मशीनप्रवर्तक उद्योगपति मशीनों के पक्ष में बात करने लगे हैं। मानव-मानव-सम्बन्ध को यथासम्भव रोककर मशीन का कार्यप्रयोग प्रकृति के लिए लाभकारी बताया जा रहा है। इतिहास किन्तु हमें इसके विरोध में पर्याप्त उदाहरण देता है। मानव की मशीन पर निर्भरता ने प्रकृति का दोहन-शोषण घटाया नहीं, बल्कि बढ़ाया है। मानव जब मशीन का इस्तेमाल करता है, तब वह प्रकृति को साथी की तरह कम संसाधन की तरह अधिक देखने लगता है। मशीन की शक्ति पाने से उसके भीतर का सख्यभाव जाता रहता है और शासक-भाव का प्रादुर्भाव हो जाता है। इसी शासक-भाव ने पूरी पृथ्वी के वायुमण्डल, महासागरों, नदियों, पहाड़ों, जंगलों और वन्यजीवों को अपने भोग के लिए मथ डाला है।

अनेक विश्लेषक राजनीति के स्तर पर भी अनेक परिवर्तनों की भविष्यवाणी कर रहे हैं। जिन देशों में सहअस्तित्व और सहबन्धुत्व जैसे मानव-मूल्यों का गहरा सुस्थापन है, वहाँ उर्वर समाजवादी सोच और अधिक लहलहाएगी --- ऐसा सोचा जा रहा है। वहीं दूसरी ओर जिन देशों में ऐसे मूल्यों की जगह निरंकुशता और शासक-हित को प्राथमिकता दी जा रही है, वे देश उत्तरोत्तर लोक-हित और लोकमुक्ति से दूर हटते हुए तानाशाही ऊसर भूमियों में बदल जाएँगे।

क्षेत्रीयता और संकीर्णता में अन्तर होता है, वैश्विकता और भूदोहन में भी। विश्वबन्धुत्व में संसार को कुटुम्ब माना जाता है, विश्वव्यापार में संसार को बाज़ार। सार्स-सीओवी 2 ने बाज़ारवादी सुख-चैन-खुमारी में अभूतपूर्व खलल डाल दिया है, जिसे पुन: पाने के लिए अबकी बाद वह मशीनी ज़ोर के साथ लौटेगा। मानव-व्यवहार ज्यों-ज्यों क्षेत्रीय होगा, संकीर्णता उसमें साथ पैदा होगी। ज्यों-ज्यों यह संकीर्णता बढ़ेगी, हिंसा के प्रति रुझान बढ़ेगा। मुलायम आर्थिक पूँजीवाद का यह दौर --- बहुत आशंका है --- आगे, कठोर उन्मादी युद्ध-सन्ततियाँ पैदा करे। एक व्यक्ति और एक समाज के तौर पर हम कैसे इससे जूझेंगे, यह हमें बार-बार लगातार सोचना है।

 


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