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मार्च - 2020

बुजुर्ग हिप्पियों का आदिब्रह्म : नागार्जुन

अशोक अग्रवाल

संस्मरण

 

 

 

 

('खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ का प्रथम प्रकाशन वर्ष 1979 में हुआ था। उसी साल बड़े पुत्र शोभाकांत के साथ नागार्जुन का पहली बार हापुड़ आगमन हुआ। बाद के सालों में हापुड़ उनका महत्वपूर्ण पड़ाव बना। तकरीबन दो हफ्ते बाद कई बार इससे भी अधिक, उनका दूसरे पड़ाव के लिए प्रस्थान होता। इस संस्मरणात्मक आलेख में उनके कृतित्व या विराट व्यक्तित्व को समेटने का किंचिंत भी प्रयास नहीं है। यह सिर्फ कोठार में बंद खण्डित स्मृतियों का कोलाज भर है - झिर्रियों से आती रोशनी की तरह।)

 

सच बतलाओ,

नागवार तो नहीं लगती है?

जी तो नहीं कुढ़ता है

घिन तो नहीं आती है?

 

जीने की रेलिंग से टिका बूढ़ा देर तक कुछ इंतज़ार सा करता खड़ा रहता है, फिर अपने छोटे से कमरे में जो जीने की मुकटी का एक हिस्सा है, वापिस लौट जाता है। चारपाई पर बिखरी किताबों और पत्रिकाओं की उठक-पटक करता है, फिर इनसे ऊब पुन: रेलिंग से टिक नीचे बरामदे की और देखने लगता है जहाँ गृहिणी झल्लाहट भरी डाँट-डपट के साथ दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ उलझी है।

''हमें नाश्ता कब मिलेगा’’, बूढ़े का धैर्य जवाब दे चुका है।

''अभी बच्चों को नाश्ता करा रही हूँ। स्कूल का रिक्शा आने वाला है।’’

''हम भी तो बच्चे हैं... बूढ़े और बच्चों को भूख एक समान सताती है,’’ गुस्से से भरा बूढ़ा पुन: अपने कमरे में वापिस लौट जाता है।

जून की तपती दोपहरी। बूढ़ा घर के लॉन में अंजीर के पेड़ के नीचे खड़ा पके हुए अंजीरों की गिनती करने के साथ कौतूहल से पेड़ के ऊपर-नीचे भागती दौड़ती गिलहरियों को कौतुक से देख रहा है। गेट के खडख़ड़ाने का स्वर उसके आनंद में विघ्न पहुंचाता है। गले में झोला लटकाये आगंतुक को अनदेखा-अनसुना करता फिर से अपने खेल में रम जाता है।

लॉन के बाहर सड़क पर सन्नाटा है। घर के बुर्जुग सदस्य और बच्चे दोपहरी की नींद ले रहे हैं। उसका मन भी आराम करने को चाहने लगा है। अंदर जाने का रास्ता उसी कमरे से होकर जाता है जहां अभी-अभी उस नवागंतुक का प्रवेश हुआ है। इस समय उसका मन किसी गपशप के लिए तैयार नहीं। वह वहाँ बैठे सभी को अनदेखा करता और कुछ-कुछ बुदबुदाता सा बरामदे में चला आता है। वह सीढिय़ों की ओर बढ़ता ही है कि बाथरूम से आती थडप-थडप की आवाज उसे अपनी तरफ खींचती है। वह चुप खड़ा कपड़े धोते, पछीटने और टब में भरते गृहिणी को देखता है, फिर तनिक गुस्से में बोलता है, ''सुनो... बंधुवा मजूर भी दोपहरी में एक-डेढ़ घण्टे की छुट्टी लेता है। हरवक्त जुटे रहने की जरूरत नहीं। कोई कितना भी लाट साब क्यों न पधारे साफ बोल दिया करो कि वक्त-बेवक्त चाय-नाश्ता कुछ नहीं मिलेगा... बाजार से मँगवा लिया करें।’’

आंगतुक के प्रति खीज से भरा बूढ़ा धीरे-धीरे सीढिय़ाँ चढऩे लगता है।

 

बूढ़े की ओर विस्मय से सबसे अधिक माँ देखती है। माँ ने कभी उसे नहाने की कौन कहे दाँत साफ करते भी नहीं देखा, फिर भी उसके हाथ में प्राय: जयमाला होती है और रहस्यमयी मुस्कान के साथ उसके कनके फेरता रहता है।

''वह समझती हैं मैं किसी ईश्वर या मंत्र का जाप कर रहा हूँ,’’ मेरे कान के समीप उसकी खिलंदड़ी हँसी गूँजती है, ''मेरी बेटियों की संख्या सौ पार कर गयी है। जब किसी का स्मरण आता है उसी के नाम की एक माला फेर लेता हूँ।’’

पिता से उनका सम्बंध काफी कुछ दोस्ताना सा हो गया है। बरामदे में बैठ सुबह की चाय सुड़कते कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान और बेतरतीब दाढ़ी-मूँछों की थिरकन के साथ अपनी लामाओं जैसी वेशभूषा पर नजर मारते हँसते हैं, ''यहाँ सड़क पर गुज़रते सभी मेरी ओर बड़े कौतूहल से देखते हैं। अनुमान लगाते होंगे यह परिवार किसी ओझा या मलंग फकीर के चक्कर में फँस गया है।’’

बूढ़े का इस घर के वर्ष 1978-79 से आना प्रारंभ हुआ है। अब कोई बरस ऐसा नहीं जब माह-पखवाड़े का आतिथ्य इस घर को उपलब्ध न होता हो। आने में विलम्ब होता है तो सबसे अधिक पूछताछ और व्यग्रता माँ ही दिखाती है।

 

मेरा रोम-रोम आनंद से सराबोर है। सुबह के भ्रमण पर रेल की पटरियों के पार खेत की मेढ़ पर चल रहा था कि कुहासे में मेढ़ के ऊपर घुटनों के बल झुके एक ग्रामीण की तल्लीनता ने बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लिया।

मेरी आहट से वह किलका, 'अरे... देखो, इतना अनोखा कीड़ा पहले कभी देखा है!’ उसके एकांतिक सुख का एक भागीदार और बना। मुश्किल से अँगूठे के आकार जितना... इन्द्रधनुषी आभा बिखेरता... ऊपरी सिरा टार्च की तरह झिड़प-झिड़प प्रकाश फैलाता जलता-बुझता। ग्रामीण ने सतर्कता से उस नन्हे कीड़े को आम के सूखे पत्ते पर उठाया और फिर धान के छोटे-छोटे पौधों के बीच छोड़ दिया... इस डर से कहीं वहाँ से गुज़रते किसी के पैर असावधानी से उसे आहत न कर दे।

मेरा मन इस सुख का विस्तार करने को अकुला रहा है। सबसे उपयुक्त पात्र वही बूढ़ा है जो बरामदे में बैठा अखबार की सुर्खियों पर नजर टिकाये मेरे लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है।

''वह देहाती ऊँचे मन और हृदय का कवि मना रहा होगा। ... हम एक ओछी कविता या कहानी रचकर अपने को तीसमारखाँ समझते हैं। एक बात गाँठ बाँध लो अशोक बाबू... एक किसान जो अपने खेत की श्रम से मेढ़ बनाता है और अच्छी उपज़ को शिशु की तरह संभालता-संवारता है, एक बढ़ई जो निर्दोष मेज-कुर्सी बनाता है या कोई जुलाहा जो धागों में रंग भरता है वह बड़े से बड़े कवि या कहानीकार से बालिश्त भर भी कम नहीं... हम मन में अपनी महानता के कितने मुगालते पाले रहे।’’ व्यंग्य, तंज और हास्य मिश्रित चिरपरिचित शैली से इतर गंभीर स्वर में बूढ़े ने मुझे समझाया।

 

रात्रि में शयन से पहले बूढ़ा नई आयी पत्रिकाओं और तीन-चार किताबों को चुनकर अपने कमरे में लौटता है। टार्च, ट्रांजिस्ट और थर्मस में गरम पानी अन्य ज़रूरी वस्तुएँ हैं जो हमेशा उसके कमरे में मौजूद रहती हैं। ''इसी गरम पानी की बदौलत अपने दमे को काबू पाकर रखा है,’’बूढ़ा थर्मस की ओर इशारा करता है और पत्रिकाओं के पुलिन्दे के साथ थामी पुस्तकों को दुलार से सहलाता है, ''नींद न आने पर टार्च की रोशनी में इन्हें उलटता-पलटता इनकी सूँघ लेता रहता हूँ।’’ ट्रांजिस्टर की सूईं अक्सर बी.बी.सी. से प्रसारित हिन्दी समाचार वाचन को तलाशती-खंगोलती रहती है।

सुबह जब वह नीचे उतरता है तो उसके हाथ में आठ-दस पोस्टकार्ड और दो-तीन अन्तर्देशीय पत्र लिखे हुए होते हैं ये पत्र उसका रोजनामचा है और डायरी भी। संक्षिप्त वाक्यों नामों और उनमें बिखरे सूत्रों के सहारे बूढ़े का जिंदगीनामा सहजता से पढ़ा और लिखा जा सकता है। कुछ पत्रों की बानगी देखिए-

 

22.5.80 कलकत्ता

अशोक डियर,

आशा है- सपरिवार ठीक-ठाक हो। मैं जून-जुलाई (दो महीने) तो इधर ही रहूंगा। किताबें तो छप चुकी होंगी। क्या उन्हें अगस्त में ''प्रकाशित’’ करोगे? या, जुलाई में?

मैं 15 अगस्त के बाद ही दिल्ली पहुँच पाऊंगा। पत्र इसी प्रकार एक ही लिफाफे के अन्दर तुम भी डालना।

- नागार्जुन

14-7-80 विधायक क्लाब

पटना-1

अशोक,

11 को यहाँ पहुँचा। 10 अगस्त तक इधर रहना है। इस अवधि में आठ-दस रोज के लिए कलकत्ता भी जाना है। स्वास्थ्य अगर भड़क गया तो नहीं भी जाऊंगा...

शोभाकांत को हर हाल में हापुड़ जमना ही है - मुझे यह प्रस्ताव बेहद पसंद आया। इस प्रस्ताव को 15 अगस्त तक अमल में आ ही जाना है... शोभाकांत 22 तक रायपुर-विदिशा से लौट आएंगे, फिर तुमसे मिलेंगे। दो कमरों वाला मकान खोज लेना... मैं भी अगस्त के अंत तक काम पर बैठ ही जाना चाहता हूँ,

अभी और क्या लिखूं? 12-13 को 'प्रेमचंद’ की संगत रही। इस महीने में मधुपुर, बेगूसराय, आरा, दरभंगा, भागलपुर आदि कई जगहों पर हमारी मुलाकात मुन्शीजी से होनी है और बार-बार होनी है...

अमितेश्वर, सुदर्शन नारंग, नफ़ीस, स्वप्निल... बस, इस बार और नाम कलम की नोंक से नीचे नहीं उतरेंगे... लक्ष्मीधर मालवीय का पता अवश्य लिखो। वो क्या '81 में भी हिन्द-भूमि के जादुई परस से अपने को वंचित रखेगा? नहीं, ऐसा नहीं करेगा वो...

बच्चों के नाम भूल रहा हूँ... उनसे प्यार बोला इस बूढ़े बन्दर की ओर से। आपके माता-पिता को नमस्त बोलो... भाई-बहन को आशीश...

- नागार्जुन तुम्हारा, तुम सभी का

22-5-84 जहरीखाल (पौड़ी गढ़वाल)

प्रियवर अशोक,

यहाँ 7 को पहुँचे। शोभाकांत बदरीधाम गए हुए हैं। 25 तक लौटेगा। 30 तक दिल्ली पहुंचेगा।

हम लगभग 10 अगस्त तक इधर हैं। जून, 20 के बाद 15 रोज के लिए भीतरी हिम-लोक में प्रवेश करेंगे और उधर से ही, ऊपर-ऊपर, रानीखेत-नैनीताल होकर लौट आएंगे 5 जुलाई तक।

वर्षा की प्रतीक्षा इधर भी है। पहाड़ों में 'अग्नि-लीला’ देख रहे हैं। वाचस् का कालेज यों तो 40 रोज 'विन्टर’ में बन्द रहता है, मगर गर्मियों में भी 20 रोज की छुट्टियाँ देता है - 15 जून से 5 जुलाई तक।

अमर उजाला, जनसत्ता रोज देखता हूं। आप क्या नैनीताल जाने वाले हो?

प्रियवर चिंकू-कालू को प्यार...

ना. आपका

 

बूढ़ा इस समय बन्दर बना दोनों छोटे बच्चे चिंकू-मिंकू के हाथ अपनी दाढ़ी पकड़ाते खिलवाड़ कर रहा है - इस दाढ़ी में एक सुरंग का रास्ता है जो एक तालाब के पास ले जाता है। उसमें ढेर सारी मछलियाँ हैं - हिल्सा, झिंगा और भी उनकी बहुत सी सहेलियाँ हैं... वहाँ चाँद, तारे, परियाँ और न जाने क्या-क्या है... बच्चों के साथ खेलते देर हो चली है और अब मन उकताने लगा है - 'सुनो... अब इस सुरंग से एक लंगूर महाशय निकलने वाले हैं... जल्दी से दादी के पास चले जाओ। बच्चे उसका कहा मानते हैं। वह अपने तिलस्मी लबादे की जेब से चश्मा बाहर निकालता है और 'जनसत्ता’ के पन्नों में खो जाता है। इस समय उसे कोई व्यवधान पसंद नहीं।

 

बूढ़ा कहीं बाहर निकलने की तैयारी करता प्रतीत हो रहा है। हाथ में छड़ी उठाये गेट की तरफ बढ़ता है, ''दोपहर खाने पर इंतज़ार नहीं करना, मैं अभी आता हूँ।’’

''साथ चलूँ?’’ मेरे मुँह से निकलता है।

''क्या मैं इस घर में कैदी हूँ? अकेला आ-जा नहीं सकता?’’ कहता बूढ़ा बाहर निकल गया है।

बारह बज रहे हैं। बूढ़े का कोई अता-पता नहीं। मुझे लगा था रमेश पान वाले की दूकान तक गये होंगे। कुछ देर टहल-टहलकर लौट आयेंगे। इंतज़ार करते-करते दोपहर का एक बज गया है। मैं व्यग्र और चिंतित होने लगा हूं। किसी दूसरे के घर का कार्यक्रम बनता है तो पहले से सूचना रहती है। मैं रमेश पानवाले की दूकान तक जाता हूं। रमेश मुस्कुराता है, ''वह आए थे और बाबू रिक्शेवाले के साथ निकल गए हैं।’’

मैं अनुमान लगाता रहता हूँ - कहाँ गये होंगे। नफ़ीस आफ़रीदी या प्रभात के घर या शहर का चक्कर लगाने। दो बज रहे हैं और मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कोई आधे घण्टे बाद प्रफ्फुलित बूढ़ा बाबू रिक्शेवाले के साथ नमूदार होते हैं।

''बाबा भोजन तैयार है,’’ माँ कहती है।

''हमारा हो गया’’, कहता बूढ़ा अपने कमरे की सीढिय़ाँ चढऩे लगता है।

पूरा किस्सा बाबू रिक्शेवाला की जुबानी - 'बाबा ने रिक्शा में बैठते ही फरमान सुनाया - अपने घर ले चलो। मैं हैरान-परेशान मेरा एक कमरे का घर। कहाँ बिठाऊँगा... जैसा उनका हुक्म... मेरी बीबी परदा करती है लेकिन बाबा से कैसी शर्म...। खाट पर बैठते ही बाबा ने सौ का नोट निकाला और कहा मछली ले आओ... बहुत दिन हुआ भात-माछ खाए। बाबा के साथ पूरे घर ने भात-माछ खाया। चलते समय मेरी पाँचों बेटियों के हाथ में दस-दस का नोट थमाया। मैं रोकता रह गया लेकिन बाबा ने 'बेटियों और नाना के बीच तुम क्यों अपने गाल बजाते हो’ मुझे जोर से डपट दिया।’

बाबू के चेहरे पर बूढ़े के स्नेह-दुलार की अनोखी खुशबू मेरे नथुनों में भी प्रवेश करने लगी है।

 

सुदर्शन नारंग के घर छोटी सी बैठकी। बूढ़े के इर्द-गिर्द शहर के सात-आठ रचनाकर्मी बैठे हैं। नफ़ीस अफ़रीदी की उन कविताओं को सुनने के लिए जो उसने मित्रों के नाम लिखी हैं। दो-तीन कविताओं के पाठ के बाद अब वह प्रभात मित्तल के ऊपर लिखी कविता का वाचन प्रारम्भ करते हैं। व्यंग्य और तंज से भरे व्यक्तिगत प्रहार से भरी कविता सुनते हुए प्रभात पहले असहज होते हैं, फिर उनका चेहरा आवेश से तमतमा जाता है, ''मैं तुम्हें अपना मित्र मानता ही नहीं फिर कैसे मुझ पर कविता लिख सकते हो,’’ कहकर प्रभात तमतमाते हुए कमरे से बाहर निकल लिए। ''तुम मानते होंगे लेकिन मैं तो तुम्हें अपना मित्र मानता हूँ,’’ हकलाते हुए नफ़ीस सिर्फ इतना कह पाता है।

कुछ देर चुप्पी छायी रहती है। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा। तभी बूढ़ा नफ़ीस की पीठ थपथपाता हुआ हँसता है, ''हम तो लिखेंगे... ठसके से लिखेंगे। कोई रुठता है तो हमारे ठेंगे से।’’ वातावरण को सामान्य होने में अधिक वक्त नहीं लगा।

अगली सुबह प्रभात मित्तल घर आए तो बूड़ा मुस्कराया और प्रभात को तसल्ली देते बोला, ''कविता लिखना कोई बच्चों का खेल है? वह भला कोई कविता थी? हगने-मूतने को भी कोई कविता मानने-समझने का मुगालता पाल ले तो उस पर सि$र्फ तरस खाना चाहिए।’’

प्रभात की मायूसी दूर हुई।

 

पिछले कुछ दिन से बूढ़े की व्यग्रता बढ़ गयी है। झल्लाहट भी। मौन की अवधि दीर्घ। लगता है कि मन ही मन कुछ पक रहा है।

''पोस्ट आफिस जाओ तो मेरे लिए दो अन्तर्देशीय लेते आना’’। इससे अधिक कोई संवाद नहीं।

सुबह उठते ही दोनों अंतरर्देशीय मुझे थमाये, ''इन्हें आज ही पोस्ट कर देना।’’ मैंने सरसरी निगाह से पतों पर नजर मारी। किन्हीं बौद्ध भिक्षुओं और मठों के नाम लिखे गये थे। पता - कोलम्बो, श्रीलंका। पिछले दिनों छाया अनमना लुप्त। चेहरा प्रफ्फुलता और उर्जा से भरपूर।

''...जानते हो बौद्धधर्म इस मायने में विलक्षण है कि इसे जब चाहो स्वीकार लो और जब चाहो त्याग दो। कोई प्रतिबंध नहीं। मठों में ठहरने से निवास और भोजन से चिंतामुक्त। ...अशोक बाबू इस बार तुम भी साथ चलने का प्रोग्राम बना लो। समुद्री जहाज से चलेंगे - अधिक खर्चा नहीं।

मैं अवाक् बूढ़े की ओर देखता रहा। उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर बूढ़ा पीछे की ओर छलांग भरता अपनी युवावस्था में कितनी सहजता से पहुंच गया था -

वे लोहा पीट रहे हैं

तुम मन को पीट रहे हो

वे पत्तर जोड़ रहे हैं

तुम सपने जोड़ रहे हो

 

सर्दियों की शीत लहर। गुप्प अंधेरा। स्ट्रीट लाइट भी बंद। पिछले दो घण्टे से शहर की बत्ती गुली। प्रभात के घर बैठे समय का आभास नहीं हुआ। घर लौटने में देरी हुई। जैसे ही गेट खोला टार्च ही रोशनी सीधे मेरी आँखों में कौंधी।

बूढ़ा बरामदे में बैठा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।

''मुझे देरी हो गयी,’’ मैंने अपराध-बोध से कहा।

मुझे अनसुना करता बूढ़ा लान में छितरायी कुर्सियों के एक-एक कर उठाते हुए बरामदे में लाने लगा।

''आप रहने दीजिए’’, मैंने कहते हुए कुर्सी की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि बूढ़ा मेरे हाथ को झिड़कता गुस्से से भुनभुनाया, ''इतनी फिक्र थी तो जल्दी लौटते। पता है ओस इन कुर्सियों को कितनी हानि पहुँचायेगी।’’

 

कल वाचस्पति आयेंगे - जहरी खाल (पौढ़ी गढ़वाल) से। उनके साथ कुछ दिनों के लिए पहाड़ों पर भ्रमण। वह मुदित भाव से उनकी प्रतीक्षा की तैयारी में जुट गए हैं। वाचस्पति की धर्मपत्नी शकुंतला (बूढ़े के लिए शकुन) के लिए कोई उपहार लेना है। अफ़रोज़ शाहीन (नफ़ीस आफ़रीदी की पत्नी) का चयन उन्होंने अपनी सहायता के लिए किया है। बूढ़ा फिलहाल वाचस्पति परिवार की चर्चा में उलझे हैं - 'शकुन मूलरूप से थाईलैण्ड की है। मुझे जानने की जिज्ञासा थी कि उसने वाचस्पति से विवाह के लिए इतनी सहजता से अनुमति कैसे दे दी जबकि वाचस्पति पहले से दो पुत्रों के पिता हैं - जानते हो मेरे सवाल के उत्तर में उसने क्या कहा - 'मैं बचपन से ही भरे-पूरे परिवार का सपना देखती थी। हमें इतनी आसानी से भरा-पूरा परिवार उपलब्ध हो रहा है तो खुशी का ठिकाना न रहा।

बूढ़ा देर तक उस क्षण का स्मरण करता विस्मित और आनंद से भरा रहा।

 

चाय की चुस्कियों के दम्र्यान बूढ़े की बतकही

''तुमने प्रकाशक बनने की कैसे सोची?’’ बूढ़े के इस सवाल का उत्तर देता पूर्व इसके कत्थई दंतपंत्ति की चमक और ऊँगुलियों की नाट्य भंगिका के साथ बूढ़ा बोला - ''मैं भी एक बार प्रकाशक बना था। सोचा अपनी कविताएं खुद छापेंगे और बेचेंगे। अधिक मुनाफा होगा और प्रकाशक के चक्कर काटने से बचेंगे। कविताओं की एक किताब की हज़ार प्रतियाँ छपवायीं और दाम रखा पचास पैसे। पटना और आसपास के कस्बों में घूमकर बेच पाये सौ के आसपास। लिखना-पढऩा अलग छूटा। एक परिचित ने सलाह दी कि वह फलाना-ढिकाना बड़ा अधिकारी कविता और विशेषकर आपका रसिया है। उससे मिल लें। हम उसके निवास पर जा पहुंचे। हमारी खूब आवभगत हुई। हल्वा-पूरी का नाश्ता  भकोसा और मन ही मन बेहद प्रमुदित। अपनी किताब उन्हें पकड़ा अपनी समस्या के बारे में बताया। उसने तुरंत जेब से ढाई सौ रुपये हमें थमाये और बोला इसकी पाँच सौ प्रतियाँ हमारे घर भिजवा दो. विस्मित होते हमने पूछ लिया कि इतनी प्रतियों का वह क्या करेंगे? वह खीज से बोला - 'आपको इससे मतलब? इनका दाम मिल गया न। हम कुछ भी करें - मु$फ्त बाँटें या बच्चों की टट्टी साफ करें।’ ...हमारे भीतर आर्तनाद गूंजा - हे राम! अपनी कविताई की यह दुर्दशा हमसे नहीं देखी जायेगी। यह धंधा हमारे बस का नहीं।’’

 

मैं उन्हें अपनी कालीकट (केरल) के दौरान मलयाली उपन्यासकार वायकोम मुहम्मद बशीर से हुई भेंट का दिलचस्प किस्सा बयान कर रहा था - कि कैसे उसमें और आपमें एकरूपता - स्वभावगत प्रवृत्तियों से लेकर लेखन तक - देख मैं अचम्भित रह गया। आप तरुणाई में बौध-भिक्षु बने तिब्बत की खाक छानते रहे और वह लगभग उसी उम्र में पुष्कर चले आए हिन्दू साधू बनकर और फिर एक पीर के सम्पर्क में आए तो उसके साथ लग लिए। बरसों-बरस समुद्री जहाज में खलासी की नौकरी करते अफ्रीका और अरब देशों में भटकते रहे। आपके और उनके दोनों के लेखन में अन्तनिर्हित सामाजिक पाखण्ड को ध्वस्त करता तीखा व्यंग्य समान रूप से तिलमिलाता है। सारा भेद इस सफेद घनी दाढ़ी का है। दाढ़ी हटा दो बशीर, दाढ़ी चिपका दो तो नागार्जुन. जब आपके बारे में उन्हें बताया उच्छ्वास भरते कितने दु:ख से कहा था - 'हम अखण्ड भारत की बातें करते हैं और दो भिन्न भाषाओं के लेखक के एक ही देश में एक ही समय में रहते हैं, एक दूसरे से परिचित नहीं। मैं नागार्जुन को नहीं जानता और नागार्जुन मुझे।’

सामने बैठे बूढे ने ठीक बशीर की तरह खंखारते हुए उच्छवास भरी।

 

देह जब बुढ़ाने लगती है और हाथ-पैर की गति शिथिल तो मन की गति छलाँगें भरती कभी बचपन तो कभी तरुणाई की ओर दौड़ लगाती है। वर्तमान हाथ से फिसता जान पड़ता हैं - बूढ़ा हँसा। आजकल वह कभी तिब्बत-श्रीलंका यात्रा पर तो कभी अपने गाँव (तरौनी, दरभंगा) के पोखरो, की लाल मुँह वाली रेहू, सुरमई छिलकों वाली पोठी कद्वलिया या चुल्हाई कँटीले कण्ठों वाले भूरा-बजरा टेंगरा के साथ किल्लौन करने लगता है।

आज वह सुदूर तिब्बत की यात्रा पर है। एकाकी बौद्ध भिक्षु के रूप में। रात होने वाली है और टिकने का कोई ठौर-ठिकाना नहीं। गाँव वाले बताते हैं कि पास में एक मठ है लेकिन उसका लामा अत्यंत दुष्ट और गुस्सैल बौद्ध भिक्षु को भी मठ में टिकने नहीं देता। लामा के बारे में अनेक जानकारियाँ बटोर वह मठ पहुंचता है। मठ में इस समय सि$र्फ एक सेविका है। लामा ल्हासा गया हुआ है। सेविका मठ में टिकाने को तैयार नहीं। 'लामा को पता पायेगा तो तुम्हें कठोर दण्ड देगा। तुम नहीं जानती लामा मेरा गहरा मित्र है,’ उसे डराया तो दुविधाग्रस्त उसने मठ के भीतर आने दिया। भोजन भी पकाकर खिलाया। लामा के रात में लौटने की कोई उम्मीद नहीं थी। सोचा कि रात्रि विश्राम के बाद प्रात: आगे निकल लूंगा,’ बूढ़ा हँसा, ...लेकिन लामा रात में ही धमक गया। मुझे देखते ही उसकी आँखें लाल हो गई और जोर-जोर से गालियाँ उचारता मेरी और मारने को लपका। मैं साहस से डटा रहा और डपटते हुए चिल्लाया - 'अपनी जीभ बाहर निकालो। मैं भविष्यवक्ता हूँ जो जीभ-देखकर भविष्य बताता है।’ अचकचाया लामा ठहर कर मुझे शंकालु दृष्टि से देखने लगा। 'अपनी जिव्हा मुझे दिखाओ,’ मैंने उससे घूरते हुए कहा तो उसने अपनी जीभ बाहर निकाली। 'तुम्हारा इस गाँव की एक औरत से अवैध संबंध है। तुम्हारी शिकायत ल्हासा तक पहुंच गयी है। तुम्हें जल्द इस मठ से बेदखल कर दिया जायेगा।’ सुनते ही लामा मेरे पैरों पर लाम्बायकान।...

'लामा विनय से भरा मेरी सेवा में लग गया। मठ में आने से पहले ही मैंने गाँव वालों से कुरेद-कुरेद कर लामा की लम्पटता के सारे किस्से जान लिए थे।’

 

बूढ़ा आज राहुल सांकृत्यायन के साथ तिब्बत-यात्रा सम्पन्न करने के बाद बिहार भ्रमण पर है। 'अनायास राहुल जी ने अपनी ससुराल के गाँव जाने का निर्णय लिया। मैं उनके साथ था। अँधेरे में डूबा छोटा सा अधपका घर अंधेरे में डूबा। औसारे में लालटेन का फीका प्रकाश बिखरा था। मुझे कमरे के बाहर खड़ा कर राहुल भीतर चले गए। भीतर से सि$र्फ रुँधी-रुँधी रोने का स्वर सुनाई देता रहा। ...एक औरत का आर्तनाद। वार्तालाप का एक शब्द नहीं... कोई आधे घण्टे बाद राहुल गुमसुम वापिस लौटे। वापिस लौटते हुए वह आर्त विलाप देर तक साथ बना रहा।’

उस क्षण का स्मरण करते हुए बूढ़े की आँखें मुझे नम होती प्रतीत हुई।

 

राहुल सांकृत्यायन ने मसूरी में एक काटेज का निर्माण करा लिया था। उनकी अनुपस्थिति में माह भर उस कॉटेज में ठहरा। आतिथ्य-भार सम्हाला कमला सांकृत्यायन ने। खाँसने और उन्मुक्त हँसी के बीच उनके चेहरे और मुद्राओं के साथ शरारती भाव छलका- 'दिनकर मेरे बारे में पूरे साहित्य संसार में कहानी प्रसारित करता रहा कि कमला सांकृत्यायन उस दुष्ट अतिथि को झाडू से पीटने की बात कर रही थीं जो दुनिया भर में कहता फिर रहा है कि उसने उसे आलू का झोल पिला-पिला कर भूखो मार डाला। दिनकर मुझसे इस कदर चिढ़ता था कि अक्सर कहता - 'उस कुटिल मैथिली ब्राह्मण से बचकर रहना जो नाग से भी अधिक जहरीला है।’

बूढ़ा मुदित भाव से हँसता रहा।

 

कुछ दिन से माँ घर में बढ़ गए चूहों से परेशान है। उनकी खटपट से उनकी नींद उचट जाती है। आज जब दूसरी-तीसरी बार चूहेदानी के लिए बूढ़े के सामने मुझे टोका लो बूढ़ा हँसा और माँ की तर्जनी से कुर्सी पर बैठने का इशारा करते मुस्कुराया - ''एक बार कलकत्ते से लौटकर हमने शोभाकांत की माँ को एक-एक सौ के पाँच नोट पकड़ाये। कहीं चोरी न हो जाये इस डर से उसने एक कुल्हड़ में रख चूहे के पास जमीन में दबा दिया। कुछ माह बाद जब हम गाँव आए तो देखा वह बहुत दु:खी और परेशान। कुल्हड़ खाली था और सारे नोट नदारद। हमारी कुछ समझ में नहीं आया तो शोभाकांत बाला - 'चूहों को करारे नोटों की गंध बहुत आती है। वही एक-एक कर ले गये होंगे।’ खुलकर हँसते दंतपंक्ति चमकाते बूढ़े ने माँ से कहा - 'लगता है आपके घर के चूहों को भी भनक लग गयी है - आपके खजाने की।’

 

आज वह अपनी सहधर्मिणी यानी अपराजिता देवी के बारे में बतिया रहे हैं - 'तुम्हारे इस बराम्दे में बैठे हुए साइकिल टुनटुनाते सजे-धजे, शोर मचाते, खिलखलाते स्कूल-कॉलेज जाते देखना बहुत अच्छा लगता है। ऐसे ही तरुणाई में अमृतसर के घर की ऊपरी बालकनी से उन्हें तकना बहुत आनंदप्रद होता था। मन में विचार आया जैसी अनुभूति हमें होती है अपराजिता को भी इन स्वस्थ-सुन्दर किशोरों को देखकर होगी। आवाज लगा उसे वहां बुलाया वह रसोई छोड़ भागी-भागी आयी। उसे बालकनी में बैठने और सड़क से गुज़रते उन किशोरों का देखने को कहा। वह अचकचायी कुछ देर बैठी रही फिर फुक्का मारती भीतर चली गयी। उससे वजह पूछी तो उसी तरह रोती बोली, 'उस दिन गाँव में चाची के बहकावे में बिना कुछ बूझे थप्पड़ जड़ दिया था अब परदेस में मुझ पर कलंक लगा छोड़ देना चाहते हो।’ मैं अवाक् उसे देखता रह गया। उसका इशारा उस घटना की ओर था जब दो साल बाद गाँव लौटा था और घर में प्रवेश से पहले चाची ने मुझे पकड़ लिया था - 'सुनो रे! कुछ पता भी है तुम्हें, तुम्हारे पीछे बहुरिया पोखर पर नहाने जाती है अैर जिस-तिस को बेहयारे से अपने अंग दिखाती है।’ मैंने क्रोध में बिना कुछ जाने घर में घुसते ही मुँह पर दो तमाचे जड़ दिए थे।

उस दिन का स्मरण कर बूढ़े की आँखें आद्र्र हो आयीं।

 

वर्ष 1986 में उनका पूर्व निर्धारित कार्यक्रम स्थगित हुआ। पता चला वह गंभीर बीमारी से ग्रस्त दरभंगा के सरकारी अस्पताल में भर्ती हो गया है। दो वर्ष के अंतराल बाद जब आगमन हुआ तो शिथिल और ढलके प्रतीत हुए। गरम पाजामे का नाड़ा भी कई बार खुला रह जाता। बावजूद इसके हास-परिहास और कथन में व्यंग्य-वक्रोक्ति में कोई न्यूनता नहीं।

'अस्पताल से जैसे ही सूचना प्रस्तारित हुई कि उन्हें खून चढ़ाने की ज़रूरत होगी तो पूरा अस्पताल यह देख अचम्भित कि देखते-देखते छात्रों की अपना 'रक्तदान’ करने की कतार लग गयी। हमने डॉक्टर से पूछा - 'क्या हमें इतना खून चढ़ाया जायेगा?’ डाक्टर बोला - 'आपके शरीर में 'ब्लज प्लाज्मा’ चढ़ाया जायेगा।’ 'ब्लज प्लाजमा यह क्या होता है।’ हमने डॉक्टर से पूछा तो उसने हमें समझाया - 'जैसे दूध पर मलाई आती है। इसे आप खून की मलाई समझिये, कहने के साथ बूढ़ा खुलकर हँसा।

 

दूसरों की जुबानी बूढ़े की चंद दास्तान

दिल्ली के रफी मार्ग स्थित आई.एन.ए. बिल्डिंग में 'आनंद बाजार पत्रिका’ का गेस्ट हाउस। अक्षय उपाध्याय सुरेन्द्र प्रताप सिंह के साथ आए थे। उनके साथ सुरापान करते कब बूढ़े का जिक्र चल आया इसका स्मरण नहीं। प्रतीश नंदी के हवाले से सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने बताया कि प्रतीश मछुआरों की बस्ती के पास प्रात: भ्रमण पर निकले तो सामने से आते बूढ़े को, जिसने गमछा सिर पर लपेटा हुआ था, देख उन्हें परिचित चेहरे का भ्रम हुआ। जब उन्होंने उसे आवाज लगायी तो नजदीक आ उसका हाथ पकड़ उन्हें डपट दिया - 'यहाँ से तुरन्त फूटो। मैं यहाँ गूँगा बनकर रह रहा हूं।’ बाद में उन्हें पता चला कि उन दिनों वह 'वरुण के बेटे’ लिखने की तैयारी कर रहे थे।

 

वर्ष 1983 उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त सर्वोच्च पुरस्कार 'भारत भारती’ के समारोह मं जिसका संचालन शिवमंगल सिंह सुमन कर रहे थे, एक ही मंच पर 'इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको’ और 'आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी’ जैसी व्यक्ति सत्ता विरोधी कविताओं का सर्जक और श्रीमती इंदिरा गांधी उपस्थित थे।

पहली पंक्ति में मौजूद शोभाकांत विस्मित थे कि जब कभी बाबा की और श्रीमती गाँधी की निगाहें परस्पर मिलतीं तो दोनों एक दूसरे की ओर देखते मुस्कराते।

समारोह के समापन के बाद शोभाकांत ने पूछा कि वह इन्दिराजी को देख क्यों मुस्करा रहे थे। उत्तर मिला यही सोचते हुए कि जिस तानाशाह चरित्र के विरुद्ध कविताएं लिखीं आज उन्हीं के हाथ पुरस्कार ग्रहण करना है। 'इन्दिराजी आपको देख क्यों मुस्करा रही होंगी?’ 'यही कि अभी पता नहीं किन-किन समारोहों में इस खद्दूस बूढ़े से आमना-सामना होगा।’

 

अमरीक नारंग (सुदर्शन नारंग के बड़े भाई) आज भी उस घटना का, जो प्रारम्भिक वर्षों में उनके लिए आनंदप्रद, स्मरण करते हैं। आपरेशन ब्लू स्टार के बाद सिक्ख अंगरक्षकों द्वारा श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या और फिर सिक्खों के नरसंहार के बाद उग्रवाद की लोमहर्षक वारदातों की कड़ी में कश्मीरी गेट अन्तर्राज्यीय बस अड्डे पर 'ट्राजिस्टर बम काण्ड’ में अनेक बेगुनाह मारे गए थे। सीबीआई की जाँच पड़ताल का कोई सूत्र न जाने कैसे अमरीक भाई से जा जुड़ा। संभवत: उनका सिक्ख होना प्रमुख कारण रहा होगा। सीबीआई की टीम चार-पाँच घण्टे की सघन पूछताछ कर वापिस लौट गयी और शहर में भाँति-भाँति की अफवाहें विस्तार पाने लगी।

सीबीआई की टीम एक हफ्ते बाद फिर आ धमकी। इस बार अधिक दल-बल के साथ, संभवत: गिरफ्तारी की पूरी तैयारी के साथ। उनकी फैक्ट्री की तलाशी हुई। अमरीक भाई लाख कहें कि उनका फैक्ट्री संचालन और शहर की सामाजिक गतिविधियों के अलावा अन्य किसी बात से सरोकार नहीं। सी.बी.आई. दल का मुखिया कुछ सुनने-मानने को तैयार नहीं। पता नहीं कैसे अमरीक भाई को कुछ सूझा और वह उस डायरी को उठा लाए जिसमें बूड़े ने उनकी फैक्ट्री में उनका आतिथ्य ग्रहण करने के बाद उनके अनुरोध पर चंद पंक्तियाँ लिख दी थीं जिनका लब्बेलुबाब कुछ-कुछ यह था कि अमरीक नारंग बेहद कर्मठ और श्रमशील व्यक्ति हैं जो देश के उत्पादन और उसके निर्माण में अपना सहयोग कर रहे हैं।

यह कोई संयोग था या चमत्कार। संभवत: सीबीआई के उस अधिकारी का सम्बंध बिहार से रहा होगा अथवा वह काकरसिक और नागार्जुन का प्रशंसक रहा होगा। उसके चेहरे के कठोर भाव सामान्य हो गए। उसने अमरीक भाई से नागार्जुन के बारे में कुछ और दर्याफ्त की और अमरीक भाई बढ़-चढ़ कर उनसे अपने घनिष्ट सम्बंधों का ब्यौरा देते रहे।

इसके बाद सीबीआई फिर उन्हें परेशान करने नहीं आयी।

 

काया बुढ़ायी है लेकिन बूढ़े का कवि मन हमेशा युवा रहता है प्रेम-सौन्दर्य की अबूझ पगडण्डियों, घाटियों और अरण्य का यात्री और अन्वेषक। प्रेमियों की दुनिया का हमसफ़र बनने में कोई संकोच नहीं। प्रेम और स्नेह से छलछलाते उन्हें किसी न किसी सम्बोधन या सम्बंध से जोड़ लेते। मनचाहें सम्बंधों के बीच मिठास और अनचाहे सम्बंधों में खटास का रसायन उत्पन्न करने में उन्हें महारथ हासिल थी। न जाने कितनी सुकेरियों के नामकरण संस्कार में पुरोहित की भूमिका का निर्वाह किया। गुड्डी कौल को उसने नया नाम दिया हिमानी औैर प्यार से हिमा। कौल परिवार के निमंत्रण पर दो सप्ताह के लिए श्रीनगर यात्रा पर निकले। बस ने जैसे ही जवाहर टनल में प्रवेश किया उसकी हथेली अपनी मुट्ठी में बंद करते आद्र्र स्वर में कहा - 'मुझे वचन दो... तुम जिंदगी भर मेरा स्मरण रखोगी।’ वह हँसी और तत्काल उनकी हथेली पर अपनी हथेली टिकाते उन्हें आश्वस्त किया - 'हाँ ...हाँ क्यों नहीं। मैं आपको वचन देती हूँ।’ जवाहर टनल के मुहाने से निकल बस जैसे ही प्रकाशित से अलोकित हुई बूढ़े का चेहरा शिशु भाव से थिरक उठा - 'आज से तुम मेरी बाँधवी हुई।’

यह सदाशयता मेरे शहर के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता नहीं दिखा सके जो बूढ़े की असीम लोकप्रियता और कवि-छवि से प्रभावित दोपहर के भोजन के लिए अपने निवास आग्रहपूर्वक लिवा ले गए। संध्या को बाबा के साथ वापिस लौटे तो चेहरा खिंचा हुआ - क्लान और व्यथित। हुआ कुछ यूँ कि भोजन के उपरांत जब उनकी किशोरी बेटी पानी का लोटा लिए बाबा के शयन कक्ष में तो न जाने उसे देख उन्हें 'मेघदूत’ की यक्षिणी को बोध हुआ या हिमाच्छित उन्नत रजत शिखरों का, उन्होंने उसके उन कोमल अंगों को सहला-दुलरा जो उस किशोरी और पिता के लिए वर्जित और निंदनीय था।

काश! उन्होंने उनकी बांग्ला में लिखी कविता 'की दरकार नाम-टाम बलार’, जो उन्होंने जेएनयू के छात्रावास में रहने के दौरान एक प्रज्ञादीप्त अंकुरित यौवना के प्रेमपाश या स्नेहपाश में बिंध कर लिखी थी -

 

'दरअसल बात यह है

खोलकर ही बतला दूँ

कल मैंने

लिए तीन बार

ताजा चुंबन

अनाघ्रात कुसुम कली का अमृत-आस्वाद

***

ओ मेरे प्रिय श्रोता

ओ मेरे प्रिय पाठक

प्रिय बान्धवी मेरी!

तुम अभी

मेरा जय-जयकार करो

मेरा नाम जपो

मैं हूँ रजनीश का वृद्ध प्रपितामह!

 

वर्ष 1998 में इस कालजयी जनकवि का देहावसान हुआ। विगत बाइस साल में शहर के साथ इस घर का भी भूगोल पूर्णतया परिवर्तित हो गया है। लॉन की जगह एक नई दुमंजिला इमारत ने ले ली हैं। अमरुद व अंजीर के पेड़ काल-कलवित हो चुके हैं और किल्लौल करती गिलहरियाँ लुप्त। सड़क ऊँची होने के साथ बरामदे की तीन सीढिय़ाँ जमींदोज हो गयी है और वह बराम्दा जहाँ कुर्सी पर बैठा बूढ़ा सड़क की आवाजाही कौतुक से देखता करता था शीशे के दरवाजे से ढका तलघर बन या है जहाँ की हवा ठहरी और घुटन भरी है।

शहर कोलाहल से भरा है। सड़क पार करने का भय घर के पिछवाड़े पंजाबी कॉलोनी के पार्क की ओर ले जाता है जहाँ यदा-कदा रमेश पानवाले से मुलाकात हो जाती है जो उम्र के आठवें दशक में प्रवेश कर गया हैं। दूकान उसके बेटे ने सम्हाल ली है। पास ठहरकर वह पिछली सदी के आठवें दशक के उन दिनों में ले जाता है जब उसकी दूकान के इर्द-गिर्द देरी तक सात-आठ प्राणियों की वह अजब मण्डली जुटा करती थी जिसके ठहाकों, बहसों और लड़ाई झगड़ों से सड़क गुंजायमान रहती थी। इस मण्डली से गिरा वह लामानुमा बूढ़ा भी आ उपस्थित होता है जिसे युवाओं से घिरे हँसी-ठिठौली करते गुजरते नागरिक कौतुक से देखा करते थे। मण्डली पूरी तरह छितरा चुकी है। प्रभात मित्तल, विजय भूषण आर्य, अमितेश्वर, सुदर्शन नागरंग, अफ़रोज़ शाहीन दिवंगत हो चुके हैं। शेष कुछ उम्र और बीमारियों से लाचार-बेचार अपने-अपने घोंसलों में सिमटकर रह गए हैं। शहर शोर-शराबे से भरा है और उनके हृदय में सन्नाटा बसा है।

उन दिनों का बाबू रिक्शावाला अपनी उम्र के तीसरे दशक को पार कर उम्र के सातवें दशक में प्रवेश करने के बावजूद पूरी तरह मुस्तैद गली के मुहाने पर खड़ा सवारियों की प्रतीक्षा करता है गो कि शहर मयूरी के हुड़दंग से घिरा है। गाहे-बगाहे जब उसकी रिक्शा में सवारी करता हूँ जाने-अनजाने वह बूढ़ा भी साथ आकर बैठ जाता है। भात-माछ के लिए अपने घर ले गया था। वह दिन अमूल्य धरोहर की तरह उसकी स्मृति में आज भी सुरक्षित है।

 

अप्रतिम कथाकार और यायावर। पिछले दिनों उनकी कहानियों का समग्र आया है। हापुड़ में रहते हैं।

संपर्क- मो. 8265874186

 


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