हमने अपना भारतीयकरण किया ...
कन्हैयालाल कपूर / लिप्यांतर - राजकुमार केसवानी
उर्दू रजिस्टर कहानी/व्यंग्य
हमने सोचा इस से पहले कि कोई शख़्स हमारा भारतीयकरण करे क्यों न हम हिम्मत से काम लेकर अपना भारतीयकरण कर डालें। सबसे पहला मसला हमारे नाम का था। जैसा कि आप शायद नहीं जानते हमारा नाम इक़बाल चंद है। हमें ख़्याल आया इक़बाल अरबी का लफ़्ज़ है। हिन्दोस्तान में रहते हुए अरबी नाम रखना कहां की हुब्ब-उल-वतनी है। हमने अपना नाम कंगाल चंद रख लिया। ये नाम वैसे भी हमारी माली हालत की ग़म्माज़ी करता था। ना सिर्फ हमारी बल्कि मुल्क की हालत की भी! दूसरा मसला लिबास का था। पतलून, कोट और टाई में कहीं हिंदुस्तानियत नज़र न आई। ये तीनों चीज़ें हमारी गुलामाना (परतंत्रता) ज़हनीयत की नुमाइंदगी करती थीं। बेहद ताज्जुब हुआ हम आज तक उन्हें कैसे पहनते रहे? सोचा पतलून की बजाय पाजामा पहना करेंगे, लेकिन किसी फ़ारसी ने बताया 'पाजामा’ लफ़्ज़ भी ईरान से हिन्दोस्तान में आया है। हम धोती और कुर्ता पहनने लगे। क़मीस इसलिए नहीं कि क़मीस अरबी का लफ़्ज़ है और इस में अरब की बू-बास बसी हुई है। तीसरा मसला बालों का था। अंग्रेज़ी ढंग से बाल रखना मुल्क से ग़द्दारी नहीं तो और क्या है? हमने नाई से कहा हमारे सर के दर्मियान एक लंबी चोटी रखने के बाद सारे बाल काट दो। उसने ऐसा ही किया। क़दीम हिंदुस्तानियों की तसावीर (चित्रों) में हमने देखा था, वो बड़ी घन्नी और लंबी मूंछें रखा करते थे। उनकी पैरवी करते हुए हम मूंछें बढ़ाने लगे। हमारे छोटे से चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें देखकर हमारे अहबाब समझे हमने किसी नाटक में काम करने के लिए बनावटी मूंछें लगाई हैं। अहबाब की बात छोडि़ए, जब हम अपने को इस नए रूप में देखते, यूं महसूस होता हमें ख़ुदा ने नहीं शंकर कार्टूनिस्ट ने बनाया है। लेकिन हम ज़रा भी नहीं घबराए। हिन्दुस्तानी बनने के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ता। अब आप हमारी ऐनक ही को लीजिए। हमने कई पंडितों से पूछा। क्या रामायण और महाभारत में कहीं ऐनक का ज़िक्र भी आया है? इन्होंने कहा, ''उस दौर में लोग वनासपती घी कहां खाते थे जो उनकी बीनाई (दृष्टि) जवानी ही में कमज़ोर हो जाती।’’ हमने सवाल किया, ''क्या सुग्रीव, कुंभकर्ण, दुशासन सबकी बीनाई इतनी तेज़ थी कि उन्हें कभी ऐनक लगाने की ज़रूरत महसूस ना हुई? कहने लगे वो सब काजल लगाया करते थे। हमें अपने मसले का हल मिल गया। ऐनक उतार दी और काजल इस्तेमाल करने लगे। नतीजा ये हुआ कि रात के वक़्त रस्सी पर सांप और बकरे पर कुत्ते का धोका होने लगा। नीज़ जब कोई किताब पढऩे की कोशिश करते तो काला अक्षर भैंस बराबर वाला मुआमला होता। कुछ दिनों बाद हमें रात के इलावा दिन में भी हर चीज़ पर किसी दूसरी चीज़ का धोका होने लगा। आंखों के एक डाक्टर से मश्विरा किया उसने समझाया; ''अगर आप अंधे नहीं होना चाहते तो फ़ौरन ऐनक लगा लीजिए।’’ लेकिन ये हिन्दुस्तानी नहीं है। ''इस से क्या फ़र्क पड़ता है। ये घड़ी जो आपने कलाई पर बांध रखी है, हिन्दुस्तानी नहीं और ये सिगरेट जो आप पी रहे हैं, ये सभी हिन्दुस्तानी कहां है।’’ ''आपने बहुत अच्छे वक़्त याद दिलाया। कल से हम हुक्का पिया करेंगे।’’ ''और घड़ी के बारे में आपने क्या सोचा है?’’ ''घड़ी उतार देंगे।’’ ''और वक़्त मालूम करना हुआ तो?’’ ''किसी से पूछ लिया करेंगे।’’ ''खैर जो चाहे कीजिए, लेकिन ऐनक ज़रूर लगा लीजिए। नहीं तो आंखें ना रहेंगी।’’ ये सोचते हुए कि अगर हम अंधे हो गए तो हिन्दोस्तान में अंधों की तादाद में इज़ाफ़ा करने के सिवा और कुछ ना कर सकेंगे। हम ने ऐनक लगा ली। एक रात जब हम टेलीविज़न देख रहे थे। हमारे एक दोस्त ने एतराज़ किया। टेलीविज़न हिन्दुस्तानी नहीं। हमने उस की अक्ल का मातम करते हुए कहा;’’ अगर ज़माना-ए-क़दीम में टेलीविज़न ना होता तो संजय महाराज धृतराष्ट्र को महाभारत का आंखों देखा हाल किस तरह सुना सकते थे?’’ ''वो तो योग का मोजिज़ा (चमत्कार) था।’’ ''आप उसे योग का मोजिज़ा कह लीजिए। हम तो समझते हैं संजय के पास टेलीविज़न सेट था।’’ ''संजय की वफ़ात के बाद वो सेट कहां गया?’’ ''महाभारत की जंग में तबाह हो गया।’’ कुछ और दिनों के बाद हमारे एक दोस्त ने हम पर नुक्ताचीनी करते हुए कहा; ''आपने अपना भारतीयकरण तो कर लिया, लेकिन आप बूट क्यों पहनते हैं?’’ ''कल से जूता पहना करेंगे।’’ जूता पहन कर चलने में काफ़ी तकलीफ़ का एहसास हुआ क्योंकि वो पांव को बुरी तरह काटता था। हमने उस की भी परवाह न की। लेकिन बातें बनाने वाले कब चुप रह सकते थे कहने लगे। आप बस या टैक्सी में दफ़्तर क्यों जाते हैं। रथ या पालकी में जाया कीजिए. हमने झुँझला कर कहा - ''बीसवीं सदी में रथ और पालकियां हैं कहां जिनमें सवार हुआ जा सके?’’ ''तो फिर पैदल जाया कीजिए।’’ ''दफ़्तर आठ मील पर है। पैदल किस तरह जा सकते हैं?’’ ''तो फिर भारतीयकरण का ख़ब्त छोड़ दीजिए।’’ ''वो हम नहीं छोड़ सकते।’’ वो फबती कसते हुए बोला; ''आपकी श्रीमती जी तो अभी तक लिपस्टिक और पोडर लगाती हैं उनका भारतीयकरण कब होगा?’’ बात तल्ख़ ज़रूर थी, लेकिन सच्ची थी। हमने वादा किया कि श्रीमती जी से इसरार करेंगे, आइन्दा पान से अपने होंट रंगा करें और पाउडर की बजाय चंदन का लेप किया करें। हमने समझा था कि अब कोई नुक्ताचीं हम पर इल्ज़ाम ना लगाएगा कि हम सौ फ़ी सद हिन्दुस्तानी नहीं हैं। लेकिन हमारा ख़्याल ग़लत साबित हुआ। एक शाम कुछ नौजवान हमें मुबारकबाद देने के बहाने घर पर आए। बातों-बातों में इन्होंने पूछा; ''मुकम्मल हिन्दुस्तानी होने के बावजूद आपने टेलीफोन क्यों लगा रखा है?’’ ''टेलीफोन तो जि़ंदगी की एक अहम ज़रूरत है।’’ ''लेकिन इस की ईजाद हिन्दोस्तान में नहीं हुई।’’ ''यूं तो बिजली की ईजाद भी हिन्दोस्तान में नहीं हुई।’’ ''आप बजा फ़रमाते हैं। फिर बिजली के बल्बों की बजाय चिराग़ जलाया कीजिए।’’ ''चराग़ों से इतनी रोशनी कैसे हासिल की जा सकती है?’’ ''आपने घर में कुर्सियाँ क्यों रखी हुई हैं?’’ ''बैठने के लिए।’’ ''क़दीम हिन्दुस्तानी कुर्सीयों पर नहीं बैठते थे।’’ ''और किस चीज़ पर बैठते थे?’’ ''फ़र्श पर।’’ दो-एक मिनट के सुकूत (ख़ामोशी) के बाद एक नौजवान ने कहा; ''आप चाय क्यों पीते हैं?’’ ''और क्या पिया करें?’’ ''जोशांदा’’ ''जोशांदा भी कोई पीने की चीज़ है?’’ ''फिर दूध पिया कीजिए।’’ ''दूध हज़म नहीं होता फिर महंगा भी है।’’ ''आपके लड़के मेडीकल कॉलेज में क्यों पढ़ते हैं?’’ ''हम उन्हें डाक्टर बनाना चाहते हैं।’’ ''डाक्टर क्यों, वेद्य क्यों नहीं?’’ ''हमारा आयुर्वेदिक सिस्टम में एतिकाद नहीं है।’’ ''वो ख़ालिस हिन्दुस्तानी सिस्टम है।’’ ''होगा। हमें पसंद नहीं।’’ ''बाक़ी हिन्दुस्तानी चीज़ें पसंद हैं, ये क्यों नहीं?’’ ''इस सवाल का हमारे पास कोई जवाब नहीं।’’ ''इस का मतलब ये हुआ कि आप सौ फ़ी सदी हिन्दुस्तानी नहीं।’’ वो चले गए, लेकिन हम अजीब दुविधा में पड़ गए। कितना इतना कुछ करने के बाद भी हम अपना मुकम्मल भारतीयकरण नहीं कर सके? क्या वाक़ई चिराग़ जलाना होंगे? जोशांदा पीना पड़ेगा? लड़कों को गुरूकुल भेजना होगा? और ये सब कुछ कर लिया तो नुक्ताचीं कहेंगे आप अंग्रेज़ी अख़बार क्यों पढ़ते हैं? पेनिसिलीन के टीके क्यों लगवाते हैं? केक और बिस्कुट क्यों खाते हैं? श्रीमती जी को डार्लिंग क्यों कहते हैं? बहुत देर तक सोचने के बाद हमने फैसला किया, अख़बारात में ऐलान कर दें। जहां तक मुमकिन था, हमने अपना भारतीयकरण कर लिया है। इस से ज़्यादाभारतीय करण करने की हम में तौफ़ीक़ नहीं।
लिप्यांतर : राजकुमार केसवानी |