मुखपृष्ठ पिछले अंक उत्तर पूर्व : सिक्किम - सभ्यता के पहाड़ी रास्तों पर!
अक्टूबर - 2019

उत्तर पूर्व : सिक्किम - सभ्यता के पहाड़ी रास्तों पर!

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती परबत परबत

 

 

पहाड़ी रास्तों पर पर्वतों के बीच बने दर्रे हमेशा से मुझे चमत्कृत करते रहे हैं। सभ्यताओं के विकास में इन दर्रों से होकर गुज़रते पुरातन व्यापारिक रास्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मध्य एशिया की जिन घाटियों, पहाड़ों और वादियों को पार करते हुए व्यापारी, सैनिक और संभवत: मार्को पोलो, व्हान सेंग और वाहयान जैसे खोजी पर्यटक नए प्रदेशों में आ पहुंचे थे, शायद उन्हीं रास्तों से मूलत: बंजारे प्रवृत्ति के मनुष्य और उसकी 'ऐ मेरे दिल कहीं और चल’ की चाह ने धरती पर कई-कई सभ्याओं और संस्कृतियों को जन्म दिया। मध्य एशिया और चीन-भारत ही नहीं, सुदूर लातिन अमेरिका की माया और इंका सभ्यताओं में भी पगडंडियों से लेकर इन्हीं लम्बे, सुदूर रास्तों की अहम भूमिका रही है। इन्हीं से कालांतर में हमने पगडंडियों को रास्तों और रास्तों को सड़कों, राजमार्गों और आठ गलियों वाले 'सुपर हाईवे’ में तब्दील होते देखा है। इन्हीं पर चलकर वनस्पतियों, फलों, रेशमी सामानों, नए मसालों और दुर्लभ खनिजों की जानकारी विश्व के कोने कोने में फैली और इन्हीं पर सैनिकों और उनकी सेनाओं ने जाने कितनी संगीन लड़ाईयां लड़ लाखों की जान ले ली।

जमी हुई बर्फीली गुरुडोंगमार के सुदूर छोर से लाचेन और वहाँ से फिर वापस सभ्यता की ओर लौटते हुए हमने सिक्किम की पूर्वी सीमाओं पर दर्रों के बीच से जाने वाले सदियों पुराने 'सिल्क रूट’ को छूने का मन बनाया था। लेकिन इससे पहले हमें उत्तर सिक्किम के सबसे कम आबादी वाले इलाकों से नीचे आ, प्रदेश के सबसे सघन शहरों से गुज़ारना था। सिक्किम प्रान्त चार जिलों उत्तर सिक्किम, पूर्व सिक्किम, दक्षिण और पश्चिम सिक्किम में बंटा हुआ है। हमारी पिछली कड़ी उत्तरी सिक्किम में बीती थी, जो क्षेत्रफल में सबसे बड़ा लेकिन जनसंख्या के हिसाब से सबसे छोटा ज़िला है। पश्चिम बंगाल से सटा दक्षिणी ज़िला क्षेत्रफल में सबसे छोटा है लेकिन घनी आबादी के हिसाब से यह पूर्वी सिक्किम के बाद प्रदेश का सबसे घनी आबादी वाला हिस्सा है। पूर्वी सिक्किम में बड़ी जनसँख्या राजधानी गंगटोक में केन्द्रित है। यदि इसे निकाल दिया जाए तो दक्षिणी सिक्किम सबसे घनी आबादी वाला ज़िला दिखाई देगा। सिक्किम की पहली यात्रा मैंने यहाँ के खूबसूरत रावंगला शहर से शुरू की थी, जहाँ से मायेनम अभयारण्य की सरहद शुरू होती है और ट्रैफिक न हो तो सिलीगुड़ी से जहां पहुँचने में दो से ढाई घंटे से अधिक नहीं लगते। वहां से दिखती हिमालय की बर्फीली चोटियाँ और चाय के बगानों में चहचहाते हिमालय के अनेकानेक पक्षी अब भी मेरी स्मृति में हैं।    

सिक्किम का पश्चिमी ज़िला एक तरह से तिब्बत से यहाँ आने वाले बौद्ध लामाओं का प्रवेश द्वार था। यहीं से तेरहवीं शताब्दी के बाद बौद्ध धर्म पूरे प्रदेश में फैला था। सत्रहवीं शताब्दी में तिब्बत से तीन दिशाओं से डेन्जोंग (अज्ञात देश—सिक्किम) में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निकले तीन लामा  पश्चिमी ज़िले के नोर्बुगांग में इक_े हुए थे और पूर्व से आने वाले एक चौथे व्यक्ति को खोजने के बाद उन्होंने उसे प्रदेश का राजा घोषित कर 'चोग्याल’ की उपाधि दी थी। राज्याभिषेक का स्थल नोर्बुगांग तब से युक्सोम (स्थानीय भाषा में 'तीन लामाओं के मिलन का स्थल’) नाम से जाना जाता है और यहीं से सिक्किम में चोग्याल राजाओं का वंश शुरू हुआ जो 1975 में भारत से विलय तक कायम रहा। कई वर्षों तक युक्सोम प्रदेश की राजधानी भी रहा। बाद में राजा तेन्सुंग नामग्याल ने 1670 में राब्देंत्से को राजधानी बनाया। अ_ारहवीं शताब्दी में  गोरखाओं ने राब्देंत्से को पूरी तरह नष्ट कर दिया था जिसके बाद तत्कालीन चोग्याल तिब्बत भाग गया था, जहाँ अंतत: उसकी मृत्यु हुई। 1793 में बने नए चोग्याल त्सुग्फुद नाम्याल ने एक बार फिर प्रदेश की राजधानी को राब्देंत्से से तुमलोंग स्थानांतरित कर दिया था।

वर्तमान में युक्सोम एक पर्यटक स्थल और लोकप्रिय गोएचाला ट्रेक का आरम्भ बिंदु है। यह ट्रेक अब सुदूर देशों से आने वाले विदेशी पर्यटकों के बीच भी बेहद लोकप्रिय हो गया है। कुछ हज़ार की आबादी वाले इस शहर में स्थानीय भूटिया लोगों से अधिक पर्यटक दिखेंगे। शहर का लगभग सारा व्यवसाय भी नीचे मैदानों से आये बाहरी लोगों के हाथ में है।

युक्सोम से दक्षिण में 40 किलोमीटर के फासले पर उनींदा सा शहर पेलिंग है जो अपने विख्यात पेमयांग्त्से बौद्ध विहार के लिए जाना जाता है। इसी के नज़दीक गोरखाओं  द्वारा नष्ट राब्देंत्से महल के अवशेष भी देखे जा सकते हैं। यहाँ से कोई 8 किलोमीटर पहले आप छोटे से गाँव दरप से गुजरेंगे जहाँ लिम्बू जनजाति के सदस्य आज भी दूध निकालने, फसल बोने और पनीर बनाने की पारंपरिक विधियाँ पर्यटकों को दिखाते हैं। आप चाहें तो इनके कच्चे घरों में रात भी बिता सकते हैं। सात वर्ष पहले अपनी पहली यात्रा के समय पेलिंग शहर में रहने की जगह ढूंढना तक मुश्किल हुआ करता था और वहां मच्छरों के बीच बमुश्किल बीती रात मुझे आज भी याद है। आज जगह-जगह छोटे छोटे होटलों और होमस्टे ने यहाँ टिकना बेहद आसान बना दिया है। दुकानों पर चीन में बने ड्रैगन वाले चाय के कपों की भरमार मिलेगी। यह सारा सामान शायद नेपाल के रास्ते यहाँ पहुँचता है। यहीं से आप पूर्व सिक्किम में गंगटोक जाने वाली सड़क की ओर मुड़ जाते हैं।  

सिक्किम की ही तरह इसकी राजधानी गंगटोक का इतिहास भी बहुत धुंधला है। इतना ज़रूर है कि पुरातन काल से ही 'सिल्क रूट’ पर बने नाथुला और जेलेपला दर्रों के ज़रिए तिब्बत का सामान कलकत्ता तक पहुँचने में गंगटोक एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। 1840 में एनचे बौद्ध विहार के बनने से पहले तक गंगटोक एक छोटा सा नामालूम गाँव था। अंग्रेज़ों के अधीन काम करने वाले सिक्किम के नरेश थुतोब नामग्याल ने 1894 में अपनी राजधानी को तुमलोंग से गंगटोक ले जाने का फैसला किया था, जिससे तिब्बत के व्यापारियों के साथ-साथ कुछ पर्यटक भी यहाँ आने लगे थे। 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद सिल्क रूट के दोनों दर्रे बंद करने के बाद व्यापार एक बार फिर मंदी का शिकार हो गया था। नाथुला दर्रा अंतत: 2006 में खुला था। तब तक अपने तंग पथरीले रास्तों और भूकंपग्रस्त प्रदेश के विशेषणों के बावजूद गंगटोक एक अत्यंत लोकप्रिय पर्यटक स्थल का दर्ज़ा पा चुका था।

जैसा कि हमारे देश में अक्सर होता है, गंगटोक की लोकप्रियता में ज़ीनत अमान की 1971 में आयी हिट फिल्म 'हरे राम हरे कृष्ण’ का बड़ा हाथ था। इस फिल्म का बड़ा हिस्सा गंगटोक में फिल्माया गया था। वर्तमान में प्रतिवर्ष कोई चार से पांच लाख पर्यटक गंगटोक आते हैं। लेपचा, भूटिया और नेपालियों की कुल एक लाख आबादी के साथ गंगटोक में इनके साथ कई हज़ार अस्थायी आवास (फ्लोटिंग पापुलेशन) वाले पर्यटक हमेशा मिलेंगे, जिनके चलते एक तरफ रेस्तराओं तो दूसरी तरफ फुटकर दुकानों की भरमार यहाँ की बेतरतीब और संकरी सड़कों पर यातायात को कुछ और संगीन बना देती है। निजी वाहनों और काली पीली टैक्सिओं को यहाँ-वहां रुकने की सख्त मनाही है और बस अड्डों को छोड़ शहर में इनके लिए बहुत कम जगह है।

इतने पथरीले और तंग शहर में एक बहुत बड़े और मुक्त, बिना पिंजरों वाले विरल और दुर्लभ प्राणी पर्यावरण पार्क का होना अपने आप में एक आश्चर्य है। इसके पेड़ों और प्रकृति से ढंके लम्बे रास्तों पर आप अपना वाहन भी ले जा सकते हैं और यहाँ दूसरे संकटग्रस्त पहाड़ी जीवों के साथ साथ ऊंची टहनियों पर बैठे खूबसूरत और दुर्लभ लाल पांडा को भी तस्वीरों में बाँध सकते हैं। लेकिन बादलों भरी ठंडी सुबह रविवार की छुट्टी के बावजूद पूरा पार्क लगभग खाली था, जबकि इसके ठीक बाहर, पर्यटकों के जमावड़े मुख्य बाज़ार में निरूद्देश्य भटकते या बौद्ध 'मोनास्त्रियों’/ हिन्दू मंदिरों के आसपास अपने फोनों पर 'सेल्फी’ निकालने में व्यस्त थे। सुरम्य पर्यटक स्थलों पर बनियान में खड़े होकर, ऊंचे स्वर में बजते ट्रांजिस्टर के साथ नाचना और फोटो खिंचाना इन पर्यटकों के लिए तफ़रीह की पराकाष्ठा है और इलाके के संवेदनशील पर्यावरण संबंधी नियमों को तोडऩा इनकी शान और फितरत! पता नहीं हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय कर ये इन सुदूर स्थलों पर क्यों आते हैं, जबकि ये सारे करतब वे अपने कांक्रीट के जंगलों में कहीं अधिक आसानी के साथ संपन्न कर सकते हैं.  विडम्बना यह है कि आज के भारतीय पर्यटक के लिए किसी स्थल को जानना गौण और वहां खींची तस्वीर से फेसबुक पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना अधिक महत्वपूर्ण हो चला है। देशी-विदेशी स्थलों की प्राचीन दीवारों और इसके शाश्वत पेड़ों-दरख्तों को कुरूप करने और पारंपरिक धरोहरों को नष्ट करने या इसके हिस्सों को चुराने में हम हिंदुस्तानी सारे विश्व में अपना नाम अर्जित कर चुके हैं। देखा जाए तो इसमें और व्यापार के लिए की जाने वाली सुनियोजित पर्यावरण या पुरातत्व की तस्करी में कोई ख़ास अंतर नहीं है।

सिक्किम की सरकार पर्यटन को बढ़ाने और प्रदेश में आत्मनिर्भरता लाने के लिए कई तरह के प्रयास करती रही है। यदि मारवाडिय़ों, बिहारियों और कुछ हद तक बंगालियों के निजी व्यवसाय को छोड़ दिया जाए तो गंगटोक का लगभग सारा कारोबार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के हाथ में हैं। दृष्टव्य है कि सरकार ने सारे कृषि उद्योग को सौ प्रतिशत जैविक खेती में बदलने का लक्ष्य 2016 में पूरा कर लिया था। पूरे प्रदेश में पानी के लिए प्लास्टिक की बोतलों पर प्रतिबन्ध है। गंगटोक की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा नौकरियों या छोटे-मोटे व्यवसायों के ज़रिए पर्यटन उद्योग से जुड़ा है। धनोपार्जन के सही-गलत तरीकों की तलाश में सरकार ने कुछ समय पहले देश की पहली ऑन लाइन लाटरी 'प्लेविन’ भी शुरू की थी पर उच्च न्यायालय ने इस पर तुरंत अंकुश लगा दिया था। नाथुला दर्रे के खुलने के बाद से सरकार तिब्बत की राजधानी ल्हासा और गंगटोक के बीच बस यात्रा शुरू करने पर भी विचार कर रही है। सीमावर्ती होने के नाते राज्य में सेना की भी पर्याप्त उपस्थिति है जिससे सरकार काफी राजस्व अर्जित करती है। प्रदेश के नए मुख्यमंत्री देश के इस अत्यंत प्रगतिशील प्रांत को किस दिशा में ले जाते हैं, यह देखना अभी बाकी है।

गंगटोक से पूर्व में कुपुप  के ओर जाने वाली सड़क पर शहर से कुछ बाहर निकलते ही पुलिस वालों ने हमारी गाड़ी को रोक दिया। पता चला कि आगे एक सड़क दुर्घटना की वजह से रास्ता बंद है और रात तक उसके खुलने की कोई संभावना नहीं है। पहाड़ी सड़कों पर यह संकट लगातार बना रहता है। यदि दुर्घटना न भी हो तो भूस्खलन ही कई घंटों और कभी कभी दिनों तक रास्ता रोकने के लिए पर्याप्त होता है।  इन रास्तों पर असीम धैर्य का परिचय देते हुए ट्रक ड्राईवर अक्सर हर संभावना के लिए तैयार, पूरे इंतज़ाम के साथ घर से निकलते हैं। विक्षेप के दौरान ये अक्सर गाडिय़ों की अंतहीन कतार के बीच आराम से दरी बिछाकर ताश खेलते मिल जायेंगे। फूहड़ और कई बार महीन डिजाइनों की पच्चीकारी और झालरों, आगे-पीछे लटके काले परांदों या सुनहरी पहिये के ढक्कनों (हब कैप) की माला एवं पीछे अंकित 'साहित्यिक सूक्तियों’ सहित इनकी सारी ज़िन्दगी अपनी लाडली ट्रक के इर्द गिर्द घूमती है। ऐसी ही एक सजी धजी, बिहार की नंबर प्लेट वाली ट्रक ने सड़क बंद होने की उस झुंझलाहट को हँसी में बदल दिया। ट्रक के आगे नंबर प्लेट के ऊपर 'परदेसी आ रहा है’ की सूचना थी और पीछे 'ओ के टा टा फिर मिलेंगे’ के सुपरिचित सन्देश के साथ जानकारी थी कि 'परदेसी जा रहा है’!

ट्रक व्यवसाय सहित, भारतीय जीवन का शायद ही कोई हिस्सा होगा जिसे किसी न किसी रूप में हमारी फिल्मों ने न छुआ हो। मेरे ज़ेहन में सत्यजित राय की बंगला फिल्म 'अभिजान’ (सौमित्र चैटर्जी और वहीदा रहमान) (ताराशंकर की कहानी) से लेकर गुलज़ार की 'नमकीन’ (संजीव, शर्मीला, शबाना) (समरेश बासु की कहानी) और इम्तियाज़ अली की अपेक्षाकृत नयी 'हाईवे’ उभरती हैं जिनका पूरा कथानक ही ड्राईवर की ज़िंदगी के इर्दगिर्द घूमता है।

सिलीगुड़ी से साथ हमारा ड्राईवर देबू, जो सिक्किम के हर दूर दराज़ के इलाके से परिचित है, रुकी हुई ट्रकों की लम्बी कतार देख हमें विकल्प सुझाता है कि यदि हम यहाँ से लौटकर नीचे के रास्ते से पूर्व की ओर निकल जाएं तो रास्ता ठीक होने पर शाम तक ज़ुलुक पहुँच जायेंगे, लेकिन चूंकि हमारे पास सिर्फ इस रास्ते का परमिट है, इसलिए हमें भीतरी इलाके का नया परमिट चेकपोस्ट दफ्तर से बनाना होगा। उसे विश्वास है कि रास्ता बंद होने की दलील पर नया दस्तावेज़ ज़रूर मिल जाएगा। इसी सलाह पर अमल करते हुए हम अपने आपको पहाड़ों के एक और नए 'जीरो पॉइंट’ रोंगली बाज़ार में पाते हैं, जहां देबू हमारी तस्वीरों और पते के 'एड्रेस प्रुफ’ की प्रतियाँ लिए परमिट के दफ्तर का रुख करता है और हम एक अदद 'वाई वाई’ खा चुकने के बाद यूं ही उस छोटे से बाज़ार में मटरगश्ती करने लगते हैं।

रान्गपो नदी के किनारे बसा रोंगली बाज़ार एक तरह से पूर्वी सिक्किम की पहाडिय़ों का प्रवेशद्वार है। यहाँ से एक रास्ता नीचे पश्चिमी बंगाल के लावा क्षेत्र में निकल जाता है तो दूसरा ऊपर ज़ुलुक पहाड़ों से होता हुआ आगे कुपुप और तिब्बत, चीन की ओर खुलने वाले नाथुला दर्रे की ओर ले जाता है। रोंगली बाज़ार की दुकानों की लिखावट से समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि इनके मालिक स्थानीय नहीं बल्कि सुदूर नेपाल या फिर बंगाल से व्यवसाय की तलाश में यहाँ आये है. नेपाली यहाँ की प्रचलित भाषा है और संस्कृतनिष्ठ नामों से उनके हिन्दू होने का आभास मिलता है।

श्रेष्ठ मेडिकल के साहा बाबू तीस वर्ष पहले उत्तरी बंगाल से यहाँ आये थे और मामूली पढ़ाई के बावजूद अब वे आम ग्राहकों को साधारण बीमारियों की दवा खुद दे देते हैं। वे बताते हैं कि पिछले दो दशकों में देश की लगभग सभी बड़ी फार्मा कंपनियों ने सिक्किम में कारखाने शुरू किये हैं। इसकी बड़ी वजह है कि यहाँ मौसम ठंडा है और सरकार इन कंपनियों को काम करने की खुली छूट देती है। यही नहीं, नए कारखानों के लिए दस वर्षों तक राजस्व और इनकम टैक्स माफ़ है. ये बहुत बड़े फायदे हैं। हम कुछ समय पहले ही कुमरेक, रान्गपो में सिप्ला के 12 एकड़ में फैले कारखाने के सामने से होते हुए यहाँ रोंगली पहुंचे हैं। सिप्ला के अलावा सन फार्मा, ज़ाईडस, अलेम्बिक, टोरेंट, इप्का, युनिकेम आदि कई बड़े नाम हैं जिनके कारखाने अब सिक्किम में हैं और अब तक इस क्षेत्र में ढाई हज़ार करोड़ से अधिक का निवेश हो चुका है। गोआ एवं बडी (हिमाचल प्रदेश) के बड़े फार्मा केन्द्रों के मुकाबले सिक्किम अब अधिक आकर्षक साबित होने लगा है। यही नहीं, दूरदर्शी निवेशक जानते हैं कि भविष्य में नाथुला दर्रे के ज़रिए उनके उत्पादों के चीन के बहुत बड़े बाज़ार तक पहुँचने की सम्भावना भी बन सकती है। यद्यपि फिलहाल अधिकाँश कारखानों में बाहर से आयी दवाओं से महज़ गोलियां, इंजेक्शन और कैप्सूल ही बनते हैं (जिससे पर्यावरण को कोई ख़ास खतरा नहीं पैदा होता), लेकिन इसके बावजूद इनसे हज़ारों स्थानीय लोगों और विशेष रूप से महिलाओं को रोज़गार के नए अवसर मिले हैं। साहा बाबू की बड़ी लड़की खुद सिप्ला के कारखाने में स$फेद एप्रन लगाकर काम करती है और तनख्वाह के अलावा परिवार के लिए रियायती दरों पर दवा भी पाती है।

लगभग एक घंटे के बाद देबू लौटा तो उसके चेहरे पर मुस्कराहट और हाथ में हमारे नए अनुमति पत्र और 'रूट परमिट’ थे। रोंगली की बाहरी गुमटी से कागज़ों पर ठप्पा लगवाकर हम आगे बढ़े तो हल्की बारिश होने लगी थी। रोंगली बाज़ार से आगे का क्षत विक्षत रास्ता नदी के किनारे बादलों से ढंकी घाटी के बीच धीरे धीरे ऊपर चढ़ता चला जाता है। लगभग एक घंटे की चढ़ाई के बाद हम पांच हज़ार फीट की ऊँचाई पर स्थित छोटे से गाँव लिग्ताम में थे, जो अपने दो बौद्ध विहारों के लिए जाना जाता है। चाय की दुकान पर एक नौजवान औरत अपने छोटे से बच्चे के साथ थी। उसे चाय बनाने की सुविधा देने के लिए देबू बच्चे को अपनी गोद में ले लेता है। चाय की ये छोटी छोटी दुकानें आम तौर पर औरतें चलाती हैं, जबकि पुरुष आसपास मजदूरी के लिए जाते है। कुछ ही देर बाद औरत की बड़ी बहन पड़ोस से हाल जानने वहां आ जाती है। हम अपरिचितों पर एक कौतूहल भरी नज़र डाल वह अपनी बहन से बतियाने में व्यस्त हो जाती है। बीच में वह बच्चे को देबू की गोद से लेने का आग्रह भी करती है लेकिन बच्चा देबू की गोद छोडऩे के लिए तैयार नहीं। वह औरत देबू की ओर देख मुस्कराती है। वे सब शायद उसे पहचानते हैं। दोनों बहनों के साथ देबू भी अब बातचीत में हिस्सेदार बन जाता है। वे कुछ विचित्र सी नेपाली में बात कर रहे हैं। शायद वह वहाँ की मिलीजुली भाषा है। देबू बताता है कि इस तरफ उसका आना तीन सप्ताह बाद हुआ है।

ज़ुलुक पहुँचने तक अँधेरा घिर चुका होता है। जीप जहाँ रुकी है वहां घुप्प अँधेरे में किसी बस्ती का नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता। लेकिन चार पांच नौजवान अँधेरे से प्रकट हो जीप से हमारा सामान उतार हमें अपने पीछे पीछे चलने की सलाह देते हैं। देबू की मूक सहमति पाने के बाद हम फिसलन भरी ढलान पर उनके पीछे पीछे नीचे उतरते हैं तो सामने की पहाड़ी पर कुछ बत्तियां दिखाई देती हैं। कुछ और नीचे आने पर बारिश में भीगी एक झुग्गीनुमा बस्ती की रेखाएं उभरती है। इनके बीच से होते हुए हम ढलान की फिसलन पर खड़े दो कमरों तक पहुँचते हैं, जिसके दो कमज़ोर सोलर बल्ब अँधेरे को तोडऩे का बहाना भर लगते है। हमें यहाँ तीन रातें गुजारनी हैं। देबू कुछ असमंजस से बताता है कि ज़ुलुक में इन होमस्टे कमरों से बेहतर जगह मिलना मुश्किल है। हम गौर करते हैं कि बारिश पिछले दो घंटों से उसी रफ़्तार से गिर रही है और हमारे मोबाइल फोनों में सिगनल का नामोनिशान तक नहीं है।

भोजन का इंतज़ाम हमारे बगल की झोंपड़ीनुमा रसोई में है। पिछले कई दिनों से हम वाई वाई और मोटे दाल चावल की खूराक पर जिंदा हैं। उस वीराने में इससे भी बदतर की उम्मीद करते, बारिश से भीगते हम सिर झुकाकर रसोईघर में दाखिल होते हैं तो गर्म चूल्हे के पीछे एक महिला आकृति हमारा स्वागत करती है. खाली थालियों में एक ओर कच्चे प्याज़ के चंद टुकड़े हैं। और फिर किसी दैविक चमत्कार की तरह अन्न की देवी आलू-मटर की गर्मागर्म सब्ज़ी के साथ बारी बारी से, कोयले की आग में फूला एक-एक फुल्का हमारी थाली में डालती जाती है तो हममें से हरएक पहले तय कर लेना चाहता है कि नींद के झोंके में कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे?

मेरसी दंपत्ति पिछले डेढ़ साल से यह छोटा सा होमस्टे चला रहे हैं। नहीं, वे अधिकाँश समय भात ही खाते हैं लेकिन डोना मेरसी जानती हैं कि मेहमानों को बरसात के मौसम में फुल्के अच्छे लगते हैं। अगली शाम वह हमें पकौड़े खिलाने का वादा करती है तो हम अभिभूत हो जाते हैं। उन्होंने उत्तर भारतीय भोजन रोंगली बाज़ार के मालिकों से सीखा है, जहां वे पहले काम करती थी। वे भूटिया जाति के हैं और कई जगहों से गुज़रने के बाद यहाँ ज़ुलुक में आये है। यह जगह बेशक सड़क से कुछ नीचे ढलान पर है, लेकिन देबू और दूसरे ड्राईवरों के संपर्क से होमस्टे लगभग भरा ही रहता है। एक बार यहाँ ठहरने वाला दुबारा यहाँ ज़रूर आता है, डोना के पति कुछ गर्व के साथ कहते हैं, और फिर टोकरी में बंद एक बहुत छोटे झक्क स$फेद पिल्ले को दुलारने लगते हैं। वे दो दिन पहले ही इसे रोंगली बाज़ार से लाये है और अभी उसने ठीक से अपनी आँखें भी नहीं खोली हैं। हम प्रशंसात्मक नज़रों से दीवारों की सजावट को देखने लगते हैं।

बारिश सारी रात होती रही। सुबह दरवाज़ा खोलकर हम बाहर निकले तो सामने की धुंध भरी पहाड़ी से छनकर आती संगीत की हल्की सी आवाज़ हमारे कानों में थी, जिसे पहचानने में ज़्यादा समय नहीं लगा। यह जगजीत सिंह का गाया भजन था, जिसे उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्ध में रेकॉर्ड किया था। ''तू ही जगदाता, विश्वविधाता, तू ही सुबह तू ही शाम, हे राम, हे राम...’’  उस वीराने में आवाज़ की शाश्वतता इतनी गहरी थी कि लगता था, ईश्वर यदि सचमुच है तो उसे निश्चय ही ज़ुलुक की इन पहाडिय़ों से बहुत दूर नहीं होना चाहिए....

सामने पहाड़ी पर मिलिट्री छावनी थी और वह आवाज़ वहां बने एक छोटे से मंदिर के लाउडस्पीकर से उभरकर आ रही थी। ज़ुलुक और उससे आगे तमाम जगहों पर फ़ौज की उपस्थिति लगभग हर जगह है। सीमावर्ती प्रदेश होने के कारण यहाँ आवाजाही पर बहुत से नियंत्रण भी हैं। हम जहां भी रुके, हमें अपने शहर और अपनी यात्रा के मकसद के बारे में बताना पड़ा, हालांकि हमारे भरी भरकम कैमरों को देखने के बाद बहुत कुछ कहने की गुंजाइश नहीं बचती थी।

घुमावदार सड़कों में दस हज़ार फीट की ऊँचाई पर बसा ज़ुलुक किसी ज़माने में 'सिल्क रूट’ का आरम्भ हुआ करता था। यह नाम इसलिए क्योंकि इस रास्ते से चीन का बहुमूल्य रेशम इस तरफ और दूसरी ओर कज़ाकिस्तान और उससे आगे काला सागर और योरोप के ठिकानों तक पहुँचता था और इसी से हमारे मसाले और चन्दन की लकड़ी, मध्य एशिया की खजूरों, सूखे मेवों, केसर और लोबान का आदान प्रदान होता था। इन्हीं के ज़रिए बौद्ध धर्म का विश्वव्यापी विस्तार संभव हुआ था। कहा जाता है कि ये रास्ते ईसा पूर्व समय से अस्तित्व में थे, जिनपर कारवाँओं में व्यापारी सामान लेकर चलते थे। इधर के समय में राजनीतिक कारणों से बहुत से रास्ते बंद हो चुके हैं। ज़ुलुक की पहाडिय़ों से सिल्क रूट के इन रास्तों की छटा देखते ही बनती है, इतने मोड़ और घुमावदार रास्ते (जिन्हें कई लोग 'भूलभुलैया’ भी  कहते हैं) शायद ही कहीं और देखने को मिलें।

ज़ुलुक की इस हैरतअंगेज़ सड़क का निर्माण भारतीय सिविल इंजिनियरों ने किया था और उनके मुख्य इंजिनियर की याद में ज़ुलुक से 14 किलोमीटर आगे, ग्यारह हज़ार दो सौ फीट की ऊँचाई पर स्थित है 'थम्बी पॉइंट’, जहाँ से घूमते ही कंचनजंघा का एक विहंगम नज़ारा आँखों के सामने आ जाता है। यदि आसमान साफ़ हो तो यहाँ से ज़ुलुक तक की सड़क के सारे अविश्वनीय घुमाव भी एक साथ देखे जा सकते हैं। यहाँ से नीचे मकानों के छोटे से झुरमुट के आसपास हिमालय के सबसे शानदार पक्षी मोनल अक्सर चुगते मिलेंगे। चमकदार नीली आभा वाले इस पक्षी की मादा बिलकुल अलग भूरे रंग की होती है।

यहाँ से आगे ऊपर चढऩे पर सर्दी के बढऩे के साथ-साथ फौजियों की गतिविधियाँ भी बढऩी शुरू हो जाती हैं। उनके निशाना साधने के रेंजों पर बंदूकों की आवाजों से हल्का सा धुंआ हवा में उठता है और फौजी ट्रकों के काफिले का एक ड्राईवर हमें हाथ हिलाता हुआ आगे बढ़ जाता है। यहीं से कुछ आगे लक्ष्मण चौक है जहाँ से एक रास्ता नाथांग घाटी की और निकल जाता है और दूसरा बाबा के मंदिर और आगे हाथी झील की ओर जाता है। चीन युद्ध के दौरान महार दस्ते के नेतृत्व में चीनियों के विरुद्ध अद्भुत पराक्रम दिखाने वाले लेफ्टिनेंट कर्नल लक्ष्मण सिंह की याद में 2013 में बने इस चौक से कंचनजंघा की चोटियाँ फिर बहुत नज़दीक आती प्रतीत होती हैं।

घुमक्कड़ तबीयत के पर्यटक अक्सर यहाँ से होकर गुज़रते हैं, लेकिन हमारी तरह रात में यहाँ ठहरते नहीं। और उत्तरी सिक्किम की तरह विदेशियों को यहाँ आने की इजाज़त नहीं है। इतनी ऊँचाई पर ऑक्सीजन की कमी भी कई लोगों को परेशान करती है।

तेरह हज़ार फीट से अधिक की ऊँचाई पर ठण्ड से ठुठुरते हम अगले पड़ाव, बाबा के मंदिर, पहुँचते हैं तो सेना द्वारा चलाई कैंटीन में साबूदाने के बड़े और कॉफ़ी हमें जैसे जीवनदान देती है। सिपाही हरभजन सिंह की समाधि पर बना बाबा मंदिर एक अत्यंत लोकप्रिय स्थल है। सेना के स्थानीय सिपाही हरभजन सिंह को 'नाथुला के रखवाले’ की तरह पूजते हैं। अधिकृत जानकारी यह है कि हरभजन सिंह 1965 के भारत-चीन युद्ध में नाथुला दर्रे के पास लड़ाई में शहीद हो गए थे। लेकिन इसके समानांतर किंवदंतियों का एक लम्बा सिलसिला भी है, जिसके अनुसार 1968 की भयानक बारिश में खच्चर से फिसलकर नाले में गिरने से हरभजन सिंह की मृत्यु हो गयी थी पर लाश नहीं मिली थी। कहते हैं कि उनके साथी प्रीतम सिंह ने सपने में  हरभजन से जानकारी मिलने के बाद लाश को बर्फ से ढूंढ निकला था। बहरहाल, शहीद हरभजन सिंह जिस बंकर में थे, वहाँ एक मंदिर बना दिया गया है। सिपाहियों के बीच हरभजन सिंह एक मिसाल की तरह जिंदा हैं और उन्हें संत का दर्ज़ा दे गया है। कहते हैं कि रात के अँधेरे में उनकी घोड़े पर सवार आकृति सरहद की रक्षा करती दिखाई देती है और इसकी पुष्टि चीनी सिपाहियों तक ने की है। श्रद्धालुओं के अनुसार समाधि में इकट्ठा होने वाले पानी को पीने से कई तरह की व्याधियां दूर हो जाती हैं। इन सारे अंधविश्वासों को दरकिनार करने के बाद भी, भगवान के स्थान पर किसी शहीद, हाड़-मांस के सिपाही का पूजा जाना बेहद सराहनीय है!

मंदिर से आगे सरहद की ओर बढ़ते हुए देबू बताता है कि यहाँ हर तरफ सिपाही तैनात हैं और किसी भी जगह अधिक देर तक रुकना फ़ौज वालों को संदेहास्पद लग सकता है। अब हम सिक्किम के आखिरी गाँव कुपुप तक आ पहुंचे हैं जहाँ नीचे फैली खूबसूरत बितान चो झील का गहरे नीले रंग का पानी तेरह हज़ार की ऊँचाई पर लगभग अविश्वसनीय लगता है। अपने आकार के कारण इसे हाथी झील से भी पुकारा जाता है। कुपुप में बाकी चीज़ों के अलावा दुनिया का सबसे ऊंचा 'याक’ गोल्फ मैदान भी है जो 1985 में बनाया गया था। यहीं रास्ते में हम दूसरी झील मेनमेचो के पास से गुज़रते हुए जेलेपला दर्रे के नीचे आ जाते हैं। यहाँ से सुदूर चीन की तरफ के राडार देखे जा सकते हैं। यह हमारी मंजिल का लगभग आखिरी ठिकाना है।

और उसके बाद अंत में चौदह हज़ार फीट पर नाथुला दर्रा—अपने भीतर हज़ारों वर्षों की अनगिनत कहानियाँ, किस्से, वारदातें और यात्राएं समेटे! इसके दूसरी तरफ तिब्बत की चुम्बी घाटी फैली है। इस  ओर फौजी बंकरों के साथ युद्ध स्मारक और एक प्रदर्शनी है। सीढिय़ों से नीचे उतरते हुए यह अहसास होना लाजिमी था कि यह जगह सिक्किम से अधिक सेना का हिंदुस्तान है जो कारगिल से वाघा बॉर्डर तक किसी भी जगह का हो सकता था। यहाँ हर तरफ सेना अपनी पी आर की सार्वजनिक मुद्रा में मुस्कराती दिखाई देती है, आम आदमी को आश्वस्त करती, कि इतने बड़े देश की सुरक्षा उसके सक्षम हाथों में है।

यहाँ से वापस हमें रोंगली बाज़ार होते हुए पश्चिम बंगाल के कलिम्पोंग में प्रवेश करना था। लेकिन उस वक्त फ़ौज के साथ साथ तमाम सीमाओं के बावजूद, आँखों में सिक्किम राज्य का प्रगतिशील और आशावान चेहरा ही सबसे मुखर था।

* * *

 

'बस्ती बस्ती, परबत परबत’ की पिछली तेरह कडिय़ों में आप देश के उत्तर पूर्व प्रान्तों ही नहीं, निकटवर्ती मयनमार और भूटान की अन्तरंग यात्राओं के भी सहभागी रहे है। इनमें बांग्लादेश जोड़ देने से इस समूचे प्रदेश की एक मुकम्मल सांस्कृतिक तस्वीर तैयार होती है, जिसे अपनी खुद की ज़मीन से जोड़े बगैर शायद देश की कोई भी पहचान अधूरी होगी। 1997 में हम बांग्लादेश का भी सफ़र कर चुके हैं और मौका आने पर पर दुबारा भी करेंगे। यह प्रदेश अपने आप में विश्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जहाँ पिछली कई शताब्दियों में हमने अनेकानेक सभ्यताओं का विकास और विघटन देखा है। हमारी यात्राओं में निस्संदेह बहुत कुछ छूट गया होगा और बहुत कुछ ऐसा होगा जिसे हम समेट नहीं पाए होंगे, लेकिन फिर भी उम्मीद है कि इस लम्बे सिलसिले से प्रदेश की समझ में कुछ न कुछ इजाफा ज़रूर हुआ होगा।

 

(उत्तर पूर्व पर 'पहल’ की यह विशेष श्रृंखला यहीं समाप्त होती है। 'बस्ती बस्ती परबत परबत’ के इस धारावाहिक क्रम में अगली बार जितेन्द्र भाटिया अपनी  'लातिन अमेरिका डायरी’ की शुरुआत करेंगे)

संपर्क-9324223043 jb.envirotekindia@gmail.com


Login