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अक्टूबर - 2019

पत्र

शेखर जोशी, प्रदीप पंत, शिवेन्द्र

 

 

 

13-08-2019

प्रिय भाई ज्ञान जी,

आशा है स्वस्थ और सानन्द  होंगे। 'पहल-118’ में आपने स्व. लक्ष्मीधर मालवीय जी की सुपुत्री मधु मालवीय का मार्मिक संस्मरण प्रकाशित कर मन खुश कर दिया।

इलाहाबाद में रहते हुए उनसे केवल दो-तीन बार मिलना हुआ था। कुछ वर्ष पूर्व 'जनसत्ता ‘ में उनका एक अद्भुत संस्मरण पढ़ा था। लोकनाथ बाजार के एक प्रसिद्ध और स्वाभिमानी कुल्फी वाले के संबंध में। उसे पढ़कर मैंने अपनी प्रतिक्रिया 'जनसत्ता’ संपादक के नाम भेजी थी। वह पत्र में प्रकाशित हुई होगी और शायद उन तक पहुंच गई हो। एक दिन जापान से उनका फोन आया। उनकी बातें इतनी आत्मीयता से भरी थीं कि मैं आश्चर्यचकित रह गया। ऐसा लगा जैसे वह मुझे अच्छी तरह जानते हों। मेरी रचनाओं से अच्छी  तरह से परिचित हों।

मैंने उनसे पूछा कि आपने शमशेर जी के 'जस्टफिट’ वाले मकान की छत का फोटो कहां से लिया था?

मेरा अनुमान सही निकला। उन्होंने मुझे बताया कि सड़क पार सामने वाले मकान की छत से वह फोटो लिया गया था।

मेरा सौभाग्य रहा कि प्रसिद्ध हिन्दी सेवी और इटावा हिन्दी सेवानिधि के संस्थापक न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त जी का मुझे स्नेह प्राप्त था। वह प्रतिवर्ष इटावा में अपनी सेवा निधि के वार्षिक आयोजन में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार करने वाले लोगों को सम्मानित करते थे। मैंने एक बार अपने पड़ोसी प्रकाशक आलोक चतुर्वेदी के माध्यम से पत्र भेजकर आदरणीय गुप्त जी से निवेदन किया कि इस वर्ष सेवानिधि के सर्वोच्च पुरस्काार के लिए श्री लक्ष्मीधर मालवीय जी के नाम पर विचार करने की कृपा करें। श्री मालवीय जी इटावा के महाकवि देव के साहित्य पर वर्षों से जापान में रहकर शोध कर रहे हैं।

मेरा पत्र पाते ही गुप्त जी का फोन आया कि उन्हें मेरा सुझाव बहुत प्रीतिकर लगा है। वह स्वयं भी ऐसा चाहते थे, लेकिन मालवीय जी का पता या टेलीफोन नम्बर ज्ञात न होने के कारण उनसे सम्पंर्क नहीं कर पाये।

मैंने अपने प्रकाशक श्री अशोक अग्रवाल के संभावना प्रकाशन हापुड़ से, जो लक्ष्मीधर जी के आमंत्रण पर जापान घूम आए थे, गुप्त जी का संपर्क करा दिया।

कुछ दिनों बाद एक दिन गुप्त जी का फिर फोन आया कि उन्होंने लक्ष्मीधर जी से फोन पर बात की थी, लेकिन मालवीय जी न जाने क्यों बहुत कुपित दिखे और उन्होंने सम्मान स्वीकार करने से इन्कार कर दिया।

मैं सोचता हूँ कि आज यदि न्यायमूर्ति श्री प्रेमशंकर गुप्त जीवित होते और मधु जी के इस संस्मरण को पढ़ते तो उन्हें लक्ष्मीधर जी की मन:स्थिति का आभास हो जाता।

हमारा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ, जहां से कभी एक से बढ़कर एक ग्रंथ प्रकाशित हुए थे, अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुन: अर्जित करने के लिए लक्ष्मीधर मालवीय जी के महाकवि देव साहित्य और उनके द्वारा रचित शब्दकोश को प्रकाश में लाने का उद्यम कर सकेगा? प्रयत्न कर देखें। 

सस्नेह

शेखर जोशी

 

 

(2)

प्रिय ज्ञान भाई,

आशा है, सानन्द है। बहुत दिनों से आपको ख़त लिखने की सोच रहा था, पर नहीं लिख सका। 'पहल’का 116 वां अंक, जिसमें मेरी कहानी है, समय पर मिल गया था। काफी पढ़ भी लिया। 'पहल प्रारंभ’में त्रिभुवन का लेख वर्तमान संदर्भ और स्थितियों में बहुत महत्वपूर्ण है। त्रिभुवन सुलझे हुए पत्रकार हैं और उनका निष्कर्ष सही है कि 'मनुष्य आज जिस तरह की लीला इस धरती पर रच रहा है, उसकी अंतिम परिणति यही है कि मनुष्यता के अवशेष ने आदमी को विनाश का बिजूखा  बना कर नभ में टांग दिया है।‘यह लेख आज राष्ट्रवाद से लेकर बरास्ता राष्ट्रभक्ति राष्ट्रीय उन्माद जैसे मुद्दों पर सोचने के लिए प्रेरित करता है। कभी-कभी मुझे लगता है कि राष्ट्रवाद मनुष्य को अपने ही राष्ट्र की सीमाओं तक संकुचित कर देता है जो आगे चल कर राष्ट्रीय उन्माद का रुप ले लेता है। वर्तमान इसका साक्षी है। और कहना न होगा कि यही उन्माद दूसरे राष्ट्रों, खास तौर पर पड़ोसी राष्ट्रों को अपने में जोडऩे हेतु उन पर हमला करने के लिए प्रेरित करता है। इसके बरक्स राष्ट्रभक्ति भी राष्ट्रवाद और धीरे-धीरे राष्ट्रीय उन्माद का रूप ले लेती है। त्रिभुवन का यह कथन भी गौरतलब है कि 'निर्मल वर्मा ने दुनिया का कोना-कोना देखा था और अंग्रेजी के माध्यम से बहुत से विदेशी साहित्यकारों को पढ़ा था। वे बहुत गहरे साहित्यकार थे। सार्थक और सुवासित गद्य रचते थे, लेकिन उन्हें उदार सांप्रदायिकता का सम्मोहन बार-बार खींचता रहता था।‘खैर गनीमत है कि एकान्तिकता और शब्दों की नक्काशी के बोझ से दबी होने के बावजूद निर्मल वर्मा की कहानियां साम्प्रदायिकता - उदार साम्प्रदायिकता के मोह से मुक्त रहीं, बल्कि 'लंदन की एक रात’जैसी एकाध कहानी तो उनके साहित्यिक रुझानों से बिलकुल अलग जमीन पर खड़ी नज़र आती है। बहरहाल... यह सुखद संयोग है कि त्रिभुवन की नई बातों को रहमान अब्बास का इंटरव्यू हिन्दू-मुस्लिम, धर्म-मजहब आदि के संदर्भ में बड़े करीने से आगे बढ़ाता है।

पाकिस्तान की मरहूम लेखिका, लेकिन हिन्दुस्तान में भी उतनी ही लोकप्रिय फ़हमीदा रियाज़ के साथ टुकड़ों-टुकड़ों हुई राजकुमार केसवानी की बातचीत काश पूरी हो पाती. कुल मिलाकर यह बातचीत अपने अलग ही अंदाज़ में है और फ़हमीदा रियाज़ की शख्सियत के अनेक पहलुओं को सामने लाती है। बाद-बाद में तो यह बातचीत एक नया और रोचक मोड़ ही ले लेती है।

खैर, फिलहाल इतना ही, इस तकलीफ़देह सूचना के साथ कि कैंसर से जूझ रहा हूं। डेढ़-दो महीने रैडियेशन और कीमोथिरैपी का लगातार इलाज चला। दोनों का क्या असर हुआ, यह तीन महीने में पता चलेगा। बहरहाल willpower मजबूत है, इसीलिए रोजना की गतिविधियां बदस्तूर जारी हैं।

आपका

प्रदीप पंत

 

(3)

आदरणीय भाई साहब

सादर प्रणाम

कई दिनों से सोच रहा था, आपको पत्र लिखूंगा। असल में पहल का अंक 116 पढऩे के बाद ही लिखना था, कि यह निर्णय क्यों लिया गया कि अब और नए सदस्य 'पहल’के नहीं बनाए जाएंगे। यह कैसे संभव है? क्या कोई नया साहित्य-प्रेमी नहीं जन्मने वाला है अब? फिर लगा, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। हो-हल्ला मचेगा और अगले अंक में आप नई घोषणा करेंगे कि नहीं, अब बनाएंगे, नए सदस्य बनाएंगे। लेकिन अंक 117 आ गया, ऐसी कोई घोषणा नहीं हुई। तात्पर्य यह कि आप अपने निर्णय पर कायम हैं।

मुश्किल यह है कि यह पत्रिका बाजार में भी 'ओवर द काउंटर’- नहीं मिलती। अब अगर किसी के मन में अधीरता जगेगी, तो वो यही करेगा कि उधार लेकर पढ़ेगा किसी से। लेकिन 'पहल’के पाठक उधार देना इतनी आसानी से स्वीकार कर लेंगे, मुझे शक है!

सच तो यह है कि 'पहल’का नया अंक आना एक घटना की तरह होता है। यही अंक 117 जबसे मिला है, इस बार शायद पहले से अधिक उद्वेलित कर गया है।

एक तो आपका आलेख ही - ''कुछ पंक्तियां’’।''भोपाल अब घट रहा है और गिर भी रहा है।‘’ - मर गए! मैं तो भोपाल में ही रहता हूं! सावधान रहना होगा! फिर यह महसूस तो हो रहा था, कहीं पढ़ा-सुना नहीं था - आपने तसदीक कर दिया: ''प्रदर्शनकारी कलाएं, लोकार्पण, अभिनंदन-पुरस्कार, अध्यक्षताएं और निंदक समाज की सक्रियताएं ही प्रमुख हैं।‘’ यह वाक्य पढऩे के बाद मुझे यह सोचकर संतोष हुआ, कि कुछ मित्रों ने मुझे सुझाव दिया था, जब मेरा पहला कविता-संग्रह (''यहां से इस तरह’’) आया था गत वर्ष, कि मैं भी विमोचन-लोकार्पण, कुछ करवाऊं। तो मैंने मना कर दिया था।

इसी क्रम में सौरभ राय का बेंगलुरु की हिंदी कविता को लेकर लिखा गया विस्तृत आलेख भी रूचिकर लगा। हां, उनके इस विचार से मैं इत्तेफाक नहीं रखता, कि ''बेंगलुरू में लोकेल का अभाव है।‘’कविता ऐसी चीज ही नहीं है, जिसे 'लोकेल’या किसी निश्चित जमीन से जोड़कर देखा जाय। मैं यह भी नहीं  मानता कि राजेश जोशी की कविता में भोपाल जीवंत हो उठता है। शहर या गांव शिल्प गढऩे में प्रभाव डाल सकते हैं, लेकिन किसी कवि की सारी कविताएं किसी स्थान-विशेष के परिचय की तरह हो जाएं, मैं नहीं मानता। किसी कवि की सारी की सारी कविताएं इस तरह नहीं जुड़ सकतीं जमीन से। कोई एक उपन्यास जुड़ा हो सकता है। कहानी भी कोई एक, किसी स्थान से जुड़ी हो सकती है। लेकिन सभी कहानियां नहीं, और सभी कविताएं तो एकदम नहीं।

हां, बेगलुरु एक ''हैप्पेनिंग सिटी’’हो सकता है। मैंने भी महसूस किया है और सौरभ राय ने बड़ा ही सजीव चित्रण किया है इस स्पंदन-भरे शहर का। इतने लोग हैं वहां! जो कविता कर रहे हैं, पढ़कर आश्चर्य भी हुआ और बहुत अच्छा भी लगा। कुछ तो है बेंगलुरु की हवा में। मेरे एक मित्र है, वहीं रहते हैं। भारतीय वन सेवा में नागालैंड में थे, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर उन्होंने अपना पूरा समय 'ऑर्किड’उगाने के शौक में लगा दिया है। राजाजीनगर स्थित घर की छत पर एक भरा-पूरा 'ऑर्किडेरियम’बना लिया है उन्होंने, ऑर्किड की ब्रीडिंग भी करते हैं, एक पुस्तक भी उन्होंने लिख डाली है इसी विषय पर।

वहीं मेरी भतीजी रहती है, जो - हम लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश के छोटे-से शहर गोरखपुर से निकले हैं - गोरखपुर की हैं, लेकिन अब बेंगलुरु में है, जॉब करती है और वह भी सक्रिय है - कुछ नाटकों में (हिंदी और अंग्रेजी में) अभिनय किया है उसने। तो मैंने भी देखा है, महसूस किया है कि कुछ खास है बेंगलुरु।

इसी तरह नरेश सक्सेना का व्याख्यान भी जो आपने छापा, वह भी एक निहायत जरूरी काम कर गया है। कौन जानता है कि कानपुर में एक 'विक्रमजीत सिंह सनातन धर्म कालेज’है, कितनों को पता है कि वहां हिंदी विभाग में 2018 में कोई आयोजन हुआ, और वहां नरेश सक्सेना का व्याख्यान हुआ? आपने उस व्याख्यान को जगह देकर एक धुंध हटाने का काम किया है। तैमूर लंग की कहानी के माध्यम से, इस कथन से, कि ''इतने सारे झूठ मिल करके आये हों, ऐसा तो पहली बार हो रहा है।‘’ , और इससे भी, कि ''हिन्दी को राजभाषा पद से दरअसल हटा देना चाहिए।‘’धुंध जो आज छाया है, उसे हम छांट सकते हैं।

उन्होंने हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं के लिए भी 'दिक्कत का समय’बताया है आज को, और यह भी कहा है कि 'कहीं-न-कहीं एक सुन्दर कविता को होते रहना चाहिए।‘उनका यह व्याख्यान यू-ट्यूब पर या कहीं सुनने को मिले तो सुखकर होगा - हो सकता है, पंकज चतुर्वेदी या प्रदीप कुमार इसके लिए कुछ कर पाएं!

इसी तरह मंगलेश डबराल का यात्रा संस्मरण भी क्या खूब ही है! यात्रा-संस्मरण नहीं, यात्रा-चित्रण किया है उन्होंने। ताज्जुब भी हुआ, जब वे इनाल्को में कविता-पाठ कैसा रहा, यह बताते हैं। कहां पेरिस का और फ्रांस का साहित्य-कला-प्रेम, कहां कविता-पाठ का ऐसा अनुभव! गोरे-काले का फर्क और शहर का सहमा होना, ये चीजें दुखदायी लगीं, लेकिन जो सच है, वह है। संस्मरण को मंगलेश डबराल रोचक भी बना देते हैं, जब जोड़ देते हैं ऐसी कोई बात, कि ''तब भी मेरी जेब में ड्यूटी फ्री से कोई ठीक-ठाक व्हिस्की लेने लायक पैसे बचे रहेंगे।‘’

कहानियां और कविताएं भी अच्छी लगीं, सभी पर कहां तक कितना लिखूं.... कौन पढ़ेगा? लाल्टू की छ: कविताएं अच्छी लगीं, कुमार अम्बुज चौंकाते रहे - उनकी तेरह में से चार कविताएं शायद छूट गई कहीं...

आपका

शिवेन्द्र श्रीवास्तव

 


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