मुखपृष्ठ पिछले अंक कैलास चन्द्र : अब करके फ़रामोश तो नाशाद करोगे
अक्टूबर - 2019

कैलास चन्द्र : अब करके फ़रामोश तो नाशाद करोगे

इन्दु श्रीवास्तव

मृत्यु लेख

पहल के शानदार दोस्त

 

 

 

दिल्ली का एम्स हास्पिटल, बला की घुटन और बेतहाशा दर्द के बीच एक लेखक अपने बीते हुए को याद कर रहा है। नज़र में जैसे सारे मंजर एक-एक कर ताज़ा हो रहे हैं। अचानक यहां फोन आता है - कैलास चन्द्र बोल रहा हूं, फ़िलहाल एम्स में हूं, कैंसर की आख़िरी स्टेज है न, कीमो चल रहे हैं। हंसते हैं, आप सब मित्रों की बहुत याद आ रही है। मैंने कहा, आप ये जंग भी जीत जाएंगे, जैसे अब तक जीतते आए हैं। अभी तो आपका कहानी पाठ होना है जबलपुर में। ठीक है रखता हूं, डाक्टर आ गए। और फिर अगले दिन वो मनहूस ख़बर कि कैलास जी दुनिया को अलवदा कह गए।

यूं तो एक वक़्फ़ा गुज़र गया कैलास जी से रु-ब-रु बोले बतिआए, यही कोई नौ-दस साल, बस कभी दो तीन महीनों में फोन पर कुछ बात हो जाती। रीवा में रहते गोष्ठियों के दरम्यिान कैलास जी से पहचान हुई, वो भी उनकी कहानियों के मार्फत। और फिर वे हमारे परिवार से ऐसे जुड़े जैसे करीबी मित्र, मददगार पड़ोसी या बड़ा भाई। अपने में ही गुम रहने वाले कैलास जी कहते, इस शहर में बहुत कम लोग हैं जिनसे मैं अपनी बातें शेयर करता हूं। जब किस्सों का पिटारा भर जाता तब वे आते और अपने सारे दुख-सुख कह डालते।

रीवा शहर की तंग पेचीदा गलियों से होते हुए, एक पुराना मोहल्ला, जहां सुपरिचित रंगकर्मी, डा. विद्याप्रकाश का दवाखाना है। बहुत कम फीस के चलते, मजदूर कामगार, गरीब गुरबे, भिखमंगे सब का ठौर-ठिकाना एक। डाक्टर की कुर्सी के पास ही एक और कुर्सी है, कैलास चंद्र की जो रोज नियत समय आ कर यहां बैठते। यहीं से उनकी बेहतरीन, अमर कहानियों की ज़मीन तैयार हुई है। या यूं कहें कि उन्हीं तंगहालों, बदकारों में अक्सर कैलासजी को कहानियों के किरदार दिख जाया करते थे, जिनके चलते वे अपने निचाट खालीपन में भी खुद को विचारों से भरा-भरा महसूस करते। विद्याप्रकाश जी उनके बेहद क़रीबी दोस्त, सच्चे श्रोता और अपनों के अपने हैं, जो उनके बगैर बुरी तरह टूट चुके हैं। जिनके मश्वरे और इस्लाहियत की बदौलत कैलास जी के मन को इत्मीनान, हौसला व फ़न को खाद-पानी मिला, और लेखक एक से बढ़ कर एक कहानियों की फ़सलें उगाता गया। कैलास चन्द्र किस इला$के से आते हैं, ये उनकी कहानियों की तासीर बताती है। उत्तर प्रदेश का छोटा सा कस्बा राठ, जहां की आब-ओ-हवा की खुशबू उनके वजूद में शामिल है, बुन्देली बोली के सहज, स्वभाविक प्रयोग यूं ही नहीं, कैलास जी की कहानियों की रूह में समाए हैं। लेखन से जुड़ाव तो पहले से ही था।

पत्नी का बहुत पहले गुज़र जाना, औलाद की बेरु$खी आरै बीमारियों का एक के बाद एक दौरा। कई बार गंभीर बीमारियों की गिरफ़्त में आए पर यक़ीन और हौसले ने यहां भी साथ दिया। जब बहुत दिनों तक कैलास जी नहीं दिखते तो शहर में लोग समझ जाते कि ज़रूर दवा या आपरेशन के सिलसिले में बाहर गए होंगे। फिर अचानक नज़र आते, कहते बैंगलोर में (या किसी और शहर में) आपरेशन हुआ था, अब सब ठीक है।

एक दिन अचानक कैलास जी आए, चाय के बाद बोले चलता हूं, पर जाना कहां है पता नहीं। बेटे ने घर में ताला बंद कर रखा है, उसने घर गिरवी रख दिया है और उलटे मुझ पर मुकद्दमा ठोक दिया। लगा जैसे वे किसी कहानी के पेचीदा मोड़ की बात कर रहे हैं, पर ये सब उन पर असल में बीत रहा है और बावजूद इसके लेखक नई-नई कहानियों की बारीक बुनावट में मशरुफ़ हैं। उनके ख़ास करीबी अज़ीज़ बताते हैं कि कैलास जी बतरसिया तो थे ही नफ़ासतपसंद और खान-पान के भी बड़े शौकीन थे। पाक-कला में भी उनका जवाब नहीं, अक्सर खाने वाली बाई की छुट्टी करके रसोई में जुट जाते। बातों ही बातों में दोस्तों को न्यौता देकर आ गए। सब फ़िक्र में कि घर में तो कोई है नहीं, खाना बनेगा कैसे, उधर कैलास जी कटहल, चिकन, पुलाव, खीर खुद बनाकर सबका इंतज़ार कर रहे थे। कभी ऐसे भी दिलचस्प किस्से सुनने में आए कि सब को न्योत कर मेजबान नदारत। किसी धुन में कहीं चलते बने। दोस्त आए तो घर पर ताला, तब मोबाइल की भी कोई बंदिश न थी। दोस्त इंतजार कर के थक गए तो वापस चले गए। कई दिनों बाद जब मुठभेड़ हुई तो कैलास जी ने बड़ी मासूमियत से कह दिया, अरे दिमाग से निकल गया था भाई, कहीं बैठ गए थे।

कैलास चन्द्र की ज़िन्दगी भी न जाने कितने गहरे धुंधले चित्रों का रहस्यमय कोलाज है कि क्या कहिए। उन्हें समझना जितना आसान है उतना ही मुश्किल। कुछ नया लिखते तो प्रूफ़ लेकर आते हम पति-पत्नी कई-कई बार पढ़ते अैर चर्चा करते। एक कहानी ले कर आए, उन्वान ठीक से याद नहीं, जिसमें यहां के एक ऐसे क़द्दावर नेता का जिक्र था जिनके नाम के चर्चे दूर-दूर तक थे। उनके ऐसे कारनामों और गुप्त रहस्यों का हिसाब-किताब था कि पत्रिकाओं में छपाने में भी जोखिम था। किसी आदिवासी परिवार से बदसलूकी, तंत्र-मंत्र, सम्मोहन, नरबलि और न जाने क्या-क्या था उसमें। मैंने पूछा। आपको इन मंत्रों के बारे में कैसे पता, क्या किसी ने बताए हैं, तो हंस कर बोले, कि इस विद्या का भी शौक रखते हैं। पर पत्नी को ये सब पसंद न था। कैलास जी लिखकर लडऩा तो जानते ही थे पर बाहर की दुनिया से भी इत्तेफ़ाक रखते थे।

घर से कुछ दूरी पर देवी का पुराना मंदिर। नवरात्रि मेले में एक मासूम बच्ची अपने मां-बाप से बिछड़ कर कैलास जी के दरवाजे पर अचानक आ जाती है। सिर्फ रो रही है कुछ बोल नहीं पा रही। खिलाने पिलाने बहलाने की सारी कोशिशें नामाम। बच्ची को पड़ोस की महिलाओं के सुपुर्द कर कैलास जी मेले में उसके अपनों को खोजते रहे, घंटों बाद मां मिली बदहवास, बौखलाई हुई। बोली आरती के वक्त बच्ची का हाथ छूट गया था, फिर क्या था कैलास जी ने ख़ूब फटकार लगाई कि देवी-देवताओं के चक्कर में बच्चों को भूल जाते हो, ये कहां की पूजा है। दूसरों के लिए ऐसी फिक्र इतनी दरियादिली वो भी आज के दौर में कम देखने को मिलती है।

लिखने को ये लिखते रहे पर क़तरा-क़तरा ख़र्च होते रहे। अपनो की बेरुखी उन्हें जलाती रही तिल-तिल कर मारती रही। लिखा कायम रहा जीवन घुलता गया। उनपे गुजरे हादसे, तकलीफों, उनके लेखन को तराशते रहे उकसाते रहे। हारमोनियम के एवज में, तलाश, गवाही, वापसी, अंधेरे मं सुगंध, डूब धब्बे और मनोहर मास्साब जैसी कहानियां के मार्फत वे आपने भीतर-बाहर के कोहराम को अवाम तक पहुंचाने की ज़िद पर कायम रहे  और मकसद में कामयाब। कमलेश्वर सम्मान पर अपने लिखित वक्तव्य में कैलास जी कहते हैं - ''ये सामूहिक संघर्षों का काल है पर अकेले लड़ा जा रहा है। ये सारी लड़ाइयां जो अकेली हैं, जो दुख, जो विषमताएं और विमुखताएं हैं, जो शोषण का विकराल रुप निर्मित हो गया है, ये सारी चुनौतियां बनी एक साथ और अक्सर अलग-अलग लेखक के सामने है। उसे उनके बीच अपनी कथा - यात्रा को अपनी खोज को मुकम्मल बनाना है।’’ ये सच है कि कैलास जी ने अपने समय की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए ऐसे कथा-लोक को विस्तार दिया जिसमें आज की खूंखार व्यवस्था हाशिये के दबे-कुचले लोग और आम आदमी की ज़द्दोजहद भरी ज़िन्दगी है। कैलास जी का लेखन एक मुहिम है, जिसके तहत वे उन तमाम लाचारों, बेबसों के हक की लड़ाई में शामिल हैं। उनकी कहानियों के किरदार सधुआ हों रामलोटन हो अच्छन या कोई और तंगी बदहाली के बावजूद भी ग़ैरतमंद है, उसूलों के पक्के हैं यक़ीनन प्रेमचन्द के पात्रों के मिलते-जुलते मिज़ाज़ वाले। ऐसे ही अपने व्यंग्यों के ज़रिये भी कैलास जी इस घोर घटाटोप जैसे समय में अवाम को मंडरा रहे ख़तरों से आगाह भी करते हैं और दर्द को हंसी में ढालकर सच्चाई को अपने खास अंदाज में पेश करने का जोखिम भी उठाते हैं। अपने इस अभियान में वे परसाई सा रुख अख्तियार करते से दिखते हैं। कैलास जी की काबिलियत की बात चली, तो ये सवाल उठना जायज है और ज़रूरी भी कि उन्हें समकालीन कथालेखन में वो दर्जा क्यों नहीं हासिल हो पाया जिसके वे असल में हकदार थे। शायद ये उनकी निजी जिन्दगी की उथल-पुथल का असर ही हो, कि अपने को हमेशा कमतर आंकते हुए खुद से ही दूर होते गए। अजीब सी मायूसी और संकोच के चलते साहित्यिक हलचलों से कटते रहे। शोहरत, सम्मान, पुरस्कारों, समीक्षाओं, आलोचनाओं का भरम पालने वालों से उनका ताल-मेल हो ये नामुमकिन था। तारीख गवाह है कि किसी बड़े कथाकार कवि या शायर की गहराई का अंदाजा और क़ीमत उसके जाने के बरसों बाद समझी गई, कबीर, प्रेमचंद या गालिब कोई भी हों। ऐसे ही बौद्धिकता के मेयार का फ़र्क और आस-पास का माहौल भी बहुत मायने रखता है। गो कि कैलास जी पर उतनी चर्चायें और विमर्श नहीं हुए फिर भी उनकी गहराई आंकने वालों का भी एक कुनबा है जिनके चलते उन्हें खूब तवज्जों मिली, प्यार मिला और आगे भी अपनी कहानियों में, व्यंग्यों में, मित्रों और पाठकों के दिलों में वे हमेशा ज़िन्दा रहेंगे, हमेशा याद किए जाएंगे मसलन, मीर तक़ी मीर के हवाले से -

अब करके फ़रामोश तो नाशाद करोगे

पर हम जो न हों तो बहुत याद करोगे

 


Login