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अगस्त : 2019

भारतीय पुनर्जागरण काल के प्रतीक गिरीश कर्नाड

पंकज स्वामी

निधन

 

 

 

 

कन्नड़ लेखक रंगकर्मी अभिनेता और एक्टिविस्ट गिरीश कर्नाड का 10 जून को निधन हो गया। उन्हें विभिन्न काल खंडों में अलग-अलग मुद्दों के लिए याद किया जाना चाहिए। उनकी सामाजिक सक्रियता, अन्याय-स्वतंत्रता की कटौती के मुखर विरोध और सृजन व विचार में अथक प्रश्नशीलता को सदैव याद किया जाएगा। कर्नाड सही माएने में ऐसे बुद्धिजीवी थे जिन्होंने किसी पर रियायत नहीं बरती। वे अपने विचारों को व्यक्त करने में कतई संकोच नहीं करते थे। पारम्परिक सांचे में ढले व्यक्ति नहीं थे। मौलिक रूप से कर्नाड समाज की ऐसी शख्सियत थे जिनका जीवंत लोकतंत्र में यक़ीन था। वे कभी किसी राजनीतिक दल के पक्ष में नहीं रहे परन्तु साम्प्रदायिक सौहाद्र्र के तगड़े पैरोकार थे। वे हर उस शासन का विरोध करते थे जो प्रतिगामी था।

साठ के दशक में मोहन राकेश, विजय तेंदुलकर और बादल सरकार के साथ गिरीश कर्नाड उन नाटककारों में से थे जिन्होंने भारतीय रंगमंच की शिथिल हो गयी प्रश्नवाचकता को झंझोंडऩे और सजग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गिरीश कर्नाड भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् पुनर्जागरण के हिस्से थे। उन्होंने यक्षगान परम्परा की बारीकियों के रूप में शास्त्रीय संस्कृत नाटकों की खोज करते हुए प्राचीन मिथकों की निरंतर प्रासंगिकता को समझा और समकालीनता से जोड़ा। गिरीश कर्नाड छठे दशक के लेखकों की उस परम्परा से थे, जिन्होंने कभी रॉयल्टी की परवाह नहीं की। वे रंगकर्म की मजबूत आधारशिला बनाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्हें नाटक के मंचन और उसे देखने में आनंद व संतुष्टि मिलती थी।

पुनर्जागरणकाल के प्रतीक कर्नाड रोड्स स्कालर थे। वे 1962-63 में ऑक्सफोर्ड यूनियन के अध्यक्ष रहे। गिरीश कर्नाड आस्तिक एवं क्लासिकिस्ट के रूप में आधुनिकता को समझने और समझाने की परम्परा में जीवन भर तल्लीन रहे। उन्होंने ययाति नाटक में परिवार की मांगों के बीच टकराव की खोज की। इस नाटक के जरिए समाज के विस्तार के साथ एक व्यक्ति की ईमानदारी व जिद के साथ उसके जीवन को संजोने के संघर्ष को आत्मीयता के साथ उतारा गया। कर्नाड ने तुगलक में दिल्ली में आवेगी राजा की कहानी को बताया जो अपने समय में बहुत गलत समझा गया जिसके भव्य विचार नेहरूवादी युग के लिए एक रूपक बन गए। यह याद रखने की बात है कि उन्होंने युवावस्था में ही इन दो उल्लेखनीय नाटकों को लिखा।

उन्होंने थॉमस मान के 1940 के उपन्यास द ट्रांसपोज़्ड हेड्स पर आधारित हयवदन लिखा जो कथासरित्सागर की एक कहानी से से प्रेरित था। हयवदन ने गहरा सवाल उठाया कि पहचान और सुंदरता क्या है। सर्वोच्च बुद्धि या कच्ची शारीरिक कौशलया मस्तिष्क या विवाद। जैसे कि एथेंस और स्पार्टा के बीच संघर्ष हम में से प्रत्येक के भीतर खेला जा रहा था। भारतीय रंगमंच के एक स्तंभ गिरीश कर्नाड ने बादल सरकार के एवम इंद्रजीत का अनुवाद किया। यह नाटक आधुनिक भारत का संभवत: सबसे उत्कृष्ट अस्तित्वमूलक नाटक है।इस नाटक ने आज़ादी के एक दशक के भीतर भारत को झकझोर कर रख दिया।

गिरीश कर्नाड कर्नाटक में भाषाई रूढि़वाद के उदय से असहज थे। लेकिन उन्होंने अंग्रेजी भाषा को प्रधानता नहीं दी। वास्तव में उन्होंने कन्नड़ में लिखा और अपने राज्य के संबंध में गहन समझ दिखाई। कर्नाड अन्य भारतीय भाषाओं में धाराप्रवाह थे। उन्होंने हिंदी मराठी, कन्नड़, मलयालम, तमिल और तेलुगु फिल्मों में अभिनय किया।

टीपू सुल्तान विवाद हम जिस समाज में रहते हैं, उसकी त्रासदी है। जिसमें आरोपित व विभाजनकारी समय के बारे में अधिक कहा व बोला जाता है। गिरीश कर्नाड ने बी.वी. कारंत के साथ मिल कर 1972 में पहली फिल्म वमशा वृक्षा निर्देशित की थी। यह फिल्म पुरातनी लेखक एस.एल. भैरप्पा के उपन्यास पर आधारित थी। पच्चीस वर्ष पश्चात् जब कर्नाड ने टीपू सुल्तान कांडा कानसू  (द ड्रीम्स ऑफ  टीपू सुल्तान) लिखा, तब भैरप्पा ने नाटक की आलोचना की। भैरप्पा कर्नाड के बारीक चित्रण से असहमत थे। गिरीश कर्नाड ने अनुभव के आधार पर समाज के प्रत्येक व्यक्ति में नकारात्मक पक्ष भी देखे थे, इसलिए उनका टीपू एक जटिल, बहुत गलत समझा जाने वाला शासक था, जो जानबूझकर गलत पहचान करने वालों द्वारा गलत तरीके से समझा जाता रहा।

गिरीश कर्नाड ने स्वयं को भारतीय न्यू वेव सिनेमा के साथ अंतरंग रूप से जोड़ा। सामंती संरचना पर आधारित श्याम बेनेगल की दो फिल्मों निशांत व मंथन में गिरीश कर्नाड ने भूमिका निभाई। निशांत में वे अपने आसपास बुराई करते व्यक्ति को बदलने का प्रयास करते हैं और पत्नी के अपहरण के बाद न्याय की मांग। मंथन में वे एक आदर्शवादी डाक्टर हैं जो किसानों को संगठित करने में सहायता करने के लिए गुजरात के एक गांव में आते हैं। जब्बार पटेल की उम्मर्था पट्टभिराम रेड्डी की अनंतमूर्ति के उपन्यास पर आधारित संस्कार, कादु और ओदानन्दु उनकी स्मरणीय फिल्में हैं।

गिरीश कर्नाड द्वारा निभाए गए किरदार प्रगतिशील थे, कट्टरपंथी नहीं। उन पात्रों में से कुछ नैतिक रूप से गलत और समझौता करने वाले थे। इन पात्रों को उन्होंने मानवीय स्थिति के रूप में समझा। लेकिन अखंडता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता निरपेक्ष थी। वे सतत् न्याय, समानता, नागरिक स्वतंत्रता और समावेशी शासन के पक्षधर रहे। यहां तक कि जब वह बीमार थे तब वे लिंचिंग के कारण होने वाली मौतों का विरोध करने के लिए सार्वजनिक प्रदर्शनों में गए। उन्होंने वर्ष 2012 में टाटा लिटरेरी फेस्टिवल में सम्मानित होने वाले वी.एस, नायपॉल के मिथ्याचार व जातिवाद मुद्दे पर आलोचना की।

गिरीश कर्नाड ने मूल्यों से कोई समझौता नहीं किया। इन्हीं मूल्यों को समझने के लिए उन्होंने हमारे अस्पष्ट वर्तमान में स्पष्टता लाने के लिए भारत की प्राचीन कहानियों से ज्ञान को फिर से खोजा। गिरीश कर्नाड ने भारतीय समाज को बताया कि मनुष्य होने का क्या अर्थ है।

 

 

 

संपर्क - मो. 9425188742, जबलपुर

 

 


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