मुखपृष्ठ पिछले अंक जीवित हैं लक्ष्मीधर
अगस्त : 2019

जीवित हैं लक्ष्मीधर

मधु मालवीय

निधन

 

 

लक्ष्मीधर मालवीय जैसे असाधारण व्यक्ति की बेटी होने का सौभाग्य मुझे मिला। मैं अपने पिता पर बहुत गर्व करती हूँ। वैसे तो पिता -पुत्री का जो रिश्ता होता है वही हमारा भी था। पर इस रिश्ते में एक ख़ास बात थी। मेरे पिता, नौकरी की वजह से सन् 1966 में जापान चले गये। हम इलाहाबाद में संयुक्त परिवार में रहते थे और पिता पत्राचार से मिलते थे। रंग बिरंगे टिकट लगे हुए लिफ़ाफ़े लिए डाकिया 10 बजे आता था। उसमें सबके लिए पत्र होता था। मेरा पत्र लंबा होता था,क्योंकि सीख भरा होता था। स्कूल से लौटने पर लिफ़ाफ़ा देख कर दिल ख़ुश हो जाता था। हर उम्र की ज़रूरत उन पत्रों ने पूरी की - शिक्षा, मार्गदर्शन और प्रेरणा। इसीलिए मेरे पति, अजय, हमें कॉरेस्पॉन्डेंस बच्चे कहते हैं। पर मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि आज भी, मुझमें और सामान्य पले हुए बच्चों के मु$काबले में  कोई कमी नहीं है। पर एक पत्र पाने के बाद अगला पत्र पाने के लिए पत्रोतर भी देना होता था। स्कूल, होमवर्क के बाद पत्र का उत्तर देना, बड़ा काम लगता था। वह टलता जाता और मन पर बोझ बढ़ता जाता। और अगर इस बीच उनका अगला पत्र आ जाता तो बड़ी ग्लानि होती। एक कारण और था कि अध्यापक होने के नाते हमारा पत्र जाँचा भी जाता था और ज़्यादा गलतियां होने पर वह सही करके वापस भेज देते थे। पर यह तो शुरू शुरू की बात थी। आगे चलकर मैं उनसे टक्कर लेती थी। पकड़ जाने पर वह कहते थे कि मैं साइंस का विद्यार्थी तो हूँ नहीं। वह हवाई डाक वाले हल्के काग़ज़ पर लंबे लंबे पत्र! सच कहूं तो मैं उनकी नक़ल करती थी।

इलाहाबाद में, रिसर्च के दिनों में, जब मेरी माँ स्कूल जातीं तो वह मुझे अकसर   अपनी कुर्सी के पीछे खड़ा कर लेते और टाइप राइटर पर काम करते रहते और मुझसे कहते  दाना ढूँढ़ो। या मैं कभी रो रही होती तो बैठा लेते और पेंटिंग बनाने लगते। अब, दुखी होने पर भी रोऊँ कैसे, तस्वीर जो बन रही होती थी। घर की दीवारें उनकी पेंटिंग्स से भरी थीं। वह चलती ट्रेन या बस में क्रेऑन से ड्रॉइंग  पेपर पर खिड़की से गुज़रता हुआ दृश्य स्कैच करते रहते या अनजान चेहरों का अक्स उकारते। रास्ते का खाना हम नहीं खाते थे। भूख लगे तो केला खाओ प्यास लगे तो संतरा। राजस्थान विश्वविद्यालय में काम करते हुए वह हॉबी क्लासेज भी लेते थे। फोटोग्राफ़ी और पेंटिंग। आय और शौक दोनों को पूरा करने के लिए। सन तिरसठ चौसठ मे उनके पास दो कैमरे थे, बेसिक। ओसाका विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में तीन दिन पढ़ाना होता था। इससे पापा को अपना काम और अपने शौक़ पूरा करने के लिए काफ़ी समय मिलता था। आय भी अच्छी थी। एक बार की बात है मेरे घर में रहने और काम करने वाली, ननकी ने उनसे पूछा कि भैया तुम्हें कितनी तन$ख्वाह मिलत ही। तो भैया ने कहा कि जितनी हमरे राष्ट्रपति को मिलत ही ओकी तिगुनी।

निकोन उनका प्रिय कैमरा था और उसके साथ बेशुमार लेंस। बेहूदा दिखने वाला,पर उस समय का सबसे बेहतरीन और क़ीमती कैमरा, हेसलब्लाड का जोड़ा भी था। इतना पंसाखा इसलिए कि बेरोकटोक वह बेइंतिहा तस्वीर खींच सकें। मुझे उनका उत्तेजित चेहरा दिखलाई दे रहा है। वह फ़िल्म का बड़ा चक्का ख़रीदते थे फिर उसे छोटे छोटे कार्टिज में काटकर डालते थे। बाज़ार की खरीदी हुई फ़िल्म में तो 36 फ़ोटो आती थी पर उनकी फ़िल्म में 42-44 तक आ जाती थी। वह उसे ख़ुद डिवेलप करते थे और फिर ख़ुद प्रिंट भी। घर में एक डार्करूम बना रखा था। ऐसा वह जयपुर में भी करते थे। फिर क्या कहने, प्रिंट करते वक़्त, ट्रे में उभरता हुआ अक्स दिखते ही सारी थकान मिट जाती थी मानो पूरी मेहनत सफल हो गई। पूरे -पूरे दिन डार्करूम में लग जाते और फिर लाइन से डोरी पर सूखते हुए प्रिंट। भारी भारी कैमरा और स्टैंड लेकर वह भारत,जापान और दक्षिणी अमेरिका ख़ूब घूमे। ढेरों तस्वीर खींची और अधिसंख्य इनलार्जमेंट, कुछ तो कई फ़ीट बड़े बनाए। सन चौरासी में जापान से अपने प्रिंट ढोकर लाए और यहाँ दिल्ली की त्रिवेणी कला संगम में एकल  फोटोग्राफ़ी की प्रदर्शनी रखी। मौके की बात थी कि एम एफ हुसैन दिल्ली में थे तो उन्होंने  उसका उद्घाटन किया ।

दस वर्ष की उम्र से उन्होंने मुझे फ़ोटो खींचना / लेंस से देखना सिखाया। जब हम भीड़ में चल रहे होते थे और कोई बहुत ख़ूबसूरत चेहरा दिखता था तो हम 500 एम. एम. या  800 एम. एम. टेली फोटो लेंस के लायक कहते थे जिससे की उसको बहुत दूर से भी साफ खींच सकें और कम अच्छे के लिए 28 एम. एम. वाइड एंगल लेंस, जो कि विषय को दूर कर दे। यह बात एक प्रोफैशनल फ़ोटोग्राफ़ र  को शायद जल्दी समझ में आएगी।

 मेरे पिता एक बार अंडमान मेरे घर आए। सात दिन रहे। वहाँ की सरकारी लाइब्रेरी से लेकर अंडमान पर सात किताबें पढ़ीं। हमारे बेटे को रहीम और कबीर के सात दोहे सिखाए। एक शाम हमें और हमारे मित्र को भोजन भी बनाकर खिलाया। पोर्ट ब्लेयर आकाशवाणी के स्टेशन डायरेक्टर को जब पता चला, तो उनके आग्रह पर एक घंटे का एक इंटरव्यू दिया। सेल्युलर जेल घूमने में उन्होंने पूरा एक दिन लगा दिया। वह वहाँ की एक कोठरी में एक रात बिताना चाहते थे। यह महसूस करने के लिए कि राजनैतिक क़ैदियों को कैसा लगता रहा होगा। पर प्रशासन ने यह कह कर ठुकरा दिया कि अब यह जेल राष्ट्रीय धरोहर है। वापस जापान पहुंचकर उन्होंने मुझे पत्र लिखा और कहा कि उन्हें मेरा घर बहुत अच्छा लगा क्योंकि हम सादगी से रहते थे।  मेरे पति  सरकारी अधिकारी हैं पर सरकारी लाव लश्कर इस्तेमाल नहीं करते। अपनी सीमा में ही रहते हैं।

जैसे सबके जीवन में उतार चढ़ाव आते हैं उनके जीवन में भी आए, पर नियम के पक्के होने की वजह से उनके काम पर कोई असर नहीं पड़ा। ओसाका विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़कर उन्होंने देव पर अपना अधूरा छोड़ा हुआ काम पूरा किया। वह सुबह  अपने टेबुल पर बैठ जाते थे, चाहे कितनी भी ठण्ड हो सात बजे अपना कंप्यूटर ऑन कर देते, रोज़। और, अपने हर कार्य को जैसे अपने जीवन का कारण बनाकर जीते आए, वैसे ही किया। अंत में वह देव के शब्दकोष पर काम कर रहे थे। कभी -कभी एक दिन में दो तीन शब्द हो जाते और कभी एक शब्द दो-ढाई दिन तक परेशान करता। वह एक दिन में सोलह घंटे काम करते। देव काव्य कोश का आरंभ उन्होंने 31 दिसंबर 2009 को किया था। सितंबर सत्रह तक 2,26,000 शब्द हो चुके थे। उसको पूरा करना उनका उद्देश्य नहीं था, काम करते रहना था। बाक़ी लेखन तो शौक या मनोरंजन था। मैं कहती पापा इतना काम क्यों करते हो। तो वह कहते, जो जीवन भर किया है वही तो कर सकता हूँ। पर हाल के कुछ दिनों में उनका हिन्दी भाषा पर से विश्वास उठने लगा। ''अब हुआं के लोगन कइसे होए गए हैं। समझ में नै आता। खैर, समझ में तो हमें आइंस्टाइन की थ्योरी भी नहीं आती। हम लिखना छोड़ देबै। इतनी दूर से बडी जुम्बिश करै पड़त  है।’’ मैं जो काम करता हूँ उस पर विश्वास मन में रख कर करता आया हूँ। हिंदी पर अब मेरा विश्वास उठ गया। भाषा के तौर पर मैं भरोसा नहीं करता।  हिन्दी मेरी मातृभाषा नहीं है मेरी मातृभाषा अवधी है उसमें  लिखने का सवाल ही नहीं उठता।  लिखने की शक्ति भी नहीं है, कोश का ही काम पूरा कर लूं यही बहुत है। यह दिसम्बर सत्रह में उन्होंने मुझसे कहा था ।

वो भारत से बिलकुल दूर नहीं थे। यहाँ के सब हालातों पर उनकी नज़र रहती। शाम के वक़्त अपना मनपसंद संगीत सुनते, कुछ राग पहचान लेते थे। रात के सोने से पहले कुछ पढ़कर सोते थे तो उन्हें ऐसा लगता कि उनका देश वहाँ भी उनके चारों ओर तन की त्वचा के समान अभिन्न  रूप से जुड़ा हुआ है। क्योंकि साहित्य उनका ओढावन बिछावन रहा था इस कारण हर बात पर कोई न कोई सुभाषित सुना देते हैं। समय बदलने के साथ ईमेल, जी टॉक, स्काइप आदि ने बहुत मदद की, हमको दूर होते हुए भी बहुत पास कर दिया है।    आज से पन्द्रह साल पहले कंप्यूटर खोलने पर मैं देख सकती थी कि अगर हरी बत्ती जल रही है मतलब वह काम कर रहे हैं। पहले वह दिन भर मशक्क़त, सोलह - अठ्ठारह घंटे, करने के बाद रात को बात करते थे पर फिर वह समय शाम का हुआ और इधर कुछ साल से सुबह साढ़े सात बजे का, स्काइप पर। वह फ़ोन नहीं रखते थे, उन्हें फ़ोन से बात करना पसंद न था। फिर भी बिना पूर्व सूचना के अचानक कम्प्यूटर का बटन दबाकर बात करने से उन्हें झटका लगता था। उनका मस्तिष्क कहीं किसी पूर्व शताब्दी में किसी शब्द या सोच में हो इसलिए हम पहले से समय तय कर लेते थे। भारत में उन्हें कौसानी बहुत पसंद था इसलिए जापान में विश्वविद्यालय में पढ़ाने का काम ख़त्म करने के बाद वहाँ बसना चाहते थे। पर बात न बनी। कहते, यहाँ, भारत में, छीजन बहुत है। वह हिंदी साहित्य पर इतना काम इसलिए कर सके क्योंकि वह भारत में शारीरिक रूप से नहीं थे।

15 अगस्त पर रेडियो कमेंट्री सुनते हुए मैंने उनके आँखों के कोर से पानी बहते देखा है। सन् चौसठ पैंसठ की बात होगी। इधर दसियों साल से देश की घटनाओं ने उनके मन में एक अंश को जड़ कर दिया था। कहते, तुम लोगों का तो मन टी वी पर ऐसे चलचित्र देखते - देखते पोढा हो गया होगा। आगजनी, बलात्कार, हत्याएं कहाँ नहीं होती थीं मगर जहाँ बलात्कार के बाद जला डाला जाता हो ऐसे दृश्य देखने की आदत छूट गई। ग्लानि के मारे  यहाँ तक मन होता है कि अपना पासपोर्ट ओसाका के कांसलेट मैं वापस कर भारतीय नागरिकता से छुटकारा पा लूं। यह देश ही उनसे दूर हट गया। स्मृति में जो बहुत सी यादें चिपकी रह गई थीं उन्हीं को सम्हालकर बचा रखा था, वही उनका देश था। भारत, यह देश मेरे लायक नहीं है या मैं इसके लायक नहीं हूँ , इसलिए, मैंने इसे चित्त से उतार दिया है। मुझे वहाँ से घिन आने लगी है अभी हाल ही में उन्होंने मुझसे कहा।

 उनकी कोई उम्र नहीं थी वह हर उम्र के थे। कहते थे, आदमी पैदा होता है, तो चलने फिरने तो नहीं लगता। वह किस्त में आता है , उसी तरह किस्त में जाता भी है। वह जैसे जीता है वैसे ही मरता है; ऐसा नहीं कि जीता किसी और तरीके से और मरता किसी और तरीके से। तुम बहुत पापा -पापा करती हो  मेरे जाने पर तुम्हें कष्ट होगा। इस उम्र में अपने माता -पिता के जाने के लिए तैयार रहना चाहिए। 

 

''ऋतु आती है चली जाती है फिर अगले साल आ जाती है

चंद्रमा छोटा होते होते गायब हो जाता है लेकिन चंद्रमा फिर निकलता है और पूर्ण चंद्रमा बनता है

लेकिन नदी का बहा हुआ जल और मनुष्य का यौवन कभी लौटकर

नहीं आता

बीती हुई आयु कभी नहीं आती’’

 

यह उनके प्रिय चौथी शताब्दी के कालिदास के समकालीन कवि अश्वघोष का कथन है। अब मुझे ढूँढना होगा।

 

नर और नीर की एकै सी गति होय

 

दोनों को ऊपर उठाने के लिए ताक़त लगानी होती है। कहते करूणा आदमी का सबसे बड़ा गहना है ।वह मुझसे संतुष्ट न थे। कहते, तुम कुछ पढ़ती नहीं हो। बेटे मैंने तुम्हें कॉन्वेंट में पढ़ाया है। जानती हो सबसे बड़ा पाप क्या है -वह जो करना चाहे वो कर न सके। अपने चेहरे की रौद न मरने देना। वह गए कहाँ वो तो उन पत्रों में हैं, ढेरों ईमेल में  उनकी रखी किताबों में हैं, सैकड़ों कैसेट टेप में हैं, असंख्य वाएस मेल में हैं अलमारी के दर में हैं और सबसे ज़्यादा हममें हैं। संस्कृत मुझे आती नहीं, उन्हीं के एक प्रिय श्लोक से इस लेख का अंत कर रही हूँ।

मेरे अंत:करण में बैठा है एक देवता,

वह मुझे जिस काम में लगा देता है,

मैं उसका हुक्म बजा लाता हूँ।

 

 

 

 

 

 

संपर्क - मो. 9868565316, नई दिल्ली

 


Login