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अगस्त : 2019

नर्मदा की छवियों के पाँच दशक

रजनीकांत

डायरी

 

 

रजनीकांत विख्यात फोटोग्राफर हैं। यात्राएं नदियों के किनारे करते रहे हैं। उनकी एक यात्रा कृति 'नर्मदा की नई कथा’ काफी चर्चित हुई है। जबलपुर में रहते हैं। संपर्क - मो. 9926298231

 

 

मैं खुद भी पिछले 45-50 वर्षों में नर्मदा तीरे भटकता रहा, चित्र लेता रहा, बूझता रहा उस अबूझ अनहद को। अमरकंटक में पतली सी सर्पिल जलधारा को क्रमश: चौड़ा-गहरा होते देखना, जंगलों से निकलकर मैदानों में बहना, चट्टानों को काटते, झरने जल-प्रपात बनाते आगे बढऩा यही सब देखने की 'नर्मदा’ को समझ पाने की जिज्ञासा थी शुरू के वर्षों में। फिर लगन लग गई। छाया चित्रकार को एक ऐसा विषय मिल गया जिसमें विविधता और निरंतरता थी, असीमित कौतूहल भी। मंडला-जबलपुर तक नर्मदा का पर्याप्त चौड़ा, गहरा और वेगवान हो जाना फिर धुंआधार जलप्रपात और आगे चट्टानों पहाड़ों को फोड़कर रास्ता बनाना। सरस्वती घाट से आगे मैदानी नदी के रूप एलूवियम (जलोढ़क भूभाग) में बहते आगे बढऩा।

उद्गम अमरकंटक से जबलपुर 250 किलोमीटर में ही नर्मदा के बदलते रूपाकार, घनेरे शाल वनों के वितानों में लगभग छुपी बस्तियां, आदिवासियों की, खेतीहारों की और इस सबके भी आर-पार बहती वह निर्मल जल धार-वह दर्शनादेवी, वह नर्मदा, सबको अपना नर्म सुख देती, आगे बढ़ती। ''नरबदा ऐंसी तो बही रे, ऐंसी बही जैसे दूधा की धारा’’। करीर गुल्म में से निकले वे क्षीर-नीर कण। उम्र के शुरुआती वर्षों से 30-35 की उम्र नर्मदा की इसी लंबाई में घूमता भटकता, ठहरता, भागता, कैमरा चलाता रहा।

अमरकंटक उद्गम कुंड पर बैठा कोई परिब्राजक ध्यान कर रहा है। एक युवा साधू जल में खड़ा आचमन करता कैमरे के मेरे व्यूफाइंडर में आ जाता है, बैकलाइट में चमकती नर्मदा का जलराशि से भरा कुंड है, जिसमें सूर्य के प्रतिबिंब की चमक साधु की शिखा के पीछे आभामंडल बना रही है। फोरग्राउंड में शिवलिंग जिस पर ताजे फूल-पत्र चढ़ाये हैं उसने। कैमरे मोटर वाइंडर की आवाज से वह युवा साधु कुछ विचलित होता है, थोड़ी नाराजी से मेरी ओर देखता है। फिर कुछ समझकर वह मुस्कुराता है। मैं हिम्मत जुटा पास जाता हूँ। साधू ध्यान मग्न नर्मदाष्टक का पठन करता जा रहा है।

उद्गम कुंड से निकली पतली जलधारा के साध आगे बढ़ता हूँ। किसी विशाल सर्प सी बलखाती नर्मदा जलधारा मंथर गति से आगे बढ़ रही है। दोनों ओर के दलदली विस्तार में चरवाहे पशु झुंडों को चरा रहे हैं। थोड़ा आगे गीली साड़ी में लिपटी स्त्री प्रात: स्नान करती दिखी तो चरवाहों की ओर से कैमरा पैन कर उनके चित्र लिये। सिर्फ जलधारा की कलकल ध्वनि और पशु गले में बंधी डुगडुगियों की ध्वनि ही है वातावरण में। कभी हवा चलने लगती है तब तिनकों की सरसराहट सुन पड़ती है। लहराने लगते हैं ये शांत खड़े तिनके। धारा क्रमश: चौड़ी होती जाती है। 'यू’ आकार के सर्पिल मोड़ अब लम्बे 'एस’ आकार में बदल रहे हैं। और आगे शाल वन विस्तार जलधारा के दोनों ओर क्षिजित तक फैला है, जहां से अपवाह तंत्र की छोटी-बड़ी जलधाराऐं नर्मदा में मिल रही है। कपिलधारा जल प्रपात तक पहुंचते शाल वनों का यह विस्तार नर्मदा के साथ-साथ चलता है। वनावरण के नीचे की जमीन एक विशाल स्पंज की तरह वर्षा जल को सोखती है। फिर यह ड्रेनेज बेसिन (जलपात्र) वर्ष भर धीरे-धीरे नर्मदा को सींचता रहता है।

आम्रकूट पर्वत के 30 वर्ग किलोमीटर में फैले वनाच्छादित ऊपरी समतल (टेबल टॉप) की हल्की पश्चिमी ढ़ालान में नर्मदा 'माई की बगिया’ के निकट बने कुंड से निकलकर इसी ढ़ालान पर क्रमश: चौड़ी होती आगे बढ़ती है।

टेबलटॉप के पश्चिमी छोर पर ऊपरी समतल जहां खत्म होता है वहां से नर्मदा जल अचानक एक गहरे-खड़े खड्ड में उतर रहा है - यह है नर्मदा का पहला जलप्रपात कपिलधारा। 100 फूट गहरे खड्ड में चट्टानों-पत्थरों पर किरती, ध्वनि करती नर्मदा नीचे के घनेरे जंगल में प्रवेश करती है। दूर तक बिखरी चट्टानों-पत्थरों के बीच रास्ता बनाती। चट्टानों को काटकर बनाई गर्ई सीढिय़ों से उतरकर वृक्ष वितान में प्रवेश कर नई नर्मदा के साथ आगे बढ़ता हूँ। घनेरे जंगल ने धूप को सोख लिया है, दिन के तेज प्रकाश में भी नर्मदा धारा के साथ चलते ऐसा लगता है मानों शाम हो गई है।

कपिलधारा तक तो पर्याप्त आवाजाही है। इधर नीचे इक्के-दुक्के पदयात्री धारा के साथ चलती पगडंडी पर मिल जाते हैं। यहां नर्मदा बिल्कुल ही अलग वातावरण में बहती है। रेवती ध्वनि 'रेपिड्स’ (तेज पथरीला बहाव) में बाकी लंबाई में कल-कल बहती चौड़ी होती जलधारा। मैं फ्रेम-दर-फ्रेम छवियां संजोता जा रहा हूँ! अपवाह तंत्र का जल हल्की चट्टानी ढ़ालान की संधियों में रिस-रिसकर नर्मदा प्रवाह में मिलता जा रहा है। इसके भी कई फ्रेम एक्सपोजर लिये। तब मालूम नहीं था कि यही औषधि गुणों से युक्त जल मिट्टी चट्टानों से मिलने वाले मिनरल्स को भी नर्मदा जल में घोलता जा रहा है।

जब भी नर्मदा किनारे होता हूँ या डिण्डौरी-अमरकंटक की ओर आना-जाना होता है, नर्मदा परिक्रमावासियों की छोटी-बड़ी टोली सफेद सूती वस्त्र पहने महिला-पुरूष या कोई अकेला ही निकल पड़ा साधू-सन्यासी या वीतरागी गृहस्थ गेरूआ वस्त्रधारी रास्ते में मिल जाते हैं। पूछने-बात करने को वे अक्सर तैयार हो जाते हैं, कुछ मना भी कर देते हैं खासकर 'एकला चलो’ प्रवृत्ति के भगवाधारी।

क्या देखने निकल पड़ता है कोई परिक्रमावासी, अव्यक्त ही सही उसके आखें उसके मस्तक में जमी काल की परतों को देखती जाती हैं, खोलती है वे बंद दरवाजे। 'शंकर’ ने भी तो यही सब देखा और समझा, नर्मदा को 'काल भीतिहारी’ कहा। नर्मदा की डगर कठिन तो है पर चुन सको, सुन सको को काल के आर-पार देख सकोगे इसके कल्पवास में। है इतनी हिम्मत, है इतनी गहरी जिज्ञासा तो निकल पड़ो - आदिशंकर निकले, गुरूनानक देव निकले, कबीर निकले - तुम भी निकल पड़ो जैसे मेरे अंदर लगातार कोई निनाद होता रहा, मैं चलता रहा-देखता, सुनता और गुनता रहा। जैसे ये अनाम नर्मदा परिक्रमावासी निकल पड़ते हैं, अपने तीसरेपन में 2700 किलोमीटर लम्बी असंभव सी यात्रा पर। उस उम में जब 5-10 मील चलना भी मुश्किल लगता है। वीतराग का चरम है यह, न जाने कौन सी शक्ति उनसे यह करवा लेती है।

कोई 2 किलोमीटर आगे चट्टानी अपवाह तंत्र जहां खत्म हुआ वहीं पर है नर्मदा का दूसरा छोटा सा जलप्रपात कोई 15-20 फुट ऊंची पर्याप्त चौड़ी जलधाराऐं नीचे बिखरे पत्थरों के बीच जगह बनाती आगे बढ़ रही है। प्रपात का मद्दम रेवरी नाद ही है, मिश्रित वनों का चंदोबा प्रपात पर तना दिख पड़ता है। मेडीटेशन के लिये उपयुक्त है यहां का वातावरण, प्राणवायु से लबरेज। थकान दूर करने एक पत्थर पर बैठ गया। उद्गम से यहां तक लगातार चित्र खींचता आ रहा हूँ। साथी अशोक ने सूखा नाश्ता निकाल लिया। दूधधारा के नीचे उतर आगे बढऩे के दो रास्ते हैं - एक जंगल से जाती पगडंडी दूसरा धारा की नजदीक गिर गये पेड़ का तना जो शार्टकट है। हम तने पर सम्हलकर चलते नीचे उतरने लगे। बगल के पथरीले विस्तार में एक गुफा दिखी जिसके संकरे मुंहाने से धुआं निकल रहा था।

हम रूककर गुफा के भीतर देखने की कोशिश करने लगे, तभी संकरी और गहरी गुफा में से गालियां बकने की आवाज सुन हम सतर्क हो गये। जल्दी ही अनर्गल बकबक बंद हो गई। एक आदमी गुफा में से निकला। पूछने पर बोला 'अला-बला’ दूर करवाने बाबा के पास आया था, उसे ही गाली दे भगा रहे थे 'औधड़’ बाबा।

आगे का रास्ता पूछने पर बोला आगे घना जंगल भालू-मधुमक्खियों से भरा है। एकांत में एक मौनी बाबा का आश्रम है, आगे वहीं तक जा सकते हैं और आगे अगम-अगोचर में बहती है मैया। हम चलने लगे तो उस भक्त के पास पड़ा एक मजबूत ठूंठ उठाकर दिया, बोला बीड़ी-सिगरेट मत जलाना। धुंअे से मधुमक्खियां बिदककर झपटेंगी। यदि भालू अचानक झाड़ी से निकल हमला करे तो शोर मचाना, दो पैर पर खड़े होकर आलिंगन करने लगे तो पीछे हट थूथन या सिर पर वार करना, शरीर पर चोट नहीं लगती उसे। डरना नहीं पंजे की झपट से बचकर दोनों जने लकड़ी से वार करना, चिल्लाना तो डरकर भाग जाएगा। पैर पकड़ ले तो दूसरा उसके सिर पर पूरी ताकत से वार करना वरना दांतों से पैर की हड्डी तोड़ देगा।

थोड़ा रूककर बोला मौनी बाबा के दर्शन कर लौट आना, अगोचर में मत घुसना, 108 वर्ष के है बाबा दर्शन कर लो।

अशोक ने वह मजबूत ठूंठ हाथ में ले लिया, मेरे पास तो मेटल से बना निकोन है, इसी को बेल्ट से घुमाकर वार करूंगा यही सोचते आगे बढ़ा। जब भी फोटो लेना होता, पहले हम टोह लेते अशोक कवर देता था मैं चित्र लेने लगता। घनी झाडिय़ों के बीच से गुजरती पगडंडी पर खतरा बना रहता है। थोड़ा आगे झाडिय़ां प्रवाह से दूर हो गई है। तीखे ढ़लान पर रैपिड्स (छोटे लम्बे झरने) बनाती नर्मदा तेजी से पहाड़ उतर रही है। हम झाडिय़ों के बीच जाती पगडंडी छोड़ प्रवाह किनारी की फिसलन भरी चट्टानों पर चलते आगे बढ़ते हैं। यहां भालू एकदम पास से नहीं झपट पायेगा। अशोक ने ऊपर की ओर इशारा किया, जहां मधुमक्खियों के छत्ते पेड़ शाखाओं पर लटके थे।

विजन वन के बीच बहती शिशु नर्मदा तीखे एक अनूठी आश्रम कुटी। बाहर वेदी के पास बैठी कृष काया सफेद अंबर में लिपटी। आस-पास के पेड़ों पर बंदरों के झुंड उछलते-कूदते कभी बाबा के पास तक आ फिर पेड़ों पर चढ़ते, झूमा-झपटी करते। फ्रेम-दर-फ्रेम चित्र लेता जा रहा हूँ। थोड़ा आगे दो बड़ी चट्टानों को काटकर बहती नर्मदा तक पहुंच रूकता हूँ। यहाँ से आश्रम कुटी 200-250 फुट दूर है। टेलीफोटो लैंस में ध्यान मग्न उस एकांतव्रती की छवि स्पष्ट उभर रही है। शांत वातावरण में जलरव और बंदरों की क्रांच-क्रौंच बस यही ध्वनियां हैं।

बेआवाज 8-10 सीढिय़ां चढ़ हम आश्रम के लकड़ी-बाड़ के फाटक पर पहुंचे। हमें देख बंदरों की उछलकूद बढ़ गई। कैमरा से चित्र लेता जा रहा हूं फूल पौधों के पीछे छुपकर। इस्तेमाल से घिस पिट गये मेरे केनन ऑटो और भारी निकोन मैनुअल दोनों के टाइटेनियम फाइल से बने शटर कर्टेन लगभग बेआवाज चलते हैं। फिर बंदरों की क्रौंच-क्रौंच वातावरण में है जो हमें देख बढ़ गई हैं। बाबा का ध्यान भंग नहीं होता। साथी अशोक एकदम स्थिर है, भौंचक है। कैमरे मैंने अशोक को दिये और बाबा के चरण स्पर्श कर पीछे हट गया, डर था वे क्रोध जतायेंगे। लम्बी सफेद दाढ़ी वाले बाबा मुस्कुरा दिये तो मैंने फिर बढ़कर पैर छुए, बाबा ने अशीर्वाद दिया।

प्रश्नवाचक दृष्टि के उत्तर में मैंने बताया - बचपन से नर्मदा जी से जुड़ा रहा, छायाकार हूँ, धीरे-धीरे बढ़ते यहां तक पहुंचा हूँ। मौन तोड़ वे बोले - बैगा आदिवासियों के गांव देखते आगे बढऩा नहीं तो नर्मदा दर्शन अधूर रह जायेगा और आगे भी रूकते हुए जनजातियों से, ग्रामीणों से मिलते जाना। कुटी में से बरतन लिये एक व्यक्ति निकला। बाबा के दूध दलिया का बरतन दे वहां रखी चौकी पर बैठ गया।

फकीरचंद इन्हें सुरक्षित वापस ले जाना, शाम धूनी जलाने मत आना बदरी आकार जला देगा। ''खिचड़ी कढ़ी बनाकर अंदर रख दी है’’ कहकर उसने कुटी के दरवाजे की सांकल चढ़ा दी। बाबा को प्रणाम कर हम लौट पड़े। फकीरचंद के कंधे पर थैला लटका है तथा हाथ में दरांती है। पगडंडी पर बढ़ आई झाडिय़ों को काटता हमसे आगे चल रहा है। पूछने पर बताया ''वैदू हूँ पिछले 25 वर्षों से बाबा के पास आता जाता हूँ। हम पांच लोग मिलकर इनकी देखभाल सेवा करते हैं। मैं सुबह आता हूँ। यहां से इकट्ठा की जड़ी-बूटियों की दुकान लगाता हूं - केबकंद, सफेद मसूली, ब्राम्ही, आंवला, बहेरा, जंगली प्याज जैसी कितनी ही शुद्ध जड़ी-बूटियां, कंद यहां नरबदा किनारे मिल जाते हैं। इनको सीधे ही या फिर औषधि बनाकर बेचता हूं।’’

इतने घनघोर जंगल में बाबा अकेले कैसे रह लेते हैं? मैंने पूछा। ये बंदर इनकी रक्षा करते हैं, कोई भालू या सर्प आश्रम के नजदीक नहीं आ सकता। शाम हम में से कोई आकर धूनी जला देता है, बाबा को भोजन करवा कर कुटी के अंदर सुलाकर ही वापस आता है। कभी हम मित्र यहीं रतजगा कर लेते हैं, खासकर जब बाबा अस्वस्थ हों।

कपिलधारा पहुंच हमने एक गुमटी में दाल-चावल खाये और दक्षिण तट से परिक्रमावासियों वाली पगडंडी पकड़ दमगढ़ की ओर बढ़ गये।

बैगा बस्तियों में

नौ हजार वर्ग किलोमीटर में फैली मैंकल पर्वत शंृखला। किसी नदी नाले से लगी, वन विस्तार में लगभग छुपी हुई बैगा आदिवासियों की बस्तियां। नर्मदा की सहायक सिवनी नदी के साथ चलते हम थाड़पथरा बैगा बस्ती पहुंचे और बालवाड़ी शिक्षिका शशि मार्को के घर डेरा जमाया। फिर मुकादम सुग्रीव के साथ बस्ती घूमने निकले। पास के जंगल में पहाड़ी ढ़लान के निचले समतल पर लकड़ी लट्ठों के चौरस फ्रेम में बंधी 'झिरिया’ से पानी भरते औरत मर्द, लामू बैगा भी पानी भर रहा है, सुग्रीव का मित्र है। उनमें कुछ सांकेतिक बात हुई। सुग्रीव के साथ उसके घर पहुंचे, कठिन चढ़ाई चढ़ते। आगे-आगे दो पानी भरी  कंसेडियां सिर पर रखे लामू उसके पीछे हम लोग।

चौकियों पर बैठ लामू ने बीडिय़ां सुलगा लीं, हमें दी, कुछ नशा था, कश लेते ही चक्कर आने लगे। एक सुट्टा लेकर फेंक दी मैंने। वे हंसने लगे। मैं घर की अंदरूनी रचना, अहाते और आस-पास के फोटो लेने लगा। लामू का लड़का और बहू जंगल से आते दिखे। बांस की चौकोर टोकनी में थाड़पथरा नाले से छोटी मछलियां बीनकर लाये हैं, कीचड़ से लथपथ हैं दोनों, पर खुश हैं आज चावल-मछली बनायेंगे। हम गांव देखते लौटे वनवीथिका के दोनों ओर बाड़ से घिरे घर। सुग्रीव अपने घर ले गया, गांव का मुकादम है, पशुधन भी है और खेती भी, दो पत्नियां हैं। तीनों को चौकियों पर बिठा मैंने कुछ चित्र लिये। चाय पीकर लौटने लगे तो लकड़ी बाड़ से झांकती सुग्रीव की बेटी के चित्र लिये - पीली साड़ी में पूरे बैगानी शृंगार में हमारी और देखती 13-14 वर्ष की बैगा बाला, उसकी निश्छल हंसी में भी कौतूहल झलक रहा था। और आगे अभावग्रस्त बैगा परिवार के तीन बच्चे फटेहाल, रीती आंखों से हमें देखते मिले, मैं उनके चित्र ले ही रहा था कि अंदर से उनका पिता धनुष बाण लेकर प्रकट हुआ, सुग्रीव का अभिवादन कर बच्चों के पास बैठ गया - सरकारी अनाज आ गया है ले जाना सुग्रीव बोला। चलते-चलते बताया - पहले अवर्षां फिर अतिवर्षा से फसलें सब चौपट हो गई। भुकमरी-बीमारी फैल गई थी, अब कुछ राहत मिली है।

रात शशि मार्कों के घर दाल-चावल मोटी रोटी अचार खाकर सो गये। सुबह चार किलोमीटर दूर स्थित चाड़ा बस्ती के पुराने सरकारी रेस्ट हाउस की ओर चल पड़े। रास्ते में बुडनेर उद्गम से आगे जलधारा के निकट पशु चराते बैगा किशोर, मोर पंख लगी छतरी नुमा टोपी पहने मिले। टेकड़ी पर बने रेस्ट हाउस के साइड बिंग का कमरा मिल गया। ब्रिटिश कालीन भवन-कभी लेखक वेरियर एल्विन और अंग्रेज़ हुक्मरान यहां ठहरते होंगे, अब वन विभाग के अफसरान, मंत्री।

पता चला शाम बुडनेर किनारे लगे मड़ई मेले में लड़के-लड़कियों का 'भेड़ा’ है। फोटो चित्रकार को मानो खजाना मिल गया। शोर मचाते झूमा-झपटी करते बैगा युवक-युवतियां। कान में सेफ्टी पिनें लटकाये, लम्बे केशों में रंगीन हेयर पिनें खोंसे, गले में बैगानी कंठ मालाओं को लडिय़ां-धोती बंडी में सजे युवकों की टोलियां। इधर बैगनी साड़ी को कमरबंध से कसे चमकते गिलट गहनों के आभूषणों से गुदना-गुदी युवतियों की टोलियां आगे बढ़ युवकों को रिझाती किसी का हाथ पकड़ती, कभी दो-तीन मिलकर अकेले को घेरती। समाज मान्य छेड़छाड़ का झूमा-झटकी का आनंद लेते सयाने।

इन सबके बीच लगभग नाचना-कूदता, ऊपर नीचे होता, मैं खुद-कभी वाइड एंगल तो कभी जूम लैंस से एंगल बनाता। भीड़, कोलाहल में वाइंडर की आवाज दब गई है। तेजी से सटीक चित्र लेता है 'केनन’ कैमरा। 10-15 मिनट में रील खतम हो जाती है। तब मैनुअल निकोन थामता हूँ। अशोक केनन में रील बदलता है इसी बीच। देर शाम लगभग हांफते हुए चाय गुमटी पर जाकर बैलेसिंग पटिये की बैंच पर बैठ जाता हूं - फोटो सेशन खत्म हुआ। फुल चाय साथ में भजिया डबल प्लेट। धुंधलका घिरते भीड़ छंटने लगती है, टिकली चूडिय़ां, खिलौने-पोस्टर, कपड़े, गिलट गहने, खोबा जलेबी, हल की आर, हंसिया, सांकल, कुंदा, बरतन खरीदकर या वनोपज में पलटकर बैगा समूह गांवों की ओर लौट पड़ते हैं। खच्चरों पर सामान लादे बजाग लौटते साहू-बनिये। दूर पेड़ झुरमुट तल अब भी आबाद है, बोतल बंद देशी-विदेशी दारू की गुमटी, धुत नशेड़ची वीथिकाओं पर लडख़ड़ाते गांव लौट रहे हैं, कुछ बेसुध, यहां-वहां पड़े हैं। महुआ की तो परमिटेड है, औरत-मर्द सब उतारते और पीते हैं, पर अब दारू व्यापार भी हो रहा है - इस हरी-भरी मृगमरीचिका में। सीधे, सच्चे शांत बैगाओं को लूटने अनुपयोगी हानिकारक चीजें भी मड़ई में पहुंच रही हैं - ललचा रही हैं। प्लास्टिक से बनी सामग्री, पॉलीथीन, बासी सब्जी, मिठाईयां, भद्दे पोस्टर्स, बोतल बंद दारू, सिंथेटिक पोशाकें... घटिया इलेक्ट्रिक आइटम और भी...

बुडनेर से साथ चलते 'डगौना फॉल’ पहुंचे, चौड़ी बुडनेर संकरे संगमरमरी कटाव में से लगभग अदृश्य बहती हैं, आधा किलोमीटर लम्बाई में। 'डगौना’ यानी एक डग में बुडनेर को फलांगने की सबसे संकरी जगह। हमने भी चार फुट चौड़ी दरार को फलांगा और झांककर नीचे बहती नदी को देखा, धारा के किनारे-किनारे आगे बढ़े। संगमरमरी कटाव के आगे बुडनेर फिर 70-80 फुट चौड़ी बहती दिखी। कटाव के पहले भी जहां झरना बनाती है, वहां भी नदी 70-80 फुट चौड़ी है। इस प्राकृतिक अजूबे को देखकर हम ढ़ाबा गांव की ओर मुड़ गये जो घने जंगल के बीच बुडनेर नदी के दक्षिणी जलग्रहण क्षेत्र की छोटी सी आदवासी बस्ती है। साथ में युवा सुक्कल सिंह बैगा है, निजबल युवा मंडल का सचिव है। ढ़ाबा के सामुदायिक भवन में हमें ठहराया। रात युवक मंडली आ गई, मनिया बाई और अन्य युवतियां भी निजबल युवा मंडल की सदस्य है वे भी आई। अलाव के चारों ओर रखी चौकियों पर बैठ लम्बा विमर्श साथ दाल-बाटी का भोजन। पढ़े-लिखे युवाओं के सामने कई चुनौतियां हैं। अस्मिता को बनाये रखकर मुख्यधारा से कैसे जुडऩा, लोक परंपराओं, गीत-नृत्यों, रीति-रिवाजों को संजोना, नई पीढ़ी से इन्हें जोडऩा। युवा नहीं चाहते अज्ञान-अशिक्षा, कुरीतियां, नहीं चाहते बाजारवाद का जंगलों घाटियों में पसरना।

जंगल कटना और जंगल माफिया की वन-विभाग से मिली भगत बड़ी चुनौती हैं। सरकारें मुफ्त में बांटकर खाना, कपड़ा, जमीन का एक टुकड़ा बाकी सब-जंगल, पहाड़, खनिज सब छीन लेना चाहती है - पहले गोरी थी अब काली-भूरी है पर हैं वे ही, जिनके खिलाफ आदिवासी सदा से लड़ते आये हैं। जो  आदिकाल से रह रहे इन लोगों से मूल निवासी प्रमाण-पत्र मांगते हैं।

इनसे अपनी कौम को, अपने संसाधनों को बचाना-यही चिंता है इस 'निजबल’ समूह की। चाड़ा, ढ़ाबा, तांतर, सिलपिड़ी, अजगर, पौंडी और भी कई बैगा बस्तियां, सब ओर यही हाल है। ट्रकों पर लादकर ले जाये जाते जंगलों, पहाड़ों, खनिजों को बेबस देखते, सरकारी योजनाओं के प्रलोभनों में उलझे सीधे-सादे, शांतिप्रिय बैगा, गुदना गुदी औरतें, बदलती पोशाक को - सलवार, कमीज, जींस, टी-शर्टस् अपनाती, पढ़ती-लिखती नई पीढ़ी। क्या बचा पायेंगी अपना अक्षय रिजर्व बैंक, वो धन जिसके दम पर वे सदियों से जिंदा रहते आये, अस्मिता और प्रज्ञा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाते रहे। मधुर रंगों और संगीत से सजी इस नैसर्गिक जीवन शैली पर पूंजीवाद और बाजारवाद डाका डाल रहा है। वे मर्माहत और बेबस हैं। इस अकल्पनीय परिवर्तन के बीच 'निजबल’ उम्मीद जगाता है। स्कूलों से पैदल या साईकिलों पर लौटते बच्चे हर ग्राम वीथिका पर दिखते हैं अब। खेतों में नई पीढ़ी सलवार-कुर्ता, जींस पैंट शर्ट में नागर फांदती या सिर बोझ उठाये जंगलों से कस्बों तक, गांवों तक आती जाती दिखती है।

चौगान का नवरात्रि उत्सव

बैगाचक देखते-समझते बुडऩेर प्रवाह के साथ आगे बढ़ते देवगांव पहुंचे। हरे-नीलाभ नर्मदा जल से संगम करती मटमैली बुडऩेर पत्थर रेत के बीच से निकलकर नर्मदा को अपना अस्तित्व सौंपती-खुद नर्मदा बनती।

संगम से आगे रामनगर तक चौड़ा और गहरा प्रवाह दक्षिणगामी है, जहां गौंड राजा हिरदयशाह के किले को छूती मंडला की ओर बढ़ती है नर्मदा। और आगे जबलपुर के गढ़ा-पुरवा क्षेत्र में भी राजगौड़ों के अनेक ठिकाने हैं। रामनगर में चौगान पूजा स्थल पर आदिवासी समाज का नवरात्रि अनुष्ठान चल रहा है। नदी किनारे के साफ-सुथरे रेत विस्तार में पीपल वृक्ष तले हमने डेरा डाला। मध्य भारत के कई क्षेत्रों से आये आदिवासियों की टोलियां रेत पर डेरा जमाये है। रात ढलते अस्थायी चूल्हों पर लोगों ने भोजन बनाना शुरू कर दिया। कुंडम क्षेत्र से आये गौंड दल ने हमारे निकट ही स्थान बना लिया है। इनमें रिटायर्ड शिक्षक भी हैं। रात चर्चा के दौरान उन्होंने बताया - संग्रामशाह, रानी दुर्गावती, हिरदयशाह और गढ़ा पुरवा के अंतिम शासक शंकर शाह इनको हमेशा याद किया जायेगा। जदोराय या यादवराय से गौंड राजवंश की शुरूआत हुई कल्चुरियों के पराभव पश्चात। संग्रामशाह ने राज्य विस्तार किया, दुर्गावती ने लगभग 15 वर्ष के राजयकाल में सुशासन की मिसाल कायम की, लोकहित के कार्य किये। अंत में अस्मिता बचाने अकबर से युद्ध किया, मौत को गले लगाया पर समर्पण नहीं किया। 1857 में शंकरशाह ने आजादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत कर दी, पकड़े गये उन्हें तथा पुत्र रघुनाथ शाह को तोपों से बांधकर उड़ा दिया गया। इसके साथ ही राज गौंडवंश का पराभव हुआ। हमारे कुंडम क्षेत्र में गौंड समाज बहुत है। खेती और वनोपज आजीविका के साधन है। बच्चे पढ़-लिख रहे हैं, अनेक शिक्षक बन गये हैं, सरकारी नौकरियों में हैं। अभावग्रस्त परिवार पलायन कर शहरों में मजदूरी करते हैं, कुछ तो महाराष्ट्र-गुजरात तक काम की तलाश में जाते-आते हैं। मध्य भारत के आदिवासियों में गौंड ज्यादा प्रोग्रेसिव हैं, मुख्यधारा में मिल रहे हैं, जगह पा रहे हैं, पर अस्मिता बनाये हुये हैं। 'चौगान’ की तरह ही शहपुरा ब्लाक के 'पुरानी पानी’ में भी इनका वार्षिक जमावड़ा होता है, जहां गौंड पुराण का वाचन, भोजन-भजन, लोकनृत्य सब आज भी समाज को जोड़े हुए हैं।

चौगान आदिवासियों का प्रमुख पूजा स्थल है, ऊंची दीवार से घिरे चौरस अहाते के बीच ऊंचा निशान कुछ अमूर्त आकृतियां इनके आस-पास मिट्टी में गाड़े गये चिमटे-त्रिशूल। एक ओर जल रही धूनी के पास बैठा पुजारी। आदमी औरतें चौगान के एक मात्र प्रवेश द्वार से आते हैं, पुजारी के पैर छू आशीर्वाद लेते, धूनी की राख का तिलक लगवाते। फिर बगल में बने लम्बे कमरे से मटकी में उगे जवारों को नर्मदा विसर्जन हेतु बाहर लाकर पंक्ति में रख देते। पंक्तिबद्ध जवारों को सिर पर उठाये खड़ी स्त्रियों की मैं फोटो ले रहा था कि ढोल-नगाड़ों की ध्वनि - प्रतिध्वनियों से परिसर का अहाता गूंजने लगा। स्त्री-पुरूष, आगे-पीछे, हिलते-डुलते नाच रहे हैं। केश खोले औरतें नगाड़ची के ठीक ऊपर तक झूमती हैं, खुले केश इधर-उधर लहराती-लडख़ड़ाती। चित्र लेने मुझे भी लगभग नाचना पड़ रहा है, कभी तो ग्राउंड लेवल तक झुकना पड़ता है, लो एंगल लेने कभी नगाड़ची के पीछे या बगल से चित्र लेना पड़ते हैं। पुरूष नर्तक निशान के चारों और जीभ लपलपाते घूम रहे हैं। पास आकर जीभ के कंपन से विचित्र आवाजें निकालते हैं, मानों कोई सर्प फुंफकार कर काटने वाला है। अनेक बैगा जीभ लपलपाते कैमरे में झांकते और फिर पीछे हट जाते हैं। उछल-उछलकर निशान के चारों ओर घूमते फुफकारते मर्द तथा केश लहराती-फटकारती, नशेड़ी की तरह झूमती औरतें। जब नगाड़े तेज हो जाते उनकी गति से ताल मिला अंग संचालन करतीं औरतें, उछलते जीभ लपलपाते मर्द और उन्हें देख भाव विभोर डोलता शेष जन समुदाय। आफ्रीकन आदिवासियों के नृत्य कार्निवाल में ही ऐसा विचित्र अंग संचालन करते नर्तक हम देख पाते हैं।

दोपहर होते औरतें सिर पर जवारों (गेहूं का हरा पौधा) की मटरियां रखे चौगान परिसर के एकमात्र दरवाजे से बाहर निकलने लगीं। बाहर उमंग से लबरेज पर अनुशासित जन सैलाब पंक्तियों में मानों हिलोरे ले रहा था। फिर लालवर्दी में बिल्लेदारी स्वयं सेवकों द्वारा नियंत्रित जन प्रवाह नर्मदा की ओर चल पड़ा, जवारे सिराने। तीखे पत्थरों - गिट्टी वाली वन वीथिका पर तेजी से नंगे पांव बढ़ते इस जन सैलाब से कदमताल मिला चलना कठिन है। फिर मुझे रूक-रूक कर फोटो भी लेना है। नंगे पैरों का नुकीली गिट्टी पर चलना जब किसी शॉट में स्पष्ट दिख पड़ता है तो शरीर में झुरझुरी होती है, पर वे हैं कि अपने में मगन नाचते कूदते बढ़ते जा रहे हैं - 'छोड़ कहां अब जवां ओ मैया, मोरी छोड़ कहां पे हो ओ’... स्वर हरी पर तैरते से वे कदम जिनके तले शूल सी चुभने वाली गिट्टी बिछी है। मैं दौड़ता-हाँफता इस स्पंदित और गतिमान मानव रेले के चित्र लेता जा रहा हूं। जवारे सिराते यूं दिख रहा है मानो कोई जल प्रवाह जाकर नर्मदा में मिल रहा हो। कमर-कमर पानी में वे नदी की लम्बाई में फैलते जा रहे हैं, तुमुल घोष के साथ  जवारे नर्मदा को अर्पित करते जा रहे हैं। डेरे पर लौट हम दरी पर पसर गये।

दक्षिण से पश्चिम की ओर मुड़ती नर्मदा मंडला शहर को तीन तरफ से घेरती है। कान्हा किसली अभ्यारण्य के आर-पार बहती बंजर नदी यहां नर्मदा में समा जाती है, इससे मिले पर्याप्त जल से नर्मदा चौड़ी गहरी और गतिमान होकर आगे सहस्त्रधारा जलप्रपात बनाती है। यह रमणीय स्थल अब जबलपुर के निकट बने नर्मदा के पहले बड़े बांध 'बरगी’ के बैक वाटर (भराव) में डूब गया। मंडला से जबलपुर तक 90 किलोमीटर लम्बाई में नर्मदा एक बांध झील में बदल गई है। जिसमें 162 गांव डूब गये, 10000 परिवारों के घर, खेती, गोचर सब इस महाझील में समा गये। इस झील में बोट यात्रा कर झील किनारे या टापुओं पर बस गये विस्थापित परिवारों के दर्द को, बेबसी को कैमरे में उतारता रहा।

संगमरमरी कंठहार

जबलपुर को छूकर बहती नर्मदा की 30-35 किमीटर लम्बाई मुझे बचपन से ही आकर्षित करती रही। बरगी झोल में नर्मदा की लंबाई पार करके खिरैनीघाट होते हुए ग्वारीघाट फिर तिलवाराघाट, आगे जिलहरीघाट पर कर नर्मदा के अद्वितीय जलप्रपात धुंआधार पहुंचा हूँ। छोटे से धुआंधार को चारों ओर से घेरा जा रहा है। इसके सुंदर संगमरमरी किनारों को सीमेंट कांक्रीट से पाट दिया है। चारों ओर कचरा-प्लास्टिक बिखरा है। लोगों का एक बड़ा हुजूम मुख्य प्रपात के आस-पास डोल रहा है। हर किसी के हाथ में मोबाइल कैमरा है। प्रपात को देखने-मन की छवि बनाने की मानवीय प्रवृत्ति मानों समाप्त हो गई है - हर कोई सेल्फी लेने में मगन है। पॉपकार्न, खारा, फ्रूटी-पेप्सी खाकर लोग डब्बे प्लास्टिक पैकेट इधर-उधर फेंक रहे हैं। बहुत थोड़े ही कचरा डब्बों तक जाने की जहमत उठाते हैं। चट्टानों की ओट में दिन दहाड़े बियर-दारू के दौर चल रहे हैं। भेड़ाघाट की सारी ही स्थानीय आबादी झपट्टा संस्कृति के इन ग्राहकों को कुछ न कुछ बेचने में व्यस्त है - धुआंधार मानों उपभोग और व्यापार का अड्डा बन गया है। मेरी नर्मदा चुपचाप गहरे खड्ड में आगे बढ़ जाती है। पतली संगमरमरी गली से। मैं भी यहां के बदले दृश्य के कुछ चित्र-तैरते खाली पैकेट, कचरे की झाग, दारू की टूटी बोतलों से बचकर निकलते लोग और अपने मेें मस्त भीड़-भाड़ के कुछ चित्र ले नर्मदा के साथ यहां से खिसक लेता हूँ।

ऊंचाई पर बने मेरे पुराने पसंदीदा व्यू पॉइंट तक बनी सीढिय़ां चढ़ ऊपर बने बैंच पर बैठा हूं। यहां से दूर धुआंधार का विहंगम दृश्य दिख रहा है। इसी संगमरमरी कटाव में बहती है नर्मदा 40 से 80 फुट चौड़ी और 200 से 25- फुट तक गहरी, अत्यंत वेगवान, प्रपात के ठीक ऊपर नर्मदा की चौड़ाई 1200 फुट से भी अधिक। 23 डिग्री के कोण पर झुके सफेद-घूसर मार्बल की लम्बी तरार।

नर्मदा के वे सुंदर किनारे जो अब व्यावसायिकता की बलि चढ़ते जा रहे हैं। न बफर बचा, न ही वे नजारे। फिर भी भेड़ाघाट अलबेला है, हजारों लोग आज भी यहां घूमने-देखने आते हैं।

जलोढ़क मैदानों का बदलता ग्रामीण जीवन

जबलपुर से आगे का 350-400 किलोमीटर का इलाका वह कृषि प्रधान क्षेत्र है, जिसमें नर्मदा के दोनों ओर अपवाह तंत्र के जंगलों को साफ कर खेतीहारों ने बस्तियां बना ली है। उपजाऊ काली मिट्टी वाले इस लम्बे-चौड़े क्षेत्र में सतपुड़ा और विंध्य पर्वत नदी से दूरी बनाकर साथ-साथ चलते हैं। इनसे निकलती सरिताओं - शेर, शक्कर, दूधी, तवा, हिरन के विशाल अपवाह तंत्र से नर्मदा प्रवाह को पर्याप्त जल मिलता है। काली दोमट में खरीफ और रबी की दहलन और तिलहन की फसलें सदियों से होती आईं - गेहूं, चना, अरहरदाल का उत्पादन और देशभर में निर्यात होता रहा है। पिपरिया, पाटन और जबलपुर अनाज व्यापार की बड़ी मंडियां हैं, जहां से बम्बई, दिल्ली और दक्षिण भारत तक अनाज आज भी जाता है। धरती के नीचे अनाज संग्रह के बंडे (टंकिया) जिसमें घुन-कीड़ा नहीं लगता, चरट-रेंहट और कुओं से सिंचाई। माल और रैयत की श्रेमी में बसे गांव-देहात, चैतिया और उनके गीत, हवेली क्षेत्र के मालगुजार, बढ़ई, लोहार, चर्मकार, कुम्हार, साहू-बनिये, बैलगाडिय़ों की आवाजाही, नर्मदा तीरे मेले-ठेले- भेड़ाघाट, बरमानघाट, सांकलघाट, होशंगाबाद का सेठानीघाट, यहां गाई जाने वाली बंबुलियां - ''नरबदा मैया ऐसी तो बही रे...’’ बहुत बदला इस बीच यह अन्न क्षेत्र। कृषि के तरीके और साधन बदले, बड़े और मंझौले कृषकों का रहन-सहन बदला, बैलगाड़ी और साइकिल की जगह कारों, एसयूवी और मोटर साइकिलों आ गई। चरट-रेंहट हल बखर की जगह थ्रेशर, ट्रेक्टर, पम्पस, स्प्रिंकलर कृत्रिम खाद, कीटनाशक का चलन बढ़ता गया। जी.एम. और बी.टी. बीज आये, कैश क्राप का चलन बढ़ा, धन लोलुपता बढ़ी, पोशाकें बदलती गई खासकर नई पीढ़ी में जिसमें अब कृषि के प्रति रूझान घट रहा है। देहाती युवा तेजी से शहरी 'मानसिकता’ और 'लाईफ स्टाइल’ अपना रहा है। बुजुर्ग हतप्रभ और बेबस है।

इन परिवर्तनों के बावजूद लोग मन से नहीं बदले। तीज त्यौहारों में, विवाह उत्सवों में नर्मदा को याद किया जाता है। बंबुलियों की टेर अब भी मेलों-ढेलों में सुनाई पड़ती है। गाकड़-भरते का चलन कायम है। नर्मदा माँ पधार जो - विवाह निमंत्रण नर्मदा में बहाकर आह्वान करते हैं इस नदी देवी का।

जीवन तंत्र और प्रवाह अपवाह तंत्र गंगा-यमुना जैसा और जितना प्रभावित नहीं हुआ - वैसा भयानक प्रदूषण नर्मदा का नहीं दिखता। खामोशी, ठहराव और बदलाव की धमक जरूर सब ओर है - इस बार जब फिर निकला हूँ कुछ उदास हूँ, कैमरे में वे नजारे, वे अलमस्त गर्वीले कृषक अब कम ही पकड़ में आ पाते हैं। यहीं की भाषा में कहूं तो लोग 'बिदके’ हुये हैं, परिवर्तन का अंडर करंट झटके मार रहा है। नर्मदा परिक्रमा करती टोलियों को अब भी पर्याप्त सुविधायें मिल रही है - अन्नदान, वस्त्र, ठौर सब। नर्मदा के समांतर यह जन प्रवाह सतत है।

'भवति भिक्षं देहि’ मांगता खाता, कभी यजमान बनता, कभी अजनबी की तरह भगाया जाता, मैं साथी घनश्याम के साथ होशंगाबाद के सेठानीघाट पहूंचा हूं। इस टाइम टेबिल के साथ कि मकर संक्रांति का मेला कवर करूंगा। शानदार लम्बे-चौड़े घाट, नर्मदा जल तक उतरती सीढिय़ों पर मुंह अंधेरे ही लोगों का जमावड़ा शुरू हो गया है। हमने भी सीढिय़ों पर स्थित एक चबूतरे पर स्थान बना लिया है। भिखारियों और खोमचे वालों में स्थान को लेकर चिखचिख हो रही है। एक फेरीवाला तिल के लड्डू बेच रहा है। मकर संक्रांति का सूर्य चौड़े-गहरे नर्मदा जल पर सुनहरी आभा बिखेरता क्षितिज से उठ रहा है। गहरी नर्मदा में डुबकी लगाते, चबूतरों पर कथा वाचन कराते लोगों की भीड़ बढऩे लगी है। फूल-पत्र, नारियल-चुनरी, सिंदूर बेचने वालों की अस्थायी दुकानों से पूजन सामग्री खरीदते श्रद्धालु। स्नान उपरांत भिखारियों को दान में अनाज-पैसा देती लौटती पंक्तियां और इन सबको कैमरे में बांधता, सीढिय़ा उतरता चढ़ता मैं खुद। यहां से आगे नर्मदा एक बड़ी नदी है जिससे तवा ने अभी-अभी संगम किया है सो गहरी और गतिमान हो गई है नर्मदा - इतनी गतिमान कि हंडिया नेमावर के आगे काले पत्थरों की घाटी को काटकर गहरे उतर जाती है, ऐसे अगम-अगोचर में कि परिक्रमा पथ भी नर्मदा से दूर होकर जाता है। इस घाटी में पैठना दुष्कर है। यहां से आगे स्थिति घावड़ी कुंड के जलप्रपात नर्मदा सागर बांध में डूब गये हैं। पूरा का पूरा एक अबूझ संसार, जिसमें बंजारों के ठिकाने थे और पारधी विचरण करते थे, अब झील में समा गया।

नर्मदा की धुरी

नेमावर का सिद्धेश्वर मंदिर - उद्गम और समुद्र संगम से समान दूरी पर है सिद्धेश्वर मंदिर - नर्मदा की धुरी पर नक्काशीदार पत्थरों को जोड़कर बनाये गये शिवालय का उत्तुंग शिखर। बहुत पहले जब नाप-तौल के यंत्र उपकरण नहीं थे, तब भी दूरी की गणना कर ली गई, जो खरी है आज भी।

जोगा का परित्यक्त किला है आगे जहां से नर्मदा सागर बांध की व्यापक और विनाशकारी डूब में हरसूद शहर सहित बड़ा इलाका खेती की जमीनें और 250 रहवासी गांव बांध झील में डूब गये। यहां मैं डूब के पहले आया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में जन संघर्ष चल रहा था - हक की इस लड़ाई का व्यापक चित्रण मैंने किया था। तब हरसूद एक जीता जागता शहर था। आसन्न डूब संकट से आंदोलित थे लोग फिर भी शहर के गली मोहल्लों में जीवन धड़क रहा था। बड़केसर जैसे बड़े डूब गांव तक नर्मदा पार कर गया था, बजरे पर लोगों के अलावा बैलगाडिय़ां और पशु भी नर्मदा के आर-पार ले जाये जा रहे थे। आसन्न डूब की दहशत हर गांव में दिख पड़ी। एक अंदरूनी गांव में हमें यह समझकर भगा दिया गया कि नाप-जोख करने वाले आये हैं, न खाना मिला और न ही ठौर, हम भूखे-प्यासे ही पैदल हरसूद लौट आये थे।

इस बार की यात्रा तक बांध झील में वे ग्रामीण बस्तियां और उपजाऊ खेती, लगे जंगल के हिस्से सब डूब चुका है। छनेरा बस्ती में विस्थापितों की बदहाली महसूस की। रोड रास्ते जिस पर अब परिक्रमावासी चलते हैं उस पर बढ़ते, कभी बस के सहारे ओंकारेश्वर-मांधाता पहुंचे। नर्मदा सागर बांझ झील से निकल पुन: धारा के रूप बहती नर्मदा फिर बांधी गई, पर ओंकरेश्वर का अस्तित्व किसी तरह अब भी कायम है। प्रसिद्ध तीर्थस्थल है यह।

मैं यहां साथी घनश्याम के साथ दो दिन धर्मशाला में रूका। पैदल पुल से अथवा नामों से मांधाता द्वीप तक लोगों की आवाजाही अब भी कायम है, पर बांध निकट होने से नर्मदा धारा या सूख जाती है या बाढ़ जैसा प्रवाह बढ़ जाता हैं। मान्धाता द्वीप की बलुआ चट्टानें और तेजी से कट रही है। आठवीं शती के सिद्धनाथ मंदिर के अवशेषों को छोड़ और कोई निर्माण बहुत पुराना नहीं दिखता।

माहेश्वर और आगे...

माहेश्वर तक तेज बहाव से कई धाराओं में विभक्त होती फिर एक होती नर्मदा की धारा, कहीं टापू पर मछुआरों की झोपडिय़ां, निर्जन पथ पर मार्ग बताते चरवाहे। ऐतिहासिक माहेश्वर नगर नर्मदा की अनन्य भक्त रानी अहिल्याबाई होल्कर का बनवाया सुंदर महल जिसके महल जिसके घाट की सीढिय़ां चौड़ी गहरी नर्मदा में उतरती हैं। सुंदर नक्काशी और मूर्तियों से अलंकृत महल होल्कर घराने के वैभव और कला प्रेम के साथ ही मालवा की उपजाऊ धरती से प्रजा में आई सम्पन्नता-स्थिरता को भी दिखता है। नर्मदा की लहरों को छूते नर्मदा मंदिर से लगे हुये लम्बे पक्के घाट, नौका विहार हेतु सजी-सजाई नावें। इसका अनोखा लोकेशन बम्बई के फिल्मकारों की पसंदीदा साइट है। किले के ऊपरी भाग में रिसार्ट है, जहां से नर्मदा का विहंगम दृश्य दिखता है। पता चला सरदार सरोवर की ठेल (बैक वाटर) यहां तक आती है - ठीक अहिल्याबाई की प्रतिमा तक।

आगे है पश्चिमी निमाड़ खेतीहर पाटीदारों का बड़ा इलाका, कच्छ और सौराष्ट्र से बहुत पहले यहां आ बसे हैं। निमाड़ी बोली में गुजराती भाषा भी झलकती है। आधुनिक भी-ठेठ देहाती भी। बड़े-मझौले कृषक, माल और रैयत में विभाजित हैं बड़ी बसाहटें। कसरावद गांव माल-किसानों की बसाहट, रैयात-नर्मदा से लगी झोपडिय़ों में कामकार कारीगरों के घर जो बांध प्रभावित नहीं माने गये, अत: मुआवजे के हकदार नहीं है। असंतुष्ट तो पाटीदार किसान भी हैं अपर्याप्त मुआवजे और विस्थापन से। कितने ही चित्र लिये केले, पपीते के विशाल खेत, गेहूं की लहलहाती फसल, कपास खेत, स्वस्थ खेत, स्वस्थ बैल, दुधारू, ट्रेक्टर, थ्रेशर, पाटीदारों के वे घर जहां टीवी, टेलीफोन, मोटर साइकिलें सब सुविधायें। पहनावा पारंपरिक औरतों-मर्दों का, व्यवहार में साफगोई। घर के सामने की परछी में सोफे जैसा झूला जिस पर आप लेट भी सको बगैर पैर मोड़े। सादगी और सहजता का वातावरण-दिखाया कहीं नहीं।

रात जीमण (भोजन) बाद महेश भाई बता रहे हैं आने वाली डूब के खिलाफ खेडूतों की लामबंदी, ढांढ़स बंधाते नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथी। महिलाओं को ज्यादा दुख है घर-बार-खेती सब छोडऩा होगा, बच्चों की परवरिश-शिक्षा पर असर पड़ेगा, सामाजिक व्यवस्था टूटेगी इस अनचाहे विस्थापन से। सुखी-शांत संसार उजड़ जायेगा, इसके खिलाफ अहिंसक लड़ाई हम लड़ेंगे। महेश भाई को सुनते रात झूले पर ही सो गया।

भगोरिया कुक्षी का डूमखेडी में भीलों की होली

सुबह राजघाट होते हुए बस से हम आगे बढ़े, 'कुक्षी’ का भगोरिया देखा। पीछे बैगाचक में मड़ई देखी थी। यहां से 900 किलोमीटर दूर वही लड़के-लड़कियों का मेला-मिलन, पीली, हरी, नीली, गुलाबी पोशाकों में गिलट गहनें पहने लड़कियों की टोलियां। पीला साफा बांधे, बांसुरी की टेर से लड़कियों को रिझाते छैला- छोटे-छोटे समूहों में साथ में एल्डरमैन भी, जो कंट्रोल रखता है इन छैल-छबीलों पर, मिलन को उत्सुक उन बालाओं पर जो मुट्ठी में सिंदूर भरे घूमती चीन्हती फिर रही हैं अपना जोड़ीदार। नशे में धुत्त सयाने भील-भिलाले कैमरा देख हमें धमका रहे हैं। इनसे बचते हुये धूल-धक्कड़ में फोटो खींचता जा रहा हूं। घनश्याम मुझे कवर किये हुये है। विशालकाय ढोल बजने लगा, मदमस्त भील मर्द-औरतें नाचने लगे। टोलियों की छेड़छाड़ चरम पर है, कुछ जोड़े उंचाई की ओर भाग रहे हैं - भगोरिये जोड़े जो विवाह बंधन में बंधेंगे।

दोपहर तक बस पकड़ हम आगे बढ़ लिये हापेश्वर के लिये। अनाम बस्ती के पास उतारकर बस आगे बढ़ गई। चाय गुमटी पर पता चला आगे जो पथरीली ऊपर की ओर जाती सड़क है, उस पर बढ़ते जाना, 15 किलोमीटर आगे है हापेश्वर। विंध्याचल की नीलाम ऊंचाईयों पर चढ़ते शाम तक हम हापेश्वर पहुंचे।

डोंगी से नर्मदा को पार कर सिक्का फालिये की भील बस्ती में गन्या पटेल के बांस चटाई निर्मित घर में ठहर गये। रात मूंग दाल और ज्वार की रोटी खाई। सुबह डूमखोड़ी के लिये निकल पड़े-फिर चढ़ाई। रात भर भीलों के होली उत्सव की तस्वीरें लेता रहा - अगली सुबह धुंधलके तक। चित्र-विचित्र शृंगार में नर्तक टोलियां बना नाचते रहे। नगाड़ों की गूंज तथा बांसुरी की स्वर लहरी थी वातावरण में। मैं भी कैमरे के साथ नाचता कूदता फोटो लेता रहा। इतनी श्रम साध्य फोटो सूट रात भर करूं ऐसा कम ही हुआ है। अलसुबह मुर्गे की बांग के साथ होली दहन का अनुष्ठान हुआ। नर्तक अब भी जलती होली के चारों ओर घूम-घूम नाचते रहे। उजाला होते मैं थककर चूर पास पड़े खटिये पर लेट गया। सुबह 8 बजे घनश्याम ने मुंह पर पानी छिड़क कर मुझे उठाया और हम लौट पड़े।

शूलपाणिश्वर से भारभूत

मणीवेल में शूलपाणिश्वर के डूब रहे मंदिर परिसर तक नाव से पहुंचे। घुटनों-घुटनों पानी में घूमता रहा चित्र लेता रहा। दूर सरदार सरोवर की झील के उस पार सरदार सरोवर बांध की महाकाय दीवाल उठ रही है। पास जा जब फोटो लेने लगा तो पुलिस ने खदेड़ा, कैमरा जब्त कर लेने की धमकी दी। केवडिया कॉलोनी में लोगों ने बताया सभी राजनैतिक पार्टियां बांध निर्माण के समर्थन में एकजुट हैं। हम भरूच की ओर बढ़ लिये। बांध भराव की वजह से आगे का बहाव कम हो गया है। हम नर्मदा के पथरीले तल के समांतर चलती पगडंडियों पर खेत, मंदिर, झाडिय़ों, बस्तियों को देखते, मंदिरों, आश्रयस्थली में रूकते, भोजन पाते कबीरबाड़ पहुंचे। अपवाह तंत्र से मिलते जल ने नर्मदा धारा को पुन: बहती नदी का रूप दे दिया है। कबीर बेट (टापू) नर्मदा की दो धाराओं के बीच है, उत्तरी धार में पर्याप्त जल राशि है। दक्षिणी धारा क्षीण है, पैदल ही धारा पार कर हम विशालकाय कबीर बड़-वटवृक्ष की छाया में पहुंचे। यहां संत कबीर ने नर्मदा परिक्रमा करते चौमासा काटा था। उनका एक मंदिर भी है। जिसमें कबीर प्रतिमा है - उस अद्वैत निर्गुण निराकार पंथी की। यहां से भरूच शहर पहुंच एक सस्ती सराय में रूक गये, जहां खाना ठहरना बहुत सस्ता था। पिछली लम्बी श्रमसाध्य यात्रा की थकान उतारी फिर भारभूत की ओर बढ़ गये। माहेश्वर से यहां तक परिक्रमावासियों की टोलियां मिलती रही, पर उनकी दिनचर्या और गति से हम तालमेल नहीं कर पाते थे। उन्हें तेजी से आगे बढऩा है, मुझे चित्र लेते लिखते समझते। भारभूत से आगे नर्मदा के समुद्र मिलन तक हमने मछुआरों की नौका से यात्रा की। लुआरा गांव से आगे समुद्र है। नर्मदा प्रवाह समाप्त हो जाता है, पीछे सैकड़ों सरिताएं नर्मदा में मिल खुद नर्मदा बन गई। यहां नर्मदा समुद्र में मिल समुद्र बन रही है। इस समुद्र मिलन स्थल के चित्र ले हम दाहेज शहर पहुंचे और भरूच हेतु बस पकड़ी।

बीस वर्ष बीत गये, उस नर्मदा यात्रा में लिये वे सैकड़ों चित्र और चलचित्र की मांनिद मस्तिष्क में घूमती वे छवियां अब भी साथ है, बार-बार बुलाती है नर्मदा। मैं जाता-आता रहता हूं। पचास वर्षों से अधिक के समय अंतराल में देश-दुनिया में भी और नर्मदा जलपात्र के जंगलों, पहाड़ों, मैदानों में भी बहुत बदलाव हुआ है। नर्मदा किनारा भी बदल रहा है - रेत खनन, लगी बस्तियों के आस-पास के ग्रीन बफर का नष्ट हो जाना। निर्माण कार्यों और खेती का ठीक नर्मदा किनारों तक फैल-पसर जाना। नर्मदा उद्गम से डिण्डौरी तक के सबसे महत्वपूर्ण वनस्पति आवरण (बफर) का समाप्त होते जाना।

 


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