शैलेन्द्र राजपूत की कविताएं
शैलेन्द्र राजपूत
आगमन/नये कवि
मध्यम नदी
मैं मध्यम नदी हूं मेरी तलहटी पर ढेर पत्थर पड़े हैं मैं प्यासी हूँ पर सूखी नहीं हूँ मैं पसीजती बहुत हूँ और मेरे आँसू दु:ख के मोहताज नहीं है पसीने ने पत्थरों को महीन कर दिया है
विस्तार मेरी प्राथमिकता नहीं बाढ़ कोमल किनारों को बिखेरकर मछलियों को दूर जंगल में छोड़ आती है मेरा लालच है मेरे किनारे, ता-जिंदगी बतियाते चलें वो बचकानी बातें मुझे रोज रुला देती हैं और मैं जिंदा रहती हूँ
मुझे गहराई से डर लगता है गहराई के घुप्प अंधेरे में अक्सर मछलियाँ गुम हो जाती हैं मेरी चाहत है किनारे पर खेलते बच्चे खुली आँखों से अपनी रंगीन मछलियों को पकड़ सकें मुट्ठी मुट्ठी भर निकालकर रेत किनारे पर अपने घरोंदे बना सकें
मुझे सीधे चलने से परहेज़ नहीं है तलहटी के पत्थर मेरी रुकावट ही नहीं मैं तो अक्सर उनके ऊपर से बहती हूँ मुझे अनंत में मिलने की जल्दबाजी नहीं मुझे तो किलकारियों ने हर मोड़ पर थाम रखा है वैसे भी खारेपन में आनंद क्या है
अंतर्मन की आवाज अंतर्मन की आवाज बहुमत के बाज़ार और शब्दों के व्यापार में कभी-कभार ही निकलती है।
वो हल्की सी फुसफुसाहट जानी पहचानी बोली रोज़मर्रा के शब्दों से गुथी बमुश्किल कान तक पहुँचती है।
अंदर से बाहर तक मचे होड़, हो हल्लों और भाषाओं के शोर में डूब तड़पकर दम तोड़ती है।
मुक्त न हो पाने की दशा में रोज नए मन टटोलकर फिर से जन्म लेकर धीरे से आवाज देती है।
जो सुनता है उसमें जिंदा रहती है।
माओवादी किसान ऐसा नही है वो इससे पहले भीड़ में नहीं चले हर रोज गाँव में लोग मरते ही हैं कभी भूख से, कभी प्यास से वो इतने गंवार हैं कि उनको लिखते नहीं आता क्रढ्ढक्क और न ही समझ आता है वो तो हर मैयत में पहुँच जाते हैं शायद रास्ता रटते हैं भीड़ कांधे पर उठाकर चलती है उसके साथ उसके पड़ाव तक
फर्क बस इतना है कि आज वो भीड़ में खुद की लाश उठाए जा रहे हैं पड़ाव तक
ऐसा नहीं है इससे पहले उनके पैरों में छाले नहीं पड़े उनके पास कहाँ हल है कहाँ बैल छाले पड़े उन खुरदुरे तालुओं से ही जोतते हैं वो खेतों को और बो देते हैं अपनी फसल
फर्क बस इतना है कि आज वो सरकारी डामल की गरमी से पड़े हैं ऐसा नहीं है इससे पहले उनके पैरों से खून नहीं रिसा सींचने के लिए पानी कहाँ देती है सरकार अपने खून से ही सींचकर जिंदा रखते हैं खेतों को अपनी भूख मिटाते हैं और औरों की हवस
फर्क बस इतना है कि आज उनके खून से उनकी सफेद टोपी लाल हो गई है उन्हे माओवादी कहा गया
सही ही कहा होगा इनके पास सरकारी तंत्र है पास जानकारी के सारे स्रोत हैं और ये बुद्धिजीवी भी हैं
और वो सच्चे भी हैं, अच्छे भी हैं हाँ वो माओवादी ही होंगे
जंगल बिरली बसी इंसानियत की छोटी छोटी बस्तियां घने घने जंगलों में पेड़ों की ही हस्तियाँ
ये पेड़ बहुतायत में छोटे घासफूस से, झाड़ी झंकार से आपस में ही खो गए थोड़े से बढ़ते बढ़ते बिचौलिए और कुछ विशालकाय वृक्ष हो गए। ये जो पौधे छोटे छोटे से रह गए बिन अंह के सबके लिए सध गए हलकी सी बयार से अनायास ही उनके दाने झर गए खुद ने थोड़ा सा लिया बाकियों के लिए बोरियों से बेरियां भर गए इन्द्रधनुष को फूलों से रंग गए जंगल की हैवानियत को खुशबू से ढक गए खुद मर कर भी कायनात को किलकारियों से भर गए।
कुछ जो थोड़े और बड़े हो गए अनायास ही सीना तान के खड़े हो गए मीठे मीठे फलों से जरूर लद गए पर जिसमें चढऩे की कूवत और उडऩे का माद्दा केवल उनके लिए ही सज गए
एकाध कुछ ज्यादा ही बड़े हो गए जड़ें पाताल तक गहरा गई शाखाएँ इतनी फैली कि आधा जंगल खा गईं शाखाओं ने भी जमा ली जड़ें हो गए बड़, बड़े और बड़े न फल दिए, न फूल दिए, न बिखेरी सुगंध बस कुछ बड़े पंछियों ने घरौंदे बना लिए कुछ बंदरों ने कब्जे जमा लिए
कुछ पेड़ों ने आपस में दूरी बना ली कुछ ने कुछ ज्यादा ही नजदीकियां पाली इस चक्कर में कुछ इतने घने हो गए जल और जमीन की जद्दोजहद में अपनी नमीं खो गए सूखकर ठूंठ हो गए हलकी हवा क्या चली आपस में ही रगड़ खा गए खुद तो जले आसपास ही दहका गए आग बुझाने आकाओं से उठे बादल बारुद बरसा गए जीवन से भरपूर घने घने जंगल खाक हो गए राख हो गए।
समय बीता जंगल फिर बड़े हो गए पहले से ज्यादा और घने हो गए वट-वृक्ष सी खड़ी हो गई हस्तियाँ उनके बीच बिरली सी बसी पेड़ों की छोटी छोटी बस्तियां।
1975 में जन्मे शैलेन्द्र राजपूत एक सम्मानित चिकित्सक हैं। जबलपुर भोपाल में अपनी पढ़ाई पूरी की और एक निजी अस्पताल में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। आज की बड़बोली दुनिया में उनके अंदर एक अनमोल चुप्पी है। वे शौकिया कवि है। ये कविताएं कहीं भी पहली बार छप रही हैं। पहल छापे के संसार में उनके आगमन का स्वागत कर करती है। उम्मीद है डॉक्टर-कवि अपने भीतर के आर्गेनिक तत्वों को बचाए रखेंगे। मो.- 9827641773, जबलपुर
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