मुखपृष्ठ पिछले अंक प्रतिक्रिया पत्र
अगस्त : 2019

प्रतिक्रिया पत्र

अशोक शाह

प्रतिक्रिया पत्र

 

गोदान पर प्रकाशित विनोद शाही

के लेख पर एक प्रतिक्रिया

19 जून, 2019

  भोपाल

 

पहल 117, जून 2019 के अंक में मूल्यांकन श्रेणी में प्रकाशित ''जमीन की मरजाद वाली भारतीयता (गोदान)’’ शीर्षक लेख को पढ़कर कुछ लिखना इसलिए आवश्यक है कि लेखक ने ''गोदान’’ नामक तात्कालीन सामाजिक सत्य के दस्तावेज की समग्रता का महज भौमिक आवरण तानते हुए एक पक्षीय मूल्यांकन किया है और एक अमूर्त कल्पना को सत्य में प्रतिपादित करने का प्रयास किया जो मानवीय कल्याण और वैज्ञानिक विकास के हित में नहीं है।

''गोदान’’ की आलोचना में अब तक प्रकाशित दृष्टिकोणों को लेखक ने एकांकी मानते हुए उनके महत्व को हल्का एवं सरल निरूपित करने का प्रयास किया है। मसलन ''गोदान’’ औपनिवेशिक दौर के समाज के यथार्थ का चित्रण करने वाला, होरी, धनिया, झुनिया, गोबर, मालती, मेहता जैसा अपरिवर्तनशील सामाजिक पात्रों की भूमिका दर्शाने वाला, गाँधीवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला, महाजनी अर्थतंत्र का यथार्थवादी चित्रण करने वाला, इस प्रायद्वीप के किसानों की कारूणिक कथा कहने वाला, किसान और निम्न वर्गों का शेष समाज के द्वारा किये जाने वाले शोषण को उजागर करने वाला समस्या प्रधान उपन्यास है । इन सभी तथ्यों को पीछे छोड़ते हुए इस लेख में एक अलग ही दृष्टिकोण प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया है जो अमूर्त और काल्पनिक है और स्वयंरचित पराजित जीवन में आत्मसंतोष ढूँढऩे की मोहासक्त ''महान’’ परम्परा को महिमा मण्डित करने के प्रयास पर आधारित है ।

उपर्युक्त वर्णित अलग-अलग समीक्षावादी दृष्टिकोणों की एकतरफा उपेक्षा करना उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि ये सभी दृष्टिकोण तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के सत्य का एक-एक सिरा थामे हुए हैं । माना कि अन्धों को पूरे हाथी का आभास नहीं होता लेकिन हाथी में कुछ तो है जो खम्भे, सूप, रस्सी और विशाल बर्तन जैसा है। अलग-अलग ये सत्य नहीं हो सकते और सत्य को विभाजित किया भी नहीं जा सकता लेकिन एक हाथी को सम्पूर्ण सत्य के रूप में गणेश मानना भी वैज्ञानिक यथार्थ नहीं है। लेखक ने अपने अंतिम प्रतिष्ठापन पर पहुँचने के पूर्व यह स्वीकार किया है कि औपनिवेशिक काल में इस प्रायद्वीप पर रहने वाले मनुष्य का शोषण विदेशियों से कहीं अधिक ब्राह्मणों, महाजनों और जमीदारों ने किया है जिसका आधार भेद, भय और दण्ड रहा है और इसी आर्थिक, व्यापारिक और अवसरवादी पूँजी के आधार पर यहॉं के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक पॅूंजी निर्माण की संरचना की ओर इंगित भी किया गया है। यहाँ तक बात ठीक लगती है। इन तीनों प्रकार की शोषण की मूल परम्परा को आत्मसात करने वाला परजीवी अर्थतंत्र है, इसलिए इनसे निर्मित होने वाली औद्योगिक पूंजी भी परजीवी ही है। आधुनिक परिवेश में धन, साध्य, साधन और साधक अपने आप में सब कुछ है। हमारे भौतिक विकास का अर्थशास्त्र यही तक सीमित है और यह एक अत्यन्त ही आदिम एवं स्वभाविक सोच है। आधुनिक विश्व का अर्थतंत्र का दर्शन इसी के इर्द-गिर्द घूम रहा है। मनुष्य ने तलवार का आविष्कार सबसे पहले आदमी की गर्दन काटने के लिए ही किया। इस औजार की उपयोगिता भी इसी बात से आंकी जाती है कि कितनी गर्दनें इस तलवार से काटी गयीं। मनुष्य की इस सभ्यता में इस बात पर ध्यान गया ही नहीं कि कितने जीवन इस तलवार से बचाये गये। पूंजी और उसका विकास तो अजीम प्रेमजी की अवधारणा  पर भी किया जा सकता है। पूंजी का उपयोग तो मानवीय, सरल एवं प्राकृतिक जीवन जीने के लिए भी किया जा सकता है जिसमें सफलता और लाभ जैसे घिनौने, अप्राकृतिक और अमानवीय शब्द न हों। कोई लाभ कमाता है, सफल होता है तो वह क्या करता है- वह विलासिता के रूप: दैहिक, दैविक भौतिक, वैचारिक एवं मानसिक रुग्णता ही धारण करता है और जीवन के स्वभाविक संतुलन को नष्ट करता है। उसके पास ऐसा करने के लिए शक्ति धरती पर ग़लत तरीके से मनुष्य के विकसित होने की परम्परा के रूप में मिली है, जिस पर प्रश्न उठाये ही नहीं जाते। लाभ और सफलता की व्याख्या करने से यह पत्र अधिक लम्बा हो जाएगा, इसलिए इसे यहीं छोड़ देते हैं।

यह सही है कि सामाजिक विकास में दलालों का उदय हानिकारक है जिसका जिक्र लेखक ने किया है। परन्तु दलाल आज के ही सामाजिक, आर्थिक तंत्र की बनावट की देन नहीं है अपितु इनका आविर्भाव अप्रत्यक्ष रूप से औपनिविशक काल में ही हो चुका था। फ़ र्क यह है कि  उस समय धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक कुतंत्र का संचालन करने वाले खुद ही दलाल भी थे जो स्वप्न-ईश्वर-सुखी जीवन-मुक्ति और यथार्थ के मध्य खुद ही दलाली भी करते थे। फिर भी  तब एक लिहाज से बचा हुआ था लेकिन अब दलाली एक सफेदपोश एवं सम्मानित पेशा बन चुकी है। दलाल एक जरूरी किन्तु खराब स्तम्भ के रूप में सामाजिक और मनौवैज्ञानिक विकास में हस्तक्षेप के रूप में स्थापित हो चुके हैं। ठीक वैसे ही जैसे भौतिक विकास के क्रम में प्लास्टिक के उत्पाद शामिल हो चुके हैं। पर दोनों ही चमकदार एवं स्मार्ट कचरा ही है-एक हमारी अमूर्त मनोवैज्ञानिक विचारधारा को दूषित कर चुका है तो दूसरा धरती के पर्यावरण और जीवन को बेरहमी से नष्ट कर रहा है।

लेकिन आपको यह पत्र लिखने का मुख्य प्रयोजन ''गोदान’’  के इस मूल्यांकन के  आधार पर ''जातीय सभ्यतामूलक परिदृश्य’’ की स्थापना की वैज्ञानिकता पर सवाल खड़े करना है। जातीय सभ्यतामूलक परिदृश्य क्या है? इसकी क्या उदात्तता एवं  नैसर्गिकता है?  लेखक  लिखता है- ''होरी  और  धनिया  इस  आंतरिक सभ्यतामूलक एवं जातीय व्यक्तित्व होने के कारण बेहद सप्राण और जीवंत मालूम पड़ते हैं।’’ लेखक का यह फ़िकरा अत्यन्त हानिकारक और सम्भावना को नष्ट करने वाला प्रतीत होता है। क्या है जाति, और क्या है सभ्यता? स्वतंत्र मानवीय विकास में जातिवाद की स्थापना को महिमामण्डित करना तो दूर उसकी उपस्थिति को स्वीकार नहीं किया जा सकता जो मनुष्य होने की अनन्त सम्भावना पर कुठाराघात करती है। जिस जातीय धारणा के पीछे मनोवैज्ञानिक असमानता, अन्यायपूर्ण शोषण की भावना, मानवीय मूल्यों की अवमानना, संवेदनाओं पर कुठाराघात और मनुष्य के मात्र जन्म लेने की परिस्थिति के आधार पर श्रेष्ठता एवं हीनता जैसे स्वयंसिद्ध विकार हो, उसे सभ्य कैसे कहा जा सकता है और ऐसी धारणा सभ्यतामूलक कैसे हो सकती है? कौन सी है यह सभ्यता? इसमें क्या वैज्ञानिकता है? सामाजिक निष्कासन एवं आर्थिक अलगाव के दंश से उपजी कुण्ठा को जीवंत एवं प्राणवान किस प्रकार कहा जा सकता है। इस समाज द्वारा पोषित एवं परिभाषित तथाकथित निम्न जाति के किसी व्यक्ति से उसकी जाति पूछ के तो देखिये। कितनी दारूण, कितनी हृदय विदारक पीड़ा उसके जी मेें उत्पन्न होती है। इस पीड़ा से उपजा दु:ख एवं  विषाद भारतीय मानवीय मस्तिष्क के तंतुओं में अमिट बदलाव कर देता है। तभी तो इस प्रताडऩा को झेलने में असमर्थ कबीर जैसे महान सन्तों को भी कहना पड़ा कि ''जाति न पूछो साधु की’’

गाय की हत्या पाप है, इस पर लेखक प्रश्न चिह्न खड़ा नहीं करता। गो-हत्या के दण्ड स्वरूप होरी के जीवन के उम्मीद की आिखरी फ़ सल काट कर ब्राहम्ण भोज के नाम पर डकार ली जाती है किन्तु यह पाप की श्रेणी में नहीं आता। क्या होरी की हत्या पाप नहीं है? इसके उलट होरी के जीवन की आखिरी पूंजी के चले जाने में लेखक को अंतर्विकास दिखाई देता है, लेखक आगे लिखता है- ''वह जो भीतर की ज़मीन है वह उसकी जातीय और सभ्यतामूलक जमीन है, जहाँ एक मनुष्य के रूप में अपनी श्रेष्ठता और अपने मानवीय सारतत्व को हर समय जीवंत बनाये रखता है। अपने साथ अन्याय करने वालों से वह इसी जातीय सभ्यतामूलक जमीन के सरोकारेां की वजह से, गोबर, की तरह, सीधा संघर्ष भी नहीं करता’’। यह विचार ही कितना दकियानूसी, आदिम और घिनौना है कि इस पर टिप्पणी करना भी लाज़िमी नहीं। लेख इस पलायनवादी और मजबूरी को ही श्रेष्ठ घोषित नहीं करता अपितु जाति के नाम पर शोषण और घृणित कृत्य करने वाले परजीवी महाजनों, जमींदारों और ब्राह्मणों को अपरोक्ष रूप से श्रेष्ठ और सर्वमान्य घोषित करता है जो कदापि भी श्लाघ्य नहीं है। यह तथ्य यह भी दर्शाता है कि मनुष्य का इस धरती पर लाख गुना भौतिक विकास हो गया हो किन्तु उसका मनौवैज्ञानिक विकास आज भी शून्य है, आदिम है। सफेद कपड़े पहनकर आदमी पहले से कहीं अधिक शातिर, हिसंक, बर्बर, और भयानक हो चला है, जिसे किसी भी दशा में महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए।

और अन्त में निष्कर्ष के रूप में लेखक यह घोषणा करता है कि - ''जीवन नष्ट हो सकता है, परन्तु जातीय और सभ्यतामूलक चेतना के मानवीय सारतत्व को कोई नष्ट नहीं कर सकता। यह  'गोदान’ का कयासार भी है और उसकी श्रेष्ठता को समझने की एक दृष्टि भी है, जो उसे कालजयी उपन्यास में बदल देती है’’। लेखक का यह दृष्टिकोण कहीं से भी मानवीय और वैज्ञाानिक नहीं है। जीवन नष्ट हो तो , लोग मरे या जियें कोई फ़र्क नहीं पडऩा चाहिए। जाति और धर्म को बचा लेना चाहिए। तब ये किस काम के, किसके काम के रहेंगे? इसमें सार भी  क्या है और श्रेष्ठ भी क्या है। जब मानवीय गरिमा, जीने की गरिमा का, स्वतंत्र सोचने-विचारने की गरिमा का हनन हो जाये उसमें कौन-सी चेतना और कौन-सी सभ्यता निहित है। ऐसी उपद्रवकारी विखण्डित दरिद्रता भरी समपर्णकारी चेतना की रक्षा के  लिए प्रेमचन्द ने तो ''गोदान’’ नहीं लिखा होगा जो  रूढिय़ों, कुरूतियों, गरिमाहीन मान्यताओं, कुण्ठाओं और विवशताओं को सहेजती हो, उनकी रक्षा करने की वकालत करती हो। ऐसा करने वाली कोई भी रचना कालजयी नहीं हो सकती। इसमें विपरीत कालजयी रचना वह हो सकती है जो प्रकृति और मनुष्य के विरूद्ध रचे जाने वाले षडय़ंत्रों को उजागर करती हो और सिर्फ अनुशासित जीवन के अबाध प्रवाह का समर्थन करती हो। किसी श्रद्धा और अंधचेतना का नहीं जो मात्र विश्वास पर आधारित हो। श्रद्धा वही की जाती है जब किसी वस्तु के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं हो, या वह सत्य नहीं हो। हम सूर्य पर विश्वास नहीं करते, हम उसे रोज देखते हैं और यह वैज्ञानिक भी है। असत्य पर विश्वास करने मेें कोई मर्यादा नहीं कोई मरजाद नहीं। अन्धविश्वास और तुच्छ स्वार्थ पर आधारित किसी भी प्रकार का विभाजन मर्यादित नहीं हो सकता। तुलनात्मक विषमता एक मनोवैज्ञानिक विकार है जो समाज में उच्च-नीच की वैभिन्नता को जन्म देता है, जो मनुष्य को सत्य और वास्तविकता को समझने से वंचित करता है।

सामाजिक और आर्थिक विद्रूपताओं को रेखांकित करने और उनके प्रति संघर्ष की भावना को उत्प्रेरित करने के लिए 'गोदान’ एक कालजयी रचना हो सकती है जिसके माध्यम से प्रेमचन्द ने एक निरपेक्ष द्रष्टा के रूप में तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक यथार्थ यथावत परोसने का कार्य अत्यन्त दिलेरी के साथ किया है । आईना देखने पर ही पता चलता है कि हम कितने कुरूप या सुन्दर है। मनुष्य की सुन्दरता मानी हुई बात नहीं होनी चाहिए उसे निरन्तर परखने की आवश्यकता बनी रहनी चाहिए। यही सर्वोच्च साहित्य का कार्य है। सूरत देखने के बाद सुधार का कार्य करना हमारी जिम्मेदारी है। यदि वह ग़लत है तो है, उसे सही साबित करने की कोशिश मनुष्य के पतन को दर्शाता है। प्रेमचन्द एक महान साहित्यकार इसलिए हैं कि उनमें सत्य को कहने का अकूत साहस भरा था। उन्होंने जितना भी सत्य कहा, पहली बार, अपने ढंग से कहा। इसी वजह से ''गोदान’’ कालजयी रचना हो सकती है जिसमें अपने कुत्सित समय पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने की क्षमता है। शोषण, लाचारी, बेबसी, मानसिक गुलामी को किसी धर्म, परम्परा या ईश्वर के परिप्रेक्ष्य में सभ्यतामूलक अन्र्तविकास नहीं कहा जा सकता जिसके भीतर घोर अन्याय को नियति मान ली गयी हो ।

 

आपका

अशोक शाह

 


Login