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अगस्त : 2019

कुछ पंक्तियाँ

ज्ञानरंजन

 

पहल के पिछले अंक में कुमार अंबुज की कुछ कविताएं छपने से छूट गई थीं जिसे हम एक बेढ़ब गफलत मानते हैं किसी न किसी पक्ष की। उन छूटी कविताओं को हम सादर प्रकाशित कर रहे हैं। इस तरह अब अंबुज की कुल तेरह कविताएं पूरी हुई हैं।

वायदे के मुताबिक बैंगलुर के कवियों की कविताओं के साथ विचारक लवली गोस्वामी का लेख इस अंक में जा रहा है। इस संदर्भ में राजेश जोशी कीक़िताब 'कविता का शहर’ पाठकों को पढऩा चाहिए।

'कविता रहस्य’, कवि कृष्ण कल्पित की एक नायाब कृति है जो 'बोधि’ ने छापी है। इसका नया संस्करण आगे संभावित है। उसमें आलोचक शंभु गुप्त की एक भूमिका प्रस्तावित है। इस लंबी अप्रकाशित भूमिका का एक हिस्सा 'पहल’ के वर्तमान अंक में जा रहा है।

'कविता रहस्य’ पर शंभु गुप्त की भूमिका के अंश के अलावा पाठकों, एक भुलाये, हाशिये पर डाले गये बड़े कवि राजकमल चौधरी के 'मुक्ति प्रसंग’ पर कृष्ण कल्पित का लेख भी यहां प्रकाशित किया गया है जो बड़ी तीखी आलोचनात्मक टिप्पणियां करता है।

हमारे देश में बढ़ती कट्टरता-असहिष्णुता का एक पहलू यह है कि लगातार दक्षिणपंथी संगठनों और व्यक्तियों ने सृजनधर्मियों की हत्या का एक घातक सिलसिला बनाया हुआ है। इन अपराधों को सत्ता का संरक्षण भी है। इधर गांधी के हत्यारों को महिमामंडित करने की खुली कोशिशें देखी जा सकती हैं। 'गांधी स्मृति’ में गांधी हत्याकांड के सिलसिलेवार इतिहास की प्रामाणिक जानकारी मिलती है। गांधी स्मृति (सुभाग गाताड़े) एक ऐसा अनुसंधान है जिसे विस्मृत किया जा रहा है। उन्होंने हत्यारेपन के इतिहास में जाकर अनेक मिथकों को तोड़ा है। इसी के साथ मराठी-हिन्दी कवि चंद्रकांत पाटील की कविताएं जोड़कर पढ़ी जा सकती हैं। निशिकांत ठकार शुरुआती दौर से 'पहल’ के लिए मूल्यवान काम करते रहे हैं।

लंदन से प्रकाशित सुप्रसिद्ध साप्ताहिक 'द इकोनामिस्ट’ को अब 175 वर्ष पूरे हो गये। इस साप्ताहिक की एक लंबी गौरवशाली परंपरा उदारवाद पर बहस को लेकर है। अर्थशास्क्ष, मुद्राबाजार, राजनैतिक परिवर्तनों को लेकर यहां अनेक बहसें हुई हैं, जिसमें महान विचारकों, साधारण लोगों ने भी भाग लिया है। आजमगढ़ उत्तर प्रदेश के एक अध्येता डा. बी.बी. उपाध्याय ने इस पर एक लेख हमारे लिए तैयार किया है। इसे एक छोटी सी पत्रिका के कृतज्ञतापूर्ण मंतव्यों के साथ पहल विशेष में छापा गया है।

जितेन्द्र भाटिया विगत बीस वर्षों से 'पहल’ के लिए लिख रहे हैं। उन्होंने कई स्तंभ पूरे किए। पहल की दूसरी पारी जितेन्द्र भाटिया और अशोक भौमिक की ज़िदों, मोहब्बतों के कारण ही शुरू हो सकी। कारवां बढ़ता गया। इस समय जितेन्द्र पेरू, ब्राज़ील, कोलंबिया, वेनजुएला, क्यूबा आदि देशों की यात्रा के लिए निकल चुके हैं। अपने आगामी वृत्तातों में इस अद्भुत संसार की खोज करेंगे जहां एक से एक विभूतियों ने जन्म लिया और अपने को कुर्बान किया। रजनीकांत विख्यात फोटोग्राफर हैं, नर्मदा के नए यात्री और चितेरे हैं। नर्मदा को लेकर उनका नजरिया मौलिक है श्रद्धामूलक नहीं। यहां वे एक फोटोग्राफर की डायरी लेकर उपस्थित हैं।

उर्दू रजिस्टर के अधीन, बड़ी शख्शियत कन्हैयालाल कपूर पर लिखते हुए राजकुमार केसवानी अपनी लंबी सिरीज का अंत कर रहे हैं। अब हम कोई नया सिलसिला बनाएंगे।

पहल ने समय समय पर मूल्यांकन के रूप में, पुस्तिकाओं के रूप में विशेष अंक के रूप में नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, मुक्तिबोध, बलराज साहनी, बिस्मिल्लाह खान आदि अनेक वरिष्ठ रचनाकारों, कलाकारों पर अपना दायित्व पूरा किया। इस बीच हम कवि-कथाकार सर्वश्री रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा पर एक छोटी माला शुरु कर रहे हैं। इसे हमारे युवा आलोचक अच्युतानंद पूरा करेंगे।

और अंत में

जैसी विभूति गिरीश कर्नाड थे एक अलग दिशा में बड़ी प्रतिभा लक्ष्मीधर मालवीय थे। इन दोनों का निधन आसपास हुआ। लक्ष्मीधर संयोग से हमारे सहपाठी-मित्र भी थे। जब मेरी दादी गई तो भोजपुरी से हम बिछुड़ गये, जब मां गई तो बुंदेली से नाता टूटा और अब लक्ष्मीधर के निधन से संवाद में उस आदमी का लोप हुआ जिससे सारी बोलचाल, टेलीफोन, चिट्ठी अवधी में ही थी। अपनी एक कृति 'शब्दों के रास’ में लक्ष्मीधर ने लिखा है - ''स्वप्न में भी अवधी छोड़ खड़ी बोली तक मेरे मुँह से नहीं निकलती, शायद यही होता होगा देश, जो मेरी हर सांस में घुल गया है।’’ इसी लक्ष्मीधर ने खड़ी बोली में बड़े-बड़े काम किये। हम जा रहे हैं, पर नया इंडिया बन रहा है। मधु मालवीय अपने पिता की अंतिम दोस्त हैं। उनकी एक संक्षिप्त टिप्पणी यहां दे रहे हैं। मैंने उससे कहा है कि वह लक्ष्मीधर की जीवनी लिखे। उनके पास असंख्य लिखित-अलिखित संवाद और दस्तावेज हैं। उसके पास पिता के अनमोल जीवन रहस्य है।

और अंतिम बात प्रिय पाठक। 'पहल’ की डिज़ाइन और उसका स्टैंड कुछ लोगों को खुश करता है, कुछ को खिन्न। अनेक लेखक कई बार आत्मरक्षा और प्रतिपक्ष में केन्द्रीभूत हो जाते हैं। यह सब इसी तरह चलता रहेगा।

 


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