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जून 2019

कुछ पंक्तियां

ज्ञानरंजन

 

बैंगलुर, पुणे, हैदराबाद और चडीगढ़, ये अहिन्दी नगर संस्कृतियों के इलाके हैं और हिन्दी की नवोदित प्रतिभाओं के नये शहर भी हो रहे हैं। हिन्दी कविता या दूसरी विधाओं में नगर संस्कृति और नगरी जिज्ञासाओं का स्पर्श बहुत कमजोर है। हिन्दी के पुराने केन्द्र बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ तबाह है, और डूब रहे हैं। देखते-देखते चमका और बढ़ा भोपाल अब घट रहा है और गिर भी रहा है। विकास के अच्छे बुरे बदलावों के साथ इन मध्यवर्गीय शहरों का जोश काफी कम हुआ है। हमारे इलाहाबाद (प्रयागराज) में तो सन्नाटा छा गया है, भीड़, शोर के बढऩे के बावजूद। बहुतेरे घाटों, पुलों, सैकड़ों रेलगाडिय़ों और कई रेल स्टेशनों के होते हुए भी गंगा-यमुना की तरावट रेत में बदल रही है। जनसंख्या, अगड़म बगड़म भौगोलिक विस्तार, जन यातायात का अभाव, प्रवासी बौद्धिक-सांस्कृतिक आकर्षण की अनुपस्थिति और प्रबल हिंसा एवं रक्तपात के कारण यह शहर अब हैरत अंगेज कुटिल अधर्म सम्पदा बनने की कगार पर है। शहरों के खात्मे के एक नहीं हजार वजहें होती है। शहर केवल भूकम्पों से नहीं दूसरी वजहों से भी नष्ट होते हैं।

जो थोड़े से बचे लोग है, इक्का दुक्का, दूर दराज, थके बूढ़े उनमें भी दोस्तियों, मुहब्बतों की जगह रंजिशें बढ़ी हैं। इन रंजिशों के कोई ठोस कारण भी नहीं है। इन शहरों में रंग कर्म, काव्यपाठ, वैचारिक बहसों, हस्तक्षेपों की जगह प्रदर्शनकारी कलाएं, लोकार्पण, अभिनंदन-पुरस्कार, अध्यक्षताएं और निंदक समाज की सक्रियताएं ही प्रमुख हैं। जबलपुर में भी यही प्रतिस्पर्धा है। नए कोष स्थानीय तौर पर उपलब्ध है, राजकीय कोष भी हैं। एक अदृश्य कुश्ती वाले संगठन हैं, छोटी मोटी दुनियावी सफलताओं, आत्ममुग्धताओं के आगे बेचैनियां, ताप, संवाद कम है। लेखकीय और रंग समाज प्राय: खुश है और कवि कर्म की नयी खतरनाक चुनौतियों की ओर मंदी आ गई है।

पहल के इस अंक की शुरुआत हमने एक नये कवि विचारक, नौकरीपेशा युवक के लेख से की है जो बैंगलुर में प्रवासी है। दुनियाभर में प्रवासियों ने नगर सभ्यताओं का निर्माण किया है। हिन्दी में यह लेख नई सोच और एक नये प्रकार की स्टडी है। यह हमारा नया सीमांत है। एक रेलवे स्टेशन और एक ही नगर पालिका के बाद भी बैंगलुर एक बड़ा और अपनी ही केंचुल से निकलता हुआ एक नित नूतन होता शहर है। शहर के पुल और रोशनियां ही अलग होती हैं। जहां चाल तेज़  होती है, उसमें यंत्र और तकनीक बढ़ रही होती है। गति की अपनी खुशी और गम होते हैं। उसकी स्काई लाइन डराती भी है, लुभाती भी है। बैंगलुर वर्तमान में देश के सबसे बड़े अंग्रेजी दां शहरों और कई भाषाओं संस्कृति की एक आकर्षक मिलन स्थली है। पिछले दो दशकों में उत्तर भारत से हिन्दी भाषी युवक (जो टूटी फूटी अंग्रेजी के मालिक है) नौकरियों, पठन पाठन के लिए बैंगलुर पहुंचे है और स्थानीय तथा प्रवासी आबादी के बीच घुलमिल रहे हैं, या अपनी छूटी बिछुड़ी जगहों के लिए मोह और विलाप के दौर में है। जो भी हो एक ता ज़ा शहरी रोशनी (सिटी लाइट) वहां सूक्ष्म नजरिये वाले लोग देख रहे हैं। पहल में छपा लेख सौरभ राय का है जिनकी कविताएं पहल में छप चुकी हैं पर अब वे नई प्रस्तुति के साथ उपस्थित हैं।

उन्होंने हिन्दी के उन नवोदित कवियों का जिक्र किया है जिनका बैंगलुर में स्पेस बन रहा है। ये कवि शुरुआती हलचल में हैं, कितनी दूर जाएंगे नहीं बता सकते पर इनके बीज स्वस्थ हैं। कन्नड़ा, अंग्रेजी के साथ उनकी प्रारंभिक मैत्री बन रही है। यही उत्सुकता, कौतुहल, जिज्ञासा और संवाद उन्हें आगे ले जा सकते हैं। शुरु से पहल का नज़रिया नयी खोज, आधुनिक दृष्टि और प्रतिरोध के साथ रहा है। पाठकों, अगले अंक में हम इस शहर के उभरते कवियों और उल्लखित नई प्रतिभाओं की रचनाएं उनके फोटो कोलाज के साथ देने जा रहे हैं। अलावा इसके बड़ी विचारक और कवि लवली गोस्वामी का लेख सौरभ राय के लेख को आगे बढ़ाने का काम करेगा। पहल की कोशिश है कि आगे हम पुणे, चंडीगढ़, मुम्बई से भी ऐसा सम्पर्क करे। मराठी में तो पहल ने तीन दशक में विलक्षण साहित्य अनुवाद करवाया है। संजय भिसे, चंद्रकांत पाटील, सुनीता डागा आदि लेखकों ने हमें सहयोग दिया है। इसी क्रम में शशिकला राय हमें मराठी सिनेमा की परिवर्तनकारी उपलब्धियों से परिचित करा रही हैं। उन्होंने 'सैराट’पर पर लिख उसके निर्माता की कविताएं अनूदित कीं और इस बार प्रवीण मोरछल्ले के उस सिनेमा से हमें परिचय कराया जो देशांतरों तक जा रहा है। विडो ऑफ सायलेंस पर पाठक इसी अंक में पढ़ सकते हैं। इस प्रकार पहल की दुनिया का विस्तार भी हो रहा है।

पाठकों, इस अंक में यात्रा और डायरी के कुछ उज्वल अंश भी है। यहां पर्यटन नहीं है, मौज नहीं है, टूरिस्ट की नजर नहीं है। यहां अंधेरों की खोज है। टूरिस्ट के बारे में बेगाना होने की जैसी कड़वी टिप्पणी कभी निर्मल वर्मा ने की थी, वह धूम भी यहां यात्राओं में नदारत है। आप देखें कि भूटान, पेरिस, कोसी और बैसवाड़ा पहल में उपस्थित है। पेरिस के वृतांत के बाद उन महान कवियों की कविताएं भी दी गई हैं जो पेरिस को लेकर लिखी गई हैं।

बहुत समय नहीं हुआ जब हमने बड़े आलोचक रविभूषण का विस्तृत लेख मलयज पर छापा था। उसे क्रमवार जारी रहना था, अंतराल हुआ लेकिन अब उन्होंने आलोचना में निर्णायक हस्तक्षेप करने वाले कम उम्र में दिवंगत हुए देशीशंकर अवस्थी पर लिखा है। देवीशंकर अवस्थी ने यूं तो कहानी पर कम ही लिखा लेकिन नामवर सिंह से उनकी भिन्नता साफ देखी जा सकती है। साहित्य की शुद्धता के संदर्भ में वे कलावादियों और प्रगतिशीलों से अलग राह बनाते हैं। आगे रविभूषण विजय मोहन सिंह पर लिखेंगे। हाल ही में विजय मोहन सिंह पर प्रामाणिक सामग्री 'रचना समय’के एक अंक में आई है।

काफी प्रतीक्षा के बाद इस बार हम कुमार अंबुज और लाल्टू की कविताएं दे रहे हैं। इसमें पाठकों को कविद्वय की काव्यशैली में एक बड़ा परिवर्तन मिल सकता है। राजेन्द्र घोड़पकर अपनी कार्टून की दुनिया में पूरी अद्वितीयता के साथ सक्रिय हैं। स्वराज में उनके कार्टून नियमित छपे है। इस बार पहल में उन्होंने स्वतंत्रता के साथ नयी दिशा भी पकड़ी है।

हमारे अत्यंत लोकप्रिय कवि नरेश सक्सेना का व्याख्यान और गोदान के अस्सी बरसों पर विनोद शाही का लेख विभिन्न आकर्षण है। विमर्श के अंतर्गत अरुन्धति राय, अब्दुल बिस्मिल्लाह, श्याम मनोहर (मराठी), कुंवर नारायण और विष्णु खरे तथा रविभूषण के रचनाकर्म पर विशेष अध्ययन पाठकों को उपयोगी लगेगा।

कहानियां सभी नये कहानीकारों की हैं और एक तो पहली बार के कहानीकार हैं। स्थानाभाव के कारण उर्दू रजिस्टर के अंतर्गत कन्हैयालाल कपूर को पाठक अगली बार पढ़ सकेंगे।

 

 


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