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अप्रैल - 2019

30 बटा एक ( शरद जोशी)

प्रकाश दुबे

संस्मरण

 

शरद जोशी का पता ठिकाना 30 बटा एक साउथ टीटी नगर, भोपाल छपता रहा। यह पता न होता तो पता नहीं कब शरद जोशी से मुलाकात होती? चचा के साथ मैं दक्षिण तात्या टोपे नगर में रहता था। काका पुलिस अधिकारी थे। सर्वज्ञात पुलिस-परम्परा के विपरीत उनमें दो दुर्गुण आजीवन रहे। पहला तो मदिरापान से दूरी बनाए रखना। करेला और नीम चढ़ा यह कि मद्यपों के प्रति अकारण शत्रुता का भाव। उनका दूसरी दुर्गुण पढऩे-पढ़ाने का शौक था। ढब्बू जी, रवीन्द्र आदि के कॉर्टून से लेकर शिवानी की कथाएं, परसाई, जोशी, रवीन्द्र त्यागी आदि के व्यंग्य पढ़ते। शिवानी, प्रेमचंद तो सब जानते हैं। डॉ. संपूर्णानंद, पं. सुदर्शन आदि की रचनाएं पढ़ते। परिवार के सदस्यों को पढ़कर सुनाते। भला हो, उनके अधिकारियों का, जिन्होंने दस से पांच वाली ड्यूटी दे रखी थी। उन्होंने शरद जोशी की कोई रचना सबको पढ़कर सुनाई। लगे हाथों बताया कि जोशी जी पास ही रहते हैं। उत्सुकतावश एक दिन मैं क्वार्टर नंबर 30 बटा एक के सामने जाकर खड़ा हो गया। 30 बटा एक नंबर का मतलब था, 30 नंबर की कतार में पहला क्वार्टर। परिचित लोग जानते हैं कि न्यू मार्केट से मौलाना आजाद प्रौद्योगिकी तब महाविद्यालय की दिशा में टीन शेड पार करने पर दक्षिण तात्या टोपे नगर के सरकारी आवास शुरु होते थे। टीन शेड उस समय के सबसे व्यस्त बस स्टेंड का नाम था। अच्छे-अच्छे नामकरण आकर चले गए, टीन शेड भी पक्का हो गया। अभी भी टीन शेड नाम से पहचाना जाता है। स्टेडियम की दिशा से पहले 40 वाले आवास थे। आखिर में 30 की कतार का भी बिल्कुल  छोर वाला आवास नंबर एक था। उसके बाद खुला मैदान। चप्पल चटखाता हुआ पहुंचा। कुछ देर बाद एक चश्माधारी व्यक्ति को निकलते देखा। देखकर अंदाज़ लगाया। यही शरद जोशी होंगे। हरिशंकर परसाई से तब तक मिल चुका था। राइट टाउन में ही फुफेरे भाई अवस्थी जी का घर था जिनका परसाई जी के यहां आना जाना था। दोनों व्यंग्यशिल्पी इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी तुलना बेमकसद है। नासमझी है। मन का सच पहली बार उजागर कर रहा हू्ं। 30 बटा एक के पास खड़ा सोच रहा था - परसाई जी लिखने पढऩे वाले लगते हैं। डीलडौल है। चेहरे से रुतबा टपकता है। चश्मे वाले जोशी तो सामान्य आदमी लगते हैं। मेरी बुद्धि की विपता यह थी कि मन में साहित्यकार नाम के महामना की अलग छवि दिमाग में बसी थी। गठे-उघड़े बदन वाले सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, घुंघराले बालों वाले सुकोमल सुमित्रानंदन पंत की छवि साहित्यकार के पैमाने पर खरी उतरती थी। ताऊ जी (बैजनाथ प्रसाद दुबे, जिन्हें हम दादा कहकर संबोधित करते थे) को खादी पहनने और पुस्तकों से घिरा रहने के कारण बड़ा साहित्यकार मानता था। उन सबका अपना अलग आभा-मंडल प्रभावित करता था। इन चेहरों में शरद जोशी अकेले पेंट-कमीज धारी बाबू थे। पहली दृष्टि में शरद जोशी खांचे में फिट हो ही नहीं रहे थे। भोपाली बाबुओं का रुतबा अलग था। अच्छे खासे तात्याटोपे नगर का उन्होंने पीट पीटकर टीटी नगर बना दिया था। जोशी जी पहली नज़र में बाबू लगे और बाबू हंसाने वाला जादूगर नहीं लगता था। कम से कम उन दिनों। चकित था। खोपड़ी खुजाते सोचता रहा कि बाबूनुमा इंसान सचमुच जोशी है या इतनी बारीक चुटकी लेने वाला लेखक कोई और है, जिसके एक-एक वाक्य पर सारा परिवार साथ ठहाके लगाता था।

भोपाल में उन दिनों आज की ही तरह सरकारी उत्सवों की भरमार थी। इस तरह के किसी आयोजन में परसाई विरुद्ध जोशी विवाद हुआ। अशोक वाजपेयी, प्रो. अक्षय कुमार जैन आदि दादा के पास हिंदी भवन आते रहते थे। डा. शिव मंगल सिंह सुमन, आशारानी व्होरा, महाराजकुमार रघुवीर सिंह, सौभाग्य मल जैन आदि कई हिंदी प्रेमी एवं साहित्यकारों को देखने-सुनने का अवसर मिला। भोपाल के साहित्य मेले में शायद इसी वज़ह से जाने का अवसर मिला होगा। दो परिचित चेहरे राजेश जोशी और हिंदी अकादमी वाले राम प्रकाश त्रिपाठी मुट्ठियां बांधकर परसाई के पक्ष में शब्द बल का प्रदर्शन कर रहे थे। शोर शराबे और धक्कामुक्की के बाद समारोह बिखर गया। तात्कालिक समझ के मुताबिक मैं परसाई का प्रशंसक था। प्रभावित था। बाबूनुमा शरद जोशी का लिखा सुनना पसंद करता था। इस प्रश्न में उलझा था कि साहित्यकार लगने वाले परसाई के हिमायती आखिर बाबूनुमा जोशी के लेखन से इतने खफा क्यों हैं? बरसों बाद जोशी जी ने सांस्कृतिक नीति के बहाने सरकारी आयोजनों पर कमाल का वार किया - भोपाल में जहां हजारों लोग गैस दुर्घटना में मरे और आज भी हजारों उनके नाम पर झीख रहे हैं वहां ही विराट सम्मेलन क्यों जरूरी है? चंदेलों के शासन में सत्ताधारी चंदेल सोचते थे कि खजुराहों की मूर्तियां भूख और गरीबी को ढंक देंगीं। आज नर्तकियों के आयोजन, फिल्म समारोह, कविता समारोह ढंकते हैं। जोशी जी तक सरकारी उत्सव का ब्यौरा पहुंचा होगा। चोट लगी थी, और उनका निशान कई बरस दुखी करता था।

कलम पकडऩे का थोड़ा-थोड़ा शऊर आया तब जोशी जी को निकट से समझने का अवसर मिला। नागपुर में अभिव्यक्ति नाम की संस्था में गजानन माधव मुक्तिबोध व्याख्यानमाला आरम्भ की। हमारी कड़की के दिनों में लोहिया अध्ययन केन्द्र के सचिव हरीश आड्यालकर आयोजन की बेहतरी के लिए सबसे बड़े मददगार थे। मित्र निर्मल दर्डा अभिव्यक्ति पत्रिका की छपाई के लिए अखबारी कागज उपलब्ध करा देते थे। चिंता इस बात की थी कि कवि सम्मेलनों में गद्य सुनाकर तुकांत और सुरीले कवियों से अधिक सम्मान राशि पाने वाला साहित्यकार भाषण जैसी नीरस चीज के लिए आएगा या नहीं। आया तो सम्मान-राशि कहां दे देंगे? नकद रकम को छोड़ो। रुकने की व्यवस्था क्या करेंगे? शरद जोशी न तो लाड़ली मोहन निगम या किशन पटनायक की तरह फकीर राजनीतिक थे कि हरीश भाई के घर रुकें न उनसे मेरा जार्ज फर्नांडीस, कवि वेणुगोपाल, पत्रकार नेता मधु शेटे जैसा फक्कड़ अपनेपन का रिश्ता था जो रुखी सूखी खायके मेरे किराए के घर में टिक लें। डरते-सहमते जोशी जी को फोन किया। उन्हें बताया कि आपको रचना-पाठ के लिए आमंत्रित नहीं कर रहे हैं। वैचारिक गोष्ठी में विचार प्रकट करने के लिए बुला रहे हैं। विषय बताया। उनकी दिक्कत तिथि की थी। एक दो दिन आगे पीछे कर तिथि का समाधान कर लिया। उन्हें बताया कि प्रवास खर्च देंगे। उनसे जानना था-मानधन कितना लेंगे? मेरे घर रुकने में दिक्कत तो नहीं होंगे? जोशी जी ने फोन पर चुटकी ली - अच्छा तो आपकी संस्था अमीर है? किस किस को बुला चुके हो? विजय तेंडुलकर, गणेश मंत्री जैसे कुछ नाम बताए। जोशी जी ने प्रश्न किया - उन्होंने कितना मानधन लिया। हिचकते हुए कहा - कुछ नहीं। फिर मुझसे यह प्रश्न क्यों किया? मैं चुप। यह नहीं कह सकता था कि आप तो कवि सम्मेलनों में बटुए पाते हैं। उनके ठीक है, मैं घर में रुकना शामिल है, यह मानकर चला। दूसरी समस्या जटिल थी। मोना को शरद जी के घर में रुकने के बारे में नहीं बताया था। उससे झिझकते हुए कहा - जोशी जी को घर में नहीं रखा तब होटल बहुत खर्च करना पड़ेगा। मोना की सहमति में सवाल नत्थी था। घर में एक ही पलंग है? हल भी उसने तलाश किया। उसका बिस्तर पलंग पर कर देंगे। हम लोग फर्श पर बिस्तर लगा लेंगे। उसने यह नहीं बताया कि घर में राशन नहीं है। अखबारों की रद्दी जमा कर बेची। घर में मेहमान के तीन समय के खाने का जुगाड़ हुआ। जोशी जी को दुपहिये पर बिठाकर स्टेशन से घर लाया। गंभीर विषय को चुटकियों के साथ पिरोकर जोशी जी ने सरस व्याख्यान दिया। अगले दिन सबेरे चाय-पीने के बाद पूछा-शेविंग क्रीम होगी? मेरी दाढ़ी देखकर यह सवाल उनके मन में उठना स्वाभाविक था। संयोग से घर में कई महीनों से अप्रयुक्त क्रीम मिल गई। जोशी जी ने हाथ में लेकर कहा - नहीं मिलती तब भी काम चल जाता। प्रश्न वाचक मुद्रा देखकर सहजता से कहा - अरे दांत घिसने की क्रीम रहती है। यात्रा में शेविंग क्रीम भूल गया तो उससे या साबुन से काम चला लेता हूं। दार्शनिक की तरह बोले - जिंदगी में हर परेशानी का हल है। माथा पीटने में समय नष्ट नहीं करना चाहिए। मैं उन्हें क्या बतलाता कि मोना उनके नुस्खे पर पहले ही अमल कर चुकी है।

व्याख्यान के अगले दिन काफी हाउस पहुंचे। इन दिनों नागपुर में पत्रकार भवन के सामने काफी हाउस हुआ करता था जहां विद्यार्थी और विचारशील-बुद्धिजीवी ही नहीं मटरगश्त बेरोजगार सबेरे-शाम हाजिरी लगाते थे। जोशी जी से बात करने कई लोग कुर्सियां खींचकर मेज के इर्दगिर्द आए। कुछ ने उन्हें प्रत्यक्ष सुना था। कुछ ने अखबार में सचित्र-समाचार पढ़ा था। जग बीती से आप बीती तक कई विषय निकले। उनसे किया गया एक प्रश्न-आप मराठी जोशी हैं? (महाराष्ट्र में जोशी प्रसिद्ध सरनेम है।) अण्णा यानी प्रख्यात समाजवादी नेता एस एम जोशी से लेकर, शेतकरी संघटना के शरद जोशी सुर्खियों में रहते थे। युवा नेता भालू जोशी यानी भालचंद्र यहीं विराजमान थे। जोशी जी ने प्रश्नकर्ता को घूरते हुए कहा - चेहरा तो मेरा सिंधी जैसा है। पड़ोस में मराठी परिवार रहता था जिसने शरद नाम सुझाया। और जोशी तो खर-पतवार की तरह कहीं भी मिल जाते हैं। लगा, जोशी जी प्रश्न से अप्रसन्न है। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह तरल मुस्कान तैरती रही। रचना पाठ करते समय जोशी जी ठहाका नहीं लगाते थे। श्रोताओं के ठहाकों पर रचना पढऩा रोक देते। मैंने जोशी जी को जोर से ठहाका लगाकर हाहाहाहा करते नहीं देखा सुना। उनकी हंसी मौन स्मित के आवरण में रहती थी। उनकी बारीक चुटकी की तरह।

इस याद का एक और भी छोर है। क्षेपक की तरह इसे झेल लें। राजेन्द्र माथुर व्याख्यान में राजकुमार केसवानी को आमंत्रित किया। रात में गपशप के दौरान बात प्रभाष जोशी और शरद जोशी जैसे रज्जू बाबू के मित्रों तक जा पहुंची। केसवानी जी को मैंने शरद जोशी वाला प्रसंग सुनाया। उन्होंने तत्काल पूछा - सिंधी जैसा क्यों कहा? मैंने व्यग्रता बढ़ाते हुए उलझाया - यार मैं क्या बताऊं? उन्होंने कहा, मैंने आपको बता दिया। केसवानी ने जोर दिया - अरे भाई कारण बताया होगा। टालने के लिए कह सकता था कि प्रश्नकर्ता रोहित बजाज गोरे-चिट्टे सुदर्शन हैं। उद्योग-व्यापार से जुड़े हैं। कुछ लोग उन्हें सिंधी समझते होंगे। केसवानी जी को सताने के लिए कहा - न किसी ने पूछा। न जोशी जी ने बताया। करीब दस बरस बाद राजकुमार केसवानी यह जानकर निश्चिंत हो सकते हैं कि न तो उनका किसी भाषा या क्षेत्र समुदाय पर दावा था और न कोई टिप्पणी। सहज भाव से कहा होगा। रोहित बजाज की नोंकीली नाक और जोशी जी की कथन के बीच नाता जुड़ा। कुशल किस्सागो आसपास के माहौल तथा रचना के बीच उदृश्य सेतु रच देता है। इस खूबी को राजेन्द्र माथुर ने पहचाना। नवभारत टाइम्स में शरद जोशी का प्रतिदिन स्तंभ छपने लगा। प्रतिदिन ने जबर्दस्त लोकप्रियता पाई। कबीर के नाम से परसाई जी बरसों तक नई दुनिया में लिखते रहे। वह दैनिक स्तम्भ नहीं था। परसाई जी के साप्ताहिक स्तंभ से विरोधी बिलबिला उठते हैं। कुछ अभद्र तो घर में पीटने जा पहुंचे। प्रतिदिन की चुटकी कहा भी न जाये और सहा भी न जाय किस्म की थी। तीखपन शरद जोशी के लेखन में कम न था। जातिवाद पर चोट करते हुए उन्होंने लिखा - हरिजन से मुसलान हो जाने से भी कुछ नहीं होता, क्योंकि आप ऊंची जाति के मुसलमान तो हो नहीं सकते। मसलन सिद्दीकी लोगों को मुसलमानों में वही माननीय दर्जा प्राप्त है, जो हिन्दुओं में ब्राह्मणों का है। सैयद लोग उतने ही बड़े माने जाते हैं, जितने हिंदुओं में वैश्य माने जाते हैं। कोई मुसलमान यदि हिंदूधर्म अपनाना चाहे तो ये आग्रह नहीं कर सकता कि मैं कान्यकुब्ज या सरयूपारीण ब्राह्मण कहलाना चाहूंगा - इसी तरह कोई हरिजन यह समझे कि मुसलमान हो जाने पर मैं सैयद हो जाऊंगा, गलत सोचता है। - हां, यदि कोई सैयद साहब किसी धोबन की लड़की की अदाओं पर मर मिटे और उसे मुसलमान बना कर घर में डाल दें, तो उसके बच्चे अपने आप को सैयद कह सकते हैं। आज शरद जोशी ऐसी बात लिखते तो नतीजा कुछ और होता। इसकी कल्पना भयानक है।

प्रतिदिन के कुछ वाक्य शोले के संवादों की तरह इस्तेमाल किए जाने लगे। बिहार जाकर मैं तो नरभसा गया - वाक्य का बिहारियों ने आनंद लिया। हम जैसे कुछ लोगों ने मुंबइया बिहारी नागरिकों को चिढ़ाया। बोलने के लहजे का मजाक उड़ाने वालों ने भी आनंद लिया। जोशी के व्यंग्य की खूबी यह थी कि चोट खाने वाले भी खिसियानी हंसी हंसते थे। ठीक उसी तरह, जिस तरह अपनी नासमझी से सड़क पर फिसलने वाला व्यक्ति धूल झाड़कर हंस देता है। कुछ उसी सहजता से, जैसे लाल बत्ती होते हुए पार करने वाली महिलाएं पों पों पीं पीं के शोर में फंस जाने पर एक दूसरे की तरफ देखकर झेंप वाली मुस्कान का आदान-प्रदान करती है। करारे, कुरकुरे संवाद धारावाहिकों और फिल्म के माध्यम से घरों में पहुंचे। जोशी की रचना आसनसोल के पाठ पर ठहाके लगते थे। एक एक वाक्य पर। शंका, कुशंका की बारीकी को वे सहजता से पाठक को परोस देते। औरों को आसनसोल रचना ने कितना प्रभावित किया, नहीं जानता। मैं एक बार धनबाद गया। आयोजकों से जानकारी ली और आसनसोल पहुंचा। दिनभर भटक कर यह जानने की कोशिश करता रहा कि आखिर आसनसोल में जोशी जी ने ऐसा क्या देखा? आसनसोल को उनकी रचना ने अमर कर दिया। यही लहजा, यही रोचक सरलता निजी जिंदगी में रही। मुंंबई की नौकरी के दिनों की बात है। जोशी जी दक्षिण मुंबई की तरफ आने का मन बनाते उस दिन या तो सबेरे घर फोन कर देते या दफ्तर पहुंचने पर संपादक विश्वनाथ  सचदेव कहते - आज तो तुम बैठक से गायब रहोगे। दोपहर में संपादक के साथ हम चार लोगों की बैठक होती थी। मैं समझ जाता कि जोशी जी आने वाले हैं। बोरीबंदर की बुढिय़ा की दस पैसे वाली रियायती चाय जोशी जी को नापसंद थी। जिन दिन कुछ खास बात करने का मन होता उस दिन न्यू एक्सेलसियर के सामने वाले रेस्तरां में बैठते। ऐसा ही एक दिन। उन्होंने बताया कि बिटिया रंगमंच से अधिक समय देने लगी। एक दिन कहने लगी-रंगकर्मी प्रसन्ना अच्छा लगने लगा है। अब दोनों का विवाह होने वाला है। बेटी के विवाह के निर्णय को वे सहजता से आधे घंटे तक बतलाते गये। कवि सम्मेलन में रचना पाठ या किसी धारावाहिक के संवाद की तरह रोचक। मैं मंत्रमुग्ध श्रोता  बना रहा। किसी के घर में रुकने से खास किस्म का अपनापन हो जाता है। जोशी जी अपने और औरों की बात किसी दिलचस्प कहानी की तरह कह जाते। और हम मुंह बाये, उसी तन्मयता से सुनते जिस तरह विक्रम और बेताल की कहानी सुना करते थे। बिन मांगी सलाह देने वालों पर एक दिन चर्चा छिड़ी। जोशी ने बताया - तुम्हारी भाभी (इरफाना जी) से प्रगाढ़ता बढ़ रही थी। कस्बों और छोटे शहरों में इस तरह की जानकारी बड़ी महत्वपूर्ण हुआ करती है। बिल्कुल स्कूप की तरह। एक दिन परिचित समझाने आए। कहने लगे-तू बाम्हन का बेटा। पढ़ा लिखा। सब संस्कार भूल गया। मुसलमान से शादी करेगा। मैंने कहा - हां। वे सलाह देने का संकल्प करके आए थे और मैं उनसे मुक्ति चाहता था। समझाने लगे। देख जोशी। तू जोशी है, भाई। कुछ तो सोच। प्यार करते समय कुछ सोचना था। उससे खूबसूरत तो उसकी छोटी बहन है। मैंने कहा - यार दिमाग मत खा। मैं तो तय कर चुका। छोटी से तू कर ले। जोशी जी की उक्ति सुनकर मेरी हंसी छूट गई। इन बातों पर जवानी में लोग खून-खराबा करते हैं। जोशी जी ने मुफ्त सलाह देने वालें को ही जबर्दस्त मुफ्त सलाह टिकाकर पलायन करने पर विवश कर दिया। जोशी जी ने यह किस्सा किसी चुटकुले की तरह तटस्थ भाव से सुना दिया।

जोशी जी मेरे संपादक राजेन्द्र माथुर के कालेज के दिनों के मित्र थे। इससे उनके मेरे साथ दोस्ताना व्यवहार में कोई अंतर नहीं पड़ा। हाजिरजवाबी में तो उन्हें कमाल हासिल था। बात साहित्य से संबंधित थी। कन्हैया लाल नंदन का जिक्र छिड़ा। मेरे मुंह से निकला -नंदन जी को कवि कैसे मान लेते हैं? मेरी बात काट कर बोले - नंदन महान साहित्यकार है। मैंने फिर हुज्जत की। पूछा - कैसे? उन्होंने मासूमियत भरा उत्तर दिया - उसने गोरेगांव में शरद जोशी को फ्लैट किराए पर दिया है। जोशी जी के अंधों का हाथी का मंचन हुआ। भोपाल में कई बार। मरे मित्र रामरतन सेन उसमें राजा की भूमिका निभाते थे। मैंने जोशी जी को बताया कि रामरतन मेरे मित्र हैं। उन्होंने चेहरे पर किसी तरह का भाव लाए बगैर कहा - हां। अभिनय लगता ही नहीं। बिल्कुल स्वाभाविक है। दिलचस्प बात यह, कि वह पात्र अपनी मूर्खता के कारण विशिष्ट था।

एक दिन दस बजे के आसपास उनका फोन आया। गंभीर स्वर में बोले - विश्वनाथ से तुम्हारी शिकायत करना पड़ेगी। मैं चौंका। गलती का पता तो चले। कहने लगे - अब तुम व्यंग्य लिखोगे? मैं अवाक। सफाई दी - मेरी क्या औकात? किसने आपके कान भर दिए? आखिर हुआ क्या? उनके स्वर में गंभीरता कायम थी - तुमने आज लिखा है। मैंने दूसरे हाथ से अखबार खोला। मेरे नाम से राजनीतिक खबर पहले पेज पर थी। लेख तो कहीं नहीं। जोशी जी बोले - तुम इस तरह की खबर लिखोगे तो व्यंग्य कौन पढ़ेगा? तो ये बात थी। मुंबई में प्रदेश कांग्रेस की चुनाव समिति की बैठक थी। तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष प्रतिभा पाटील की अध्यक्षता में दावेदारों की सुनवाई थी। भरोसेमंद सूत्रों से आक्षेप, आरोप, नाते-रिश्तेदारों का कच्चा-चिट्ठा मिल गया। मैंने समाचार बना दिया। किस्से तो लोटपोट करने वाले थे। इस ब्याज प्रशंसा से मैं तो हर्षित हुआ ही, उन्होंने संपादक को भी इसी तरह सुनाया गया। संपादक विश्वनाथ जी ने हंसते हंसते बताया कि जोशी जी ने धमती दी है। उनके उत्साहवर्धन का तरीका अनोखा था। मन प्रफुल्लित करने वाला।

बहुत बाद में समझ आया कि जोशी जी की चश्मे से झांकती तिरछी मुस्कान के पीछे कई तरह की अवहेलना की पीड़ा जमा है।

नगर आदतन आदमखोर होते हैं। पहले जमीन गटकते हैं। उसके बाद जमीन पर रहने वालों को लील लेते हैं। किसान की जमीन विकास की भेंट चढती है। बेजमीन किसान रोजी की तलाश में शहर की तरफ भागता रहा है। दो बीघा जमीन का वक्त बीत गया। आज का किसान शहर में एंड्रीन या कोई दूसरा विष खरीद कर लाता है। कर्ज चुकता करने में असमर्थ होने पर कीड़े-मकोड़ों की ज़िंदगी से निज़ात पाने के लिए ख़ुद ज़हर पी लेता है। यह हाल सिर्फ किसानों तक जीवित नहीं है। उत्तर प्रेदश में योगीराज में सरकारी नामकरण प्रयाग होने से कई दशक पहले से इलाहाबाद साहित्यकारों का संगम रहा। कई हिंदी साहित्यकार सत्ता, संपर्क और सिक्कों की चाह में कलम पर सवार होकर शहरों की तरफ खिंचे। दिल्ली- मुंबई का चुम्बक बेअसर रहा। अशक्त होने तक अलीगढ़ उनकी पहचान बना रहा। और नाम याद नहीं आ रहे हैं। ज्ञान का अभाव इसका कारण हो। प्रयाग से निकलकर जबलपुर जैसे छोटे शहर में डेरा बसाने वाले ज्ञानरंजन पर सत्ता और संपत्ति दोनों का जादू नहीं चला। परसाई वाम दलों के प्रिय थे लेकिन रहे जबलपुर के दायें बाजू यानी राइट टाउन में।

नौकरी और शहर दोनों से जोशी जी का एक सा संबंध रहा। कभी वे नाता तोड़कर भाग लेते। कभी रोजगार और शहर उनसे छिटक जाते। मन पसंद लेखन के लिए उन्होंने दोनों से हुज्जत की। बिना शिकायत किए। गुटबाजी के शिकार हुए। कुछ मुद्दों पर दो टूक राय का खामियाजा भुगता। जोशी जी की पहली या दूसरी नौकरी पत्रकारिता की थी। आयुर्वेदिक औषधि निर्माता प्रतिष्ठान बैद्यनाथ के शर्मा जी ने धूमधाम के साथ भोपाल से अखबार शुरु किया। यदि भूल नहीं रहा, तो मध्यदेश या ऐसा ही कुछ नाम था। अखबार नहीं चला। जोशी जी इस्तीफा देकर अलग हो गए। उन्होंने कभी इसका कारण नहीं बताया। पूरे किस्से को एक वाक्य में समेट दिया। अखबार जितने पन्नों का था, उससे अधिक दिग्गज अखबार में धंस गए। मिलकर अखबार को रौंद दिया। भारत-भवन के सरकारीपन और अनुमानत: अशोक बाजपेयी के आइएएस अफसराना बर्ताव को लेकर दोनों में दूरी हुई। धर्मयुग के मित्रों ने उस समय बताया था कि जोशी जी ने इस पर कलम चलाई। भारती जी भी कुछ कारणों से भोपाल के भारत भवन के कामकाज से असंतुष्ट रहे होंगे। जाने क्या हुआ? जोशी जी धर्मयुग में पन्नों से गायब होने लगे। इंडियन एक्सप्रेस समूह ने हिंदी एक्सप्रेस नाम की पत्रिका प्रकाशित करने का निर्णय किया। जोशी जी को संपादक का दायित्व सौंपा। जोशी जी ने फोन किया और पत्र भी लिखा। मैंने फोन पर जानना चाहा  कि किस विषय पर लिखूं? जोशी जी राजनीतिक उठापटक की खबरें या लेख नहीं चाहते थे। लीक से हटकर कुछ अलग चाहिए था। मैंने अमरावती के आसरकर बंधुओं पर सामग्री तैयार की। उनका काम बांसुरी बनाना था। जोशी जी ने मुझसे कहा - बंबई आओ। सीधे बांद्रा के होटल मानसरोवर में आ जाना। उसके साथ भोजन कर हम एक्सप्रेस बिल्डिंग में पहुंचे। उसी दिन पत्रिका का ताज़ा अंक छपकर आया था। कवर पेज बहुत पतला था। सामग्री और संपादन आकर्षक लगा। मुझे एक कमी लगी। टिकाऊ मुखपृष्ठ वाली पत्रिका बाजार में अपनी जगह बनाती है। तभी एक साहित्यकार आए। उन्होंने जोशी जी को बधाई दी। साथ ही चेतावनी भी - धर्मयुग के सामने टिक पाना कठिन है। एक तो भारती जी का नाम और इतना पुराना प्रकाशन। इस बार तो आपने ट्रकों की इबारत पर रोचक फीचर करा लिया। हर मर्तबा नई चीज कहां से लाएंगे? जोशी जी ने पत्ते नहीं खोले। इतना ही कहा - देखते रहिए। मैं बीच में टपक पड़ा - इगली बार कैलेंडर और डायरियों पर उसके बाद - जोशी जी ने कहा - इन्हें मत बताओ। धर्मयुग वाले छाप लेंगे। उनके मजाक पर वे साहित्यकार झेंप गए। न तो मैं संपादकीय विभाग से संबद्ध था और न मेरे कहे विषयों पर कोई योजना बनी थी। मैंने यूं ही अटकल ठोंकी थी।

जोशी जी का संपादक के रूप में उत्साह देखते बनता था। हर बार वें हिंदी एक्सप्रेस की योजना और लोकप्रियता की जानकारी देते। कुछ हिंदी विरोधी प्रबंधकों के अड़ंगों और दांव पेंच से निबटने के जोशी-नुस्खे बतलाते। उन्होंने यह भी बताया कि एक्सप्रेस समूह के स्वामी रामनाथ गोयनका ने मजाक में कहा - मिसेज जोशी को बताना पड़ेगा कि आप बाम्बे  में जानबूछकर अकेले रहना चाहते हैं। हम आपके लिए फ्लैट तलाश करा रहे हैं।

लिखते समय जोशी जी अपने पराए का भेद नहीं करते थे। डा. धर्मवीर भारती की महान कृति अंधा युग तक को लपेटे में लिया। जोशी जी ने उसी शैली में अपना अंधा युग रचा - अंधा युग क्रिकेट का। ठेठ उसी शैली में। इस कृति को पढऩे के बाद कई कोणों से विचार करना चाहिए। पहला कोण तो क्रिकेट की दुर्दशा का है। जोशीकृत अंधायुग का धृतराष्ट्र क्रिकेट बचाने का रामबाण नुस्खा सुझता है। चार सौ मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक पाने वाले या वाली की गोला फेंक स्वर्ण पदक विजेता से विवाह के बाद उत्पन्न संतान फास्ट बालर की कमी पूरी करेगी। इस हास्य के बीच अश्वत्थामा का क्रंदन है - यह मेरा बल्ला है जिस पर कभी सी के नायडू ने दस्तखत किए थे। अश्वत्थामा को टीम में जगह नहीं मिलती। हमेशा 15 खिलाड़ी रहना अश्वत्थामा की तरह भटकना है। वह पीटकर कहता है - आत्मघात कर लूं इस नपुंसक अस्तित्व से। पत्रकार कृतवर्मा की आत्मस्वीकृति पर उन पत्रकारों ने भी विचार नहीं किया होगा, जिन्होंने गंभीरता से इस व्यंग्य रचना को पढ़ा होगा। कृतवर्मा-धीरज रखो अश्वत्थामा हम पत्रकारों की तरह/कभी-कभी/नपुंसक अस्तित्व जरूरी होता है/ प्राणरक्षा के लिए। क्रिकेट के कारनामों पर भविष्यवक्ता की तरह जोशी ने लिखा था - चयनकर्ता और उनके भी चयनकर्ता/शयनकर्ता हैं वे हमेशा शयनकर्ता/जोशी ने नीचे एक टीप लिखी थी - न केवल शीर्षक, बल्कि पक्तियों, पात्र, मंच निर्देशन में डा. धर्मवीर भारती के अंधा युग से जो साफ साफ चोरी की है, उसे स्वीकारते हुए साहित्य की परम्परानुसार आभारी हूं। - यदि कहीं छंद दोष हो तो उसका श्रेय भी मूल कृति को जाता है - सीनाजोर जोशी। जोशी जी का अंधा युग पढऩे के बाद मुस्कराते हुए भारती जी ने उगालदान में पान थूका होगा। कवि सम्मेलनों में गलेबाज तुकबंदकों को जोशी जी ने खड़ी बोली के गद्य से पीड़ा तो हुई होगी। जिस सम्मेलन में उन्होंने शायरे मैसूर रचना सुनाई होगी उस वक्त कुछ गायक-गीतकारों का नशा टूटा होगा, कुछ का चेहरा मुरझाया होगा और - बात आगे बढ़ाऊं, उससे पहले जाने लें रचना का समापन कैसे किया।

अक्सर जब कोई कविताविहीन कविता देखता हूं, तुकबंदी वाले पोये पढ़ता हूं, रेडिओ या कवि सम्मेलनों में वातावरण की छिछली मांग पर किए गए भाव विहीन पद्य सुनता हूं - मुजे उस सुंदर नगर मैसूर का शायर याद आता है। - पैसा तो यों भी मिलता है। फर्क सिर्फ सलाम के तरीकों में है। अपने शहर भोपाल के बारे में उन्होंने जो लिखा था उससे उनके कुछ दोस्त तो कन्नी काटने लगे होंगे। दोस्तों को ही नहीं, जोशी जी अपने को भी नहीं बख्शा। उन्होंने पूरा लेख लिख डाला ताकि पाठक जाने और पाठक के बहाने देश जाने कि शरद जोशी राष्ट्रपति क्यों नहीं बने। रचना के तीन चौथाई हिस्से में राष्ट्रपति के काम गिना दिए। इस मुद्दे पर राय अलग हो सकती है कि राष्ट्रपति के काम गिनाए, पात्रता बताई या यह बताया कि सरकार किस तरह का राष्ट्रपति पसंद करती है? सुपरिचित मुस्कान के साथ किसी समय उन्होंने रचना पढ़ी होगी तब अपने आप से पूछा - मेरे बारे में क्या कहेंगे? हमारे राष्ट्रपति पहले लेखक थे। या सम्मान करने के मूड में हों तो कहेंगे हमारे राष्ट्रपति पहले बहुत अच्छे लेखक थे। सवाल उठेगा कि जब अच्छे लेखक थे तो राष्ट्रपति क्यों नहीं बने? इसका मेरे पास जवाब है। लेखकी में मिलता क्या है? सभी लेखक इधर उध्र नौकरी तलाशते हैं। इसके बाद पैसे का प्रश्न। उस वक्त जोशी ने लिखा - विधायकों को तो आप जानते हैं। बिना सौदा किए मुख्यमंत्री तक नहीं चुनते। राष्ट्रपति तो बड़ा पद है। इसके बाद छोटी सी बात कही - बाइ दि वे राष्ट्रपति के अलावा कोई छोटी मोटी नौकरी इस देश में खाली हो तो मैं उत्सुक हूं। इस वाक्य को फिर से पढि़ए। दोनों के बीच संबंध अनोखा है। राष्ट्रपति पद के अलावा कोई छोटी मोटी नौकरी। राष्ट्रपति पद छोटी नौकरी है। ऐसे इंसान से नौकरी कहां खुश हो सकती थी। लगती। छोड़ते। छूटती। राजनीति में जाकर लोग वोट की भीख मांगते हैं। फिर लूटते हैं। जोशी जी का स्वाभिमान कभी अहंकार के खतरे के स्तर तक पहुंचा होगा तो शयाद इस बात के लिए। यार, मैं तो जनता के बीच गद्य पढ़कर भी प्रसन्न हूं। लोग सुनने का पारिश्रमिक देते हैं। पक्की नौकरी और पक्के ठिकाने की क्या परवाह?

और एक दिन सचमुच नौकरी और ठिया पर संकट आया। हिंदी एक्सप्रेस का प्रकाशन बिना पूर्व सूचना के बंद किया गया। बंद करने की सूचना भी किसी प्रबंधक के मार्फत मिली। जोशी जी फिर एक बार स्वतंत्र कलमजीवी हो गए। बाहर जाना, तुकांत कवियों के बीच गद्य पढऩा, प्रतिदिन लिखना उनका शगल नहीं रहा। नेहा मुंबई की टाइम्स इमारत में प्रतिदिन स्तंभ देने पहुंचतीं। नंदन जी वाला आवास खाली करना पड़ा था। नंदन जी को पारिवारिक कारणों से फ्लेट की जरूरत पड़ गई थी। यह वह काल था जब देश के अलग अलग शहरों में कार्यरत पत्रकारों और संपादकों को भोपाल, इंदौर में सरकारी आवास दिए जा रहे थे। अपना दुख हाशिये पर रखकर जोशी जी ने लोगो को ठहाका लगाने का मसाला दिया। बात जोशी जी ने चुनाव से शुरु की। भेद खोला - चुनाव के दो वर्ष पूर्व नेताओं और पार्टियों में चुनाव-चेतना जाग्रत होती है। वे एकाएक पत्रकारों के प्रति सहृदय, नम्र और मधुर होने लगते हैं। - पत्रकारों को चाहिए कि उनकी जो समस्या हो, जैसे सरकारी मकान प्राप्त करना, फ्री पास लेना, पत्नी की सर्विस लगाना या पुलिस के मुखबिर से व्हिस्की की व्यवस्था करना आदि, तो उस मौसम में सुलझा लें। और हां, मीठी और तीखी चुटकी का मजा दो चार वाक्य पहले यह कहकर दिया - पत्रकारों की चर्चा करते हुए बुद्धिजीवियों पर आ गया तो पत्रकारों को यह विषयांतर लग रहा होगा।

स्वतंत्र लेखन पर जीवित रहते हुए भी वे अलमस्त रहते। रंग-बिरंगी शर्ट पहनना उन्हें पसंद था। स्वाभिमान से समझौता करने पर राजी नहीं हुए। जोशी जी धारावाहिकों और फिल्मों के लिए लिख रहे थे। उन दिनों सतीश शाह फिल्मों के चर्चित हास्य कलाकार थे। स्वयं को सर्वज्ञानी दिखाना सतीश की आदत थी। किसी दृश्य पर उन्होंने जोशी जी से कहा - संवाद यूं नहीं, यूं होना चाहिए। जोशी जी ने उसी लहजे में जवाब दिया - जान लो कि यूं, क्यूं नहीं होना चाहिए। निर्देशक सहित सैट पर हाजिर लोग हंस पड़े। जोशी जी गंभीर बने रहे। इस प्रसंग पर बात चली तो जोशी जी का कहना था - मैं तो उन्हें अभिनय सिखाने नहीं जाता। शौक है, तो पटकथा और डायलाग लिखें। किसी ने नहीं रोका। उत्सव की पटकथा से जोशी जी जुड़े। पटकथाएं लिखीं और कई फिल्मों के संवाद लेखक थे। छोटी सी बात फिल्म में नायिका विद्या सिन्हा पीछा करने वाले अमोल पालेकर को घूर कर देखती है। अमोल मासूमियत से कहता है - मैं ऐसा वैसा नहीं हूं। चाहों तो मेरा चरित्र प्रमाण पत्र देख लो। शरद जोशी का लिखा यह संवाद सिनेमाघरों में गूंजने के बाद नौजवानों की शरारत का हिस्सा बना। समांतर सिनेमा के आरम्भ से जोशी जी गिरीश कर्नाड सहित कई प्रयोगधर्मी कलाकारों के प्रिय बने। जिंदगी से इसी लहजे में संवाद करते रहे। ये संवाद भी, हालात की तरह निस्पृह भाव से लेखन को सौंप दिए।

कृपालु मध्यप्रदेश शासन की इतनी ही कृपादृष्टि कम नहीं, कि 30 बटा एक दक्षिण तात्या टोपे नगर जोशी जी का लम्बे समय तक डाक और मनीआर्डर पाने का पता बना रहा। मलाड में उनका अंतिम समय बीता। बात शुरु हुई थी, परसाई विरुद्ध जोशी से। परसाई जी की राजनीतिक विचारधारा स्पष्ट थी। वे मार्क्सवाद में विश्वास रखते थे। जोशी जी का न काहू से दोस्ती वाला रुख था। उन्होंने आपातकाल पर पंचतंत्र शैली में पांच कहानियां लिखीं सत्ता के आतंक आरै सत्ता-लिप्सा दोनों पर चोट थी। आखिरी कहानी बुद्धिजीवियों का दायित्व में मार्क्सवादी निशाने पर थे। कथा का अंतिम अंश, बकलम शरद जोशी - इमर्जेंसी का काल था। कौवे बहुत होशियार हो गए थे। चोंच से रोटी अपने हाथ में लेकर धीरे से कौवे से कहा - लोमड़ी बाई, शासन में हम बुद्धिजीवियों को यह रोटी इस शर्त पर दी है कि इसे मुंह में ले हम अपनी चोंच को बंद रखें। मैं जरा प्रतिबद्ध हो गया हूं, आजकल, कक्षा करें। यों मैं स्वतंत्र हूं, यह सही है। आश्चर्य नहीं, समय आने पर मैं बोलूं भी। कहानी का शीर्षक था - बुद्धिजीवियों का दायित्व।

क्या जोशी जी अपनी उपेक्षा से दुखी थे। विचार से जुड़ाव का अभाव सम्मान से दूरी का कारण बना? या कम से कम यह भावना उनके मन में आई होगी? मुझे क्या लगता है, छोड़ें। उन्होंने अपनी आवास समस्या तक का मुझसे कभी उल्लेख नहीं किया। सोचते होंगे, इसके सामने निरीह नहीं दिखना चाहिए। उनके एक मित्र ने बात की तब स्पष्ट बताया कि जोशी जी मुख्यमंत्री के नाम अर्जी लिखकर नहीं देंगे। जोशी जी ने भगवान की सत्ता में कसीदे नहीं पढ़े। इसकी बानगी। अंत में जब भक्तजनों में आरती घूम रही थी और पैसा, दो पैसा, चवन्नी, अठन्नी लोग डाल रहे थे तब भगत माइक से मुंह लगा कर मधुर कंठ से कह रहे थे, माया का मगर आत्मा के मुक्त हाथी को बांधे हैं - बंधुओं, धन ही पाप का मूल है। रुपये में सकल रोग और नोट में सारी खोट। आप अपने आसपास गर्दन घुमा कर इस दृश्य को देखें तब तक मैं दूसरी कल्पना करता हूं। यदि यमराज नाम का कोई मुनीम पाप-पुण्य का हिसाब करने में जुटा होगा तो जोशी जी ने उसका ध्यानभंग अवश्य किया होगा। बार बार छका रहे होंगे। विक्रम को बैताल ने सिर्फ 32 मर्तबा छकाया था। जोशी जी की जन्मभूमि उज्जयिनी नगरी में विक्रम का पता नहीं। कीचड़ सनी शिप्रा नदी में कई शरद जोशियों के लिखने के लिए मलबा, मैला, दलदल पर्याप्त मात्रा में है।

 

 

 

प्रकाश दुबे नागपुर में रहते हैं, भास्कर के समूह संपादक हैं। इसके पहले पाठकों को स्मरण होगा कि उन्होंने बड़े पत्रकार राजेन्द्र माथुर (रज्जू बाबू) पर लिखा था।

 


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