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जनवरी - 2019

अंदर खुलने वाली खिड़की

प्रियंवद

लंबी कहानी

 

 

बारिश हो रही थी। दोनों बारिश देख रहे थे। बरिश न भी होती तो भी, वे दोनों नीले रंग की दो अलग अलग, लम्बी, पतली खिड़कियों से सर निकाल कर बाहर देखा करते। वे हमेशा, इसी तरह, बाहर देखते हुए, बाहर से देखने पर अलग अलग तरह से दिखते। बाहर से खिड़कियों को देखने पर बूढ़ा पूरा दिखता, क्योंकि वह खिड़की की चौखट पर एक पैर मोड़ कर बैठता था। बुढिय़ा आधी दिखती, क्योंकि वह खिड़की की चौखट पर दोनों हथेलियाँ रख कर झुकी हुयी होती। बूढ़े का चेहरा जबड़े की हड्डियों पर उभरा हुआ था। नाक नुकीली थी। कान लम्बे और बालों से भरे थे। आँखें स्लेटी थीं जिसके किनारों पर सफेद कीचड़ भरा रहता था। होठ मोटे थे जिनके किनारों पर लार चिपकी रहती थी। उसकी आँखों पर गोल, सुनहरे फ्रेम का चश्मा था जो उसे सभ्य और पढ़े लिखे इंसान जैसा बना देता था। बुढिय़ा का चेहरा छोटा और सुंदर था। उसकी गंदुमी खाल के नीचे गहरी लाली थी। उसका हीमोग्लोबिन कभी तेरह से कम नहीं हुआ था, तब भी नही, जब बूढ़े की ज़िद और फुसलाने के मिले जुले षडयंत्र में फंस पर उसने दो बार गर्भपात करा लिया था। उसकी भौहों के जोड़ के ऊपर, बड़ी, गोल, लाल बिंदी चिपकी रहती थी, जिसे वह सोते समय भी नहीं हटाती थी। पचपन साल से बारह साल पहले तक, बूढ़े की आक्रामक, कामुक चेष्टाओं के बाद भी, बिंदी कभी नहीं गिरी थी। बिंदी के नीचे उसकी आँखे थीं। ये गहरी काली थीं। पलकें उससे भी गहरी काली और घनी थीं। भौंहे उससे भी ज्यादा काली और घनी थीं। पचपन साल पहले जब उसे बूढ़े पर कभी प्यार आ जाता था, तो उसकी सबसे छोटी उंगली पकड़ कर, उसकी पोर को अपनी पलकों से सहलाती। उसके चेहरे की खाल, जहरीले बिचखापड़ के चमड़े से बनी ढपली की तरह कसी और चमकदार थी। खिड़की पर झुक कर खड़े होने से बुढिय़ा के सर के थोड़े से बचे और खुले बाल, कंधों के ऊपर से उसी तरह लटक आते थे, जैसे पके हुए भुट्टे के सिरे पर सफेद भूरे बाल लटकते हैं। बूढ़े के सर पर बाल नहीं थे। कभी सर्दियों में जब धूप की रोशनी सीधे उसके सर पर पड़ती, तो उसके सर पर लगा, कोल्हू के सामने खड़े होकर निकाला गया ताजी सरसों का तेल, झील के पानी की तरह चमक मारता।

उन दोनों की खिड़कियाँ हमेशा से अलग अलग थीं। दोनों अपने अलग अलग तरीकों से, किसी भी वहशी लालसा कि गिरफ्त से अलग, बाहर झांका करते। समय को पेड़ों की फुनगियों पर चढ़ते उतरते देखते। रोशनी, अंधेरों और उनमें बनती बिगड़ती आकृतियों को कभी उदासी, कभी भय, कभी उत्सुकता और कभी गहरी ऊब से देखते। अपने इस देखने को वे कभी एक दूसरे से साझा नहीं करते। एक के देखने में दूसरा कभी शामिल नहीं हुआ था।

बूढ़ा चौखट के एक पल्ले पर चिपक कर इस तरह बैठता कि उसका सर बुढिय़ा की तरफ  होता। वह बुढिय़ा को पार करके ही सामने देख पाता था। उसके इस तरह बैठने और देखने में चाहे अनचाहे, बुढिय़ा हमेशा शामिल रहती थी, उसी तरह, जिस तरह पिछले पचपन सालों से उसकी जिंदगी में शामिल रहती आयी थी। बुढिय़ा को इस तरह हमेशा देखने और पैर मोड़ कर खिड़की की चौखट पर बैठने से बूढ़ा बचना चाहता था, पर उसकी मजबूरी थी। 12 साल पहले उसके एक कूल्हे की हड्डी टूट गयी थी। उसके बाद वह उस कूल्हे पर जोर दे कर नहीं बैठ पाता था। दूसरे कूल्हे पर ही पूरा शरीर टिका कर, थोड़ा तिरछा हो कर बैठता था। बुढिय़ा जानती थी कि वह बूढ़े के देखने में हर समय शामिल है। बुढिय़ा यह भी जानती थी, कि सतर्क और चोर तरीके से बूढ़ा चुपचाप, उसके मन में उठने वाली हलचलें, दिमाग में आने वाले विचार भाँपा करता है, उसी तरह, जिस तरह पिछले पचपन सालों से भाँपता रहा है। बुढिय़ा की नीयत और भविष्य के इरादों को समझने की कोशिश करता रहा है। वह कब उस पर झपटेगी, कब घृणा और कब हिकारत से देखेगी इसका अनुमान लगाने की कोशिश भी करता रहा है। बुढिय़ा अपने इस तरह हमेशा देखे जाने की परवाह नहीं करती थी। पिछले पचपन सालों से बूढ़ा उसे हर तरह से, हर रुप में, हर जगह देख रहा था। पिछले पचपन सालों से बुढिय़ा खुद को इस तरह देखे जाने को देख रही थी, इसलिए बूढ़े के देखने में अब बुढिय़ा की ाहिरा दिलचस्पी पूरी तरह खत्म हो चुकी थी। पचपन सालों में बुढिय़ा उसके हर ओछे और शातिर तरीके से भी वाक़ि  हो चुकी थी। बूढ़े से पूरी तरह बेनिया, अब वह नीचे सड़क पर गुजरते लोगों को देखती। सड़कें, ठेले, भीड़ और हलचलें देखती। कभी सर उठा कर सामने दो सौ साल पुरानी, खजाने की खंडहर इमारत की टूटी दीवारों पर उगे पौधे, दरारों में दुबके कबूतर और हरी काई चाटती दीमकों को देखा करती। कभी खंडहर के पार बादल, मौसम, पेड़ और अपाहिज ईश्वर की परछाइयाँ देखती।

पिछले 12 सालों से इसी तरह, बाहर देखते हुए, दोनों का अपनी अपनी जिंदगी कुतरते चले जाने का सिलसिला चल रहा था। इन 12 सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने अपनी खिडकियाँ बदल ली हों या दोनों ने कभी एक ही खिड़की से एक साथ बाहर झांका हो। सच तो यह था, कि पिछले 12 सालों में घृणा की हदों तक एक दूसरे से ऊबे हुए उन दोनों ने, खिड़कियों के बहाने अपनी अलग अलग जिंदगी और अलग अलग दुनिया चुन ली थी। अपने हिस्से की खिड़कियों की तरह वे अपनी भावनाएं भी, जो अक्सर एक दूसरे के प्रति कुटिलता या शंका से भरी होतीं, अपने अपने हिस्से में जीते रहे। पिछले 12 सालों में उन्होंने किसी भी बात पर एक दूसरे के लिए अपनी तय की हुयी स्थिति नहीं बदली। इतना जरूर था, कि बुढिय़ा की तरफ  बूढ़े का सर होने और उसे लगातार देखते रहने से, यह संभावना बनी हुयी थी कि दोनों के बीच शायद कभी कोई पचपन साल पहले की सद्भावना जाग उठे, कोई जुड़ाव बन जाए। बूढ़े की कामुकता और घृणा की मिली जुली दृष्टि में बुढिय़ा के लिए कोई नरमी, कोई आसक्ति या कोई मधुर स्मृति जाग उठे। बुढिय़ा को यह आशंका बनी रहती थी कि ऐसा कभी हो सकता है। उसके देखने का बूढ़ा कोई गलत अर्थ न लगा ले इसलिए बुढिय़ा ने कभी सर घुमा कर बूढ़े को पूरी नजर से नहीं देखा, जबकि चाहती तो वह बूढ़े को उसी सरलता से, उसी तरह देख सकती थी, जिस तरह सर घुमा कर बची हुयी दुनिया देखा करती थी। शुरू में कभी घोखे से उसकी नजर बूढ़े की तरफ  चली गयी, तो उसने बूढ़े के लार सने होठों पर तिरछी मुस्कान, कामुकता और कुटिलता की अश्लील पर्त चढ़ी देखी। जाँघों के बीच रखा उसका हाथ देखा। वह भय और घृणा से सन गयी थी। तब पहली बार और उसके बाद कई बार, उसने अपने अंदर इस उफनती इच्छा को महसूस किया कि काश चौखट पर बैठा बूढ़ा ऊँघने लगे और चौथी मंजिल से गिर कर मर जाए या फिर वही उसे नीचे ढकेल दे। बूढ़ा शायद उसकी इस उफनती इच्छा या ढकेलने के इरादे को भाँप गया था, इसलिए जब भी वह चौखट पर बैठता, अपने बदन को कमरे के अंदर की ओर झुका कर तिरछा बैठता, जिससे कभी नींद में गिरे तो अंदर ही गिरे और अगर बुढिय़ा उसे बाहर ढकेलना चाहे, तो वह चौखट में फँस जाए।

कमरे में जब अंधेरा हो जाता, तब रोशनी की जरूरत होती। शुरू में यह सवाल टेढ़ा था कि कौन खिड़की से हट कर बत्ती जलाए और रोशनी करे। पर 12 साल पहले इन्होंने इस कठिन गुत्थी को बिना झगड़े के तय कर लिया था। बुढिय़ा ने अपने लिए तीन दिन और बूढ़े के लिए चार दिन तय कर दिए थे। बुढिय़ा ने अपने हिस्से में एक दिन कम रखा था। बूढ़े ने इस पर बहस नहीं की थी। दिन भी बुढिय़ा ने अपनी मर्जी से तय किए थे। इस पर भी बूढ़े ने बहस नहीं की थी। बुढिय़ा के हिस्से के तीन दिन वे थे, जो पचपन साल पहले उसने बूढ़े से संभोग करने के लिए चुने थे। इस काम को करने के लिए उसे पूरा अंधेरा चाहिए होता था। इस क्रिया के विमोचन से पहले कमरे की रोशनी वह खुद बंद करती और समापन के बाद खुद खोलती थी। बुढिय़ा तब से ही सिर्फ  तीन दिन रोशनी करने की आदी थी। बूढ़ा तब से ही एक दिन ज्यादा रोशनी करता चला आ रहा था। बुढिय़ा ने हफ्ते के जो तीन दिन चुने थे, उनके चुने जाने के पीछे भी कारण था। पचपन साल से भी पहले, उसका पहला प्रेमी, उससे इन्हीं तीन दिन उससे मिलता था। शाम को वह उसके कॉफी हाउस में आता। उसे क्रीम वाली कॉफी का आर्डर देता। जूक बॉक्स में चवन्नी डाल कर जूक बॉक्स पर 'यू आर द क्रीम इन माई कॉफीगाने का रिकार्ड लगाता और सुनता। तब पके हुए भुट्टे की तरह गठी, चमक और ताजगी से भरी देह वाली बुढिय़ा को देखते हुए, एक के बाद दूसरी, तीसरी कॉफी पीता। ज्यादा क्रीम डलवाता और हर कॉफी के साथ यह गाना सुनता। बाद में, जब वे ढलान पर बने हरी घास वाले उस कब्रिस्तान के खंडहर में मिलने लगे, जो नदी किनारे खत्म होता था, और जहाँ जैतून के पेड़ के नीचे, बुढिय़ा उसको चुबंन देने और लेने लगी, और उसके जिद करने पर, कि वह रोज काफी हाउस क्यों नही आता, खासतौर से तब, जब उसकी विधवा मालकिन अपने बेटी के घर दोपहर का खाना खाने जाती है और दो घंटे सोने के बाद लौटती है, तब उसके प्रेमी ने बताया था कि वह टूटे हुए सितार बनाने वाली दुकान में काम करता है, और टूटा सितार बनाने के लिए संगीत का ज्ञान जरूरी है, इसलिए चार दिन वह संगीत सीखने गुरू के पास जाता है, इसलिए नहीं आ सकता, और शाम से पहले इसलिए नही आ सकता, क्योंकि उसका मालिक भी, दोपहर को खाना खा कर सोता है और दुकान की जिम्मेदारी उस पर होती है। बाद में जब बुढिय़ा ने बूढ़े से शादी की और अपाहिज ईश्वर और दीमक खाए धर्म ग्रंथों के पवित्र और नैतिक नियमों से प्रेरित हो कर, हफ्ते में सिर्फ  तीन दिन संभोग करने का व्रत लिया, तब इसके लिए उसने अपने पहले प्रेमी से मिलने वाले तीन दिन चुने। पिछले 12 सालों में कमरे में रोशनी करने की ही एक बात थी, जिस पर उनमें कभी झगड़ा नहीं हुआ। जैसे ही दिन का पीलापन स्लेटी और फिर सुरमई हो कर गाढ़ा होना शुरू होता, और नीचे सड़क पर खाना बनाने वालों के चूल्हों से धुँआ उठने लगता, और दर्द दूर करने वाली दवाएं खा कर वेश्याएं सजने संवरने लगतीं, उनके कमरे में रोशनी हो जाती।

बाहर के अंधेरे से इन खिड़कियों को देखने पर, इस रोशनी में उन दोनों के अलावा कमरे में और बहुत सी चीजें दिखायी देने लगतीं। ये चीजें उनकी पुरानी, ठहरी और अब एक मामूली, सस्ती जिंदगी और उसके बीत चुके बहुत से खुशहाल और बदहाल दिनों के बारे में बतातीं। बाहर से उस पुरानी, बड़ी और बहुत सी खिड़कियों वाली बदरंग इमारत केे ढाँचे के अंदर सबसे पहले उनका बड़ा, चौकोर कमरा दिखता। पुराने बैठकखानों की तरह बनी उसकी ऊँची छत दिखती। छत के नीचे दीवारों के ऊपरी हिस्सों पर कई रोशनदान दिखते जिनमे कुछ के शीशे और रस्सी खींचने के लिए बनी घिर्रियाँ टूट चुकी थीं। बारह साल पहले रोशनदान जैसे रह गए थे, वैसे ही पड़े थे। इन टूटे शीशों से सर्दियों की ठंडी हवा, कुहासा, बारिश की बूंदें, थोड़ी धूप, आँधी में टूटे पत्ते और झांकता हुआ बंदर दिख जाता था। खिड़की से बिल्कुल सामने दिखने वाली बड़ी दीवार सपाट, चौड़ी और सीलन भरी थी। उसकी पपड़ी आठ जगह उखड़ी थी जो चोट की तरह तितिलियों, तीन तरह के फूल और एक तिलचट्टे की शक्ल बनाती थीं। दीवार के नीचे वाले हिस्से में फायर प्लेस बना था। 12 साल से फायर प्लेस के अंदर आग नहीं जली थी। धुँआ निकलने वाले रास्ते पर कबूतरों ने घर बना लिए थे। उस रास्ते से नीचे उतर कर अक्सर वे फायर प्लेस में आ जाते, जहाँ से कमरे में घूमते थे। मेन्टलपीस पर दवाओं की शीशियाँ, घड़ी, नेल कटर, रबर बैंड, कागज का पैड, पेन स्टैंड, नकली फूलों का गुलदस्ता, गाँधी के तीन बंदर, ग्लोब, अगरबत्ती के दो पैकेट रखे थे। मेन्टलपीस के ऊपर का दीवार पर रेम्ब्रा, गोया, सल्वाडोर डाली और पिकासो के चित्रों के डुप्लीकेट लगे थे। इन्हें बुढिय़ा शादी में अपने साथ लायी थी। कॉफी हाउस की मालकिन ने काफी हाउस की दीवार से उतार कर उसे उपहार में दिए थे। इन्हीं चित्रों के साथ कांच के फ्रेम में दो सर्टिफिकेट जड़े थे। एक बुढिय़ा का था, जो उसे 'रेड क्रासने दिया था, जब सितार वाले प्रेमी के चले जाने के बाद आए एक भूकम्प में, उसने घायल लोगों की मदद के लिए रक्त इकठ्ठा किया था। एक सर्टिफिकेट बूढ़े का था, जो उसे जिला स्तर पर कुश्ती का मुकाबला जीतने कि लिए किसी टुच्ची संस्था ने दिया था।

फायर प्लेस के दोनों तरफ  बर्मा टीक के बने पलंग पड़े थे, जो उस पेड़ को काट कर बनाए गए थे, जब बर्मा भारत में शामिल था और पेड़ भारत में था। 12 साल पहले तक दोनों पलंग जुड़े हुए थे बूढ़ा और बुढिय़ा सर्दियों में फायरप्लेस में आग जला कर, इस पलंग पर प्रेम करते थे। अब वे अलग थे। दोनों पलंग के सिरहाने एक छोटी मेज रखी थी। दोनों मेजों पर उनके अलग अलग सामान रखे थे। बूढ़े के सिरहाने वाली मेज पर चश्मा, किताब, हिसाब किताब की डायरी, दांत खोदने की तांबे की सुई, चूरन की शीशियाँ और टार्च थी। बुढिय़ा के सिरहाने वाली मेज पर प्रार्थना की छोटी किताब, क्रीम, टार्च, आँख में डालने वाली दवा और चश्मा था। सोने से पहले दोनों अपने अपने पलंग पर देर तक बैठे रहते। बूढ़ा अपनी हिसाब किताब की डायरी में लाशों का हिसाब करता रहता। बुढिय़ा पुरानी तस्वीरों के एलबम में उस भेड़ की तस्वीर देखती जिसकी पीठ पर लाल पेंट से 'आई लव यूलिख कर कॉफी हाउस के बाहर उसके प्रेमी ने अपने प्रेम का इज़हार किया था। बुढिय़ा जब भेड़ देखती, अपनी अस्थि मज्जा तक में धँसा गाना 'यू आर द क्रीम इन माई कॅाफीगुनगुनाती, जो लाशों का हिसाब करते हुए बूढ़े के कानों के पास भनभनाती मक्खी की तरह उसे परेशान करता रहता।

इस बड़े कमरे के साथ एक दूसरा कमरा भी दिखता। यह कमरा पूरा एक साथ नहीं बल्कि हिस्सों में दिखता था। इसके एक हिस्से में बड़ी मेज दिखती थी जिसका टॉप हरे मोजै़क का बना था। इस मेज पर गैस का चूल्हा, बरतन, चाय की पत्तियाँ, पानी की बोतलें रखी थीं। साथ की दूसरी मेज पर छोटे डिब्बों में अनाज रखे थे। दूसरे हिस्से में दीवार में बनी अलमारी दिखती थी। दीवार में एक बिना पल्लों वाली अलमारी थी जिसमें पुराने अखबार, ताश की गड्डी जिसमें सिर्फ  तीन इक्के थे, बिना चिमनी की लालटेन, पहाड़ी नदी में मिलने वाले 3 गोल पत्थर, चूहेदानी, बाल्टी, सैंडिल, हथौड़ी, तबला, बड़ा पर्स, प्लास्टिक के फूल और टूटी बाँह वाली वीनस की मूर्ति रखी थी। एक हिस्से में स्टैंड पर लटके कपड़े, कूड़े की टोकरी, मेज, कुर्सी, फर्श पर रखे जूते चप्पल दिखते।

उन दोनों के अलावा घर में एक औरत दो बार आती। सुबह और फिर शाम को। जब वह घर में आती तब खिड़कियाँ खाली रहतीं। खिड़कियों से वह अंदर काम करती दिखती। बुढिय़ा तब उसके साथ साथ घूमती या उसके आसपास रहती। बड़बड़ाती, हिदायतें देती उसकी मदद करती या तेज और ऊँची आवाज में देर तक बोलती रहती। 12 साल पहले तक, काम वाली के आने के समय बूढ़ा घर से निकल जाता था, या यूँ कहा जा सकता है, काम करने वाली यह कोशिश करती कि उसके जाने के बाद ही वह घर में आए, जिससे कि बूढ़े की पैनी और परेशान करने वाली चौकन्नी निगाहों, और उपस्थिति से बच कर असानी से काम कर सके। 12 साल पहले के और 12 साल पहले से, यह औरत उनके घर में काम कर रही थी या उनके साथ निबाह रही थी। दो बार गुस्से में उसने काम छोड़ दिया था। एक बार बुढिय़ा ने उसे हटा कर दूसरी औरत रख ली थी। पर वह रूकी नहीं। बूढ़े की लोलुप और बुढिय़ा की चौकन्नी निगाह, कर्कश आवाज और पागलपन की हद तक सफाई की खब्त से वह भाग गयी। दो दिन में ही बुढिय़ा को फिर उसी पुरानी औरत के घर जाना पड़ा। उसने उसे अपने दोनों के बुढ़ापे, अकेलेपन, पुराने संबध, और वक्त बेवक्त उसकी हर तरह से मदद करने की याद दिलायी। उसे भावनात्मक स्तर पर फुसलाया और तोड़ा जिसमें वह अनुभवी और कुशल थी। उसके रूपए भी बढ़ाए। तब वह पुरानी औरत काम पर लौटी। 12 साल से बुढिय़ा ने उससे लडऩा या उसके पास खड़े होना और बूढ़े ने उसके दैहिक भोग की कल्पनाओं और संभावनाओं पर विचार करना छोड़ दिया था।

इसके अलावा, बुढिय़ा की कुछ आदतें विचित्र और पुरानी थीं। उसे थूकने की आदत थी। खिड़की से सर निकाले हुए वह थोड़ी थोड़ी देर में थूकती रहती थी। हालांकि थूकने से पहले वह देख लेती थी कि नीचे सड़क पर कोई खड़ा न हो, पर कई बार ऐसा होता कि उसके देख कर थूकने के बाद अचानक कोई अंदर फुटपाथ से निकल कर सड़क पर आ जाता। तब हवा में आता हुआ थूक बिखर कर उसके सर पर गिरता। यदि थूक जमा हुआ थक्के की तरह होता, तो वह समझ जाता कि थूक है। गाली देने के लिए सर उठा कर देखता, तो चौथी मजिंल की खिड़की के बाहर लटकी बुढिय़ा का सर उसे दिखायी नहीं देता। बुढिय़ा भी अपना सर तब तक अंदर कर लेती। पर अक्सर ही नीचे तक आते हुए थूक छोटी बूंदों में बदल जाता। तब वह आदमी इसे बिजली के तारों पर रूकी पानी की बूँद समझता या आकाश में बेमौसम हुयी बारिश की बौछार और चुपचाप चला जाता। खिड़की पर बैठा बूढ़ा, बूढिय़ा के होठों से गिरते हुए थूक को आखरी तक देखता। उसे यह देख कर कौतूहल और कौतुक होता, कि थूक कितने अलग अलग तरीकों से गिरता है। थूक का अलग अलग तरीकों से गिरना मौसम, हवा, मूँह से निकलने की रफ्तार, थूक की मात्रा, गाढ़ेपन और खाए हुए खाने पर निर्भर करता। थूक कभी टूटी पत्ती की तरह, कभी चिडिय़ा के टूटे पंख की तरह, कभी कटी पतंग की तरह और कभी आलाप के अवरोह की तरह गिरता। बुढिय़ा की थूकने की आदत से बूढ़े को शुरु से नफरत थी। पर जिस तरह उसने बुढिय़ा के तीन दिनों को लेकर कभी झगड़ा नहीं किया, उस तरह थूकने को लेकर भी नहीं किया। तीन दिनों की तरह, इसमें भी उसका स्वार्थ और आनन्द शामिल था। शादी से पहले उसने बुढिय़ा से इतना ज्यादा थूकने का कारण पूछा था। बुढिया ने तब बताया था कि यह उसकी माँ की वजह से है, जो उसे एक टूटी कठपुतली के साथ छोड़कर काम करती रहती थी। तब वह कठपुतली के भूखा होने पर उसे दीवार का चूना चटवाती थी। बाद में खुद भूख लगने पर चूना चाटने लगी। माँ जब उसे देखती, तो चूना चाटने का शक दूर करने के लिए उससे थूकने को कहती। थोड़ी थोड़ी देर में वह चूना चाट ही लेती और माँ उससे थूकने को कहती। नतीजे में बचपन से ही बुढिय़ा के पूरे मानसिक और भावनात्मक तंत्र में थूकना दर्ज हो गया। समय के साथ यह उसके अवचेतन और अचेतन में भी चला गया। पचपन साल पहले बूढ़े को लगा था कि वह उसकी इस आदत को छुड़ा सकता है। एक दिन उसने बुढिय़ा को इसके लिए टोका और छोडऩे के लिए समझाया। एक होम्योपैथी दवा के बारे में भी बताया जो ऐसी लतों को छुड़ाने के लिए मशहूर थी। काली मंदिर के पास तहखाने में बैठने वाले, और देश के बटवारे में अपने साथ सिर्फ  दवाओं की पेटी और पुरखों के पुराने नुस्खे लेकर ढाका से भागने वाले बंगाली डाक्टर के पास खुद ले चलने की बात की। बुढिय़ा ने चुपचाप सब सुना। उस रात, काम क्रिया के विमोचन से पहले, जब बूढ़े ने बुढिय़ा के होठों को चूसने की कोशिश की, तो बुढिय़ा ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। बूढ़े ने जिद या जर्बदस्ती की, तो बुढिय़ा ने उसके होठ से अपने होठ सटा कर ढेर सा थूक बूढ़े के मुँह में उगल दिया। उत्तेजना में बूढ़ा उसको पी गया था। बुढिय़ा की ज़िद और आंनद के वशीभूत होने पर, उसने बुढिय़ा की थूक से सनी बान को देर तक चूसा था। उस रात के बाद फिर कभी बूढ़े ने बूढिय़ा को थूकने के लिए नहीं टोका, सिवाय 12 साल पहले तब, जब बुढिय़ा ने उसे बताया कि वर्षों से लगातार इतना थूकते रहने से उसके मुँह में लार बनना बहुत कम हो गयी है, और जो बनती है थूक के साथ बाहर निकल जाती है, नतीजे में उसकी जीभ और गालों में छाले बने रहते हैं जो भरते नहीं। बुढिय़ा ने यह भी बताया था, कि उसे तेज मसाले, खट्टी या मिर्च वाली चीजों से बहुत तकलीफ  होती है। तब बूढ़े ने एक बार फिर उससे इस आदत को छोडऩे की कोशिश करने को कहा था, और उस बंगाली डाक्टर के मरने के बाद, उसके लड़के के पास, जो डाक्टर के जीवित रहने तक समय दवाओं की पुडिय़ा बनाता था, और मरने के बाद खुद डाक्टर हो गया था, खुद लेकर चलने की बात की। बुढिय़ा ने इसे चुपचाप सुना पर गयी नहीं। पर बुढिय़ा ने थूकना नहीं छोड़ा। अब बूढ़ा जब उसके गिरते हुए थूक को देखता तो उसे अक्सर यह भी लगता कि कोहरे में निकलने की कोशिश करते हुए सूरज की लाली जैसा ही कुछ उसके थूक में रहता है। बूढ़ा गिरते हुए थूक और उसमे झिलमिलाती लाली को सिर्फ  बिजली के तारों तक देख पाता। उसके बाद सब बिखर जाता। बुढिय़ा थूक में सनी इस लाली से बेनिया, निर्विकार, निर्लिप्त होकर बाहर देखती रहती। उसे या तो इसके बारे में पता नहीं था या फिर वह चुपचाप इसे स्वीकार और बर्दाश्त कर रही थी। जानबूझ कर इसकी उपेक्षा कर रही थी। अपना दर्द या दुख बता कर वह बूढ़े को खुश होने का या सहानुभूति दिखा कर महान बनने का या मदद करने का मौका नहीं देना चाहती थी।

  थूकने के अलावा, दुनिया की हर औरत  की तरह बुढिय़ा भी छिपकली से डरती थी या फिर घिन से भर जाती थी या शायद दोनों मिले जुले भाव साथ होते थे। इनके साथ विवशता भी शामिल रहती थी। ये सब भावनाएं वैसी ही थीं, जैसे हत्यारे राजा के शासन में कमजोर, बेबस और मजबूर प्रजा के मन में राजा के लिए होती हैं। छिपकली देख कर बुढिय़ा का चेहरा पीला पड़ जाता था। साँस रूकने लगती। तब वह तेज आवाज में, बिना आँसू बहाए रोती हुयी, शादी के कुछ साल बाद मर चुकी माँ, और उससे बहुत पहले मर चुके बाप को याद करती हुयी विलाप करती, कि मेरा दुनिया में कोई नहीं है। 'हाय...माँ...हाय.. बाबा... बस तुम थे तुम भी छोड़ गए। बूढ़ा कभी समझ नहीं पाया कि छिपकली देख कर उसे मरे हुए माँ बाप क्यों याद आते हैं? शादी की पहली रात बूढ़ा कभी नहीं भूला था। ठीक उसी समय, जब कड़ी सर्दी वाली रात में, फायर प्लेस में आग जला कर, जुड़े हुए पलंग पर दोनों निर्वस्त्र थे और बुढिय़ा बूढ़े की नाक की नोक को अपनी जीभ की नोक से सहला रही थी, बुढिय़ा की खुली आँखों ने संगमरमर की नंगी मूर्ति की छातियों के बीच से निकलती हुयी चितकबरी छिपकली को देख लिया। बूढ़े को ढकेल कर चीखती हुयी वह पलंग से कूदी और कमरे के दूसरे कोने में खड़ी होकर थर थर काँपने लगी। वह इतना डर गयी थी कि उसे सर्दी और अपनी नग्न देह का भी बोध नहीं था। तब पहली बार उसने विलाप करते हुए अपने माँ बाप को याद किया था। उत्तेजित बूढ़ा बेबसी, क्रोध और आवेग में पलंग से उठ गया था। कमर में बाँधने वाली चमड़े की पेटी से उसने दीवार पर चिपकी छिपकली पर वार किया था। छिपकली तो भाग गयी पर उसकी दुम कट कर गिर गयी थी। देर तक फर्श पर कटी दुम फडफ़ड़ाती रही थी। कोने में काँपती बुढिय़ा उस नाचती हुयी दुम को आश्चर्य और भय से देखती रही थी। बाद में जब बूढ़े की तरफ  से इकतरफा और जर्बदस्ती की गयी रति क्रिया सम्पन्न हो गयी और छिपकली की कटी दुम ठंडी हो गयी, बूढ़े ने उस दुम को, अपनी सुहागरात की स्मृति के तौर पर चाँदी की उस डिबिया में, जिसमें बुढिय़ा ने उसे पहले प्रेमी के लिए लायी हुयी कलाई में बाँधने वाली घड़ी दी थी, रख लिया था। उस रात, फायर प्लेस की आग की रोशनी में प्रेम करते समय बूढ़ा देख रहा था कि बुढिय़ा की आँखों की पुतलियाँ तेजी से दीवारों पर घूम रहीं हैं। उसका पूरा ध्यान कटी दुम वाली छिपकली पर था जिसे बदला लेने के लिए जरूर आना था। बीच बीच में जब बूढ़ा उत्तेजना में कुछ फुसफुसाता तो उसे जवाब में बुढिय़ा की रिरियाहट सुनायी देती। उस रिरियाहट में कटी दुम, दुश्मन से बदला लेने की छिपकली की फितरत, मरे हुए माँ बाप और बूढ़े के बदन काटने से जन्मी कराह शामिल थी।

छिपकली कमरे में अक्सर आती थी या कि उस घर में रहती ही थी। बुढिय़ा जब भी छिपकली को देखती, विलाप शुरू कर देती। रात को जब मच्छर होते और छिपकली को अपना भोजन मिलता, वह जरूर निकलती। छिपकली के प्रति बुढिय़ा की अतिरिक्त सतर्कता और स्थायी रूप से उसके आने और बदला लेने के संदेह, शंका और भय के बने रहने से पैदा हुयी कामक्रीड़ा से विरक्ति के कारण, बूढ़े की कामोत्तेजना घटने लगी थी। वह बुढिय़ा की इन हरकतों से बुरी तरह ऊब चुका था। सच तो यह था कि बुढिय़ा के कारण उसके जीवन में भी छिपकली की उपस्थिति रहने लगी थी। उसने शुरू में कोशिश की, कि घर के किसी भी हिस्से में छिपकली न आ सके, पर वह उन्हें रोक नहीं सका, उसी तरह, जिस तरह हत्यारा राजा अपनी प्रजा के मन में अपनी मृत्यु की कामना नहीं रोक सकता। वह एक सौ तीस साल पुरानी इमारत थी जहाँ उसकी अलग-अलग मंजिलें समय के साथ बढ़ती गयीं। उस इमारत की सीलन भरी, चटकी दीवारों में छिपकली को सुरक्षा, भोजन, शरण सब मिलता था। पहली रात छिपकली की कटी, नाचती हुयी दुम बुढिय़ा की चेतना से कभी नहीं गयी। खासतौर से तब वह उसे जरूर याद आती, जब बूढ़ा उससे प्रेम शुरू करता। जैसे ही बूढ़ा बुढिय़ा को चूमता, छिपकली की संभावना में बुढिय़ा, अपनी चौकन्नी आँखें चारों ओर नचाना शुरु कर देती। उसने शायद ही कभी जीवन में आँख बंद करके काम सुख को सम्पूर्णता में अनुभव किया हो। बल्कि यह सब बने रहने से उसके अंदर इसकी रूरत महसूस होना ही बंद हो चुकी थी। बुढिय़ा की इस कुदरती भूख या इच्छा को छिपकली की आशंका और आतंक ने चाट लिया था, उसी तरह, जैसे हत्यारा राजा, प्रजा के उत्साह, आनंद और इच्छाओं को चाट लेता है। पर बूढ़े में काम की यह आग शुरू से ही कुछ ज्यादा तेज थी। कभी भी, कहीं भी सुलग पडऩे वाली। उधर छिपकली की वजह से, बुढिय़ा धीरे धीरे कामुक चेष्टाओं में उबाऊ और निर्जीव होती चली गयी। धीरे धीरे बूढ़े के अंदर बुढिय़ा के लिए प्रेम की जगह पहले विरक्ति, फिर ऊब, फिर घृणा की हदों को छूने वाली भावनाएं फैलती चली गयीं। समय के साथ दूसरी बातें, जो वैसे मुख्य नहीं थीं, इन भावनाओं की तीव्रता बढ़ाती गयीं, उसी तरह, जैसे हत्यारे राजा के अलावा उसके साथ रहने वाले उसके नुमाइन्दे, सामन्त, जो मुख्य नहीं होते पर राजा के विरूद्ध प्रजा की भावनाएं बढ़ाने में मदद करते हैं। प्रतिक्रियास्वरूप बुढिय़ा के अंदर भी बूढ़े के लिए ऐसी ही भावनाएं पैदा होने लगीं। पर उसके कारण दूसरे थे। 

हुआ यह कि शादी के बारह साल बाद से बुढिय़ा को अचानक, बूढ़े की देह से बर्दाश्त न की जा सकने वाली दुर्गंध आने लगी। शुरू में बुढिय़ा को लगा कि यह किसी मरे चूहे या कुचले हुए तिलचट्टे या चीटियों द्वारा खा लिए छोटे साँप के बचे रेशों की गंध है। बूढे के काम पर निकलने के बाद वह नाक से गहरी साँस लेती हुयी पूरे घर में घूमती। अलमारियों, दीवारों के कोनों पर रखे पुराने सामान, तस्वीरों के फ्रेम, घर तक आने वाली टूटी सीढिय़ों की दरारों तक में नाक घुसेड़ कर दुर्गंध का स्त्रोत ढूंढती रहती। पर गंध कहीं नहीं होती। उसने बाद में ध्यान दिया कि बूढ़े के घर में घुसते ही दुर्गंध आती है और बाहर जाते ही कम हो जाती है। उसने इस पर भी ध्यान दिया, कि बाहर से आने के बाद, जब बूढ़ा चमेली के खुशबूदार साबुन से नहाता और बेला की खुशबू वाला पाउडर लगाता और एक बड़े मग में तीन चौथाई बियर और एक चौथाई नींबू का शर्बत मिल कर 'शैंडीबनाता और मग लेकर खिड़की की चौखट पर बैठ जाता, और उगते हुए चाँद के आगे से निकलते हुए भूखे चमगादड़ों के झुँड को खेतों की ओर जाते देखता हुआ घूँट भरता, और तेज आवाज के साथ चटखारे लेकर बुढिय़ा को कामुक निगाहों से घूरते हुए अश्लील संकेत देता, तब दुर्गंध बहुत कम हो जाती। जिस तरह लहसुन खाने वाला नहीं जानता कि उसकी साँस ही नहीं , उसकी देह के हर छिद्र, हर रोम से हमेशा तीखी गंध निकलती रहती है, उसी तरह बूढ़ा नहीं जानता था कि उसकी देह से हर समय दुर्गंध आती है, जब तक कि बारह साल पहले, बुढिय़ा ने उसे यह नहीं बताया। सुन कर बूढ़ा चुप रहा था। बूढ़े ने उससे उसी तरह कोई बहस नहीं की, जिस तरह बुढिय़ा के तीन दिन चुनने पर, थूकने पर और छिपकली को देख कर विलाप करने पर नहीं की थी। वह जानता था कि बुढिय़ा उसे अपमानित नहीं कर रही है बल्कि सच कह रही है।

हुआ यह था कि शादी के बारह साल बाद बूढ़े ने घोड़ों के लिए चमड़े की काठी बनाने का अपना धंधा बदल दिया था। दुनिया में धीरे धीरे घोड़ों का और नतीजे में घोड़ों पर कसने वाली चमड़े की काठी का चलन कम होता गया था। घटती आमदनी की वजह से बूढ़े को किसी नए काम की तलाश थी। थोड़ी खोज बीन, भाग दौड़ और सलाह मशवरे के बाद उसने काठी बनाने की जगह, मुर्दों के क्रिया कर्म और उसके बाद के कर्मकांडों का ठेका लेने का काम शुरू कर दिया था। वह काठी के लिए चमड़ा खरीदता था, इसलिए लाशों की दुनिया से उसका पुराना सम्पर्क और परिचय था। मुर्दार जानवरों की दुनिया के हर पहलू से उसका पुश्तैनी और पुराना रब्त जब्त था। बचपन से ही चमड़े को पहचानने, उसकी असली कीमत तय करने, उसे छू कर और सूंघ की परखने की जरूरत ने, उसे धीरे धीरे पहले लाशों और फिर मृत्यु के प्रति ही एक दार्शनिक, स्वार्थ, विवेकी विरक्ति से भर दिया था। बूढ़े ने जब नया काम तलाशने की बात सोची, तो जानवरों की लाशों और चमड़े का काम करने वाले उसके हमदर्द साथियों ने उसे जानवरों की जगह इंसानी लाशों से जुडऩे और उनकी अंत्योष्टि के सारे काम करने के ठेका लेने की सलाह दी। उन्होंने देशी ठर्रे का घूँट लेते हुए उसे समझाया, कि जिस तेज रफ्तार से इंसान मर रहे हैं और उनका मरना बढ़ रहा है, इंसानी लाशों से जुडऩेे का काम भी उसी रफ्तार से बढ़ेगा। समझाया कि चमड़े की काठी का तो विकल्प संभव था, पर मुर्दों की अंत्येष्टि का कोई विकल्प नहीं है। यह भी समझाया, कि पहले लोग घर के मुर्दे से मुहब्बत करते थे, इसलिए उनके सब काम अपने हाथों से करते थे। पर अब वे चाहते हैं कि मरने वाले से दूर रहें और दूसरा कोई उसके सारे आखरी काम पूरा करने की जिम्मेदारी ले ले। उन्होंने बूढ़े की हिचकिचाहट देखकर हरी मटर तलवायी और बूढ़े को खिलाते हुए फिर समझाया, कि मर जाने के बाद हर इंसान सिर्फ  लाश होता है और कुछ नहीं, इसलिए बूढ़े को यह नहीं सोचना चाहिए कि क्या अच्छा है क्या बुरा, या यह, कि लाश का धर्म क्या है, जाति क्या है, किसकी है, कहाँ से आयी है? उन्होंने इस काम का मजबूत आर्थिक पक्ष समझाने के लिए बूढ़े को बताया कि हजारों सालों से, दुनिया के हर हिस्से में, हर धर्म में, कुछ न कुछ पूरी तरह बदला या खत्म हो गया, पर मुर्दे का अंतिम संस्कार करना नहीं बदला। जब तक जिंदा इंसान है, मुर्दा इंसान भी रहेगा। उसकी लाश को बर्दाश्त न कर सकना भी रहेगा और उसे तत्काल हटा देने के लिए अंत्येष्टि के जटिल काम भी रहेंगे। उन्होंने बूढ़े को यह भी बताया, कि इस धंधे में अभी कोई मुकाबले में नहीं है, इसलिए बूढ़े का काम घोड़े की तरह सरपट दौड़ेगा। बूढ़ा काठी और घोड़ों से मुहब्बत करता रहा था। उनके साथ रहा था। यह सुन कर, कि मुर्दों की अंत्योष्टि का ठेका लेने पर भी किसी न किसी रुप में घोड़े से जुड़ा रहेगा, वह तैयार हो गया।

बूढ़े को मुर्दों के साथ श्मशान घाट या कब्रिस्तान या कभी कभी अस्पताल के मुर्दाघर में भी रहना पड़ता था। शुरू में बूढ़े को यह दिलचस्प लगता था कि धर्म के निर्देशों और नियमों से जिंदगी जीने वाले इंसानों के लाश हो जाने के बाद भी, धर्म के हिसाब से उनके बीच बड़ा बँटवारा या कि फर्क था। बूढ़ा धर्म की गंदगी में कभी नही धँसा था, पर उसने देखा था कि मुर्दे का धर्म बूढ़े के काम और कमाई में बड़ा फर्क डालता था। हालांकि काम उसे कम मिलता, पर वह मुसलमानों के मुर्दे ज्यादा पंसद करता था। वहाँ इंतजाम छोटा, कम समय का और आसान होता था। अक्सर तो घर वाले सब काम खुद ही कर लेते थे। ज्यादातर गरीब होते। उनके लिए बूढ़े का खर्च उठाना मुश्किल था। फिर भी, कभी कभी कोई अकेला या बीमार होता तो उसे बूढ़े की रूरत पड़ती। गुस्ल, कफन, ताबूत, जनाा जनाज़े की भीड़, कब्रिस्तान में कब्र तैयार करने और उसके दफनाने के बाद कब्र पर किसी छत की तामीर करना या पत्थर लगवाने तक का इंतजाम बूढ़ा कर देता था। मुसलमानों से भी कम जरूरत ईसाइयों को होती थी। वहाँ चर्च आगे बढ़ कर सारे काम व्यवस्थित ढंग और अपनेपन से कर देता था। बूढ़े के लिए वहाँ काम और पैसों की गुजांइश बहुत कम होती थी। बूढ़े की असली कमाई और असली काम हिंदुओं के मुर्दों से चलता था। वहाँ बूढ़े की बहुत माँग थी। मुर्दे की अर्थी का सामान खरीदने से लेकर बनारस या हरिद्वार या संगम में अस्थि या राख विसर्जन तक का काम लोग बूढ़े से करवाते थे। घर पर कुटिल व संवेदनाशून्य महापात्र को बुला कर मुर्दे पर तुलसीपत्र और गंगाजल डालना, अर्थी तैयार करना, वहाँ कुछ कर्मकांड, मुर्दे को श्मशान घाट ले जाना, घाट पर मुर्दे के शरीर और वजन के हिसाब से चिता के लिए सूखी लकड़ी का इंतजाम करना, चिता का सारा सामान जुटाना, महापात्र और डोम का प्रबंध, बाद मे चिता से अस्थियाँ और राख चुनना, फिर तेरह दिन तक पिंडदान के लिए घर वालों को रोज घाट के पास पिंडदान के लिए बनाए गए बड़े कमरे में ले जाना, वहाँ अनाजों, धातु की आकृतियों, पत्थरों के साथ जटिल, थकाने और पैसा उगलवाने वाले कर्मकांड करवाना, फिर तेरहवीं के खाने का इंतजाम करना, खाने के लिए सत्रह ब्राह्मणों का इंतजाम करना और अंत में घर में शुद्धिपाठ और हवन करवाना।

बीमारियों के मौसम में अक्सर बहुत लोग एक साथ मर जाते थे। इतने अधिक, कि श्मशान घाट की जमीन पर घंटों मुर्दे अपनी अपनी अर्थियों में पड़े रहते, खासतौर से गरीब मुर्दे। एक चिता से छूती हुयी दूसरी चिता जलती। अक्सर एक चिता की लपटें दूसरी चिता की लपटों में मिल जाती। देर से आने वाले अक्सर गलत चिता में शामिल होकर गमगीन चेहरे से मुर्दे के अच्छे दिन, उसके मन की बात और उसके कामों के बारे में आपस में फुसफुसाते हुए बात करते। मुर्दे इतने अधिक होते कि डोम, महापात्र घाट पर घूमते कुत्ते, नदी की कीचड़, चिताओं के धुएं, पेड़ों के पत्ते भी, ज्यादा लहसुन खाने वाले व्यक्ति की तरह मुर्दा शरीरों की दुंर्गध उगलते रहते। ज्यादा मुर्दों की वजह से बूढ़े को वहां ज्यादा रहना पड़ता। ज्यादा रहने की वजह से उसके शरीर में उसकी अपनी गंध खत्म होकर मुर्दे की गंध रहने लगी थी।

सिर्फ  दुर्गंध ही नही, उसके देखनें, बोलने के तरीके में, बल्कि आवाज तक में, जीवन के प्रति एक खास तरह की हिकारत या विरक्ति या उपेक्षा या उदासी पैदा हो चुकी थी। उसने मन, दिमाग और सोच तक में मृत्यु की अनिवार्यता से जन्मी विरक्ति, वर्तमान से मुक्ति की कामना, पेशेवराना रवैय्ये की क्रूरता और कठोरता शामिल हो गयी थी। धीरे धीरे उसे मुर्दों से सहानुभूति भी होने लगी थी। जीवित व्यक्ति से अधिक आत्मीयता से वह मुर्दे को देखता था। उसमें जीवन का सत्य और अंत देखता था। कई बार भावुकता में उसकी आँखों में आँसू आ जाते। वह कोशिश करता कि मुर्दे को किसी तरह की तकलीफ  न हो। इसके लिए वह जीवित व्यक्तियों को प्रताडि़त करने और दुत्कारने और लूटने खसोटने को बुरा नहीं मानता था। नतीजे में उसने कुटिलता और कपटी उदासी का अच्छा अभ्यास कर लिया था। लोगों को चूसने के लिए कर्मकांड के नियम याद कर लिए थे। उसने देखा था कि लाशों पर लोगों का भावनात्मक दोहन बहुत आसान था। संवेदना न होते हुए भी, वे मरने वाले के लिए विलाप करते थे। मुर्दे की निरर्थक अंतिम इच्छा को कष्ट उठा कर पूरा करते थे। कर्मकांड के शोषण को सर झुका कर स्वीकार करते थे। यह सब करते हुए वे आत्मरति के सुख और आत्म सम्मोहन के अंहकार में जीते रहते। वे कर्मकांड की किसी मूर्खता या धूर्तता पर प्रश्न नहीं करते थे। किसी स्वंाग पर शंका या उसे करने से इंकार नहीं करते थे। बल्कि सब कुछ कृतज्ञ भाव से करते। शाम को जब बूढ़ा, शमशान घाट के किनारे बनी पंडों, मल्लाहों, नाव मरम्मत करने वालों, और वेश्याओं, भिखारियों, ठेले वालों के कच्चे पक्के मकानों में से किसी एक में महापात्र या डोम या चिता की लकड़ी बेचने वाले या घाट पर मुर्दे के मरने का प्रमाण पत्र देने वाली सरकारी बाबू के साथ, सूखी नदी के किनारे निकली ताजी दारू, वहीं से खोदी हुयी ककड़ी और खीरे के साथ पीता, तो उस अपाहिज ईश्वर के नाम पर पहला गिलास पीता, जिसने ऐसे जगत में उसके धंधे को कामयाब किया जहाँ ढोंग, कुटिलता, मक्कारी, स्वार्थ, शोषण, नीचता, लाश पर शोषण करना धर्म, कर्मकांड या कि मनुष्य के जीवन का हिस्सा था। जहाँ इन सब बुराइयों का महिमा मंडन था, अनुपालन था, दासता थी। जहाँ इनका चुनौतीविहीन साम्राज्य था और जो हजारों सालों से चला आ रहा था और जिसमें कभी कोई परिवर्तन नही हुआ था। वहाँ कभी कोई क्रांति नहीं हुयी। कोई सुधार नहीं हुआ।

शादी के बारह साल बाद बूढ़े की जिंदगी में यह सब शुरु हुआ और धीरे धीरे बूढ़े की जिंदगी में और घर के अंदर पसरता चला गया था। शादी के बारह साल बाद से ही, उसके अंदर बुढिय़ा के लिए भी, पकी हुयी मिट्टी की तरह भावनाएं और नकारात्मक दृष्टि मजबूत होती चली गयी थी, जो बारह साल पहले अपने चरम पर पहुँच गयी थीं। बारह साल पहले से और थोड़ा पहले से बूढ़े के शरीर की बढ़ती दुर्गंध, उसकी नजरों की हिकारत, आवाज की ठंडक, कभी कामुक तो कभी अपमानित करने वाली और भविष्य के लिए कमीनेपन से भरी किसी योजना के सोच से भरी तिरछी मुस्कराहट ने, बुढिय़ा को भी खिड़की की तरफ  ढकेलना शुरु कर दिया था। बूढ़े के घर में रहने पर तो निश्चित ही, और फिर बारह साल पहले से, उसके न रहने पर भी, बुढिय़ा घर की दीवारों की तरफ पीठ करके रहने लगी थी।

बारह साल पहले से वह घर की दोनों खिड़कियों में से किसी भी खिड़की पर खड़ी हो जाती थी। पर जब बूढ़े ने शराब की वजह से लिवर खराब रहने, हीमोग्लोबिन कम बनने और बिजली की भट्टी में मुर्दों का जलना प्रचलन में आने की वजह से, काम करना बहुत कम कर दिया, तो उसने भी खिड़की की चौखट पर बैठ कर बाहर देखते हुए समय बिताना शुरु कर दिया। बुढिय़ा ने तब अपनी खिड़की अलग चुन ली। उसकी जिदंगी में खिड़की इसी तरह शामिल हो गयी जैसे घाव पर मक्खी या प्रेम में चुबंन शामिल हो जाता है। चौखट पर झुकी वह नीचे सड़क पर गुजरती दुनिया को गहरे लगाव, उत्सुकता और कभी बेनियाी से देखती रहती। 12 साल पहले हिम्मत करके, दीवार का सहारा लेकर, कभी सीढियों पर बैठते हुए भी चार मंजिल की सीढिय़ाँ उतर जाती थी। तब चढ़ते और उतरते समय उसके घुटने आवाज नहीं करते थे। वह इस बाहर की दुनिया में शामिल थी। इसमें रहती थी। पर समय और उमर के साथ, उसके लिए स्ीढिय़ाँ चढऩा उतरना कठिन होता गया। उसने कभी कोशिश की, तो घुटने के आसपास की खाल सूज गयी। धीरे धीरे उसने उतरना छोड़ दिया। अब बूढ़ा ही कम सही, पर वही बाहर की दुनिया में आता जाता था। उसके घुटनों में अभी जान थी। हालांकि ऊपर चढ़ कर आने के बाद वह देर तक कुर्सी पर बैठ कर गहरी साँसे लेता था। पीले पड़े हुए चेहरे का पसीना पोछता, कमीज के बटन खोल कर बिना बालों वाली छाती रगड़ता। बुढिय़ा आँखों के कोनों से उसे यह सब करते हुए देखती। उसे लगता कि उसका ध्यान और सहानुभूति पाने के लिए बूढ़ा यह नाटक कर रहा है। चाहता है कि वह उसके पास जाए। उसका हाल पूछे या उसकी छाती रगड़े, और जब वह यह सब करे, तो बूढ़ा छलाँग मार कर उसे बाँहों में जकड़ ले। उसे चूम ले। वह बूढ़े के कमीने शातिरपन को जानती थी। बारह साल पहले कई बार उसने इसी तरह बुढिय़ा के शरीर को दबोचा था। लिहाजा़ बुढिय़ा अपनी जगह बैठी चुपचाप देखती रहती। कुछ देर गहरी साँस लेने के बाद बूढ़ा उठता। पानी पीता। अपने लिए चाय बनाता और चाय लेकर अपनी खिड़की की चौखट पर इस तरह बैठ जाता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

हालांकि बुढिय़ा नीचे नहीं उतरती थी, पर इन बारह सालों से, बुढिय़ा खिड़की से एक ऐसी नयी, विराट और रहस्यमय दुनिया देख रही थी, जो नीचे जा कर, उसमे शामिल होने पर उसे नहीं दिखी थी। उसी तरह, जैसे नदी में रहते हुए  आदमी को जल नहीं दिखता। जल देखने के लिए नदी से दूर, किनारे पर खड़ा होना पड़ता है। बुढिय़ा के साथ यही हो गया था। चौथी मंजिल की ऊँचाई पर खड़े हो कर उसे दूसरे घर की खिड़कियों से घर के अलग हिस्से दिखते थे। उन हिस्सों में रहने वाले अलग अलग तरह के लोग दिखते थे, जो जिंदगी, अलग अलग तरह से जी रहे थे। यह जिंदगी अक्सर 'पापया 'बुरीकही जाती थी, इसलिए सबसे छुपा कर रखी गयी होती थी। यह छुपी या वर्जित या पापी जिदंगी, घर में एकांत पाने पर स्वतंत्र, नंगी और निर्भीक हो जाती। अपने कुछ देर मिले एकांत की स्वतंत्रता में लोग पूरी वहशत, तड़प और उत्तेजना के साथ इस जिंदगी को जीते। किसी भी दमन, अंकुश, ढोंग, आडम्बर, उपदेश, पवित्रता, नैतिकता से मुक्त अपनी नंगी आत्मा के नंगे नाच की मस्ती में डूबे हुए, उसे आखरी बूंद तक निचोडऩे की कोशिश करते। उतना ही नग्न, उत्तेजित और उन्मादी नाच, जैसा मरघट पर ताजे नरमुंडों को पहन कर प्रेत करते हैं। बुढिय़ा खिड़की से उनके नाच को देखती, जो कभी उसकी इच्छाओं, वासनाओं और अधूरी तृप्तियों में भी रहा था। अक्सर इससे अलग, बिल्कुल अलग, खिड़की से किसी की थक चुकी मृत्यु कामना, घनीभूत वीतराग, हताश, व्यर्थता बोध भी देखती, जो अब उसकी जिंदगी में भी शामिल हो रहा था। इन खिड़कियों में और इनके बाहर, मनुष्य जीवन, हजार पंखुडिय़ों वाले फूल की तरह खिला, फैला दिखता। इसमें धूप में जम्हाई लेकर अपनी छातियों को संभालती उदास लड़की थी, रात भर की जागी, थकी, टूटी चप्पल घसीटती, अपनी अंधेरी कोठरियों को लौटती बीमार वेश्याएं थीं, घुटने के दर्द से पाँव सीधा खींच कर देवताओं की मूर्ति धोते हुए पुजारी की विलाप करती पागल औरत थी, ग्रहण के दोष से बचने की दुआ देते पीली आँखों वाले भिखारी थे, पानी के नल पर बदहवास भीड़ थी, जुड़ चुकी हड्डी से निकाल कर फेंका गया प्लास्टर था, चटका, थरथराता हुआ आलाप था, चिमनियों से निकला और नीचे को टपकते काले रेशों से भरा धुँआ था। इन खिड़कियों में बहुत कुछ ऐसा भी था जो बुढिय़ा को आँखों से दिखता नहीं था, पर उसे अपनी देह की झुर्रियों पर और आत्मा की नमी में महसूस होता था। यह सब कई बार तो नाखून धँसा कर उसके अंदर झूलता हुआ होता था और कई बार जीभ निकाल कर उसे चाटता हुआ। ये पवित्र कामुकता थी, न चाहे गए भ्रूणों की बेचैनियाँ थीं, मृत्यु की आहट की अगवानी में गाए जाते उल्लास के गीत थे, धर्मगुरूओं की हिंसक कुटिलताएं थीं, घाव चाटता कुत्ता था, मरी हुयी गिलहरी थी। देर तक खिड़की पर खड़े रहने से बुढिय़ा को लगता कि वह ऐसी तितली की तरह है जिसकी खोपड़ी पर लगातार हथौड़े पड़ रहे हैं या शायद एक काले फूल की तरह है जिसकी पंखुरियाँ बिखर रहीं हैं। बुढिय़ा तब खिड़की से हट जाती। पलंग पर लेट कर 12 साल पहले खुद की बनायी, बड़े फूलों की कढ़ाई वाली कत्थई चादर से मुँह ढक कर स्मृतियों  में चली जाती।

बूढ़ा जितना लाशों की दुर्गंध में रहने लगा था, बुढिय़ा उतना ही स्मृतियों में रहने लगी थी। बुढिय़ा जब चाहती सुख या दुख की फूँक मार कर अपनी धुँधलाती स्मृतियों को मशाल की तरह रोशन कर लेती। आँखें बंद करके उनकी चमक, उष्मा और आलोक के अंदर चली जाती। सर्दियों की कुहासे भरी सुबह के बाद, धूप की हल्की सेंक के सुख की तरह, स्मृतियों में रहने का सुख उसकी बूढ़ी हड्डियों के हर रेशे में उतर जाता। बुढिय़ा की यह अंतिम शरण थी।

स्मृतियों के झुंड में तीन स्मृतियाँ उसे सबसे अधिक सुख देती थीं। पहली, टूटे सितार बनाने वाले अपने पहले प्रेमी की, दूसरी, पार्क में बैठी कुत्ते से खेलती और ग्राहक का इंतजार करती वेश्या की, तीसरी, गाँव के एकांत में अकेले पगडंडी पर चलते हुए भुलाए जा चुके लेखक की। ये तीनों स्मृतियाँ टुकड़ों में थीं। अक्सर एक स्मृति में दूसरी स्मृति चली जाती थी। बुढिय़ा ने इस पर कभी समय की धूल नहीं जमने दी थी, इसलिए वह इन्हें छाँट बीन कर, अलग करके सही जगह रख लेती थी। उसने इन्हें विस्मृति की थक्केदार काई से बचाए रखा था। आश्चर्यजनक रुप से उसकी किसी स्मृति में बूढ़ा नहीं था। उसके साथ बिताए क्षण नहीं थे।

पहली स्मृति उसके पहले प्रेम की थी, जो उसने अपने पके भुट्टे की ताजगी, चमक और गठन वाली देह से किया था, जो उस उम्र में, इसी काम के लिए बनी होती है। इसमें उसके छोटे शहर के एक पुराने घर के हिस्से में बना पुराना कॉफी हाउस था। कॉफी हाउस के ऊपरी हिस्से पर जाती घुमावदार लकड़ी की संकरी टूटी सीढिय़ाँ थीं। इन सीढिय़ों के अंधेरे और सन्नाटे में, लिए और दिए गए सीलन भरे चुम्बन थे। जूक बॉक्स था। 'यू आर द क्रीम इन माई कॉफीकी महक थी, गली के तीन गली बाद, बरगद के पीछे टूटे सितार बनाने की दुकान थी। उसके छोटे कमरे में रखे टूटे सितार थे, सितारों के तारों पर लिए और दिए गए, संगीत से भरे आरोही अवरोही चुम्बन थे...छोटा रेलवे स्टेशन था, स्टेशन की सर्दियों की धूप में विदा थी।...प्रतीक्षा थी, मृत्यु थी। उसकी दूसरी स्मृति में पार्क था। बेंच पर ग्राहक के इंतजार में बैठी वेश्या, उसके पाँव के पास फेंकी हुयी रोटी खाता कुत्ता था...सांझ के झुरमुटे में पेड़ों की शाखों से खेतों के लिए उड़ते चमगादड़ थे। घास पर पतझर के सूखे, कत्थई पत्ते थे, अचानक रजस्वला होने वाली वेश्या की उदासी, चिंता और भूख थी। उसकी तीसरी स्मृति में गाँव था। गाँव की पगडंडियों पर धूल भरे ओवरकोट में लिपटी एक दुबली पतली काया थी। कच्ची सड़कों पर उसका पाँव घसीट कर चलना था। उसके हाथों में छड़ी, आँखों पर काला चश्मा और सर पर अंग्रेजों के जमाने का कत्थई हैट था। पाँव में मोजे, फीते वाले जूते और आँखों की धीरे धीरे कमजोर होती रोशनी थीे। मिट्टी में छड़ी की नोक घँसा कर टटोलते हुए गहरी सोच, उदासी और निराशा में चलती काया थी। भौंकते कुत्तों के झुँड थे। डर और घृणा से काँपती काया का जेब में भरे छोटे छोटे पत्थरों को मार कर उन्हें भगाना था, छड़ी की नोक से झपटने वाले कुत्ते को डराना था। 'तुम कुत्तों से इतना डरते क्यों होबाँसुरी बनाने वाले का सवाल था। 'क्योंकि कुत्तों में आत्मा नहीं होतीउसका फुसफुसाहट भरा उत्तर था। बाँसुरी बनाने वाले की हैरत थी। वह नही, पर बुढिय़ा जानती थी कि बाँसुरी वाले को जिसने जवाब दिया है, दुनिया उसकी किताबें हैरत, उत्सुकता और डर से पढ़ती है, क्योंकि उसने जीवन भर आत्माओं के भ्रूण के साथ यात्रा की है।

 

बरिश अभी तक हो रही थी।

नीचे सड़क पर पानी भर गया था। कई तरह की गंदगी पानी पर तैर रही थी। बिजली के तारों पर बारिश की बूंदें लटकतीं और गिर जाती थीं। कुछ घरों और कुछ दुकानों की बत्तियाँ जल गयी थीं। उनके कमरे में अभी अंधेरा था। अंदर गिरते बाहर की रोशनियों के टुकड़ों में दोनों खिड़कियाँ दिख रही थीं। कमरे में रोशनी करने का बूढ़े का दिन था।

बुढिय़ा ने आँखों के कोनों से देखा। बूढ़ा चौखट पर निश्ंिचत बैठा था। जब घर लौटा था तो बारिश में पूरा भीगा हुआ था। दरवाजे पर ही उसने कपड़े, गीले जूते और मोजे उतार दिए थे। कमीज दरवाजे के पास लगी खंूटी पर लटका कर सीधा गुसलखाने में घुस गया था। वहाँ गीले कपड़े उतार कर बदन पोछ कर लौटा तो काँप रहा था। नए कपड़े पहन कर पलंग पर लेट गया था। लेटे हुए देर तक उसने गहरी साँसे ली थीं। बैचैनी में हाथ पैर पटके थे। कुर्ते के बटन खोल कर बिना बालों वाली छाती रगड़ी थी। बुढिय़ा साथ के छोटे कमरे की चौखट पर खड़ी उसका नाटक देख रही थी। देखते हुए जब ऊब गयी तो उसकी तरफ  पीठ करके खिड़की पर खड़ी हो गयी थी। हमेशा की तरह कुछ देर बाद सामान्य होकर बूढ़ा भी अपनी खिड़की पर आ गया था। हाथ में आधी बियर और आधा अनानास का रस मिला कर शैंडी बनायी और मग लेकर चौखट पर बैठ गया था। दोनों देर तक बारिश देखते रहे थे। अब अंधेरा हो चुका था, पर बूढ़ा उसी तरह बैठा था। बुढिय़ा ने जब आँखों के कोनों से उसे देखा, तो बूढ़ा मुस्कराया, जैसे जानता था कि रोशनी न करने पर वह उसे जरूर देखेगी।

शायद वह चाहता था कि बुढिय़ा उसे देखे। बुढिय़ा से उसकी निगाह टकरायी। वह गहरी कुटिलता के साथ मुस्कराया। बाहर से अंगूर के गुच्छे की तरह गिरती रोशनी में उसकी स्लेटी, शैतानी आँखें, साँप की आँखों की तरह चमक रहीं थीं। उसका दूसरा हाथ जाँघों के बीच पड़ा था। उसकी आँखों में आसानी से भाँपी जा सकने वाली शैतानी खुशी थी। यह खुशी उसकी आँखों में तब दिखती थी, जब वह बुढिय़ा को अंदर तक मर्माहत कर देना चाहता था। कोई बड़ा आघात या दुख देना चाहता था। उसे कुचल कर परास्त कर देना चाहता था। कोई ऐसा दुख, ऐसी पीड़ा देना चाहता था कि बुढिय़ा चीख उठे और छिपकली की कटी हुयी दुम की तरह देर तक छटपटाती रहे। बुढिय़ा को यह कष्ट भी वह अपमानित और लील करके देना चाहता था। जब वह ऐसा करना चाहता था, उसके होठों पर बुढिय़ा के लिए तुच्छता से भरी टेढ़ी हँसी खेलती थी। कामुक संकेत करते हुए वह जबान को होठों से बाहर अंदर निकालता था। कई बार छिपकली की तरह बान लम्बी करके आँखों को चाटने का अभिनय करता था।

बुढिय़ा ने जब आँखों के कोनों से उसे देखा, तो उसकी निगाहें बूढ़े की निगाहों से मिल गयीं। वह समझ गयी कि बूढ़े का इरादा और नीयत कुछ ऐसी ही करने की है या शायद उससे भी ज्यादा कोई ऐसा दुख देने की इच्छा है, जो पचपन सालों की साझा जिंदगी में उसने बुढिय़ा को अभी तक नहीं दिया था। बुढिय़ा सर्तक हो गयी। उसका दिमाग तेजी से सोचने लगा कि वह क्या कर सकता है? भाँपने के लिए बुढिय़ा ने उसे फिर देखा। सुअर के थूथन की तरह उसकी नाक सूज गयी थी। शैंडी की बूँदों की चमक उसके होठों की लार पर टिकी थी। बुढिय़ा घृणा से भर गयी। बूढ़े का इतनी कुत्सित, कामुक और लील चेहरा उसने सिर्फ पचपन साल पहले देखा था, जब वह बेल्ट से छिपकली को मार रहा था। बूढ़े से नजरें हटा कर उसने घृणा से थूक दिया। अंगूर के गुच्छे वाली रोशनी में थूक की लाली चमकी। थूकने के बाद खून से सनी गाढ़ी लार बुढिय़ा के होठों के कोनों पर चिपकी रह गयी। बाँह कपड़े से होठ रगडऩे के लिए उसने सर घुमाया। बूढ़ा चौखट पर नहीं था।

बुढिय़ा वाली खिड़की फिर कभी नहीं खुली। बाहर से देखने पर अब वह बूढ़े की खिड़की की चौखट पर बैठी दिखती थी।

 

मृत्यु, अकेलापन, पराजय, निराशा, गरीबी, रोग, असुरक्षा, निर्वासन, भय के अंधेरों से जिंदगी भरने लगती है। पता नहीं आत्मा के किस हिस्से में इतनी जगह निकल आती है जहाँ यह सब समाता चला जाता है। कौन सा पुराना हिस्सा अपनी जगह छोड़ कर इन नयी चीजों के लिए जगह बनाता है? क्या वे पुराने विश्वास, आस्थाएं, राग, मोह, लक्ष्य, स्वप्न, संकल्प होते हैं, जो धीरे धीरे अपनी जड़ों से उखडऩे लगते हैं और इन दुख भरे आत्मालापों को जगह देते हैं? कुछ नहीं है, से ज्यादा बड़ा सच कुछ नहीं है, यह आत्मबोध, आत्मज्ञान सबको नहीं होता, या शायद उम्र के आखरी हिस्से में होता भी है, तो लोग इसे समझ नहीं पाते। ईश्वर या आँसू या मृत्यु की प्रतीक्षा, उन्हें साँस लेते रहने के लिए उकसाती है। वे सिर्फ इसलिए जीवित रहते हैं क्योंकि मर नहीं सकते। वे जानते नहीं कि मरा कैसे जाए, उसी तरह, जिस तरह यह कभी नहीं जान पाए कि जिया कैसे जाए? ये लोग नही जानते कि जो वे जी रहे हैं, जिसे जीवन कह रहे हैं, वह क्या है?

कुछ खिड़कियां आत्मा में अंदर की तरफ  खुलती हैं। इन खिड़कियों से दिखने वाली दुनिया अपनी आत्मा की दुनिया होती है। इन खिड़कियों पर लटके बूढ़े-बुढिय़ा हर जीवन का भविष्य हैं। अपने इस निश्चित या वास्तविक भविष्य तक कौन, कब और कैसे पहुँचेगा, किन रास्तों से पहुँचेगा, कोई नहीं जानता। वह कुछ और नहीं कर सकता सिवाय इसके, कि अपने एकान्त, आत्मनिर्वासन और एकाकीपन में, इन खिड़कियों पर खड़े हो कर, अपनी आत्मा में जो गुजर गया वह, और जो गुजर रहा है, उसे देखे, और शंाति, धैर्य और साहस के साथ अपने अंत की प्रतीक्षा करे।

 

                                                               

 

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