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पहल - 114

स्वातंत्र्योत्तर भारतीय कविता और लोकतंत्र

रवि श्रीवास्तव

मुख्य लेख/कवितांक

 

 

स्वातंत्र्योत्तर भारतीय कविता आश्चर्यजनक रचनात्मक ऊर्जा से भरी हुई है। पिछली सदी के आठवें दशक के बाद पश्चिम के ढंगोढब से हमारे यहां की भूमंडलीकरण की जो आँधी चली उसने और कुछ किया, न किया हो, एक अंधा युग के अंधेपन को जरूर सामने ला दिया है। बाजारवादी व्यवस्था की ठाठ और दरबार ने एक ऐसे अनुभव-वृत्त का निर्माण किया है, जिसके दायरे से जीवन और समाज के प्राय: सभी स्वीकृत मान-मूल्य बहिष्कृत हैं। मंडी संस्कृति ने अन्य चीजों की तरह कला-कलाकारों का भी पण्यीकरण किया है। धन्ना सेठों की गद्दी से निकलने वाले पुरस्कारों की मोटी राशि ने समाज के सबसे संवेदनशील बुद्धिजीवी समुदाय को भी अपने पक्ष में करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।

बाजारवाद एक आर्थिक कोटि अथवा राजनीतिक प्रस्ताव मात्र नहीं रह गया है। अब वह जीवन-पद्धति बन गया है। तीसरी दुनिया ही नहीं, विश्वमात्र के प्राय: सभी हिस्से से साम्राज्य विरोधी जनांदोलनों का अभाव अब एक निरापद शून्य का विस्तार कर चुका है। पूंजीवाद के 'प्रतिभाशालीबौद्धिकों ने राष्ट्र-राज्य की आधुनातन संकल्पना की कब्र तक भूमंडलीय पूंजीवाद के सीमाहीन अपरिहार्य विस्तार के तर्क को शेष दुनिया के दिलो दिमाग में मानो जड़ दिया है। पूँजी की इस चकाचौंध दुनिया को पा लेने की मृगतृष्णा ने दूसरी दनिया के समाजवादी देशों को तीसरी दुनिया के गरीब देशों की पंगत में ला खड़ा किया। दुनिया की आबादी का इतना बेरहम एवं बेबाक विभाजन इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था जितना और जैसा विभाजन वर्तमान दौर में हुआ है। एक ओर पूँजी के मुट्ठीभर पैगंबरों की चौंधिया देने वाली दुनिया है जिनके हाथों में विश्व पूँजी के नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्से पर कब्जा है, और दूसरी ओर 'अच्छे दिनका इंतजार करने वाले दुनिया की कुल आबादी के तीन चौथाई हिस्से के हतप्रभ लोगों की लाचार और बेबस दुनिया। एक जमाने में फां फेना ने उन्हें 'पृथ्वी के अभागे’ - रेचड्स ऑफ द अर्थ कहा था। उन्हीं मुट्ठी भर लोगों के पास विकास और समृद्धि के मंत्र हैं उनकी सिद्धियां भी। उनका आदर्श है, 'सोचो दुनिया के लिए, करो अपने लिएथिंक ग्लोबली एंड एक्ट लोकली।

समाजवाद के आदर्श अस्ताचल हुए। आस्था के किले टूट गए। किसी बड़ी नैतिकता अथवा आदर्श के अभाव के शून्य लोक में टिका है आज का विश्व समाज। 'सबका साथ सबका विकासके अपरिभाषित लोक में खड़ा है आज का भारत। निरंतर छीजते श्रेष्ठ और उच्चतर सामाजिक जीवन-मूल्यों से बेखबर भारत का नकलची बौद्धिक मध्यवर्ग 'इतिहास के अंतकी घोषणा के बाद किसी गहरे आत्ममंथन के दौर से नहीं बल्कि आत्ममुग्धता 'कैथारसिसके दौर से गुजर रहा है। आवारा पूँजी के दलाल, बैंकों से जनता की गाढ़ी कमाई को लेकर भागे चोर-उच्चकों, रिश्वतखोर, सट्टेबाज, बिचौलिए और व्याभिचारियों के पौ बारह हैं। आम जन हर तरह की इस प्रतियोगिता की दौड़ में प्राय: हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है, वह भी उस स्थिति में जब स्वयं सत्ता दलालों एवं अपराधियों का संगठित गिरोह बन चुकी है।

ऐसे में वह कौन-सा भाव है जिसे भारतीय कविता के केंद्र में होना चाहिए? वह कौनसी दृष्टि 'परस्र्पेक्टिवहै जिसे भारतीय लोकतंत्र के 'अनाघ्रात अर्थों तक/जाना है।इस खुली चुनौती के सामने खड़ी है निष्कवच भारतीय कविता। स्थानीय से क्षेत्रीय, क्षेत्रीय से प्रादेशिक, प्रादेशिक से राष्ट्रीय और राष्ट्रीय से वैश्विक परिदृश्यों और जरूरतों की खिंची हुईं रस्सी पर मनुष्य और मनुष्यता का ताना-बाना बुनती हुई भारतीय कविताएँ। अपनी स्थानीय विशिष्टताओं के बावजूद अपने भारतीय होने की विलक्षण समानता से बिंधी हुई। भारतीय लोकतंत्र सिर्फ राजनीति तक ही सीमित नहीं है। वह भारत के सामाजिक जीवन में पसरा हुआ है। वह भारतीय जीवन में राग-विराग, स्वप्न और यथार्थ, हर्ष-विषाद, मोह-मोहभंग, जय-पराजय, संघर्ष-आत्म संघर्ष का पंचमेल है। जिस तरह भारतीय लोकतंत्र उन सबसे दो-चार हाथ करने का संयुक्त प्रयास है उसी तरह भारतीय कविता भी एक सहयोगी प्रयास 'ए कॉमन परसुएटहै। उसमें जितनी अनुभव की उत्तेजना है, उतनी ही आत्मलोचना का बोध भी है।

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आजादी के बाद की भारतीय कविता में आए उस आलोचनात्मक बोध के तीन स्तर हैं: एक, आजादी के संकल्पित मान मूल्यों एवं प्रतिबद्धताओं के क्रमश: विघटन में उपजी निराशा के विरुद्ध मोर्चाबंदी, दो, सत्ता का आतंक  तथा उसके दमनकारी रूपों के प्रति जागरुकता, तीन-भूमंडलीकरण एवं खुले अर्थतंत्र वाली बाजार-व्यवस्था के परिणाम-स्वरूप भारतीय जन-जीवन में आए बिखराव एवं विक्षोभ की अभिव्यक्ति। जो बात यहाँ विशेष तौर पर उल्लेखनीय है, वह है अस्मिता विमर्श। हाशिए के समुदायों 'एबलटर्न कम्युनिटीजदलित, आदिवासी एवं नारीवादी-आंदोलनों से जन्मे पहचान के संकट से मुक्ति एवं असंतोष ने भारतीय कविता में अपनी जगह बनाई।

इस अस्मिता-विमर्श का दूसरा पक्ष है, संस्कृति उद्योग। व्यावसायिक सिनेमा, टेलीविजन के धारावारिक, डिस्क एंटीना, पॉप संगीत, यात्रा में पढ़े जाने वाले सस्ते उपन्यास एवं प्रेम-कहानियां, (पल्प लिटरेचर) सस्ते विडियो हिट्स, डिस्कॉथिक, बाजारू फैशन-शैली की किताबें, श्रृंगार एवं पाक-शास्त्र की किताबें, फूहड़ हँसी-मजाक वाले विडियोज, स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित सौंदर्य प्रतियोगिताएँ, फिल्मी नायक-नायिकाओं के स्वास्थ्य, स्वाद, अभिरुचियों, प्रेम-प्रसंगों और सुंदर-सुडौल दिखने का रहस्य बताने वाली रंगीन जिल्दें- ये सब जनमानस के मनोविज्ञान को वश में रखने के पूँजीवाद के सांस्कृतिक तर्क हैं। पिछली सदी के सातवें दशक और उसके बाद संस्कृति-बाजार से गंभीर साहित्य पर आसन्न खतरे को भारतीय कवियों ने चुनौती की तरह लिया। संस्कृति की एकरुपता और मानकीकरण के समानान्तर कला के रूपों को प्रतिरोध की वैकल्पिक संस्कृति के लोकतांत्रिक जमीन पर खड़ी करने की कोशिश हुई। भारतीय कविता उसका माध्यम बनी। यह भी एक नया अस्मिता-विमर्श ही था। वह हर दूसरी चीज की तरह संस्कृति बाजार का भोज्य बनती जा रही जीवित, मूल्यवान एवं उपयोगी वस्तुओं का विपक्ष रच रही थी।

 

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वर्ष 2000 में केदारनाथ सिंह और के. सच्चिदानंद के संपादन में भारतीय कविता के प्रतिनिधियों कवियों की चुनी हुई कविताओं का हिन्दी में अनुदित संकलन 'ताना-बानाप्रकाशित हुआ था। उन कविताओं में अपने समय और समाज की गहरी पीड़ा है। आज के समय के अनिश्चित, असुरक्षा, आशंका और निरंतर आत्मनिर्वासन के बोध से भरी हुईं हैं। वहां एक प्रश्न है क्या हम उन मूल्यों को बचा पाएंगे जो संरक्षित करने योग्य हैं? क्या हमारा पतन इस हद तक होगा कि हम मानवता का पूरी सृष्टि के विनाश और विध्वंस में सर्वोत्तम सौंदर्यबोध की खोज करेंगे? ये प्रश्न समाजशास्त्र या दर्शनशास्त्र की किताब से नहीं बल्कि भारतीय कविता की जमीन से उठ रहे हैं। विज्ञापन और प्रचार-प्रसार-साधनों द्वारा मस्तिष्क के अनुकूलन एवं स्वतंत्र निर्णय लेने की अक्षमता के विरुद्ध प्रतिरोध और इंसानी रिश्तों को बचा लेने का स्वर भी वहीं सुनाई पड़ता है। वह भी उस स्थिति में जब स्वतंत्रता का मायने-मतलब उपभोक्ता-सामग्री के चुनाव और मतदान की पेटी तक सीमित रह गया हो। भारतीय कविता में मनुष्य की नियति के प्रति गहरी चिंता है। साथ ही तकदीर की चुनौतियों से लडऩे का दृढ़ नैतिक साहस भी।

मलयाली कवि अयप्पा पणिक्कर एम.एन. कक्कड़, माधवन अय्यप्पथ, के. सच्चिदानंद तथा के.जी. शंकल पिल्लै की कविताएं मलयाली समाज की जाती स्मृतियों के दर्पण हैं। विकास की आँधी में वे स्मृतियां कब उड़ जायेगीं और उनके स्थान पर आज का परिभाषित 'स्वकब प्रतिष्ठत हो जायेगा, के. सच्चिदानंदन की कविता 'नानीउसी समयान्तराल को नापती है - 'पागल थी मेरी नानी/उसका पागलपन पका मृत्यु में/मेरे कंजूस मामा ने उसे रख दिया सामान की कोठरी में../अब मैं कैसे बच सकता हूँ कविता लिखने से/सुनहरे दांतों वाले/बंदरों के बारे में।जो सभ्यता बेटे को सुनहरे दांतों वाला बंदर बनाती है वहीं अयप्पा पणिक्कर की मशहूर कविता 'कुरुक्षेत्रममें बाजार बनकर उतरती है जहाँ लोग 'खुद को खरीदते-बेचते हैं’, जहाँ 'हड्डी मज्जा या सार तत्व को खाती हैऔर 'चमड़ी हड्डियों का आखेट करती है। बड़ी सभ्यताओं के ध्वंसावशेष अब अजायब घर की शोभा है।

पूँजीवाद की तमाम भव्यताएँ और ताम-झाम अजायब घर की संरक्षित वस्तुएँ होगीं। कटम्मनिट्टा रामकृष्णन की 'कन्नूर का किलाप्रतीकार्थ में वर्तमान सभ्यता के भी इसी भवितव्य को बताती है- 'मैंने सोचा:/सारे किले बन जायेंगे पुरावस्तु/सभी तोपें चुपचाप जंग खाती रहेगीं/सभी सुल्तान गुजर जायेगें/अँधेरी गुफाओं से होकर/मेरे जगे हुए बच्चे अपनी उत्सुक आंखों से/देखेंगे यह सब कुछ।जे.पी. शंकर पिल्लै लिखते हैं - 'सीमेंट की सख्त पटरी पर/उसे पीटा गया था इतना/कि सारा लाल रंग/उसके रेशों से निकल गया था/लेकिन बंडल के सारे कपड़े/हो गए थे लाल/और तालाब/और नदियाँ भी।पीटी गईं धोती से उतरा लाल रंग धोने के पानी में मिलाकर दूसरे कपड़ों को भी लाल कर दिया। गरज कि सर्वसत्तावादी व्यवस्थाएँ जब जबरन चुपकराती हैं तो विपक्ष से आवाज आती हैं।

निर्वस्त्र सत्ताओं के स्वामी भी निर्वस्त्र हैं और उनके बुद्धिजीवी भी। निर्वस्त्र स्वामी की निर्वस्तता पर बज रही ताििलयों के बीच बंगला कवि नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती का बड़ा प्रश्न है, 'राजा तुम्हारा वस्त्र कहाँ है?’ दासता के अनेक रूपों में एक है मानसिक गुलामी - 'देखते हैं सभी, राजा है निर्वस्त्र, फिर भी/बजाते हैं सभी तालियाँ।/शाबाश, शाबाश!- ऊंची आवाज में/बोलते हैं सभी, किसी के मन में संस्कार, किसी के मन में भय;/किसी ने रखा है बंधक अपनी बुद्धि को/किसी दूसरे के पास; कोई है परान्नभोजी, कोई/कृपाप्रार्थी, उम्मीदवार, प्रवंचक,...सुनील गंगापाध्याय जगे हुए बंदियों के सामने प्रश्न फेंकते हैं 'सोए हुए सभी मनुष्यों के क्रीड़ास्थल में प्रति प्रश्न फेंक देती है:/ 'स्वाधीन? स्वाधीन?’ तुम सभी क्या स्वाधीन हो?’

असमिया कविता कर्मकार लिखती हैं-

हमें कहा गया/

तुम स्वतंत्र हो/

लेकिन छीन ली गई आवाज़

सिर उठाते ही सिर कलम पर दिया गया धड़ से

टुकड़ों में बाँटा गया

भूख से बिलखने के लिए छोड़ दिया गलियों में

सांस तोड़ऩे लगी स्वतंत्रता/

यातनाग्रस्त समय में

नज़रबंद होते हैं सपने

कौन दे तुम्हें स्वतंत्रता

एक प्राचीन मूल्यहीनता पुरानी मुद्रा बनकर

घूम रही देश भर में स्वतंत्रता/

यहाँ-वहाँ

कौन दे हमें स्वतंत्रता

आओ छीन लायें/अपनी स्वतंत्रता!!

एक विराट प्रश्न है समाज के सामने - 'कौन है जो बोलेगा/लिखेगा मौन समय की अनकही कहानियाँ’! उडिय़ा के कवि सीताकांत कहते हैं - 'मन का चौखट लाँघते ही रास्ता है/कोई शब्द कहते ही रास्ता है।/पंख झाड़ते ही रास्ता है/डग बढ़ाते ही रास्ता है। जगन्नाथ प्रसाद दास की 'काला हाँडीकविता उड़ीसा में एक आयी प्राकृतिक आपदा के माध्यम से उसी ढाक के तीन पात वाली स्वाधीनता के विकृत एवं दिग्भ्रमित करने वाली सच्चाई से पर्दा उठाती है-

'कालाहाँडी है जहां भी देखो/पंजर की हड्डियों में

धँसी आँखों के कटोरों में/शरीर ढाँपने में असमर्थ चिथड़ों में

बंधक पड़े काँसे के बर्तनों में/फूस के घरों के उधड़े छप्परों में

मिट्टी की दो हाँडियों के सर्वस्व में।

 

और भी करीब से देखो कालाहाँडी को/झूठे वक्तव्यों खोखली घोषणाओं में

अविश्वसनीय भाषणों के घडिय़ाली आँसू में/कंप्यूटरी कागज की अतिरिक्त घोषणाओं

में

सम्मेलन के प्रकरणों सस्ती सहनुभूतियों में/और योजनाओं के अर्थहीन अंधे वायदों

में।

 

कालाहाँडी हमारे बिल्कुल पास है-/आत्मा की सामयिक ताडऩा में

विवेक के अकस्मात दंश में/अंतकरण के पश्चाताप में

तृप्त नींदके दु:स्वप्न में/असहायता, भूख और बीमारी में

खून-खराबे की आसन्न संभावनाओं में।

 

                                                                                  (3)

वर्तमान समय राजनीतिक संकट का समय है। इस दौर में नेहरू युगीन सेकुलरवादी राजनीति तथा विकास की राष्ट्रीय परियोजनाओं को एक तरफ ठेलकर हिन्दू फासीवादी राजनीति केन्द्र में आयी। बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने भारतीय लोकतंत्र में निहित धर्मनिरपेक्षता की संस्कृति को भी ध्वस्त कर डाला। धर्म और राजनीति के सारे समीकरण गड्डमड्ड हो गए। इस नये दौर की नयी संस्कृति का नया नाम है 'क्रूरता। हिंदी कविता में उसकी अभिव्यक्ति 'संवेदना के संकटमें हुईं। कुमार अम्बुज ने अपनी कविता 'क्रूरतामें इस तरह याद किया है-

'तब आयेगी क्रूरता/पहले हृदय में आयेगी और चेहरे पर न दिखेगी

फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की व्याख्या में/फिर इतिहास में और भविष्यवाणी में

फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी

वह संस्कृति की तरह आयेगी/उसका कोई विरोधी न होगा

कोशिश सिर्फ यह होगी कि किस तरह वह अधिक सभ्य और ऐतिहासिक हो

यही ज्यादा संभव है कि वह आए/और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका

आना

क्रूरता की इस नयी संस्कृति का एक ही म$कसद है, सांस्कृतिक समरुपीकरण। उसका अभिप्राय भी साफ है। भारत जैसे बहुलवादी भाषा-भाषी और संस्कृतियों के देश में जो मध्यवर्ती समूह और क्षेत्रीय भिन्नताएं हैं, विभिन्न सामुदायिक अस्मिताओं के अनेक छोटे-बड़े वृत्त हैं, उनके अलग-अलग आस्था के केन्द्रों, उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक चिति, जाती स्मृतियों, इतिहास और परंपरा, धर्मग्रंथों एवं पवित्र प्रतीकों की अवमानना या समाप्ति। स्थिति गंभीर होती है जब राज्यसत्ता एक विशेष धर्म से जुड़ी चिति को विषमांग चितियों पर थोपने पर आमदा हो। इस खतरनाक प्रवृत्ति पर नरेश सक्सेना लिखते हैं-

'इतिहास के बहुत से भ्रमों में से/एक यह भी है/कि महमूद गजनवी लौट गया था

लौटा नहीं था वह/यहीं था/सैंकड़ों बरस बाद अचानक

वह प्रकट हुआ था अयोध्या में/सोमनाथ ने उसने किया था

अल्लाह का काम तमाम/इस बार उसका नारा था/जय श्रीराम।

संस्कृतियों का सामीकरण? ऋतुराज लिखते हैं - 'यह कोई क्यों नहीं कहता/कि वह  सबसे पतनशील दौर है राजनीति का/सबसे ऊँचा पहाड़ है झूठ का/दिमागों में भरे कचरे का/यह धूर्तताओं का सत्याग्रह है। यद्यपि 'कहने को तो बहुत काम हुआ है देश में/बस भाषा कुछ गंदी हुई है। विष्णु खरे की 'सुपुर्दकविता तो धर्म केन्द्रित वर्तमान राजनीति का महाख्यान है - 'उसके खिलाफ कुछ कहो तो नास्तिकता और कुफ्र जैसे फतवे/खड़े हो जाते हैं जो इंसानों के विरुद्ध उन्हीं किताबों में मिलते हैं/जो इंसानों ने ही उसके नाम से उसी के लिए लिखी हैं/और उन्हीं ने उनमें लिख दिया है कि/इन पर सवालिया निशान लगाए तो नेस्तनाबूद कर दिए जाओगे.../इस तरह शक्तिहीनता की कल्पना से जो उपजाया गया था/वह मृत्यु जैसा कल्पनातीन सर्वशक्तिमान माना गया। राजेश जोशी लिखते हैं - 'जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ/आग लग चुकी होती है सारे शहर में/हिज्जे ठीक करता हूँ जब तक अपील के/कफ्र्यू का एलान करती घूमती है गाड़ी/अपील छपने जाती है तब तक प्रेस में/दुकानें जल चुकी होती हैं/मारे जा चुके होते हैं लोग/छपकर जब तक आती है अपील/अपील की जरूरत खत्म हो चुकी होती है।

यह संवेदना का संकट ही है। हिंदी कविता उस संकट को लांघती है। उसकी संवेदना का क्षेत्राधिकार व्यापक है, मनुष्य से लेकर प्रकृति के वानस्पतिक जीवन की सुरक्षा तक। कुँवर नारायण लिखते हैं, 'जब तक पूरी दुनिया/सभ्य हो चुकी थी.../चारों तरफ लोहे और कांक्रीट के/बड़े-बड़े घने जंगल उग आए थे/जिनमें दिखाई दे रहे थे/अत्यंत विकसित तरीकों से/आदमी का ही शिकार करते हुए आदमी।विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं - 'जंगल में एक पेड़ फिर एक पेड़ कटता है/और शहर चुपचाप जंगल की तरफ/एक कदम फिर एक कदम बढ़ाता है...।अशोक वाजपेयी उस जंगल में उम्मीद की खोज करते हैं - 'क्या ऐसी जगहें ही बची हैं/जहाँ उम्मीद का कोई न कोई दिया रख सकते हैं?/हम पथहारे लोग हैं/पर हमारे पास अभी भी सपने और उम्मीद बचे हैं/और हम उनके लिए जगह तलाश रहे हैं?’

सपने और उम्मीदों के साफ-सफ्फाक वादे, उम्मीदें और इरादे अपनी विडंबनाओं और विरोधाभासों के साथ उर्दू शाइरी में रौशन हैं। उसमें पहला नाम है साहिर लुधियानवी का। साहिर जबरदस्त राष्ट्रवादी थे। काव्य-रूपों के जितने रंग अकेले साहिर में हैं उतना किसी अन्य में नहीं मिलता। उन्होंने ज़लें लिखीं, गीत लिखे, 'साथी हाथ बढ़ाना, साथी रे/एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना, साथी रेजैसे उद्बोधनात्मक गीत लिखे, 'हम इक बनते और सँवरते हिन्दुस्तान के साथ हैं/वो जो हमारे साथ नहीं हैं बोलो जिसके साथ हैं? एक आवाज: वो शमशान के साथ है।जैसे सहगीत-सहगान लिखे। लेनिन की सौवीं साल गिरह पर उन्होंने 'बिगड़े हुए तेवर हैं नो उम्र सियासत के/बिफरी हुई साँसें हैं नौमश्क निज़ामों केजैसी मर्मस्पर्शी ज़लें दीं। 'उमर खैय्याम और नर्तकी का संवादजैसे नाटय रूपक लिखे,  'निर्धन को दिया परलोक का सुख अपने लिए जग का राज रखा/पंडित और मुल्ला इनके लिए मज़हब के सलीफे लाते रहे।आह्वान-शैली में 'वह सुबह कभी तो ओगीतथा 'बच्चों तुम तकदीर हो कल के हिन्दुस्तान की’, 'बच्चे मन के सच्चे’, 'तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा/इंसान की औलाद है इंसान बनेगाजैसे बाल गीत की रचना की। 'जोर लगा के- हैय्या/पैर जमा के हैय्या/जान लड़ा के हैय्याजैसे श्रमगीतों की रचना की। अध्यापक और बच्चों के बीच संवाद- शैली में लिखकर उन्होंने उर्दू शायरी में सबसे अनोखे रूप का सृजन किया-

'बच्चे-ऊँचे महल बनाने वाले/फुटपाथों पर क्यों रहते हैं?

दिन भर मेहनत करने वाले/फाको का दु:ख क्यों सहते हैं?

अध्यापक-धन और ज्ञान को ताकत वालों/ने अपनी जागीर कहा

मेहनत और गुलामी को/कमजोरों की तकदीर कहा

साहिर की शायरी में रुमानियत भी कम नहीं है। शायद गेटे के फाउस्ट की तरफ उनके सीने में भी दो दिल हैं, उनमें एक ओर प्रेम की रंगीन दुनिया है दूसरी ओर उसे तार-तार करती 'चकलेहैं - 'मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी/यशोदा की हमजिन्स, राधा की बेटी/पयम्बर की उम्मत, जुलैखा की बैटी,’। वहाँ (चकलों पर) न कोई आशा है न स्वप्न, न इंसान है न इंसानियत का भविष्य अलगाव अजनबियत, आत्मपरायापन, जिन्स और ज़िस्म के भेद को मिटा देने वाले पूँजीवाद के सबसे बड़े अभिशापों तथा समाज की नैतिक पतनशीलता के गहरे बोध से भरी हुई यह पंक्ति -'औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उस बाजार दिया'औरत को कत जिस्म समझ लेते हैंजैसी कविताएँ एक गहरी तड़प, गहरी बेचैनी की इंगित करती है। ये रचनाएं स्वातंत्रयोत्तर भारत में विकास और प्रगति के चमकीले दावों की कलई उतार देती है

कैफी आज के बिगड़े हुए सांप्रदायिक मिजाज पर कहते हैं - 'इक न एक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है/उसके सौ नामों में एक नाम खुदा होता है छ: दिसम्बर पर लिखा - 'पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे/कि नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे/पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे/ राजधानी की फिज़ाँ आयी न रास मुझे/छ: दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे।रहा की निम्न पंक्तियाँ घृणा और विद्वेष की संस्कृति पर एक सुसंस्कृत मन के गहरे पश्चाताप, साथ ही एक भिन्न राष्ट्रवाद की विलक्षण अभिव्यक्ति भी है- 'मेरा भी इक सन्देसा है/मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझे कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/लेकिन मेरी नस-नस में गंगा का पानी दौड़ रहा है/मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुंह पर फेंको/और उस जोगी से ये कह दो/महादेव/ अब इस गंगा को वापस ले लो/ये मलेच्छ तुर्कों के बदन में/गाढ़ा गर्म लहूं बन-बन कर दौड़ रही है ('गंगा और महादेवसे)

पिछली सदी  के नौवें दशक के बाद की उर्दू शाइरी में निजता का रंग बिल्कुल फीका पड़ गया है। वह अत्यधिक बहिर्मुख हुई है। वर्गभेद, पर्यावरण-संकट, खाप-पंचायातें के निर्णय, जाती और साम्प्रदायिक हिंसा, अंचल विशेष का प्रकृति-सौंदर्य, वैश्वीकरण और स्थापित सामाजिक मूल्य, सत्ता का हिंसक रुप आदि ने मिलकर उर्दू शाइरी का मनोविज्ञान रचा है। अली सरदार जाफरी की शाइरी स्थानिकता- क्षेत्रीय तथा भाषिक अस्मिताओं की सरहदों को छूने की शुरूआत थी। बाद में अमीक अनफी की शाइरी में मालवा के सांस्कृति रंग, प्रकृति की जीवन्त छवियां एवं शीन कॉफ निज़ाम की शाइरी में मारवाड़ के प्राकृतिक परिवेश और सांस्कृतिक वैभव अपनी जगह बनाते हैं। अनियोजित विकास के शैवाल से परे जाकर रूप-रस-शब्द-गंध-स्पर्श से भरी महू की धरती को बचा लेने का आग्रह अमीक हनफी के यहाँ मौजूद है - 'शहर की आँखों का मल्ला साफ हो/तो दिल में उतरे ढाक के फूलों की आँच। इस स्थानिकता में न तो रुमानीपन है न 'नस्टेल्जिया। चुनौती वही है जो भूमंडलीकरण के दरपेश किया है, यानी पहचान का संकट। शीन काफ निजाम लिखते हैं - तुझमें मिट्टी की बू बोले/तेरे खित्ते (अंचल) की खूं बोले'हमसे वो रतजगों की अदा कौन ले गया/क्यूं बूझ गए अलावा औ 'वो किस्से क्या हुए

राजस्थान के बाड़मेर के रेतों से संबंध रखने वाला साहिर मीर की शाइरी को भी इसी परिप्रेक्ष्य में पढऩा चाहिए- 'कोई पैकर सा बनता हुआ रेत पर/इक गज़ल  लिख रही है हवा रेत पर'एक खुदा रेत के सेहरा को समुंदर कर दे/या छलकती हुई आँखों को भी पत्थर कर दे। नोमान शौक बाज़ारवादी व्यवस्था द्वारा सोख कर पचा लिए गए कवियों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों की तराशी गई क्रांतिकारिता पर कहते हैं - 'जिन्हें मालूम था/सत्ता का व्याकरण/पक्ष और प्रतिपक्ष का गणित/इन्$कलाब जिंदाबाद के नारे लगाते आए और/चले गए प्रशस्ति पत्र लेकर/विद्रोह मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए.../सत्ता/खुद रच लेती है अपना साहित्य/साहित्य की  सत्ता स्थापित करने वालों के खत से निदा फाजली इतिहास को बच्चों की दन्तुरित मुस्कान पर तौलते हैं - 'बच्चों के छोटे हाथों को चाँद-सितारे छूने दो/चार क़िताबें पढ़ कर वो भी हम जैसे हो जाएंगे आज की उर्दू शाइरी में मुनव्वर राणा, मुख्तार शमीम, शकील आज़मी, फरहत एहसास, इरशाद सिकन्दर खाँ, साबिर फरुद्दीन जैसे अज़ीम शाइरों की एक लंबी कतार है जो वक्त के तकाजों के अनुकूल लिख रहे हैं। उनका भी पैगाम वहीं है जो एक ज़माने में साहिर का था - 'रतों के जहान में हमको, प्यार की बस्तियां बसानी हैं

 

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भारतीय कविता में ऐसे नाम है जो उत्तर औपनिवेशिक दौर की प्रवंचनाओं को, असंगतियों को लेकर सजग हैं। इस विकलांग श्रद्धा के दौर में भी वे अपनी आस्था को बचाये हुए हैं। वे आजादी के बाद के भारतीय लोकतंत्र के उदारवादी ढाँचे एवं शिक्षा-तंत्र के भीतर पलने वाली सदियों की औपनिवेशिक दासता और 'अहिंसावादी भारतके हिंसक रूढि़वाद को पहचानते हैं। उन्होंने कविता का प्रतिपक्ष रखकर लोकतंत्र की रक्षा की है। भारत की प्राय: सभी भाषाओं में उसे जगह मिली है। इस प्रवृत्ति की सबसे धारदार अभिव्यक्ति दलित कविता में हुई है। धारा के विपरीत तैरने का साहस वहाँ दिखायी देता है।

दलित साहित्य (स्त्रीवादी साहित्य भी जिस पर मैं आगे विचार करूंगा) का सबसे अधिक जोर विशेषाधिकार और वर्चस्व के निषेध पर है। वह सत्ता और ज्ञान का नया विमर्श है जो धर्मशास्त्रों पर आधारित पुराणपंथ को ध्वस्त करता है। दलित लेखकों-कवियों ने सही मायने में धर्मशास्त्रों का ऐहिकरण 'सेकुलराइजेशनकिया है और उसमें निहित मिथकों, पुराकथाओं-आद्य बिंबों को जो कल तक सामाजिक पद-सोपान क्रम में सबसे नीचे की कोटि के दमन के हथियार थे उन्होंने उसे घृणा और विद्वेष के तंत्रों में बदल कर ब्राह्मणवादी तर्क शास्त्र की पूरी व्यवस्था उलट दी। यह भारतीय कविता का दूसरा मोर्चा है जो मराठी की हिरा बनसोडे की 'संस्कृतिकविता में खुलता है - 'हे पाषाण हृदयी संस्कृति,/अनाथपन के आर्तदु:ख में/कभी नहीं तू बनी हमारी ममतादायी माँ। गुजरती कवि नीरव पटेल की 'अछूतअलगाव की पीड़ा दर्शाती है - 'तुम मुझे अछूत समझती हो जानम।/तन पर गंगाजल छिड़ककर/खुद पवित्र हो गईं/लेकिन-/नहीं दुनिया में ऐसी चीज कोई/जो पवित्र कर सके मुझको!/मैं तो पैदा ही हुआ हूँ अपवित्र/उमर भर मैं अपवित्र ही रहूँगा/और मर - जाऊँगा आखिर अपवित्र

तेलुगू के दलित कवि एंडलूरि सुधाकर हतदर्प दलित जीवन की विडंबना और विरोधाभास को व्यक्त करते हैं - 'गुलाम की जिंदगी/चाहे नरक हो या स्वर्ग/हमारे लिए एक ही है/नहीं है डर पाप-पुण्य का/नहीं पराजय सिर्फ आत्मविश्वास वरवरराव तेलगू के प्रसिद्ध मानवाधिकार के कार्यकर्ता और कवि है। अभी दो दिन पहले (29 अगस्त, 2018) उनकी माओवादियों से संपर्क के आरोप में गिरफ्तारी और नजरबंदी हुई है। सत्ता एक ईमानदार बुद्धिजीवी से कितना आतंकित होती है उसका प्रमाण है यह कविता - 'जब प्रतिगामी युग धर्म/घोंटता है व$क्त के उमड़ते बादलों का गला/तब न खून बहता है/न आँसू।/व्रज बनकर गिरती है बिजली/उड़ता है वर्षा की बूंदों से तूफान/जेल की सलाखों से बाहर आता है/कवि का संदेश गीत बनकर।/कब डरता है दुश्मन कवि से?/जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते है हैं/वह कैद कर लेता है कवि को/फाँसी पर चढ़ाता है/फाँसी के तख्ते के एक ओर होती है सरकार/दूसरी ओर अमरता/कवि जीता है अपने गीतों में/और गीत जीता है जनता के हृदयों में।

विराट व्यवस्थाओं के वर्चस्व और प्राधिकार के एक आयामी सोच, सच और व्यवहार से बाहर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की दुनिया में मोम की तरह पिघलती हुई उलझनों और एक ज्वरग्रस्त समाज और समय के सबसे मूल्यवाद विरोधाभासों, अविश्वास और कचोटों के लिए स्पेस रचती है हिन्दी की दलित कविता। ए.एन. सिंह लिखते हैं - 'दुकान हमारी भी है/और तुम्हारी भी/ये बात और है कि/हमारी दुकान पर बिकता है जूता/और तुम्हारी दुकान पर/रामनामी.../आओ समानता का तार पकड़ें/एकता का सूत्र गढ़ें/साथ बढ़ें।ओमप्रकाश बाल्मीकि लिखते हैं - 'कभी नहीं माँगी बालिश्त भर जगह/नहीं माँगा आधा राज भी/माँगा है सिर्फ न्याय/जीने का ह$क/थोड़ा सा पीने का पानी मोहनदास नैमिशराय कहते हैं - 'इश्वर की मौत उस पल होती है/जब मेरे भीतर उठता है सवाल कंवल भारती पूछते हैं - 'यदि वेदों में लिखा होता/ब्राह्मण ब्रह्मा के पैर से हुए पैदा/उन्हें उपनयन का अधिकार नहीं/तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’

 

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जिस लोकतांत्रिक विवेक ने दलित लेखकों को कलम पकड़कर प्रश्न पूछने का साहस दिया उन्हीं ने स्त्री लेखिकाओं को भी 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताके छद्म को पहचानने का विवेक भी दिया। पहली बार वहाँ से आवाज़ उठी वे देवता कौन हैं? बचपन में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र? इस आदिम दिमागी फितूर पर प्रश्न उठे। पुरुष श्रेष्ठता और और स्त्री को गुलामी के पुराण-शास्त्र में ठेंगा दिखाते हुए। हकीकत बयां हुई तेलगू कवयित्री चल्लापल्ली सरूपारानी की कविता में - 'घर में पुरुष अहंकार/एक गाल पर थप्पड़/मारता है तो/गली में वर्ण आधिपत्य/दूसरे गाल पर चोट करता है मलयालम की के.के. निर्मला कहती हैं - 'एक दिन आऊँगी मैं.../तब मेरा साथी होता सत्य/कर्म की ताकत

बंगला की महाश्वेता देवी ठंडे दिमाग से पुरुष वर्चस्व को रास्ता देती हैं, बिना किसी नारे-फतवे के, ठंडे दिमाग से

'आ गये तुम?/द्वार खुला है अंदर आ जाओ...।

पर तनिक ठहरो/ड्योढ़ी पर पड़े पायदान पर/अपना अहं झाड़ आना...।

तुलसी की क्योरी में/अपने मन की चटकन चढ़ा आना...।

अपनी व्यस्तताएँ बाहर की खूँटी पर ही टाँग आना...।

बाहर किलोलते बच्चों से/थोड़ी शरारत माँग लाना...।

वो गुलाब के गमलों में मुस्कान लगी है/तोड़ कर पहन आना

लाओ,अपनी उलझनें मुझे थमा दो/तुम्हारी थकान पर/

मनुहारों का पंखा झुला दूँ...।

देखो, शाम बिछाई है मैंने/सूरज क्षितिज पर बाँधा है

लाली छिटकी है नभ पर...

प्रेम और विश्वास की मद्दिम आँच पर

चाय चढ़ाई है।/घूँट-घूँट पीना।

सुना,इतना मुश्किल भी नहीं है जीना...

यह ऐसी समतावादी जीवन-दृष्टि है जहाँ स्त्री-पुरुष एक-दूसरे की खुशियों के साथ मुश्किलों-उलझनों के भी सहकार बनते हैं, एक पायदान पर खड़े होकर।

जहाँ अभियोगी और अभियोजक- मुद्दई और मुंसिफ सभी पुरुष हों, उनके बनाये सामाजिक जीवन के नियम-कायदे हों, उस समाज के विरोधाभासों और विडंबनाओं के साथ धार्मिक कर्मकांड और पाखंड स्वत: जुड़ जाते हैं। कभी मिर्जा ग़ालिब ने इस पाखंड पर लिखा था - 'कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़/पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले। हरकीरत 'हीरजनेऊ उतार कर तवायफ की 'देह की समीक्षाकरने वाले पुरुष-पाखंड को पूरे व्यंग्य आरै विद्रूप के साथ उद्घाटित करती हैं - 'बस ये.../बिस्तर पर पड़ा जनेऊ/खिलखिलाकर हँसता रहा/जो तुमने मुझे छूने के पहले/उतार कर रख दिया था/सिरहाने तले

पारिवारिक संबंध सामाजिक संबंधों के ही लघु रूप हैं। भारतीय समाज की बनावट और श्रम-विभाजन के वर्तमान रूप में निहित अन्त र्विरोधों में स्त्री-दासता के बीज भी निहित हैं। अगर 'एक औरत क्यों नहीं सोच सकती/अपने बारे में कभी/जबकि दुनिया में/बहुत-सी बातें होती हैं/सिर्फ अपने ही बारे में सोचने की।तो इन्हीं अन्तर्विरोधों के कारण। और अंत में - 'उसके मुस्कुराते रहने का/सर्वश्रेष्ठ असल अभिनय/अपने अंदर अपनी अनुपस्थिति को.../अपनी पूरी जिंदगी में यदि/एक भी बूँद आँसू बहाती है/वह औरत/किसी के देखने के पहले/क्यों हड़बड़ाकर पोंछ लेती है उसे/सोचती थी, पूछूँगी माँ से।

इतिहास, समाज और परिवार के बेदखल और विस्थापित! और अंत में स्वयं से भी विस्थापित!!! ग्राम्शी ने विचार-प्रभुत्व की धारणा 'हेजेमनीके विश्लेषण के प्रसंग में दिखलाया है कि जनता की बौद्धिक-सांस्कृतिक दासता को बनाये रखने के लिए प्रभुवर्ग कैसे आधुनिक शिक्षण-संस्थाओं का उपयोग अधिकार प्राप्त वर्ग की संस्कृति को जनमानस का हिस्सा बनाने में करता है। इस मामले में परिवार की भूमिका औपचारिक शिक्षण संस्थाओं से भी अधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि वहीं जीवन की पहली पाठशाला है। उसी की मदद से वर्चस्वशाली संस्कृति के मान-मूल्य पूरे समाज के बीच क्रमश: परंपरा की तरह स्थापित होती हैं। यह परंपरा पुरानी संस्कृतियों के विरोधी स्वर भी उससे जुड़कर वर्चस्वशील संस्कृति और पंरपरा को सर्वभौम की स्वीकृति के स्तर तक उठती है। इस तरह जो वर्चस्व कायम होता है वह दीर्घ और टिकाऊ होने के साथ उत्पीडि़तों के मनोमस्तिष्क को प्रभावित कर उन्हें अनुशासनबद्ध भी करता है। हिन्दी की ख्यातनाम कवयित्री अनामिका सांस्कृतिक वर्चस्व के इसी रहस्य को खोलती हैं-

'याद था हमें एक-एक क्षण/आरंभिक पाठों का-

राम, पाठशाला जा-/राधा, खाना पका!/

राम, आ बताशा खा/राधा झाड़ू लगा!/

भैया अब सोएगा/जाकर बिस्तर बिछा!/

अहा, नया घर है!/'देख राम, देख यह तेरा कमरा है।

'और मेरा?’/'ओ पगली,/लड़कियाँ, हवा, धूप, मिट्टी होती हैं/

उनका कोई घर नहीं होता।

कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!/छूटती गई जगहें.../

चाहती नहीं लेकिन/कोई करने बैठे/मेरी व्याख्या सप्रसंग...

 

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विस्थापन का अंधेरा कितना घर के अंदर है उतना ही बाहर भी। मुनाफे के लिए प्राकृतिक संसाधनों के बेलगाम दोहन ने प्रकृति ओर मनुष्य के संबंधों के लय-ताल को तो बिगाड़ा ही है, यह पर्यावरण-संकट के रूप में भी सामने आया है। मणिपुरी कवयित्री इंस्टरीन इरालू लिखती हैं-

'किसी दिन तुम पूछोगे

अब पक्षी क्यों नहीं गाते पहले की तरह

और फूलों में वैसी सुगंध क्यों नहीं रही

जैसे की बकौल मेरे पहले होती थी,

अब नदियों में पहले की तरह मछलियों का हुज़ूम क्यों नहीं रहा,

और न ही पेड़ और हरी पत्तियाँ, मुझे अचरज होता है कहाँ चले गए सारे इंद्रधनुष?’

इसी तरह आदिवासी कविता में भारत के अलग-अलग आदिवासी क्षेत्रों के आदिवासियों के नैसर्गिक प्राकृतिक जीवन, सामूहिकता, कबिलाई जनतंत्र और भाईचारा, प्राकृतिक शक्तियों पर आदिम विश्वास के विविध रंग अपनी पूरी स्थानिकता के साथ उपस्थित हैं। साथ ही, वहाँ विकास की प्रक्रिया से बाधित एवं जल-जंगल और ज़मीन से विस्थापन और उसके विरुद्ध संघर्ष की कथा भी है। उसके योग से भारतीय कविता की रूपरेखा बनती है तथा भारतीय जीवन और समाज का इतिहासवृत्त भी बनता है जिसे भारत के अकादमिक इतिहासकारों ने प्राय: अनदेखा किया है।

उल्लेखनीय है कि आदिवासी और जनजातीय जीवन पर लिखी गई कविताओं में जो देशजता है वह पौर्वात्यवादियों 'ओरिएंटलिस्टके देशजवाद 'ओरिएंटलिज्मसे भिन्न ही नहीं उसके विरुद्ध भी है। वहाँ देशजवाद का निश्चिय अर्थ है यानी पिछड़ापन और जनजातीय संस्कृतियों की सरलता का रूमानीकरण। उसी से उपनिवेशवादियों को अपने उद्धारक की छवि गढऩे में मदद मिलती थी। किन्तु इन कविताओं को देशजता एक बहुलवादी समाज का सांस्कृतिक तर्क है। अपने ठेठ सकारात्मक अर्थ में भारतीय कविता में उभरी यह देशजता अनुभवों का समानान्तर दस्तावेज़ है। संक्रांति के वर्तमान दौर में 'महान परंपराओंके साथ 'लघु परंपराओंका सहअस्तित्व एक लोकतांत्रिक निर्मिति है। पश्चिमोन्मुखी संस्कृति बाजार एक चीज है, लोक संस्कृति और जवन के बहुलवादी स्वरों का गुंजन बिल्कुल भिन्न चीज है।

आज की हर देशज परिपाटी संस्कृति बाजार का भोज्य है। कुल मिलाकर आज के बाजार द्वारा निर्धारित अतिरेकी उपभोक्तावादी जीवनशैली, इतिहास के नकार, सभ्यताओं के संघर्ष से जन्मी असभ्यता के साथ-साथ संस्कृतियों के समरूपी करण और प्राचीन भारत के गौरवशाली अतीत की पुन: प्रापित की पुनरुत्थानवादी हिन्दू राष्ट्रवाद के खिलाफ अगर लड़ा जा सकता है तो इसी बहुलवादी-विविधवर्णी भारतीय संस्कृति की रचनात्मक विचार-भूमि से। उसे दबा देने में विदेशी शासन के कुख्यात सिद्धांतकारों तथा बौरायी अंधराष्ट्रवादी सोच ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। यह भारतीय कविता की अपनी परंपराओं पर नयी बात-चीत है। साथ ही, बौद्ध-सांस्कृतिक दासता से मुक्ति की स्वाभाविक छटपटाहट भी है। सचमुच-

सिराजुद्दीन तुम सच्चे हो

हम्हीं सब लोग झूठे हैं

सकीना मर नहीं सकती

सकीना अब भी जिंदा है

नोट- इस आलेख में हिन्दी इतर कवि-कवयित्रियों की कविताओं के उद्धरण हिंदी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे उनके हिन्दी अनुवाद से लिए गए हैं।

लेखक, विचारक रवि श्रीवास्तव अब सेवा निवृत्त प्रोफेसर है। जयपुर में रहते हैं, पहले भी पहल में प्रकाशित है। संपर्क - मो. 9116671126, जयपुर

 


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