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उत्तर पूर्व : असम—नागरिकता की तलाश में शहर और जंगल!

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती-बस्ती परबत-परबत

   

 

बागडोगरा से आगे सिलीगुड़ी और उससे आगे कलिम्पोंग और सिक्किम का रास्ता जिस तरह तीस्ता नदी को समर्पित है, कुछ उसी तरह वहां से 400 किलोमीटर पूर्व में बसी असम की राजधानी गुवाहाटी का मिजाज़ कमोबेश ब्रह्मपुत्र की बढ़ती-घटती जल रेखा से तय होता है। हर साल बरसातों में ब्रह्मपुत्र की बाढ़ सैकड़ों शहरों और गांवों पर कहर ढाती है। असम और अरुणाचल प्रदेश को दो हिस्सों में बांटती बेहद चौड़े पाट की यह नदी प्रदेश में आवागमन के लिए सबसे बड़ी चुनौती रही है। पिछले साल तक ब्रह्मपुत्र पर केवल तीन पुल थे जो यहाँ की ज़रूरतों के लिए बहुत नाकाफ़ी थे। पिछली सरकार ने दस वर्षों में तीन नए पुलों की महत्वाकांक्षी योजनाओं पर काम शुरू किया था, जिनमें से दो (ढोला सदिया और न्यू सराईघाट) का उद्घाटन 2017 में क्रमश: नरेन्द्र मोदी और नितिन गडकरी के हाथों हुआ। जैसा कि राजनीति में हमेशा होता है, वर्तमान सरकार ने इन पुलों का सारा श्रेय एवं राजनीतिक यश सफाई से बटोर लिया, हालांकि ये दोनों ही परियोजनाएं पिछली सरकार ने शुरू की थी। तीसरा सबसे बड़ा बोगिबील पुल इस साल पूरा हो जाएगा और निस्संदेह इसका उदघाटन भी आगामी चुनावों से पहले प्रधान मंत्री स्वयं अपने हाथों से लफ्फाज़ी भरे तेजस्वी भाषण के साथ  करना चाहेंगे। जो भी हो, सच यह ज़रूर है कि प्रदेश को शेष भारत से जोडऩे की दिशा में ब्रह्मपुत्र पर बने इन नए पुलों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है।

सराईघाट के पुल से ब्रह्मपुत्र को पार करते हुए आप गुवाहाटी शहर में प्रवेश कर जाते हैं। सिलीगुड़ी की तरह यह एक और बड़ा प्रवेश द्वार है जहाँ पीछे छूटी ब्रह्मपुत्र के उस पार पश्चिम में मानस और इस ओर पूर्व में काज़ीरंगा के अभयारण्यों और दक्षिण में मेघालय की राजधानी शिलौंग तक पहुंचा जा सकता है। शरीर की किसी मुख्य रक्त-नाड़ी की तरह ब्रह्मपुत्र के इस पार पूर्व से पश्चिम तक फैली एन एच 37 प्रदेश के सारे प्रमुख शहरों जोरहाट, शिवसागर, मोरनहाट, तिनसुकिया/डिब्रूगढ़ और वहाँ से आगे सदिया को छूती हुई चलती है। यहाँ चाय के बगान, प्राकृतिक सम्पदा से भरे-पूरे घने जंगलों और इनके मु$काबिल तेल के कुएं एक दूसरे के आस-पास विरोधी मुद्रा में खड़े दिखाई देंगे। इस लड़ाई में हार हमेशा जंगलों की होती है। कई वर्ष पहले जब मैं कोलकाता की एक तेल कंपनी में काम करता था, तब दुलियाजान में स्थित आयल इंडिया के दफ्तर में लगभग हर दूसरे सप्ताह हाज़िरी देना ज़रूरी हुआ करता था। हर बार वहाँ आने पर लगता था कि जंगलों का छोर कुछ और पीछे धकेल दिया गया है।

एक वक्त था जब मानस में एक सींग वाले गैंडों के झुण्ड दिखाई देते थे। वहां का आखिरी गैंडा वर्षों पहले तस्करों की भेंट चढ़ चुका है। एक समय पूरे असम में पाए जाने वाले इन गैंडों का वजूद अब काज़ीरंगा तक सिमट कर रह गया है, जहां भी हम आये दिन तस्करों या फिर प्राकृतिक आपदाओं के कारण गैंडों के मारे जाने की घटनाएं पढ़ते हैं। तस्करों के लिए गैंडे का महत्त्व सिर्फ उसके इकलौते सींग में है। भारी भरकम गैंडे को वे बहुत आसानी से ज़हरीले तीर या बंदूक से बेहोश कर लेते हैं और फिर किसी आरे अथवा भोंथरे हथियार से उसका सींग काट, लहूलुहान गैंडे को उसी तरह तड़पता छोड़ फरार हो जाते हैं। सींग को महंगे दामों पर विदेशी (ज़्यादातर चीनी) तस्करों के हाथ बेचा जाता है। लोगों में जुनून है कि गैंडे के सींग में गज़ब की काम-शक्ति होती है। इसी के चलते एक-एक सींग तस्करी बाज़ार में पचास लाख तक में बिकता है। जानवरों के अंगों का यह व्यापार एक सुनियोजित सिंडिकेट की तरह काम करता है जिसे वन विभाग के अधिकारी बहुत कोशिशों के बाद भी तोडऩे में विफल रहे हैं।

चीनियों में वन्य जानवरों के अंगों को लेकर अजीब धारणाएं हैं। इनका इस्तेमाल सदियों से चीनी औषधियों में होता चला आ रहा है। गैंडे के अलावा बाघ के पंजों और उसकी हड्डियों का इस्तेमाल पेट के 'अलसरसे लेकर दमे और बुखार के लिए बनी कई चीनी दवाओं में होता है। भालू का कलेजा एक और बेहद माँगा जाने वाला अंग है। दृष्टव्य है कि इन औषधीय गुणों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। लेकिन सच्ची-झूठी मान्यताओं के चलते पूरे चीन का आख़िरी बाघ कई दशकों पहले ही तस्करों-दवाफरोशों की नज़र चढ़ चुका है और चीनी तस्करों की नज़र अब अंगों के कच्चे माल के लिए भारत, नेपाल और मयनमार के जंगलों पर टिकी है। फौजी सत्ता से साठगाँठ कर तस्करों ने मयनमार के बहुमूल्य जंगलों का कैसे मटियामेट किया है यह हम पहले बता चुके हैं। कई पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक चीन में दवाओं के लिए वन्य जानवरों के अंगों के इस्तेमाल पर सम्पूर्ण, सख्त और प्रभावी प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाता, तब तक दक्षिण पूर्व एशिया में जानवरों की तस्करी रोक पाना असंभव होगा।

काज़ीरंगा का अभयारण्य अब अपने गैंडों और स्वच्छंद घूमते हाथियों के कारण अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका है। असम में आने वाले पर्यटकों का एक बड़ा हिस्सा इस पार्क में जरूर जाता है, जिसके चलते इसकी सरहदों को छूने वाली मुख्य सड़क पर रिसोर्ट और होटलों का एक छत्ता सा उग आया है। सफारी पर पार्क घूमने का यह धंधा अपने साथ जीप चालकों, गाइडों और होटल के दलालों के साथ-साथ  टोपियों, जैकेटों, की-चैन और दूसरे सूवेनिएर बेचने वाली दुकानों और फेरीवालों की भीड़ भी लाता है। इनके बीच यहाँ-वहाँ चाय बगानों की अपनी दुकानों में बिकने वाली बेहतरीन असम चाय खरीद कर आप अपनी यात्रा को सम्पूर्ण मान सकते हैं। लेकिन असम की विलक्षण वन सम्पदा को नज़दीक से छूने और महसूस करने के लिए आपको रिसोर्टों की इस तयशुदा दुनिया से बाहर निकलना होगा।

काज़ीरंगा से पूर्व की दिशा में असम ट्रंक रोड पर नुमालीगढ़ रिफाइनरी को पार करते हुए आप सांस्कृतिक शहर जोरहट आ पहुंचेंगे जिसने ज्ञानपीठ विजेता बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य सहित देश को कई लेखक और अध्यापक दिए हैं और जहाँ अनेकानेक विश्वविद्यालय और शोध संस्थान स्थित हैं। लेकिन हमारा गंतव्य है बस्ती से आगे, शहर से कोई 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गिबन अभयारण्य, जिसका नया नाम है होलोंगापार गिबन सैंक्चुअरी, जहाँ सभ्यता के तमाम दबावों के बावजूद सदियों पुराने जंगल आज भी जिंदा हैं। जंगल के छोटे से रेस्ट हाउस पर अपनी गाड़ी छोड़ आपको आगे का सर बंदूकधारी फोरेस्ट प्रहरियों के साथ पैदल तय करना  होगा। एयर राइफल से मिलती जुलती बंदूकों की ज़रुरत किसी हिंस्र जीव के हमले को रोकने के लिए नहीं, बल्कि इसका इस्तेमाल हाथियों से वास्ता पडऩे पर हवा में दागने के लिए होता है। जंगल की पगडंडियों में फोरेस्ट गार्डों के मार्गदर्शन के बगैर आपको भटकते देर नहीं लगेगी। पेड़ों का साया यहाँ इतना घना है कि भरी दोपहर में भी शाम ढलने का धोखा हो सकता है। होल्लोंग और मिज़ोराम के राजकीय पेड़ नाहोर की बहुतायत से इस जंगल को अपना नाम मिला है और यहाँ का सबसे मुखर बाशिंदा है ज़ोर-ज़ोर से हूक-हूककर चिल्लाने वाला हूलौक गिबन बन्दर- जो यहाँ की ऊंची डालों पर बाजीगरों को हैरत में डालने वाले करतब दिखाता मिल जाएगा। असम की समूची आत्मा कभी इन जंगलों में बसती थी। विकास की ज़रूरी शर्त में आज चाय के बगानों, बस्तियों, कारखानों और तेल के कुंओं द्वारा इस जंगल को लगातार पीछे समेटने की नापाक साज़िश लगातार चल रही है। यूं भी इन जंगलों और उनमें बचे-खुचे प्राणियों और आदिवासियों को आने वाली सदियों के लिए बचाए रखने का कोई कारगर रास्ता अब हमारी सभ्यता के पास बाकी नहीं बचा है। 

तेजपुर के जंगली इलाके में नामेरी अभयारण्य के नज़दीक योगी से व्यवसायी बने बाबा रामदेव के पतंजलि आयुर्वेद को डेढ़ सौ एकड़ ज़मीन विशेष रूप से मिली है ताकि वे वहां से  जंगली हाथियों को खदेड़ अपना 1300 करोड़ रुपयों का कारखाना बैठा सके। इसी जगह पर कारखाने के लिए बने गड्ढों में दो हाथी गंभीर रूप से ज़ख्मी हुए थे और एक की जान गयी थी। तब तत्कालीन वन विभाग मंत्री प्रमिला रानी ब्रह्मा ने इसके लिए कंपनी को दोषी बताते हुए उसके खिलाफ एफ आई आर के आदेश दिए थे। लेकिन मोदी और शाह के निकट मित्र रामदेव पर कोई आंच कैसे आ सकती थी। दृष्टव्य कि इस फोब्र्स पत्रिका द्वारा प्रकाशित दुनिया भर के सबसे अमीर खरबपतियों की सूची में इस बार आठ सौ चौदहवां स्थान पतंजलि के सहयोगी बालकृष्ण को मिला है और पूरी उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में उनके स्थान में और तरक्की होगी।

होल्लोंगापार का आरक्षित वन शायद देश का एकमात्र जंगल है जहाँ उत्तर पूर्व के विशिष्ट और संकटग्रस्त बंदरों की चार किस्में मिलती हैं। हूलौक के अलावा यहाँ शूकर पूंछधारी बंदर, टोपी वाले लंगूर और ठूंठ पूंछ वाले बंदर भी पाए जाते हैं। बंदरों की ये प्रजातियाँ दक्षिण पूर्व एशिया के गिने चुने जंगलों के अलावा कहीं और नहीं मिलती। जंगल में हमारी मुलाकात वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ संस्था की एक टोली से हुई जो यहाँ इन बंदरों पर शोध कार्य कर रही थी। इस विलक्षण जंगल में बन्दर से मिलते जुलते, बड़ी-बड़ी आँखों वाले एक और जीव- 'स्लो लोरिसका भी वास है। और इनके साथ हर जगह उड़ती चमकदार डिज़ाइनों वाली तितलियाँ, जिनके चमकदार रंगों को शब्दों में ढालना बेहद मुश्किल है। जंगल का यह तिलिस्म आगे कितने दिनों तक कायम रह पायेगा, कह पाना मुश्किल है क्योंकि सख्त हिदायतों के बावजूद हमें जंगल के कच्चे रास्ते पर बैरियर के उस ओर कई सरकारी वाहन और सामान से लदे, धूल भरे भारी ट्रक बेरोकटोक जाते मिले और उनमें से एक में तो हूलौक बन्दर की बोलती बंद कर देने वाला ट्रांज़िस्टर भी पूरे ज़ोर-शोर से बज रहा था। बंदूकधारी गार्ड से जब हमने इसका सबब पूछा तो उसने लाचारी में बन्दूक के साथ अपने दोनों हाथ आत्मसमर्पण की मुद्रा में ऊपर उठा दिए।

सुनहरी-लाल छाती वाले टोपीदार लंगूर को कुछ वक्त पहले हमने मानस के जंगलों में भी देखा था। उसी के साथ तब हमें तलाश थी इससे मिलते जुलते एक अन्य बेहद दुर्लभ सुनहरे लंगूर की, जो मानस और नदी के पार भूटान में कभी-कभार बमुश्किल दिखाई देता है. इस पहचान से पहले इस लंगूर का ज़िक्र हिमालय के 'हिम मानवकी तरह कई पुरातन धार्मिक ग्रंथों में मिथक की तरह पाया जाता था। लेकिन पिछली सदी के पांचवें दशक में भारतीय पर्यावरण वैज्ञानिक ई पी जी ने इस सुनहरे जीव को पहली बार मानस के जंगलों में सचमुच ढूंढ निकाला था। यह खोज लगभग अविश्वसनीय थी। बाद में तमाम दूसरे विशेषज्ञों ने भी इसे देखकर इसकी पुष्टि की, और इस तरह भारत के वन्य जीवों की सूची में एक और नया नाम जुड़ गया। प्राणियों का नामकरण करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने खोजकर्ता ई पी जी के नाम पर इस नए सुनहरे लंगूर का  वैज्ञानिक नाम रखा है Trachypithecus geei!

तब मानस में तीन-चार दिन भटकने के बाद भी जब हमें वह लंगूर नहीं दिखा था तो हमने उसकी उम्मीद छोड़ दी थी। लेकिन हमें मालूम नहीं था कि किसी और तरीके से यह काम एक दिन बेहद आसान हो जाएगा। शायर अब्दुल हमीद 'अदमने शायद कभी हमारे लिए ही लिखा होगा कि —

मेरी तलाश से मायूस लौटने वाले

तेरी हुदूद में आकर तुझे पुकारूँगा

मानस, काज़ीरंगा, होल्लोंगापार या नामेरी के जंगलों से लौटने का हर रास्ता गुवाहाटी से होकर गुज़रता है। प्रख्यात भीड़ भरे मंदिरों और खचाखच भीड़ से भरी सड़कों से दूर, शहर का सबसे सुकूनबख्श इलाका शायद ब्रह्मपुत्र का विशाल तट ही है जहां शाम में डूबते सूरज का नज़ारा देखते ही बनता है। यहाँ की जेटी से एक छोटे स्टीमर में कुछ मिनटों की यात्रा से आप ब्रह्मपुत्र नदी के बीच स्थित छोटे से उमानंद द्वीप तक जा सकते हैं जहां छोटे-मोटे जंगल के बीच एक शिव मंदिर है। ज़्यादातर लोग मंदिर के आकर्षण में यहाँ आते हैं। लेकिन स्टीमर से द्वीप की सरज़मीन पर उतरते ही सबसे पहले हमारी निगाह पेड़ों के एक झुरमुट पर पड़ी जहां हमारे ऐन सामने, सुनहरी लंगूरों का एक पूरा परिवार निचली डाल पर इत्मीनान से सुस्ता रहा था।  द्वीप पर उन दुर्लभ लंगूरों का दिखना कोई संयोग नहीं था। कहा जाता है कि लगभग पचास वर्ष पहले मंदिर के एक पुजारी ने दो लंगूरों को किसी तस्कर व्यापारी से छुड़ा इस द्वीप पर खुला छोड़ दिया था। मनुष्यों के अभ्यस्त ये लंगूर अब यहाँ आराम से स्वच्छंद रहते हैं और मंदिर के फल-फूलों के भोजन और संरक्षण के चलते अब ये संख्या में दो से बढ़कर आठ हो गए हैं। इन लंगूरों की ही वजह से द्वीप पर स्थित शिव मंदिर ने अब अन्तरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर ली है। मंदिर के एक आध पुजारी को छोड़, द्वीप पर किसी को रात गुज़ारने की इजाज़त नहीं है।

ब्रह्मपुत्र नदी के विशाल पाट का दूसरा धूमिल किनारा आपको बरबस दुनिया के किसी अप्राप्य छोर की ओर खींचता महसूस होगा। इसे पीछे छोड़कर दुबारा शहर के कोलाहल में लौटना तकलीफदेह है। पता नहीं क्यों, शहर की इस गहमागहमी में प्रवेश करते हुए हमेशा मुझे ढाका शहर की याद आती है, इन दोनों शहरों में पता नहीं क्या साम्य है। लेकिन स्मरण आता है कि आज से कोई पंद्रह या बीस साल पहले, 'पहलमें ही प्रकाशित बंगलादेश पर अपनी रिपोर्ताज में ढाका पहुँचने पर मैंने इसी तरह गुवाहाटी को याद किया था। मैं पाता हूँ कि इन बीस वर्षों में गुवाहाटी का चेहरा बहुत कम बदला है। यहाँ वहाँ शहर के विज्ञापन बोर्डों में आज भी आपको किसी प्रादेशिक पहचान चिन्ह की तरह असमिया टोपी में गायक-संगीतकार भूपेन हज़ारिका का भव्य चेहरा झांकता दिखाई दे जाएगा। यह शहर अपने सांस्कृतिक चेहरों को बहुत सहेजकर स्मृति में रखता है. लेकिन इसकी रोज़मर्रा की दुनिया में आपको असमिया के अलावा बंगाली और मारवाड़ी संस्कृति का मिला-जुला कॉस्मोपॉलिटन अक्स भी दिख जाएगा। हर रोज़ अपनी लैंड रोवर, जिप्सी और  टोयोटा गाडिय़ों में मुसाफिरों को जोरहाट, शिलोंग, तेजपुर, चेरापूंजी और नामेरी पहुँचाने वाले हरफनमौला ड्राइवर प्रदेश के इसी कॉस्मोपॉलिटन समाज की उपज हैं। पगड़ीधारी सिख बॉबी सिंह जिस फर्राटे से असमिया बोलता है उसे सुनकर आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे। सड़क पर बोली जाने वाली असमिया-बंगला-नेपाली की मिली जुली हिंदी एक तरह से यहाँ की लिंगुआ फ्रेंका है जिसे सब समझते हैं। लेकिन भाषिक बहुलता और उदारता का यह अहसास बहुत धोखादेह हो सकता है। यहाँ के लोग, यहाँ की सड़कें, यहाँ के शहर और गाँव; यहाँ तक कि यहाँ की नदियाँ आज देश-व्यापी राजनीतिक ध्रुवीकरण का सबब बन चुकी हैं।

ब्रह्मपुत्र के उत्तरी किनारे से आगे फैला है स्वायत्तता प्राप्त बोडोलैंड प्रादेशिक जिला क्षेत्र (बी टी ए डी) जिसके शासन की जिम्मेदरी बोडोलैंड प्रादेशिक समिति के हाथों में है। यह समिति अखिल बोडो विद्यार्थी संघ तथा राष्ट्रीय जनतांत्रिक बोडो फ्रंट एवं सरकार के बीच चली लम्बी लड़ाई के बाद 2003 में समझौते की शक्ल में गठित की गयी थी। इसका स्वरुप गोरखालैंड की दार्जीलिंग गोरखा हिल परिषद् से मिलता जुलता है। कुछ इसी तरह की लड़ाई कई वर्ष पहले  मिज़ो राष्ट्रीय फ्रंट ने भी सरकार के साथ लड़ी थी, जिसके परिणामस्वरूप असम के एक हिस्से को काटकर पृथक राज्य मिज़ोराम 1972 में बनाया गया था। फर्क इतना है कि सरकार से समझौते के बाद बोडोलैंड और गोरखालैंड सिर्फ स्वयत्तता प्राप्त प्रादेशिक क्षेत्र ही बने हैं, लेकिन पृथक राज्य की लड़ाई अब भी जारी है। यही नहीं, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में भी केन्द्रीय शासन के विरुद्ध बगावत के स्वर उठने लगे हैं और 'धार्मिक बनाम जातीय स्वतंत्रताके नाम पर लड़ी जाने वाली यह निरंतर लड़ाई अंतत: प्रदेश या कि देश को कहाँ ले जाएगी, इसकी कल्पना करना मुश्किल है।

बोडोलैंड के अधिकांश बाशिंदे बोडो (स्थानीय उच्चारण के अनुसार 'बोरो’) जाति के हैं जो सदियों पहले चीन और तिब्बत के रास्ते यहाँ आकर बसे थे और जिन्होंने आर्यों एवं शान (बाद में अहोम) के हमलावरों/ बसने वालों के बीच भी अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखा था। (अंग्रेजों के आने से पहले यह प्रदेश मयनमार साम्राज्य के अधीन था और अंग्रेजों द्वारा सामरिक संधि के ज़रिये इस प्रदेश को हासिल करने की कहानी हम पहले पढ़ चुके हैं)। पिछले कई दशकों, बल्कि शताब्दियों से बोरो जाति के लिए सांस्कृतिक अस्मिता की सुरक्षा और घुसपैठियों या अनाधिकृत रूप से यहाँ आकर बसने वालों ('विदेशियों’) से संघर्ष का मुद्दा सबसे अहम रहा है और यही सवाल आज भी इस पूरे प्रदेश की राजनीति को संचालित कर रहा है। अंग्रेजों से पहले और उनके शासनकाल में भी उत्तर पूर्व का यह प्रदेश ब्रिटिश इंडिया से एक फासले पर था। स्वतंत्रता के बाद भी एक ऐतिहासिक भूल के तहत यहाँ विकास की र$फ्तार देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले धीमी रही है। शायद यही वजह है कि विकास की मुख्यधारा से कटकर आज बोडोवासी एक स्वतंत्र राज्य की कल्पना में अपनी सुरक्षा देख रहा है। 

रोज़गार के अवसरों का अभाव प्रदेश के पढ़े लिखे नौजवानों को बड़े महानगरों की ओर खींचता रहा है लेकिन दूसरे प्रदेशों में भी अपनी विशिष्ट शक्ल-सूरत के कारण इनसे अक्सर भेदभाव बरता जाता है। हिंदी फिल्म 'पिंकमें अदालत का दृश्य याद करें जिसमें मुवक्किल का वकील तीन लड़कियों में से एक से सवाल करता है कि 'क्या आप नार्थ ईस्ट से हैं?’ तो बचाव का वकील (अमिताभ) इस पर सख्त एतराज़ जताते हुए जानना चाहता है कि यही सवाल बाकी लोगों से क्यों नहीं पूछा गया?

दरअसल उत्तर पूर्व को लेकर आम हिंदुस्तानी की संकीर्ण मानसिकता से हर कदम पर लडऩे की ज़रुरत है. प्रदेश में उभर रही नयी पीढ़ी न सिर्फ हम जितनी ही सुवधाओं के हकदार है, बल्कि अपनी खुली सोच और नए विचारों के कारण वह कई अर्थों में हमसे भी आगे है।

निस्संदेह पूरे उत्तर पूर्व, और विशेष रूप से असम में बाहर से आकर यहाँ बसने वालों के प्रश्न को दुनिया और प्रदेश के विकास से जोड़कर देखना होगा। कोई भी व्यक्ति या समाज दुनिया में द्वीप की तरह अकेला नहीं रह सकता। विकास का आर्थिक या शहरी मॉडल हमेशा लोगों को एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित होने के लिए प्रेरित करता है। इसके अलावा राजनीतिक कारणों से भी लोग अपना घर या प्रदेश अथवा मुल्क छोडऩे पर मजबूर होते हैं। जिन राजनीतिक बदलावों और नीतियों के लिए सरकारें ज़िम्मेदार होती हैं, उनका सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा आम जनता को उठाना पड़ता है। 1947 में देश का बंटवारा, 1971 का बांग्लादेश युद्ध और मयनमार में सेना द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों पर ढाए जाने वाले अत्याचार, ये सब ऐसे बड़े राजनीतिक घटनाक्रम थे जिन्होंने बड़े पैमाने पर पूरे देश और प्रदेश में लाखों लोगों को विस्थापित किया। बांग्लादेश की लड़ाई के समय असम में बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से शरणार्थियों का आगमन हुआ। इसके अलावा अंग्रेजों के समय चाय और जूट के उद्योग में काम करने वाले हज़ारों मजदूर देश के दूसरे प्रदेशों से असम में आये। वाणिज्य की संभावना में सैंकड़ों मारवाड़ी और गुजराती परिवारों ने गुवाहाटी, जोरहट, तिनसुकिया और डिब्रूगढ़ को अपना घर बनाया। ये सब औद्योगिक विकास की स्वाभाविक प्रक्रियाएं थी। ये न घटती तो शायद कुछ न होता। प्रदेश में तथाकथित 'विदेशियोंके प्रति विद्वेष की जड़ें गहरी और जटिल ज़रूर हैं और यह मसला केवल उत्तर पूर्व तक सीमित नहीं है। देखा जाए तो बोडोलैंड में बोरो निवासी भी किसी समय चीन और तिब्बत से वहां आये थे, कुछ उसी तरह जैसे आर्य और मुल भारत आये थे या बौद्धों ने बंगला प्रदेश पर शासन किया था। ऐसे में किसे उस प्रदेश का मूल निवासी माना जाये? मुंबई के पिछले दो हज़ार वर्षों के इतिहास में अलग अलग समय पर वहां बौद्धों, गुजराती मुसलमानों, पुर्तगालियों, अंग्रेजों, पारसियों और अन्य समुदायों का बोलबाला रहा। इनमें से किसी की भी ज़बान मराठी नहीं थी. ऐसे में वहां एम एन एस द्वारा उठायी जाने वाली 'मराठी मानुसकी मांग कहाँ तक जायज़ है? धर्म, जाति अथवा भाषा के आधार पर प्रदेशों और वहां के लोगों को बांटने की सोच  उतनी ही गलत है, जितनी 'पिंकफिल्म में नागालैंड से आयी एंड्रिया के प्रति कुछ दिल्ली वालों की निहायत संकुचित मानसिकता! इसका यह मतलब न लगाया जाए कि स्थानीय लोगों और जन जातियों की सांस्कृतिक पहचान को बचाना और सुरक्षित रखना ज़रूरी नहीं है।

लेकिन वर्तमान समय में 'विदेशियोंके सवाल ने असम की समूची राजनीति को एक खतरनाक दिशा में मोड़ दे दिया है। असम समझौते के तहत लागू हो रहे  एन आर सी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) ने इसे कुछ और बढ़ा दिया है।

दृष्टव्य है कि 1951 में आज़ादी के 4 वर्ष बाद पूरे देश में जनगणना के आधार पर पहला राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाया गया था। तब इसका उद्देश्य बंटवारे से उखड़े लोगों की नागरिकता तय करना था। उस समय जवाहरलाल नेहरु और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच समझौता हुआ था कि बंटवारे से विस्थापित नागरिकों को 31 दिसम्बर 1950 तक अपना पसंदीदा देश चुनने की आज़ादी रहेगी। इतने वर्षों के बाद केवल असम में अब इस राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का ताज़ा संस्करण लागू होने जा रहा है, जिसका आधार जनगणना के स्थान पर शर्तों के अनुसार एन आर सी का पंजीकरण होगा।

इसकी कदम की पृष्ठभूमि में है असम विद्यार्थी संघों एवं सरकार के बीच चली लम्बी लड़ाई, जिसकी अन्विति 1985 में राजीव गांधी सरकार और असम विद्यार्थी संघ के बीच हुए असम समझौते से हुई थी और जिसमें अन्य बातों के अलावा तय हुआ था कि 24 मार्च 1971 के बाद बिना वैध कागज़ात के बगैर असम में प्रवेश करने वालों को 'विदेशीमानकर प्रान्त छोडऩे को कहा जाएगा। बाद में सरकारें बदलीं लेकिन यह समझौता वर्षों तक ठंडे बस्ते में बंद रहा और असंतोष उसी तरह बरकरार रहा। आखिरकार  विद्यार्थी संघ और सरकार के बीच 2005 में  एक और समझौते में फैसला लिया गया कि दो वर्षों में 1951 के नागरिकता रजिस्टर और 1971 की मतदाता सूची के आधार पर नागरिकों की नयी सूची बना दी जाएगी। कुछ जिलों में काम शुरू भी हुआ लेकिन व्यापक विरोध के कारण इसे बंद करना पड़ा।

2009 में एक स्थानीय एन जी ओ ने उच्चतम न्यायालय में एक अर्जी दाखिल कर दी जिसके 2013 में आये फैसले के अनुसार 2018 की दिसम्बर तक नए नागरिक रजिस्टर का काम पूरा किया जाना है। बरसों से असम में रहते आये लगभग हर तबके ने एन आर सी का समर्थन किया था। लोगों को लगा था कि इसके आने से 'विदेशियोंके बहाने लोगों की प्रताडऩा त्म हो जायेगी. लेकिन हाल ही में आयी एन आर सी की आखिरी अंतरिम सूची ने कई ज़ख्मों को फिर से हरा हर दिया है। इसमें राज्य की 3.3 करोड़ जनसंख्या में से 40 लाख यानी 12 प्रतिशत लोगों के नाम शामिल नहीं हैं। कुल जनसंख्या में कोई एक तिहाई मुसलमान हैं। चूंकि सूची से बाहर हुए लोगों में से अधिकाँश मुसलमान हैं, इसका मोटा अर्थ यह निकलता है कि यही सूची यदि अंतिम रही तो राज्य के हर तीन मुसलमानों में से एक अपनी नागरिकता खो सकता है।

एन आर सी की अंतिम सूची में कई गलतियों के आने के बाद उच्चतम न्यायालय ने इसके आयोग को कड़ी फटकार भी लगाई है, लेकिन सूची से बाहर हुए लोगों के बीच फिर भी एक गहरी अनिश्चितता और भय का माहौल व्याप्त है।

''तयबुल्लाह रोड स्थित 'कॉफ़ी डेरेस्तरां के खुलने के बाद से ही वहाँ वेटर का काम कर रहे हबीब की तीन पुश्तें गुवाहाटी में हैं लेकिन उसके परिवार का नाम सूची में नहीं है....बारपेट की अनपढ़ जहाँआरा के पास सिर्फ गाँव के मुखिया का प्रमाणपत्र है कि वह अपने दिवंगत पिता की बेटी है, लेकिन उसे मालूम नहीं कि वे उसकी बात सुनेंगे या नहीं... एन आर सी के हजेला के अनुसार यह प्रमाणपत्र कमज़ोर है क्योंकि सरपंच का सर्टिफिकेट तो कोई भी ला सकता है... बारपेटा के शिक्षक शंकर बर्मन की पत्नी, बेटे और बेटी के नाम सूची में नहीं हैं। पत्नी का जन्म पश्चिम बंगाल के कूचबिहार में हुआ था। क्या असम वाले दूसरे राज्य की नागरिकता को स्वीकार करेंगे?...’’  (रोहिणी मोहन)

गुवाहाटी उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील हाफ़िज़ राशिद अहमद चौधरी के अनुसार एन आर सी की सबसे गंभीर मार उन लोगों पर पड़ी है जिनके माता पिता या बच्चों के नाम 1997 और 2005 चुनावों में 'संदिग्ध मतदाताबताकर विदेशी न्यायाधिकरणों अथवा सीमा पुलिस को सौंप दिए गए थे। ये लोग जब तक इन न्यायाधिकरणों के सामने अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर पाते, तब तक उनके समूचे परिवार को नागरिकता की सूची से बाहर रखा जायेगा।

एन आर सी के अधिकारी इस भय को दूर करने के लिए आश्वासन दे रहे हैं कि सूची में सुधार की सारी संभावनाएं खुली हैं, लेकिन सरकार की सदाशयता पर लोगों का भरोसा बहुत कम है। एक तरफ ममता बनर्जी जहाँ प्रदेश में 'गृह युद्धकी आशंका जताती हैं, वहीँ अमित शाह ऐलान करते हैं कि यदि अगले साल बी जे पी सत्ता में आयी तो वे बांग्लादेश से आने वाले सारे हिन्दू शरणार्थियों को नागरिकता दे देंगे और बंगाल में भी एन आर सी लागू करेंगे। 2015 से उनकी सरकार एक संशोधित नागरिकता बिल 2016 लाना चाह रही है, जिसमें निकटवर्ती देशों से आने वाले हिन्दू शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान रहेगा। लेकिन भूतपूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान सरकार में बी जे पी के सहयोगी असम गण परिषद् के प्रफुल्ल कुमार महंता इसके सख्त विरोध में हैं। वे कहते हैं कि नागरिकता का सवाल किसी एक धर्म या समुदाय पर आधारित नहीं हो सकता। और उधर अंतर्राष्ट्रीय हिन्दू परिषद् के सभापति प्रवीण तोगडिया, जिनपर पुलिस द्वारा गुवाहाटी में भाषण देने की मनाही है, अपने मुंह पर काला कपड़ा बांधकर फरमाते हैं कि वे प्रदेश से 'पचास लाख मुसलमानों को देश निकाला देकर ही दम लेंगे। सब जानते हैं कि ये सारे पैंतरे आने वाले चुनावों में हथियारों की तरह इस्तेमाल किये जाने वाले हैं।

लेकिन ज़हरीले शब्दों से आप देश में पिछले चालीस-पचास वर्षों से रहते आये लोगों को खारिज नहीं कर सकते। यदि आप उन्हें गैर-नागरिक घोषित कर भी देते हैं, तब भी कौनसा देश उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार होगा? वे कहाँ जायेंगे? क्या तब इन्हें देश में दोयम दर्जे के घुसपैठिये घोषित कर शरणार्थी शिविरों में फेंक दिया जाएगा? इन असुविधाजनक सवालों का जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है।

 

(अगले अंक में जारी)

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