जयप्रकाश मानस कविताएं
जयप्रकाश मानस
कविता
निहायत छोटा आदमी
उतना दुखी नहीं होता निहायत छोटा आदमी जितना दिखता है
निहायत छोटा आदमी छोटी-छोटी चीजों से संभाल लेता है ज़िंदगी नाक फटने पर मिल भर जाए गोबर बुखार में तुलसी डली चाय मधुमक्खी काटने पर हल्दी
जितना दिखता है उतना काँइयाँ नहीं होता निहायत छोटा आदमी
निहायत छोटा आदमी नई सब्जी का स्वाद पड़ोस बाँट आता है उठ खड़ा होता है मामूली हाँक पर औरों के बोल पर जी भर के नाचता जितना दिखता है उतना पिछड़ा नहीं होता निहायत छोटा आदमी
निहायत छोटा आदमी सिरहाने रखता है पुरखों का इतिहास बूझता है अपना सारा भूगोल पत्ती पर ओस, जंगल के रास्ते, चिडिय़ों का दर्द पढ़े बगैर बड़ी-बड़ी पोथी
जितना दिखता है उतना छोटा नहीं होता निहायत छोटा आदमी
निहायत छोटा आदमी लहुलूहान पाँवों से भी नाप लेता है अपना रास्ता निहायत छोटा आदमी के निहायत छोटे होते हैं पाँव पर डग भरता है बड़े बड़े
बचे रहेंगे
नहीं चले जाएँगें समूचे बचे रहेंगे कहीं न कहीं
बची रहती हैं दो-चार बालियाँ पूरी फ़सल कट जाने के बावजूद भारी-भरकम चट्टान के नीचे बची होती हैं चींटियाँ बचे रहेंगे ठीक उसी तरह
सूखे के बाद भी रेत के गर्भ में थोड़ी-सी नमी अटाटूट अँधियारे वाले जंगल में आदिवासी के चकमक में आग लकड़ी की ऐंठन कोयले में टूटी हुई पत्तियों में पेड़ का पता पंखों पर घायल चिडिय़ों की क़शमकश मार डाले गए प्रेमियों के सपने ख़त में बचा ही रह जाता है
तब तक
जिन्हें अभी डराया नहीं गया है जिन्हें अभी धमकाया नहीं गया है जिन्हें अभी सताया नहीं गया है जिन्हें अभी लूटा नहीं जा सका है क्या वे सारे के सारे निरापद हैं? कभी भी घेरा जा सकता है उन्हें हो सकता है उनकी हत्या ही कर दी जाए तब तक क्या बहुत देरी नहीं हो चुकी होगी?
जब कभी होगा ज़िक्र मेरा
याद आएगा पीठ पर छुरा घोंपनेवाले मित्रों के लिए बटोरता रहा प्रार्थनाओं के फूल कोई मन में ताउम्र
याद आएगा बस्ती की हारी हुई हर बाजी को जीतने की क़शमक़श में ही मारा गया बिल्कुल निहत्था कोई भाग खड़ी हुई चिर-परिचित परछाइयों की सांत्वना के साथ
याद आएगा कोई जैसे लम्बे समय की अनावृष्टि के बाद की बूंदाबाँदी संतप्त खेतों में, नदी पहाड़ों में, हवाओं में कि नम हो गई गर्म हवा कि विनम्र हो उठा महादेव पहाड़ रस से सराबोर कि हँस उठी नदी डोंडकी खिल-खिलाकर कि छपने लगी मुक्त कविता सुबह दुपहर शाम छंदों में
याद आएगा कोई जिक्र जिसका हो रहा होगा वह बन चुका होगा वनस्पति जिसकी हरीतिमा में तुम खड़े हो बन चुका है आकाश की गहराइयाँ जिसमें तुम धँसे हो
याद आएगा कोई टिमटिमाता हुआ लोककथाओं की पूर्वज तारा की तरह अँधेरों के ख़िलाफ़ रातों में अब भी
जब कभी होगा ज़िक्र मेरा याद आएगा छटपटाता हुआ वह स्वप्न बरबस आँखों की बेसुध पुतलियों में
तब तो मैं खुश होऊँ
गाभिन गाय घर लौटे आँगन फुटके गौरेया कोदो चुगे- कल से थकीमांदी चंदैनी गेंदा फिर महके- बहुएँ ले आयें कुएँ से पानी के साबूत मटके छुटकी नये शब्दों में संग चौखट में फटके तब तो मैं खुश होऊँ! खुश होऊँ कि पत्नी के संग ननद हँसे खुश होऊँ कि विधवा काकी के मन अब भी काका बसे खुश होऊँ कि बडख़ी की मँगनी बिन सोनचाँदी- खुश होऊँ कि माई के चंदा को न राहू ग्रसे खुश होऊँ कि दादीधँसी न दिखे-दादा की आँखें धँसी- पिताजी को पटवारी ना यूँ धौंस दिखाये कभी भी छीन लेगी सरकार ज़मीन, कहके गुर्राये तब तो मैं खुश होऊँ
तब तो खुश होऊँ कि फ़सल सिर्फ मेरी अपनी है तब तो खुश होऊँ कि खेत न गिरवी रहनी है खुश होऊँ कि मेरे मन में दाने बहुत हैं खुश होऊँ कि हर दुख के खिलाफ़ गाने बहुत हैं।
थप्प से बैठे किसी डाल पर
बूढ़ा नीम ताके रस्ता- उड़ते-उड़ते कोई आये थप्प से बैठे किसी डाल पर डैनों से धूल झर्राये
ठूनके एक-दो, चार-आठ बार मेरी कड़वी काया को देखे-पेखे आजू-बाजू पलकें झपके आश्वस्ति में
डाल बदल कर जा बैठे, फिर ऊपर ताके, झाँके नीचे क्षण भर आँखें मींचे कुछ गाये, चाहे समझ न आये
गदरायी निबौरियों की गंध से भूख उसकी बौराये बोले चुपके से मेरे कान में दोस्त कड़वे-तुम्हीं मीठे मन है कि ठहर जाऊँ घर-बार यहीं रचाऊँ?
पहल में पहली बार। संपर्क - मो. 9424182664
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