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सितम्बर - 2018

बाजे वाली गली

राजकुमार केसवानी

उपन्यास अंश - 2

 

 

लाल फ़ीताशाही के चलते एक परिवार, एक कमरा की सरकारी पालिसी ने कई सारे रिफ्यूजी परिवारों को पहले काज़ पर फ़िर हक़ीक़त में तोड़  डाला। हमारा परिवार भी इसका शिकार हुआ। यहां आने तक एक घर, एक परिवार, ज़्यादा कुशादा जगह हासिल करने के चक्कर में टूटकर तीन घरों में बंट गया। इस बिखरते परिवार की आर्थिक स्थिति भी कंगाली के कगार तक जा पहुंची थी। यहां तक आते-आते कुछ दिन सरकारी राशन का आसरा रहा तो कुछ घर के बर्तन-भांडे बेचकर गुज़र होता रहा। हाथ की नकदी, ज़ेवर-ज़टा कुछ भी बाकी न बचा था। घर की रीबी की इस हक़ीक़त को परिवार का हर सदस्य दिल ही दिल महसूस करता था लेकिन ज़बानी तौर पर स्वीकार नहीं करता था। हमेशा ख़ुद को दूसरों की मिसालें देकर बेहतर बताते। अपने से ज़्यादा बदहाल लोगों की बातें करते हुए अपनी रीबी को ढाढ़स बंधाते रहते। दादा पूरी जान लगाकर घर की अर्थिक स्थिति सुधारने की कोशिश में सुबह से किराए की साईकल लेकर निकल जाते थे। अबारों के लिए रिपोर्टिंग के बदले मिलने वाला पैसा बहुत कम था। पढ़े-लिखे इंसान होकर सड़क पर भजिये या शक्कर बेचने में झिझक थी। सो अपनी बी.ए. की डिग्री की मदद से एक वकील के साथ कुछ दिन काम करके, बिना एल.एल.बी वाले वकील हो गए। मगर सिंधी वकील के पास केस कहां से आते। और आते तो रीब सिंधियों के, जो फ़ीस के नाम पर दाम कम और दुआएं ज़्यादा देते थे।

इस माहौल में भी वकील साहब के उधार के भरोसे खाने-पीने और सा-सुथरे रहने के शौक के चलते कभी-कभी बाहर वालों के साथ-साथ ख़ुद घर वालों को भी अपनी ख़ुशहाली का यकीन होने लगता। लेकिन तकादे की बढ़ती आवाज़ों से ख्वाब टूट जाता।  घर के दूसरे मर्द भी हर दिन कमाई बढ़ाने की नई-नई तजवीज़ों पर बात करते। कुछ पर अमल करते। कभी कामयाब, कभी नाकाम होते। इधर महिलाएं अपनी-अपनी तरह से इसी दिशा में काम करतीं। मां और उसकी बहनें कपड़े सीते वक़्त तो हंसते-बोलते, कहकहे लगाते काम करतीं लेकिन अकेले होते ही रीबी, भूत के साए की तरह पीछे लगी ही रहती।

मां ने एक दिन, ताजमहल में रहने वाली अपनी एक सहेली शीला के तेज़ी से बदलते हालात को देखा तो हैरान रह गई। मामूली से ठेकेदार के मुंशी से उसका बाप ठेकेदार हो गया। अपना घर भी बना लिया। एक एम्बेसेडर कार भी रीद ली। ड्राईवर भी रख लिया। भूख को ठेंगा दिखाकर घर में दावतों का सिलसिला चल पड़ा था। एक दिन शीला अपनी कार से मां को अपने घर भी ले गई। उसकी समृद्धि देखकर मां को ईष्र्या हुई। बातचीत में शीला ने घर में लगा एक बड़ा सा फलता-फूलता मनी प्लांट दिखाया। मज़ाक-मज़ाक में यह भी कह दिया कि यह पौधा एक बोतल में ताजमहल वाले घर में लगाया था, यहां आकर ख़ूब फल-फूल रहा है। मां ने उसी दिन उसके घर से एक शा तोड़कर, आकर अपने घर में लगा ली। एक बोतल में। हर दिन सुबह उठकर सबसे पहले पौधे पर नज़र डालती। अक्सर हमे बुला-बुलाकर दिखाती - देखों बड़ रहा है न? ये देखो एक नया पता निकल रहा है।

ख़ुदा जाने क्यों और कैसे, मां का यह मनी प्लांट, कभी सर-सब्ज़ न हुआ। कभी धूप में, कभी एकदम छांव में। कभी मंदिर के पास। पर जो वो न पनपा तो न पनपा। मुहल्ले की औरतों में इसको लेकर एक छेड़ भी बन गई। तंज़ भरे अंदाज़ में मां से दरियाफ़्त करतीं - ''कैसा है तुम्हारा मनी प्लांट?’’ फिर ख़ुद ही आगे बड़कर उस दम तोड़ते चार पत्ते वाले पौधे को देखकर सलाह देतीं, ''पानी बदलो इसका, पानी गंदा हो गया है।’’ कोई सलाह देता - इसे ज़मीन में लगाओ। और सबसे लाजवाब सलाह यह थी कि ''देखो कृष्ना, यह मांगे का पौधा है। मांगकर लाया हुआ पौधा नहीं पनपेगा। इसे तो चुपचाप चोरी से किसी अच्छे पनपे हुए घर से तोड़कर लगाओ तभी पनपता है।’’

इस मनी प्लांट की वजह से घर की रीबी पर तो कोई असर न पड़ा अलबत्ता मां का मज़ाक बनाने वाली तीन-चार औरतों के घरों में मनी-प्लांट की लटकती बोतलें ज़रूर नज़र आने लगीं। कुछ की बेल भी बनी पर इस बेल के बावजूद इन घरों में जीने के लिए हर रोज़ बेले जाने वाले पापड़ कभी बंद न हुए। सिलाई मशीने कभी न रुकीं।

हवेली के इन आठ परिवारों के मर्द हर रोज़ सुबह-सुबह घरों से निकल पड़ते तो घर की औरतें काम करते-करते किफ़ायतशारी से जीवन को बेहतर बनाने के अपने-अपने अनुभव एक-दूसरे से बांटतीं। नतीजा यह कि कपड़े तो पहले ही घर पर धुलते थे लेकिन अब साबुन भी घर पर ही बनने लगा। शहर भर में घूम-घूम कर पापड़ बेचने वाली सावित्री माई हर दूसरे-चौथे दिन कोई नया आईडिया लेकर आती और पूरी हवेली के आकर्षण का केन्द्र बन जाती। उस दौर के चलन के मुताबिक सावित्री माई को कोई उसके नाम से नहीं बल्कि उसके बेटे घनश्याम उर्फ ''गन्नू’’ के नाम से जोड़कर 'गन्नू-माउकहकर पुकारा जाता था। इसका मतलब था ''गन्नू की मां।’’

एक दिन यही सावित्री माई बड़ी ज़बरदस्त बर लाई। सबसे पहले अपने घर गई और हाथ में एक बड़ी बाल्टी ली। फिर धीरे से एक-एक कर सबको बाल्टी लेकर चलने की दावत दी। यह दावत थी घर से कुछ दूर मंगलवारा में नए-नए खुले साबुन कारख़ाने का साबुन वाला पानी लाने की दावत, जिसे कारख़ाने वाले पाईप के ज़रिए पीछे बने नाले में बहा देते थे। अब यहां आईडिया यह था कि कपड़े धोने के लिए साबुन र्च करने की बजाए साबुन के इस पानी का इस्तेमाल किया जाए जो मुफ़्त में मिल रहा है।

मुहल्ले भर की औरतों के चेहरे यकायक खिल उठे। इस तरह की मुफ़्त या सस्ते की जुगाड़ से यह चेहरे हमेशा ही चमक उठते थे। इन्हीं कोशिशों के नतीजे में चूल्हा जलाने के लिए ज़रूरी ईंधन को लेकर भी कई सल-असल प्रयोग हो चुके थे। सबसे पहले जलाऊ लकड़ी की बजाय लकड़ी के पीठों पर लकड़ी कटाई के दौरान पीठे पर इधर-उधर बिखरने वाले लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े, जिन्हें छिपटी कहा जाता था का इस्तेमाल। काफ़ी सस्ती पडऩे वाली इस छिपटी को किसी टोकरी या तगाड़ी में पूरे पीठे में घूम-घूम कर रीदार को ख़ुद ही बीनना पड़ता था। फिर उन्हें बड़ी लकड़ी के बीच फंसाकर चूल्हे सुलगाए जाते थे।  कुछ घरों में लकड़ी के भुस्से से जलने वाली लोहे की सिगडिय़ां भी आ गई थीं। इस भुस्से के लिए उन्हें छावनी में आबाद आरा मशीनो के चक्कर लगाने पड़ते थे जबकि छिपटी मुहल्ले में ही तीन-तीन पीठों से मिल जाती थी।

स्टेशन के पास रहने वाली मेरी बुआ के लड़के गुरमुख और जयपाल रेल पटरियों से स्टीम इंजन से गिरने वाला कोयला बीनकर ले आते थे। कोयला बीनने के दौरान होने वाली मुश्किलों, लड़ाई-झगड़ों और पुलिस के पंगों की कहानियां सुन-सुनकर कोयला बीनने को मन बहुत ललचाता था। लेकिन मां इसे चोरी बताती थी जो पाप हो जाता है। सो बस एक बार के बाद फिर कभी न गया। आज सावित्री माई एक नई रोमांचक खोज लेकर आई थी। उस दिन बस दो और घरों से गन्नू की इस अम्मा के साथ लोग भरी धूप में बाल्टियां भरने निकले। अब हवेली में नल एक ही था। सो जिस घर को कपड़े धोने होते वह शाम में ही इस आशय की घोषणा कर देता कि कोई और कपड़े धोने की तैयारी न कर ले, क्योंकि नहाने-धोने और पीने का पानी भरते-भरते ही नल बंद हो जाते थे। नीमत यह था कि उन दिनो शाम को एक बार फिर पानी आता था कि जिससे किसी एक घर के कपड़े धुल पाते थे।

अब तक हवेली में कपड़े धोने के लिए रात में टीन के बड़े डब्बों में पानी के साथ कास्टिक सोडा और साबुन के चूरे को मिलाकर, कपड़े डाल दिए जाते थे। छोटे कपड़ों के लिए आने-दो आने में मिलने वाले मालती घी के ख़ाली डिब्बे और बड़े कपड़ों के लिए बाल विहार के लोहारों के बनाए गए टीन के बड़े डब्बे इस्तेमाल होते थे। धोबी की भट्टी की तरह आंगन के एक कोने में बनी सिगड़ी पर ख़ूब उबाल आने तक गर्म किया जाता था। एक डब्बा उबल गया तो दूसरा या तीसरा। इस नई कोशिश का मतलब था साबुन के चूरे का र्च बचाना। अगले दिन जब सावित्री माई मोगरी से पीट-पीट कर कपड़े धो रही थी, तो उसकी आवाज़ की तर हवेली भर के सारे घरों की औरतों के कान लगे हुए थे। बीच-बीच में अपना काम छोड़कर भी कोई-कोई देखने चला जाता कि कपड़े धुल कैसे रहे हैं। आख़िरी नतीजा तो बहरहाल कपड़े सूखने के बाद ही आना था। 

सावित्री की यह कोशिश ख़ासी कामयाब रही। हालांकि सब महिलाएं एक राय नहीं थीं कि कपड़े एकदम सा धुले हैं लेकिन इस बात पर सब सहमत थे कि बचत अच्छी हो जाएगी। इस अकेली बात ने धीरे-धीरे सबको कोई डेढ़-दो र्लांग की दूरी पर साबुन कारख़ाने के नाले से बाल्टियां भरकर लाना सिखा दिया। एक दिन जब मेरी बारी आई तो मेरे साथ मेरा वही दोस्त लल्लन भी गया, जिसकी बहिन से पहले झगड़ा हुआ था और फिर वो मेरी बहिन बन गई थी।

लल्लन बहुत तेज़ दिमा था। वह भागकर घर गया और ख़ासा मोटा और मज़बूत बांस ले आया। दोनो बाल्टियों को बांस के बीच डालकर हम दोनो गाते-मुस्कराते चल पढ़े साबुन फैक्ट्री की तर। एक सिरा मेरे हाथ और दूसरा लल्लन के हाथ में। मैं लल्लन की इस होशियारी से बहुत ख़ुश था। मेरी यह ख़ुशी अत्यंत अल्पकालिक थी। कारख़ाने के पिछवाड़े पहुंचे तो देखा कि नाले के पास डंडा लिए एक आदमी बिठा दिया गया था। पाईप का पानी जमा करने के लिए ड्रम रखे हुए थे। डंडे वाले आदमी ने हमारी बाल्टियां देखते ही ललकारा -  ''पैसे लाओ हो?’’

मैने हैरत से पूछा - ''पैसे?’’

वह बोला - ''हां, पैसे। जाओ-जाओ पैसे लाओ। नहीं तो चलते नज़र आओ’’

लल्लन मुझसे उम्र में दो-एक साल बड़ा था। बात-बात पर थूक को पिचकारी की तरह इस्तेमाल सा करता इधर-उधर फैंकता रहता था। और $गुस्सा आ जाए तो इसकी रफ्तार एकदम बड़ जाती थी। इस घड़ी भी यही हुआ। एक पिचकारी छोड़कर बोला; ''चलो खां लालू, यां तो अंधे के आंख निकल आई हें?’’

व्यापारी ने कमाई की गुंजाइश ताड़ ली थी अब उससे जीतना मुश्किल था। लेकिन हर रोज़ के हालात से टकराते-टकराते उस कमसिनी के दौर में भी दिल-दिमा में गुस्सा और ज़बान पर ज़हर जब-तब उतर कर आने लगा था। इस वक़्त भी गुस्सा अपने ओज पर चढ़कर ज़बान की नोक पर उतर ही आया। उसी गुस्से में मैने कह दिया - ''रख लो सम्हाल के। गांड धोने के काम आएगा।’’

डंडे वाले का हाथ डंडे तक पहुंचता और हम पर चल जाता, उससे पहले ही लल्लन ने बांस में फंसी बाल्टियां निकालकर हाथ में थाम लीं और मैने नीचे गिरा बांस का डंडा उठाकर दौड़ लगा दी।

घर पहुंचकर मां के सामने गुस्से भरे अंदाज़ में अपनी नाकामी बयान करते हुए उस साबुन फैक्ट्री के मालिक को एक हल्की सी गाली भी दे डाली। मां ने हैरत और सदमे से भरी नज़रों से मेरी तर देखा। ऐसा बिल्कुल न था कि उसे मेरी बदज़बानी और बद-अख्लाक़ी का अंदाज़ ही न था। मेरी गालियों की आदत से वो वाक़िफ़ थी लेकिन आज सीधे उसी के सामने ही मुंह से गाली निकल आई तो वह घबरा गई।

घबरा तो मैं भी गया। बल्कि बहुत बुरी तरह घबरा गया। अब तक सिर्फ बाप के मुंह से सुनता आया था कि मैं मुसलमानों की संगत में गुंडा बन गया हूं। लेकिन मां को अपने ईश्वर पर और अपनी भक्ति पर बड़ा भरोसा था कि मैं अभी बहुत छोटा हूं और धीरे-धीरे सुधर जाऊंगा। आज उस भरोसे को चोट लगी थी। मैने मां की आंखों में जो कुछ उस घड़ी देखा वो मेरे लिए बहुत तकलीदेह था। मैं घर से भागकर पाएगाह की तर चल पड़ा। ताला लगे बड़े दरवाज़े के पास वाली एक टूटी हुई ख़िड़की के रास्ते अंदर घुस गया। 

नज़रों की हद से बाहर तक फैली पाएगाह के भीतर चारों ओर नवाबी ख़ानदान के जानवरों के बांधने के बाढ़े बने हुए थे। और बीच में था विशाल सा ख़ाली मैदान। बाढ़े तो बरसों से यूं ही ख़ाली पड़े थे लेकिन मैदान बारिश के पानी से उग आई घास से पूरी तरह ढका हुआ था। मैं घास का एक तिनका तोड़कर बाढ़े वाले हिस्से के भीतर जाकर बैठ गया। वहीं बैठे-बैठे कुछ उस एक तिनके को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ता कुछ सोचता जाता था। हालंकि किसी ने मुझसे कुछ भी नहीं कहा था लेकिन फिर भी मैं बहुत डरा हुआ था। बार-बार यही सोच-सोच कर शर्मिंदा होता रहा कि मैने मां के सामने गाली बक दी। मुझे रोना आ रहा था मगर मैं रो नहीं रहा था। फिर ख़ुद पर गुस्सा आने लगा। इसी गुस्से में ख़ुद को कसकर चार-छह तमाचे मार लिए। अब रोना भी शुरू हो गया। रोते-रोते मुंह से बार-बार एक ही लफ़्ज़ निकलता था - मां...आं...आं...

कुछ देर बाद मुझे यूं लगा जैसे सारी पाएगाह में यही लफ़्ज़ गूंज रहा है - मां...आं...आं। मैं डर गया, रोना बंद करके इस गूंज को सुनने की कोशिश करने लगा। अब ऐसी कोई गूंज नहीं थी। बस हवा के झोंकों में ज़रूर कुछ तेज़ी आ गई थी जिसने अब तक मेरी तरह उदास खड़े घास के तिनकों पर गुदगुदी का सा काम कर दिखाया। घास के यह हज़ारों तिनके एक साथ झूम-झूम कर हवाओं की संगत में नाचते-गाते से मालूम होने लगे। इस संगत में संगीत भी आ शामिल हुआ और पूरब की तर से सीटी सी बजाता पश्चिम को छेडऩे लगा।

मेरी ख़ौफ़ज़दा आंखों के सामने हो रहे इस रूमानी बदलाव ने चंद लम्हों के लिए मेरे भीतर के सारे दुख-दर्द को एक मुस्कान में बदल दिया। मैं सब कुछ भूल इस जादुई बयार के साथ बहने सा लगा। तभी लैला बुर्ज वाली दिशा से हवा में तेज़ी से उड़ता एक पत्थर आकर पाएगाह के भीतर के एक टीन के दरवाज़े से आ टकराया और इस माहौल में एक निहायत बेसुरा रंग भर दिया।

मेरी नज़रें कुदरत के इस खेल से हटकर इधर-उधर घूमने लगीं। नज़रों को कहीं कुछ भी बदलाव नज़र नहीं आया लेकिन फिर अचानक ही यों लगने लगा जैसे कोई और भी यहां मौजूद है, जिसने मुझे रोते हुए देख लिया है। नज़रों ने एक बार फिर चारों तर की तलाशी ली लेकिन कोई नहीं था।

मैने जल्दी-जल्दी अपने गालों पर फैल चुके आंसुओं को जैसे-तैसे पोंछकर पूरी हिम्मत से एक बार फिर घूम-घूमकर इधर-उधर तलाश शुरू कर दी।

कोई भी तो नहीं था।

तो फिर कौन था?

अब तक मेरी सारी बहादुरी चीं बोल चुकी थी। इस तेज़ी से दौड़ लगाई कि अगले ही पल मैं उसी टूटी खिड़की के पास पहुंच गया, जो बरसों से बंद पड़े दरवाज़े के बदले यहां आने-जाने के रास्ते का काम देती थी।

गली में उस वक़्त कोई ख़ास चहल-पहल नहीं थी। मैं भी धीरे-धीरे घर की तर कदम बढ़ाता चल पड़ा।

                                                                                    *****

 

अपने घरों से बेदल होकर नए शहर में एक मुख़ालि माहौल के बीच अपने लिए ज़मीन ढूंढती कौम के किरदार में असुरक्षा का भाव समाहित हो जाना स्वाभाविक था। ऐसे माहौल में अक्सर इंसान के भीतर दो धारे बहने लगते हैं। एक धारा होता है ख़ौफ़ का, जो बाहरी माहौल में फैले हुए तरे से पैदा होता है और दूसरा धारा होता है बाहरी प्रतिक्रिया वाले धारे की प्रतिक्रिया में जन्मा जवाबी धारा। यही धारा होती है जो जिससे प्रेरित होकर इंसान की तमाम अंदरूनी कुव्वतें अपने वजूद के बचाव में एकजुट होकर उसे उसकी तमाम जिस्मानी कुव्वतों से ज़्यादा ताकतवर होने का भरोसा दिलाती हैं। वह अपनी इसी अंदरूनी ताकत के भरोसे उन बाहरी तरों से टकराता है, जिनसे उसे डर लगता है।

बाज़ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी इस अंदरूनी ताकत को न ठीक से पहचान पाते हैं और न ही उसे एकजुट कर पाते हैं। ऐसे लोग, अपनी सुरक्षा के लिए दूसरे इंसानों में अपनी सुरक्षा ढूंढते हैं। 

ऐसी ही दुविधा से जूझते, एक दो राहे पर खड़े बे-यार-ओ-मददगार सिंधी तबके में भी एक और बंटवारा हुआ। धीरे-धीरे विस्थापितों में से गिनती के चंद ऐसे लोग मंजऱ पर उभरने लगे जो हर रोज़ की लानत-मलानत से आजिज़ आ चुके थे। यह लोग अपनी ज़िंदगी से भी आजिज़ आ चुके थे। इन लोगों की बोली ही इनके अपमान का हथियार बन गई थी। यह ज़बान से चलने वाली किसी पिचकारी की तरह का हथियार था, जिससे ''ऐ सिंधी’’ ''भेणा खपो’’, ''लख जी लानत’’, ''वड़ी साईं’’ जैसे सिंधी के कुछ चुनिन्दा लफ़्ज़ हलाक होकर विकृत रूप में बाहर निकलते और बर्छी की तरह राह चलते बच्चे-बूढ़ों को निशाना बनाते।

ऐसे ही मुख़ालि माहौल में जीने के रास्ते ढूंढते इन विस्थापितों में से कुछ लोग कम लागत, कम मुनाफ़ा लेकिन टर्न ओवर ज़्यादा वाले फ़ार्मूला लेकर बाज़ार में उतरे। व्यापारिक हितों को टकराव हुआ तो शहर के पुराने व्यापारियों ने इन नए-नए व्यापारियों को मिलावटखोर और डंडीमार वाले तमगा देकर बाज़ार में हराने की रणनीति अपना ली। दो व्यापारियों की लड़ाई की इस जंग की ज़द में आकर वह लोग भी आहत होने लगे जो न तो सड़क पर ख़ाली शक्कर के बोरे के मुनाफे पर शक्कर बेच रहे थे और न ही दाल-चांवल की कोई दुकान लगाई थी। इसके बावजूद वे हर सुबह, हर शाम तरह-तरह के झूठे इल्ज़ाम झेल रहे थे।

यह बेकार से घूमते बेरोज़गार लोगों का वर्ग था, जिसके लिए ज़िंदगी में कुछ भी ठीक नहीं हो रहा था। सो जीने-मरने की परवाह को पीछे छोड़ इस निहायत छोटे से हिस्से ने ईंट का जवाब पत्थर वाला रास्ता चुन लिया और डराने वाले नतीजों को अलगनी पर टांगकर बेख़ौफ़ सीना तानकर निकलना शुरू कर दिया। यह वो लोग थे जो ऊंची आवाज़ में अपने घर छोड़ विस्थापित होने को वतन के लिए दी गई $कुरबानी मानते थे और नई व्यवस्था में अपने लिए सम्मान का स्थान चाहते थे। और जो यह ह, की तरह न मिले तो आगे बड़कर छीन लेने वाले लसफे के साथ सामने आ गए।

लेकिन दूसरे मार्ग पर चलने वालों की तादाद बहुत बड़ी थी। ये लोग मिल-जुल कर सुलह-कुल वाले अंदाज़ में जीने की तमन्ना रखते थे। इतनी बड़ी उथल-पुथल के बाद किसी तरह थोड़े बहुत समझौते की राह लेकर सुकून से जीना चाहते थे। इस तबके ने शहर के सिख समुदाय और उनकी बहादुरी को अपनी ताकत मान लिया। 

यह कोई नई बात नहीं थी। सदियों से सिंधी समाज सिखी पंरपरा से जुड़ा रहा है। शायद ही कोई ऐसा घर हो कि जिस घर में गुरू नानक देव या दूसरे सिख गुरुओं की तस्वीरें न लगती हों। शायद ही कोई ऐसा घर रहा होगा जिसमे गुरू ग्रंथ साहब का पाठ न होता हो। और तो और सिंधी कहावतों में भी गुरू नानक देव का स्थान इतना ऊंचा रहा है कि वो अपने घर को भी गुरू की छांव की तरह मानते थे। बार-बार यही एक जुमला सुनाई देता था ''घर गुरू जो दर।’’ हर तीसरे-चौथे सिंधी घर में एक बेटे का सिख होना एक आम बात थी। इस नाते वे हमेशा से ही ख़ुद को सिखों को अपना भाई, अपना हमज़ाद मानते ही आए थे। और सिख समुदाय ने भी हमेशा ही इस रिश्ते को वही समान दिया है।

एक दिन की घटना ने इस पूरी बात को एक नई उड़ान दे दी। एक दिन दो सिख औरतें घर से कुछ दूरी पर आबाद इब्बा चूड़ी वाले की बाल से मां के पास कपड़े सिलवाने आईं। उन्होने अपनी किसी परिचित का हवाला दिया जिसके लिए मां ने कपड़े सिये थे। मां के चेहरे पर अपनी तारी सुनकर एक मुस्कराहट सी आई। उसने उठकर दोनो को पानी पिलाया और बड़े प्यार से कपड़ों की सिलाई के बारे में बात की। बातों-बातों में ही मां ने उनसे दरियाफ़्त किया कि शहर में गुरूद्वारा कहां है। गुरूद्वारे की बात सुनकर दोनों के चेहरे पर एक मुस्कान सी फैल गई। उन्होने बताया कि शहर में कुल जमा एक ही गुरूद्वारा है जो शहर से काफ़ी दूर रेजीमेंट रोड पर है।

इन दो में से एक औरत ख़ासी बुज़ुुर्ग थीं। मां ने जब इस बात पर हैरानी और निराशा प्रकट की तो उस बुज़ुर्ग महिला ने अपने पंजाबी लहजे में जवाब दिया, ''ओ न जी, जेड़ा नवाब सीं न भोपाल दा, उना दी फौज विच पटियाले दे जियाले सिख सिपाही थे। कोडिय़ां वाली फ़ौज (घुड़सवार फ़ौजी दस्ता) बनाने के लिए उना ने खास तौर से पटियाला महाराज नू दोस्ती दा वास्ता दे के, पांज सौ सिपाहियां नू बुलाया सी। सो बस उन्हां दे वास्ते ई वो गुरूद्वारा भी बणाया सी।’’

रेजीमेंट रोड शहर ख़ास से वाकई दूर-दराज़ का इलाका था। यह भोपाल रियासत की फ़ौज सुल्तानिया इंफेंट्री वाली बैरक्स की तर आने-जाने का रास्ता था। इस दूरी के बावजूद गुरूद्वारे पहुचने वालों की कमी न थी। साझे का तांगा इसके लिए बड़ी मुफ़ीद चीज़ था।

मां ने हवेली के सारे घरों से इन दो महिलाओं का परिचय ऐसे करवाया, जैसे कोई रिश्तेदार हों। उससे भी बढ़कर यह कि सारे लोगों ने इसी तरह की ख़ुशी ज़ाहिर की। मां ने आख़िर में घर के अंदर एक आले में बने मंदिर, उसमे कांच वाले $फ्रेम में जड़ी गुरू नानक देव की तस्वीर और गुरू ग्रंथ साहब के दर्शन भी करवा दिए। कपड़े सिलने से पहले ही एक नया और मज़बूत रिश्ता कायम हो गया। इसके बाद शुरू हुआ तीज-त्यौहार पर गुरूद्वारे जाने का सिलसिला।

दादा पौ फटे ही हवेली के इकलौते गुसल ख़ाने में पानी की बाल्टी लेकर घुस जाते।  जनेऊ हाथ में लेकर कुछ बुदबुदाते और फिर नहा-धोकर निकल पड़ते घर से कुछ दूर ज़ांची गली में बने मंदिर की तर। मां का पूजा-पाठ घर पर ही हो जाता। अमृत वेले की उसकी पूजा में सुखमनी साहिब का पाठ ज़रूरी होता था। जब भी मौका मिलता मां मुझे भी साथ बिठाकर गुरू ग्रंथ साहिब का पाठ सुनाती। उसका मतलब समझाती। मैं मंत्र मुग्ध सा मां को पाठ करते सुनने से भी ज़्यादा उसे देखता रहता था। गीत वाले अंदाज़ में पाठ करती मां की उस धीमी और कभी मद्धम सी आवाज़ में किसी-किसी शब्द पर एक सीटी सी सुनाई दे जाती थी और मैं चमत्कृत सा उसके होंठों को देखता रहता कि किस तरह ऊपर-नीचे होते-होते अचानक कैसे एक स्थिति ऐसी आती है कि किसी-किसी शब्द पर वो ज़रा गोल हो जाते और सीटी की सी आवाज़ सुनाई दे जाती है। जिस घड़ी ऐसा होता तो मारे रोमांच के मेरे पूरे बदन में एक फुरफुरी सी उठती और चेहरे पर ख़ुशी का अनोखा भाव आ जाता।

एक दिन मां ने, पड़ोसन पुतली बाई से कहकर मेरे लिए एक छोटी सी पुस्तक बाज़ार से मंगवाई - बाल बोध। इसी पुस्तक के ज़रिए वह मुझे गुरुमुखी पढऩा सिखाना चाहती थी कि मैं ख़ुद भी गुरू ग्रंथ साहिब और दसमेस दर्शन जैसी पवित्र किताबें पढ़ सकूं।

मां की पहली कोशिश कुछ कामयाब न हो सकी। मेरा रुझान ज़रा दूसरी तर ही बना रहा। लेकिन मां की लगातार कोशिशों और पाठ के दौरान बजने वाली सीटी ने मुझे गुरूमुखी सीखने पर आमादा कर ही लिया। मैं गुरुमुखी सीखा तो गुरू ग्रंथ साहब को पढऩे का चस्का सा लग गया। अब मुझे उस सीटी-वीटी की याद भी न आती थी। मेरी ज़िंदगी में इस ग्रंथ ने एक ऐसा बीज बोया जो मेरे भीतर पूरी तरह बलवान होकर मुझे बािगयाना फ़ितरत की राह पर ले जाने वाली प्रवृति के साथ टकराने लगा था। अंदर ही अंदर कश्मकश की एक ऐसी स्थिति बनने लगी थी, जो मुझे बार-बार बेचैनी और ख़फ़्तगी के सथ ख़ुद से नरत करने पर मजबूर कर देती थी।

सोहबत और हालात से पैदा हुआ बािगयाना तेवर समाज में गुंडई वाले खाते में दर्ज होता है। लिहाज़ा उम्र भर मेरे भीतर यह बागी और यह अमृत बीज साथ-साथ पलते रहे। मैं जब-जब क्रोध में कोई ऐसा कारनामा कर गुज़रता जो सभ्य समाज के बच्चों के लिए वर्जित माना जाता था, तब-तब किसी और की उंगली उठने से पहले ही यह अमृत बीज मेरे भीतर कोई ऐसा रसायन प्रवाहित कर देता कि मैं ख़ुद अपने को अपराधी मानकर लहू-लुहान कर सज़ा देने की कोशिश करने लगता।

इस कोशिश की शुरूआत होती थी दादा के पोर्टेबल रेमिंगटन टाईप राईटर के साथ रखे कार्बन पेपर और कागज़ों के साथ रखी आल पिन की डिब्बी से। एक पिन निकालकर मैं ख़ुद को बार-बार सुई चुभोता और चुभन के दर्द के साथ निकलती ख़ून की नन्ही सी बूंद को देखता, मां की तरह ही ख़ामोश आंसू बहाता और चुप-चुप रुलाई करता रहता। जिस दिन सुई से निकली ख़ून की बूंदों से भी जी हल्का न होता, उस दिन उठकर इतवारे के ट्रांसपोर्ट इलाके में आबाद एक नन्हे से बगीचे में फूलों के इर्द-गिर्द लगी कांटेदार बाढ़ के उभरे कांटों से अपनी उंगलियां ज़ख्मी कर लेता। जब ख़ून बहता तो दबी-दबी ची भी निकलती लेकिन इस ख़ून के साथ ही दिल में उठा दर्द भी ज़रूर कुछ बह जाता। जी हल्का हो जाता।

इस सारी कसरत में बहते आंसू चेहरे पर तरह-तरह के नक्शे भी बना जाता, जो सूखकर बख़ूबी उभर कर सा दिखाई देने लगते थे। चेहरे पर फैला अजब सा चिपचिपापन महसूस होता। जब हाथ लगाकर देखता तो हाथ को ज़रा सा राशनुमा खुरदरेपन का अहसास होता। अपने चेहरे की हालत और हाथ की उंगलियों पर आंसुओं की तरह सूख चुका ख़ून देखकर अपनी जहालतों पर ख़ुद ही हंसी आने लगती थी, जो चेहरे तक आते-आते महज़ एक मुस्कान भर ही रह जाती थी।

मैं बगिया की बेंच से उठकर सामने नंदा चाय वाले की दुकान तक पहुंच जाता। बाहर ट्रे में रखे पानी के गिलासों में से एक गिलास उठाकर मुंह धोता। उधर से गद्दी पर बैठे नंदा सेठ की आवाज़ आती - ''अबे ओ ढोर! यह ग्राहकों के पीने का पानी है। मुंह धोना हो तो नल पे जाओ।’’

मैं मुस्कराकर उसकी तर देखता। सुनी अनसुनी कर वापस घर की तर चल पड़ता।

                                                                                   ***

 

बंटवारा - कहना आसान और निभाना बहुत मुश्किल है। एक परिवार के बीच के बंटवारे में अक्सर घर के आंगन में दीवार खड़ी करके इस काम को तमाम मान लिया जाता है। लेकिन बेहतर ज़िंदगी की तलाश में बंटे हुए दीवार के दोनों तरफ के इंसानो का बेशतर वक़्तज़िंदगी से यकायक गुम हुई चीज़ों को ढूंढने में ही स$र्फ हो जाता है। इन गुमुशुदा चीज़ों में बर्तन-भांडों से लेकर हाथ से फिसलते रिश्तों की कमी का असर जितना दिल को दुखाता है उतना ही ज़हन को उतेजित भी करता है। यही  उत्तेजना और यही आवेश इंसान को अपनी खोई हुई चीज़ हासिल करने के लिए हिंसक भी बना देता है।

मुल्क का बंटवारा हुआ तो यहां बंटने वालों के बीच महज़ एक छोटी सी दीवार नहीं थी कि जिसके आर-पार रहने वालों को एक-दूसरे के सुख-दुख की आवाज़ें सुनाई दे जाती हैं। यह सियासी हिस्सा-बांट थी। इस तरह के बंटवारे में चीज़ों को एक-दूसरे की नज़र से दूर रखने के लिए दीवार की जगह इंसानियत के कुल कद से ऊंचा एक पहाड़ खड़ा किया जाता है। जिसे आम ज़बान में सरहद कहा जाता है।

हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद भी दोनो तर के लोगों के मन में बरसों-बरस एक ही संघर्ष जारी रहा - ''मैं इधर जाऊं, या उधर जाऊं?’’ इधर आ चुके लोग, एक दिन फिर वापस जाने के सपने देखते थे तो उधर जा बसे लोगों को भी घर की याद सताती रहती थी। नतीजा यह कि उधर रहकर भी इधर ही रह गए और इधर आकर भी उधर लौटने की आस लिए रहे।

शुरूआत में दोनो तर आना-जाना आसान था। बिना रोक-टोक आने-जाने की सहूलियत थी। इस आसानी का नतीजा यह हुआ कि हिंदुस्तान में बसे-बसाए घर बार छोड़कर पाकिस्तान जा पहुंचे लोग बड़ी तादाद में वापस लौटने लगे। इसकी ख़ास वजह थी मकामी लोगों का रवैया। अपनों के बीच अचानक हज़ारों-हज़ार अंजाने लोगों की बढ़ती तादाद ने इंसानी ज़हन में वही ख़ौफ़ पैदा कर दिया था जो हिंदुस्तान में आए हुए विस्थापितों के देखकर स्थानीय लोगों में पैदा हो रहा था। नतीजे में अपने घरों की कुरबानी देकर आए इन लोगों के माथे पर मुहाजिर का ठप्पा लगा दिया। इसी गैर-दोस्ताना रवैये और अरा-तरी के माहौल में अपने लिए जगह बनाने में नाकाम होकर पाकिस्तान से वापस लौटने वालों की तादाद देखते ही देखते सैंकड़ों से बढ़कर हज़ारों में होने लगी। इन लौटने वालो में सबसे बड़ी तादाद थी दिल्ली से गए हुए लोगों की। उसके बाद नम्बर था उत्तर प्रदेश का और फिर दूसरे शहरों का। इन लौटने वालों में अधिकांश लोग वो थे जो जाते वक़्त पीछे अच्छी-खासी जायदाद छोड़कर गए थे।

दिल्ली में इन हज़ारों लोगों की वापसी से एक बड़ी गंभीर समस्या खड़ी हो गई थी। इन मुसलमानों की छोड़ी हुई इमारतों पर पाकिस्तान से बेघर होकर आए सिखों और पंजाबियों ने कानूनी और गैर कानूनी, दोनो तरीकों से कब्ज़ा कर लिया था। अब पाकिस्तान से लौटकर अपनी ज़मीन-जायदाद वापस हासिल करने की कोशिश में आए दिन मार-काट की बरें आम होने लगी थीं।

इन्हीं हालात में आने-जाने के लिए एक परमिट सिस्टम लागू कर दिया गया। नौकरशाहों के हाथ में यह परमिट सिस्टम उनके लिए सोने की टकसाल बन गया। मुसीबत के मारे लोगों के ख़ून से बनने वाला सोना। ऐसे सिस्टम का नाकाम होना तय था। सो हुआ।

इस परमिट की जगह अब दोनो मुल्कों की सहमति से दुनिया के बाकी तमाम मुल्कों की तरह एक मुल्क से दूसरे मुल्क जाने के लिए पासपोर्ट वाली व्यवस्था लागू कर दी गई। 15 अक्टूबर 1952 से लागू होने वाली यह पासपोर्ट व्यवस्था दुनिया भर के मुल्कों के लिए जारी होने वाले इंटरनेशनल पासपोर्ट से अलग सिर्फ दो देशों - हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच सर का पासपोर्ट था।

इस पासपोर्ट व्यवस्था का आधार यह था कि 19 जुलाई 1948 तक पाकिस्तान छोड़ हिंदुस्तान में आने वाले स्वाभाविक रूप से हिंदुस्तानी नागरिक माने जाएंगे। इस तारी के बाद आने वाला हर शख्स ''बाहरी’’ होगा और हिंदुस्तानी नागरिकता के लिए बाकायदा आवेदन देकर, तमाम सारी प्रक्रियाओं से गुज़रना होगा। इसी तरह की व्यवस्था पाकिस्तान में भी लागू हो गई।

इन पेचीदा कानूनों और उसके प्रोसीजर की ज़द्द में आकर दोनो तर के सैंकड़ों लोग ''पाकिस्तानी जासूस’’ या ''हिंदुस्तानी जासूस’’ रार दे दिए गए। हज़ारों लोग बरसों-बरस लगभग पूरी तरह बेवतन बने रहे कि दोनो मुल्कों में से कोई भी बिना दस्तावेज़ी सुबूत उन्हें अपना नागरिक मानने को तैयार न था।

इसी अनिश्चितता से भरे माहौल वाले दिनो में ही एक घटना हुई। एक सुबह अचानक ही हवेली के दरवाज़े पर हवेली का पुराना मालिक यासुद्दीन पठान हवेली के दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ।

जिस वक़्तयासुद्दीन यहां पहुंचा तो उस वक़्त घर का दाख़िल दरवाज़ा अंदर से बंद था। पठान के हाथ कुंडी खटखटाने की गरज़ से यकायक उठे और वैसे ही यकायक पीछे की तरफ भी खिंच गए। उसने हवेली के बंद दरवाज़े को निहारना शुरू कर दिया। तकरीबन बारह फुट ऊंचे, बेजान स्लेटी रंग से पुते, भरपूर चौड़े महराबदार दरवाज़े के जिस्म पर उसे जगह-जगह बारीक लकीरें उभरी हुई दिखाई देने लगीं। यासउद्दीन को हैरत हो रही थी कि आख़िर यह लकीरें उसे तब क्यों नहीं दिखाई दी थीं जब वह यहां रहता था? या फिर ऐसा हुआ है कि यह लकीरें उसके घर छोड़ जाने के बाद उभरी हैं? अपने जवाब की तलाश में उसने दरवाज़े पर हाथ फेरकर देखा। फिर वह दरवाज़े की लकीरों पर नज़रे गड़ाकर उन्हें इस तरह घूरने लगा मानो वह किसी हाथ की लकीरें पढऩे की कोशिश कर रहा हो।

अचानक उसे अपनी ही इस कोशिश पर हंसी आई और इधर-उधर देखकर हंसते हुए ही कुंडी खटखटा दी। लोहे की मज़बूत और मोटी चूलों पर घूमता भारी-भरकम दरवाज़ा, अपनी देवनुमा गूंज के साथ इतनी तेज़ी के साथ खुला मानो दरवाज़े के उस तरफ कोई खड़ा-खड़ा इस हवेली के मालिक की इस अजीब हालत को शीशे में निहार रहा हो।

'कहिये?’ दरवाज़ा खोलने वाले व्यक्ति ने पूछा।

'जी आदाब।’ 'आदाब

'माफ कीजिए, आप शायद हमे नहीं जानते। हमारा नाम यासउद्दीन है। कुछ अरसे पहले तक इस हवेली में हम ही रहते थे।इतना कहकर यासउद्दीन ने आख़िर में दरवाज़ा खोलने वाले से उसका तारुफ पूछ लिया। 'माफ कीजिए आपका इस्मे-शरीफ जान सकता हूं ?’

दरवाज़ा खोलने वाले मझले से द के, सांवले से आदमी के चेहरे पर दरवाज़े पर खड़े छह फुट से ऊपर निकलते कद वाले इस लहीम-शहीम पठान का नाम सुनते ही मुस्कराहट सी फैल गई। उसे सब कुछ पता था और उसे उस घड़ी वह सब कुछ याद आ भी गया था। उसने बेहद गर्मजोशी के साथ हाथ आगे बढ़ाकर अपने से सवाए द वाले इंसान का हाथ थाम लिया और 'अरे, आइये, आइये पहलवान साहबकहते हुए ख़ुशी से भरे किसी बच्चे की तरह लगभग खींचते हुए अन्दर की तरफ ले चले।

ख़ुशी से लबरेज़ यह 'बच्चाकोई और नहीं मेरे पिता थे। पिछले तीन-चार साल में इस घर के मालिक के बारे में पूछताछ करते-करते वे यासउद्दीन पठान और इस हवेली का पूरा शजरा इकठ्ठा कर चुके थे। आदत के मुताबिक वो ऐसी तमाम जानकारियां और अपने जज़्बात को एक कापी में लिख लेते थे। यह उनका लगभग रोज़ का काम था।

लिहाज़ा उनकी उसी कापी के मुताबिक यह हवेली यासउद्दीन के पिता मेजर अंजामुद्दीन ने बनवाई थी। इकलौता बेटा होने के नाते मेजर साहब के बाद यह यासुद्दीन को विरासत में मिली। यासउद्दीन शहर के मारू इंसान थे। उनकी पहचान एक दिलावर और दिल-आवेज़ शख़्स के तौर पर थी। शहर से कुछ फ़ासले पर आबाद एक गांव लसानिया खुर्द में कई एकड़ ज़मीन थी। लगभग आधे रकबे में ख़ास भोपाली दैयड़ आम का बा था। बाकी हिस्से में गेहूं की पैदावार थी, जिसके लिए इसी हवेली में उन्होने एक बड़ा सा हाल रख छोड़ा था।

लेकिन यासउद्दीन का दिल खेती-बाड़ी से ज़्यादा पहलवानी में रमता था। सो घर से कुछ दूर ही कोतवाली के पास गप्पू उस्ताद के अखाड़े में ख़ूब डंड पेलते थे और कुश्तियां लड़ते थे।

दादा को यह पहलवानी वाली बात ख़ूब भा गई थी। उन्होने अपने ज़हन में इस पहलवान की एक बड़ी रूमानी सी तस्वीर बना ली थी। इसी वजह से वो शहर में जब भी अपना परिचय देते तो यह बताना नहीं भूलते कि वो 'यासउद्दीन पहलवानकी हवेली में रहते हैं।

यासउद्दीन को लेकर दादा घर और आंगन के बीच बराबरी से फैले र्शी वाले ओटले पर बिछी खटिया पर बैठ गए। दादा इस हवेली के बारे में लगातार बातें किए जा रहे थे लेकिन पठान की नज़रें लगातार चारों ओर घूम-घूम कर हवेली का जायज़ा ले रही थीं। उस वक़्त न जाने उसके ज़हन में क्या-क्या बातें चल रही होंगी, लेकिन इतना तय था कि वह इस वक़्त अपनी हवेली की किसी भी चीज़ को अनदेखा नहीं छोडऩा चाहता था।

दादा इस बात को ताड़ गए, उन्होंने पठान से सवाल किया, ''हवेली को देख रहे हैं?’’

जवाब में पठान मुस्करा कर रह गया।

दादा ने फिर सवाल किया, ''यहां की याद आती होगी। नहीं?’’

इस बार पठान के चेहरे का रंग बदला। मुस्कराहट की जगह दर्द की एक अजब सी लकीर आंखों की कोरों के आसपास दिखाई देनी लगी।

''घर की याद किसे नहीं आती?.... इस बात को तो आप भी ख़ूब समझते होंगे।’’ इतना कहकर पठान ने अपना चेहरा हवेली के कवेलू की छत वाले हिस्से की तर घुमा लिया, जहां कहीं से कटकर आई हुई पतंग पड़ी हुई थी। पठान खड़ा हो गया और उस कटी पतंग को गौर से देखते हुए कहने लगा, ''बड़ी लंबी डोरों के साथ है। कहीं दूर से कट कर आई मालूम होती है।’’

अब तक दादा भी उठकर खड़े हो चुके थे और उसी तर देख रहे थे जिधर पठान देख रहा था। पठान की बात सुनी तो दादा के मुंह से हंसी-हंसी में अज़ख़ुद एक ऐसी बात निकल गई जिसने पूरे माहौल को बदल डाला।

''शायद यह भी कहीं सिंध से कट कर आई है और उसे भी पहलवान साहब की हवेली ही पसंद आई।’’

पठान पर इस बात का जादू असर सा हुआ। उसने दादा को बाहों में भर लिया और वापस खटिया पर बैठते हुए कहा, ''हम भी तो यहां से कटकर ही वहां पहुंचे हैं।’’

अब इस बातचीत में एक फलसफ़ाना गंभीरता आ गई थी। दादा ने भी उसी तरह का जवाब देते हुए कहा, ''पहलवान साहब, हमारे लीडरों को पेंच लड़ाने का बहुत शौक है न। अब उनके पेंच लड़ेंगे तो कटेंगे तो हम-आप ही न।’’

पठान ने इस भारी से होते माहौल को बदलने की गरज़ से एक सवाल कर लिया, ''आपके इलावा और कौन-कौन है यहां पर? क्या मैं उनसे मिल सकता हूं?’’

इस सवाल के साथ ही दादा के भीतर बैठा नेता फ़ौरन सक्रिय हो गया। फ़ौरन जवाब दिया, ''अरे पहलवान साहब बिल्कुल। आप यहीं बैठिये और नाश्ता कीजिए, मैं सबको यहीं बुला लेता हूं।’’

लेकिन यासउद्दीन तो पूरी हवेली में चारों तर घूमकर सब कुछ अपनी नज़रों से देखना चाहते थे। सो उन्होने सुझाव वाले अंदाज़ में कहा, ''अरे नहीं। क्यों सबको ज़हमत देना। हम लोग चलकर ही सबसे मिल लेते हैं न।’’

अगले एक घंटे तक यासउद्दीन चेहरे पर एक स्थाई मुस्कराहट लिए हवेली के कोने-कोने में घूमता, लोगों से मिलता और दरो-दीवार को छूकर देखता, कुछ कहता और कुछ न कहता, चलता रहा। एक कोने में बनी छोटी सी कुठरिया ख़ाली पड़ी थी और उससे लगी-लगी दीवार का एक हिस्सा गिर चुका था, जिसकी वजह से उस पार कोतवाली वाली गली पर बने मकान का पिछवाड़ा दिखाई दे रहा था। इस जगह पर आकर यासउद्दीन के चेहरे की वह स्थाई मुस्कान वाले होंठ कुछ और खुले। बोले, ''गिर गई आख़िर।’’

दादा ने इस पहेली को समझने की गरज़ से सवाल किया, ''क्या पहले से ही गिरने वाली थी?’’

''हां, गिरनी तो चाहिये थी। मगर हमारे रहते नहीं गिरी।’’

इससे पहले कि दादा कोई और सवाल पूछते यासउद्दीन ने ही एक सवाल पूछ लिया, ''आपको मालूम है वो उस तर किसका घर है?’’

दादा ने इंकार में सर हिला दिया।

''वह इिफ्तख़ार मियां की हवेली का पिछवाड़ा है।’’

फिर एक लम्हे की ख़ामोशी के बाद उन्होने जोड़ा, ''कभी हमारे दोस्त होते थे।’’

इतना कहकर वो बड़ी तेज़ी से मुड़ा और बाहर जाने के लिए कदम बड़ा दिए। दादा ने बहुत इसरार किया कि वो चाय-नाश्ते के बिना नहीं जा सकते, लेकिन उसे जाने की बहुत जल्दी सी हो चली थी। सो बस एक पापड़ खाकर और एक गिलास पानी पीकर बाहर की तर मुड़ गया।

दादा उस तेज़ कदम चाल के साथ बराबरी से चलने की कोशिश करते हुए दरवाज़े तक पहुंच गए। यासउद्दीन ने दादा को गले लगाकर ''ख़ुदा हाफ़ि’’ कहा और फिर पूरी रफ्तार से आगे बढ़ गया।

                                                                                    ***

 

दादा जब अंदर वापस पहुंचे तो हवेली के घरों से लोग निकलकर आंगन में खड़े खुसुर-पुसुर में लगे थे। सबके चेहरों की हवाइयां उड़ी हुई थीं। हवेली में रहने वाले सबसे आसूदा और सबसे बुज़ुर्ग मास्टर अंबूमल ने अपने घर के बाहर निकले हुए कोने में लगी कुर्सी पर बैठे-बैठे और हाथ में अबार थामे-थामे दादा से सवाल किया, ''क्या कहता है ये मियां?’’

''कुछ नहीं। वो तो बस देखने आया था अपनी हवेली’’, दादा ने जवाब दिया।

''अरे भाई हिम्मतराम, तुम तो नेता आदमी हो। अबार नवीस हो। तुमको मालूम नहीं है कि यह मुसलमान वापस लौट रहे हैं और अपने घर वापस लेने के लिए तलवारों से हिंदुओं को काट रहे हैं।’’

यासउद्दीन से मिलने की ख़ुशी में डूबे दादा के ज़हन में इस लम्हे तक यह $ख्याल आया ही नहीं था। मास्टर जी ने चेताया तो उनकी चेतना लौटी। फिर भी उनका जवाब था; ''मास्टर साहब, वो बड़ा शरी आदमी है। वो कोई तलवार लेकर आया था क्या? और सारे मुसलमान एक जैसे थोड़े ही होते हैं।’’

''यह बात तुम कह रहे हो? तुम तो सबसे ज़्यादा मुसलमानों के ख़िलारीरें करते हो।’’ मास्टर जी ने एक तंज़िया हंसी हंसते हुए कहा।

दादा को यह बात बड़ी नागवार गुज़री। उन्होंने पलटकर जवाब दिया, ''जो कहता हूं, सच कहता हूं। डंके की चोट पर कहता हूं। कोई तलवार लेकर आएगा तो हम भी उससे तलवार से बात करेंगे लेकिन कोई शरी आदमी घर आए तो क्या उसे पत्थर मारना शुरू कर दें?’’

क्रोध से भरे इस जवाब से एक सनाका सा खिंच गया। मास्टर जी अपनी आला हैसियत और अपनी उम्र की बड़ी परवाह करते थे। सो उन्होने अपने से बहुत छोटे 'लड़केसे उलझने की बजाय हाथ में थामे अबार को पढऩे की गरज़ से अपने मुंह की तर उठाने की कोशिश की ही थी कि दादा ने एक आख़िरी जुमला जड़ ही दिया।

''ख़िर वो इस हवेली का पुराना मालिक है, जिसमे हम सब रह रहे हैं। इतनी शरात तो हम में भी होनी चाहिये ...’’

यह कहते-कहते दादा अपने घर की तर जाने को मुड़ गए। ठीक इसी वक़्त मास्टर जी के घर से हवेली के इकलौते घडिय़ाल के गजर की आवाज़ गूंजना शुरू हो गई।

एक..दो...तीन...चार...पांच...छह..सात..आठ..नौ...दस....

                                                                                        ***

 

शहर में सिंधी शरणार्थियों की उपस्थिति को अभी मकामी लोग ठीक से स्वीकार भी नहीं कर पाए थे कि एक घटना और घट गई, जिसके नतीजे में तनाव बढऩा तय था। भारत सरकार के पुनर्वास विभाग ने अचानक ही यह निर्णय ले लिया कि राजस्थान में अजमेर के पास देवली कैम्प में रहने वाले विस्थापित सिंधी परिवारों का तबादला शहर भोपाल से कोई 4-5 मील के फ़ासले पर आबाद बैरागढ़ कैम्प में कर दिया जाए।

एक बार फिर विस्थापित होने से नाख़ुश लोगों की नाख़ुशी की आवाज़ किसी कान तक न पहुंची और चंद बरस पहले सिंध से विस्थापित हुए इन परिवारों को दोबारा विस्थापित होकर बाहर निकलना पड़ा। अजमेर से रवाना होने वाली इस पहली ''रि$फ्यूजी स्पेशल’’ गाड़ी में तकरीबन 2300 परिवारों को ठूंस-ठूंस कर भरा गया। बैरागढ़ कैम्प तक चलने वाली इस मीटर गेज वाली ट्रेन को बोलचाल में ''छोटी लाईन’’ वाली गाड़ी कहा जाता था।

अजमेर की नसीराबाद छावनी वाले स्टेशन पर उस दिन कुछ ज़्यादा ही भीड़ थी। अजमेर में बस चुके देवली कैम्प के रहवासियों के रिश्तेदार-नातेदार इन बिछड़कर दूर जाने वाले अपनों को विदा करने आ पहुंचे थे। एक नए अनजाने शहर और अनिश्चित भविष्य के सर पर निकलने को मजबूर लोग अपनों से गले मिल इस तरह रोते थे कि मानो अब तो शायद ही कभी मिलना हो। आहो-ज़ार की गूंज से भरे, सिसकते से माहौल के बीच ट्रेन का ड्राईवर और कंडक्टर एक दूसरे को बेबस निगाहों से देखते ख़ामोश खड़े थे। ट्रेन का निर्धारित समय गुज़र चुका था लेकिन ट्रेन आगे नहीं बढ़ पा रही थी कि पैसेंजर तो अभी तक प्लेटफ़ार्म पर खड़े थे। आख़िर कंडक्टर डेनिस बेंजामिन ने आकर बड़े नर्म लहजे में आख़िरी चेतावनी देने के बाद सीटी बजाकर ट्रेन को हरी झंडी दिखा दी।

इस बार मजबूर होकर सब लोग अपने-अपने आंसुओं को साथ लेकर ट्रेन के उन छोटे-छोटे, सकड़े से डिब्बों में सवार हो गए। ट्रेन धीरे-धीरे, लगभग कदम ताल वाली स्पीड से खिसकती, चल पड़ी कोई 400 मील दूर बसे बैरागढ़ कैम्प की तर

ट्रेन की रवानगी के साथ ही प्लेटफ़ार्म वाला मंज़र उन ठसाठस भरे डब्बों में सवार हो गया था। अप्रेल महीने की गर्मी से तपे हुए ट्रेन के कम्पार्टमेंट में छत के पंखे कम और हाथ के पं$खों से ज़्यादा राहत पाने की नाकाम कोशिश हो रही थी। उस पर छोटे-छोटे बच्चों का रोना माहौल को और भी रंजीदा बना रहा था।

छुक-छुक करती और उसी गति से चलती ट्रेन के इंजन से निकलता धुआं और हवा में उड़ती कोयले की टुकडिय़ां लगातार सारे डब्बों के यात्रियों के मातमज़दा चेहरों को और भी मातमज़दा बना रही थीं। इस ट्रेन में सवार डीलाराम ममताणी का परिवार भी सवार था। 70 बरस के डीलाराम के परिवार में उसके दो बेटे, दो बहुएं, एक विधवा बेटी, चार पोते और दो नातिनें भी शामिल थे। उदास चेहरों की इस भीड़ के बीच जहां लगभग सारे चेहरे एक जैसे दिखाई दे रहे थे, इसी जमघटे में खिड़की से लगे बैठे डीलाराम बाहर की तर झांकते, आसमान को निहारते-निहारते बीच-बीच में बेवजह ही हंसने लगते थे। इस हंसी की वजह से उदास चेहरों के बीच एक अजब सी हलचल मच जाती थी। बच्चे हैरत से एक बार डीलाराम की तर और दूसरी बार उदास चेहरों की तर देखकर आंखों के इशारे से एक-दूसरे से पूछते हुए से मालूम होते थे कि माजरा क्या है? 

एक-दो बार तो किसी ने उनसे कोई सवाल न किया लेकिन तीसरी बार डीलाराम के बड़े बेटे अर्जुनदास ने सवाल कर ही लिया, ''छा थियो बाबा?’’ (क्या हुआ, बाबा?). डीलाराम ने कोई जवाब देने की बजाय एक बार फिर से हल्की सी हंसी का सहारा लेते हुए दो दिशाओं में मुंडी हिला दी।

सवाल ख़ामोश हो गया। अब सि$र्फ एक ही आवाज़ ज़ाओं में गूंज रही थी, रेल की पटरियों और ट्रेन के पहियों की संगत से पैदा होने वाली रिदम से भरपूर आवाज़ - ठक-ठक, ठकर-ठक, ठक-ठक, ठकर-ठक। अचानक ही इसमें एक आवाज़ और शामिल हो गई। यह आवाज़ थी डीलाराम की। वो सिंध के मशहूर गायक मास्टर चंदर का एक गीत छेड़ बैठे थे :

तुहंजे मुल्क में आयुस किस्मत सां

पर सुहणा कीन रहायो तो

(मुझे मेरी किस्मत तेरे मुल्क लाई / मगर प्यारे तूने ज़रा ना निभाई)

डीलाराम के गीत ने उस मातमी माहौल में डूबे तमाम लोगों पर जादू असर कर दिखाया। ट्रेन की रवानगी के बाद आहिस्ता-आहिस्ता ख़ामोश हो, अगले पड़ाव के डरावने-सुहावने सपनों की पहेली में खोए लोगों को अचानक ही अपने असल दर्द की याद आ गई। आसपास के लोग अपनी-अपनी जगह से आगे बड़कर डीलाराम की दर्द भरी आवाज़ के पास आने की कोशिश में अचानक ही ज़िंदा हो गए। इन ज़िंदा लोगों के लिए उस वक़्त डीलाराम उनके दर्द की सदा बनकर उभरे थे।

बीच-बीच में आती गर्म तेज़ हवाओं और रेल की कूक से कटती डीलाराम की यह सदा भले ही अपने पूरे लफ्ज़ों के साथ सबको सुनाई नहीं दे रही थी लेकिन उस आवाज़ में मौजूद टीस का असर सब पर बराबर था। औरतें बार-बार अपने आंचल से अपने ही आंसू पोंछ रही थीं तो मर्द अपनी पूरी मर्दानगी से आंसुओं को पोंछकर उनके निशान मिटाने की बजाय बराबर बहने दे रहे थे। पिछली पहेली से जूझते मासूम बच्चों के लिए यह एक और पहेली सामने आ खड़ी हुई थी।

डीलाराम की आवाज़ कुछ देर बाद थमी तो दूसरे कोने से संत कंवर राम का एक प्रार्थना गीत गाते-गाते एक महिला समूह की आवाज़ उभरने लगी :

नाले अलख जे बेड़ो तार मुहंजो

नाले धणीअ जे बेड़ो तार मुहजो

निधणी आहियां मां निमाणी

आहे आधार तुहिंजो

(उस अलख के नाम पर, गा किनारे नांव मेरी

 उस मालिक के नाम पर, लगा किनारे नांव मेरी

 हूं बे-सहारा मैं बेचारी, अदम सादा दिल

 है जो मुझे, तो बस है तेरा आसरा, बस मदद तेरी )

 

इसके बाद तो यह एक अटूट सिलसिला सा बन गया। कभी इस तर तो कभी उस तरसे ईश्वर से मदद मांगते, उसका रहम मांगते गीतों का सिलसिला चल पड़ा। बीच-बीच में कुछ रोने की सदाएं उठतीं तो वह भी सम्हल कर आखिर को इन्हीं सुरों में शामिल हो जातीं।

जगह-जगह अटकती-भटकती यह ट्रेन आख़िर दो दिन के बाद बैरागढ़ आ पहुंची। इस जगह तक पहुंचते-पहुंचते नसीराबाद से रवाना हुए यात्रियों में से तीन यात्री कम हो चुके थे। इन तीनों ने एक के बाद एक दम तब तोड़ा जब उनकी मंज़िल बस चंद घंटे भर ही दूर्र थी।

बीच राह ही सर छोडऩे वाले इन तीन में से एक ढाई साल का बच्चा और दो बुज़ुर्ग थे। बच्चा और दोनो बूढ़े पहले से बीमार चल रहे थे और घरेलू इलाज के भरोसे जी रहे थे। ठसाठस भरी ट्रेन के घुटन भरे माहौल में बिना इलाज इनकी सांसें टूट गईं।

स्टेशन पर गाड़ी के रुकते ही लगभग वीरान से पड़े इस छोटे से स्टेशन का मंज़र यकायक मुहर्रम के मातमी जुलूस में बदल गया। अपने मुर्दों के साथ अपनी आहों और कराहों को ढोते चले आ रहे इस हुजूम के सब्र का बांध प्लेटफार्म पर उतरते ही टूट गया। अब तक इस हादसे से बेबर लोग इन जनाज़ों को देखकर सदमे की हालत में इधर-उधर ज़मीन पर लोटने लगे।

स्टेशन पर मौजूद सरकारी अमला भी कुछ देर लाचारी की हालत में एक-दूसरे की शक्ल देखता रहा। इसी बीच इस ट्रेन का कंडक्टर डेनिस बेंजामिन बदहवासी में दौड़ता आया और उसने अपनी टोपी उतारकर इन तीनो जनाज़ों के आगे रख दी। उसकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे और वह कुछ बुदबुदा रहा था, जिससे प्रार्थना का सा आभास होता था।

एकदम मज़बूत गठे हुए जिस्म के साथ उतने ही मज़बूत काले रंग वाले डेनिस की हालत देखकर विस्थापित हुजूम की आंखों में थमे आंसू और दिल में दबे नाले फूटकर-फूटकर बाहर निकलने लगे। कुछ लोग डेनिस से लिपट गए और उसके काले कोट को गीला कर गए।

बुज़ुुर्ग से स्टेशन मास्टर ने इस जगह सारी स्थिति को सम्हाला। उसने वहां मौजूद सरकारी अमले से कुछ बात की, जो उसके बाद फ़ौरन सक्रिय हो गया। उनमे से एक असर फ़ौरन गाड़ी की तर भागा और कुछ देर के लिए गुम हो गया और एक डुगडुग सी चलती एम्बुलेंस के साथ लौटा।

स्टेशन मास्टर ने आगे बड़कर डेनिस के जज़्बात को बड़े प्यार से सहलाकर काबू करने की कोशिश की। यही काम उसने बाकी हुजूम के साथ भी करने की कोशिश की। उन्हें इस जगह एक बेहतर जीवन के सपने देना शुरू कर दिया था। रोने-धोने की आवाज़ें मद्धम पढऩे लगीं थीं। लगभग सारे लोग मुर्दों को छोड़ स्टेशन मास्टर वाली बेहतर ज़िंदगी की बातें सुनने में लग गए थे।

तभी अचानक थोड़ा सम्हल चुके डेनिस ने प्लेटफार्म पर मौजूद तमाम लोगों के बीच एक ऐलान कर सबको चौंका दिया। बड़ी भावपूर्ण मुद्रा में उसने कहा, ''मेरी गाड़ी में मेरे रहते तीन लोग मर गए। मैं कुछ भी नहीं कर पाया। इसलिए मैं आज ही इस नौकरी से इस्तीफ़ा दे दूंगा और एक वालंटियर की तरह, आपके एक भाई की तरह आप लोगों के बीच काम करूंगा।’’

जज़्बात का एक और तूफ़ान आया। इस बार डेनिस का कोट और ज़्यादा गीला हुआ। इस बार ख़ुद डेनिस और ज़्यादा रोया। स्टेशन मास्टर डेनिस को सांत्वना देने के लिए उसके कांधे तक अपना हाथ पहुंचाने की कोशिश करता रहा लेकिन चारों ओर से घिरे डेनिस के कांधे पर पहले से ही बहुत हाथ थे। कुछ छोटे-छोटे कद की औरतें उसे आसीस देने की गरज़ से उसके माथे तक हाथ पहुंचाने की कोशिश में इधर-उधर गिर रहीं थी।

इसी बीच एम्बुलेंस की गाड़ी के आने की सूचना लेकर एक असर प्लेटफार्म पर आ पहुंचा। एम्बुलेंस के आने की बात सुनकर पहले तो सबने एक-दूसरे की तर सवालियां नज़रों से देखा और फिर स्टेशन मास्टर से मुख़ातिब होते हुए, डीलाराम ने, जो ट्रेन में दुख के गीत गा रहे थे, ने कहा, ''मास्टर साहब, नाचाक लोगों का इलाज तो बाद में पहले हमें इन तीन जनाज़ों का अंतिम संस्कार करना होगा।’’

स्टेशन मास्टर ने डेनिस की तर नज़रें घुमाईं और निहायत नर्म अंदाज़ में जवाब दिया, ''भाई साहब, यहां कोई शमशान घाट नहीं है।’’

डीलाराम के साथ ही साथ वह सारे लोग एक साथ चौंक पढ़े, जिन-जिन ने यह जवाब सुना था। इन चौंके हुए चेहरों को देखकर उन लोगों ने सवाल पूछना शुरू कर दिए जिनके कान तक यह आवाज़ नहीं पहुंची थी। देखते ही देखते यह खबर कानो-कान सारे हुजूम तक पहुंच गई।

$गुस्से से भरे एक नौजवान ने स्टेशन मास्टर से जवाब तलब करते हुए पूछा, ''क्या यहां पर कभी कोई नहीं मरता? सब के सब अमर हैं क्या, जो यहां शमशान घाट नहीं है?’’

इस बार डेनिस ने आगे बड़कर स्टेशन मास्टर से किए गए सवाल का जवाब उस नौजवान के पास जाकर दिया। समझाइश देने वाले अंदाज़ में उसने बताया कि यह बैरक्स दूसरी बड़ी जंग में अंग्रेज़्र हुकूमत ने इटली की फ़ौज के पकड़े गए $कैदियों जिन्हें प्रीज़नर्स आफ वार कहा जाता है, को कैद में रखने के लिए कायम की थीं। वे सब के सब ईसाई थे, इसलिए यहां इटली के जिन सिपाहियों की मौत हुई, उनके लिए एक कब्रिस्तान ज़रूर है लेकिन शमशान घाट नहीं है। हिंदुओं का शमशान घाट यहां से दूर शहर भोपाल के छोला रोड पर है और यह काम सि$र्फ वहीं हो सकता है। इसी वजह से एम्बुलेंस बुलाई गई है कि कुछ लोग वहां जाकर इस संस्कार को पूरा कर सकें।

अभी यह बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि कुछ दूर खड़े डीलाराम ने दहाड़ें मारकर रोना शुरू कर दिया। ''हाय ड़े अल्लाह मुहिंजा, पहरियों जीयण मुश्किल कयुइ हाणे हिते त मरण बि मुश्किल आ।’’ (हाय मेरे अल्लाह ! पहले तो तूने जीना मुश्किल किया अब यहां तो मरना भी मुश्किल होगा।)

कुछ सिसकियां और चलीं। कुछ समझाइश और चली। आख़िर सबके सामूहिक $फैसले से यह तीनो शव छोला रोड वाले हिंदू शमशान घाट भेज दिए गए। बाकी सारे लोगों को उनके छुट-पुट सामान के साथ डाज और स्टुडीबेकर कंपनी की गोल-मटोल लारियों में ट्रेन की ही तरह ठूंसकर उन टूटे-फूटे बैरक्स की तर ले जाया गया, जहां इन लोगों को नए सिरे से अपनी नई ज़िंदगी का आग़ाज़ करना था।

यहां से रवाना हुई लारियों में से एक लारी जिसमे डीलाराम और उसका परिवार सवार था, वन ट्री हिल की तर जा रही थी। इस जगह न जाने कब से, शायद सदियों से, एक अकेला तन्हा, आम का एक विशाल पेड़ खड़ा था, जिस पर बहार भी आती थी, फल भी लगते थे, लेकिन ज़्यादातर फल इसे तोड़कर खाने वाले किसी हाथ का इंतज़ार करते-करते, थककर गिर पड़ते थे। इस लारी में सवार लोगों को आता देख उदास से खड़े पेड़ के जिस्म में एक हल्की सी हरकत आई। शायद उसे आभास हो चुका था कि अब उसके फलों तक पहुंचने वाले हाथ आ पहुंचे हैं।

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