मुखपृष्ठ पिछले अंक दास्तानगोई
जुलाई 2018

दास्तानगोई

वंदना शुक्ल

डायरी

 

 

स्मृति के पीछे झांकती कहानियाँ

जीवन, कथाओं - उपकथाओं का एक सजीव दस्तावेज़ है। एक ऐसा यात्रा वृत्तांत जिसमें उबड़ खाबड़ रासते हैं, पड़ाव-पग डंडियाँ हैं, नदी और पहाड़ हैं, घाटियाँ और समतल रास्ते हैं, खूबसूरत बाग बगीचे हैं। बस नहीं है तो उम्र से वापस लौटने की मोहलत। गुंजाइश है तो सिर्फ इतना भर कहने की कि

''दूर से अपना घर देखना चाहिए

मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर

कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में...’’ (विनोद कुमार शुक्ल)

 

भीतर समय पत्तों की तरह झड़ा है

हम क्त एक इंसान की शक्ल में इस दुनिया में पैदा होते हैं लेकिन जन्मते ही कितने रिश्ते, कितने नाम, कितनी पहचान और संबोधन जुड़ते जाते हैं कि हमारा अपना होना इन सबके पीछे दब सा जाता है। राशि का नाम, घर का लाड़ नाम, स्कूल का नाम, शिक्षा, रिश्ते, संबोधन, पुराने घर के पत्तों की तरह खारिज कर दिए गए पुराने परिचितों के नाम-पते। नए लोग, नए घर, नए सम्बन्ध, नए शहर, नई नौकरियां, नए संबोधन। न जाने कितने जुड़ाव कितने निरस्त। क्या जीवन इन्हीं स्थापन, प्रतिस्थापन और विस्थापन का नाम है?

अकेले हो जाने की अमूमन एक ख़ास उम्र होती है और जाहिराना तौर पर मेरी वो उम्र अकेले हो जाने की नहीं थी। मुझे एकांत की ज़रूरत थी, अकेलेपन की नहीं क्यूँ कि इच्छाओं की एक भरी पूरी दुनिया थी मेरे इर्द गिर्द... सपनों के अंखुआने का वक्त। इफरात योजनायें और अवसर मेरे सामने एक उम्मीद की शक्ल में दूर तक फैले थे। मैं खुद को खुद से भरना चाहती थी। लेकिन मैं अचानक अपनी पहचान और हालातों के धुंधलके में खुद ही खो जाने जैसा महसूस करने लगी। जब किसी भावनात्मक सहारे की बेइंतिहा ज़रुरत महसूस हो और मन सवालों से भर जाए तब किताबें ही एकमात्र सबसे उपयुक्त संबल होती। किताबें आदमी को दिशा दे सकती है, उसके साथ चल नहीं सकतीं। आदमी को मुश्किलात में राहत दे सकती हैं लेकिन उसके साथ हंस रो नहीं सकतीं। उसी वक्त गोर्की की ''माय यूनिवर्सिटीज़’’ और ''माय चाइल्ड हुड’’ आत्मकथात्मक उपन्यास और रूसी कथाकार चेखव की ''माय लाइफ’’ कहानी पढ़ीं तो लगा इतिहास विडम्बनाओं, अनुभवों अनुभूतियों के गगन चुम्बी दरख्तों से खाली नहीं। आसमान के पास भी अपना एक जंगल है उसकी उत्कंठाओं और अनुभवों का बीहड़ अरण्य।

                                                                                        * * *

स्मृतियां, मधु मक्खियों द्वारा फूलों के रस और पराग कण से एकत्रित मधु की तरह होती हैं। उम्र के साथ वो बूँद बूँद जेहन में जमा होती जाती हैं और वृद्धावस्था में हालातों की कडुवाहट को एक मिठास से भर देती हैं।

स्मृतियां, मनुष्यता की अनुकृति है।

कभी कभी वर्तमान से विरक्ति हमें पौराणिकता की एक गहरी याद में ले जाती है। मन एक नामालूम सी ऊब से भरने लगता है। ये निस्सार भाव हमें खुद से साक्षात्कार कराता है व अपने भीतर के मौन में उतरने के अवसर भी देता है। मौन, जो हमें अतीत नहीं बल्कि एक पुरातन काल में ले जाकर खड़ा कर देता है। जन्म से पहले का एक धुंधलका जिसमें हम कुछ खोजते रहना चाहते हैं... लेकिन क्या? ये स्थिति बड़ी विकट और विलक्षण है जब हमें लम्हा लम्हा ये महसूस होता है कि हम कुछ खोज रहे हैं। इसी खोज के सूत्र ''क्यूँ और क्या’’ को जो हाथ से बार बार छूटता जाता है। सूत्र को पकड़ पाने की कोशिश में उम्रें तमाम होती रही हैं पर न आज तक वो सूत्र मिला न उस ''क्यूँ’’ की वजह।... यही जानने हम इस धरती पर बार-बार जन्म लेते हैं शायद। निरंतर भविष्योन्मुख होते व सुविधाओं के अदम्य चमत्कारों में डूबे हुए भी याद आता वही पुराना वक्त है जो बक्सों में रखे गर्म कपड़ों की ख़ास गर्माहट भरी गंध की तरह एक सोंधी सी खुशबू को हमारे तमाम ज़ेहन में गाहे बगाहे उलटता पुलटता और अंतर्मन को भिगोंता रहता है। हम उस आदिम गंध से बाहर न निकलने के लिए छटपटाते हैं लेकिन...। चलना और चलते जाने का नाम ही जीवन है। लेकिन चलना, पृथ्वी की तरह सिर्फ एक अनुशासन है, एक ''गति’’ मौन एक विराट विलक्षण अनुभूति है।

                                                                                      * * *

ज़िंदगी ही हमें कहानियों के लिए कच्ची सामग्री जुटाती है।

मेरी लगभग निरक्षर नानी एक तजुर्बेदार, मेहनती, विदुषी और एक कुशल किस्सागो भी। गर्मी की छुट्टियों में नानी के घर जाना माँ के लिए मेल मिलाप का सबब होता था जबकि मेरे लिए एक कथा उत्सव। बाज़ दफा में बज़िद वहीं नानी के पास गाँव में रही आती और माँ मुझे छोड़कर वापस लौट जातीं।

नानी मेरे लिए महज एक रिश्ता नहीं थीं बल्कि भविष्य की एक जीती जागती पाठशाला थीं जिन्होंने अपनी अनगढ़ कहानियों से मेरे भीतर उन सच्ची झूठी कहानियों की कई कच्ची बस्तियां बसा दीं थी जिनकी गलियों में मैं आज भी गाहे बगाहे भटक जाती हूँ। वो कहानियाँ नहीं नानी के अपने तजुर्बे थे जिन्हें मैंने कहानियों की शक्ल में उनकी आँखों से बरसते देखा और कभी अश्रुविहीन सूखी आँखों में नाउम्मीद उदासी से टहलते हुए। नानी मेरे मामाओं यानी अपने अधेड़ अवस्था तक पहुँच चुके पुत्रों से भी पर्दा किया करती थी और उनसे इतना कम बोलतीं कि लगता कि वे उनके गर्भ से पैदा हुए पुत्र नहीं बल्कि उनके कोई अपरिचित अतिथि हों। उस वक्त मुझे ये कभी नहीं लगा कि अपने जिन पुत्रों को उन्होंने नौ माह गर्भ में रखा होगा, अपने ही रक्त मज्जा, भोजन दे पाला होगा, शैशवास्था में उन्हें स्तन पान कराया होगा अब उनसे ही क्यूँ संकोच और पर्दा करती हैं? नानी, पूरा दिन घर में खटती रहतीं। नानी की वो दिनचर्या उनका अपना सुख थी किसी का दबाव नहीं। मजाल है जो पल्लू सर से खिसक जाए। वे घनघोर परम्परावादी स्त्री थी। नानी का वो घर (जो अब मामाओं का हो चुका था) किसी दुतल्ली हवेली से कम न था। लंबा चौड़ा सेहन, पत्थर की पटियों वाला फर्श, चूने से पुती दीवारें और शहतीर वाले भव्य कमरे। जितने बड़े कमरे थे उतने में तो आज एक परिवार गुजर बसर कर लेता है। उन खुले खुले घरों में रहने वालों के दिल भी खुले होते थे।

नानी, दिन भर काम के बाद रात में अपने कमरे में हार थककर आतीं और अकेली होंती। कमरे में घुसते ही वो किवाड़ के पीछे लगा बिजली का काला खटका खोल देतीं। बित्ते भर पीली रोशनी कमरे में पसर जाती। मैं परदे के पीछे से उन्हें देखती रहती। वो ज़मीन पर बिछी दरी पर बैठ जातीं और हौले हौले अपने पैरों को दबाती सहलाती रहतीं। सिर से पल्लू हटा जी भरकर हाथ का पंखा झलतीं। पूरे दिन का पसीना और ज़िंदगी के मलाल गोया यूँ हवा में सुखातीं। ऐसा करते हुए कभी हौले हौले मुस्कुरातीं और अपने पोपले से मुंह से कोई लोक गीत भी गुनगुनातीं। वो अपने तेल लगे चिपचिपे बालों का छोटा सा जूड़ा खोल देतीं। बालों की अनसुलझी पतली सी लटें कंधे पर बिखर जातीं। साड़ी घुटनों तक कर लेतीं और लकड़ी जैसे सूखे पतले पैरों को फैलाकर एक के ऊपर एक रखकर झुकी हुई सी वो पंखा झलती रहतीं। पसीना सुखाने के लिए अपने आँचल को भी वो नीचे गिरा देतीं। दिन भर नख शिख वस्त्रों से ढंकी नानी सहसा बूढ़ी सूखी हड्डियों का ढांचा भर रह जातीं। तब मुझे अपनी नानी वो ''परदे वाली’’ नानी से बिलकुल अलग, दूसरी औरत लगतीं। हाथ झलते पंखे की हवा में उनके घुंघराले दो चार बाल उड़कर उनके सांवले और झुर्रियाये माथे पर झूलने लगते। इस वक्त मुझे लगता कि मेरी नानी दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत है।

चेहरे का वो सुकून, वो गुनगुनाहट और बंधे जूड़े से मुक्त कर दिए केश गोया उस अंधेरे से बंद कमरे में किसी कैद से आज़ादी का जश्न थे। वो पूरा दिन घर के काम में जुटी रहतीं लेकिन उनके कमरे में बिना काम से घर का कोई सदस्य नहीं आता था।

गोधूली बेला से शुरू हुई रात उनकी ज़िंदगी में एक मुक्ति बेला सी होती। मैं उनकी इस आज़ादी का पूरा फायदा उठाने के फेर में रहती। दबे पाँव उनके कमरे में चली जाती और देहरी पर खड़ी हो मुस्कुराती हुई झांकती रहती। मुझे देखकर वो थोड़ा चौंकती और फिर हंसकर कहतीं ''आव बिटिया आव, बईठो इहा’’। मुझे लगता इस वक्त का इंतज़ार सिर्फ मैं ही नहीं करती।

मैं आठ बरस की थी और नानी लगभग पैंसठ बरस की लेकिन हम दोनों में एक साम्य था। हम दोनों को वास्तविकता से ज्यादा काल्पनिक चीज़ों में मज़ा आता था। मुझे काल्पनिक कहानियां सुनने में और उन्हें काल्पनिक कहानियां सुनाने में। हम दोनों उस कथा यात्रा के दौरान अपनी अपनी तरह से अपने अपने ख्वाबों के पंख लगा उड़ते रहते।

उनके पास लोक कथाओं और लोक गीतों का पिटारा था जिसमें से वो प्रतिदिन एक कहानी निकालतीं और उसे पूरी तन्मयता और टीका टिप्पणी सहित मुझे सुनातीं।

किसी भी वाक्य के आगे पीछे वो अपना एक तकियाकलाम सा जड़े देतीं ''हमाए तो बिटिया कोऊ काले कोस आगे न काले कोस पीछे’’। मुझे कभी समझ में नहीं आता कि इतने भरे पूरे घर में नानी अकेली क्यूँ और कैसे हैं?

कहानी सुनते वक्त मुझे उनकी झुर्रियायी आँखों में झांकना अच्छा लगता था जिनमें कथा की घटनाओं के हिसाब से कई भाव धूप छाँव की तरह उगते डूबते रहते थे।

नानी को इफरात कहानियाँ याद थीं। लेकिन उनके प्रिय विषय रामायण महाभारत, या राजा रानी की कहानियाँ होते जिन्हें वो निहायत रोचक ढंग से फेर बदलकर अपनी विशुद्ध बुन्देलखंडी बोली में सुनातीं।

नानी, अपनी माँ ज़बान में जो कहानियाँ सुनातीं उन कहानियों में वो मुझे आगाह यानी नैतिक सीख भी देती जातीं और अपने मत भी जोड़ दिया करती। मैं सवाल बहुत करती थी।... जैसे मैंने एक बार उनसे पूछा ''नानी, सीता जी उर्मिला की तरह महल में ही रह जातीं और रामचंद्र व लक्ष्मण जी वनवास चले जाते तो क्या होता?’’ नानी अपने पोपले मुंह से हंसी... हंसकर कहा ''कच्छु ना होत बिटिया... बस रामायण ना होती। जैसे कभी हम ना होंगे’’ क्यूं नानी? मेरे मुंह से अनायास निकला

नानी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोलीं ''सबन को जाना पड़त है। जे तो दुनिया की रीत है। जायेंगे नहीं तो आयेंगे कैसे?

ज़ाहिर है जीवन के इस दर्शन को समझने के लिए मेरी उम्र तब नाकाफी थी

लेकिन आदमी जाता कहाँ है?

ज़ाहिर है जीवन के इस दर्शन को समझने के लिए मेरी उम्र तब नाकाफी थी

लेकिन आदमी जाता कहाँ है?

जे तो बिटिया कोऊ ए न पतों। ...मरबे के बाद आदमी जिन्न बन जाते है, जे पुरखा लिख गए हैं

मैं ये सुनकर उदास हो गयी और थोड़ी भयग्रस्त भी... ''नानी... आप भी जाओगी’’? मैंने डरते डरते पूछा

नानी हंसी... ''काहे... जब इतेक बड़े बड़े निरप चले गए, देई देवता सिदार गए तो त्यारी नानी कौन खेत की मूरी... मैं रुआंसी हो गयी। मैंने उनसे लिपटकर कहा ''तो फिर मुझे कहानियाँ कौन सुनाएगा। नानी, तुलसी बब्बा ने राम जी की कहानी लिखी मैं आपकी कहानी...

अरे ब्बा बिटिया... कहानी में नानी... नानी अपने पोपले मुंह से हंसती हुई बोलीं मानों इतनी भोली सी हंसी में पूरी नियति का मजाक उड़ा रही हों। वो मुझे लिपटा देर तक हंसती रहीं और मैं उन्हें हँसते हुए देखती रही।

अब नानी सचमुच कहानी बन गई लेकिन इनके कहानी बनने से पूर्व एक अजीब सी घटना घटी। अंतिम दिनों में उन्हें न जानें क्यूँ ये लगने लगा था कि उनकी काया के भीतर कोई जिन्न है। वो अब मुझसे भी बात नहीं करती थीं जैसे पहचानती ही ना हों और उन ''जिन्न’’ से ही बात करती रहती थीं। क्या नानी मरने से पहले ही जिन्न बन गयी है? मैं सोचती रहती

अब लगता है कि जो कहानियाँ उनके ज़ेहन के तलछट में बची रह गयी थीं शायद ''जिन्न’’ से बतियाकर उन्हें ही वो खाली करती होंगी। इस दुनिया से जाते वक्त आदमी जीवन की कहानियों से बिल्कुल रिक्त और मुक्त हो प्रस्थान करना चाहता है। नानी भी ...ज्यूं की त्यों धर दीनी चदरिया।’’

नानी की कथा संपदा की मैं इकलौती वारिस हूँ लेकिन अब मुझे कोई अपना वारिस नज़र नहीं आता जिसे मैं ये ''जागीर’’ सौंप दूं। किसी के पास ये कहानियाँ सुनने का न वक्त है न इच्छा।

भूमंडलीकरण के इस उत्तर आधुनिक दौर में अब कहानियों पर से नानी दादी का कॉपी राईट खत्म हो चुका है। ये कहानियाँ सुनने पढऩे का नहीं कहानियाँ देखने का ज़माना है। अब उन भोले किस्सों में वो विश्वसनीयता की आज़ादी नहीं रही, जब पशु पक्षी भी अपने मन की बात कर लिया करते थे, वानर सेना एक रात में समुद्र के ऊपर कोसों लंबा पुल बना लेती थी। चरण स्पर्श भर से किसी अहिल्या को अपने श्राप से मुक्ति मिल जाती थी। अब कहानियाँ प्रश्नों, तर्कों, विमर्शों, ब्योरों और प्रामाणिकता की पहरेदारी में लिखी जाती हैं। लेकिन विज्ञान के इस चमत्कारिक दौर की कहानियाँ लिखते पढ़ते हुए नानी की गंवई कहानियाँ मन के किसी कोने में बैठी अपने आधुनिक संस्करण को चुपचाप सुनती व उलटती पुलटती हुई सी प्रतीत होती हैं।

                                                                              * * *

पाओलो कोएलो ने अपने विख्यात उपन्यास ''ज़ाहिर’’ में लिखा है ''मनुष्य ही क्या जिसके पास कहने को कोई कहानी न हो’’ आज तो सबके पास अपनी इतनी कहानियाँ हो गयी हैं कि कहानी सुनने वालों का अकाल हो गया है। आम लोग तो जनता ठहरे पर फिल्में, खबरिया चैनल, धारावाहिक, मीडिया, लेखक, नेता सब चीख चीख कर अपनी ''कहानियाँ’’ सुनाने को आमादा हैं। वहीं किरदार... वही श्रोता वही पाठक और वही दर्शक।

ऐसे में नानी की उन ''अविश्वनीय - भरोसेमंद’’ दास्तानगोई की स्मृति इस भीड़ और कोलाहल में किसी सुकुन भरे एकांत का आभार कराती हैं।

बहुत पहले कभी किसी दार्शनिक का एक लेख पढ़ा था जिसकी एक पंक्ति थी ''अति बुद्धिमान व भावुक व्यक्ति या तो अवसादिक हो विक्षिप्त हो जाता है या फिर आत्महत्या कर लेता है और यदि ये सब नहीं कर पाता तो घुट घुट कर व्याधिग्रस्त हो जाता है।’’ कहीं इन सब त्रासदियों की वजह कहानियाँ ही तो नहीं? उनकी अपनी कहानियाँ? उनके युग की सच्ची और निखालिस कहानियां? अपने समाज, अपने देश और वो धरती जिस के वो मौजूद वाशिंदे हैं उस दुनिया ओ दौर की कहानियाँ जिन्हें वो किसी से कह नहीं पाए? जिन्हें कोई सुनने वाला नहीं था? जिन पर कोई सवाल पूछने वाला नहीं था? जो सवाल हल भले ही न हो सकें जिन पर कोई हुंकारे भर उनसे सहमत होने वाला नहीं था?

                                                                          * * *

ये भावनाओं में बहने का नहीं बल्कि विशुद्ध वैज्ञानिक सोच का ज़माना है। भावुक व्यक्ति विशेष तौर पर जिसने इससे बहुत बेहतर युग देखा है, इस नए ज़माने को अपनी भावुकता का मोल चुकाता ही है। चाहे वो वैज्ञानिक हो, साहित्यकार, कलाकार अथवा कोई आम नागरिक। हिन्दी के चर्चित लेखक शैलेश मटियानी और स्वदेश दीपक को साहित्य जगत भूला नहीं होगा। अभी उर्दू के मशहूर शायर बशीर बद्र साहब का एक बहुत मार्मिक वीडियो देखा जिसमें उन्हीं की शायरी गाकर उन्हें अपनी ही याद दिलाई जा रही है लेकिन वे इस तरह मुंह बाए देख रहे हैं जैसे वे इस शायरी को नहीं जानते। और जब दिपदिपाती सी याद के बीच बीच में कुछ पंक्तियाँ कौंध जाती हैं तो खुद ही खुश होकर ''इरशाद इरशाद’’ कहने लगते हैं। इसे फकत डाईमेंशिया कहकर नकारा नहीं जा सकता बल्कि कहीं न कहीं जीवन की इस निस्सारता से मोहभंग हो जाना भी है। कितना मुश्किल या आसान होता होगा खुद से खुद को विस्मृत कर पाना? अंतत: ये जीवन से आत्म क्षमा (कन्फेशन) की स्थिति ही तो है।

उल्लेखनीय है कि सुप्रसिद्ध कलाकार बीथोवन जिसके संगीत की पूरी दुनिया दीवानी थी अपने अंतिम समय में बहरे हो गए थे और अपना ही संगीत सुनने से महरुम। वहीं विश्वविख्यात कलाकार गोया जिनकी पेंटिंग्स का कोई सानी नहीं था जीवन के अंतिम पड़ाव पर अंधे हो गए थे। तोलस्ताय ने बेहतरीन लिखा, विश्व ने ससहा लेकिन वृद्धावस्था में आकर उन्हें अहसास हुआ कि इस साहित्य, प्रशंसा और श्रम का आखिर क्या अर्थ है, जीवन का ही क्या औचित्य है? जब एक दिन सब नष्ट ही होना है और तब वे जीवन से विरक्त हो गए। टोलस्ताय के विषय में एक और बात... उन्हें मृत्यु से बेहद डर लगता था। एक करीबी रिश्तेदार को उन्होंने बचपन में ही मृत देख लिया था। पूरी ज़िंदगी उन्हें लगता रहा कि मौत का उनका पीछा कर रही है। लेकिन अपने डर को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने उपन्यास कहानियों में मौत का जो वर्णन किया है वो अद्भुत है।

अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने तो अपने सारे जीवन का बल्कि अपनी भावी मृत्यु का वर्णन दो उपन्यासों ''दि स्नोज़ ऑफ किलिमंजारों’’ और ''एक्रॉस द रिवर एंड इनटू द ट्रीज़’’ में कर दिया था और इस तरह उन्होंने जीते जी अपनी मृत्यु की कल्पना कर डाली थी। तो क्या मृत्यु का भय मनुष्य के अवचेतन में इतना गहरा होता है कि वो उस बार बार स्मरण करना चाहता है?

                                                                                * * *

स्मृतियां, शोर भरी चुप्पियों का हश्र है।

आदमी एक दिन अचानक इस धरती से गायब हो जाता है लेकिन कहानियों में बचा रहता है। जैसे नानी बची रहीं। मानव जीवन की वो सच्ची और असली कहानियां जिन्हें न एडिट किया जा सकता न कॉपी पेस्ट, इन्हें ''एक्शन-कट’’ करने की गुंजाइश भी नहीं।

कुछ कहानियां इस संसार में खुद को जीकर खामोशी से विदा हो जाती हैं लेकिन कहीं कहीं मानव इतिहास की इन्हीं सच्ची कहानियों को महफूज रखने के भाँति भाँति के उपक्रम किये जाते हैं। पुस्तकें, चित्र, मूर्तियां, उनके नाम से मंदिर, इमारतें, सड़कें, शहर और न जाने क्या क्या। आखिर आदमी क्यूँ यादों में खुद को बचाए रखना चाहता है? ''लाइफ आफ्टर डेथ’’ को क्यूँ अपनी कल्पनाओं से कुरेदना चाहता है? जीवन के यूटोपिया को स्वीकार करने की हिम्मत उससे क्यूँ नहीं? दरअसल जो चीज़ आदमी के वश की नहीं होती वो उसके समानांतर कोई विकल्प गढ़ लेता है। जैसे जन्म, जैसे भविष्य, जैसे व्याधियां, जैसे चमत्कार। लेकिन मृत्यु का कोई विकल्प वो अभी तक नहीं खोज पाया लिहाजा मृत्यु द्वारा देह को मिटा देने के बाद वो उसकी स्मृतियों को जिंदा रखना चाहता है। उसकी इस चाहना में एक और जहां मरनेवाले को यादों में ज़िंदा देख पाना है वहीं कहीं न कहीं नियति को चुनौती देने की एक मासूम-सी कोशिश भरा दंभ भी।

इस तकनीक समृद्ध दौर में आज की फैशन परस्त और आधुनिक पीढ़ी कृष्ण, महाभारत और द्रोपदी जैसे चरित्रों को भी शक की निगाह से देखती है। वो ऐतिहासिक चरित्रों को मिथक मान बैठी है। अभी ताज़ा प्रकरण में न पद्मावती थी और न आलाउद्दीन खिलजी। कुछ अरसे बाद न पन्ना धाय होगा न लक्ष्मी बाई, कालान्तर में संभव है गांधी नेहरू जैसे चरित्र भी मिथकीय किरदारों की पंक्ति में खड़े कर दिए जाएं। सब मनगढ़ंत चरित्र हो जायें।

                                                                                      * * *

कहानी, स्मृति की जुड़वा बहन है। उन्हें दोहराना ही उन्हें सहेजना है।

खुद की स्मृतियाँ आदमी को सर्वाधिक सालती हैं, लेकिन जाना भी आदमी उन्हीं यादों के पास चाहता है। मरने वाले की स्मृतियों को ज़िंदा रख पाना और इस तरह एक दंभ अथवा संतुष्टि के भाव से गोया मौत को खारिज कर देना आज का नहीं सदियों का शगल है। रोम इजिप्ट की ममीज़ इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। कितने तरह की जड़ी बूटियों/मसालों से लिपटे उनके शव जो आज सैंकड़ों वर्ष बाद भी ''जीवितहोने का भ्रम और संतुष्टि देते हैं। पहले राजा महाराजा के साथ उनके कपड़े, तमाम गहने साज़ श्रृंगार के सामान, धन भी गाड़ दिया जाता था और ऐसा माना जाता था कि उन्हें अगले जन्म में कोई परेशानी न हो। कई जगह तो उनके नौकर चाकर और मुलाज़िमों को भी राजा के साथ दन कर दिया जाता था। हालांकि राज पाट अब खत्म हो चुके हैं लेकिन जिन प्रदेशों में राजा की पीढिय़ां और महल आज भी अस्तित्व में हैं वहां सामंतवाद के कुछ चिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं। प्राय: देखा जाता है कि उनके राजसी परिवार की अकूत संपदा के साथ ही उनके दाह संस्कार के ठिकाने भी छतरियों, मकबरों, समाधियों, चौकियों आदि के रुप में तयशुदा हैं। करीब बीस वर्ष पहले ग्वालियर में स्थित छतरियां देखने गए थे। जानकर आश्चर्य हुआ कि मरने के स्थल भी इतने कलात्मक और दर्शनीय हो सकते हैं। एक निर्माणाधीन ''छतरी’’ जिस पर कोई निशां अथवा नाम नहीं था उसके बारे में पूछने पर मालूम हुआ कि ये ग्वालियर की महारानी विजयराजे सिंधिया की छतरी है जहां उन्हें दफनाया जाएगा। गौरतलब है कि उस वक्त वे राजनीति में सक्रिय थीं और वयोवृद्ध हो चुकी थीं। यानी मनुष्य के जाने से पहले उसकी जाने की तैयारी... उसकी स्मृति का घर। ऐसी कई समाधियों पर आज भी बाकायदा मेले लगते हैं, तमाम कर्म काण्ड किये जाते हैं। भ्रम और भय क्रोनिक हो जाने के बाद रस्म में बदल जाते हैं और पीढिय़ां दर पीढिय़ां उन रस्मों को सत्य मानने की प्रथा के साथ निर्वहन करती रहती हैं।

                                                                                     * * *

रहस्यमयी और नैसर्गिक घटनाएँ इस कदर शाश्वत हो जाती हैं कि हम उनके ''होने’’ को अनदेखा कर उन्हें नज़रअंदाज किये जाते हैं। जैसे आयु बढऩे के साथ खुद को बदलते हुए देखना। रहस्यमय सा लगता है ये सब कि अभी छोटे थे फिर बड़े हुए। हालातों से लेकर शक्लो सूरत तक सब बदलने लगी। अपना अतीत हम तस्वीरों में तलाशने लगे। पिछली पीढ़ी की शक्लें और बूढ़ी होती गई और एक दिन न जाने कहां लुप्त हो गई। धीरे धीरे हर आदमी की शक्ल उस बदलती शक्ल में शुमार होने लगती है। एक बेचूक चक्र...। बुढ़ापे में आदमी इस कदर पुराना हो जाता है कि शक्लें सिर्फ झुर्रियों में बदल जाती हैं और चेहरे हमशक्ल से दिखने लगते हैं। मुझे न जाने क्यूं हर बूढ़ी आँख एक गहरा समुद्र सी लगती है जो रहस्यमयी अंधेरों से ढकी होती है।

                                                                                   * * *

हर व्यक्ति के ज़ेहन में उसके बीते ''वक्तों’’ की यादें जमा होती जाती हैं। जैसे मेरे जीवन में। जब मैं वक्तों के उन छोटे छोटे टुकड़ों को अपनी स्मृतियों से सिलने बैठती हूं तो एक पूरा युग बन जाता है। मेरा युग... जिसे मैंने अपनी तरह से जाना, अपनी तई संजोया, अपने उपलब्ध संसाधनों के साथ दिया, उन $ख्वाबों को बनते टूटते देखा, जीने की जिद और निराशा के बीच उम्मीद की वो पतली सी दीवार देखी।

एक जुमला है वक्त वक्त की बात... अपने युग के ''विराट समय’’ के भीतर भी हर आदमी के पास उसके छोटे छोटे वक्त हुआ करते हैं। ये मेरे एक बित्ते भर वक्त की बहुत उजली सी याद है जब हम बचपन में मैदान में खेलते हुए अचानक आसमान में उड़ता हवाई जहाज देखा करते थे। तब विज्ञान का ये चमत्कार यानी हवाई जहाज हमारी हैसियत के लिहाज से किसी बुर्ज़ खलीफा से कम नहीं था और लड़कपन की उस उम्र के लिए एक अजूबा। उसकी खिलौनों जैसी छोटी खिड़कियां देखकर यकीन नहीं होता था कि इसमें यात्री भी होंगे। उन्हें देखने भर से सांसों में घुटन सी महसूस होती थी। उससे बेहतर मुझे राजस्थान व हरियाणा रोडवेज की खडख़ड़ाती बेढब बसें लगती थीं जो चलने से ज्यादा बोलती थीं। हरियाणवी चीखते गाने और बीड़ी फूंकते बिंदास मर्द और औरतें। इन सब अजूबेपन के बावजूद कम से कम हवाई जहाज की उस उस काल्पनिक घुटन से जिंदा बचे रहने की आश्वस्ति तो थी। अब सोचती हूँ तो लगता है कि शायद ये सोच इसलिए थी कि वो मेरा भोगा हुआ यथार्थ था और हवाई हजाज एक $ख्वाब।

सायकिल चलाना तक न सीख पाने का प्रायश्चित आवश्यकता पडऩे पर मोपेड और अंतत: कार खुद ड्राइव करने के नितांत अप्रत्याशित चमत्कार में तब्दील हुआ। लेकिन ये निश्चित रुप से किसी स्त्री मुक्ति आन्दोलन का हिस्सा नहीं था जिस पर समूची स्त्री जाति को गर्व महसूस हो। ये क्त व्यस्तता और नौकरी की जिम्मेदारियों के बीच एक सुभीते पूर्ण व्यवस्था थी। लम्बे रास्ते पैदल नापना, मोपेड से लेकर कार तक चलाना और तपती गर्मी और ज़र्ज़र बसों में हलकान होते लम्बी यात्राओं से लेकर हवाई जहाज की सुविधापूर्ण यात्रा तक यानी जीवन का एक अप्रत्याशित सफर।

कभी कभी मैं अपनी उम्र का पृष्ठ पलट कर देखती हूँ। अक्सर तब जब मैं हजारों फीट की ऊंचाई पर हवाई जहाज में उड़ रही होती हूँ। जीवन के रंजो गम उस नीले विरक्त आसमान में दूर तक तैरते अनाकृत बादलों के गुच्छों में विलीन हो जाते हैं... तब मुझे न हरियाणा दिखता न राजस्थान और ना ही उनकी वे लडख़ड़ाती डोलती खटारा बसें.... दिखाई देते हैं तो फकत ज़मीन पर रेंगते हुए कुछ धब्बे

कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिल-ओ-जाँ से दोनों कुबूल हैं

मगर उस नगर में न कैद कर, जहाँ ज़िन्दगी की हवा न हो (बशीर बद्र)

 

 

वंदना शुक्ल की कहानियां पूर्व में पहल में प्रकाशित हो चुकी हैं। वड़ोदरा में रहती है।

 


Login