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जुलाई 2018

बाजे वाली गली

राजकुमार केसवानी

उपन्यास अंश - 1

 

 

इस गली का नाम बाजे वाली गली कब और कैसे पड़ा, यह बात किसी और को भले मालूम हो लेकिन यहां रहने वालों में से यह बात शायद ही कोई जानता हो। सिवाय उस एक बूढ़े बद्दू मियां के, जिसके पास बदन पर एक जोड़ मैले कपड़े और किस्से-कहानियों के अलावा और कुछ भी नहीं है। चेहरे की झुर्रियों और जिस्म पर मौजूद खस्ता-हाल कपड़ों की गवाही से यूं मालूम होता कि यह श$ख्स शहर भोपाल से भी पुराना भोपाली है। देखने में हरदम अकेला, लेकिन इस अकेले के वजूद में इस शहर की हर ज़िंदा-मुर्दा दास्तान समाई हुई है। बस एक तार छेडऩे भर की देर है कि कीर के सुर आब-ए-हफ्त-दरिया1 की तरह बह निकलते हैं और हर बार ''रहे नाम अल्लाह का!’’ पर जाकर ही रुकते हैं।

उसके पास रहने को दूसरों की तरह घर नहीं है। पूरी की पूरी गली है - बाजे वाली गली। यहां पर हर घर के बाहर निकले हुए पटियों पर आप कभी, किसी भी पटिये पर बद्दू मियां को बैठे हुए देख सकते हैं। लेटे हुए देख सकते हैं। खांसते हुए देख सकते हैं। कभी-कभी रोते हुए भी देख सकते हैं। वह क्यों रोते हैं किसी को पता नहीं है। ठीक उसी तरह जिस तरह यहां रहने वालों में से किसी को यह पता नहीं है कि इस गली का नाम बाजे वाली गली क्यों है, जो कि बद्दू मियां को मालूम है। उनको तो अपने रोने की वजह भी मालूम है लेकिन उनसे कभी किसी ने पूछा नहीं कि वे रोते क्यों हैं और उन्होने भी किसी को बताया नहीं कि वे रोते क्यों हैं।

एक बार मैने उनसे रोने की वजह पूछी थी। जवाब में उन्होने पहले मुझे खूब घूरकर देखा। कुछ देर तक मुस्कराते रहे। फिर एकदम अपनी गर्दन ऊपर उठाकर आसमान की तरफ देखते हुए कहने लगे - कों खां! बता दूं? और फिर ज़ोर का ठहाका लगाकर हंसने लगे। एक बार फिर ऊपर देखते हुए कहने लगे - 'चल रेन देते हैं। अभी बच्चा है। ज़ रा सा बड़ा होन दो। सब बता दूंगा

मैं अजब से भरी आंखों से कभी उनको और कभी आसमान को देखने लगा था। मुझे तो आसमान में कोई दिखाई नहीं दे रहा था। मैं सोच रहा था कि आख़िर ये बद्दू मियां बात किससे कर रहे हैं। सो मैने सीधे सवाल ही कर लिया, 'कौन है ? किससे बात करे हो?’

जवाब तो मुझे नहीं मिला लेकिन इस बार उन्होने मेरे दोनो गालों को अपने दोनो हाथों में भर लिया और फिर से रोने लगे। इस बार उनके रोने से मैं डर गया।

मैं तब बहुत छोटा था। कुछ साल पहले ही इसी गली में सारे बच्चों की तरह उंआं -उंआं करता पैदा हुआ था। बाद में पता चला कि आमद की इस अज़ ान को भी इस दुनिया में रोना कहा जाता है।

हकीकत में रोने से मेरी असल पहचान मां के कारण ही हुई। मां भी दिन में दो-चार बार तो रोती ही थी। वह भी बिना आवाज़ । कभी पिताजी से झगड़े के नतीजे में। कभी हवेली के अंदर लगे इकलौते नल पर हवेली के आठ घरों की भीड़ से हारकर अपनी खाली बाल्टी के साथ रोती थी। कभी-कभी इसी हवेली के अंदर के दूसरे घर में रहने वाली अपनी सास की वजह से और कभी किसी ऐसी बात पर जो मेरी समझ में नहीं आती थी।

मुझे मां का रोना ज़ रा भी अछा नहीं लगता था। मैं उसके पास जाकर उससे रोने की वजह पूछता - 'मां रोती क्यों हैं ?’। जवाब में वह मुझे अपनी ओर खींचकर सीने से लगा लेती और फिर ज़ोर से सुबकने लगती। कभी-कभी सिर्फ मेरे गालों को हाथों में थाम लेती और बिना जवाब दिए सिर्फ मुझे चूमकर छोड़ देती, खेलने के लिए।

उस वक्त बद्दू मियां ने भी मेरे गाल पकड़ लिए थे और जवाब नहीं दिया था। बस प्यार से पुचकारते हुए इतना भर कहा था - 'मेरी जान! ज़ रा बड़े हो जाओ। सब बता दूंगा। अभी जाओ और जा के खेलो।

मैं चुपचाप उठकर चला आया था। घर पहुंचकर मां से ज़ रूर कहा था कि बद्दू मियां आज फिर रो रहे थे। मां ने घबराकर मुझे पकड़ लिया और पूछा - 'तू वहां क्या कर रहा था? तुझे कितनी बार समझाया है कि वह पागल है। तेरी समझ में ही नहीं आता। तेरे पिताजी को बता दिया तो समझ लेना क्या होगा। समझे ? पागल आदमी से दूर ही रहना चाहिए। पता नहीं कब क्या कर दे। समझ गए न?’

ठीक से तो याद नहीं किस उम्र में जाकर इन बातों को समझा कि किसी को पागल क्यों करार दे दिया जाता है, लेकिन इतना ज़ रूर याद है कि उस घड़ी भी मैने मां के सामने सहमति में गर्दन इस तरह हिलाई थी मानो वाकई सब कुछ समझ गया।

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यूं तो ज़ माने भर के तमाम शहर अपनी शक्ल-ओ-सूरत, सड़क-इमारत, मकामी लोगों के खाने-पहनने से, अपनी ज़ बान से और सबसे ऊपर लोगों के किरदार से अपनी-अपनी अलग पहचान पाते हैं। लेकिन यह शहर तो कुछ निराला सा ही है। निराला भी क्या मस्ताना सा शहर है। एकदम पहली नज़ र में तो यह दुनिया का सबसे पुराना शहर सा मालूम होता है। मानो बाबा-ए-आदम, अम्मा-ए-आदम के साथ आसमान से टपके तो सीधे यहीं आकर दम लिया हो।

उस गुजऱे दौर में जब की मैं कहानी कहता हूं तब तो महल हो कि मिट्टी का घरोंदा, हालत दोनो की यकसां थी। चंद हंसती-मुस्कराती इमारतों के बीच यहां से वहां तक के  दरो-दीवार ज़ख्मी हालत में खड़े-खड़े, चिराग-ए-सहर की तरह बुझने को बेताब दिखाई देते थे। लेकिन वाह रे खुदा की करामत और इंसान की हिकमत, दोनो की जुगलबंदी ने उस शहर को न जाने अल्लादीन की किस गार में बांध छोड़ा था कि न यह चराग पूरी तरह बुझते थे और न शहर की और न शहर के बाशिंदों की ज़िंदगी में कोई बड़ा बदलाव आता था।

यूं नहीं कि शहर भर की हालत ही ऐसी हो। चंद आसूदा और खुश-खुर्रम लोगों ने बड़े शौक से दुमंज़िला इमारतें भी तामीर की हुई थीं, जो जुगनुओं की रोशनी के मु$काबिल आंखों को चुंधियाती ट्यूब लाईट की रोशनी सी नज़ र आती थीं। लेकिन वाह रे इस शहर के लोग और उनका किरदार। इन जगमग इमारतों पर अपने हुनर का मज़ ाहिरा करते हुए कोयले और ईंट के ढेलों से ऐसे-ऐसे कयामतखेज़  जुमले लिख छोड़े थे कि उसके बाद नज़ र इमारत पर कम और जुमलों पर ज़्यादा टिकती थी। मसलन एक ऐसी ही चमकदार इमारत की दीवार पर लिखा एक जुमला याद आता है - ''ओ ज़ोहरा जमाल / तेरी छोकरी कमाल।’’

जिन्हें लिखना न आता होगा वे दो-चार आड़ी कि खड़ी लकीरें खेंच कर अपनी ज़िम्मेदारी निभाने की कोशिश करते। और जो इन दोनो नैमतों से महरूम रहे तो उन्होने पान की पीक से बनने वाली कुदरती पेंटिंग्स बनाकर अपना र्ज़  पूरा कर रखा था। और जो कुछ कसर बाकी रह जाती तो कारोबारी इश्तिहार लिखने वाले पूरी कर जाते।

अब दीवार पर इतनी सारी जगह घिर जाने के बाद जब कहीं कुछ और लिखने की गुंजाइश न होती तब सिर्फ एक ही गुंजाइश बाकी रह जाती है कि कागज़  पर छपे इश्तिहार या नन्हे से हैंड बिल इन सबके ऊपर कहीं भी चिपका दिये जाएं। और यही होता भी था। सो दीवार पर ज़ रा नीचे की तर''जवां मर्दों की पसंद - पहलवान छाप बीड़ी’’ का इश्तिहार लिखा है तो ठीक बीच से इसको काटता हुआ इन्हीं जवां मर्दों की तव्वजो का तलबगार ताज़ा-ताज़ा लेई से चिपका पोस्टर है ''अजमेर वाले हकीम वीरूमल आर्य प्रेमी’’ का जिस पर मर्दानगी के खुिफया मसलों के इलाज की गारंटी है, ''ना-उम्मीद न हो। हकीम साहब पूरे सात दिन के लिए यहां सराय सिकंदरी में ठहरे हैं। आकर मिलें।’’ मिलने का वक्त तो लिखा हुआ लेकिन फीस का कोई ज़िक्र नहीं।

इधर एक दूसरी गली की एक दीवार पर किसी दिल-जले ने दीवार के सबसे ऊपरी हिस्से पर गोया सीढ़ी लगाकर कोयले से खूब मोटे हरू में लिख छोड़ा है - ''शब्बो के दांत गंदे हैं’’ इसी के नीचे ब्रेकेट में एक चुनौती भी लिखी हुई है - (अब मिटा के बताओ।)

इससे आपको यह भी मालूम होता है कि शब्बो और नाराज़  मजनू मियां यहीं-कहीं रहते हैं। और यह भी कि इस नाकाम आशिक ने पहले भी इसी तरह का कोई जुमला यहीं-कहीं लिखा था जिसे शब्बो या उसके किसी हमदर्द ने मिटा दिया था। शायद इसीलिए इस बार इस खुन्नस का ऐलान इतनी ऊंची जगह पर लिखा गया है कि जहां तक आसानी से हाथ न पहुंच सके। इस जुमले की बेदा मौजूदगी ही अपने आप में इस बात का सुबूत थी कि शब्बो और शब्बो के हमदर्दों के न तो हाथ इतने लंबे हैं कि इतनी ऊपर तक पहुंच सकें और न ही उनके पास कोई ऊंची सीढ़ी है। कुल मिलाकर नतीजा यह निकलता है कि ''शब्बो’’ रीब है, जिसे कोई सीढ़ी की औकात वाला लमडा परेशान कर रिया हेगा।

अब आप खुदा के वास्ते मिझे इस बात पर न टोकें कि में अछी-भली बात करते-करते यह रिया-िफया क्या करने लगा। अब जो ज़ बान अपनी औकात पर आ ही गई हे तो मैं खुल के बता ई देता हूं कि ये इस शहर की ज़ बान है। जिसमे दो मात्रे  वाले हरू की एक मात्रा हलक में ई रे जाती हे और जो एक मात्रा हुई तो समझो उसका खुदा हािफज़ । नतीजतन गेहूं ज़ रा हल्का होकर गहूं रह जाता है। छोटा उ बिचारा मुड़कर छोटा इ रह जाता है, सो मुहल्ला, मिहल्ला और मुझे, मिझे हो जाता है। और ह इसलिए गुम हो जाता हेगा कि जां बिना विसके ई काम चल सकता हे तो फिर कायको इस बुढ़ापे में विसे यहां-वहां अड़ाना। और आज़ाद खयाली का आलम यह है कि यहां खान का नून गुम होकर गैन में बदलकर खां हो जाता है। जैसे अशर खां, मज़ हर खां। सो हुज़ूर भूल-चूक लेनी देनी। इस कायदे वाली मादरी ज़ बान के साथ बीच-बीच में यह 'फादरीज़ बान तो आती रेगी। अच्छा, इस 'फादरीका फंडा बाद में बताऊंगा पहले ज़ रा बीच में लटकी उस बेचारी शब्बो की बात पूरी कर लूं।

तो मैं कह यह रहा था कि लगता है कि शब्बो बिचारी गरीब है और और साहब गरीब की परेशानी से किसी को क्या लेना और किसी का क्या देना। अल-गरज़  नतीजा यह कि शहर में आपको ढेर सारे बेदा लोग भले मिल जाएं लेकिन बेदा दीवारें ज़ रा कम-कम ही हैं। और हां, घरों के बाहर पत्थर के ख़ासे चौड़े पटिये ज़ रूर दिखाई दे जाते हैं। इन पटियों की चमक देखकर ही बड़ी आसानी से कोई भी जान सकता है कि इनका इस्तेमाल और देख-भाल $खूब है। दिन ढलते ही इसके ज़िंदा सुबूत भी मिलने लग जाते हैं। रात की तैयारी में शाम को ही मुहल्ले का पखाली (भिश्ती) गली में मौजूद बंबे (नल) से अपना पखाल भरकर हुक्म के मुताबिक पटिये पर पानी डालकर सा कर देता है। मालिक अगर ज़्यादा मालदार हुआ तो सड़क पर भी छिड़काव हो जाता है। उस घड़ी उठती मिटी की भीनी-भीनी ख़ुश्बू आस-पास फैल जाती है।

सांवली सी शाम का रंग गहराते-गहराते जब श्याम रंग हो जाता है तो शहर भर में इन वीरान पट्टियों पर आहिस्ता-आहिस्ता एक समाजी मजमा सा लग जाता है। दिन भर की दौड़-धूप के बाद जो ज़िंदगी ने थमने का मौका दिया तो सब एक-दूसरे से मिलने को मचलने से लगते हैं।

इन पट्टियों का इस शहर की ज़िंदगी में वही मकाम है जो आसमान के वजूद में चांद का है। दिन भर ज़िंदगी की सुलगती भट्टी की तपिश से बाहर निकलकर ठंडक का अहसास देते इन पत्थर के टुकड़ों पर बैठकर न जाने कितनी पीढिय़ों ने राहत पाई है। न जाने कितने इतिहास कहे-सुने और न जाने कितने इतिहास लिखे गए हैं।

एक सित और है यहां की। जिधर निकल जाइयेगा, वहीं चाय और वर्की समोसे परोसती छोटी-छोटी होटलें पाईयेगा। चाय भी नमक वाली चाय। सुलेमानी चाय। और वह भी फुल बालाई मारकर। अब यही तो है न कि यहां दूध की मलाई, बालाई हो जाती है। हरा धनिया - कोतमीर हो जाता है। अरबी - घुइंयां, लौकी - गड़ेली और सुपारी किसी हसीन दोशीज़ा का भरम देती 'छालियाकहलाती है।

यह सब अपनी जगह, लेकिन सबसे ज़ रूरी दो चीज़ें जिस पर सारा शहर इतराता है। एक है यहां का बड़ा तालाब और दूसरा है बर्रु काट भोपाली। इतराना तो ठीक मीलों में फैले इस बड़े तालाब को लेकर भोपालियों ने तो सारे ज़ माने को चुनौती सी दे रखी है।

 

तालों में ताल तो भोपाल ताल, बाकी सब तलैयां

रानियों में रानी तो कमला रानी, बाकी सब गधैयां

 

कमला रानी बोले तो भोपाल गोंड रानी कमलापति, जिसको लेकर भी हज़ ार दास्तानें हैं।

अब रही बात बर्रु काट भोपाली की तो उसका ऐसा है कि यह लकब असल में यहां के मूल निवासियों के लिए है जिन्होने चारों और फैले बर्रु के जंगल सा करके शहर की आबादी के लिए मैदान सा किया। लेकिन आरीन भोपाल के उन जियालों का जो बसे-बसाए शहर में आ बसे और बेझिझक ख़ुद को बर्रु-काट भोपाली का तम$गा देकर तेढ़े-मेढ़े हुए फिरते हैं।

किसी वक्त पूरा शहर परकोटे से घिरा था और शहर में दाख़िल होने के लिए सात गेट थे। कहते हैं रात में शहर कोतवाल ख़ुद सातों दरवाज़ों पर ताला लगाता था और सुबह ख़ुद अपने हाथों से खोलता था। परकोटा टूटा तो गेट भी गायब होने लगा लेकिन कुछ अभी भी ज़िन्दा हैं। सो जहां गेट हैं या थे वो इलाके अब भी इमामी गेट, पीर गेट के नाम से जाने जाते हैं।

यूं तो बताने को अभी पूरा शहर ही बाकी है, बल्कि जो बताया है उसके बारे में भी पूरा-पूरा बताना पूरी तरह से बाकी है। लेकिन इस व$क्त मैं ज़रा वापस अपनी बाजे वाली गली को वापस लौटना चाहता हूं। बल्कि अपने घर लौटना चाहता हूं, जिसने मुझे बाजे वाली गली का बाशिंदा होने का फिख्रया हक दिया है। और यूं भी इस कहानी को शुरू भी तो वहीं से होना है।

 

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इस गली में, जहां नवाब जनरल ओबेदुल्लाह ख़ान साहब की ख़ाली पड़ी एक ''भोत बाई भोत’’ साईज़  की लम्बी-चौड़ी पाएगाह है, वहां बाकी बचे हिस्से में दोनो तरफ ज़्यादातर पत्थर की चुनाई वाली दीवारों पर देसी कवेलू वाली खपरेलों से ढके मकानों की कतारे हैं. गली के बीच कई गलियां हैं। पतली सी मगर $खूब गहरे तक जाती हुई। इन पतली सी गलियों के आखिऱ और बीच में कुछ दरवाज़े हैं। दरवाज़ों के पीछे पर्दे हैं। इन पर्दों को कोई एक हाथ जब ऊपर उठाता है तभी मालूम होता है कि वहां भी घर हैं।

ऐसे सख्त पर्दे वाली मुस्लिम आबादी वाली घनी बस्ती के घरों के बीच छतों की ऊंचाई को लांघकर गली में झांकते कुछ पेड़ भी हैं। इनमें एक जामुन का पेड़, दो पीपल के और लगभग छह नीम के पेड़ हैं। यूं अमरूद के पेड़ तो यहां हर घर में हैं लेकिन उन सभी का कद इन बाकी पेड़ों के सामने उतना ही है जितना यहां रहने वाले अधिकांश लोगों का शहर के कद्दावर और आसूदा लोगों के सामने बैठता है।

इस गली के लोगों की ज़िन्दगी में इन पेड़ों की एक खास जगह है। जामुन का पेड़ जब अपने शबाब पर आता है और ख़ुशी में जामुन के छोटे-छोटे, काले-काले फलों से लद जाता है, तब यह ख़ुशी अलग-अलग मिकदार में गली के कमोबेश हर घर तक पहुंच जाती है।

गली में कोई आधा दर्जन घरों में लगे नीम के पेड़ों के बीच कुछ-कुछ दूरी तो है लेकिन फिर भी जब हवाएं चलती तो झूम-झूमकर नाचते-गाते, एक-दूसरे से बातें करते मालूम होते हैं। दांत मांजने के लिए हर सुबह जब लोग इनकी शाखें तोड़ते तो इस छीना-झपटी में शाखों से टूटकर ज़मीन पर ढेर सारे हरे और पीले पत्ते बिखर जाते हैं। हवा के हल्के-हल्के झोंकों के साथ पूरी गली में उड़ते-गिरते पत्ते एक भीनी सी महक के साथ ही साथ एक खूबसूरत मंज़ र भी रच देते। ऐसा लगता मानो कोई पेंटर कैनवस पर काम कर रहा है।

इस सारे मंज़ र को एक अदभुत गरिमा देने के लिए हर सुबह एक आवाज़  गूंजती है। यह आवाज़ है यहां रहने वाले मेवाती घराने के गायक दो भाइयों घसीटा उस्ताद और मसीता उस्ताद की।

यहां से पाकिस्तान को हिजरत कर जाने वाले तो चले तो गए लेकिन इन लोगों की हवेलियां यहीं रह गईं। इन हवेलियों में से एक थी इस शहर भोपाल की मशहूर नानी जी की हवेली जिसका एक दरवाज़ ा बाजे वाली गली की तरफ तो दूसरा दरवाज़ा कोतवाली वाली सड़क की तरफ खुलता था। इस हवेली की शान यह थी कि इस हवेली में यहां के नामवर हकीम सुल्तान महमूद अपने पूरी ख़ानदान के साथ रहते थे। और माशाअल्लाह, जितना बड़ा ख़ानदान था और उतनी ही भरी-पूरी जगह हवेली में थी। इसके नज़ दीक ही बना था बड़े-बड़े काले पत्थरों वाला विशालकाय तब्बा मियां का महल भी सूना रह गया था।

तकरीबन आधा फर्लांग लम्बी इस बाजे वाली गली की हमेशा से एक बहुत बड़ी $खूबी यह रही है कि यहां पर रीबों का बड़ा दबदबा रहा है। चार-छह हैसियत वाले लोग भले ही इस गली में रहते रहे हों लेकिन मोहल्ले की सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसकी एक वजह यह भी है कि हैसियत वालों ने अपनी हैसियत का वज़ न मुहल्ले पर डालने की कोशिश कभी नहीं की। सो इंसानी फितरत से पैदा होने वाले कुछ लाइलाज आपसी मसलों के अलावा यहां अक्सर अमन-चैन कायम रहा है।

इस गली की दूसरी खूबी यह है कि यहां आपको दिहाड़ी मज़ दूर से लेकर लुहारी और पाईप फ़िटिंग, बार बांटने वाले हाकर से लेकर एल्$िक्ट्रशियन जैसे तरह-तरह के पेशे करने वाले लोगों से लेकर जंगल के ठेकेदार और क्लासिकल मौसीक़ी के उस्ताद एक साथ मिल जाते हैं।

गली के एक मुहाने से एक मोड़ ब्रिजीसिया मस्जिद से होता हुआ इतवारा की सब्ज़ी मंडी की तरफ जाता है और दूसरे हाथ वाला मोड़ जामा मस्जिद वाले चौक की तरफ, यहां पर चौक वाली दिशा में एक लम्बा-चौड़ा लकड़ी का टाल है जो जलील भाई का पीठा के नाम से मशहूर है। यही पीठा आगे चलकर मेरा घर बनने वाला है।

जलील भाई इस शहर के ख़ासे मारूफ इंसान है। इस पीठे के अलावा आसपास के गांव में खूब सारी ज़ मीने हैं। इनमे एक ज़मीन वह भी है जहां हर साल रावण का वध होता है और दशहरा मनाया जाता है। इसी वजह से यह दशहरा मैदान कहलाता है।

पीठे के बाद कोई पांच घर छोड़कर अन्दर की तरफ उनका घर भी है। एक छोटे से लकड़ी के दरवाज़े के पीछे छिपे इस ख़ासे बड़े घर के अन्दर पूरे दो दर्जन लोग रहते हैं। आख़िर पूरे सात भाइयों का कुनब्बा है, जिसमे तीन अभी कुंवारे हैं।

पीठे के ठीक सामने, एक कदीमी अंदाज़  के नाम और शक्लो-सूरत वाला एक घर है - रीबख़ाना। सीधी-सीधी सफेद चूने से पुती हुई दीवारें, एक गली में तो दूसरा सड़क की तरफ खुलता हुआ दरवाज़ ा। सर पर वही देसी कवेलू की छत जो मोहल्ले के ज़्यादातर घरों में लगी है।

इस रीबख़ाने के मालिक नसीब ख़ा'सौदागरन जाने कितने सौदे निपटाने के बाद शहर के बड़े सौदागरों में शुमार होते हैं। शहर की प्रतिष्ठित ओल्ड ब्याज़  क्लब के सेक्रेट्री है। हर शाम वहां पत्ते खेलने ज़ रूर जाते हैं।

नसीब ख़ान की खूबी यह है कि सौदागर होने के बावजूद दिल के नेक और तबीयत से य्याज़  इंसान हैं। उन्होने अपने रीबख़ाने के नाम को चरितार्थ करते हुए बाहर की एक छोटी सी कुठरिया गांव से मज़ दूरी करने आई खिम्या (क्षमा)  बाई को बिना किराये दे रखी है। उसी से लगा एक कमरा उन्होने एक नौजवान बीड़ी मज़ दूर साबिर मियां को दे रखा है जिसने एक छोटा सा चायख़ाना और दो कैरम बोर्ड लगा रखे हैं।

यह साबिर मियां कंवारे हैं। बड़े बाग-ओ-बहार इंसान हैं। उन्होंने इस कमरे के बाहर निकले पत्थर के ओटले पर अपने बैठने का ठिया और बगल में ही चाय बनाने के लिए एक समोवार लगा रखा है। कैरम खेलने और चाय पीने के लिए अंदर जाने या बाहर आने के लिए साबिर मियां को लांघकर ही आना-जाना पड़ता है।

साबिर मियां अक्सर किसी मदारी की तरह एक साथ कई काम करते हुए नज़ र आते हैं। अपनी प्यारी मूंगिया रंग की कालर चढ़ी ममली जैकेट ओढ़े वो एक लम्हे गोद में पत्ती,तम्बाकू और लाल डोरी वाले गिट्टे से भरा सूपड़ा गोद में लिए बीड़ी बनाते दिखाए देते हैं तो अगले ही पल वो कैरम बोर्ड पर बैठे और चाय पी रहे ग्राहकों पर नज़ र डालते हुए गेम और चाय गिनते नज़ र आते हैं। और जो इस सब से मन उचटा तो अंदर रखा बैंजो निकालकर उस पर शुरू हो जाते हैं - ''हमे तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने, गोरे-गोरे गालों ने, काले-काले बालों ने।’’ शायद उन्हें एक यही गीत बजाना आता था। क्योंकि उन्हें दूसरा कोई गीत कभी बजाते नहीं सुना गया।

यूं भी यह गीत उनके किरदार के बहुत करीब था। उनकी आदत में हर आते-जाते को किसी न किसी तरह टोकना या कोई जुमला मारना बेहद ज़ रूरी था। बिना मर्द या औरत का र्क किए पहला लफ्क़ा स्त्रीलिंग में ही होना है। किसी हम उम्र को सज-धज कर जाते देख लिया तो कहते, ''आय री, आज तो नब्बू मियां की ईद हो गई। इकन्नी ज़्यादा मिलेगी।’’ या फ़िर किसी पर फ़िकरा कस दिया कि ''भरी जवानी, मांजा ढीला’’ गरज़  यह कि हंसी-ठठा चलता ही रहता है।

उनके आगे वाले घर में नगर पालिका में नल सुधारने की नौकरी करने वाले दो भाई रहते हैं, जिनके कुल जमा छोटे-बड़े चार बेटे भी प्राईवेट में नल लगाने-सुधारने का काम करते हैं और शाम में हाकी स्टिक लेकर खेलने निकल पड़ते हैं। घर की औरतें ज़्यादातार ज़रदोज़ी का काम करती रहती हैं।

हाकी तो मुहल्ले का कमोबेश हर लड़का खेलता है। कोई लोकल तो नेशनल तो कोई 'ओलमपुगरज़  यह कि हाकी है ईमान मेरा वाली हालत है।

इस घर के आगे वाला घर मूसा मियां का, फिर चरा हुसैन व$गैरह के घर, जिनके बारे में ज़रा बाद में बात होगी। अभी तो ज़रा बस कुछ मोटी-मोटी बातें। मसलन यह कि गली का सबसे ज़्यादा इलाका खाने वाली चीज़ है जरनेल साहेब की पाएगाह। कायदे से तो पाएगाह नवाबों के हाथी-घोड़े बांधने के लिए होती थी लेकिन सूंघने पर भी कभी यूं नहीं लगा कि यहां कभी कोई जानवर भी रहा होगा, और जो रहा हो तो ख़ुदा जाने। इस वक्त तो गली के इधर वाले हिस्से में एक बड़ा सा दरवाज़ा है जो हमेशा बंद ही रहता है। अलबता इसकी पलट यानी लैला बुर्ज वाली सड़क की तरज़ रूर लड़कियों को स्कूल कालेज ले जाने वाली बसें खड़ी होती थीं। पर्दे वाली इन बसों को हमारे साबिर मियां ने 'हसीनों का डिब्बाका नाम दे रखा है. इनमे से सुल्तानिया गल्र्स स्कूल वाली एक बस के ड्राईवर संदल मियां इसी गली में रहते हैं। साबिर मियां के दोस्त भी हैं और चाय पीने आते तो साबिर मियां उनसे छेड़ में लग जाते।

पाएगाह की दीवार से लगा अगला मकान हमारी हवेली के ठीक सामने एक मुलिस शाइर का घर है। दो भाई और हैं जो कुछ काम करते हैं और घर चलाते हैं। शाइर साहब जिनका तल्लुस 'शररहै बस बच्चों और बड़ों को $फारसी और उर्दू के सबक सिखाते हैं और हासिल रकम से कुछ घर वालों को और कुछ अपनी मुर्गियों को दे देते हैं। शायद कुछ रकम वो अपने बालों और दाढ़ी में मेहंदी लगाने में र्च करते होंगे क्योंकि उनके बालों का रंग हमेशा खिलखिलाता नज़ र आता था।

शरर साहब सुबह से ही अपने मुर्गे और मुर्गियों को घर के बाहर लाकर दाना डाल देते थे और बड़े गौर से उनको देखते रहते थे। कमाल यह कि वे उनमे से हर एक को नाम से जानते थे और उन्हें बुलाते भी नाम से ही थे। हम बच्चों को इस बात पर हंसी आती थी।

एक दिन मुर्गे-मुर्गियों को दाना डालते हुए शरर साहब ने सिखाने की गरज़  से पास बुलाकर एक सवाल पूछा - 'बताओ इनमें से मुर्गे और मुर्गी को अलग-अलग कैसे पहचानोगे?’

हम बच्चों ने एक-दूसरे को देखा और दबी-दबी हंसी के साथ खिसिया के, हमे क्या मालूम वाली शक्ल बनाकर रह गए। शरर साहब को इस बात का पहले से ही अंदाज़ा था। वे मुस्कराए और मस्ती वाले अन्दाज़  में बोले - 'शकल से पहचानना हो तो बड़ी कलगी वाला हुआ मुर्गा और छोटी कलगी वाली हुई मुर्गी। और अगर असल पहचानना हो तो एक हाथ दिल पे और दूसरा कान के ऊपर रखो। कान से सुनो, दिल से पहचानो। मुर्गा कुकड़ू कूं करता है और मुर्गी सिर्फ कूं,कूं करती है।

हम सबको बड़ा मज़ा आया। एक खेल सा बन गया। अपने हाथों को डाक्टर के स्टेथस्कोप की तरह इस्तेमाल करते और मुर्गे-मुर्गियों से आगे बड़कर बकरे-बकरियों तक की आवाज़ें सुनकर अलग-अलग पहचान की कोशिश में एक-दूसरे की अजब सी बनी हुई मुद्राएं देखकर खूब हंसते। शरर साहब भी बैठे-बैठे खूब मज़े लेते, मुस्कराते रहते थे। शायद यह सोचकर कि कैसे उन्होने मज़ाक-मज़ाक में बच्चों को कान के ज़रिए दिल से चीज़ों को पहचानने की सीख दे दी।

एक बेहद ख़ुदादाद किरदार और है इस गली में। नाम है मुमताज़  मियां। शहर की इकलौती कपड़ा मिल में मज़ दूर हैं। गली के ठेठ दूसरे कोने पर मिट्टी की चुनाई से खड़ी दो दीवारों और बाकी टटों से ढका हुआ घर इन्हीं का है। मुमताज़  मियां की गर्दन टेढ़ी है और चलते में का$फी हिलते भी हैं। शहर की रिवायत के मुताबिक इन पर कई सारे किस्से और ढेर सारे लतीफे बनने चाहिये थे लेकिन ऐसा है नहीं। उलटे मुमताज़  मियां को बेहद इज़्ज़त और एहतराम की नज़ र से देखा जाता है। इसकी एक ख़ास वजह है। वह रमज़ान के पूरे महीने सुबह मुंह अंधेरे उठकर गली और आसपास की बस्तियों में घूम-घूम कर सहरी के लिए जगाने को आवाज़  लगाते हैं - 'ईमान वालों !... अल्लाह के प्यारों !... जागो !... सहरी का वक्त हो गया है।

ऐसे खूबसूरत से इंसानों के बीच एक और मज़े का किरदार भी है - 'लिप्पक पठान।असल नाम तो राशिद ख़ान है लेकिन उनकी शिख्सयत में पठानों जैसी कोई बात ही नहीं है। सिंगल हड्डी फ्रेम, हरदम बिखरे बाल, साकेट से बाहर निकलती आंखें, ज़ बान से हर व$क्त राश भरी आवाज़  में  हर दो ल$फ्ज़  के बाद ताज़ा-ताज़ा ईजाद शुदा गाली होती है। अपने इसी लडख़ड़ाते जिस्म और चलते-फिरते अल्लाह वास्ते की लड़ाइयां मोल लेने की आदत की वजह से उन्हें 'लिप्पक पठानका यह लकब हासिल हुआ था। हालांकि बाद को यह नाम भी टिकाऊ साबित न हुआ। बाद के बरसों में रतन खत्री के मटके वाले सट्टे का चलन हुआ तो उसके फेर में बदनाम होकर 'मम्मा मिंडीकहलाने लगे।

अब यूं तो यहां मेरे ढेर सारे दोस्त लत्तू पागल, लल्लन और उसकी बहिन रब्बो, जंगल ठेकेदार शाहिद मियां, टेंट हाऊस वाले मुज्जू मियां, दूध वाले नफीस भाई, लाइब्रेरी वाले सज्जाद साहब और उनके दो बेटे - सलीम और जावेद और न जाने कितने लोग हैं, जिनका तस्किरा अभी बाकी है।

 

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मैं आपको बता दूं कि मैं किस तरह इस बाजे वाले गली में आया। 1947 में जिस दिन हिंदुस्तान के बंटवारे का ऐलान हुआ उस दिन तक तो मैं वजूद में नहीं था लेकिन मेरी कहानी का पहला मंज़र मेरी गैर हाज़िरी में ज़ ूरूर लिखा जा रहा था।

मेरे ख़ानदान का शजरा बताता है कि उसकी जड़ें देश के दक्षिण पूर्व में बसे प्रांत सिंध में हैं। मुल्क के बंटवारे के सौदे की शर्तों के मुताबिक यह प्रांत हिंदुस्तानी मुसलमानो के लिए बनने वाले नए मुल्क पाकिस्तान का हिस्सा तय ठहरा। इस फैसले से मेरे ख़ानदान को दुख भले ही हुआ हो लेकिन फिक्र बिल्कुल भी न हुई।  सदियों से यहां साथ रहने वाली आबादी में हिन्दू-मुसलमान तो ज़रूर थे लेकिन वो सब सिंधी पहले और हिन्दू या मुसलमान बाद में थे। इसी के चलते कुछ अरसे तक यहां का माहौल लगभग तनाव मुक्त बना रहा। पंजाब से हर रोज़  आने वाली कत्ल-ओ-गारत की बरों के नतीजे में पैदा होने वाली चिंताओं को सदियों से साथ रहने वाले मुसलमान कांधे पर हाथ रखकर हवा में उड़ा देते। माहौल एक बार फिर सामान्य हो जाता था।

ख़िर एक दिन वह भी आया कि हिंदुस्तान से लुटे-पिटे मुसलमानो को लेकर निकली ट्रेनों को पंजाब में लगातार बिगड़ते हालात के मद्दे-नज़ र लाहौर की बजाय कराची की तर मोड़ देने का सिलसिला शुरू हुआ। बदहाली और बदहवासी से उपजे क्रोध से भरी यह भीड़ कराची से सिंध के बाकी शहरों में भी फैलने लगी। और इसी के साथ अब तक शांति का टापू बना हुआ यह इलाका भी बाकी हिंदुस्तान में फैली हिंसा की चपेट में आता हुआ दिखाई देने लगा।

हिंदुस्तान से आने वाले मुसलमान यहां के मुसलमानो के लिए मुसलमान नहीं महाजिर थे। सो जब-जब किसी हिन्दू सिंधी के घर पर इन महाजिरों की तर से कोई हमला होता तो सिंधी मुसलमान बीच में आ खड़े होते। नतीजा यह हुआ कि सारा झगड़ा महाजिरों और मकामी मुसलमानों के बीच का हो गया।

जल्द ही यह मंज़ र भी बदलने वाला था। महाजिरों की तादाद और ताकत लगातार बढ़ती जा रही थी और उनके लिए यहां हमदर्दी का जज़्बा भी ज़ोर पकडऩे लगा था। सो आख़िर इतिहास का वह लम्हा भी आया कि हिंदुओं को अपने घर छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा।

इन सारे बिगड़ते हालात के बीच भी मेरे पिता, जो उस व$क्त 'सिंध आब्ज़र्वरनाम के अंग्रेज़ी अबार के रिपोर्टर थे, अपने पूरे परिवार को यकीन दिलाते रहे कि चाहे जो हो जाए वो यहीं रहेंगे। कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। लेकिन इस भरोसे ने भी उस दिन दम तोड़ दिया जब जवानी के जोश में उन्होने अबार में मुस्लिम लीग के ख़िलाएक बर लिखकर नौकरी गंवा दी।

खैर, जब अपने आबाई वतन को छोडऩे का फैसला लिया गया तो कहते हैं उस दिन घर के सब लोग रो रहे थे। ख़ासकर औरतें। यह लाचारी और बेबसी का रोना था। हालांकि इस रोने के बीच भी मेरे दादा श्यामदास और नाना आसूदामल की दहाड़ती हुई आवाज़ें भी थीं। वे दोनो तब भी लड़ मरने को तैयार थे। पिताजी भी इन दोनो से सहमत थे। लेकिन ख़ानदान के कुछ बुज़ुर्ग रिश्तेदारों की समझाइश के बाद हक़ीकत मानने को तैयार हो गए।

फिर सितम्बर 1948 का वह दिन भी आया कि जिस दिन यह पूरा कुनबा अपने आबाई घर, उनमें रखा ढेर सारा सामान छोड़कर समंदर के रास्ते बम्बई जाने के लिए निकल पड़ा। मां से सुना था कि घर छोडऩे से पहले दादाजी ने घर के सारे कमरों में बाकायदा ताले लगा दिए थे। नकदी, ज़ेवर और भारी समान साथ ले जाने की सीमित छूट के वजह से सब कुछ ले जाना मुमकिन न था। फिर कहीं न कहीं यह ढकी-छुपी आस कि सब कुछ ठीक हो जाएगा और घर वापस आएंगे। सो सब कुछ सम्हाल कर रखना ज़ रूरी समझा गया।

घर की औरतों ने मिलकर अपनी सारी चीज़ें शीशम की लकड़ी की एक मज़ बूत सी अलमारी में भरकर उस पर ताला लगा दिया। इतना ही काफी न था तो उस ताले के ठीक ऊपर, दोनो दरवाज़ों के बीचों-बीच लेई से शिवजी की तस्वीर भी चिपका दी। मां ने एक सा सुथरे सफेद का पर सिंधी भाषा में, बड़े-बड़े हरू में लिखा और इस तस्वीर के नीचे चिपका दिया। इस का पर लिखा था-

''हीय अलमारी मुहंजी आ। हिन अलमारी खे हथ लाहिण वारे खे पाप पवंदो।’’

(यह अलमारी मेरी है। अगर कोई गैर, इस अलमारी को हाथ लगाएगा तो उसे पाप लगेगा।)

भारत सरकार की तर से कराची से विस्थापित होकर आने वाले परिवारों के लिए ब्रिटिश इंडिया स्टीम नेवीगेशन कम्पनी की पहले से जारी पर्शियन गल् लाईन स्टीमर सर्विस के अलावा 9 और स्टीमर किराए पर लेकर लगा दिए गए थे, जो एक आदमी,एक रुपया की सुविधा के साथ बम्बई पहुंचाते थे। इसी तरह स्पेशल ट्रेन और हवाई जहाज़  भी इस काम में लगाए गए थे। परिवहन सेवा में लगे इन सारे साहनों को एक ही नाम दिया गया था : ''रिफ्यूजी स्पेशल।’’

बंटवारे के एक राजनीतिक फैसले ने देखते ही देखते लाखों-करोड़ों इंसानो से उनकी सदियों की पहचान छीनकर एक को ''महाजिर’’ या दूसरे को ''रि$फ्यूजी’’ बना दिया था। इस एक अकेली चोट ने लाखों परिवारों के सीने पर एक ऐसा दा लगा दिया, जो मिट-मिट कर भी अमिट है।

कराची से रवाना हुआ यह स्टीमर जहाज़  चार दिन बाद जब बम्बई पहुंचा तो वहां के अधिकारियों ने इन ''बिन बुलाए मेहमानों’’ को शहर में दाखिला देने से इंकार करते हुए उन्हें पोरबंदर की तर ले जाने का हुक्म जारी कर दिया। ताज़ा-ताज़ा बेघर हुए सैंकड़ों लोगों के क्रोध का पारा चढ़ गया। हालात की गंभीरता को देखते हुए पुराना आदेश वापस लेते हुए जहाज़  को लंगर डालने की इजाज़ त दे दी गई।

जहाज़  को आगे भेजने के पीछे भी एक बड़ी वाजिब सी वजह थी। बंदर के आसपास और शहर के दूसरे कई ठिकानों पर बनाए गए तम्बू वाले कैम्प पूरी तरह भर चुके थे। लोग खुले में पड़े हुए थे। न खाने का पूरा इंतज़ाम था और न ही नहाने और धोने का। नतीजे में बीमारियां फैल रही थीं और इतनी बड़ी तादाद में इलाज की सुविधा मुहैया कराना एक नामुमकिन सी बात थी।

बदहाली से भरे इन हालात में जब जीना मुश्किल हुआ तो यह पूरा कुनबा उदयपुर की तर निकल पड़ा, जहां पहले से कुछ रिश्तेदार पहुंचे हुए थे। वहां पहुंचे तो मालूम हुआ कि हिंदू-मुस्लिम दंगे शुरू हो गए हैं। फिर रु किया भोपाल का।

 

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बंटवारे ने चारों तरफ अजब से हालात पैदा कर दिए थे। चंद रोज़ा जश्ने-आज़ादी के तरानों की गूंज में नए और पुराने हिंदुस्तान में जारी साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों की मातमी चीखें भले डूब गई हों लेकिन अगले दिनो में इन्हीं चीखों ने मंज़ र पर काबिज़  होना था।

पीढिय़ों से ज़ माने के सामने गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल बना हुआ बेमों और नवाबों का शहर भोपाल भी इस उथल-पुथल से अछूता नहीं रह पाया था। जिस दिन आज़ादी ने देश में पहला कदम रखा उस दिन भी यह शहर इस आज़ाद हिंदुस्तान में शामिल नहीं हुआ था। 1946 में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगे से सुलगे हुए शहर में दहकन की बास अभी त्म नहीं हुई थी। दुआ-सलाम के हंसते-मुस्कराते रिश्ते हमेशा की तरह फिर से कायम भले हो चुके थे लेकिन दोनो कौमें अब तक एक-दूसरे को बड़ी सतर्क और शक भरी नज़ रों से देख रही थीं।

नवाबी हुकूमत अब तक कायम ज़रूर थी लेकिन कब तक? यह सवाल दोनो तरफ ही ज़ेरे-बहस था। हिंदू लीडरान इस यकीन के साथ मुस्कराते नज़र आते थे कि 80 फीसद आबादी उन्हीं की है। इसी बिना पर हर फैसला उन्हीं के पक्ष में होगा। मुसलमानों को भी इसी बात का अंदेशा था। उस पर शहर से मुस्लिम परिवारों का पाकिस्तान की ओर लगातार जारी पलायन भी उनकी फिक्र की एक बड़ी वजह बनता जा रहा था। पाकिस्तान से पलायन कर भोपाल आने वाले हिंदू परिवारों की बढ़ती रफ्तार ने इस फिक्र में और इज़ाफा कर दिया था।

अक्टूबर 1947 में एक सरकारी अध्यादेश के ज़रिए पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों के भोपाल प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। सरकार का तर्क था कि इन शरणार्थियों के अचानक इतनी बड़ी तादाद में आने की वजह से यहां खाने-पीने और दूसरी ज़रूरी चीज़ों की किल्लत हो रही है। लिहाज़ा शहर में अमनो-अमान कायम रखने और भुखमरी के हालात से बचने के लिए यह एहतियाती कदम उठाना बेहद ज़रूरी है। इस पाबंदी पर अमल के लिए सरकारी अमले के साथ ही वालंटियरों की एक फौज खड़ी कर ली गई।

सरकार के इस आदेश के नतीजे में स्टेशन और बस स्टैंड से ही कई सारे शरणार्थी परिवारों को अगले किसी स्टेशन की तरफ जाने के लिए मजबूर किया गया। कानून और पुलिस की ताकत के आगे बेबस लोग रोते-बिलख़ते किसी ऐसी जगह के लिए रवाना हो गए जिसके बारे में उन्हें किसी तरह का कोई अंदाज़ा नहीं था।

इस तरह की पाबंदी लगाने वाला भोपाल अकेला नहीं था। मद्रास, हैदराबाद,पटना और न जाने कितने शहरों में स्थानीय प्रशासन ने इसी तरह की पाबंदी लागू कर दी थी। इस पाबंदी के नतीजे में बिगड़ते हालात पर जब दिल्ली के अबारों में बरें छपी तो दिल्ली सरकार सक्रिय हुई। भोपाल में सबसे पहले पाबंदी में ढील दे दी गई।

पुरानी आबादी में नई चेहरों को हमेशा शक और सवालों भरी नज़ रों से गुज़रना होता है। इस बार इसमे एक और चीज़  शामिल हो गई थी - फिक्र। इतनी बड़ी तादाद में आने वाले ये अंजाने लोग आख़िर करेंगे क्या? इन सवालों का जवाब देने वाला कोई नहीं था। क्योंकि यह सवाल पूछे ही नहीं गए थे। पूछे भी जाते तो भी जवाब न मिलते। क्योंकि इन सवालों के जवाब किसी के पास थे भी नहीं। न आने वालों के पास और न ही उन्हें लाने वाली सरकार के पास। नतीजा यह कि सवालों से घिरे शहर के लोग इसी धुंधलके में एक-दूसरी की शक्लें पढऩे की कोशिश करते थे जिन पर सिर्फ सवाल ही सवाल लिखे हुए थे।

शहर में एक तबका ऐसा भी था जो इन सवालों से उलझे लोगों के बीच और नए सवाल पैदा कर रहा था। यह थीं यहां की सियासी पार्टियां। एक तर थी हिंदुओं की पैरोकार पार्टी हिंदू महासभा तो दूसरी तरफ थी किसी मदारी की तरह हिंदू-मुस्लिम संतुलन को साधने की कोशिश करती कांग्रेस पार्टी। इसी कांग्रेस पार्टी से टूट-टूट कर निकलते लोगों ने बाद को कम्यूनिस्ट पार्टी और फिर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की नींव डाली। यह सब के सब बदले हालात को अपने मुवाफ़ि$क बनाने की कोशिश में जुटे थे।

इन्हीं पेचीदा हालात के बीच ही सबसे बड़ा पेचीदा मसला पैदा हो गया था भोपाल स्टेट का हिंदुस्तान में विलय का। नवाब भोपाल हम्मीदउल्ला ख़ान को हमेशा से जिन्ना समर्थक माना जाता था और माना जाता था कि वह पाकिस्तान में शामिल होना चाहेंगे। लेकिन भौगोलिक स्थिति और अवाम की राय के चलते यूं कर पाना बहुत मुश्किल था। ऐसे में नवाब ने भोपाल को हिंदुस्तान-पाकिस्तान की बजाय आज़ाद रियासत बनाए रखना चाहा। जूनागढ़, कश्मीर, हैदराबाद और जोधपुर के हुकमरानों के इसी तरह के इरादों से उनके हौसले मज़बूत हुए। उन्होने ख़ुद-मुख्तार हुकूमत कायम करने का फैसला ले लिया।

इस फैसले की वजह से भी शहर दो हिस्सों में बंट गया। एक बहुत बड़ा तबका हिंदुस्तान में शामिल होकर रहना चाहता था, लेकिन एक निहायत छोटा सा झुंड इसके ख़िला था। इस झुंड में ज़्यादातर नवाब के वफादार और पैरोकार थे। इसी के साथ मुसलमानों का एक ऐसा तबका भी इसमे शामिल था, जो पाकिस्तान नहीं जाना चाहता था लेकिन हिंदुस्तान के नए निज़ाम में उसे अपनी खैरियत का भरोसा नहीं था। नवाब साहब की सूरत में उन्हें अपनी हिफाज़त का ज़ामिन नज़र आता था।

इन्हीं हालात में भोपाल में नवम्बर 1948 में विलीनीकरण आंदोलन शुरू हो गया। इस आंदोलन की वजह से शहर में आए दिन होने वाले जलसे-जुलूसों की हलचल से शहर का मामूल पूरी तरह बिगड़ चुका था। फरवरी 1949 के आते-आते हालात काफी गंभीर हो गए और चालीस दिन तक लगातार भोपाल बंद रहा, जिसने रीब अवाम की ज़िंदगी को बेअंदाज़ा मुश्किलों से भर दिया।

ख़िर एक लंबी जद्दो-जहद के बाद 30 अप्रेल 1949 को नवाब हमीदउल्ला खान को अपने इरादों को छोड़कर हक़ीकत को मानना पड़ा। उन्होने भोपाल को हिंदुस्तान में शामिल करने के समझौते पर दस्तत कर दिए। 

अस्थिरता और अनिश्चितता से भरे इस माहौल में किसी की कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर हो क्या रहा है और जो रहा है उसका अंजाम क्या होगा? भोपाल का फैसला भले ही हो गया हो लेकिन हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच जारी लोगों की अदला-बदली के खेल के नतीजे में शहर के कई सारे जाने-पहचाने चेहरे मंज़ र से आहिस्ता-आहिस्ता गुम होते जाते थे तो देखते-देखते ही उनकी जगह कुछ अजीब और अनजाने से चेहरे हर जगह दिखाई देने लगे थे। इधर-उधर भटकते, बदहवास, अंजाने, अनदेखे चेहरों ने शहर के लोगों में एक खीज का सा माहौल पैदा कर दिया था।

50-60 हज़ार के आसपास की आबादी वाले एक छोटे से शहर में अचानक, एक साथ पांच-छह हज़ार अजनबी लोगों के आ धमकने ने शहर की सारी शक्लो-सूरत में एक अजब सा बदलाव ला दिया था। एक ऐसा शहर जहां बरसों साथ रहते-रहते हर नाम न सही लेकिन कम से कम हर चेहरा एक-दूसरे का जाना-पहचाना सा हो वहां एक साथ इतने सारे अजनबी चेहरों का एक शहर के हर रोज़  के मामूल में इस-उस जगह शामिल हो जाना, दाल में कंकड़ की तरह हो जाता है।

एक और बात, जिसने चीज़ों को और भी असहज बना दिया वह था इन पांच हज़ार लोगों का पहनावा। इस शहर के आम लोगों के पहनावे से एकदम ही अलग ढीले-ढाले कुर्ते और फैले हुए चौड़े पायजामे या फिर लगभग कसी हुई धोती। कुछ मामलों में दोनो कांधों से गुज़ रकर घुटनो तक आता हुआ सफेद गमछा और सर पर पूंछ निकली सफेद पगड़ी, जिसे वो पटका कहते थे।

गो इतना ही काफी न था। इन लोगों की एकदम समझ में न आने वाली अनसुनी भाषा और अनसुने और अटपटे लहजे में कदम-कदम पर अंजाने शहर में अगले मोड़, अगली गली का रास्ता पूछते, किसी ग्रीक त्रासदी के चरित्रों से चिंतित और बदहवास चेहरे वाले इंसानों को यकायक कोई किस तरह $कुबूल कर सकता था। सो यह तनाव बना रहा। 

सरकार के पुनर्वास विभाग के पास इन लोगों को बसाने के लिए लिए या तो ख़ाली पड़ी नवाबी इमारतें थीं या फिर बंटवारे के बाद घर छोड़कर पाकिस्तान जा चुके मुसलमानों के घर थे। यूं तो ज़्यादातर मकान रिवायती किस्म के रिहाइशी मकान थे लेकिन उन मकानों का वास्ता ऐसे लोगों से था जो उस गली, उस मोहल्ले में बरसों से आबाद थे और वो घर उस गली, मोहल्ले और शहर में उनके चेहरों के साथ यहां के पुराने बाशिंदों की याद में अब तक ताज़ा थे। उस पर एक सितम ये हुआ कि कुछ बेघर सिंधी परिवारों ने सड़क और फुटपाथों पर ठोकरें खाते-खाते दिन गुज़ारने से तंग आकर एक ख़ाली पड़े शाही महल में ही जा डेरा जमाया।

इस शाही महल का नाम है ताज महल। इस ताज महल को 1874 में भोपाल की नवाब शाहजहां बेगम ने अपनी रिहाइश के लिए बड़े शौक से बनवाया था। इस महल में शानो-शौकत की हर मुमकिन चीज़  मौजूद थी। महल के बीचों-बीच बने सावन-भादों के फव्वारों से हर व$क्त इतर-फुलेल की धारें हवाओं में ख़ुश्बू बिखेरती रहती थीं। हर कमरे का अलग रंग और उसी रंग का फर्नीचर, पर्दे और तमाम चीज़ें होती थीं। महल का मुख्य दरवाज़ा इतना विशाल था कि नवाब शाहजहां बेगम की बारह घोड़े की बग्घी बड़ी आसानी से यहां प्रवेश कर चारों दिशाओं में घूम भी जाती थी।

लेकिन व$क्त बदला तो उसी ताज महल में पहले ही विधवा हो चुकी बे, अपनी इकलौती बेटी और वारिस सुल्तान जहां बेगम से भी रिश्ता खो बैठीं। ज़िन्दगी के आख़िरी सालों में कैंसर से जूझते हुए, इसी ताज महल में तन्हाई, दर्द और आंसूओं के साथ शाहजहां बेम इस दुनिया से 1901 में विदा हो गईं।

उनके वारिस यहां से हर कीमती सामान अपने नए महल, अहमदाबाद कोठी में ले गए, सिवाय बेम की कराहों और सिसकियों के। जब कुछ सिंधी शरणार्थियों ने इस जगह आकर डेरा जमाया तो इन आहों-कराहों का अकेलापन दूर हो गया।

यह बात किसी भोपाली को बर्दाश्त नहीं थी। ताज महल उनके लिए अदब और ऐहतराम का मरकज़  था, जहां इस रियासत की एक ऐसी बेम रहती थी, जिसे अवाम से हमदर्दी रखने वाली, मज़हब की पाबंद और दयानतदार औरत की तरह याद किया जाता था। उस बेम की जगह ऐसे लोग रहने लगें, जिनके बदहाल चेहरे, बर्तन और कपड़े उस शानदार महल की दीवारों की खूबसूरती पर धब्बे की तरह नज़र आते हों, यह कैसे हो सकता था?

लेकिन ऐसा हुआ। तकरीबन 100 सिंधी परिवारों ने देखते ही देखते अलग-अलग रंग के इन कमरों में एक ही वजह से अपना घर बसा लिया कि उनके पास रहने को सिवा इस एक महल के कोई ख़ाली जगह दिखाई नहीं दी। लेकिन इसकी एक कीमत भी थी। मकामी लोगों के म और गुस्से का इज़ हार सड़कों पर चुभने वाले जुमलों, छींटाकशी और कभी-कभार मारपीट की शक्ल में भी फूट पड़ता।

लेकिन वक्त बड़ा बादशाह है। वह इंसान को धीरे-धीरे नए से नए और मुश्किल से मुश्किल हालात में भी जीना सिखा देता है। सो अब यह लोग ''रिफ्यूजी’’ या ''साले सिंधी’’ के आदी हो चले थे। हर रोज़  जीने के लिए ज़िंदगी के हर गोशे में अकेले-अकेले संघर्ष करते इन लोगों के किरदार ने न जाने कब नरत करने वालों के दिल में ज़रा सी गुंजाइश निकाल ही ली।

 

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मेरा परिवार तो यहां 1948 में ही पहुंच चुका था। आने पर पहले स्टेशन के पास एक कैम्प में कुछ दिन गुज़ रे। पुनर्वास विभाग के अधिकारियों ने कई चक्कर लगवाने के बाद बताया कि बाजे वाली गली में मोहम्मद यासउद्दीन की हवेली ख़ाली है। हवेली के नाम से परिवार के सारे चेहरे खिल गए। ऐसा लगा मानो उन्हें अपना खोया हुआ सब कुछ वापस मिल रहा हो। मगर यह खुशी अगले ही पल काफूर होने वाली थी।

'सोच लो। मुसलमानो का इलाका है। एक भी हिन्दू घर नहीं है। इसी वजह से ख़ाली पड़ा है। वहां जाने को कोई तैयार नहीं है  सर ने चेतावानी भरे अंदाज़  में बताया।

'तो क्या कर लेंगे?’ पिताजी और दादाजी ने एक साथ कहा। 'जो वो कर चुके उससे ज़्यादा और क्या कर लेंगे। आप तो हमें मकान अलाट कीजिए और चाबी दीजिए। बाकी हम देख लेंगे

सो बस दिसम्बर 1948 में यह परिवार आकर यहां उस हवेली में बस गया जिसमें बंटवारे से पहले तक यासउद्दीन पठान का परिवार रहता था। यासउद्दीन पेशावर के अपने पुश्तैनी शहर जा चुके थे। अब इस विशाल सी लेकिन स्ता हाल हवेली के दो हिस्सों में मेरा परिवार रहने लगा। मेरे नाना को जगह मिली कुछ दूर इतवारा के एक मकान में, जिसकी दीवार शहर के एक नामी-गिरामी दादा कुक्कू मियां के घर के साथ मिली हुई थी।

यासउद्दीन की हवेली का सड़क की तरफ वाला हिस्सा तो पक्की छत वाला था लेकिन अंदर के लम्बे-चौड़े खुले आंगन के दोनो तरफ के हालनुमा कमरों पर देसी कवेलू वाली छत थी। मेरे हिस्से यही छत आई थी। इस छत की खूबी यह थी उम्रदराज़  हो चुका बांस की खपचियों वाला छपर कई जगह से शहीद हो चुका था। नतीजे में दोपहर के वक्त इन दरारों से घर के अंदर कम से कम पांच-छह जगह बेहद लुभावनी सी रोशनी की लकीरें बनकर खड़ी हो जातीं थीं। रोशनी के इन दर्रों से रास्ता बनाकर घर में आती इन दिलकश लकीरों से खेलने में मुझे बहुत मज़ा आता था। स्कूल से लौटकर बस्ता एक तरफ फैंक देता और एक लकीर से दूसरी लकीर की तरफ दौड़ता फिरता। अपने जिस्म के एक हिस्से भर पर पड़ती रोशनी के मुकाबले बिना रोशनी वाले शरीर को देखता और फिर मुंह ऊपर करके रोशनी के उन सुराखों से जाने क्या कहकर ख़ुशी भरी किलकारी मारने लगता।

मगर रोशनी तो उतनी ही आती थी जितनी आती थी। सो मैं उस उतनी रोशन लकीर में पहले एक हाथ, फिर दूसरा हाथ, फिर शरीर के दूसरे हिस्सों को नहलाने की कोशिश करता। पिताजी उस वक्त तो घर पर नहीं होते थे, वो तो सुबह से ही किराए की साईकल लेकर काम पर निकल जाते थे लेकिन मां की आवाज़  ज़ रूर आती रहती थी - लाला! रोटी खा लो।

मैं हर बार खेल में लल डालने वाली इस आवाज़ से फा होकर कहता - 'रुको ना। आता हूं। दो मिनट।

सर्दी-गर्मी तक तो ठीक लेकिन बारिश के दिनों में यही रौशनी के दर्रे कहर की सूरत इख्तियार कर लेते थे। हालांकि पिताजी,जिन्हें मैं दादा कहकर बुलाता था, कबाड़ख़ाने से टीन के पुराने डिब्बे लाकर, उन्हें कूटकर इन दर्रों के ऊपर चादर की तरह बिछा देते थे और कवेलू के छपर छवाने वालों से उसके ऊपर कवेलू भी बिछवा लेते थे लेकिन पानी अपनी तरलता का पूरा फायदा उठाकर घर में घुस ही आता था।

पहली कुछ बूंदों को हाथों में, मुंह पर या सिर पर लेने में तो बहुत मज़ा आता था। एक हल्की सी गुदगुदी का सा अहसास होता था। लेकिन कुछ देर बाद यह मज़ा, मुसीबत में बदल जाता था। ख़ासकर रात में जब पूरा घर बेतरह जगह-जगह से टपकने लगता था। न कोई बिस्तर उससे बच पाता और न ज़ मीन पर बना मिट्टी  का चूल्हा। इस मुसीबत से बचने के लिए पूरा घर जंग के मैदान में तब्दील हो जाता। अब यहां और अब वहां होते टपकों के नीचे बाल्टियों से शुरू होकर घर की छोटी-छोटी कटोरियां तक इन टपकों के नीचे बिछ जातीं और ऐसे ही जागते-सोते सारी रात गुज़र जाती। जिस दिन आसमान की टोंटी पूरी खुल जाती उस दिन छत का एकाध कोना घबराकार दम तोड़ ही देता और उस खुले हिस्से से झरना सा बहने लगता।

हवेली के किसी घर में तब तक लाईट का कनेक्शन भी नहीं था। हर शाम सबसे पहले घर के मंदिर का दिया फिर दाख़िल दरवाज़े पर दो दिये, आंगन की तुलसी पर एक दिया रोशन होता। फिर टीन की छोटी-छोटी ढिबरियां और दो एक लालटेन जलाए जाते थे। बारिश के इस तूफान में सबसे बड़ी और नामुमकिन सी चुनौती होती थी रोशनी के इन ज़ रियों को पानी से बचाना। टिमटिमाती रोशनी वाली ढिबरियां बार-बार जलाने से थककर आख़िर एक लालटेन की रोशनी से ही काम चलाना पड़ता था।

मां की तबीयत तो यूं भी नरम ही रहती थी, ऊपर से इस रतजगे से मां अगले रोज़  निढाल होकर खटिया पकड़ लेती। लेकिन फिर भी अगले दिन उसकी कपड़े सीने की मशीन का पहिया रुकता नहीं था। मुझे इस बात की तब शायद इतनी समझ नहीं थी कि इस घर के पहिये असल में एक साईकल और एक सिलाई मशीन के कुल जमा दो पहियों के चलने से ही चल रहे हैं। लेकिन उम्र बढ़ते-बढ़ते इसे समझने लगा था।

इस हवेली में बाद को आकर बसने वाले बाकी सिंधी परिवारों की भी कमोबेश यही कहानी थी। शहर की छोटी-मोटी रेडीमेड की दुकानों से, मुहल्ले की मुस्लिम औरतों और आसपास के इलाकों की महिलाओं के कपड़े सीने को मिल ही जाते थे। इसकी वजह थी एक आने और दो आने जैसे सस्ते रेट, नए तरह के डिज़ ाईन और काम की सफाई। सो लगभग हर घर से सिलाई मशीनों के चलने से निकलने वाला संगीत यहां की फिज़ाओं में लगातार गूंजता ही रहता था।

कभी-कभी ऐसा भी होता था कि एक पुतली बाई को छोड़कर मोहल्ले की बाकी औरतें भी अपनी-अपनी सिलाई मशीनें लेकर आ जातीं और मां के साथ सिलाई का काम भी करती जातीं और बातें भी करती जातीं। इससे शायद काम का बोझ और थकन कम महसूस होती थी। मुझे ऐसा इसलिए लगता था क्योंकि ऐसे मौकों पर घर का ऊंघता सा माहौल हंसी-ठठे की आवाज़ों से भर जाता था। और उस पर एक जगह, एक साथ, लगभग एक ही रिदम में चलती मशीनों की आवाज़  से एक अजीब सी लय पैदा होने लगती। अब याद करता हूं तो लगता है संसार की सारी सिम्फनीज़  का जन्म उन सिलाई मशीनों की हल्की, मद्धम और तेज़  $फ्तार से जन्मी आवाज़ों से ही हुआ होगा।

हमें, मेरे चचाज़ाद भाई जय और मुझे, यह सब एक बहुत दिलचस्प खेल लगता था। जिसे हम भी खेलना चाहते थे। इसकी वजह शायद ये भी थी कि एक बार मशीन चलाते-चलाते थक चुकी मां ने आवाज़  देकर कहा था - 'लाला, हाथ दुख रहे हैं। तू ज़रा पहिया घुमा दे न थोड़ी देर। शायद यह पहला मौका था जब किसी ने, वो भी मां ने, मुझे इतना ताकतवर माना था कि मैं भी एक पहिया घुमा सकता हूं। उसी लाड़ में मैने पहली बार में पूरी ताकत लगाकर इतनी ज़ोर से पहिया घुमाया था कि मां उतने तेज़ी से कपड़े को आगे नहीं बड़ा पाई और चिलाई थी - 'अरे! बस कर।

बाद में यह भी एक खेल हो गया। मेरे शक्ति प्रदर्शन के इस तरीके और मां की नाराज़ गी में हम दोनो को ही मज़ा आने लगा था। धीरे-धीरे पहिया घुमाते-घुमाते अचानक पूरी ताकत से पहिया घुमा देता और मां झूठ-मूठ नाराज़  होकर डांटती और आख़िर में दोनो हंस-हंसकर लोट-पोट होते। ऐसे में मां मशीन रोककर मुझे चूम लेती और मेरा सर गोद में रखकर मेरे सर से जुएं निकालने लगती। एक-एक जूं निकालकर दिखाती और झिड़कती कि मैं सफाई का ध्यान नहीं रखता और मिट्टी में खेलता रहता हूं।

यह मां के लाड़ का एक नमूना था। हम दोनो को ही इसमें मज़ा आता था। जिस दिन मां काम में बहुत उलझी रहती और जुएं निकालने के लिए नहीं बुलाती तो मैं ख़ुद ही सर खुजाता हुआ उसके पास पहुंचा जाता और सब काम छोड़कर जुएं निकलवाने की ज़िद करता। मेरी ज़िद हमेशा कामयाब हो जाती थी।

 

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मां, इस घर की पाकीज़ गी और पवित्रता की ज़ मानत थी। बोलते हुए भी ख़ामोशी की मूरत। हवेली में हर घर से आती आवाज़ों के शोर के बीच उसकी आवाज़  अक्सर उसी को सुनाई नहीं देती थी जिसे संबोधित किया गया होता। नतीजे में मां को वही बात दुहराना पड़ती। इस दुहराने की प्रक्रिया में ख़ुद पर ही हंसती हुई उसकी एक लाचार मगर मासूम सी मुस्कराहट भी शामिल हो जाती थी।

एक जगह ऐसी भी थी घर में जहां उसे अपनी बात इस तरह दोहराने की ज़ रूरत नहीं पड़ती थी। वह जगह थी दो फीट मोटी चूने की दीवार के एक आले में बना मंदिर। शिव जी, लक्ष्मी जी के कांच में जड़े चित्र और पीतल की कुछ छोटी-छोटी मूर्तियां थीं। एक नन्हा सा झूला जिस पर उससे भी नन्हा सा कृष्ण घुटने-घुटने चलने वाली मुद्रा में विराजमान होता था। और एक बड़ा तरतीब वाला गोल सा चिकना पत्थर जिसे मां शिव रूप शालिगराम बताती थी।

मां मंदिर के सामने पूजा के लिए बैठ जाती। पानी से भरा एक लोटा और एक खाली लोटा। एक थाली जिसमे सिंदूर, चांवल, अगरबती होते। मां होंटों ही होंटों में कुछ बुदबुदाती सी बोलती जाती, जो मेरी तमाम कोशिशों के बावजूद पूरी तरह समझ न आता और मैं श्रद्धा-भक्ति भाव से भरे उसके चेहरे और उसके रिदम में हिलते होंटों को पढऩे की नाकाम कोशिश करता रहता। ऐसा करते हुए वह एक-एक मूर्ति को बारी-बारी से उठाकर स्नान करवाती जाती थी। भरे लोटे का पानी ख़ाली लोटे में जाता और भगवान जी का स्नान हो जाता। उसके बाद नीम नर्म-ओ-नाज़ुक अंदाज़  में इन मूर्तियों को कपड़े पहनाना शुरू करती। इन कपड़ों को देखकर अक्सर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ जाती। दिल में अजब सी गुदगुदी होने लगती. मैं अपनी कमीज़  की आस्तीन पकड़कर भगवान के उन कपड़ों से उनका मिलान करता. इसकी वजह भी मां ही थी। वह हमेशा मेरे लिए कमीज़ सीने से पहले उसमे से किसी न किसी भगवान, ख़ासकर कृष्ण, के कपड़े सीती थी। मैं जब हैरत से देखता तो वह कहती, ''अब तेरे और भगवान के कपड़े एक हो गए न। तो अब तू भगवान के कपड़ों में है तो तेरा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।’’

जब सारी पूजा-पाठ के बाद मां उठने लगती तो मैं कहता, ''अरे अम्मा! तूने भगवान के बाल तो बनाए ही नहीं।’’ मां गाल पर हल्की सी चपत लगाती और मुस्कराते हुए कहती, ''भगवान तेरी तरह घड़ी-घड़ी अपने बाल नहीं बिगाड़ते। चल।’’

यहां तक तो ठीक था लेकिन मां का कदम-कदम पर पाप और पुण्य को लेकर आग्रह कभी-कभी झुंझलाहट से भर देता था। दरवाज़े पर रोटी की सदा देता फ़क़ीर हो कि हवेली में पाख़ाने सा करने आने वाली चंदा मेहतरानी, मां सब काम छोड़कर उनके खाने को रोटी या चांवल जो भी हो निकाल लाती और मेरे हाथ में थमा देती कि मैं उन्हें दे दूं।

''बेटा, प्यासे को पानी और भूखे को रोटी देना पुन का काम है।’’

यहां तक तो नीमत लेकिन बात तब बिगड़ती जब मां बात-बात पर टोकती कि यह पाप है। ऐसा नहीं करना चाहिये। कुत्ते को पत्थर मार दिया - पाप है। पिताजी की जेब से एकाध आना निकाल लिया - पाप लगता है। झूठ बोला - पाप लगता है। मालूम होता था कि दुनिया का हर दूसरा काम पाप है।

मां की इस टोका-टाकी से चिढ़ते हुई भी न जाने कब मेरे भीतर एक अजब सा आंतरिक तंत्र विकसित हो चला था जो दिन में सौ बार टोकता था कि - 'यह तो पाप है।इस पाप लगने के डर ने मुझे कई बार अपमान सहने पर मजबूर कर दिया था। मुझे मां पर गुस्सा आने लगा था। मुझे मुहल्ले के दोस्तों की बे$खौ दिलेरी ने इस पाप-पुण्य के दुश्चक्र से न जाने कब निकाल लिया। मैं एक ऐसी राह पर चल निकला था जहां हर ईंट का जवाब रायसेन का पत्थर था। एक उंगली का जवाब घूंसा था। आख़िर एक दिन मेरी यह सूरत भी मां के सामने आ ही गई।

हुआ यूं कि शुरूआती बरसों के शक-शुबहों और नरत की दीवारों को लांघकर इस मुहल्ले में हमारी मौजूदगी को स्वीकृति मिल गई थी। हम लोग कबड्डी, खो-खो, छुपम-छुपैया, सातम ताली जैसा हर खेल साथ खेलते थे। खेलने के दौरान कई बार हार-जीत, आऊट-नाट आऊट को लेकर हुज्जत हो जाती, रोंटई के इल्ज़ ाम लग जाते थे। कभी-कभार झूमा-झटकी भी हो जाती थी। लेकिन यह सब भी खेल का हिस्सा ही होता था, और फिर रात गई, बात गई की तरह अगले दिन का खेल शुरू हो जाता था।

इस खेल में एक लड़की ऐसी भी होती थी जिसे न जाने क्यों अकेले मुझसे ही खुन्नस थी। नाहक ही मुझे ख़ालिस मर्दाना गालियां बकती। इस निहायत $खूबसूरत लड़की का नाम था राबिया उर्फ रब्बो, जो मेरे दोस्त लल्लन की छोटी बहिन थी। लल्लन की मौजूदगी में तो झगड़ा सस्ते में निपट जाता था लेकिन उसकी $गैर हाज़िरी एक दिन कहर बन गई।

रब्बो ने उस दिन फिर झगड़ा शुरू किया एक गंदी गाली से - ''कुत्ते का मूत, साला हरामी, सिंदी का बच्चा।’’ पहले हल्ले में मैं गाली सुनकर अवाक सा खड़ा रह गया। उसी घड़ी कानो में दूसरे बच्चों की हंसी की आवाज़ें कानों तक पहुंची तो अपमान और $गुस्से से मुंह लाल हो गया। उसी गुस्से में मैने पलटकर गाली दे दी ''साली कुतिया तू, तेरा बाप।’’

मानो इससे भी दिल न भरा तो आखिऱी में उछल-उछल कर, ज़ोर-ज़ोर से चिलाना शुरू कर दिया ''रब्बो डाकन...रब्बो डाकन।’’

इस अप्रत्याशित हमलावर जवाब से तिलमिलाकर रब्बो ने एक मिनट के सन्नाटे के बाद मेरी ही तरह उछल-उछल कर एक तुकबंदी उछाली।

 

ऊपर से गिरी चिंदी

सब मर गए सिंदी

 

रब्बो हमेशा सिंधी को सिंदी ही बोलती थी। ख़ुदा की रहमत कि उसी व$क्त न जाने किस तरह उस दौर में प्रचलित एक मुसलमान विरोधी हिंदू महा सभाई नारा याद आ गया, जिसे मैने ताली बजा-बजा कर गाना शुरू कर दिया।

 

मुसलमान बड़े बे-ईमान, बड़ के नीचे सोते हैं

हिंदुओं ने लात मारी तो अल्ला-अल्ला करके रोते हैं

 

मेरी इस एक जहालत ने पूरा माहौल बिगाड़ दिया, खेल में शामिल बाकी सारे मुसलमान बच्चे एकदम भड़क गए और मुझे कूटना शुरू कर दिया। मेरी इस हालत का फायदा उठाकर रब्बो ने भी मुझे एक हाथ मार दिया। मैने पूरी जान लड़ाकर ख़ुद को छुड़ाते हुए, मुझे पिटते देख हंस-हंस तालियां बजाती रब्बो को एक ज़ोर का धक्का दे दिया। वह सीधे जाकर जलील भाई के घर के बाहर लगे पट्टिये के नुकीले कोने से जा टकराई। उसका सर फूट गया। खून भल-भल करके बहने लगा। अरा-तरी और चीखो-पुकार के इस माहौल के बीच से मैं ये जा और वो जा वाले अंदाज़  में छू-मंतर होकर घर के अंदर छुप गया। चोट मुझे भी लगी थी। खून मेरे सर से भी चू रहा था। लेकिन उस वक्त इस बात की फ़िक्र किसे थी। फ़िक्र थी तो इस बात की कि अब क्या होगा? घर में दादा की मार पड़ेगी और बाहर दोस्तों की। या फिर बड़ों में भी झगड़ा फैल जाएगा? इतना तय था कि जो होगा वह बहुत तरनाक ही होगा।

इस हालत में मेरा छोटा भाई जय मेरे साथ हमदर्द बनकर बैठा रहा और सांत्वना देता रहा। लेकिन होनी तो होकर रही। दादा के हाथों खूब मार पड़ी। मुझे आंगन में लगे जामुन के पेड़ के साथ रस्सियों से बांध दिया। भूख के मारे बुरा हाल था। उस पर आते-जाते हर किसी के उपदेशों से बिरकर मैने भी बिना किसी का नाम लिए शहर भर की फाश गालियां बकना शुरू कर दीं। गालियों की गूंज सुनकर क्रोध में उनते दादा ने बिना गिने पहले तो तड़ातड़ तमाचे जड़ दिए और फिर मुंह में लाल मिर्च भर दी। उसके बाद तो मेरी चीखे और गुंजाइश भर गालियां आसमान तक पहुंचने लगीं। उधर मुझे किसी तरह छुड़ाने में नाकाम हो चुकी मां घर में हमेशा की तरह ख़ामोशी से रोने का अपना चलन छोड़कर ''हां...आंआंआं’’ जैसे किसी अलाप के साथ रो रही थी।

पता नहीं आसमान मेरी चीखों से पिघला कि मेरी मां के चीत्कार भरे अलाप से, हवेली में बाबा यानी मेरे दादाजी की आमद हो गई। मेरी हालत देखकर बाबा ने एक हुंकार भरकर अपने बेटे पर इस ज़ुल्म के लिए लानत भेजी और मुझे पुचकारते हुए रस्सियों से आज़ाद कराकर अपने घर की तर ले गए। सबसे पहले कुल्ले के लिए एक गिलास पानी और फिर मिर्च के क्रोध को शांत करने के लिए एक चमच्च शक्कर खिला दी।

ख़ुदा जाने किस तरह बुज़ुर्गों ने मिल-बैठ सारे मामले को शांत किया। इस समझौते के तहत मुझे गली के उसी मुकाम पर, जहां झगड़ा हुआ था, खड़ा करके सबके सामने कान पकड़कर पांच उठक-बैठक लगाने की सज़ा दी गई। माफी मिल गई और समझाइश दी गई कि सब मिल-जुलकर भाई-बहिन की तरह रहो। लड़ाई-झगड़ा बुरी बात है। जलील भाई के सातवें नम्बर के भाई मुन्ने मियां, दिन भर साईकल पर तरह-तरह के करतब की प्रेक्टिस करते रहते थे और बिना स्कूल गए ही अंग्रेज़ी के जुमले बोलते रहते थे। मुहल्ले में मशहूर था कि मुन्ने मियां को अंग्रेज़ी से जितनी मुहब्बत थी स्कूल से उतनी ही नरत। सो एक दिन उन्होने अल्ला मियां से बिना स्कूल गए अंग्रेज़ी सिखाने के लिए हाथ उठकर दुआ मांगी और गाने लगे कि ''अल्लाह मेरी झोली में छम से वो जाए- अल्लाह मेरी झोली में छम से वो आ जाए।’’ अल्लाह ने उनकी दुआ कुबूल करते हुए उनकी झोली में अंग्रेज़ी डाल दी थी।

सुलह के इस मौके पर मुन्ने भाई ने आकर सबसे ऊंची सलाह दी। ''लालू मियां! रीड एंड राईट, डू नाट फाईट।’’ ठहाके गूंजे और माहौल ख़ुशगवार हो गया।

लेकिन घर पर मेरी क्लास लगना अभी बाकी थी। सो मां की पाप-पुण्य वाली क्लास शुरू हुई। मां ने समझाना शुरू किया कि ''नियाणी’’ (बेटी) को मारना पाप है। मैने रब्बो को मारकर पाप किया है। अब इसका प्रायश्चित यह है कि मैं उससे जाकर मा$फी मांगू और राखी बंधवाकर उसे बहिन बना लूं। ''ऐसा नहीं करोगे तो पाप लगेगा।’’

अब तक सारी मुश्किलों से गुज़ रकर मैं थोड़ा ज़िद्दी और थोड़ा स$ख्त जान भी हो चुका था। मैने जगह-जगह से दुखते जिस्म से उठते दर्द को दर-किनार कर मां से एक मुस्कराहट के साथ सवाल किया कि चलो अब इसका जवाब देकर बताओ। ''मां, यह बताओ कि यह जो पाप है वो लगता कैसे है?’’

मां को मुझसे शायद इस सवाल की उम्मीद नहीं थी। फिर भी उसने उसी तरह की नन्ही सी मुस्कान के साथ जवाब दिया; ''बस वैसे ही जैसे समझो चोट लगती है तो कितना दर्द होता है. कितनी जलन मचाने वाली दवाई लगती है। है कि नहीं?’’

आज मैं मुंडी हिलाकर सब कुछ यूं ही मान जाने वाले मूड में न था। मैने सवाल किया - ''मतलब झूठ बोलने से चोट लगती है। पर खेलने से भी तो चोट लगती है, तो क्या खेलना भी पाप है?’’

आज जब मां की डराकर मुझे सदाचारी बनाने वाली तज्वीज़  नाकाम होती सी दिखी तो वो थोड़ी असहज सी हो गई। उसके सब्र और ख़ामोशी भरे चेहरे से मुस्कराहट गुम सी होती हुई लगी। थोड़ा-थोड़ा गुस्सा चेहरे पर नुमाया होने लगा था। फिर चेहरे पर परेशानी का साया भी दिखाई देने लगा। वह शायद इस बात से परेशान थी कि बच्चा अगर डर से भी डरना छोड़ देगा तो नतीजा क्या होगा।

इसी परेशानी के आलम में थोड़ा तेज़  लहजे में जवाब दिया, ''बस हर बात में बहस करना सीख गया है। अरे ये तो एक मिसाल है। इसका मतलब यह थोड़ी ही है कि पाप लगने का मतलब चोट लगना ही होता है।’’

''तो फिर ठीक से बताओ कि यह साला पाप लगता कैसे है?’’

इस बार जवाब ज़बान से नहीं बल्कि हाथ ने दिया। एक थप्पड़ पहले से ही लाल-पीले हो चुके गाल पर आ पड़ा। ऐसा करके मां ने वही रोना शुरू कर दिया और आंखों से शार-शार आंसू बहना शुरू हो गए।

अब मैं हार गया। मुझे मां का रोना किसी हाल बरदाश्त न था। मैने भी रोना शुरू कर दिया। माफी मांगते हुए वादा किया कि अब कभी बहस नहीं करूंगा। रब्बो से मा$फी मांग लूंगा और उससे राखी भी बंधवा लूंगा।

मां ने ज़ मीन पर बैठे-बैठे ही मुझे अपनी गोद की तर खेंच लिया और पीछे की दीवार से पीठ टिकाकर रोते और आंसू बहाते, मेरे आंसू पोंछकर गालों को चूमना शुरू कर दिया। घिघी बंधी आवाज़  में वह भी सुनाई दे गया जो मां अब तक मेरे जिस्म को प्यार से सहलाते हाथों से महसूस हो रहा था - ''मत किया करे मेरे राजा ऐसी हरकतें। देख कितनी मार पड़ी है तुझे।’’

ऐसा कहकर मां ने धीरे से मेरे सर में हाथ डालकर बालों के बीच उंगलियां फिराना शुरू कर दीं। मेरे बिखरे, रेत-मिट्टी से भरे बालों के बीच मां की दौड़ती उंगलियों का स्पर्श सात आसमानों की सैर के बराबर था। मैं आंख बंद करके इन सातों आसमानो में कहकहे लगाता दौडऩा शुरू कर देता था, जो मैं इस व$क्त भी कर रहा था।

 

                                                                                      *****

 

मां के मुकाबले पिताजी ज़रा सख्त जान और जंग जू इंसान थे। उनके कद-काठी से उनका किरदार कतई मेल न खाता था। नए शहर में आते ही पांव जमाने की कोशिश में जी-जान से जुट गए। शुरूआत दिल्ली के कुछ अबारों के लिए फ्री-लांसर बनकर बरें भेजने से की। उस कमाई से क्या पेट भरता सो कहीं से सुराग मिला तो सिक्किम लाटरी के टिकट लेकर कमीशन पर बेचना शुरू कर दिया। एक सिंधी हकीम ने नगर पालिका से पुराने ज़ माने के इम्पीरियल थियेटर को लीज़  पर लेकर लक्ष्मी टाकीज़  के नाम से सिनेमा घर शुरू किया तो वहां मैनेजर बन गए। चारों तरफ तवायफों के कोठों से घिरे इस टाकीज़  में इलाके के दादा लोगों की सिफारिश पर गेट कीपर और बुकिंग क्लर्क रखे गए। इनमे सबसे दिलचस्प किरदार था - धोका बाई। इसी लाल बती इलाके की इस अधेड़ औरत को, अलग से बने लेडीज़  क्लास का इंचार्ज बनाया गया था, जिसकी एंट्री का दरवाज़ा भी पीछे की तर ही था। बुकिंग बंद होने के बाद जब सारा स्टाहिसाब लेकर पहले केशियर डीलाराम के पास और बाद को मैनेजर साहब के पास जाता तो मैनेजर साहब बुकिंग की रिपोर्ट लेकर फिर गप-शप लगाने बैठ जाते। उन्हें इस अधेड़ धोका की कड़क आवाज़  और कड़क अंदाज़  में कही गई बातें खूब भातीं और बडे गौर से सुनते रहते। बाद को जब यह नौकरी छोड़कर उन्होने क्लेम और पाकिस्तानी पासपोर्ट बनवाने की वकालत शुरू की तो धोका बाई हम सबसे मिलने घर तक चली आती थी।

दादा का कद बमुश्किल साढ़े पांच फुट और रंग सांवला था। चेहरे में कोई ख़ास बात नहीं कि जिस पर नज़र टिक जाए। हां, छाती पर खूब घने बाल थे, जिसे वो मर्दानगी और ख़ुश-किस्मती का प्रतीक मानते थे और उस पर नाज़  करते थे। सर के बाल ज़रूर निहायत खूबसूरत घुंघराले थे, जिसकी चमक हरदम कायम रखने की गरज़  से वे उसे ''लोमा हेयर आइल’’ की ख़ुराक बराबर देते थे।

खाने-पीने के ज़बरदस्त शौकीन। बैंक में खाता खोलने की बजाय शहर की कई दुकानो पर खाता खोल रखा था। इन दुकानों से बाकायदा हर रोज़  सामान आता था। जब हिसाब होता तो हमेशा जेब के पैसे कम और हिसाब ज़्यादा ही निकलता था। लिहाज़ा बात, भूल-चूक, लेनी-देनी और कुछ रह गए तो बाकी लेनी करके खाते का पन्ना आगे बढ़ जाता था।

खाने-पीने का बाकायदा एक चार्ट बनता था जो दीवार पर टंगा रहता था। पांच रंग की स्याही से लिखे इस हफ़्तावार चार्ट में नाश्ते से लेकर रात के डिनर की तसीली ज़िक्र होता था। इनमे बाकी सब्ज़ी-भाजी के साथ बल्कि सबसे ज़्यादा ''हाऊ माल’’ यानी गोश्त का ज़िक्र होता था। यकीनी तौर पर चार दिन अलग-अलग वेराइटी का गोश्त और हर शाम खाने के बाद डेज़ र्ट्स के तौर पर आम, चीकू, सेब-अनार से लेकर ख़ास तौर पर बिना धरमचंद उर्फ धर्मू के आईस केंडी प्लांट से बनवाई गई आईसक्रीम, जिसे वे आज भी कुल्$फी कहना पसंद करते हैं। (इन धर्मू साहब के एक छोटे भाई कर्मू उर्फ करमचंद भी होते थे। पैदाइश से भले ही जुड़वां न थे लेकिन शहर में इनकी शोहरत इसी जुड़वां नाम से हैं - धर्मू-कर्मू। इनकी कहानी भी कहानी है। सो आगे आनी है।)

अभी तो मेरे इस जंग-जू बाप मतलब दादा की बात। मेरा पिताजी को दादा कहने की पीछे मेरे चाचा थे, जो मेरे असल हीरो थे। उनकी हर बात, उनकी हर अदा मुझे खूब भाती थी। सो मैं भी वहीं कुछ करने और कहने की कोशिश करने लगता जो चाचा कहते या करते थे। वे ही पिताजी को दादा कहकर बुलाते थे। उनकी देखा-देखी मैने भी उन्हें बाबा की जगह दादा कहना शुरू कर दिया था।

एक दिन दादा ने शहर भर में घूम-घूम कर परिचित और अपरिचित सिंधी शरणार्थियों को इकठ्ठा करके घर पर ही एक बड़ी बैठक कर डाली। सब जो मिल बैठे तो दर्द के दरिया रवां हो चले। आहों-कराहों के साथ म और $गुस्से से लबरेज़  शिकायतों के दफ़्तर खुल गए। आए दिन अपमानजनक स्थितियों से गुज़ रने की कहानियां, कम मुनाफे के धंधे की कोशिश को नाकाम करने की गरज़  से स्थानीय हिंदू व्यापारियों का षडय़ंत्र पूर्वक उन्हें मिलावट खोर, डंडी मार, चोर की तरह पेश करने की कोशिशों के किस्से, उनकी भाषा की खिल्ली उड़ाना, सरकार की बेरुख़ी, भूख-परेशानी. अपनी-अपनी कहानी कहते-सुनते लोगों को एक-दूसरे की कहानी अपनी ही कहानी लगी। आम राय थी कि विस्थापित पंजाबियों और बंगालियों के लिए तो पहले ही से उनके सूबे मौजूद हैं लेकिन सिंधी अकेले बेघर और दर-ब-दर हो रहे हैं। इसका इलाज था एक सिंधी सूबे की मांग। कच्छ में भाई प्रताप की ''सिंधु प्रदेश’’ कायम करने की मुहिम में शामिल होना चाहिये।

$गुबार निकला तो कुछ शांती हुई। फैसला हुआ कि सरकार को और समाज को आगाह किया जाए कि उन्होने अपने घर अपनी मर्ज़ी से नहीं छोड़े बल्कि मुल्क की बेहतरी के लिए कुरबान किये हैं। अब बारी सरकार की है। इसी हक तलबी और एकजुटता के इरादे से इस लड़ाई की रहबरी दादा के हवाले की गई। ''रिफ्य़ूजी जनरल पंचायत’’ बनाकर उन्हें प्रेसीडेंट चुन लिया गया।

ज़िम्मेदारी मिलने के बाद दादा ने एक बड़ा क्रांतिकारी भाषण दिया। उनके निशाने पर थे जवाहरलाल नेहरू और दिल्ली के अबार उनका शिकवा था कि नेहरू सरकार की नज़र सिर्फ दिल्ली और बम्बई जैसे शहरों पर है कि वहां रोज़  अंग्रेज़ी अबारों में वहां के रिफ्य़ूजीज़  की बदहाली के फोटो छपते हैं। बरें छपती हैं। जबकि भोपाल जैसे छोटे-छोटे शहरों में रिफ्य़ूजीज़  की हालत की तर बमुश्किल किसी का ध्यान जाता है।

अपनी त$करीर के आख़िर में उन्होने सरदार भगत सिंह का जुमला इस्तेमाल करते हुए त्म किया - ''अगर हम चाहते हैं कि हमारी बात सुनी जाए, तो सुनी को अनसुनी करने वाले बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़ रूरत है। और हम सब मिलकर वो धमाका करेंगे कि उसकी आवाज़  हिंद-सिंध में एक साथ सुनाई देगी।’’

माहौल एकदम जोश से भर गया। लोगों पर ''इंकलाब ज़िंदाबाद’’ वाली कैफ़ियत तारी हो गई। हालांकि किसी ने इस तरह का नारा लगाया नहीं।

                                                           

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जिस वक्त यह दो घंटे लंबी चली मीटिंग त्म हुई, ठीक उसी वक्त दादा की नेतागीरी शुरू हो गई। इस मीटिंग की बर लोकल सी.आई.डी के ज़रिए नए-नए नियुक्त हुए ची कमिश्नर तक, ची कमिश्नर के ज़रिए दिल्ली तक पहुंच गई।

शहर में हिंदू महासभा के सबसे बड़े नेता भाई जी, अपनी पूरी टीम के साथ हार-फूल लेकर घर पर आए। दादा को पंचायत का अध्यक्ष बनने की बधाई देते हुए उन्हें पार्टी में शामिल होकर अपनी लड़ाई मज़बूत करने की दावत दे डाली।

उधर कांग्रेस के लीडरान शुरूआती पशो-पेश के बाद भाई जी के चंगुल में एक साथ कई हज़ार लोगों को जाने की संभावना को देखते हुए भाई जी की ही तरह दादा को रिझाने की कोशिश में आ लगे। लेकिन दादा कांग्रेस से बहुत फा थे।

भाई जी ने जाते-जाते दादा को उनकी पार्टी व्दारा चौक में आयोजित आम सभा में संबोधन का न्यौता भी दे दिया था। चौक मतलब इस शहर के दिल की धड़कन। 1857 में तामीर हुई लाल पत्थर वाली गोलाकार जामा मस्जिद के चौगिर्द का इलाका सोने-चांदी की मंडी सर्राफा, कपड़े की दुकानो और नमकीन और मिठाई की दुकानों के लिए जाना जाता था।

चौक के इस इलाके में और भी चौक आबाद थे। मसलन; चिंतामन चौक, सुभाष चौक, जवाहर चौक और सर्राफा चौक। सोने-चांदी का कारोबार होगा तो वहां पुलिस का इंतज़ाम भी होगा। सो यहां पर एकदम कोने में धंसी हुई एक चौकी है - चौकी चिंतामन चौक।

मस्जिद के नीचे पूरे गोलाई में ज़्यादातर कपड़े या सर्राफे की दुकाने और इन दुकानों के मालिक एकाध अपवाद छोड़कर सभी हिन्दू, जो न जाने कब से मस्जिद की इंतज़ामिया के किराएदार हैं।

उस शाम की सभा जामा मस्जिद के पीछे वाले हिस्से सुभाष चौक में थी। सभा के लिए जगह बनाने उस दिन वहां सड़क पर बैठकर तालों की गुमशुदा डुप्लीकेट चाबियां बनाने वाले, छोटे से दस्ती शो केस में सस्ती सी बिंदी, चूड़ी, अंगूठी जैसी चीज़ें बेचने वाले अपना सामान सीने से सटाकर इस सभा की शुरूआत और उसके नतीजों के इंतज़ार में यहां-वहां टहल रहे थे।

इसी माहौल में उस सभा की शुरूआत हुई। एक के बाद एक उतेजक भाषण हुए। फिर दादा की बारी आई। उन्होने सिंधी विस्थापितों की दर्द भरी दास्तानें सुनाईं। नेहरू, जिन्ना, गांधी और मुसलमानों के ख़िला एक आग उगलता हुआ भाषण दिया। और खूब वाह-वाही लूटी।

भाषण के आख़िर में उन्होने एक ऐसी बात कह दी कि जिससे शहर के अम्न-ओ-अमान को भी तरा सा पैदा हो गया। उन्होने जामा मस्जिद की तर हाथ उठाते हुए कहा कि मुझे मालूम हुआ है कि यह मस्जिद एक मंदिर को नेस्त-ओ-नाबूद करके उसके ऊपर तामीर की गई है।

बड़े जोश और भावुकता भरे अंदाज़  में उन्होने एक शेर सा पढ़ दिया।

 

यहां मस्जिद की छाया में हमारा राम सोता है

हमारी बेबसी और बेकसी पर हमारा खून रोता है

 

एक तर इस हिंदू जलसे में तालियां बज रही थी तो दूसरी तर सरकारी तंत्र की एक के बाद एक टेलीफोन की घंटिया बज रही थीं। चंद कदम की दूरी पर ही आबाद पुलिस चौकी चौक पर एहतियातन और कुमुक बुला ली गई।

उस रात कोई अनहोनी न हुई। सभा ''हिंदू-हिंदू, भाई-भाई / मुस्लिम कौम कहां से आई’’ और ''हिंदू एकता ज़िंदाबाद’’ के नारों के साथ विसर्जित हो गई।

जिस समय इस सभा का विसर्जन हुआ ठीक उसी समय एक नए हिंदू नेता का उदय भी हो गया।

         

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बहुआयामी रचनाकार और पत्रकार राजकुमार केसवानी का यह धारावाहिक छपने वाला उपन्यास-1 संभावना है कि 2018 के अंत तक पाठकों को उपलब्ध हो सके। पुराने शहर भोपाल की जीवन संस्कृति और 1947 के बाद के विस्थापन का वृतांत उपन्यास का केन्द्र बिंदु है। संपर्क- मो. 7000355545, भोपाल

 


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