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जुलाई 2018

बीते वक्त के राजेन्द्र माथुर

प्रकाश दुबे

 

पत्रकारिता के महामार्ग पर राजेन्द्र माथुर के कदम

 

 

 

अपनी समृद्घि की तुलना अपने आसपास की गरीबी से करना और एक नैतिक हिचक पालना अस्सी के दशक में भारत के समृद्घतर वर्गों ने बंद कर दिया है। नतीजा यह है कि भारत के गरीब एक अलग और अजनबी देश के वासी बनते जा रहे हैं। सत्तर के वर्षों में बंधुआ मजदूरों की दशा पर छपे लेख मध्यवर्ग की अंतरात्मा को कचोटते थे, और सार्थक कर्म के लिए उकसाते थे। छह आने या चौदह आने कमाने वाले आखिरी आदमी के बारे में डॉ राम मनोहर लोहिया की चिंताएं आजकल देवीलाल और महेन्द्र सिंह टिकैत की खाती-पीती लोकदल चिंताओं में बदल गईं। अस्सी के दशक में पहली बार राजनेताओं के सरोकार बदल गए हैं। भारत की हर राजनीतिक पार्टी के लिए आजकल कोई बीस करोड़ लोग महत्वपूर्ण हैं, शेष सब हाशिये पर चले गए हैं। सिर्फ चुनाव के समय इस या उस चिह्नï पर मुहर लगते समय वे महत्वपूर्ण होते हैं।

 पत्रकारिता को इंस्टेंट गरम पेय की तरह लिया जाता है। फटाफट तैयार कर परोस दिया। राजेन्द्र माथुर ने जब यह लिखा होगा तब पाठक की धारणा यही रही होगी। वर्ष 1991 के अप्रैल महीने में श्री माथुर का देहावसान हो गया। लगभग दो वर्ष पूर्व यह लेख लिखा गया। करीब 30 वर्ष पुराने इस लेख, जिसका शीर्षक था- शासक वर्गों के कुनबे में अलग्योझा और पुनर्मिलन, का कथ्य आज सिर्फ सत्य नहीं है। विदारक त्रासदी के रूप में विकसित होकर विकराल होता जा रहा है। राजेन्द्र माथुर के कार्यकाल के दौरान टीवी का मतलब दूरदर्शन था जो पूरी तरह सरकारी पकड़ में था। सोशल मीडिया, इंटरनैट प्रसार माध्यम का अंग नहीं बने थे। बदलते संवाद जगत का आकलन कर भावी रणनीति सुझाने के लिए 1980 के दशक में प्रेस आयोग का गठन हुआ। श्री माथुर सदस्य के रूप में शामिल किए गए। इस आयोग की कहानी अलग है। यहां उल्लेख सिर्फ इसलिए, कि श्री माथुर ने लेखन और आयोग के सदस्य की हैसियत से विश्लेषण किया होगा। कई सुझाव देना चाहते होंगे। ऐसा नहीं हो सका।

इस बिंदु पर आकर प्रश्न उठता है- राजेन्द्र माथुर ने किस तरह की अखबारी दुनिया की कल्पना की होगी? किस तरह की परम्परा के वे कायल थे? उनके काम के तरीके से थोड़ा बहुत अनुमान लगाया जा सकता है। उन कुछ परम्पराओं के माध्यम से राजेन्द्र माथुर को समझने की मैंने कोशिश की।   

प्रयोग-1 उत्तर देने का अधिकार

हर शब्द नाप तौल कर ठोंक बजाकर प्रयोग में लाएं ताकि पक्षधरता का आक्षेप न लगे। जिस व्यक्ति के विरुद्ध तथ्य और दस्तावेज प्राप्त हुए हैं उसका पक्ष अवश्य आना चाहिए। उससे भी बात करें। जय शंकर गुप्त ने डॉ मुरली मनोहर जोशी से संबंधित समाचार दिया। डॉ जोशी उन दिनों इलाहाबाद विवि में अध्यापन कर रहे थे और राजनीति में सक्रिय थे। संपादक ने जय शंकर से कहा-समाचार के साथ डा जोशी का कथन जाना आवश्यक है। डॉ जोशी पत्रकार जय शंकर की पकड़ में नहीं आ रहे थे। समाचार संपादक की मेज पर कैद था। जय शंकर ने संपादक से मिलकर चिन्ता प्रकट की-समाचार कोई और छाप लेगा। संपादक का दो टूक उत्तर था-कोई बात नहीं। दूसरे पक्ष को उत्तर देने का अधिकार है। किसी और ने छाप भी लिया तो आपको इस तरह के अनेक समाचार मिलेंगे। संतुलित विशेष समाचार से आपकी प्रतिष्ठïा बढ़ेगी। मैं प्रतीक्षा करूंगा। राजेन्द्र माथुर हड़बड़ी में वस्तुनिष्ठïता की हत्या नहीं होने देते थे। उन्हें किसी के चरित्र-हनन में दिलचस्पी नहीं थी। न किसी का भय। अखबार वालों की आचार संहिता के विषय में लिखते हुए उन्होंने पत्रकारों से कई बार कहा, और लिखा भी-

एशियन पेंट के विज्ञापन में आठ-दस साल का लड़का, जिसका नाम उस समय गट्टू बताया था, अपना बु्रश और पेंट लेकर किसी भी वस्तु को काला कर देता है, किसी की पूंछ बना देता है, किसी की शक्ल बना देता है। मुझे कई बार ऐसा लगता है कि पत्रकार भी आठ-दस साल का बच्चा है और अपने हाथ में पेंट और ब्रुश लेकर चल रहा है। पेंट और ब्रुश लेकर वह ऐसे बगीचे में पहुंच जाता है जहां हजारों संगमरमर की मूर्तियां लगी हुई हैं। किसी मूर्ति पर कालिख पोत देता है। किसी महिला को पुरुष बना देता है। किसी पुरुष को महिला बना दिया।

संपादक और रिपोर्टर इस घटना को भूल जाते हैं, क्योंकि यह तो उनका पेशा है। दिमाग पर जोर दिए बिना कर दिया उन्होंने यह करम। अब जितनी मूर्तियां हैं सबके आसपास लोग जुटते हैं। ...ये अखबार में कैसे निकल गया? उनकी चेतावनी थी- जब आपने समाचार बनाना, प्रमुखता से आवश्यक समझा तो उसे मिटाना भी उतना ही आवश्यक समझना चाहिए। हो सकता है इसमें आपके अखबार के कागज की बरबादी हो रही हो, तो आपने ही पहली बरबादी की थी इसलिए दूसरी बरबादी भी करिये। पहली बरबादी क्यों की? 

प्रयोग-2     नए प्रयोग का खतरा मोल लें।

 नवभारत टाइम्स में कुछ दिग्गज स्वयं को संपादक राजेन्द्र माथुर से अपने को बड़ा समझते थे। सर्वज्ञानी। राजस्थान में भयानक सूखा पड़ा। वे सब राजस्थान जाने के दावेदार थे। सूखे की रपट कैसी होती है इसका दिलचस्प बखान मराठी लेखक अरुण साधू कर चुके हैं- मंत्री के साथ सूखाग्रस्त क्षेत्र का दौरा। रात में वारुणी से तर-ब-तर पत्रकार ने मुर्गी की टांग में श्रीखंड लपेटा। हौले से मुंह में रखने के बाद करुणा उमड़ी। कहा- वाकई हालत बुरी है। राजेन्द्र माथुर इस तरह की रिपोर्टिंग नहीं चाहते थे। उन्होंने सुधीर तैलंग को भेजा। इसलिए नहीं कि सुधीर राजस्थानी थे संभवत: बीकानेरी। बल्कि रेखाओं की वक्रता से पाठक को हंसाने वाला, चुटकी लेने वाला व्यंग्य चित्रकार पीड़ा को मुखर करे। रविवार्ता में सुधीर की रपट मार्मिक कार्टून सहित छपी। ऐसा अद्भुत प्रयोग शायद ही अन्यत्र हुआ हो।

प्रयोग-3 असहमति से आतंकित मत होना

मैं नौसिखिया। न पत्रकार और न विश्लेषक। विद्यार्थी था। नई दुनिया, इंदौर में लिखने से खाने-पीने का जुगाड़ हो जाता था। पवनार के मौनी बाबा पर खबरें भेजता। मैं ठहरा आपात्काल विरोधी। आचार्य विनोबा भावे का अनुशासन पर्व, मौन आदि को सत्ता-समर्थन का पाखंड मानता था। स्वीकार कर लूं कि बरसों तक अवसर पाते ही विनोबा जी के विरुद्घ कलम चला देता। एक बार इंदौर गया तो राजेन्द्र माथुर नाम के संपादक से मिलने पहुंचा। केशरबाग में शायद पहली मंजिल पर कोने में बैठते थे। अपना परिचय दिया। श्री माथुर ने कहा- नरेन्द्र तिवारी जी मिलना चाहते हैं। पहले उनसे मिल आइए। इतना कहकर अखबार के पन्नों में नरें गड़ा लीं। (तिवारी जी समाचार पत्र के तीन मालिकों में से एक थे।) खादीधारी। सर्वोदय और आचार्य विनोबा भावे से प्रभावित। उन्होंने आड़े हाथों लिया। इतने विशाल व्यक्तित्व, देवतुल्य महापुरुष के बारे में आप कटु टिप्पणी करते हैं। उनके समर्पण, ज्ञान की जानकारी है? मिले हैं? अंत में कहा- मैं पत्रकार नहीं हूं। न ही मैं संपादकीय विभाग का काम देखता हूं। निजी भावना बताई। घबराया हुआ मैं रज्जू बाबू के पास पहुंचाया। हकीकत बयान की। उन्होंने चाय मंगवाई। कहा-तिवारी जी की विनोबा जी पर अगाध श्रद्घा है। हर एक की किसी न किसी पर होती है। श्रद्घा से आपका लेखन कदापि प्रभावित नहीं होना चाहिए। मैं अवाक। 

प्रयोग-4    दो टूक निर्णय

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आफ जर्नलिज्म बर्लिन-आइआइजेबी जर्मनी में दुनियाभर के पत्रकारों का बड़ा केन्द्र था।

 पत्रकारिता के बदलते रूप पर चर्चा और प्रयोग पर विमर्श के लिए आइआइजे-बी में विश्व भर से पत्रकारों को आमंत्रित किया गया। मुझे भारत का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। एक महीने बर्लिन में रहना था। दिल्ली पहुंच कर संपादक से मिला। संपादक कक्ष के निकट नोटिस बोर्ड पर नर पड़ी। विशेष संवाददाता के लिए इंटरव्यू की सूचना चिपकी थी। मैंने संपादक से मिलकर अपने दावे की अनदेखी की शिकायत की। आवेदन करने की इच्छा प्रकट की। श्री माथुर ने स्पष्टï कहा-इस बार मत भरो। हमने रंजीत कुमार का चयन किया है। वे रक्षा मामलों पर लिखते हैं। हिंदी में ऐसे विषय पर लिखने वाले उपलब्ध नहीं हैं।

आजकल अपने अपने गुट होते हैं। संपादक के साथ भक्तों की टीम आती है। संपादक के जाते ही रुख्सत हो जाती है। श्री माथुर विविधता और गहराई लाने के लिए चयन करते थे। गुटबाजी के पचड़े में नहीं पड़े।

 प्रयोग-5 सत्ता से अभय

 राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। संपादक को भोजन पर आमंत्रित किया। दफ्तर में देर हुई। सीधे प्रधानमंत्री आवास जाने का निर्णय किया। सेवक नत्थू जी ने कहा-साहब। प्रधान मंत्री के यहां जा रहे हैं। आपकी शर्ट की जेब पर स्याही का धब्बा लगा है। मुसकराते हुए संपादक ने उत्तर दिया- प्रधानमंत्री कमी के धब्बे से बात नहीं करेंगे। उसी हालत में जा पहुंचे। प्रधानमंत्री मानकर चल रहे थे कि नामी हिन्दी अखबार का संपादक इंटरव्यू लेने आया है। राजेन्द्र माथुर ने भ्रम तोड़ा। मैं आपका इंटरव्यू करने नहीं आया। उसके लिए रिपोर्टर आएगा। हम आपसे गपशप करेंगे। सेल्फी लेने वाली भीड़ में संपादकों को देखने के आदी हो चुके लोगों को अब यह बात अजीब लग सकती है। प्रश्न और उत्तर की फेहरिस्त लेकर शब्दश: छापने वाले संपादक चौंक सकते हैं। आयोजन समारोहों में देह-भंगिमा और शब्दों की चाशनी से दंडवत करते नर पुंगव पत्रकारों को यह परम्परा पसंद नहीं आएगी। कुछ महीनों के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर राजेन्द्र माथुर की इसी अदा पर भड़क गए थे। चन्द्रशेखर जी विलम्ब से पहुंचे। संपादक माथुर ने मुस्कराते हुए फब्ती कसी-विलम्ब से आना राजनीतिक अधिकार है। आप तो प्रधानमंत्री हैं। आयोजन था -देश के किसी हिन्दी अखबार में ओम्बुत्समान यानी लोकपाल की नियुक्ति का। चंद्रशेखर कुपित हुए। उन्होंने अखबार के मालिक से शिकायत की।

प्रयोग-6   पद और प्रचार से परे

पद्म अलंकरण, राज्यसभा के लिए लार टपकाने वाले महानुभाव पत्रकारिता में हैं। रहे हैं। इसे व्यक्तिगत चरित्र हनन न समझा जाए। श्री माथुर के साथी प्रभाष जोशी तो राज्यसभा की देहरी के निकट जा पहुंचे थे। खटाक से दरवाज़ा बंद हुआ। उनके समकालीन बता सकते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी के विरुद्घ कलम और वाणी का तीखापन इस वह से तो नहीं हुआ? प्रभाष जी जैसे सर्वोदयी ने बेचारे कुशाभाऊ ठाकरे पर कुपित होकर उन दिनों यहां तक कह दिया- न घर के न घाट के। दिल्ली में सुनियोजित तरीके से एक पाखंड होता था। अमुक श्री, अमुक वीर, अमुक भूषण, अमुक गौरव सम्मान की खैरात बांटी जाती है। हर साल दिए जाते। बारी बारी से विभिन्न अखबारों के एक एक नुमाइंदे को पकड़ा जाता ताकि हर अखबार में छपे। संपादक और मंत्री की उपस्थिति को मोबाइल में चार जी वाली ताकत आ जाती थी। श्री माथुर ने इस तरह के आयोजनों में जाने से इन्कार किया। इस पाखंड का भांडा फोड़ा। कुछ दिन बाजारू आयोजक सकपकाए। इस तरह के आयोजन दिल्ली में अब प्रदूषण की गति से बढ़ रहे हैं।      

 प्रयोग-7 कर्म में समता

 एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया में सभी भाषाओं के संपादक सक्रिय रहे। श्री माथुर भारतीय भाषा के पहले संपादक थे जो  महासचिव बने। उससे बड़ी बात यह थी कि उन्होंने कार्यकाल समाप्त होने के बाद श्रीमती मृणाल पांडे को एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया का अगला महासचिव बनवाया। मृणाल जी ने शुरुआत की। बाद में अन्य महिला पत्रकारों के पदाधिकारी बनने की राह आसान हुई।  

 प्रयोग-8अहंकार मुक्त सहजता

 माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता अब विश्वविद्यालय बन चुका है। उन दिनों संस्थान था। संस्थान के नीति निर्णायक मंडल की बैठक समाप्त हुई। मैं उन दिनों भोपाल में पदस्थ था। श्री माथुर ने घर का भोजन करने पर हामी भरी थी। दुपहिया वाहन पर बैठे। कहा-चलो। तत्कालीन महानिदेशक राधेश्याम शर्मा हैरान हुए। जोर से चिल्लाए-इतने बड़े संपादक को दोपहिए पर ले जा रहे हो। गाड़ी खड़ी है। स्कूटर की खरखराहट के बीच आवाज गूंजी-संपादक का काम पूरा हुआ। अब राजेन्द्र माथुर जा रहा है।

 घर पहुंचे। श्री माथुर जानते थे मोना और मैंने आपसी पसंद से विवाह किया। पत्नी से पूछा-जाति, धर्म पूछा था। उसने कहा-नहीं। बोले मैं अपनी बेटियों का विवाह सजातीय से करना चाहूंगा। उन्होंने खुलकर दिल की बात कही। फर्जी क्रांतिकारिता कदापि नहीं दिखाते थे।

 भारत में एक ही संपादक हुआ है, और वह भी हिंदी में, जिसका लेख उनके अखबार में संपादकीय पृष्ठï पर तो छपता ही था। साथ ही साप्ताहिक में पहले पृष्ठï पर पहली खबर के रूप में नाम के साथ छपता था। दिनमान में लम्बे समय तक श्री माथुर का लेख इस तरह छपता रहा। इसके बावजूद उन्हें पद और पद से जुड़ी प्रत्यक्ष या परोक्ष सत्ता का अहंकार नहीं हुआ।  पंजाब की बिगड़ती स्थिति पर खुलकर  लिखा। उनकी दो टूक राय थी कि सरकार को हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहना चाहिए। अनिर्णय देशघाती है। खुफिया एजेंसियों की रपट के अनुसार श्री माथुर की जान को खतरा था। केन्द्र सरकार ने सुरक्षा देने की पहल की। श्री माथुर ने मना किया। हिदायत दी- मेरे वाहन में या मेरे वाहन के आगे पीछे कोई पुलिस वाहन नहीं चाहिए। मेरे वाहन में कोई वर्दीधारी नहीं होगा। घर और कार्यालय में भी नहीं। लाल बत्ती और बंदूकधारी वर्दीधारी से घिरने के शौकीन पत्रकारों की जमात के लिए अनोखा और अजीब लग सकता है, यह संकल्प।

संपादक होने के बावजूद श्री माथुर अपने को श्रमजीवी पत्रकार समझते थे। कश्मीर घाटी में स्थिति तब भी सामान्य नहीं थी जब श्री माथुर सपत्नीक श्रीनगर पहुंचे थे। उन दिनों श्रमजीवी पत्रकारों का संगठन विश्व भ्रमण ट्रेवल एजेंसी नहीं बना था। माथुर वैसे भी सहज विश्वासी भोले राम थे। पत्रकारिता से जुड़े विषय पर परिचर्चा में शामिल होने पहुंच गए। वहां की रेलमपेल देखकर माथे पर शिकन आई। पत्रकार संगठन के उपाध्यक्ष की हैसियत से मैं उनके ठीक सामने के कक्ष में रुका था। श्री माथुर ने वापस लौटने का निर्णय किया। जाने से पहले मुझसे पूछा-मेरे कमरे में किसी के जूते रखे हैं। आपके तो नहीं? उनकी उड़ान का समय हो चुका था। अंतिम भेंटकर्ता की तलाश जारी थी। पत्रकार के वेतन मान की तुलना में जूते महंगे थे। लखनऊ में मेरे मित्र मुदित को कुछ दिन बाद पार्सल मिला। मुदित लखनऊ के संध्या टाइम्स में पत्रकार थे। संपादक को प्रणाम करने गए। नए खरीदे जूतों का पैकेट छोड़  गए। इस विषय में संपादक ने किसी से बात नहीं की। किसी को भनक नहीं लगने दी। मुदित, मेरे मित्र आज भी इस प्रसंग पर पानी-पानी हो जाते हैं।

 सहजता और संकोच के इस काकटेल पर शरद जोशी का कथन याद आया। मुंबई में नवभारत टाइम्स के दिनों में जोशी जी टाइम्स की इमारत में आते। उनके आने की सूचना संपादक विश्वनाथ सचदेव से पहले मिल जाती थी। विश्वनाथ जी कहते-जोशी जी आ रहे हैं। आज तुम कितने घंटे गायब रहोगे? दरअस्ल जोशी जी को टाइम्स की दस पैसे वाली चाय पीने में मज़ा नहीं आता था। वे हमें न्यू एम्पायर थियेटर के सामने ले जाते। गपशप होती। खाते-पीते। प्रभाष जोशी उन दिनों जनसत्ता संभाल रहे थे और राजेन्द्र माथुर नवभारत टाइम्स। जोशी जी दोनों के मित्र। दोनों के कामकाज का आकलन करते हुए इन जोशी जी-यानी शरद जी ने कहा-दौड़ आरम्भ होने से पहले प्रभाष जी की हुंकार गूंजेगी-मैंने मैदान मार लिया।

रज्जू बाबू जीतने के बावजूद बाद में सहजता से कहेंगे-ठीक है यार। यह सबसे बड़ी दौड़ नहीं है। इससे बड़ी दौड़ इन तिथियों में अमुक जगह होती है।

प्रयोग-9 सहयोग की मर्यादा

दो जोशी चर्चा में आए तो तीन शरद इस बहाने याद कर लिए जाएं। संपादक का दिल्ली से फोन आया-शरद पवार को कितने निकट से जानते हो? मैं चौंका। उसी दिन पहले पृष्ठï पर मेरे नाम से शरद पवार विरोधी अभियान में तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष प्रतिभा पाटील की सहभागिता पर लम्बी खबर थी। (पाटील बाद में राष्ट्रपति बनीं।) पत्रकारिता की भाषा में एंकर छपा था। अपनी सफाई में मैंने इतना ही कहा-खबर सच है। जानबूझकर मुख्यमंत्री किसी के विरुद्घ नहीं लिखा। संपादक ने कहा-शरद जोशी को घर चाहिए। मुख्यमंत्री से बात कर सकते हो। हालां कि इससे तुम्हारे लेखन पर दबाव नहीं आना चाहिए।

मुख्यमंत्री पवार से मिला। कहा-आप शरद जोशी को जानते होंगे। बात पूरी होने से पहले उत्तर मिला-अच्छी तरह। मैंने स्थिति स्पष्टकी-शेतकरी संघटना वाले किसान नेता नहीं। पवार ने कहा-व्यंग्य लिखते हैं। उनका प्रतिदिन पढ़ता हूं। प्रतिदिन जोशी जी के स्तंभ का नाम था। शरद जी को घर चाहिए। मुख्यमंत्री ने तुरंत आवास मंत्री प्रो. जावेद खान को बुलवाया। उस दौर में जब तक मुख्यमंत्री सचिवालय में रहते तब तक अधिकांश मंत्री कार्यालय नहीं छोड़ते थे। उन्हें जानकारी दी। बात आई अर्जी की। महाराष्ट्र सरकार दस प्रतिशत फ्लैट कलाकारों, साहित्यकारों, पत्रकारों, खिलाडिय़ों को आवंटित करती थी। संपादक माथुर ने पहले ही स्पष्टबता दिया था कि शरद जोशी अर्जी लिखकर नहीं देंगे। शरद पवार ने क्या हल निकाला? इसे जाने दीजिए।   

जानिए यह, कि राजेन्द्र माथुर का इंदौर में अपना घर था। संपादक बनकर दिल्ली गए। मकान किराए पर चढ़ा दिया। कुछ समय बाद किराएदार का मन बदल गया। मकान खाली करने से मना कर दिया। इंदौर राजेन्द्र माथुर का अपना शहर था। मध्य प्रदेश में ऐसी सरकार थी जो पत्रकारों और अखबार निकालने वालों को बुला बुलाकर मकान देती रही है। कुछ नामी पत्रकार तो मकान लेकर बेचने का पराक्रम कर चुके हैं। माथुर नाम के व्यक्ति को अपनी पत्रकारिता पर गर्व था लेकिन उसे सिफारिश के लिए गिरवी रखने के लिए राज़ी नहीं थे। उन्होंने संपादक की गरिमा का ध्यान रखते हुए मुख्यमंत्री या किसी राजनीतिक प्रशासनिक व्यक्ति से मकान खाली कराने का आग्रह नहीं किया। इंदौर के उन लोगों का सहारा भी नहीं लिया, जो घर खाली कराने के तौर-तरीकों में महारत हासिल कर चुके थे और रज्जू बाबू नाम के व्यक्ति को शहर की शान और देश में इंदौर का नाम रोशन करने वाला मानते थे। आम आदमी राजेन्द्र माथुर ने किराएदार से झंझट करने के बजाय उकताकर औने पौने दामों में अपना घर बेच दिया। कबीर फकीर थे। कहते थे-जो घर छोड़े आपनो चले हमारे साथ। कबीर के युग में संपत्ति पर कब्जा करने की प्रवृत्ति थी। मकान बेचने का रिवा शुरु नहीं हुआ था। घर बेचकर पिंड छुड़ाना ही राजेन्द्र माथुर को आसान लगा।

 खींचतान और झखमारी से संपादक आये दिन परेशान रहते हैं। गुटबाजी और साजिशों ने उनके जैसे सरल व्यक्ति को हिलाकर रखा। वे निस्पृह रहकर काम में जुटे रहते। एक संध्या मैंने शिकायत की-आपने एक भी पुस्तक नहीं लिखी। उनका उत्तर था-तात्कालिक कामों से फुर्सत मिले। आराम से लिखूंगा। उन्हें अनुमान नहीं था कि मौत मात्र चार दिन दूर खड़ी ताक रही है। सहज स्वभाव के व्यक्ति से मौत भी छल कर गई। हताश सहयोगियों को दिलासा देने के लिए वे शिव मंगल सिंह सुमन की पंक्ति दोहरा देते-कुछ आज न पहली बार ये दुनिया छली गई।

स्वभावगत सरलता और सहजता सदा तनावमुक्त नहीं रख पाती। यह बात मौत को मालूम थी। राजेन्द्र माथुर को नहीं।      

 

समकालीन हिन्दी मीडिया के नये पाठ की जरूरत महसूस हो रही है। हालत चिंताजनक हैं। भारतीय भाषा में ऐसे संपादक विरल हैं जो नये पत्रकारों को पक्षधरता और पत्रकारी हुनर की सौगात दे सकें। पत्रकार लायजनर और मार्केटिंग प्रोफेशनलिज्म में बदल गये हैं। असहमति व्यक्त करने में डर लगने लगा हैं। दो टूक निर्णय लेने में असमंजस है। पत्रकार सत्ता के बगलगीर हो गये हैं और उनमें अलंकरण के लिए होड़ लगी है। नौकरशाही की सहायता लेना आम बात हो गई हैं। कुछ इन्हीं मुद्दों पर देश के बड़े पत्रकार स्व. राजेन्द्र माथुर (रज्जू बाबू) के जरिए यहां कुछ महत्वपूर्ण स्मृतियां पढ़ी जा सकती हैं। लेखक नागपुर भास्कर के समूह संपादक वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश दुबे हैं।

 

 


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