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अप्रैल 2018

साक्षात्कार - नाटककार महेश एलकुँचवार

अनूप कुमार

साक्षात्कार




नाटककार महेश एलकुँचवार की
अनूप कुमार से बातचीत

अनूप कुमार : नमस्कार दादा, सबसे पहले मैं 'पहल' के पाठकों की ओर से आपका हार्दिक धन्यवाद करता हूँ कि आपने इस साक्षात्कार के लिए सम्मति दी।
महेश एलकुंचवार : धन्यवाद अनूप कुमार।
अनूप कुमार : दादा, सबसे पहले मैं आपसे नाटक और रंगमंच की कुछ मूलभूत अवधारणाओं पर सवाल पूछना चाहूँगा। रंगमंच मूलत: नाट्य लेखक का माध्यम है। निश्चित ही उसमें नाट्य लेखक का कृतित्व केंद्र स्थानी है। निर्देशक और अभिनेता लेखक ने बनाया जो फ्रेमवर्क है, जो कैनवास है, उसमें अपनी प्रतिभा से थोड़ा रचनात्मक विस्तार करते हैं, रंग भरते हैं। मंच का असल रंग तो नाटक का आलेख है क्या आप इस अवधारणा से सहमत हैं?
महेश एलकुंचवार : मैं खुद एक लेखक हूँ तो मैं तो बहुत सहमत हूँ इस अवधारणा से। पर बात ये है कि 1960 के बाद काफी बदलाव आया है इस सोच के बारे में। क्योंकि 1960 के बाद ये बात हुई कि नाटक मूलत: एक दृश्य माध्यम है। दूसरी बात की ग्रोटोवस्की जैसे, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कुछ जानेमाने थिएटर निर्देशक आये, उनका कहा ये था कि थियेटर में नाटककार जरूरी नहीं हैं। मुझे याद है वर्ष 1978 में ब्रात्स्वा, पोलैंड में मेरी मुलाकात ग्रोटोवस्की से हुई थी, उस समय मैं होमी भाभा फेलोशिप लेकर अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच का अध्ययन करने यूरोप गया हुआ था। उन से जब बात होने लगी तो उन्होंने सवाल पूछना शुरू किया 'महेश अगर लायटिंग नहीं रही तो नाटक होगा? मैंने कहा, होगा। मेकअप नहीं रहा तो नाटक होगा - मैंने कहा हाँ होगा, नेपथ्य नहीं रहा तो नाटक होगा - मैंने कहा होगा, डायरेक्टर नहीं होगा तो नाटक होगा - मैंने कहा हाँ जरूर होगा, नाटककार अगर नहीं रहा तो नाटक होगा? मैं रुक गया। तो एक अभिनेता जब खड़ा होके कुछ करने लगता है, तो उसे कोई देखता है, देखने वाला है, तो नाटक हो जाता है। इसका मतलब ये नहीं कि नाटककार की भूमिका पूरी तरह नकारी जाए, परंतु नाटक के बारे में सबसे मूलभूत तत्व है नट या अभिनेता और दूसरा है प्रेक्षक। अब ये धारणा भारत में भी काफी लोगों को अच्छी लगी। इसके पहले का ये चित्र था, खासकर मराठी थिएटर में, कि जो नाट्य लेखक या नाटककार रहते थे वो ही रिहर्सल में खड़े रहते थे, और वो ही रिहर्सल लेते थे। उसके बाद 1955 के आसपास दिग्दर्शक का नाम का एक प्राणी आ गया, जो पूरी तरह से नाटक के आलेख को नियंत्रित करता था, उसका माध्यम पर और उस प्रोडक्शन पर नियंत्रण होने लगा, तब से दिग्दर्शक महत्वपूर्ण हो गया। दिग्दर्शक ने कहना शुरु किया कि भई नाटककार, तुमने बहुत काम कर लिया और अब तुमने अपना टेक्स्ट मुझे दे दिया है। इसके बाद का काम मैं करुंगा, इसमें कृपया आप दखल मत दीजिए। अब मेरा सौभाग्य ये था कि मुझे जो दिग्दर्शक मिले जैसे विजयाबाई (विजया मेहता), डॉ लागू (डॉ श्रीराम लागू), सत्यदेव दुबे इत्यादि। तो हम दोनों हमेशा साथ में बैठते थे, बात करते थे, अगर कुछ बदलाव करना है तो एक दूसरे को समझाकर बहुत सामंजस्य और समझदारी के साथ हम सहमति पर आते थे बिना किसी संघर्ष के। उस समय ऐसा भी हो रहा था कि, नाटककार नाटक लिख देता था और उसके बाद वो पूरे प्रोडक्शन का करीब सम्बंधी हो जाता था। दिग्दर्शक अपने हाथ में सारे सूत्र लेता था और टेक्स्ट में कुछ भी बदल करता था। सत्यदेव दुबे बहुत बार ऐसा करते थे। तो नाटक के व्यवहार में मूलत: नाटककार बहुत महत्वपूर्ण है, ऐसी अवधारणा अब नहीं रही। इस बारे में दो प्रकार की सोच है, स्कूल है। एक स्कूल ये है कि नाटककार ही शुरूवात करता है, वही जन्मदाता है नाटक का, अगर उसके लेखन में कुछ प्रश्न आ गये या कोई भाग ऐसा है जो दिग्दर्शक को नहीं जंच रहा तो उसे बात करके सुलझाया जा सकता है। पर महत्वपूर्ण नाटककार ही है। दिग्दर्शक का, अभिनेताओं का काम ये है कि नाटककार ने जो कहा है वो लोगों तक पहुंचाना। दूसरा स्कूल नाटककार को महत्व नहीं देता। उनका कहना है कि, नाटककार ने जो आलेख दे दिया उसका हम कुछ भी कर सकते हैं। अपने इंटरप्रेटेशन के हिसाब से दिग्दर्शक उसे बदले, उसे डीस्ट्रक्चर करें, उसे रिस्ट्रक्चर करें, उसे उसकी पूरी स्वतंत्रता है। तो ये दो स्कूल हैं। पर मैं तो पहले स्कूल की अवधारणा को मानता हूं।
अनूप कुमार : मुझे लगता है कि आपके नाटकों के साथ निर्देशकों ने ज्यादातर न्याय ही किया है। आपकी 'वाडा चिरेबंदी' नाट्यत्रयी का मराठी में चंद्रकांत कुलकर्णी ने जो मंचन किया है, वो अद्वितीय है। पाठक जैसा सोचता है, काफी हद तक मंच पर वो साकार होता है। लेकिन देखने में ऐसा आया कि 'वाडा चिरेबंदी' का हिन्दी रुपांतर 'विरासत' का मंचन जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने अनुराधा कपूर के निर्देशन में किया उसमें वो बात नहीं आ पाई, खासकर नाटक के अंदर जो वातावरणात्मक ध्वनियां प्रतिध्वनियां। क्या लगता है आपको?
महेश एलकुंचवार : ये जो नाट्यत्रयी है, जिसे मराठी में 'नाट्य त्रिधारा' भी कहते हैं, उसमें से 'विरासत' पहले नाटक 'वाडा चिरेबंदी' के हिंदी रुपांतर के रुप में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में मंचित किया गया था। 'वाडा चिरेबंदी' अनेक भारतीय भाषाओं में मंचित किया गया है, बंगला में, गुजराती में, कन्नड में, गढ़वाली में। अनुभव ये है कि जिस भी भाषा में खेला गया है, वो लोगों को काफी हिलाता है, लोग जुड़ते हैं इस नाटक के साथ। अब त्रयी का दूसरा भाग 'मग्न तल्याकाठी' का बांगला में कोलकाता में मंचन हुआ है, हिंदी में इब्राहीम अलकाजी साहब ने दिल्ली में किया था - तो दूसरे भाग के बारे में भी वही है कि लोगों को बहुत अच्छा लगता है, यानी उन्हें वो अपना खुद का अनुभव लगता है। लोग बैकस्टेज पर आकर बताते थे कि अरे हमारी जिंदगी में ऐसा ही कुछ हुआ था, ऐसे चरित्र तो हमारे गांव में भी है। तीसरा भाग मतलब 'युगांत' सिर्फ मराठी में ही मंचित हुआ है, दूसरी भाषाओं में नहीं।
अनूप कुमार : दादा, फिर से हम कुछ अवधारणाओं की बात करते हैं। विजय तेंडुलकर ने 1984 में एक भाषण दिया था जो बाद में 'समकालीन साहित्य' में छप कर भी आया, उसमें उन्होंने कहा है कि नाटक लिखने की कोई परफेक्ट संहिता नहीं होती, उसे हर नाट्य लेखक को स्वयं निश्चित करना होता है। नाटक एक ऐसा माध्यम है कि जब तक वो भीतर के पूरे अंतराल को स्पंदित न कर दे, तब तक कोई नाटककार नाटक लिख नहीं सकता। सिर्फ संहिता के खांचे के फिट कर देने से कोई नाटक महान नाटक नहीं बन जाता। तो एक तरह से नाटककार नाटक का जो तांत्रिक ढांचा है, शिल्प है, उसके जब परे जाता है तभी वो सशक्त नाटक लिख पाता है। तो क्या आप तेंडुलकर जी की उस अवधारणा से सहमत है?
महेश एलकुंचवार : हां बिल्कुल सहमत हूं। टेक्नीक की जो बात तुमने की तो ये सच है कि टेक्नीक बाद में ही आती है। पहले तो नाटक मन में घटना चाहिए। जैसे कि खुद के बारे में मैं तुम्हें बताता हूं कि मुझे पता भी नहीं रहता कि मैं नाटक लिखूंगा अभी। मन में, अवचेतन में कुछ होता रहता है और मैं पूरी तरह गाफिल होता हूं उससे, पर कभी कभी क्या होता है कि कोई छोटा सा दृश्य कौंधता होता हैं दिमाग में, कोई छोटा सा वाक्य दुहराया जाता होता है मन में, तभी अचानक नाटक जो मेरे अवचेतन में कहीं घट रहा होता है लंबे समय से, वो अचानक ही पूरा का पूरा आकार लेने लगता हैं। फिर समझ में आता है कि अब नाटक तैयार है मन में, और जब बैठकर लिखने लगता हूं तब तकनीक आती है, तब शिल्प आता है। पहले तो तकनीक के बारे में मैं अनाड़ी ही था, वो बात सीखने की थी और मैंने सीखा। इस समय लिखते समय पता चलता था कि ज्यादा टेक्नीक इस्तेमाल करें तो जो अनुभव मन में उजागर हुआ था, उसको नाटक का फ्रेमवर्क बाधित करता है। फिर भी नाटक लिखने के लिए टेक्नीक समझ लेना नितांत जरूरी है, वैसे भी टेक्नीक अनुभव से ही समझ में आती है। तो ये अनुभव कैसे संक्रांत होगा, कैसे एक नाटक आकार लेगा ये मैं पहले देखता हूं। मूल बात ये है कि आपके मन में नाटक का जन्म होना चाहिए। ये होता भी है, बिना आपके जाने हुए होता है। पर ऐसे लेखक भी हैं जो बाहर से एक विषयवस्तु ले लेते हैं - विषय के बारे में सोच लेते हैं फिर वो नाटक को स्ट्रक्चर करते हैं मतलब नाटक जन्म नहीं लेता, बनाया जाता है नाटक को। कभी कभी खूबसूरती से भी स्ट्रक्चर करते हैं वे नाटक को - उससे क्राफ्ट का प्रमाण जरूरत से ज्यादा रहता है। पर मैं इस तरह से काम नहीं कर सकता। जब तो वो चीज मेरे अनुभव से नहीं जन्मी तब तक मैं नाटक नहीं लिख सकता।
अनूप कुमार : इसका मतलब ये कि नाटक के शिल्प के बंधन में न अटकते हुए आपका जो कथानक है उसके प्रति आप पूर्णत: निष्ठावान बने रहते हैं। ये बात आपके समीक्षक भी कहते हैं कि आप शिल्प में न अटकते हुए काम करते हैं और नाटक का क्राफ्ट अपने आप घटित होता जाता है।
महेश एलकुंचवार : बिल्कुल। अगर क्राफ्ट के बारे में सोचेंगे तो मेरे कई नाटक ऐसे हैं जहां शिल्प कच्चा भी है तब भी लोग उसे देखते हैं, पसंद करते हैं क्योंकि वो अनुभव जो है वो सच्चा है, और ये एक जीवंत और महसूस किया गया अनुभव है। किसी भी कलाकृति के बारे में एक मुझे हमेशा लगता है - एक सवाल मैं तुमसे ही पूछता हूं अनूप, दुनिया में ऐसी कोई कलाकृति है जो पूर्णतया निर्दोष है? हर कलाकृति में आपको त्रुटियां मिलेंगी, अपूर्णताएं मिलेगी, पर वो त्रुटियां या फ्लाज उसमें है इसलिए वो खराब नहीं होती। उस कलाकृति में खुद का अपना चैतन्य होगा, जान होगी, तो उसमें जो दोष है वो उसके मूल चैतन्य की वजह से बेमतलब हो जाते है - जैसे कोई आदमी है, बहुत जल्दी नाराज हो जाता है या गुस्सा करता है पर उसका अंदरुनी तेज बहुत सशक्त है तो ऐसे आदमी का हम सम्मान करते है - वैसे ही कलाकृति का होता है - दोष रहते हंै बहुत, पर उसमें जान हो, चैतन्य हो तो वो बड़ी रचना हो के रहती हैं।
अनूप कुमार : आप नाटक लिखने के बारे में प्रेरित कैसे हुए? इस बारे में एक बहुश्रुत घटना का जिक्र किया जाता है जब आप अपना महाविद्यालयीन शिक्षण प्राप्त कर रहे थे तो आपने विजया मेहता द्वारा दिग्दर्शित एक विजय तेंडुलकर लिखित नाटक 'मी जिंकलो मी हरलो' (मैं जीता मैं हारा) देखा तो उसमें आपके भीतर नाटककार बनने की इच्छा जागृत हो गई और आपके भीतर की रचनात्मक पुकार को आपने प्राप्त किया। इसका सच क्या है, कृपया बताएं।
महेश एलकुंचवार : दरअसल मैं फिल्में बहुत देखता था उस वक्त मेरे कभी दिमाग में भी नहीं आया कि मैं लेखक बनूंगा। पढ़ता था बहुत मैं उस समय रोज बारह बारह घंटे, और पढ़ता भी था विश्व भर का साहित्य, उपन्यास, नाटक, निबंध सब। क्योंकि मूलत: साहित्य का विद्यार्थी था मैं। उस समय तक इंग्लीश साहित्य का व्याख्याता बन गया था। एक बार मैं दोस्त के साथ फिल्म देखने गया तो टिकट नहीं मिला, हम वापस आ रहे थे तो मित्र ने कहा चलो नाटक देखते है - मैंने कहा गोली मारो नाटक को, चलो घर चलते हैं। मित्र ने आग्रह किया कि नहीं देखना चाहिए, नया थिएटर ग्रुप है, विजय तेंडुलकर जी ने लिखा है, नागपूर के धनवटे रंग मंदिर में चल रहा था वो नाटक 'मी जिंकलो मी हरलो' (मैं जीता मैं हारा)। हम थिएटर में बैठे, और अगले बीस मिनट में मैं बिल्कुल भूल गया कि मैं कहां हूं, क्या हूं। इतना गहरे डूबा हुआ था मैं, और उसी क्षण अचानक ही मैंने भीतर से महसूस किया कि ये है जो मैं करना चाहता हूँ - करके देखूंगा, मुझे बहूत अद्भुत लग रहा था वो अनुभव - दूसरे दिन मैं फिर से वही नाटक देखने पहुंच गया। पहली बार देखने गया तो मुझे समझ नहीं आ रहा था, अरे, अभी अभी विजया मेहता इस कोने में खड़ी हैं, दो मिनट में इधर कब आ गई वो? मेरी नजरों के सामने जो ये जादूसा चल रहा था, मुझे बहुत ठीक से समझ नहीं आ रहा था। दूसरे दिन मैं बड़ा वस्तुनिष्ठ ऑब्र्जवर बन गया - मैंने अनुभव किया कि नाटक का अपना एक ग्रामर है, टेक्नीक काफी है इसमें। मैंने कहा ठीक है, चलो हाथ आजमाते हैं। फिर मैंने अपना पहला एक अंकी नाटक लिखा 'सुल्तान' - उसी वक्त 'होली' भी लिखा था - तो मेरी एक महिला मित्र थी उसने इसे 'सत्यकथा' नाम की पत्रिका में प्रकाशन के लिए भेज दिया और वो छप के भी आ गया।
अनूप कुमार : पर लोग तो ये कहते हैं कि 'रुद्रवर्षा' आपका पहला नाटक था।
महेश एलकुंचवार : हां 'रुद्रवर्षा' लिखा था पहले वो नागपूर में मंचित भी हुआ था।
अनूप कुमार : 'रुद्रवर्षा' पहले लिखा, फिर 'सुल्तान' और फिर 'होली'।
महेश एलकुंचवार : नहीं, 'सुल्तान' लिखा पहले, 'रुद्रवर्षा' लिखा बाद में, पर 'सुल्तान' को प्रकाशनार्थ मुंबई भेजना व उसका मंचन होना उसमें दो-चार साल चले गये। 'रुद्रवर्षा' को तो अभी भूल सा गया हूं, कुछ अच्छी बातें जरूर हैं उसमें पर मैंने खुद नहीं पढ़ा ये नाटक पिछले तीस चालीस सालों में।
अनूप कुमार : आप एकांकी की तरफ ही काफी झुके। जैसे शुरु में जो आपके एकांकी आये जैसे 'झुंबर, एक म्हातारा चा खून' (एक बूढ़े की हत्या)।
महेश एलकुंचवार : इसमें कई कारण है - एक तो मुझे पता नहीं था कि मेरे नाटकों में कोई रस लेगा, कोई उसे मंचित करेगा और मुझे लगा कि पत्रिका में ही छापना है तो क्यों न इसे संक्षिप्त रखा जाये। 1970 के दौरान जब विजय मेहता ब्रिटिश कौंसिल की फेलोशिप से लंदन से लौटकर मुंबई आई तो उन्होंने मेरे 'होली' और 'सुल्तान' का मंचन किया - तरुण नाट्यकर्मियों के लिये वो वर्कशाप किया करती थीं - उसे वो वर्कशाप प्रोडक्शन कहती थीं। जब मेरी मुलाकात उनसे हुई तो विजयाबाई ने मुझसे कहा कि महेश, चलो हम मिलकर काम करते हैं, तुम हमारी थिएटर वर्कशाप के लिये नाटक लिखते जाओ मैं वो नाटक निर्देशित करूंगी। उसी समय मैंने लिखना और विजयाबाई ने नये लड़कों और लड़कियों के साथ थिएटर वर्कशाप में उनका प्रोडक्शन करना शुरु किया। उस वक्त मैंने एक के बाद एक तीन चार नाटक लिखे थे। 'गार्बो' भी।
अनूप कुमार : 'गार्बो' तो आपके बहुत चर्चित नाटकों में है, कुछ कम चर्चित नाटक जैसे 'कैफियत', 'एक ओसाड गांव', 'यातनाघर' आपने इस बीच लिखे थे।
महेश एलकुंचवार : हां, ये सब एकांकी है।
अनूप कुमार : और ये लिखे गये उस दरम्यान, जब आप अपनी नई रंग भाषा की तलाश कर रहे थे।
महेश एलकुंचवार : और जब विजयाबाई 'रंगायन' की वर्कशाप कर रही थीं।
अनूप कुमार : 'गार्बो' से आपके पूरे नाटक लेखन में एक मोड़ आता है, जिसमें आप कथ्य के साथ ज्यादा प्रयोगधर्मी होते हैं, या उसमें अपने देशकाल की हलचलें ज्यादा प्रतिध्वनित होने लगती हैं। 'होली' के समय से 70 के दशक में फ्रांस का जो विद्यार्थी आंदोलन तीव्र हुआ, उसके बाद अपने देश में भी इसी तरह के विद्यार्थी आंदोलन शुरु हो गये थे। एक तरह से मोहभंग की स्थिति बन गई थी युवा पीढ़ी में। चीन के युद्ध के बाद स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज जिस तरह स्वप्नभंग से गुजरा था उससे भी युवा बहुत उद्वेलित था। उस समय आपने दिशाहीन युवा की आक्रामक और अराजक जीवनशैली को 'होली' में बड़ी गहराई से पकड़ा था। पर 'गार्बो' एक अनेक स्तरों पर चलने वाला जटिल नाटक है। तो एक ही समय आप यथार्थवादी और अस्तित्ववादी एक तरह से दो अलग कथानक भूमियों पर काम कर रहे थे, तो उसके पीछे कौन सी प्रेरणाएं काम कर रहीं थी?
महेश एलकुंचवार : बात ये है की, 'गार्बो' मैंने लिखा 1970 में, उस वक्त मेरा मुंबई आना जाना शुरु हुआ था, और मुंबई में मेरा एक्पोजर बढ़ा तो मुझे बुद्धिजीवियों में काफी लोग ऐसे मिले जो लगभग नकारवादी थे, निहलिस्ट थे, किसी से उनका कोई जुड़ाव नहीं था। एक अजीब सी खाली सी जिंदगी वे जी रहे थे। उस समय मैं नागपूर में था। नागपूर उस समय बहुत छोटा सा शहर था, एक कस्बाई प्रांतीय शहर था, पर मेरी दृष्टि काफी महानगरीय थी। मैं विश्व साहित्य खूब पढ़ता था शायद इसलिए। तो मैंने सोचा की ये जो गहरा अंतराल का वैक्यूम है महानगरों के इन लोगों में, और एक तरह की निरर्थकता और निरुद्देश्यता है, उस पर लिखा जाये, तो एक पूरी तरह से मूल्यनिरपेक्ष नाटक मैंने लिखने को सोचा। मुझे किसी को कोसना नहीं था कि देखो ये लोग कैसे गिर गये हैं। ये लोग ऐसे ही हैं इतना ही दिखाना था सिर्फ।
अनूप कुमार : मतलब एक तरह से उन स्थितियों, उन लोगों को स्वीकार करते हुए आप आगे चले?
महेश एलकुंचवार : हां, कि ये जिंदगी है, जिंदगी में सब तरह के लोग हैं, और उनके जीवन में भी अंधेरा हैं, ढेर सा रीतापन है, ये सब दिखाने की एक कोशिश थी 'गार्बो' में।
अनूप कुमार : पर जिस समय विजय तेंडुलकर 'सखाराम बाईंडर' में प्रयोग कर रहे थे, उसी तरह जिन तथ्यों को लेकर लेखक खुद के चारों तरफ मर्यादा के सींखचे बना लेते हैं उन्हें लांघते हुए 'इन्सेस्ट' विषय पर आपने 'वासनाकांड' जैसा नाटक लिखा। उस समय तो मराठी नाटकों का प्रेक्षक काफी दकियानूसी रहा होगा। फिर आपने ये जो कथानक के विधि निषेध का दायरा तोड़ा और ये हिम्मत की तो किस चीज ने आपको उर्जित किया था इस वर्जित विषय पर लिखने के लिये?
महेश एलकुंचवार : बात ये है कि उस समय जिस तरह मेरे नाटक विजया मेहता कर रही थीं, डॉ. लागू कर रहे थे, अमोल पालेकर व सत्यदेव दुबे कर रहे थे, उस तरह के नाटकों के लिए प्रेक्षक वर्ग बहुत छोटा हुआ करता था - हमारे प्रयोगशील नाटक तब व्यवसायिक बिल्कुल नहीं हुए थे। किसी छोटे से हॉल में दो चार सौ लोग आते थे नाटक देखने के लिए। जिस वक्त मैंने 'वासनाकांड' लिखना शुरू किया, दो बातें हुई उस समय। मैंने टामस हार्डी की 'ज्यूड द आबस्क्योर' उपन्यास पढ़ा था जो इन्सेस्ट पर हैं, और मेरे दिमाग में आया कि मैं लिख सकता हूँ इस विषय पर। क्योंकि ये बात उन लोगों के बारे में थी जो परम्परागत नैतिक जीवन जीते नहीं है, समाज जिनका खोज-खोज कर शिकार करता है, बाहर निकाल निकाल कर उन्हें नष्ट करता है। ऐसा नहीं है कि वे पात्र जो समाज के बने बनाए साचों में नहीं समाते हैं, अलग जिंदगी जीते है, उन्हें समाज बरबाद कर देना चाहता है। ये एक बर्बर सत्य दुनिया भर के तमाम समाजों का सच है। उसी की अभिव्यक्ति इस नाटक में हैं। इस बारे में एक बड़ी मजेदार बात बताऊं तुमको, 'वासनाकांड' नाटक प्रतिबंधित हो गया था। महाराष्ट्र की सांस्कृतिक कार्यमंत्री थीं उस समय श्रीमती प्रतिभा ताई पाटील, जो बाद में देश की राष्ट्रपति बनीं, उन्होंने प्रतिबंधित कर दिया ये नाटक। कहा कि ये नाटक अश्लील है, अनैतिक है, इस पर तो प्रतिबंध लगना ही चाहिये। हाइकोर्ट में गये हम लोग, मैं क्या 'वासनाकांड' का निर्देशक अमोल पालेकर ही दौड़-धूप कर रहा था उस समय। तो मुंबई उच्च न्यायालय ने नाटक के प्रायवेट शो करने की अनुमति दे दी। उसके तीन शो हुए आमंत्रित अतिथियों के साथ। बाद में हाईकोर्ट ने निर्णय दे दिया की इसमें अश्लील कुछ भी नहीं है, ये तो बड़ा गंभीर नाटक है, प्रतिबंध तुरंत उठा देना चाहिए। पर महाराष्ट्र सरकार को अपनी छवि बचानी थी। तब तक सुंदरलाल सालुके हो चुके थे महाराष्ट्र के सांस्कृतिक मंत्री तो उन्होंने मुझे संदेश भेजा की मुझे भी नाटक देखना है और फिर नाटक देख कर उन्होंने कहा की इसमें तो अश्लील कुछ भी नहीं है, प्रतिबंध तुरंत हटाना चाहिए, और हटाया ये प्रतिबंध उन्होंने।
अनूप कुमार : इसका मतलब है की मूलत: समस्या विषय के निषिद्ध होने के कारण थी।
महेश एलकुंचवार : नहीं ये निषिद्ध प्रेम के बारे में था, समाज जिसके बारे में बेहद अनुदार होता है, काफी डरा हुआ भी होता है कि सतह से नीचे दबी उसकी गंदगी बाहर न आ जाए, इसलिए बहुत हिंसक भी होता है।
अनूप कुमार : ये संघर्ष तो मंटो की कहानियां जैसे 'खोल दो', 'बू' और 'काली सलवार', इस्मत चुगताई की 'लिहाफ' कहानी में, विजय तेंडुलकर के नाटक 'सखाराम बाईंडर' और कृष्णा सोबती की कहानी 'मित्रो मरजानी' में भी था।
महेश एलकुंचवार : नहीं, नहीं, इस स्तर तक नहीं पहुंचा था 'वासनाकांड' का वह विवाद।
अनूप कुमार : पर उसके बाद आप भारतीय समाज में अंदरूनी समाजशास्त्रीय विश्लेषण की ओर गये हैं और उसके लिए आपने कई पीढिय़ों तक फैला हुआ 'वाडा चिरेबंदी' का कैनवास चुना है। 'वाडा चिरेबंदी', 'मग्न तल्याकाठी' व 'युगांत' इस त्रयी के माध्यम से भारतीय कुटुंब का जो समाजशास्त्रीय आलेख आपने प्रस्तुत किया है, उसने आपको सीधे विश्व साहित्य में प्रतिष्ठापित कर दिया है। भारतीय थियेटर में किसी ने भी इतने बड़े कैनवास को नाटक में नहीं समेटा है। आपने कुटुंब व्यवस्था को केंद्र में रखकर स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण भारत में हो रहे जटिल आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक बदलावों का एक वृहद लेखाजोखा प्रस्तुत किया है, ये नाटक के माध्यम से इन बदलावों की मार्मिक समाजशास्त्रीय समालोचना है। भूमंडलीकरण जैसे विषय की भी आहट इस 'युगांत' में है। क्या आपने ये लिखने से पहले अपना स्वयं का एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण विकसित कर लिया था?
महेश एलकुंचवार : ऐसा है कि किसी समझी बूझी रणनीति के तहत तो ये सब हुआ नहीं था। बात ये कि 'वाडा चिरेबंदी' लिखने से पहले के सात साल मैंने कुछ भी नहीं लिखा था। एक तरह से ओसाड या फैलो (स्नड्डद्यद्यश2) कालखंड था, क्योंकि एक प्रकार का मोहभंग सा आ गया था तो नाटक से। कहने को नाटक कलेक्टिव आर्ट है, पर वस्तुत: ऐसा होता नहीं है। इस क्षेत्र में सक्रिय हर व्यक्ति का कोई एजेंडा होता है। कुछ लोग नाटक को सिनेमा माध्यम में प्रवेश करने के लिए सीढिय़ों की तरह भी इस्तेमाल कर रहे थे। तो मैंने कहा मारो गोली, यहां किसको नाटक लेखक बनना है। उस समय मैं षडदर्शन-भारतीय तत्व दर्शन - सांख्य, न्याय अद्वैत वगैरह का गहन अध्ययन कर रहा था। पांच-छह साल उसमें गये। उस वक्त जब मैं घर जाता था, एक बात ये मत भूलिये कि मैं गांव का लड़का हूँ - कालेज में जब में नागपूर में मैं आया उस समय मैं 17 साल का था - तब तक मैं पूरी तरह गांववाला लड़का ही था। नागपूर आया तो एक कल्चरल शॉक लगा मुझे। उसके बाद मैं घर आता जाता रहा, हमारी खेती थी, हमारा पुराना मकान है वहाँ पर। घर के बाहर जो बदलाव हो रहे थे उसका ज्यादा कुछ परिणाम मेरे घर में नहीं दिख रहा था, क्योंकि हमारे घर में सब पढ़े लिखे लोग थे और आधुनिक विचारों के थे पर बाहर जो मैं देख रहा था तो हमारे जैसे कई परिवार जो कभी संपन्न थे उनका अधोपतन होना शुरू हो गया था। तो मैंने उन परिवारों का, उन लोगों का विश्लेषण करना शुरू कर दिया। उसके बाद दूसरा भाग। संपूर्ण कुटुंब व्यवस्था थी, उससे जुड़ी जो मूल्य व्यवस्था थी वो नष्ट होने लगी थी, पैसा ही सबसे बड़ा मूल्य हो गया था, ये सब दूसरे भाग 'मग्न तल्याकाठी' में आया। यहाँ से अब हम कहां जायेंगे, खासकर उस स्थिति में जब पूरे पर्यावरण का नाश हो रहा था, इस चिंता से 'युगांत' का जन्म हुआ था। अगर हम आजू बाजू एक मरुस्थल बनाते रहेंगे और वो मरुस्थल सिर्फ पर्यावरण में ही नहीं होगा, वो सांस्कृतिक, सामाजिक व नैतिक मरुस्थल भी होगा जो हम स्वयं बना रहे हैं। और जब सब कुछ मरुस्थल हो जायेगा तो हम कहां जायेंगे? आप इस प्रश्न से भाग नहीं सकते हैं क्योंकि ये प्रश्न हमारे बनाये ही हैं। ये सब 'युगांत' में आया। मुझे ये लगता है 'युगांत' आज का नाटक नहीं है, आज से 50 साल बाद का है, उस समय समाज में क्या होता रहेगा, उसकी एक काल्पनिक तस्वीर है ये नाटक।
अनूप कुमार : लेकिन जो एक मूलभूत संघर्ष था, शहरी आकांक्षाएं थी, पीछे छूट गए गांव थे और धीरे धीरे शहरीकरण की जो प्रवृत्तियां थीं उनके तहत गांव के व्यक्ति में अपने चारों ओर के परिवेश के प्रति जो एक अजीब सी कसमसाहट थी, जो उसे बराबर ह्रास का अहसास उसे कराती थी। और इस ह्रास का साक्षात्कार 'वाडा' त्रयी में हमें इस परिवार के माध्यम से होता है जिसमें एक परिवार जो गांव में छूट गया है और एक परिवार जिसका स्थित्यंतर हो चुका है, उन दोनों परिवारों का तुलनात्मक अध्ययन ही मानों आपने प्रस्तुत किया है। मुझे जो लगता है कि युवा चरित्रों, जिसमें परिवेश के प्रति ज्यादा छटपटाहट अधिक तीव्र है, उसे बदलते समय के प्रति ज्यादा बौखलाहट है, जैसे 'पराग' का चरित्र है को भी आपने पूर्णता के साथ व्याख्यायित किया है। पर इस बैचनी, बौखलाहट के बीच में वातावरण को स्थिरता प्रदान करने वाले, आपके स्त्री चरित्र सबसे सशक्त होकर उभरे हैं। उनके माध्यम से जो स्त्री विमर्श जो आपने किया था, उसके पीछे आपका क्या दृष्टिकोण था?
महेश एलकुंचवार : अपने स्त्री पात्रों के बारे में मैं कह सकता हूं कि मैं उन चरित्रों में विश्वास करता हूँ। मुझे हमेशा लगा है कि स्त्रियां, खासतौर पर भारतीय स्त्रियां बेहद सहनशील होती है - सहनशील मतलब ह्म्द्गह्यद्गद्यद्बद्गठ्ठह्ल से है यहां, वे परंपरा को ढोती भी हैं और संभालती थी हैं। सब घर को इकट्ठा रखना उन्हीं के बूते का काम है, खास तौर पर उन तबकों और घरों में जो कभी सम्पन्न थे, पर अब ढह रहे हैं। वहां औरतों पर ही जिम्मेदारियां थी खानदान को इकट्ठा रखने की परंपराओं को चलाने की। भारतीय स्त्री का ये बड़ा उदात्त और अलग सा चित्र है। वैसे देखा जाए तो उन्हें स्वातंत्र्य कम था, बाहर के कमरों में भी नहीं आती थीं वे, अंदर ही जहां स्त्रियों का स्वनिषिद्ध क्षेत्र था उस देहरी के भीतर ही वे मर्यादित रहतीं थी वो। फिर भी उनका एक अदृश्य  सा साम्राज्य चलता था घरों में। उनको सुने बगैर, उनसे परामर्श लिये बगैर, कुछ भी हो नहीं सकता था। उनमें त्याग और परिवार को अपना सब कुछ देने की भावना बहुत ही तीव्र थी। ये मैंने देखा है मेरे घर में - मेरी आजी, मेरी मां, मेरी भाभी ऐसी ही थी। मैंने समझा था उनके चरित्र की गहराईयों को, इसलिए मेरे लिए इन चरित्रों में वास्तव का रंग भरना बहुत कठिन नहीं था।
अनूप कुमार : पर जो गांवों में पितृसत्तात्मक समाज था जहां बंदिशें बड़ी शिद्दत के साथ थोपी जाती थीं, उसके प्रति 'वाडा चिरेबंदी' और 'मग्न तल्याकाठी' की प्रभा का जो मूक विद्रोह है, जिसके चलते बाद में उसे मानसिक रुग्ण की श्रेणी में ढकेल दिया गया था, उसको आपने बहुत ताकत के साथ खड़ा किया है।
महेश एलकुंचवार : क्योंकि ऐसी दस पंद्रह प्रभाएं मैंने खुद देखी है अपने आस पास। छोटे गांवों में अनेक ऐसे परिवार थे जहां विपन्नावस्था आ गई थी, लड़के होशियार नहीं होते थे पर वे लड़के थे इसलिए उन्हें आगे पढ़ाया जाता था। वे बार बार नापास होते थे फिर भी उन्हें पैसे भेजे जाते थे, दूसरे शहर में आगे पढऩे के लिए। लड़कियां होशियार होते हुए भी घर में बैठा दी जाती थीं। घर की चारदिवारी के अंदर उस लड़की का वजूद खासा दमघोटू होता था। मैंने गहरे से महसूस किया है, उनकी पीड़ा को। मेरे भीतर चीख सी उठती थी अपने ग्रामीण समाज पर की आखिर ये क्यों नहीं पढ़ाते लड़कियों को, वे बदल सकती हैं गाव के पूरे परिवेश को।
अनूप कुमार : पर उसके भी दो तरह के संदर्भ या पहलू मिलते हैं, 'वाडा चिरेबंदी' और 'मग्न तल्याकाठी' में। उसमें रंजू का जो चरित्र है, उसके स्वभाव में जो बिंदासपना है, उसकी स्कूल टीचर के साथ अफेअर है और वो घर से भाग जाती है, और पूरे परिवार की फजीहत का कारण बनती है, और दूसरी तरफ प्रभा पर सारी बेडिय़ा डाल दी जाती हैं और वो मनोरोगी बनने को मजबूर होती है। पर आपके नाटकों के स्त्री विमर्श में असली जो नायिका उभरती है वो है पराग की पत्नी नंदिनी। नंदिनी भी बड़े विपन्न परिवार से आती है, पर उसकी जो ताकत है, उसका जो अंतर्निहित स्त्रीवाद और साहस है, वो बड़ा अट्टू है, अद्भुत है। आपके समकालीन किसी भी नाटक में इस तरह का ताकतवर स्त्री पात्र नहीं है। हिंदी समाज में जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में 'वाडा चिरेबंदी' को 'विरासत' नाम से खेला गया तो सबसे ज्यादा चर्चित रहा नंदिनी का चरित्र। बिना किसी स्त्रीवादी स्थापनाओं के ये चरित्र दर्शकों पर छा जाता है, अपनी अंदरूनी दृढ़ता से रंजू, प्रभा और नंदिनी ये जो तीन समानांतर धाराएं आपने रचीं तो क्या अपने समय का कुछ विशिष्ट स्त्रीवाद आप सामने लाना चाह रहे थे?
महेश एलकुंचवार : जब ये चरित्र मैं लिख रहा था तो कोई विशेष वाद जैसे स्त्रीवाद वगैरे मेरे दिमाग में था ही नहीं। मैं वैसे भी किसी वैचारिक वाद या द्बह्यद्व में कभी नहीं उलझा, मेरी चिंताओं के केंद्र में सदैव इंसान होता है। मैं किसी विचारधारा का झंडा लेकर घूमा नहीं हूं। पर मुझे हमेशा लगता है कि विचारधारा अच्छी है, वे हमारे मूलभूत मुद्दों को संबोधित करती है पर उनकी बड़ी सीमाएं होती है। जिंदगी में एक ही चीज सबसे बड़ी है वो है खुद जीवन। ये जो छत्र है जीवन का उसके तले सब कुछ आ जाता है। मैं अपने पर्यावरण के प्रति एक सहज व्यक्ति हूं। मैंने कितना सब कुछ देखा है अपने चारों ओर कितनी ही नंदिनी, प्रभा और रंजू को देखा है मैंने। ऐसा नहीं कि वे चरित्र सीधे सीधे सत्य घटनाओं से उठाए हैं मैंने पर उसके जैसे कई चरित्र मिले है मुझे अपने जीवन में। मैं अंजली के बारे में कुछ कहना चाहता हूं। वो मूलत: अच्छी स्त्री है, मुंबई में रही है, उसे गांव का कुछ अनुभव नहीं है - अच्छे प्रस्थापित परिवार में पली बढ़ी है। इसलिए जब वो वाडा में आती है, रहती है, तब इसे भास्कर भाऊ के परिवार के साथ, खासकर वहिनी के साथ उस परिवार का दुख बांटना पड़ता है, तो अचानक वो परिपक्व हो जाती है। जब अचानक रंजू अपने टीचर के साथ भाग जाती है, तो बड़ी भाभी बिल्कुल काठ हो जाती हैं। उन्हें कुछ भी नहीं सूझता तो अंजली सारी जिम्मेदारियां आगे बढ़कर संभालती है। उसके भीतर से आता है कि अब उसे ही लेना होगा सूत्र हाथों में। और परिवार से उसकी एकात्मकता का ये क्षण है अंजली का। वो एक हृदय से अच्छी स्त्री है इसलिए महानगरीय और गांव के जीवन के नकली विभाजन से परे वो इस परिवार से सहज ही एकरूप होती है। पर मैं ये बिल्कुल नहीं कहूंगा कि सभी परिवारों में ऐसी स्त्रियां होती हैं। इस तरह का इंटीग्रेशन आसानी से सामान्य जिंदगियों में भी होता है, ऐसा बिल्कुल नहीं है।
अनूप कुमार : उसके बाद की जो आपकी रचना यात्रा है, उस बारे में कुछ बात करें। आपने बहुत ठहर ठहर कर लिखा। 'आत्मकथा' के बाद आपकी पूरी रचनायात्रा एक अलग मोड़ पर जाती हुई दिखाई देती है। जिसमें कि काफी कुछ जीवन की सार्थकता से जुड़े अस्तित्ववादी प्रश्न सामने आते हैं। सामाजिक मान्यताएं और व्यक्तिगत जीवन में जो चयन हम करते हैं उनमें जो विरोधाभास और विसंगतियां है उन विषयों की तरफ आप आकर्षित होते हैं। तो ये जो महानगरीय सामाजिक परिवेश आपने लिया, फिर उसे चरित्र केंद्रित किया, तो ऐसा सवाल उठता है कि ग्रामीण परिवेश के बारे में आप जब इतना सजीव व यथार्थवादी लेखन कर रहे थे, तो बजाय ये मोड़ लेने के उसी विषय वस्तु का क्या थोड़ा और विस्तार आपको नहीं करना चाहिये था? इस मोड़ के बारे में क्या कहना चाहेंगे आप?
महेश एलकुंचवार : ऐसा कोई निर्णय मैंने लिया ही नहीं। सहजता से ही जो होता गया वो होता गया। 'आत्मकथा' के साथ ऐसा कुछ जानबूझकर निर्णय नहीं किया था मैंने कि चलो अब शहरी कहानियों पर, शहर के चरित्रों पर लिखेंगे। ऐसी कोई बात नहीं हुई। जो घट रहा है पर्यावरण में, राजनीति में, समाज में उसके बारे में नाटक लिखना मैंने जारी रखा। मेरा ध्यान मनुष्य पर था, मानवीय स्थितियों पर था, मानव मेरे सरोकारों के केंद्र में हमेशा से था। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिवर्तनों पर लिखना होता तो मैं निबंध लिखता, शोध लेख लिखता, नाटक क्यों लिखता? नाटक मानव के बारे में होते हैं, और मनुष्य जो एक दूसरे से इंटरएक्ट करते हैं तब जो स्थितियां बनती है वो नाटक की वस्तु के तौर पर काफी महत्वपूर्ण होती है। जो समझने वाले होते हैं वो इन सारी भीतरी अन्तर्धाराओं को समझ लेते हैं। जो नहीं समझ पाते हैं वो आरोप लगाते हैं कि मेरी राजनैतिक सामाजिक समझ अच्छी नहीं है। मुझे ये सुनना बड़ा अजीब लगता है। मराठी में अनेक समीक्षक कहते हैं ऐसा।
अनूप कुमार : मुझे तो नहीं लगता कि ऐसा कोई  कहता होगा। पूरे राष्ट्रीय स्तर पर वृहद परिप्रेक्ष्य में आपके कृतित्व को देखा जाये तो एक तरह आपके नाटक पूरे देश में विविध भाषाओं में मंचित हुए और सराहे गये। विश्वस्तर पर अनेक भाषाओं में उनके अनुवाद हुए। आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस ने आपके नाटकों का अंग्रेजी अनुवाद को दो खंडों में प्रकाशित किया। विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में आपके नाटकों पर शोध हुए। क्या ये पहचान आपकी मानव केंद्रित विषय वस्तु की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता को मान्यता नहीं लगती?
महेश एलकुंचवार : सो तो है। पर ये सहज ही आया सायास नहीं।
अनूप कुमार : लेकिन उसके बाद एक चीज जो और दिखी जिसका जिक्र आपने किया, वो शहरी कथावस्तुओं के बारे मैं है। शहरों में जो भारतीय अभिजात समाज था उसके अंदरुनी अंर्तविरोधों के बारे में आपने लिखा, जिसका वर्णन मोहन राकेश के स्वातंत्र्योतर भारत के बुद्धिजीवी और उच्चभ्रू तबकों के बारे में अपने उपन्यास 'अंधेरे बंद कमरे' में किया था। उसका संदर्भ नई दिल्ली का बुद्धिजीवी समाज था। आप उसी थीम को मुंबई के समाज मे ंले आते हैं और 'पार्टी' नाटक लिखते हैं - जिस पर गोविंद निहलानी ने बेहद प्रभावी फिल्म भी बनाई। और बाद में आप अपनी नाट्य सृजन यात्रा के अंतिम पड़ाव पर 'सोनाटा' लिखते हैं, जिसमें फिर से मुंबई के महानगरीय परिवेश में स्त्रियों ने जो चयन किये है, उसके मानसिक संघर्षों का, उनके मनोविश्व का आप बड़ा बारीक विश्लेषण करते हैं जिस पर अभी हाल में अपर्णा सेन ने इसी नाम से एक चर्चित फिल्म बनाई है। तो एक तरफ 'त्रयी' और दूसरी तरफ 'पार्टी' और 'सोनाटा' ये ग्रामीण और शहरी थीम में ये पुल बनाने वाला आपके अलावा कोई और नाटककार नहीं हैं। तो 'पार्टी' की रचना पाश्र्वभूमि के बारे में कुछ बताइये। उस समय जो मुंबई में बौद्धिक समुदाय था, संभ्रांत समाज था, उसको आपने इतने करीब से कैसे पहचाना? आप तो इस दौरान नागपुर में ही रहते थे?
महेश एलकुंचवार : पर मैं मुंबई लगातार जाता था, कभी कभी महीने में दो दो बार भी। बहुत सारे मित्र थे मुंबई में - उसमें लेखक, पत्रकार, चित्रकार और संगीतकार सब थे। सृजनशील लोगों में जो सबसे उच्चस्तर के लोग थे, मैं उनसे लगातार मिलता जुलता रहा था। मैं ये नहीं कहना चाहता कि फलां व्यक्ति पाखंडी है, फलां व्यक्ति फ्राड है, पर मैं सब कुछ सीधे देख सकता था, क्योंकि उस समय मैं भी उनका ही एक हिस्सा था। एक दूरी जरूर रहती थी। पर एक सबसे महत्वपूर्ण कारण कि जिसकी वजह से मैंने नागपुर कभी नहीं छोड़ा क्योंकि मैं ऐसे खोखले वजूद का निषेध करता था। मैंने ये भी महसूस किया कि मूलत: वे बुरे लोग नहीं थे, बड़े अच्छे थे, सर्जनशील थे, पर वे बहुत सारी वो बातें बोलते थे, जो वो जीते नहीं थे। मैं ये देखकर व्यथित होता था, क्योंकि कहीं गहरे मुझे लगता था कि मैं जैसा कहता हूं, बोलता हूं वैसा ही मुझे होना चाहिए, वैसे ही मुझे जीना चाहिए। तब मैंने 'पार्टी' नाटक लिखा। वैसे ही 'सोनाटा'। मैं ये तुम्हें कहता हूं कि मैं नागपुर में रहता जरूर हूं, पर मेरा स्वभाव व दृष्टिकोण कास्मोपोलिटन है। ये तीनों महिलाएं जो 'सोनाटा' में है, उनकी जैसी कैरिअर वुमेन मैंने बहुत करीब से देखी है। 'सोनाटा' कैसे लिखा गया उसकी बड़ी रोचक पृष्ठभूमि है। मेरी तीन अभिनेत्री मित्र - रेखा सबनिस, ज्योति सुभाष और सुहास जोशी - ये पुणे फिल्म इंन्स्टीट्यूट में विजडम ट्री वाले चबूतरे पर बैठी हुई थीं, मैं उस समय पढ़ता था एफटीआईआई में। उस दिन जब मैं क्लास से बाहर आया तो वे वहां बैठी चुहल कर रही थीं, गप्प कर रही थीं। मुझे देखा तो कहने लगीं महेश, हम तीन बेरोजगार अभिनेत्रियां हैं। एक नाटक तुम हम पर क्यों नहीं लिखते? मैंने कहा - ठीक है, मैं जरूर लिखूंगा और मैंने ये नाटक लिखा, उम्मीद करते हुए कि वे नाटक करेंगी। पर जब मैंने आलेख पढ़ कर सुनाया तो वे कहने लगीं - महेश, क्या हम इस तरह की हैं? मैंने कहा 'नहीं मैंने तुम तीनों के लिए तीन भूमिकाएं बनाई हैं और उसे तुम तीनों ने किया तो नाटक बड़ा अद्भुत होगा। पर उन्होंने ये नाटक नहीं किया। हालांकि ये चरित्र उन पर आधारित नहीं हैं पर मैंने इन आधुनिक महानगरीय महिलाओं को देखा है बहुत करीब से, वे महत्वकांक्षी होती हैं। उन्हें अपनी उपलब्धियों पर गर्व होता है पर भीतर से वो बड़ी अकेली भी होती हैं, थोड़ी नाखुश भी।
अनूप कुमार : पर समाज पुरुष के चयन पर सवाल नहीं उठाता। पर यहां ये अपनी हुई च्वायस को लेकर स्वयं कहीं संशयग्रस्त है - डोलम सेन भी, अरुणा चतुर्वेदी भी। उनका ये महसूस करना और कहना कि जिंदगी उनसे परे चली गई है, 'लाइफ हैस पास्ड बाई अस' - ये चीज अपर्णा सेन की फिल्म में बहुत सघनता से आती है। तो कहीं ये नहीं लगता कि ये जो जेंडर स्टीरियोटाइप हैं, जो वे हृदय से लगाकर बैठी हैं इसलिए उनके भीतर एक बेचैनी है, एक छटपटाहट है।
महेश एलकुंचवार : पता नहीं, इतने बौद्धिक ढंग से तो मैंने शायद विश्लेषण स्वयं भी नहीं किया था पर अपर्णा की फिल्म में ये तहें खुलती दिखाई दी थीं मुझे भी। ये बौद्धिक चर्चा बाद में समीक्षक करते हैं।
अनूप कुमार : दादा, आप प्रायोगिक रंगभूमि के पुरोधा तो हंै ही, व्यावसायिक रंगभूमि के भी सर्वस्वीकृत नाटककार माने जाते है। पर आप अपने आप को किस परंपरा से ज्यादा जुड़ा हुआ पाते है - प्रायोगिक या व्यावसायिक?
महेश एलकुंचवार : ये सब बताना समीक्षकों और आलोचकों का काम है। उन्हें नाटककार से ज्यादा नाटक साहित्य और रंगभूमि के इतिहास में किसे कहां बैठाना है इसी की ज्यादा फिक्र रहती है। मैंने तो अपने आपको परंपरा के बने बनाये सांचों में कभी डाला ही नहीं। मेरे नाटक लिखने की प्रेरणा और निमित्त विजय तेंडुलकर बने। उनके समकालीन नाटककारों की तुलना में संवेदनशीलता की दृष्टि से मैं अपने आप को विजय तेंडुलकर के ज्यादा समीप पाता था। हालांकि परंपरा को अगर और पीछे ले जाओ तो राम गणेश गडकरी से भी मैं प्रभावित था। विजया मेहता और मैं 'रंगायन' में साथ साथ काम करने लगे तो मुझे पूरी आश्वस्ति थी कि मैं समविचारी लोगों के साथ हूं। वहीं से मेरे लेखन को नई दिशा मिली, और मैं प्रायोगिक रंगभूमि में स्थिर हुआ। फिर विजया मेहता ने 'वाडा चिरेबंदी' को व्यावसायिक नाटक के तौर पर मंचित किया, जिसका सीधा सरल कारण ये था कि 'कलावैभव' संस्था के मोहन तोंडवलकर बिना शर्त इस नाटक पर सत्तर अस्सी हजार लगाने को तैयार हो गये, जबकि हमारे पास इतने पैसे नहीं थे। उसके बाद 1988 में 'आत्मकथा' प्रकाशित हुआ और वो भी व्यावसायिक नाटक के तौर पर काफी यशस्वी रहा। उस समय तक प्रायोगिक रंगभूमि में अनेक नवीन थियेटर ग्रुप एवं नये निर्देशकों का उदय हो चुका था। तरुण निर्देशकों जैसे चंद्रकांत कुलकर्णी और प्रशान्त दलवी ने प्रायोगिक और व्यवसायिक नाटकों को करीब लाने का और उनका दूरत्व पाटने का बड़ा काम उस समय किया। एक वजह ये थी कि नाटक उनके जीवन यापन का जरिया था, अपयश मोल लेना उन्हें अनिष्टकारी था। कुछ अपवाद थे उसमें जैसे अतुल पेठे, मकरंद साठे। तो नाट्यलेखनों में प्रायोगिक रंगभूमि का किला रखाने की जिम्मेदारी मेरी और मेरे साथ मकरंद साठे, अतुल पेठे जैसे लोगों की आ गयी। पर मैं लिखता रहा - धीमे धीमे - 'आत्मकथा', 'वांसासि जीर्णानि', 'धर्मपुत्र' और 'सोनाटा' मेरी बाद की रचनाएं हैं। तो इस तरह मैं कह सकता हूं कि मेरी प्रतिबद्धताएं प्रायोगिक रंगभूमि के साथ है और रहेगी। मैं व्यावसायिक रंगभूमि की ओर संक्रमण बिलकुल नहीं करुंगा।
अनूप कुमार : आपके नाटकों का जो फिल्मांकन हुआ है, उस बारे में आपका जो खट्टा मीठा अनुभव रहा है, उसके बारे में कई बार अपने सार्वजनिक मंच पर कटुतापूर्ण बयान दिये है, कि दिग्दर्शक व पटकथाकार लेखक को महत्व नहीं देते और अक्सर जब लेखक अपने नाटक, फिल्म पटकथा के लिए देता है तो बड़ा ठगा सा महसूस करता है। लेकिन अगर आपके नाटकों पर बनी फिल्म देखें - 'होली' जो केतन मेहता ने बनाई, 'पार्टी' गोविंद निहलानी ने, 'वाड़ा चिरेबंदी' पर विजय मेहता ने टेलीफिल्म बनाई 'हवेली बुलंद थी' और अब अपर्णा सेन ने 'सोनाटा' - उन सब निर्देशकों ने आपके नाट्य आलेख के प्रति ईमानदार रहने की भरपूर कोशिश तो की है जरूर, भले ही वो सफल रही हो या नहीं। तो आपका जो कटु अनुभव है वो किन प्रसंगों से बना है?
महेश एलकुंचवार : कटु अनुभव नहीं कहूंगा पर थोड़ा निराशाजनक अनुभव जरूर था। जब मैंने लिखा और मुझसे निर्देशकों की बात हो रही थी तो मैंने सोचा था जैसे फिल्म और नाटक का एक मस्तिष्क और दो शरीर होंगे। पर जब फिल्में सेट पर गईं तो बात एकदम अलग होती थी। 'होली' ऐसी विजुआलाइज किया था कि पूरी फिल्म सिर्फ 10 शाट्स में हो जाएगी, 8 मिनट का एक शाट बिना खंडित किए। सिर्फ 10 सीन लिखे जाने हैं और 80 मिनट की फिल्म बननी थी, ये शुरू में ही निर्णय हुआ था। पर शूटिंग के दरम्यान मैं उपस्थित था नहीं। और बाद में ये हुआ कि वहां केतन मेहता ने सेट पर ही नये इंप्रोवाइजेशन शुरु कर दिये एक्टरों को साथ में लेकर। अंत में जो फिल्म केतन ने बनाई उसमें मेरा आलेख तो बाजू में रह गया। फिर फिल्मकारों को लेखक चाहिए क्यों? क्यों रखना है लेखक को फिल्म के साथ?
अनूप कुमार : अपने नाटकों को फिल्मों के लिए देते समय क्या शर्त रहती है आपकी? कि पटकथा आप लिखें या कोई ऐसा व्यक्ति लिखे जिस पर आपका विश्वास हो? पटकथा लेखन में क्या भूमिका रहती है आपकी?
महेश एलकुंचवार : मैं पटकथा में कोई भूमिका नहीं रखता। अपर्णा सेन ने मुझे 'सोनाटा' की पटकथा लिखने को कहा था पर मैंने इनकार कर दिया था। मैंने कहा अपर्णा, मैं पटकथा तो बिल्कुल नहीं लिखूंगा, तुम्हारी सामथ्र्य पर मेरा पूरा विश्वास है और प्रामाणिकता पर भी - इसलिए तुम 'सोनाटा' का टेक्स्ट ले लो और इसके साथ जो करना है करो, क्योंकि मैं कुछ अलग तरह से लिखूंगा और बाद में तुम इसमें बदलाव करती बैठोगी। इससे बेहतर होगा कि तुम खुद करो जो तुम्हें करना है।
अनूप कुमार : मगर 'पार्टी' में गोविंद निहलानी जी आपके टेक्स्ट के साथ भले ही छेड़छाड़ करते हों पर सबटेक्स्ट को बड़े अच्छे से सामने लाते हैं। चरित्रों के माध्यम से नाटक की अंतर्निहित वस्तु को भी ताकत के साथ सामने लाते हैं। तो 'पार्टी' को जब राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम ने रिलीज किया और दूरदर्शन ने उसे राष्ट्रीय प्रसारण में प्रदर्शित किया तो उस समय देशभर ने उसे सराहा। खासकर अमृत (नसीरुद्दीन शाह) के चरित्र के प्रति 'पार्टी' में शामिल सारे लोग जो अपराध का अनुभव करते हैं, वो अपराध भारत के उच्चभ्रू, बुद्धिजीवियों का सामूहिक अपराधबोध जैसा लगता है। तो क्या अमृत का चरित्र वामपंथी या नक्सल विचारधारा से जुड़े किसी असल जीवन के व्यक्ति पर आधारित है?
महेश एलकुंचवार : नहीं, अमृत नक्सल नहीं है, वो मानवतावादी जरूर है। सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में इतने सारे आंदोलन थे, इतने तरुण छोटे छोटे गांव और कस्बों में जाकर लोगों के बीच काम कर रहे थे। कैरियर बनाने के मोह में वे कभी फसें नहीं। प्रकाश आमटे, अभय बंग उन्हीं युवकों में थे। ये युवक वो थे जिन्होंने अपने आदर्शवाद से प्रेरित होकर समाज से बदले में कुछ भी अपेक्षा न रखते हुए अपना पूरा जीवन दे दिया था समाज को। अमृत उस तरह का लड़का है, उस बारे में नाटक में ही एक संवाद है, वो काम करता है, जार्गन इस्तेमाल नहीं करता।
अनूप कुमार : पार्टी की पटकथा आपके नाटक की मूल आत्मा से कहीं भटकी हुई लगी थी क्या आपको?
महेश एलकुंचवार : फिल्म का जो आखिरी 15-20 मिनट का हिस्सा था उसके बारे में मेरी दुविधा थी थोड़ी, पर फिल्म उनकी थी तो मैंने बहुत एतराज किया नहीं। एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगा कि गोविंद नाटक लेखक के लिखे हुए शब्दों के प्रति बेहद ईमानदार रहते थे - उन्होंने मेरे मूल आलेख को ज्यों का त्यों रखा था। इसमें चित्रांकन के बारे में मेरे कुछ सुझाव थे जैसे 'पार्टी' में पूरा सिगरेट का धुंआ है, शराब चढ़ रही है लोगों को - लोगों की आंखें लाल हो गई हैं, चेहरे तमतमा रहे हैं और जो बात एक दूसरे कर रहे हैं बड़े आदर्श की, वो तो उनके लिए एक आदत है, एक रट है, वे सालों से ये जुमले दुहरा रहे हैं। तो मेरा कहना था, उनके चेहरों के क्लोज अप दिखाओ, भरी हुई प्लेटें दिखाओ, कांटे चम्मच दिखाओ, पूरी स्थिति का विरोधाभास उभरने दो कैमरे की दृष्टि से, पर गोविंद में ये खास बात थी कि वो खुद बड़े ईमानदार थे और कोई गैरईमानदार होगा, ऐसा वो सोच ही नहीं सकते - इसलिये उन्होंने इस तरह नहीं दिखाया।
अनूप कुमार : जिस समय टेलीफिल्मों का दौर चला था उस समय 'वाड़ा चिरेबंदी' पर 'हवेली बुलंद है' नाम से विजय मेहता के निर्देशन में एक टेलीफिल्म दूरदर्शन ने बनाई थी, जो कई बार टेलीकास्ट हुई और काफी लोकप्रिय हुई थी। क्या आपको लगता है मराठी में भी ये प्रयास होना चाहिए- आपके नाटकों के फिल्मांकन का?
महेश एलकुंचवार : 'वाड़ा चिरेबंदी' पर फिल्म किसी को बनाना है तो मुझे उसकी क्षमता पर पूरा विश्वास होना चाहिए। अभी तक कोई सामने आया नहीं है।
अनूप कुमार : आपने स्वयं भी तो अभिनय किया है दादा - आपने 'आक्रोश' में एक छोटी सी भूमिका की और बाद में सुमित्रा भावे और सुनील सुखतनकर ने आपको 'वास्तु पुरुष' की केंद्रीय भूमिका करने के लिए राजी किया - तो आप को ऐसा नहीं लगता कि लगातार अभिनय करते जैसे सतीश आलेकर तो महेश एलकुंचवार लोगो को और समझ में आता?
महेश एलकुंचवार : मुझे अभिनय करने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी - वो दोनों फिल्में जिनमें मैंने काम किया उसमें मुझे लगभग जबरदस्ती से ही भूमिकाएं दे दी गई थीं। मजेदार कहानियां हैं उनकी। गोविंद जब 'आक्रोश' बना रहे थे तो उसमें एक वामपंथी कार्यकर्ता की भूमिका ऑफर की मुझे। उस समय मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, तरुण था मैं, तो गोविंद ने मुझ से कहा महेश मेरे पास पैसे नहीं है किसी पेशेवर एक्टर को देने के लिए, तो तुम ये रोल कर लो प्लीज। तो मैंने कहा कि मैंने जिंदगी में कभी अभिनय नहीं किया पर उन्होंने आग्रह किया कि, महेश तुम यूं ही एंग्री यंग मैन लगते हो। बस आ जाओ कैमरे के सामने और इस तरह मैंने की 'आक्रोश' की वो भूमिका। 'वास्तुपुरुष' जब बन रही थी तो सुमित्रा भावे मेरे पीछे पड़ गई - महेश कर लो ये रोल तुम बिल्कुल इस पात्र की तरह लगते हो - पांच छह सीन होंगे। ज्यादा तो हम जवान भास्कर को ही दिखाएंगे तो मैंने कहा चलो कर लेते हैं। सुमित्रा मेरी पुरानी दोस्त हैं। इसलिए मैंने किया। हालांकि एक्टिंग का ये अनुभव मैंने खास एनज्वाय नहीं किया, सिर्फ दोस्तों के लिए कर दिया। उसके बाद फिल्म एक्टर बनने की मेरी कोई इच्छा नहीं रही।
अनूप कुमार : क्या आपको लगता है कि नागपुर शहर के प्रति जो आपका लगाव है, उसकी कीमत चुकानी पड़ी है आपको? आप पर साहित्य अकादमी की ओर से जो डाक्युमेंट्री मोहित टाकलकर ने बनाई है उसमें इसका मर्मस्पर्श उल्लेख आता है। पर ये जो चयन आपने किया कि आप नागपुर तक ही सीमित रहे तो क्या कभी लगता है आपको कि अगर आप मुंबई या पुणे में सेटल हुए होते तो आपने कैरियर में बहुत कुछ पाया होता?
महेश एलकुंचवार : ये अच्छा प्रश्न पूछा तुमने अनूप। कैरियर जिसे बनाना है वो मुंबई जायेगा। क्या मतलब होता है कैरियर का? तरक्की- किस तरह की तरक्की? पैसे और प्रसिद्धि? मैं मुंबई गया होता तो शायद मुझे प्रसिद्धि और पैसे ज्यादा मिलते और मैं भी शायद काफी विस्तृत लेखन करता गुलजार और जावेद अख्तर जैसा पर ईमानदारी से कहूं तो मेरे कभी दिमाग में भी नहीं आया कि मुझे बहुत सी प्रसिद्धि और पैसा मिले। मुझे नागपुर में रहना था, यहां आराम से मैं लिख रहा था। पढ़ता था और पढ़ाने में भी बहुत रस आता है मुझे। काफी अच्छे विद्यार्थी मिलते थे यहां मुझको। आनंद का मुख्य स्त्रोत था - पढऩा और पढ़ाना और इससे बचा हुआ समय जो होता था और अगर दिमाग में कुछ आया तो मैं लिखता था। लिखना मेरी जिंदगी का बाई प्रोडक्ट रहा है हमेशा। इसीलिए अपने लेखन में मैंने बीच बीच में चार पांच साल के अंतराल भी रखे। अगर मैं कैरिअर बनाता मुंबई जाकर तो हर महीने मुझे लिखना पड़ता, जैसे लेखक लोग जाकर टीवी धारावाहिकों के लिए लिखते हैं। तो इस तरह का मांग पर लिखना मुझे कभी नहीं सुहाया। इस तरह से पैदा हुआ जो प्रोडक्ट है वो साहित्य कहलाने का पात्र भी है क्या?
अनूप कुमार : पर आपके समकालीनों को जैसे गिरीश कर्नाड को भी सामने रख कर कहें तो आपने स्वयं से ही निर्धारित किए हुए एक आत्मनिर्वासन को ओढ़ लिया है जिसके चलते सामाजिकता की स्थापित परिभाषाओं से अलग हटकर आपके जो मूल्य हंै उन मूल्यों से आधिष्ठित रहता हुआ जीवन आपने चुना है - ये भी एक तरह की च्वायस है, जो आज पड़ी अकल्पनीय है। तो उसको लेकर अभी कोई पछतावा नहीं हुआ आपको?
महेश एलकुंचवार : बिल्कुल नहीं। ये मैंने सोच समझ कर किया हुआ निर्णय है, और मैं उससे पूरी तरह संतुष्ट हूं।
अनूप कुमार : विविध अन्र्तराष्ट्रीय भाषाओं में आपके नाटक अनूदित हुए हैं, पढ़े गये हैं पर क्या पश्चिम के दर्शकों तक ये नाटक पहुंचे है?
महेश एलकुंचवार : छोटे पैमानों पर अवश्य होते रहे। वैसे मेरे कुछ नाटकों का एडिनबरा के थियेटर विश्व महोत्सव में नाट्यमय पाठ हुआ था। 'रिफ्लेक्शन्स' नाम से एक नाटक बर्मिंघम में भी हुआ, 'सोनाटा' के ढेर सारे शो अमेरिका में हुए, 'आत्मकथा' का अंग्रेजी भाषांतर अमेरिका में बहुत प्रसिद्ध हुआ। फ्रेंच में 'वाडा चिरेबंदी' का मंचन हुआ, वहां के कुछ जाने माने अभिनेताओं ने उसके फ्रेंच संस्मरण का नाट्यमय पाठ किया - उनके हाथ में कागज थे पर उन्होंने पाठ के साथ अभिनय भी किया। काफी सराही भी गई थी ये प्रस्तुति। पर मुख्य धारा में बड़े पैमाने पर या ब्राडवे में नहीं हुआ ये मंचन। मेरे, गिरीश के और तेंडुलकर के नाटक पश्चिम में विश्वविद्यालयों में ही ज्यादा खेले गए।
अनूप कुमार : अब हिंदी रंगमंच की बात करें, आपके समकालीन नाटककारों जैसे विजय तेंडुलकर, गिरीश कर्नाड को हिंदी रंगमंच पर जितनी जगह मिली, उतनी शायद आपको नहीं मिली। तो क्या आपके नाटकों को अच्छे अनुवादकों का साथ नहीं मिला? उस समय जब राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी रंगमंच का नाट्य आलेखों का बहुत बड़ा अभाव था, उस समय आपके नाटक उतनी संख्या में उपलब्ध नहीं कराए गये। नाट्य विद्यालय की रेपट्री ने इब्राहीम अलकाजी, मोहन महर्षि ब्रजमोहन शाह के युग में तेंडुलकर, गिरीश कर्नाड, मोहन राकेश को ही प्राधान्य मिला। अनुराधा कपूर मात्र आपको केंद्र स्थान पर ले आयी 'वाडा चिरेबंदी' को 'विरासत' के तौर पर प्रस्तुत करके।
महेश एलकुंचवार : बात ये है कि नब्बे के दशक तक विजय तेंडुलकर, गिरीश कर्नाड के नाटक ही आधुनिक हिंदी रंगमंच में ज्यादा मंचित होते थे - बाद में एक वक्त आया कि मेरे नाटक भी मंचित होना शुरु हुए - मेरे काफी नाटक हिंदी में हुए हैं - 'रक्त पुष्प', 'प्रतिबंध', 'वाडा चिरेबंदी' (विरासत), 'गार्बो', 'आत्मकथा' इनके असंख्य मंचन हुए। बांगला में मेरे 7 नाटकों के अनुवाद होकर उनके मंचन भी हुए हैं और सुहाग सेन ने ये नाटक किये, सौमित्रो चटर्जी ने 'आत्मकथा' के दो सौ शोज किये।
अनूप कुमार : 'आत्मकथा' तो यूरोप यूएस में सैकड़ों बार मंचित हुआ है - बहुत सराहा गया है। 'आत्मकथा' की थीम में जो सार्वत्रिकता पाई जाती है, मानवीय स्वभाव का जो सहज निरुपण है, इस वजह से ये नाटक विदेशों में काफी लोकप्रिय हुआ, बनिस्बत 'वाडा चिरेबंदी' के जिसके ज्यादातर संदर्भ बहुत ज्यादा स्थानिक हैं।
महेश एलकुंचवार : ऐसा मुझे नहीं लगता क्योंकि 'वाडा चिरेबंदी' का पाठ जब उन्होंने फ्रेंच में करने का निर्णय किया तो मैंने उनसे पूछा कि तुमने 'प्रतिबिंब' का पाठ क्यों नहीं किया? 'आत्मकथा' क्यों नहीं किया, ये ज्यादा अरबन है, युनिवर्सल है, 'वाडा चिरेबंदी' इतना रुटेड है, इतना देशी है। पर फ्रेंच कलाकारों ने कहा कि नहीं, हमें नहीं लगता ऐसा कि ये नाटक स्थानिक है, उसके चरित्र वैश्विक है और स्थितियां सार्वत्रिक, इसलिए उन्हें 'वाड़ा चिरेबंदी' अच्छा लगा था।
अनूप कुमार : अब आपके गद्य और ललित लेखन की चर्चा करें। आपके ललित निबंध लेखन ने मराठी साहित्य जगत में खूप हलचल मचाई हैं। 'मौन राग' और 'त्रिबंध' में लिखे आपके निबंध बिल्कुल अलग शैली के हैं। उनका पूरे साहित्य जगत में स्वागत हुआ क्योंकि पाठकों के लिए ये बिलकुल नया अनुभव था। इन निबंधों को स्मृतियों का गद्य कहा जाए मतलब संस्मरण, निबंध और कहानी के बीच की विधा, तो ज्यादा ठीक होगा। आपके गद्य का हाल में मंचन भी हुआ है- 'मौन राग' का एकल पाठ जब सचिन खेड़कर करते हैं तो पाड़वा गांव भी उस एकलपाठ नाटक का मानों एक चरित्र हो जाता है। तो कहां से आविष्कार किया आपने गद्य का नवीन रूप? स्मृतियां क्यों महत्वपूर्ण है आपके गद्य में इतनी? क्या उसे कविता या नाटक में व्याप्त करना संभव नहीं था?
महेश एलकुंचवार : ठीक कहते हो तुम। ये सब अनुभव कविता में अभिव्यक्त हो सकता था पर मैं कवि तो हूं नहीं। नाटकों में इसका कुछ अंश ही आ सकता था शायद, पर वो भी पूरी तरह से नहीं। तीसरी बात कि स्मृतियां जैसी वे हैं, वो मेरे लेखन का विषय नहीं है। मैंने जब विश्लेषण किया तो पाया मानवीय जीवन दो चीजों के बीच सतत पिसता रहता है - पूर्व की स्मृतियां या भविष्य की चिंता। पूरा जीवन भूत और भविष्य में ही गुंथा रहता है। हम अपने वर्तमान में नहीं जीते। तो मैं सोचने लगा कि चलो देखते हैं कि जो मैं जो आज हूं, उसे कितना मेरे कल ने, मेरे अतीत ने बनाया हैं। यहीं से वो जिज्ञासा शुरु हो गई जिसे लेकर मैं अपनी स्मृतियों के पास गया, उन्हें देखना जांचना शुरु किया। इस तरह स्मृतियां मेरे लिए आत्मशोध का माध्यम बनीं।
अनूप कुमार : स्मृतियां सच कहें तो बड़ी मनोवैज्ञानिक विषयवस्तु है। फ्रेंज काफ्का ने इसका रचनात्मक उपयोग किया। वर्तमान स्मृतियों से पीडि़त है। मनुष्य उन स्मृतियों से मुक्त होना चाहता है क्योंकि उसके भीतरी दानव कहीं उन स्मृतियों से जुड़े होते हैं। शायद ये प्रक्रिया 'मौन राग में' बहुत अच्छे से घटित होती है, इसलिए 'मौन राग' एकपात्री नाटक एक नये नाट्य प्रकार के तौर पर लोकप्रिय हो रहा है। तो क्या आपको लगता है, कि इस तरह के निबंध आपको और लिखने चाहिए जिनमें इस तरह की नाट्य संभावनाएं हों?
महेश एलकुंचवार : नहीं, मैं नाटकीय संभावनाओं को ध्यान में रखकर तो गद्य लिखता नहीं हूं। मेरे भीतरी अनुभव पूरी सघनता के साथ निबंधों के माध्यम से कैसे बाहर आएं इतनी ही मेरी कोशिश रहती है। अगर उसमें किसी को नाटक की संभावना दिखी तो उसे वे अवश्य मंचित कर सकते हैं। वैसे भी मेरे सभी निबंध तो मंचित नहीं हो रहे। कुछ लोग फिल्में भी बनाना चाहते हैं। 'नेक्रोपोलिस' पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव भी मिला है मुझे। पर मेरे लिए ललित गद्य लेखन सिर्फ गद्य लेखन है, नाट्य संभावना या सिनेमाई तत्व सायास नहीं डाला है मैंने उसमें। पर मुझे खुशी है कि मेरे गद्य लेखन के माध्यम से मैं आज की नई पीढ़ी से ज्यादा जुड़ा हूं। मुझे लगता है कि आज की पीढ़ी के पाठक अमूर्त और सूक्ष्म छवियों से ज्यादा संवेदित होते हैं। वे उन प्रतीकों को ग्रहण भी करते हैं। संवेदन क्षमता का स्तर अब निश्चित ही बढ़ा है। इसलिए 'मौन राग' के मंचन को बड़े प्रेक्षक वर्ग का प्यार मिला है। इस एकल प्रयोग से निबंध के जो अर्थ खुलते हैं वो शायद आज के मनुष्य की खुद की तलाश का माध्यम भी बनते हैं।
अनूप कुमार : 'पहल' के पाठकों से अपनी रचना यात्रा को इतने विस्तार के साथ साझा करने के लिए आपका बहुत अभार।

महेश एलकुंचवार
महेश एलकुंचवार मराठी और भारतीय रंगभूमि के शिखर पुरुष हैं। व्यक्तित्व और कृतित्व में गरिमा और गांर्भीय के ऐसे हिमशिखर, जिस पर उम्र की धूप पडऩे से जैसे धूप की चमक और निखर जाती हो। 9 अक्टूबर 1939 विदर्भ के यवतमाल जिल्हे के पारवा में जन्मे महेश एलकुंचवार विजय तेंडुलकर और गिरीश कर्नाड के साथ भारतीय रंगभूमि को नई राष्ट्रीय पहचान देने के लिए जाने जाते हैं। महेश एलकुंचवार के नाटक पांच दशकों से प्रायोगिक रंगमंच पर देश और विदेश में लगातार मंचित होते रहे हैं। गिरीश कर्नाड, जिन्होंने एलकुंचवार के पांच नाटकों का कन्नड अनुवाद किया हैं, इनके नाटकों में मौन और अंतराल को मंचन की सबसे बड़ी चुनौती मानते है। इब्राहीम अल्काजी, विजय मेहता, डॉ. श्रीराम लागू, सत्यदेव दुबे और अनुराधा कपूर जैसे दिग्गज निर्देशकों ने महेश एलकुंचवार की नाट्यकृतियों को निर्देशित किया हैं।
'सुल्तान' (1967) से 'सोनाटा' (2000) तक पांच दशकों में बिखरी उनकी नाट्यरचनाएं मराठी और भारतीय नाट्य परंपरा में मील का पत्थर सिद्ध हुई हैं। उनकी नाट्यत्रिधारा या त्रयी 'वाडा चिरेबंदी', 'मग्न तल्याकाठी', एवं 'युगांत' जिसमें 'वाडा चिरेबंदी' का हिंदी, बांगला, कन्नड, अंग्रेजी और फ्रेंच में भी भाषांतर होकर विश्वस्तर पर चर्चित नाटक रहा है। वाडा त्रयी सिर्फ नाटक ही नहीं, प्रायोगिक रंगभूमि पर स्वातंत्र्योत्तर भारत के सामाजिक परिवर्तनों का आख्यान प्रस्तुत करनेवाला अत्यंत महत्वपूर्ण प्रयोग भी है। 'वाडा चिरेबंदी' त्रयी के अलावा 'होली', 'गार्बो', 'यातनाघर', 'वासनाकांड', 'पार्टी', 'रक्तपुरुष', 'प्रतिबिंब', 'वांसासि जीर्णानि', और 'आत्मकथा', 'सोनाटा', ऐसे कुल इनके बीस से अधिक चर्चित नाटक महेश एलकुंचवार के सिर्फ मराठी नहीं अपितु संपूर्ण भारतीय रंगभूमि को दी हुई मूल्यवान देन हैं।
समांतर सिनेमा में भी इनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उनके नाटकों पर केतन मेहता ने 'होली' (1984), गोविंद निहलानी ने 'पार्टी' (1986) और अपर्णा सेन ने 'सोनाटा' (2017) फिल्में बनाई। 'आक्रोश' में एक छोटी सी भूमिका के अलावा इस बहुमुखी प्रतिभासंपन्न कलाकार ने राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त सुमित्रा भावे, सुखथनकर निर्देशित 'वास्तुपुरुष' (2002) की केंद्रीय भूमिका भी की है। महेश एलकुंचवार ने 2006 के बाद बहुत अनूठा ललित लेखन भी किया है और मराठी गद्य लेखन में एक नया मुहावरा सृजित किया। 'मौनराग', 'त्रिबंध' व समीक्षा पुस्तक 'पश्चिम प्रभा' इनके निबंधों और समीक्षा लेखों का संग्रह। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस ने 'कलेक्टेड प्लेस ऑफ महेश एलकुंचवार' में इनके नाटकों का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया हैं।
उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (2002), सरस्वती सन्मान (2002), नागभूषण पुरस्कार (2009), जनस्थान पुरस्कार (2011), पु.ल. स्मृती पुरस्कार (2013) और हाल में संगीत नाटक अकादमी की सर्वोच्च फेलोशिप से सम्मानित किया गया हैं।
श्री महेश एलकुंचवार एक कठोर अनुशासनप्रिय एवं अंतर्मुख व्यक्तित्व हैं। एक सतत साधनारत साधक सी सधी हुयी दिनचर्या में स्वयं को बांध रखते हैं। मात्र 'पहल' के पाठकों के लिए श्री अनूप कुमार से की गई इस उन्मुक्त बातचीत में उन्होंने अपने नाट्यलेखन की रचना प्रक्रिया, नाटक और रंगमंच के अंतर्संबंध, प्रायोगिक रंगभूमि में उनके योगदान और अपनी पांच दशक की रचनायात्रा को खुलकर साझा किया है।

अनूप कुमार एक लोक सेवक के साथ वरिष्ठ कवि, विचारक और संस्कृति कर्मी हैं। आ•ाादी के दिन 1964 में जन्म। इलाहाबाद में राज़नीति विज्ञान से और जे.एन.यू. से एम.फिल. के बाद 1990 से भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत। दो कविता संग्रह, हरी काई वाली झील (1991) और बसंत खोलती हुई चिडिय़ा (2006) प्रकाशित। पहल में कविताएं छप चुकी हैं। पिछले बीस वर्षों से नाटक, सिनेमा और संगीत पर लगातार लेखन। महेश एलकुंचवार से 1987 से परिचय। फिलहाल नागपुर संभाग के आयुक्त और कुछ समय नागपुर विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति भी रहे।
यह बातचीत महेश एलकुंचवार के धरमपेठ निवास पर दो बार में संपन्न हुई है।
संपर्क - मो. 09868898277, नागपुर




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