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जनवरी 2018

सौ साल पहले; चंपारण का गांधी

सूरज पालीवाल

चंपारण की शताब्दी गाथा
शताब्दी गाथा



चंपारण में किसान आंदोलन के सौ साल 

'सौ साल बाद' चंपारण का गांधी' उपन्यास सुजाता चौधरी ने ऐसे समय लिखा जब पूरा देश चंपारण आंदोलन के सौ वर्ष धूमधाम से मना रहा है।  यह उपन्यास न केवल चंपारण के गांधी राजकुमार शुक्ल की संघर्ष गाथा है अपितु पूरे चंपारण के किसानों की दयनीय स्थिति और नीलवर अंग्रेजों द्वारा उनके अमानवीय शोषण का मार्मिक लेखाजोखा भी है। ठीक सौ वर्ष पहले चंपारण के किसानों की जो दुर्गति थी उससे मुक्ति का रास्ता उस समय राजकुमार शुक्ल को भी पता नहीं था। अंग्रेज नीलवरों की दृष्टि में वे मनुष्य ही नहीं थे, वे उन्हें जानवरों की तरह यातना देते थे। सुजाता ने राजकुमार शुक्ल की भावुकता के साथ इस उपन्यास को बुना है, भावुकता किसी भी कृति के लिये अच्छी नहीं मानी जाती। लेखक की तटस्थता ही कृति को बड़ा बनाती है। लेकिन 'गोदान' और 'मैला आंचल' के कई प्रसंगों में प्रेमचंद और रेणु भावुकता में बहते नजर नहीं आते? वे बड़े लेखक हैं इसलिये कहा जाता है कि लेखक को कहां और कितना बोलना है, यह गुर प्रेमचंद से सीखना चाहिये। सुंजाता न प्रेमचंद हैं और न रेणु लेकिन वे जिस समस्या और कालावधि को लेकर आई हैं, उससे उनकी समझ पर भरोसा होता है। सौ साल पहले चंपारण में किसान नीलवर अंग्रेजों के शोषण और अत्याचारों को जिस प्रकार झेल रहे थे, वह अध्याय आज के समय में कैसे और कितना प्रासंगिक हो सकता है, यह विवेक सुजाता के पास है और वे उसका इस्तेमाल राजकुमार शुक्ल की भावुकता के माध्यम से करती हैं। भावुकता राजकुमार शुक्ल को संवेदनशील बनाये रखती है, वे केवल अपनी ही लड़ाई नहीं लड़ते बल्कि पूरे चंपारण को अंग्रेजों के शोषण से मुक्त कराने का संकल्प भी लेते हैं । चंपारण की 19 लाख जनता के वे प्रतिनिधि बनते हें और अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों से न घबड़ा कर किसानों के सुख-दुख के साथी बनते हैं। दृष्टव्य है कि महात्मा गांधी जब कांग्रेस के सम्मेलन में भाग लेकर दुबारा दक्षिण अफ्रीका गये तब अंग्रेज अधिकारी ने कहा कि आप दिन में नहीं रात के अंधेरे में पानी के जहाज से उतरें तो आप सुरक्षित रहेंगे। कहना न होगा कि कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका के जो अनुभव सुनाये थे उनसे वहां के शासक अंग्रेज बहुत नाराज थे। अंधेरे में उतरने की सलाह गांधी जी ने नहीं मानी और दिन में उतरकर चल दिये। बीच रास्ते में उनको पीटा गया लेकिन उन्होंने मुकदमा दायर करने से साफ मना कर दिया और कहा कि यदि मेरे भारतीय भाइयों के साथ ऐसा होता तो मैं निश्चित ही मुकदमा दायर करता लेकिन अपने ऊपर होने वाले किसी भी अत्याचार का प्रतिरोध वे नहीं करेंगे। राजकुमार शुक्ल भी अपनी व्यक्तिगत लड़ाई से ऊपर उठकर चंपारण की 19 लाख जनता की लड़ाई लड़ते हैं। व्यक्तिगत लड़ाई आदमी को कमजोर और आत्मकेंद्रित बनाती है। राजकुमार शुक्ल के संदर्भ में सुजाता ने उन प्रसंगों को चुना है जो शुक्लजी को निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर सामाजिक कार्यकर्ता और पूरे चंपारण का हितैषी बनाते हैं।
लगभग सौ पृष्ठ तक उपन्यास राजकुमार शुक्ल और अन्य किसानों पर अंग्रेजों के अत्याचारों का लेखा-जोखा है । पृष्ठ 103 पर वे संकल्प लेते हैं कि 'इसी स्थान का था चाणक्य, मैं भी उसी का वंशज हूं। नंदवंश को उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा करता हूं। जब तक महात्मा गांधी स्वयं आकर इस स्थल का निरीक्षण नहीं कर लेंगे और अंग्रेज चंपारण छोड़कर नहीं चले जायेंगे... इस घर की मरम्मत नहीं कराऊंगा।' यह संकल्प तब लिया गया जब अंग्रेज एमन ने उनका घर तोड़-फोड़ दिया और खड़ी फसल नष्ट कर दी। यह दुखी मन की अभिव्यक्ति है, निराश मन की नहीं। निराशा तोड़ती है, मन को कमजोर करती है और संकल्प को धुंधलाती है। सब कुछ खोकर भी राजकुमार शुक्ल निराश नहीं हैं इसीलिये वे चाणक्य को याद करते हैं। यशस्वी और संकल्प के धनी पूर्वज ऊर्जा प्रदान करते हैं, घनघोर अंधेरे में उजाले का काम करते हैं और इतिहास से उतरकर वर्तमान का सृजन करते हैं। चाणक्य का संकल्प सामान्य नहीं था, महाशक्तिशाली नंदवंश को उखाड़ फेंकना आसान काम नहीं था, उसी तरह अंग्रेजों को चंपारण से बाहर कर देना भी राजकुमार शुक्ल जैसे सामान्य से आदमी के लिये सरल नहीं था। पर अंग्रेजों के अत्याचारों ने उनके संकल्प को लगातार मजबूत किया इसलिये वे गांधीजी को पत्र लिखकर चंपारण आने के लिये आमंत्रित करते हैं, केवल अपने दुखों को दिखाने के लिये नहीं बल्कि पूरे चंपारण के किसानों के दुख-दर्द को प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिये। वे बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिये पत्र अपने साथी पीर मुहम्मद से लिखवाते हैं- 'मान्यवर महात्मा, किस्सा सुनते हो रोज औरों के, आज मेरी भी दास्तां सुनो। आपने उस अनहोनी को कार्यरूप में परिणत कर प्रत्यक्ष दिखलाया जिसे टाल्सटाय जैसे महात्मा केवल विचार करते थे। इसी आशा एवं विश्वास के वशीभूत होकर हम आपके निकट अपनी रामकहानी सुनाने के लिये तैयार हैं। हमारी दुखभरी गाथा दक्षिण अफ्रीका के उस अत्याचार से, जो आप और आपके अनुयायी वीर सत्याग्रही बहनों और भाइयों के साथ हुआ, कहीं अधिक है।
हम अपना वह दुख जो यहां की उन्नीस लाख आत्माओं के हृदय पर बीत रहा है-सुना कर आपके कोमल हृदय को दुखित करना उचित नहीं समझते। बस केवल इतनी-सी प्रार्थना है कि आप स्वयं आकर अपनी आंखों से देख लीजिये, तब आपको अच्छी तरह विश्वास हो जायेगा कि भारतवर्ष के एक कोने में यहां की प्रजा जिसको ब्रिटिश राज की शीतल छाया में रहने का अभिमान प्राप्त है-किस प्रकार के कष्ट सहकर पशुवत् जीवन व्यतीत कर रही है। हम और अधिक नहीं लिखकर आपका ध्यान उस प्रतिज्ञा की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं-जो लखनऊ कांग्रेस के समय, फिर वहां से लौटते समय कानपुर में आपने की थी अर्थात् मैं मार्च-अप्रेल महीने में चंपारण आऊंगा। बस अब समय आ गया है, श्रीमान अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करें। आपका दर्शनाभिलाषी, राजकुमार शुक्ल।' लखनऊ अधिवेशन में गांधी जी से मिलकर राजकुमार शुक्ल का यह विश्वास और दृढ़ हो गया था कि चंपारण की मुक्ति केवल गांधी जी ही कर सकते हैं। उनके मन में यह विश्वास का दीपक 'प्रताप' के प्रतापी संपादक शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी ने जगाया था। बेचैन और दुखी राजकुमार शुक्ल को उन्होंने चंपारण की मुक्ति का मंत्र देते हुये कहा था कि 'एक व्यक्ति है जो आपको इससे मुक्ति दिला सकता है। उसका हृदय दीन दुखी जनों के लिये धड़कता है, अन्याय का विरोध करना उसका स्वभाव है और सत्यारूढ़ रहना उसका जीवन। दक्षिण अफ्रीका में उसने जनरल स्मटस जैसे ताकतवर को सत्य के सामने पराजित करके पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया है। आजकल वह भारत आया हुआ है...। किसी भी तरह उनसे मिलकर अपनी व्यथा आप उन्हें सुना सकें तो आपकी मुक्ति अवश्यंभावी है।... नाम तो मोहनदास करमचंद गांधी है... काम बैरिस्टर का करता है किंतु है पूरा महात्मा।' महात्मा गांधी पर विश्वास इसलिये भी दृढ़ हुआ कि महामना मालवीय और लोकमान्य तिलक तक ने किसानों की समस्या सुनने से मना कर दिया था। लखनऊ अधिवेशन में वे बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद के साथ सबसे पहले मालवीय जी और तिलक जी से मिलने गये थे पर उन्होंने एकदम मना कर दिया 'अभी समय इन बातों में उलझने का नहीं है। हमारा एकमात्र लक्ष्य है स्वराज्य और लक्ष्य प्राप्ति में भटकाव बहुत बड़ा बाधक है। स्वराज्य आने से सारी समस्याओं की स्वत: समाप्ति हो जायेगी... तिलक कमरे में चले गये।' राजकुमार शुक्ल दुखी हुये, सोचा इतने बड़े नेता और इतना भव्य व्यक्तित्व पर किसानों की चिंता बिल्कुल भी नहीं। आजादी मिलने तक चंपारण में कितने किसान अंग्रेजों के अत्याचार के कारण घर-बार छोड़ चुके होंगे, कितने गरीबी और कर्ज में दबकर ढेर हो चुके होंगे? शुक्ल जी ठेठ गांव के थे। गंवई जीवन में कहा जाता है कि रोग आज है तो उसका इलाज अभी होना चाहिये, टालने से रोग बढ़ता है। पर बड़े नेताओं को यह बात क्यों नहीं समझ में आती? उन्होंने बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद से बापू से मिलाने के लिये आग्रह किया, वे दोनों मिलने गये और बापू मिल भी गये। चंपारण का नाम सुनते ही गांधीजी ने कहा 'चंपारण कहा है?' उन्होंने बताया और अपना दुख भी बयान किया 'क्या सुनाऊं सरकार? विपदा का पहाड़ पूरे चंपारणवासियों के सिर पर टूट पड़ा है। पूरी दुनिया में इतने अत्याचार कहीं नहीं होते होंगे जितने चंपारण में हो रहे हैं। हमारे सांस लेने पर भी टैक्स लगा हुआ है। राजकुमार शुक्ल का गला अवरुध्द हो गया।' गांधी जी ने कहा 'हिम्मत रखिये, किस तरह से टैक्स लगाये जाते हैं, उदाहरण देकर बता सकते हैं।' राजकुमार शुक्ल ने बताया 'हुजूर, इतने उदाहरण हैं कि गिनना भी मुश्किल है। बस एक सुन लीजिये। एक निलहे साब को घाव हो गया, उसकी चिकित्सा पर जितना भी खर्च बैठा, सभी किसानों के मत्थे 'घवही टैक्स' के रूप में बिठा दिया। कोई भी काम हम लोग बिना टैक्स दिये नहीं कर सकते। और टैक्स दें भी तो कहां से? हमारी धरती को नील की खेती द्वारा ऊसर बना दिया है...। तीन कठिया... तो सिर्फ नाम का है, एक बीघे में तीन क_ा नील बोने से पूरी धरती ऊसर हो जाती है। प्रत्येक साल तीन क_े की जमीन बदल जाती है।' सुजाता लिखती हैं 'गांधी जी की आंखों मेंं आंसू डबडबा गये । धरती किसान की मां है। उसकी मां की ऐसी दुर्दशा रहेगी तो उनके पुत्रों का बेहाल होना स्वाभाविक है।' 
राजकुमार शुक्ल ने महात्मा गांधी की आंखों में सहज विश्वास देखा था। आश्चर्य है कि इससे पहले गांधी जी ने चंपारण का नाम तक नहीं सुना था पर राजकुमार शुक्ल की वेदना से वे व्यथित हुये और चंपारण आने का निमंत्रण स्वीकार किया। सुजाता ने लिखित दस्तावेजों तथा लोक में व्याप्त संस्मरणों के आधार पर उपन्यास को बुना है। सौ साल पहले की घटनाएं तब किस रूप में चंपारण में व्याप्त थीं नहीं कहा जा सकता लेकिन सौ साल बाद समय की धार ने इन्हें और चमका दिया है। राजकुमार शुक्ल जैसे बेचैन किसान कार्यकर्ता का व्यक्तित्व और उदार तथा भव्य रूप में निखरकर सामने आता है। किसानों की समस्याएं आज भी कम नहीं हुई हैं। पहले अंग्रेज नीलवरों के कारण और आज सरकारी नीतियों के कारण किसान बेहाल है। सौ साल पहले गांधी जी जैसे बड़े नेता सब कुछ छोड़कर चंपारण में आकर बैठ गये तो सारे बड़े नेता अपने आप खिंचे चले आये। आज ऐसा कौन नेता है जो किसानों की समस्याओं पर विचार कर उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनके अधिकारों के लिये लडऩे को तैयार है। अभी जून में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन हुये। महाराष्ट्र में कांग्रेस और अन्य प्रगतिशील राजनीतिक दल केवल नेग करने के लिये वक्तव्य देते रहे, लेकिन किसानों के बीच आकर जेल जाने, डंडा-लाठी खाने तथा धूप में बैठकर किसानों का साथ देने के लिये कोई भी तैयार नहीं हुआ। मध्य प्रदेश के मंदसौर में बड़ा किसान आंदोलन हुआ, पुलिस की गोली से 6 किसान मारे गये, जिला कलेक्टर को सरेआम जनता ने पीटा लेकिन उनका नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पुराना कार्यकर्ता कर रहा था। भारतीय जनता पाटी और संघ तो एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। कांग्रेस के युवराज आये भी तो कुछ दिनों बाद जब आंदोलन धधक रहा था तब ननिहाल इटली चले गये। उनकी इस समझ को क्या कहा जाये कि जनता के आंदोलनों को इस प्रकार बीच में छोड़कर नहीं जाया जाता। विशेषरूप से ऐसे समय में जब विपक्ष में कांग्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण थी। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री का मुंह सूख गया था, सारी चालाकियां सामने आ गई थीं, किसानों को बहलाने-फुसलाने से लेकर तमाम तरह के प्रलोभनों के सामने किसान झुकने को तैयार नहीं थे लेकिन जब उन्होंने देखा उनका कोई नेता नहीं है या कोई राजनीतिक दल उनका नेतृत्व करने को तैयार नहीं हैं, तब चुपके से मीडिया ने सरकारी इशारे से उनकी खबर लेनी बंद कर दी  और आंदोलन कब समाप्त हो गया, किसी को पता नहीं चला। यह बड़े किसान आंदोलन की भ्रूण हत्या है, जो सबल नेतृत्व के अभाव में हुई। चंपारण का महत्व इसलिये भी अधिक है कि आज किसानों की वही दुर्दशा है, उन्हें लागत मूल्य भी नहीं मिल रहा है । अभी हाल ही में बुंदेलखंड में सरकार के मंत्री जी ऋण माफी के प्रमाण पत्र बांटने गये, किसानों को जिला मुख्यालय बुलाया गया जिसमें उनके सौ-दो सौ रुपये खर्च हुये और जब प्रमाण पत्र देखा तो किसी के चैरासी पैसे तो किसी के नब्बे पैसे माफ  किये गये। किसान देखकर भौंचक और दुखी हुये। लेकिन मंत्री ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की। मीडिया ने एक दिन इस मसले को उठाया और दूसरे दिन इस पर कोई चर्चा नहीं की। विपक्ष तो अवसादग्रस्त है ही इसलिये उसके कानों पर कोई जूं तक नहीं रेंगती। वाम दलों का कोई अस्तित्व जनता के बीच नहीं है इसलिये वे दिल्ली और प्रदेशों की राजधानियों में काफी हाउस की राजनीति या स्थानीय अखबारों में वक्तव्य देने तक सीमित रहते हैं। कर्नाटक की वरिष्ठ पत्रकार गोरी लंकेश की हत्या पर जब मैंने एक वाम संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता से पूछा कि आपने क्या किया तो उन्होंने कहा आज मेरा लंबा वक्तव्य अखबार में छपा है और मैंने इसकी कठोर शब्दों में निंदा की है।
राजकुमार शुक्ल के अनुरोध पर दि. 9.4.1917 को दोपहर बाद गांधी जी हावड़ा से पटना गये थे। सुजाता ने इस घटना को महत्वपूर्ण मानते हुये गांधी जी की डायरी को उध्दृत किया है  'कहां जाना, क्या करना और क्या देखना इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। यहां कलकत्ता में मेरे पहुंचने के पहले शुक्ल जी ने भूपेंद्र बाबू के घर डेरा डाल दिया है। इस अपढ़, अनगढ़ परंतु निश्चयवान किसान ने मुझे जीत लिया।'  निश्चयवान आदमी लिजलिजा नहीं होता, वह दृढ़ प्रतिज्ञ होता है, उस लक्ष्य को पाये बिना वह इधर-उधर हिलता-डुलता नहीं है। गांधी जी ने शुक्ल जी की सही पहचान की थी। एक और महत्वपूर्ण प्रसंग की ओर सुजाता ने ध्यान दिलाया है 'हावड़ा स्टेशन पर हरिलाल ने अपने पिता गांधी के हाथ में हावड़ा से पटना जाने के लिये दो टिकट रखीं'। राजकुमार शुक्ल के संदर्भ में देखें तो यह बड़ी और महत्वपूर्ण घटना है। दूसरी टिकट राजकुमार शुक्ल की। गांधी जी अन्य नेता और वकीलों की तरह अपनी टिकट दूसरों से नहीं खरीदवाते थे बल्कि अपनी और अपने साथी की टिकट का प्रबंध भी वे स्वयं करते थे। यह उनका बड़प्पन है इसलिये यह प्रसंग महत्वपूर्ण है। सुजाता ने हावड़ा स्टेशन से गाड़ी चलने का समय भी रेखांकित किया है, जबकि बाबू राजेंद्र प्रसाद ने अपनी चर्चित पुस्तक 'चंपारन में महात्मा गांधी' में समय उध्दृत नहीं किया। इतिहास और साहित्य में यही अंतर होता है। सुजाता लिखती हैं 'रेलगाड़ी खुल रही थी। प्लेटफार्म पर हाथ हिला रहे थे भूपेंद्र नाथ बसु, हरिलाल और पूरा हुजूम...। गांधी जी अपनी घड़ी देख रहे थे, तीन बजकर छब्बीस मिनट।' दूसरे दिन यानी 10 अप्रेल, 1917 को गांधीजी राजकुमार शुक्ल के साथ बांकीपुर-पटना पहुंचे। शुक्ल जी के पास उन्हें ठहराने की कोई व्यवस्था नहीं थी इसलिये वे बाबू राजेंद्र प्रसाद के डेरे पर लेकर गये। कहना न होगा कि राजेंद्र बाबू उस समय पटना के बड़े वकीलों में गिने जाते थे। कहा जाता है कि जब वे चंपारण गये तब भी उनके साथ तीन नौकर थे हालांकि इस प्रसंग का उपन्यास में कोई जिक्र नहीं है। नहीं है तो इससे कथा कमजोर नहीं पड़ती इसलिये भी कि दूसरा प्रसंग जिसका उल्लेख उपन्यास में है, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है । शुक्ल जी को लगा कि राजेंद्र बाबू बड़े वकील हैं इसलिये उनके डेरे पर लेकर चलना चाहिये। यह आश्चर्य की बात है कि उन्हें गांधी जी बहुत बड़े और चमत्कारी तो लग रहे थे लेकिन जिस महात्मा को वे पूरे चंपारण का उध्दारक मान रहे थे, उनके ठहरने की कोई व्यवस्था पहले से उनके मन में नहीं थी। वे यह तो जानते ही थे कि बड़े आदमी को बड़े आदमी के घर ही ठहराया जा सकता है इसलिये वे राजेंद्र बाबू के डेरे पर लेकर गये। राजेेद्र बाबू कलकत्ता से सीधे पुरी चले गये थे और कलकत्ते में गांधी जी के बिहार जाने की किसी को सूचना नहीं थी, राजेंद्र बाबू को भी नहीं। शुक्लजी ने किसी को बताया तक नहीं, केवल सीधे लेकर चले आये। राजेंद्र बाबू को यदि पता होता तो वे पूरी यात्रा स्थगित भी कर सकते थे। राजेंद्र बाबू ने अपनी पुस्तक 'चम्पारन में महात्मा गांधी' में लिखा 'इन सब बातों की खबर इस समय बिहार में किसी को नहीं थी। यहां तक कि अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में, जहां महात्मा जी गये थे, बिहार के कुछ सज्जन उपस्थित थे, पर किसी को इनके इसी यात्रा में बिहार आने की सूचना न रहने के कारण किसी ने महात्मा जी से इसके विषय में कुछ बातचीत न की। राजकुमार शुक्ल से भी किसी की भेंट नहीं हुई कि जिनसे सब बातें मालूम होतीं।' इस घटना से न केवल राजकुमार शुक्ल का सीधापन उजागर होता है अपितु गांधीजी की सहजता भी उभरकर आती है । वे प्रत्येक घटना को चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो अपनी डायरी में लिखते थे, जिससे मिलना हो, जहां मिलना हो उसकी सूचना चिट्ठी या तार से तुरंत देते थे। पर राजकुमार शुक्ल का साथ उन्हें ऐसा भाया कि पटना जाने की सूचना किसी को देना उचित नहीं समझा। शुक्लजी बड़े विश्वास के साथ उन्हें राजेंद्र बाबू के डेरे पर लेकर गये तो नौकर ने उन्हें गांव के मुवक्किल की तरह बाहर ठहरा दिया। सुजाता लिखती हैं 'राजेंद्र प्रसाद का बेचारा सेवक अपनी नौकरी खतरे में तो नहीं डाल सकता। जिनको जानता नहीं उन्हें अंदर के मेहमानखाने में ठहरने की बात तो छोड़ दें, उसका शौचालय इस्तेमाल करने देने के लिये भी राजी नहीं हुआ। राजकुमार शुक्ल ने बड़ी आत्मीयतापूर्वक पूछा-क्या तुम मुझे नहीं पहचानते? -अच्छी तरह पहचानता हूं ... मुवक्किलों के लिये अंदर का शौचालय उपयोग करने की इजाजत नहीं है, सेवक बेचारा क्या करता उसे तो जो आदेश मिला था उसका पालन कर रहा था। राजकुमार शुक्ल ने हार नहीं मानी। समझाते हुये पुन: कहा, देखिये मैं मुवक्किल अवश्य हूं परंतु हमारे साथ जो व्यक्ति हैं स्वयं बहुत बड़े बैरिस्टर हैं, तुम्हारे साहब से भी बड़े...। यदि तुम्हारे मालिक को पता चला कि तुमने इन्हें मेहमानखाने में नहीं ठहरने दिया, यहां तक कि उसके गुसलखाने का उपयोग नहीं करने दिया तो तुम्हीं पर नाराज होंगे।' नौकर ने कहा 'ऐसे बहुत सारे मुवक्किल आते हैं जो मुवक्किलों के लिये बनाये गये कमरे में न रहना चाहते हैं और न उसके शौचालय का उपयोग करना चाहते हैं पर मैं झांसे में नहीं आता... पहले आ जाता था अब समझदार हो गया हूं, समझदारी से अपनी गर्दन टेढ़ी करते हुये सेवक ने कहा।' राजकुमार शुक्ल को निरुत्तर देख गांधी जी चुप रहे और अपनी डायरी में लिखा 'इन सेवकों को यह भी नहीं पता कि मैं किस जाति का हूं फिर भी मेरी बाल्टी के पानी से गिरी बूदें उन्हें दूषित कर सकती थीं। राजकुमार शुक्ल ने मुझे अंदर के शौचालय में जाने के लिये कहा किंतु सेवक ने बाहर का शौचालय दिखा दिया। यह सब मेरे लिये आश्चर्य या क्षोभ का विषय नहीं है क्योंकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। बेचारे सेवक की क्या गलती है ? वे तो वैसा ही कर रहे हैं जैसा उनकी समझ में राजेंद्र बाबू चाहते हैं। लेकिन इन मनोरंजक अनुभवों ने राजकुमार शुक्ल के प्रति मेरा सम्मान बढ़ा दिया है और उन्हें बेहतर समझने की योग्यता भी मेरे अंदर बढ़ रही है। अब यह निर्णय लेने की स्थिति आ गई है कि अब अपने मार्गदर्शन के लिये स्वयं तैयार होना होगा।'
10 अप्रेल की शाम की गाड़ी से गांधी जी मुजफ्फपुर पहुंचे, जेबी कृपलानी वहां एक कालेज में पढ़ाते थे। गांधी जी ने उन्हें तार द्वारा अपने आने की सूचना दे दी थी, इसलिये वे उन्हें लेने स्टेशन पर आये। 12 अप्रेल को गांधीजी ने सावधानी बरतते हुये तिरहुत के कमिश्नर एल.एफ. मोशेज़्ड को अपने आने का कारण और उद्देश्य स्पष्ट करते हुये पत्र लिखा 'नील की खेती करने वाले हिंदुस्तानियों के विषय में बहुत-सी बातें सुनकर, जहां तक संभव हो, मैं उनकी असली हालत का पता लगाने के लिये यहां आया हूं। मैं इस काम को, स्थानीय सरकारी कर्मचारियों की जानकारी तथा उनके सहयोग से, यदि मिल सके, तो करना चाहता हूं। मैं इस विषय में आपसे मिलना चाहता हूं ताकि मैं इस जांच के विषय में अपने विचार आपके सामने प्रस्तुत कर सकूं और जान सकूं कि स्थानीय सरकारी कर्मचारियों से मुझे अपने कार्य में कोई सहायता मिल सकती है या नहीं।' गांधी जी वकील थे इसलिये कोई ऐसी कमी नहीं छोडऩा चाहते थे जो बाद में उनके काम में बाधा उत्पन्न करे। मोर्शेड ने मिलने का समय तो दिया लेकिन चंपारण के जिला कलेक्टर को पत्र लिखकर धारा 144 लगाने और गांधी जी को जिला छोड़ देने का आदेश भी दिया। मोर्शेड ने अपने पत्र में लिखा 'मि. गांधी आये हुये हैं और यह कहते हैं कि उनका आना लोगों के बहुत अनुरोध के कारण हुआ है कि जिसमें वे यह देख सकें कि हिंदुस्तानी नील के खेतों में किस प्रकार काम करते हैं। और, वे स्थानीय कर्मचारियों की सहायता चाहते हैं। वे आज सवेरे मुझसे मिले थे और मैंने उन्हें बता दिया कि रैयतों और नीलवरों के संबंध पर सरकार की दृष्टि सन् 1860 ई. से ही चली आती है और आजकल हम लोग उसी समस्या को हल करने में विशेष रूप से लगे हुये हैं, पर इस बीच में किसी अजनबी के पडऩे से काम बिगडऩे का भय है। मैंने उनको समझा दिया और उनसे यहां बुलाये जाने का सबूत मांगा और यह कहा कि इस विषय में गवर्नमेंट से राय लेने की आवश्यकता हो सकती है। यही धारणा थी कि मित्र गांधी चंपारन जाने से पहले मुझको सूचना देंगे पर अब मालूम हुआ है कि वह आंदोलन करने के अभिप्राय से न कि सच्ची बात की खोज करने के लिये, यहां आये हैं और हो सकता है कि वह बिना खबर दिये ही वहां चले जायें। मेरे खयाल में उनके चंपारन जाने से शांतिभंग होने का डर है और इसलिये मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि वह यदि वहां जायें तो 144 धारा के अनुसार उन्हें तुरंत जिला छोड़ देने की आज्ञा दीजिये।'
राजेंद्र प्रसाद- चंपारण में महात्मा गांधी
15.4.1917 को दोपहर बाद गांधी जी रेल से मोतिहारी पहुंचे और 16.4.1917 को वे जसवलीपट्टी में किसानों के दुख-दर्द सुनने के लिये चल दिये। बीच रास्ते में ही दरोगा ने उन्हें कलेक्टर से मिलने के लिये कहा। गांधी जी तुरंत मान गये और बैलगाड़ी पर सवार होकर मोतिहारी के लिये लौट लिये पर साथियों को जसवलीपट्टी में अपना काम शुरू करने के लिये कहकर गये। कुछ दूर चलने पर टमटम पर आते हुये डिप्टी सुपरिन्टेंड मिले और उन्हें कलेक्टर का नोटिस दिया 'चूंकि इस डिवीजन के कमिश्नर के पत्र से, जिसकी नकल इसके साथ भेज रहा हूं, ऐसा मालूम हुआ है कि आपकी उपस्थिति से इस जिले में शांतिभंग और प्राणहानि होने का डर है, इसलिये आपको हुक्म दिया जाता है कि आप पहली गाड़ी से चंपारन छोड़कर चले जायें।' गांधीजी जिस बात को समझाने की कोशिश कर रहे थे, उसे अंग्रेज अधिकारी समझने के लिये तैयार ही नहीं थे। कलेक्टर ने गांधीजी के मोतिहारी पहुंचने की खबर कमिश्नर को दी और कमिश्नर ने एक लंबी रिपोर्ट तैयार कर बिहार सरकार को भेज दी जिसमें गांधी जी के विरुध्द भारत रक्षा कानून, 1915 की धारा भी लगाने की बात कही। गांधीजी ने सरकार की ओर से कोई सम्मन न मिलने के कारण फिर से देहात जाने के लिये लिखा, जिसके उत्तर में जिला मजिस्ट्रेट ने उन्हें पत्र लिखकर सूचना दी कि उनके विरुध्द सब-डिवीजनल अफसर की कचहरी में एक मुकदमा दायर किया गया जिसकी सुनवाई 18.4.1917 को है, जिसमें उनकी उपस्थिति अनिवार्य है । गांधीजी ने पत्र पढ़ा और उनके जेल जाने की स्थिति में भी साथियों से आगे की कार्यवाही जारी रखने की बात कही। 17-18 अप्रेल की पूरी रात गांधी जी लोगों को टेलिग्राम देते रहे और फिर नोटिस का उत्तर लिखने लगे। उस रात वे बिल्कुल भी नहीं सोये। 18 अप्रेल, 1917 चंपारन के इतिहास में विशेष दिन था। बाबू राजेंद्र प्रसाद ने लिखा 'ता. 18.4.17 चंपारन के इतिहास में ही नहीं, वरन् भारतवर्ष के वर्तमान इतिहास में एक बड़े महत्व का दिन है। आज जगद्विख्यात सर्वश्रेष्ठ न्यायकारी एवं प्रतापी राजर्षि राजा जनक के देश में आकर वहां की दरिद्र एवं दुखी तथा जीवन-रहित प्रजा के हित के लिये महात्मा गांधी जेल जाने की तैयारी कर रहे हैं। आज ही भारत के वर्तमान इतिहास में सत्याग्रह का एक पवित्र एवं ज्वलंत उदाहरण मिलने वाला है, जिससे समस्त भारतवर्ष की आंखें खुलने वाली हैं।' भारतवर्ष में सत्याग्रह का यह पहला प्रयोग था, ताकतवर अंग्रेजों के सामने अहिंसा और सत्याग्रह के द्वारा अपनी बात मनवाने के लिये गांधी जी दृढ़प्रतिज्ञ थे। भरी अदालत में देश के प्रसिध्द वकीलों के सामने उन्होंने अपना लिखित बयान पढ़ा 'अदालत की आज्ञा से मैं संक्षेप में यह बतलाना चाहता हूं कि नोटिस द्वारा जो मुझे आज्ञा दी गई, उसकी अवज्ञा मैंने क्यों की? मेरी समझ में यह स्थानीय अधिकारियों और मेरे मध्य में मतभेद का प्रश्न है । मैं इस देश में राष्ट्रीय तथा मानव-सेवा करने के विचार से आया हूं। यहां आकर उन रैयतों की सहयाता करने के लिये, जिनके साथ कहा जाता है कि नीलवर साहब अच्छा व्यवहार नहीं करते, मुझसे बहुत आग्रह किया गया था, पर जब-तक मैं सब बातें अच्छी तरह न जान लेता, तब-तक उन लोगों की कोई सहायता नहीं कर सकता था। इसलिये मैं, यदि हो सके तो अधिकारियों और नीलवरों की सहायता से, सब बातें जानने के लिये आया हुआ हूं। मैं किसी दूसरे उद्देश्य से यहां नहीं आया हूं। मुझे यह विश्वास नहीं होता कि मेरे यहां आने से किसी प्रकार शांतिभंग या प्राणहानि हो सकती है। मैं कह सकता हूं कि ऐसी बातों का मुझे बहुत कुछ अनुभव है। अधिकारियों को जो कठिनाइयां होती हैं, उनको मैं समझता हूं और मैं यह भी मानता हूं कि उन्हें जो सूचना मिलती है, वे केवल उसी के अनुसार काम कर सकते हैं। कानून माननेवाले व्यक्ति की तरह मेरी प्रवृति यही होनी चाहिये थी और ऐसी प्रवृति हुई भी कि मैं इस आज्ञा का पालन करूं पर मैं उन लोगों के प्रति जिनके कारण मैं यहां आया हूं, अपने कर्तव्य का उल्लंघन नहीं कर सकता था। मैं समझता हूं कि मैं उन लोगों के बीच में रहकर ही उनकी भलाई कर सकता हूं। इस कारण, मैं स्वेच्छा से इस स्थान से नहीं जा सकता था। दो कर्तव्यों के परस्पर विरोधी दशा में मैं केवल यही कर सकता था कि अपने हटाने की सारी जिम्मेवारी शासकों पर छोड़ दूं। मैं भलीभांति जानता हूं कि भारत के सार्वजनिक जीवन में मेरी जैसी स्थिति वाले लोगों को आदर्श उपस्थित करने में बहुत ही सचेत रहना पड़ता है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि जिस स्थिति में मैं हूं, उस स्थिति में प्रत्येक प्रतिष्ठित व्यक्ति को वहीं काम करना सबसे अच्छा है जो इस समय मैंने करना निश्चय किया है और वह यह है कि बिना किसी प्रकार का विरोध किये आज्ञा न मानने का दंड सहने के लिये तैयार हो जाऊं। मैंने जो बयान किया है, वह इसलिये नहीं कि जो दंड मुझे मिलने वाला है वह कम किया जाये पर इस बात को दिखलाने के लिये मैंने सरकारी आज्ञा की अवज्ञा इस कारण से नहीं की है कि मुझे सरकार के प्रति श्रध्दा नहीं है, बल्कि इस कारण कि मैंने उससे उच्चतर आज्ञा-अपनी विवेक बुध्दि की आज्ञा- का पालन करना उचित समझा है।' ; राजेंद्र प्रसाद-चंपारन में महात्मा गांधी।
यह गांधीजी का बयान है, जिसे उन्होंने पूरी रात जगकर लिखा था। यह ऐतिहासिक बयान है, जिसे संक्षिप्त रूप में उपन्यास में भी स्थान दिया गया है। लेखिका ने तथ्यों की अनदेखी नहीं की है और न तथ्यों की भरमार ही की है लेकिन लोगों के हाव-भाव, उनकी चिंता, बेचैनी, जिज्ञासा और भावुकता के माध्यम से घटना को प्रत्यक्ष करने का प्रयास किया है।  बयान सुनकर मजिस्ट्रेट के माथे पर पसीना आ गया। उन्होंने गांधी से पूछा 'आप अपराध स्वीकार करते हैं या नहीं।' गांधीजी ने तुरंत उत्तर दिया 'मैं अपराध स्वीकार करता हूं।' मजिस्ट्रेट ने फिर कहा 'यदि आप अब भी जिला छोड़कर चले जायें और न आने का वादा करें तो यह मुकदमा उठा लिया जायेगा।' गांधीजी ने एक पल गंवाये बिना उत्तर दिया 'यह हो नहीं सकता। इस समय की कौन कहे, जेल से निकलने पर भी मैं चंपारन में ही अपना घर बना लूंगा... जब तक उनकी समस्या का समाधान नहीं हो जाता।' गांधीजी की इस दृढ़ता को सुजाता ने बहुत तार्किक ढंग से उभारा है। पूरी अदालत भरी थी, बाहर हजारों की तादाद में लोग खड़े थे, सबके चेहरे पर चिंता की रेखाएं थीं लेकिन गांधीजी स्थितप्रज्ञ की भांति सारी चीजों को देख रहे थे। उन्हें जेल जाने की चिंता नहीं थी, जेल उनके लिये नई नहीं थी पर चिंता थी तो यह कि उनके जेल जाने के बाद भी उनका काम रुकना नहीं चाहिये। मजिस्ट्रेट निर्णय लेने में असमर्थ था इसलिये उसने तीन दिन बाद की तारीख दी। और उन तीन दिनों में बिहार सरकार ने कलक्टर और कमिश्नर को जो फटकार लगाई वह चंपारन ही नहीं बल्कि दुनिया के इतिहास में एक मिसाल है। अपने ही कमिश्नर को बिहार सरकार के मुख्य सचिव ने फटकारा और उनके मूर्खतापूर्ण निर्णय पर दुख व्यक्त करते हुये तार दिया कि 'सरकार को इस बात का दुख है कि बिना उनकी राय के आपने ऐसी कार्यवाही की है, जिससे उलझन पैदा होना अवश्यंभावी था। आपके पत्र में कोई ऐसी बात नहीं है, जिससे मालूम हो कि मि. गांधी कोई फसाद पैदा करना चाहते हैं। ऐसी अवस्था में यह कहीं अच्छा होता कि उनको वहां जाने दिया जाता और कर्मचारियों से भेंट करने दिया जाता, अलबत्ता उनको इस बात से सतर्क कर दिया जाता कि यदि कोई फसाद होगा तो उसकी जवाबदेही उनकी होगी। सरकार इस बात पर सहमत नहीं है कि उनके विरुद्ध डिफेंस आफ  इंडिया रूल के अंतर्गत कोई हुक्म दिया जाये, जब तक कि उसका ऐसा कोई आधार न हो, जिससे यह मालूम हो कि मि. गांधी अपनी कार्यवाही द्वारा जनसाधारण में अशांति फैलाना चाहते हैं। चंपारन के जिला मजिस्ट्रेट को हिदायत कर देनी चाहिये कि वह 144 धारा के अंतर्गत जो हुक्म जारी हुआ है, उसको उठा ले। सरकार से उनको यह सूचना भेजी जा चुकी है कि इस विषय में आगे कोई कार्यवाही न करें जब तक कि वह आपका पत्र न पा लें।' यही नहीं मोतीहारी के जिला मजिस्ट्रेट को तार देकर कह दिया गया कि  'मि. गांधी को वहां के रैयतों के विषय में सूचना प्राप्त करने में वहां के सेटलमेंट अफसर तथा बेतिया राज के मैनेजर जैसे अफसरों के द्वारा हर प्रकार की सुविधा देनी चाहिये, पर उन्हें इस बात से सतर्क कर देना चाहिये कि वह ऐसा कोई काम न करें जिससे शांतिभंग होने की संभावना हो।'
सुजाता लिखती हैं 'तभी एक गोरे एण्ड्रूज ने आकर सुनाया - मुकदमा निरस्त हो गया है, सरकार ने मुकदमा वापस ले लिया है।' चंपारन के किसानों के लिये यह बड़ी खबर थी। सुजाता ने गोरे शब्द का प्रयोग कर इस सूचना में लाक्षणिकता पैदा की है। इसे कोई भारतीय सुनाता तो शायद इतना असर नहीं होता जितना गोरों के विरुद्ध गोरे द्वारा दी गई सूचना का हुआ। अंग्रेज कमिश्नर के जीवन में शायद यह पहला मुकदमा होगा जो न केवल वापस ले लिया गया अपितु उसके लिये उन्हें अपने आला अधिकारियों की नाराजगी और डांट तक सहनी पड़ी। लेकिन भारतीय संदर्भों में देखें तो इसका कई गुना असर भारतीय मानस पर पड़ा। जो किसान कोठी के अंग्रेजों और अंग्रेज अधिकारियों को एक समझते थे, उनका अंतर अब स्पष्ट हो गया था। किसानों के मन में जो भय अंग्रेजों के प्रति बैठा हुआ था, वह भी झरने लगा था। कोठियों के गोरे मालिकों के प्रति रोष और बढऩे लगा था। गांधीजी के चंपारन आने के बाद किसानों का मनोबल ऊंचा था लेकिन इस निर्णय ने उसे आकाश तक पहुंचा दिया था। अब किसान अपनी बात कहने में डर नहीं रहा था बल्कि निर्भीक होकर अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों को बता रहा था। चंपारन में  पशुवत जीवन जीते किसानों की इस घृणा का अंदाज अंग्रेजों को बिल्कुल भी नहीं था इसलिये बेतिया के मजिस्ट्रेट ने जब यह सब देखा तो उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ 'बेतिया के मजिस्ट्रेट मि. लिविस की आंखें फटी की फटी रह गईं... ये वही रैयत हैं जिनकी जुबान गोरों के सामने खुलती नहीं थी, घिघ्घी पड़ जाती थी और आज उसके सामने इतनी निर्भीकतापूर्वक बोल रहा है, लिविस उठकर चला गया।' अत्यंत पिछड़े इलाके चंपारन के किसानों की यह निर्भीकता गांधीजी की देन है, इस तथ्य को सुजाता इस उपन्यास में बार-बार रेखांकित करती हैं। वे राजकुमार शुक्ल या अन्य बड़े नेताओं के माध्यम से इस बात को भी रेखांकित करती हैं कि जो सत्य पर चलेगा वह निडर होगा। गांधीजी ने चंपारन आते ही कहा था कि जो सच है, वही लिखा जाये, एक भी बात झूठ या बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कही जाये। सत्य ही जब इतना भयावह हो, तब झूठ लिखने की नौबत ही कहां आती हैं? गांधीजी ने लगभग 10,000 किसानों के बयान लेकर जो रिपोर्ट तैयार की, वह अंग्रेज अधिकारियों के गले की फांस बन गई। इसलिये सात सदस्यों की एक जांच समिति बनाई गई, जिसमें गांधीजी भी एक सदस्य थे। सुजाता लिखती हैं 'तभी सामने से आते दिखे कमिटी के सदस्य...सबसे आगे थे गांधी, तेजी से चलते हुये...उनके पीछे-पीछे ...चारों अंग्रेज आई.सी.एस. और राजा कृष्णानंद...। सिर्फ राजकुमार शुक्ल या खेधर राय या संत राउत को नहीं, वहां जितने रैयत थे सबों को असली राजा तो अपना महात्मा लग रहा था-बादशाह, बिना ताज का बादशाह..., ताज था तो उसके सिर पर विनम्रता का ताज...,जो आंखों को कितनी प्रेमिल बना रहा था। उसकी आंखें जैसे सम्मोहित कर रही थीं।'
यह भावुकता है लेकिन इसे उन किसानों की आंखों से देखें जिनकी कोई आवाज नहीं थीं, जिनकी आंखों के सामने अंधेरा था और जीवन गुलामों से भी बदतर स्थिति में था। उन किसानों को आवाज, उजाला और स्वाधीनता गांधीजी ने दी इसलिये उन्हें वे बिना ताज के बादशाह ही लगेंगे। अंग्रेजों की जांच समिति में अंग्रेजों के साथ गांधीजी को देखकर अनपढ़ और बेसहारा किसानों को ऐसा ही लग सकता था, यह भावुकता भारतीय किसान की भावुकता है जो उसे आदमी बनाये रखती है।
उपन्यास राजकुमार शुक्ल और गांधीजी के इर्दगिर्द ही नहीं घूमता बल्कि वह शेख गुलाब, शीतल राय, संत राउत तथा लोमराज सिंह की बेचैनी और पीड़ा को भी उभारता है। ये चंपारन के प्रतिनिधि पात्र हैं, जिनके माध्यम से अंग्रेजों के अत्याचार झेल रही रैयत का जीवन उभरकर आता है। सुजाता की नजर में चंपारन की वे औरतें भी हैं जो तमाम तरह की सामाजिक प्रथाओं में घुटकर अंग्रेजों का भी दमन झेल रही हैं। राजकुमार शुक्ल की पत्नी देवला कुंवर को यदि प्रतिनिधि माना जाये तो उनकी पीड़ा अथाह है, उनका सब कुछ अग्रेजों ने खत्म कर दिया है, घर तोड़ दिया है और फसलें नष्ट कर दी गई हैं, दमन और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने वाला उसका पति मारा-मारा फिर रहा है, अंग्रेज कोठी का एमन उसको बर्बाद कर देने पर तुला हुआ है लेकिन वह उसके सामने झुकने को तैयार नहीं है। उसे विश्वास है कि एक दिन इन अत्याचारियों का अंत होगा और चंपारन इनके मायाजाल से जरूर मुक्त होगा। देवला कुंवर की मन:स्थिति का आकलन राजकुमार शुक्ल की विपत्तियों में देखने से अधिक समझ आता है। वे जिस स्त्रियोचित दृढ़ता का परिचय देती हैं, उससे उनके पति का साहस और बढ़ता है। गांधीजी ने अपनी पहली ही यात्रा में चंपारन की स्त्रियों के बारे में पूछा था, तब साथ चल रहे रामनवमी बाबू ने जवाब दिया था। गांधीजी ने कहा 'मैं यह नहीं कहता कि मेरे देश की स्त्रियां विदेशी सभ्यता का अनुकरण करें किंतु इतना अवश्य चाहता हूं कि पूरी दुनिया में जहां कहीं भी अच्छी चीज मिले उसे अपने जीवन में अवश्य आत्मसात करना चाहिये। जहां तक मेरे जीवन का अनुभव है वह यह है कि यदि मेरे देश की स्त्रियां पर्दे में रहेंगी तो मेरा देश दुनिया के अन्य देशों की तुलना में पिछड़ जायेगा क्येोंकि आधी पूंजी से व्यापार करने वाला देश पूरी पूंजी के साथ व्यापार करने वाले के समक्ष कैसे खड़ा हो सकता है?' सुजाता ने इस तथ्य को भी उभारा है कि चंपारन में गरीबी के कारण तीन औरतों के बीच एक साड़ी है, जिसे वे बदल-बदलकर पहनती हैं। कस्तूरबा ने जब इस तथ्य से गांधीजी को परिचित कराया तो 'उनकी दोनों आंखों से अश्रुप्रवाह हो रहा था। गांधी ने अपनी आंखों के आंसू पोंछते हुये कहा-कस्तूर हम कैसे इन लोगों को इस हालत में यूं छोड़कर चले जायेंगे...और क्या हक है हमें इस तरह इतने अधिक कपड़े पहनने का? ...सामने का अंधकार छंट चुका था...द्वंद्व समाप्त था, प्रायश्चित करने की जो ठान ली-पगड़ी पहनने का जो अपराध करता रहा उसका प्रायश्चित तभी संभव है जब पूरी धोती की जगह आधी धोती पहनें....उन बहनों ने भी आधी साड़ी ही तो पहनी थी...।' यह तथ्य विवादों में है, एटनबरो की फिल्म 'गांधी' में वे नदी के किनारे लगभग अर्धनग्न औरतों को देखकर केवल धोती में रहने का फैसला करते हैं और कई गांधीवादी तरह-तरह के तर्क देते हैं। इस विषय में एकमत होना कठिन है फिर भी उपन्यास में यह छूट रहती है कि वह तथ्यों का प्रयोग अपनी तरह से कर सकता है। चंपारन के अभावों को देखकर यह बिल्कुल भी नहीं लगता कि सौ साल पहले वहां की औरतें पूरे कपड़े पहनती होंगी।
उपन्यास की ताकत चंपारन के संघर्ष में राजकुमार शुक्ल की महती भूमिका है। गांधीजी का चंपारन आना भी शुक्ल जी की भूमिका के अंतर्गत ही आता है। फिर तो उपन्यास को चंपारन के किसानों की मुक्ति और गांधी जी के वापस जाने पर ही खत्म हो जाना चाहिये था। मुझे लगता है इससे यह उपन्यास और अधिक सुगठित और प्रभावशाली होता। लेकिन सुजाता ने राजकुमार शुक्ल की मृत्यु तक इसे खींचा है, जिसकी आवश्यकता नहीं थी। शुक्लजी की ताकत गांधीजी थे, गांधीजी जब-तक चंपारन में थे तब-तक उपन्यास में तनाव है, उनके जाने के बाद तो शिथिलता है। एक बड़े उद्देश्य को प्राप्त करने के बाद शून्य आता है, जो उपन्यास में झलकता है।
चंपारन में गांधीजी के किसान आंदोलन और उसकी विजय का यह सौंवा साल है, विश्वास नहीं होता कि सौ साल में हालात इतने बदल जायेंगे। अब भी किसानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है लेकिन उस बुरी स्थिति के विरुद्ध आवाज उठाने वाला न कोई राजकुमार शुक्ल है और न कोई महात्मा गांधी ।





संपर्क : मो. 0921101128, वर्धा


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