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जनवरी 2018

उत्तर पूर्व की सुदूर वादियों में

जितेन्द्र भाटिया

बस्ती बस्ती परबत परबत





वनस्पतियों, शिलालेखों और अतीत के जलते पन्नों का गाँव-खोनोमा!

मयनमार के बाद वहां से पश्चिम में भारत के उत्तर पूर्व इलाके के ओर आना एक तरह से उसी तस्वीर को एक और 'एंगल' से देखना है। लोग वही हैं, वही समस्याएँ, वही सवाल, सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर वही दशकों पुरानी असम्पृक्तता और इससे आगे अब समाज के ध्रुवीकरण से पैदा होती वोट बैंक की वही अपार सम्भावनाएं!

कहा जाता है कि उत्तर पूर्व में भारत के आर्यों और मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी बाशिंदे चीन से बर्मा होते हुए इस ओर आए थे। यह एक वंचित, असंतुष्ट और विषम समाज है, जिसमें ठीक समय पर बीज बोने और सुविधा के अनुसार राजनीतिक फसल काटने के अनेकानेक सुनहरे अवसर हैं। अंग्रेजों के ज़माने में ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा और धर्म परिवर्तन के ज़रिए उग्र समुदायों को अपने वश में किया था। देश की आज़ादी के बाद इन समीरकरणों में फिर एक बदलाव आया है और कई क्षेत्रों में ज़मीन के नीचे दबा गर्म लावा फिर से बाहर आने लगा है। पिछली सरकारों द्वारा प्रदेश की उपेक्षाओं ने लोगों को बेहद असहनशील बना दिया है। जुमलों और सतही प्रचार में विश्वास रखने वाली वर्तमान सरकार को यहाँ राजनीतिक धर्म परिवर्तन के कई अवसर दिख रहे हैं और कई क्षेत्रों में 'डिवाइड एंड रूल' नीति में मिली सफलताओं का खून अब इसके मुंह लग चुका है। इसी के समानांतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (जो चुनावों और राजनीति में आकंठ डूबा होने के बाद भी अपने को एक 'सांस्कृतिक संगठन' बताता है) के हज़ारों कार्यकर्ता यहाँ मिशनरियों की सी निष्ठा से धर्म परिवर्तन और सांस्कृतिक हिंदू-प्रचार में जुटे हैं। कश्मीर से आगे या उससे भी पहले आज उत्तर पूर्व को देखना एक तरह से देश की राजनीतिक एवं सामाजिक आबोहवा को समझना भी है क्योंकि देश के 8 प्रतिशत मतदाताओं का भविष्य आज इसी प्रदेश से जुड़ा है।
कई-कई प्रदेशों को लांघ देश के एक कोने से दूसरे तक चलने वाली दूरगामी रेलगाड़ी 'डिब्रूगढ़ राजधानी' को हर रोज़ सुबह नई दिल्ली से चलकर तीसरे दिन तड़के उत्तर पूर्व के मुख्यद्वार तिनसुखिया पहुंचना होता है। लेकिन अपने निर्धारित समय से यह अक्सर लेट हो जाती है और बरसात के मौसम में तो चंचला नदी ब्रह्मपुत्र की तरह इस पर बिलकुल भरोसा नहीं किया जा सकता। अगर आप जल्दी में हैं या किसी काम से उत्तर पूर्व की ओर जा रहे हैं तो यह गाड़ी आपके लिए नहीं है। लेकिन यदि आपके पास समय है और आपके भीतर रेल की खिड़की से बाहर देखने का बालसुलभ उत्साह अभी तक कायम है, तो यह गाड़ी आपको निराश नहीं करेगी। उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रमुख शहरों को पार कर लगभग चौबीस घंटों की यात्रा के बाद यह गाड़ी कटिहार से आगे उत्तर की ओर मुड़ जाती है। बांग्लादेश और नेपाल से घिरे भारत के तंग 21 किलोमीटर चौड़े सिलीगुड़ी गलियारे से होती हुई यह बंगाल के उस सुरम्य इलाके में पहुँचती है जहाँ दार्जीलिंग के चाय बगानों तले आजकल अलग गोरखालैंड राज्य के लिए घमासान जारी है। बंगाल का सौन्दर्य जितना दीघा और बक्खाली/सुंदरवन के समुद्री इलाकों में है, उतना ही या उससे भी अधिक, शान्तिनिकेतन के आगे उत्तर में बक्सा, गोरुमारा, जलपाईगुड़ी और दार्जीलिंग के नज़दीक नेवरा घाटी के जंगलों में है। सिक्किम से कुछ ही फासले पर सिलीगुड़ी (न्यू जलपाईगुड़ी) से होती हुई यह गाड़ी असम में प्रवेश कर जाती है और धान के विपुल खेतों से होते हुए दूसरी शाम के समय आप ब्रह्मपुत्र के तट पर बसे प्रदेश के सबसे प्रमुख शहर गौहाटी आ पहुँचते हैं। यहां से आगे का जीवन एक तरह से ब्रह्मपुत्र को समर्पित है। इसी का प्रवाह यहाँ की सारी सड़कों, पुलों और इनका इस्तेमाल करने वाले लोगों और ठसा-ठस भरे वाहनों की गति को निर्धारित करता है। इसी के दो किनारे उत्तरी और दक्षिणी असम की सीमाएं तय करते हैं। इससे आगे रात के अंधेरे में नागालैंड में दीमापुर को छूती हुई राजधानी गाड़ी जब ('ऑन टाइम' होने की यदा-कदा स्थिति में) अलस्सुबह डिब्रूगढ़ पहुँचती है तो आपको लग सकता है कि इतना लम्बा सफर तय करने के बाद आप आखिरकार उत्तर पूर्व इलाके के दूसरे सिरे तक आ पहुंचे हैं। लेकिन यह आपकी खामखयाली है। तिनसुखिया वह प्रवेश द्वार है जहाँ से उत्तर पूर्व के अंदरूनी इलाकों का सफर दरअसल शुरू होता है। यहाँ से आगे कोई रेलवे लाइन नहीं है और बाकी का सफर आपको मज़बूत इंजन वाली डीजल सूमो गाडिय़ों, खटारा बसों और अक्सर पैदल और कभी कभी नावों, इकहरे बांस के पुलों और सामान ढोने वाले हाथियों के साथ चलते तय करना पड़ सकता है। लेकिन यह सफर जितना दुर्गम और मुश्किल है, उतना ही मोहक और मन को आह्लादित करने वाला भी है।
यदि आठवें राज्य सिक्किम को फिलहाल छोड़ दिया जाए तो उत्तर पूर्व के सात राज्यों (या बहनों-सेवेन सिस्टर्स) वाले भारत की एक खास अलग पहचान है, जिसे देश की तहज़ीब में घाल-मेल कर देखने की गलती नहीं करनी चाहिए। देखा जाए तो यह प्रदेश हमारे देश की धार्मिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधता का सबसे जीवंत उदाहरण पेश करता है। 2011 की जनगणना के अनुसार यहां देश की 8 प्रतिशत आबादी बसती है जिसमें 54 प्रतिशत हिन्दू, 25 प्रतिशत मुसलमान, 17 प्रतिशत ईसाई, 1 प्रतिशत बौद्ध और शेष दूसरी जातियों के लोग हैं। प्रदेश का यह धार्मिक फलक, जिसमें वहीं की जन जातियों का बड़ा हिस्सा है, पिछले डेढ़ सौ सालों में धर्म परिवर्तन का सक्रिय अखाड़ा भी रहा है। अंग्रेजों के समय यहाँ ईसाई मिशनरियों ने दाम-दंड-भेद की नीति से बड़े पैमाने पर ईसाईकरण को अंजाम दिया था, जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप ब्रह्म धर्म के प्रचारकों ने बोडो जैसी जन जातियों को हिन्दू धर्म में समेटने की कोशिश की तो उधर मणिपुर में रानी गईदिनलू जैसे जन-जाति प्रतिनिधियों ने अंग्रेजों द्वारा प्रायोजित धर्म परिवर्तन के विरुद्ध आवाज़ उठाई। स्वतंत्रता के बाद प्रदेश में शांति कायम करने के लिए भारतीय सरकार को विभिन्न जातियों के तुष्टिकरण के लिए कई दांव-पेंच खेलने पड़े। और अब दिल्ली में नई सरकार आने के बाद यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक की एक बड़ी, निष्ठावान फौज सरकार के वरद हस्त तले प्रदेश के चुने हुए हिस्सों में मिशनरियों की धर्म परिवर्तन के नीति का अनुसरण करते हुए भगवे और हिन्दू राष्ट्र के व्यापक प्रचार तथा समाज के ध्रुवीकरण के दोहरे काम में जुटी हैं। प्रदेश के उत्तरी हिस्से पर चीन अपनी नज़र गड़ाए बैठा है तो दक्षिण में नागा और मिज़ो जातियां लम्बे समय से नाखुश हैं। तीन ओर से चीन, बांग्लादेश और मयनमार से घिरी यह सुरम्य प्राकृतिक भूमि आने वाले समय में किस संवेदनशील राजनीतिक आबोहवा की ओर अग्रसर होगी, इसके चिंताजनक संकेत अभी से दिखाई देने लगे हैं।
प्रदेश के तीन राज्यों में ईसाई समाज बहुमत में है। नागालैंड और मिज़ोरम में 85 प्रतिशत से भी अधिक संख्या ईसाइयों की है और मेघालय में 75 प्रतिशत लोग ईसाई हैं। इनमें से अधिकांश आदिवासी मूल के हैं जिन्होंने पिछले डेढ़ सौ सालों के दौरान ईसाई धर्म अपनाया है। इनमें सबसे अधिक संख्या बैप्टिस्ट, कैथोलिक और प्रेसबिटेरियन समुदाय की है। ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद ये लोग आज भी आदिवासियों के कई पुराने रीति-रिवाजों को मानते हैं। इसी तरह मेघालय, असम और अरुणाचल प्रदेश की तथाकथित हिन्दू जनसंख्या में बोडो और कई दूसरी जनजातियों की संख्या भी शामिल है जो हिन्दू रीति रिवाजों को नहीं मानती, लेकिन जनगणना के हिसाब से इनकी गिनती हिन्दुओं में ही होती है हैं। अरुणाचल प्रदेश में हिंदू और ईसाईयों की जनसंख्या बराबर 30-30 प्रतिशत है और इसके अलावा वहां 12 प्रतिशत बौद्ध हैं। असम में एक करोड़ से अधिक मुसलमान हैं जो वहां के 61 प्रतिशत हिन्दुओं के मुकाबले कुल जनसंख्या 34 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व रखते हैं। हिन्दुओं की जनसंख्या में लगभग 20 लाख 'बाथो' धर्म को मानने वाले बोडो शामिल हैं। इसके अलावा वहां 4 प्रतिशत ईसाई भी हैं। मणिपुर में 41 प्रतिशत हिंदू (मुख्यत: मैदानी क्षेत्रों में) और लगभग इतने ही ईसाई (अधिकांश पहाड़ों में) हैं और सातवें राज्य त्रिपुरा में 83 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दुओं की है। इतने सारे आंकड़ों को यहां देने का उद्देश्य इस प्रदेश की जीवंत धार्मिक विविधता को रेखांकित करना है।
कहा जाता है कि प्रदेश की उर्वरा ज़मीन और विलक्षण वनस्पति से आकृष्ट होकर यहां बसने वालों में सर्वप्रथम पूर्व एशिया के निवासी थे। फिर पहाड़ी रास्तों से तिब्बत और मयनमार से मंगोल मूल के लोग इस ओर आए थे और अंतत: गंगा के मैदानी इलाकों में आर्यों के वंशजों ने इस धरती का रुख किया। ईसा पूर्व के कुछ चायनीज़ शिलालेखों में चीन से उत्तर पूर्व होकर भारत जाने वाले मार्गों का ज़िक्र आता है। कई लोगों का मानना है कि प्रदेश की मंगोल मूल की अधिकांश जनजातियां तिब्बत के रास्तों से यहां आयी थीं। यहां से यदि वर्तमान काल की ओर आएं तो 19वीं शताब्दी में प्रदेश की अहोम और मणिपुर रियासतों पर मयनमार की सेनाओं ने कब्ज़ा कर लिया था। मयनमार राज्य की इस बढ़ती शक्ति से आतंकित होकर अंग्रेज़ों ने उन पर हमला किया और दो लम्बे युद्धों के बाद मयनमार के साथ-साथ उत्तर पूर्व का सारा इलाका भी अंग्रेजों के अधीन हो गया। उन्होंने इसे बृहत्तर बंगाल का नाम दिया। 1905 में फिर इसका विभाजन कर पूर्वी इलाके को 'असम एवं पूर्वी बंगाल' का नाम दिया गया। स्वतंत्रता के बाद पूर्वी बंगाल अंतत: पूर्वी पाकिस्तान और अंतत: बांग्लादेश बन गया, तो दूसरी ओर असम राज्य के साथ-साथ त्रिपुरा एवं मणिपुर की रियासतें केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में भारत का हिस्सा बनीं। असम के ही हिस्सों में 1963 में नागालैंड, 1972 में मेघालय, 1972 में ही मणिपुर एवं त्रिपुरा (केंद्रीय शासित प्रदेशों से राज्य) तथा 1987 में अरुणाचल प्रदेश एवं मिज़ोरम राज्यों का गठन हुआ।
उत्तर पूर्व में हर राज्य की अपनी एक मुख्तलिफ पहचान है। लेकिन इसके बावजूद यह प्रदेश एक सांझी परंपरा से जुड़ा दिखाई देता है। एक तो यहां आपको जात-पांत की रूढिग़त बेडिय़ां नहीं दिखेंगी। यहां का पुरातन आदिवासी हिन्दू धर्म की जातिगत मान्यताओं में यकीन नहीं रखता। चूंकि उसकी धार्मिक आस्था किसी बीज ग्रन्थ या किताब पर आधारित न होकर उसके अंतर्मन, उसके मौखिक इतिहास, परंपरागत विश्वास और अनुष्ठानों से जुड़ी हैं, इसलिए वह इन संस्कारों से मुक्त है। दूसरे यह प्रदेश एकाधिक अर्थों में स्त्रियों की सक्रिय कार्यभूमि है। यहां स्त्री आश्रिता नहीं, बल्कि जीवन की दौड़ में पुरुषों से कई कदम आगे चलती दिखाई देती है। अधिकांश आदिवासी समाज यहां मातृसत्तात्मक हैं जहां न सिर्फ जीविका चलाने की अधिकांश जिम्मेदारियां स्त्री निभाती है, बल्कि परिवार और समाज के अधिकांश फैसले भी उनके अधीन रहते हैं। और मेघालय में 'खासी' जाति के मातृवंशी समाज की तो बानगी ही कुछ अलग है। यहां सबसे छोटी बेटी संपत्ति की वारिस होती है, बच्चों को माता का नाम मिलता है और शादी के बाद पुरुष यहाँ अपनी सास के घर रहने के लिए जाते हैं! एक बाशिंदे के अनुसार यहां पुरुषों के लिए पारिवारिक निर्णयों से अलग खाली बैठने, 'गिटार बजाने, शराब पीने और कम उम्र में चल बसने' के अलावा कुछ और करना बाकी नहीं रहता। 'गारो' जनजातियों में भी मातृसत्तात्मक समाज है। मणिपुर में 'कोम' जाति के एक निर्धन किसान परिवार से दुनिया भर में नाम कमाने वाली मैरी कोम ने बॉक्सिंग के गंभीर अभ्यास की शुरुआत शादी और दो बच्चे हो  चुकने के बाद की थी। कुल मिलाकर हम सहज ही मान सकते हैं कि पूरे देश के मुकाबले उत्तर पूर्व में स्त्रियों को समाज में अत्यंत गौरवशाली स्थान प्राप्त है।
और एक तीसरे आयाम पर उत्तर पूर्व की उर्वरा धरती में जनजातियों के अलावा अनोखी वनस्पतियों, जीवों और पक्षियों का विलक्षण संसार भी बसा है, ये जैविक प्रजातियां देश के किसी और हिस्से में नहीं मिलती। शहरीकरण और इससे भी अधिक, खेती के लिए अंधाधुंध काटे जाते जंगलों के दबाव तले इस प्राकृतिक सम्पदा के क्रमश: नष्ट होते जाने का गंभीर खतरा लगातार बना हुआ है।
उत्तर पूर्व के कई इलाकों में गुज़र चुकने के बाद भी इस प्रदेश से मेरी पहचान अधूरी और कई अर्थों में बेहद इकहरी है। क्योंकि किसी बाहरी व्यक्ति या पर्यटक की हैसियत से आप जब किसी जगह जाते हैं तो आपकी निगाहें वहां तक नहीं पहुंच पाती जहां सब कुछ दरअसल घटित होता है, वैसे ही जैसे किसी मेहमान के आने से पहले हम घर के सारे अंतर्विरोध छिपा अपनी बैठक को धुला-पुंछा और व्यवस्थित बना देते हैं। यात्राओं की इन स्वाभाविक सीमाओं को स्वीकार करने के बाद भी अपने देखे हुए को शब्दों में कहना ज़रूरी हो जाता है। इस श्रृंखला में एकाधिक बार उद्धृत हुए लेखक इतालो काल्विनों के शब्दों में -
''आपको लगता है कि आप शहर की सैर कर रहे हैं लेकिन दरअसल आप सिर्फ उन शब्दों को समेट रहे होते हैं जिनसे यह शहर अपनी या अपने हलकों की शिनाख्त करता है। प्रतीकों और मिथकों के नीचे शहर में क्या कुछ छिपा है, उसे जाने बगैर ही आप बाहर निकल आते हैं जहां क्षितिज तक फैली हुई खाली ज़मीन होती है और खुले आसमान में दौड़ते हुए बादल। हवा और मौसम के संयोग से बादलों को जो आकार मिलते हैं, आप उन्हीं में अपने संकेत ढूंढने का उपक्रम करने लगते हैं। समुद्री जहाज़, कोई अजनबी हाथ या फिर एक हाथी...''
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दोपहर में आखिरी फ्लाइट के जा चुकने के बाद दीमापुर का हवाई अड्डा खासा वीरान हो जाता है। चूंकि वहां से मुझे ले चलने वाले साथियों के आने में अभी थोड़ा विलम्ब था, इसलिए सामान ले चुकने के बाद मैं अराइवल हॉल में ही कुर्सी पर बैठ गया। जब एक वर्दीधारी ने मुझे वहाँ से बाहर निकल जाने के लिए कहा तो थोड़ा सा आश्चर्य होना स्वाभाविक था। लेकिन बाहर आने पर समझ में आया कि वह गार्ड अराइवल कक्ष के जंगल में ताला लगा चुकने के बाद अब घर जाने की उतावली में था।
मैदान के आखिरी छोर पर बसा दीमापुर शहर एक तरह से पर्वतीय प्रदेश नागालैंड के पहले पड़ाव की तरह है। इसमें आगे पहाडिय़ां और जंगल हैं, जहां वक्त अब भी किसी बहुत पुरानी तारीख पर ठहरा हुआ लगता है। यहाँ से दक्षिण पूर्व में राज्य की राजधानी कोहिमा तक के 60 किलोमीटर के ऊबड़-खाबड़ सफर को राज्य की अन्य सड़कों के मुकाबले राजमार्ग का दर्ज़ा दिया जा सकता है। इस घुमावदार सड़क पर शाम ढलने के साथ ही अंधेरा किसी चोर परछाईं की तरह धीरे धीरे उतरने लगती है। यहां-वहां शहरी सभ्यता के सबसे पुख्ता सबूत की तरह मोबाइल की दुकानें, कुछ तरतीब सब्जियों के खोखे और मणिपुर शैली के 'राइस हाउस' ढाबे जिनमें से एक-आध की कांच की अलमारी में कुछ बदरंग मिठाइयां नज़र आ जाती हैं। दो चार औरतें पोखर से पकड़ी गई मछलियों को सड़क के किनारे सजाकर बैठी हैं। हमें यहां के आगे, प्रदेश की राजधानी कोहिमा होते हुए आगे कोई बीस किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव खोनोमा जाना है।
अलग अलग पहाडिय़ों पर बसे कोहिमा शहर को देखते हुए बरबस अल्मोड़ा शहर की याद आती है, न जाने क्यों! लेकिन अल्मोड़ा के मुकाबले कोहिमा बेहद बेतरतीब, अव्यवस्थित और गन्दा है। देखते ही देखते हम ऐसे भयानक ट्रैफिक जैम में फंसे कि लगा, रात शायद कोहिमा की सड़क पर जीप में ही गुजारनी पड़ जाएगी। पूर्वी राज्यों में अँधेरा बहुत जल्दी घिर आता है। शहर की बिजली के अचानक गुल होते ही अंधेरा किसी अदृश्य तीसरे किरदार की तरह हमारे बीच उतर आया। बंद पड़ी गाडिय़ों से कोई ड्राइवर जब अचानक लाल बत्तियां जलाता तो हमें पता चलता कि हम वीराने में नहीं बल्कि शहर के बीचोंबीच गाडिय़ों के महासागर में फंसे हैं। लम्बे अंतराल के बाद तिल-तिल कर ट्रैफिक के उस दलदल से बाहर निकले तो आगे खुली हवा, जंगलों की खुशबू और सिकाडा कीड़ों की तेज़ आवाज़ थी। तिलिस्मों को तोडऩे में माहिर हमारा सर्वज्ञ साथी रजनीश बताता है कि पुरातन काल में इस आवाज़ को अमरत्व का पर्याय माना गया था और वर्तमान चीन के शैनडोंग प्रांत में तले हुए सिकाडा किसी लज़ीज़ पकवान की तरह बहुत चाव के साथ खाए जाते हैं।
कच्चे रास्ते पर आगे एक खूबसूरत प्रवेशद्वार था, जीप की तेज़ रोशनी में जगमगाता हुआ। शायद हम अपने गंतव्य गांव खोनोमा आ पहुंचे थे। उस गांव की अद्भुत संस्कृति और नागालैंड के लगभग विलुप्त राज्य पक्षी ब्लीथ ट्रोगोपैन की तलाश हमें यहां तक खींच लायी थी। यद्यपि अगले दो दिनों की लम्बी तलाश के बाद भी वह पक्षी हमें नहीं मिला, मगर मरहूम शायर शहरयार की तरह इसका कोई खास अफसोस हमें नहीं था-
जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने!
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देश के पहले 'हरित गांव' के रूप में प्रचारित खोनोमा नागालैंड का संभवत: सबसे पुराना गांव है जिसकी उम्र 600 वर्ष से भी अधिक बतायी जाती है। अंगामी नागाओं के इस गांव के 3000 बाशिंदों के 600 परिवारों में से अधिकांश ने पिछले सौ वर्षों में बैप्टिस्ट ईसाई धर्म अपना लिया है। गांव में होटल नहीं हैं लेकिन यहां के कई परिवार मेहमानों और पर्यटकों को पेइंग गेस्ट या 'होम स्टे' की हैसियत से अक्सर अपने घरों में ठहरा लेते हैं। हमारा ठिकाना गांव के एक पुराने निवासी का लकड़ी का मकान था, जहां बूढ़े पिता के साथ-साथ काम करने वाली माता-चाचियों और बहनों का एक भरा-पूरा परिवार था। हमें इसी के दो सुसज्जित कमरों में जगह मिली जहां रौशनी के लिए दो छोटे छोटे सोलर लैंप लगे थे। ईसाई प्रभाव में छुरी कांटों के साथ टेबलों पर परोसे जाने वाले भोजन में कई तरह के मांस, मछली, सब्जियां और चावल थे। नागा लोग कुत्ते का मांस (बुश मीट) भी बड़े शौक से खाते हैं लेकिन हमारे आग्रह पर इसे दस्तरखान से दूर रक्खा गया था। (कोहिमा और दीमापुर की मांस की दुकानों पर हमें इनके साथ साथ मेढकों और जंगल से पकड़े गए पक्षियों का मांस भी आम बिकता दिखाई दिया!) पिछले साल नागालैंड सरकार ने कुत्ते के मांस पर प्रतिबन्ध की मांग की है, पर इसके पूरे उन्मूलन में अभी वक्त लगेगा।
घने जंगलों, पहाड़ों, झरनों, हरे खेतों और कई तरह की वनस्पतियों एवं पशु-पक्षियों के बीच फैला खोनोमा गांव अपनी अभिनव कृषि पद्धतियों और अपनी फसलों के लिए विख्यात है। पहाडिय़ों में सीढिय़ों जैसी क्यारियां बनाकर 'स्टेप फार्मिंग' द्वारा 20 से भी अधिक किस्मों का धान उगाया जाता है। यहाँ बरसात के पानी को छोटे-छोटे 'ज़ाबो' (पानी रोकने) वाले तालाबों में संचित कर इनसे निचले स्तर के धान को सींचा जाता है। यही नहीं, यह पानी पशुओं के बाड़ों से होकर गुज़रता है ताकि इसमें खाद के तौर पर उनके मल-मूत्र का भी अंश मिल जाए। मैदानों को साफ कर वहां 'झूम' पद्धति से खेती की जाती है। इन खेतों में उटिस (अंग्रेजी में 'एल्डर'; स्थानीय अंगामी भाषा में 'रूपो') के पेड़ लगाए जाते हैं जिनकी जड़ों से धरती अधिक उर्वरा बनती है। समय समय पर इन पेड़ों की टहनियों को काटकर इनके जीवित ठूंठों को खेत में रहने दिया जाता है ताकि मिट्टी को इनका लाभ लगातार मिलता रहे। गाँव के आस-पास के जंगलों में बांस की कई किस्में मिलती हैं। खेतों में सिंचाई का अधिकांश काम लोहे की पाईपों की जगह खोखले बांसों में बहते पानी से किया जाता है। कृषि की ये अभिनव पद्धतियां यहां पिछले सौ वर्षों से चली आ रही हैं और इन पर गांव की रीढ़ टिकी है।
पूरे नागालैंड में जंगली जीवों और पक्षियों को मारकर खाने की पुरानी परंपरा है, जिसने प्रदेश के पर्यावरण को अकल्पनीय क्षति पहुंचाई है। कहा जाता कि 1993 वर्ष में इसी खोनोमा में कोई 300 दुर्लभ ट्रेगोपेन पक्षी मांस के लिए मारे गए थे। खोनोमा के कई निवासियों ने इस संकट को समझ अपने गांव और आस पास के क्षेत्रों में शिकार की इस परंपरा के विरुद्ध एक व्यापक अभियान चलाया। शुरु में कई लोगों ने संस्कृति के नाम पर इसका विरोध भी किया, पर अंतत: इन्हीं प्रयासों के परिणामस्वरूप 1998 में खोनोमा में 20 वर्ग किलोमीटर इलाके में 'खोनोमा प्रकृति संरक्षण एवं ट्रेगोपेन अभयारण्य' की स्थापना हुई। आज न सिर्फ इस अभयारण्य में, बल्कि पूरे खोनोमा में शिकार न सिर्फ वर्जित, बल्कि एक दंडनीय अपराध है। नागालैंड जैसे मांसभक्षी राज्य में खोनोमा आज एक अनुसरणीय उजले उदाहरण की तरह खड़ा है। और वहां पर्यावरण के इन नियमों के सख्ती के पालन के लिए जिम्मेदार है खोनोमा की छात्र परिषद्, जिसमें पहली कक्षा में ही बच्चों को प्रकृति से दोस्ती का पाठ सिखाया जाता है।
लेकिन देश के इस पहले हरित गांव खोनोमा का एक ज्वलंत इतिहास भी है और नागाओं की लिखित और मौखिक परम्पराओं में इसका विशेष स्थान है। क्रिश्चियनिटी के प्रभाव में खोनोमो के अधिकांश निवासी अब पढ़ लिख गए हैं। लेकिन आम कश्मीरियों की तरह नागाओं के मन की थाह पाना ज़रा मुश्किल है। सुबह के नाश्ते के बाद घर के बूढ़े अंकल पिमोमो अंगामी पहले हम सबसे जानकारी लेते हैं कि कौन कहां से आया है और आश्वस्त हो चुकने के बाद कि हममें से कोई भी सरकारी संस्था से नहीं जुड़ा है, वे चुपचाप आलमारी से एक किताब निकाल लाते हैं। यह अब्राहम लोथा की लिखी अंग्रेजी किताब 'नागा जाति का इतिहास (1832-1947)' है।
अंगामी नागा पुराने समय से प्रदेश में खेती और पशुपालन करते आए हैं। इनमें एक बड़ा तबका उन योद्धाओं का था जो विरोधी गांवों पर हमला बोलने और दुश्मनों का सिर काटकर लाने के लिए कुख्यात थे। सिर काटकर लाने वाले को अपने स्थायी पहचान के लिए चेहरे को डरावना बनाने का अधिकार मिलता था। लेकिन फिर भी इनके समाज में कोई भेद-भाव नहीं बरता जाता था। सारी संपत्ति बेटे और बेटियों में बराबर बांटी जाती थी और परिवार के सबसे छोटे पुरुष सदस्य 'किथोकी' को पैतृक घर मिलता था, जिसके एवज़ में उसे सारे परिवार के लालन-पालन की जिम्मेदारी निभानी पड़ती थी।
बर्मी राजाओं के अंग्रेजों से युद्ध में हारने के बाद (देखिए इसी श्रृंखला की पिछली कड़ी) 1826 की 'यांदाबू' संधि के मुताबिक वर्तमान नागालैंड का सारा इलाका अंग्रेजों के कब्ज़े में आया। इसके बाद लम्बे समय तक यहां अंगामी नागाओं और अंग्रेजों के बीच तीखा संघर्ष चलता रहा। अंग्रेजों को जल्दी ही पता चल गया कि उन दुर्गम पहाडिय़ों में 'असभ्य, जंगली एवं बेहद क्रूर' नागाओं को हरा पाना काफी मुश्किल है। 1826 से 1865 तक के 40 वर्षों में अंग्रेज़ी सेनाओं ने खोनोमा के नागाओं पर कई तरीकों से न जाने कितने हमले किये, लेकिन हर बार उन्हें उन मुट्ठी भर अंगामी योद्धाओं के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। नागाओं का यह पराक्रम आज भी खोनोमा के 'सरकटिया' बुजुर्गों के चेहरे पर साफ देखा जा सकता है। (हमारे सरकारी महकमों में इसे देश के गौरवशाली स्वतंत्रता युद्ध का ही एक हिस्सा बनाकर पेश किया जाता है, लेकिन अंकल पिमोमो इस से इत्तफाक नहीं रखते। उनका मानना है कि नागा योद्धा अंग्रेजों से अपनी खुद की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे।) बहरहाल, अंग्रेज़ प्रशासकों ने 1866 में एक नयी सोच के तहत नागा पहाडिय़ों को एक अलग ज़िले का दर्ज़ा देकर वहां एक ओर सामाजिक विकास/शिक्षा फैलाने की मुहिम शुरु की तो दूसरी ओर चर्च की मिशनरियों ने इन प्रयासों के साथ साथ लोगों के बीच काम करते हुए उन्हें ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया। नागाओं का पारंपरिक धर्म पितरों की मौखिक कथाओं और विश्वासों से चलता है। वे किसी देव या जीव की पूजा नहीं करते, परन्तु बुरी आत्माएँ उनके भीतर भय पैदा करती हैं और उन्हें संतुष्ट रखने के लिए वे कई तरह के अनुष्ठान करते हैं। मिशनरियों की निष्ठा की दाद देनी होगी कि उन्होंने सांस्कृतिक परंपरा के बीच रहते हुए भी वहां की मौखिक भाषा 'तेन्यीदि' पर आधारित एक नई लिपि विकसित की और लोगों को उसे लिखना, पढऩा और समझना भी सिखलाया। अंकल पिमोमो के अनुसार शिक्षा आ जाने के बाद लोगों को 'सिरकटिया' और पशुओं की बलि जैसे अनुष्ठानों से दूर ले जाना काफी आसान हो गया। लेकिन मिशनरियों ने वहां की सांस्कृतिक पहचान को बरकरार रखते हुए ईसाई धर्म के एक बेहद ग्राह्य रुप को लोगों के बीच फैलाया। 'तेन्यीदि' भाषा में सभी स्थानीय नामों और पुराने मौखिक शब्दों का समावेश था। हमने अंकल के चेहरे पर उन मिशनरियों के प्रति अत्यंत आदर एवं कृतज्ञता का भाव देखा जो कुछ देर पहले की पराक्रम कथाओं से बिलकुल विपरीत था।
खोनोमा के बैप्टिस्ट नागाओं ने ईसाइयों से जो जीवन पद्धतियां सीखी हैं, उनमें मृत्यु के बाद दिवंगत व्यक्ति के नाम का पत्थर या शिलालेख बनाने की परंपरा सबसे अधिक प्रचलित है। खोनोमा के रास्तों पर आपको सैंकड़ों बड़े-बड़े शिलालेख और उन पर खुदे उनके प्रियजनों के सन्देश मिल जाएंगे। दिलचस्प यह है कि मृत्यु के बाद किसी व्यक्ति के शिलालेख के पास ही उसके सबसे अन्तरंग जीवित साथी (पत्नी, भाई, पुत्र/पुत्री) के शिलालेख के लिए उसी दीवार में फ्रेम बनाकर खाली जगह छोड़ दी जाती है, ताकि कालांतर में मृत्यु के बाद उसका शिलालेख उस तयशुदा जगह पर बनाया जा सके।
अंकल पिमोमो देर तक हमें अंग्रेजों के समय में ईसाई धर्म के प्रचार की कई कहानियां सुनाते रहे। लेकिन हमने पाया कि इससे आगे अंग्रेजों के राज की समाप्ति और भारत की स्वतंत्रता तक पहुंचते-पहुंचते उनके भीतर गोया कि एक द्वंद्व सा उठने लगा था। खोनोमा में आने वाले सभी मेहमानों के सत्कार से आगे पिमोमो का मानना है नागालैंड की भूमि पर भारत सरकार का कोई नैतिक अधिकार नहीं है क्योंकि नागा प्रदेश कभी भी भारत का हिस्सा नहीं रहा। 1826 से पहले वह बर्मा में था और अंग्रेजों ने भी उसे एक अनुसूचित क्षेत्र का दर्ज़ा दे दिया था। 1929 में जब साइमन कमीशन का नागालैंड में आगमन हुआ था तो नागा प्रतिनिधियों ने उन्हें एक प्रतिवेदन में कहा था कि अंग्रेजों के बाद नागा पहाडिय़ों को भारत में शामिल न किया जाए। यही नहीं, नागाओं के नेता फिज़ो ने देश की स्वतंत्रता से एक पहले, यानी 14 अगस्त 1947 को नागालैंड की स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। फिर इसके बाद भारत सरकार के साथ नागा नेताओं के संघर्ष का एक लम्बा सिलसिला चला। तमाम समझौतों और शांति के विभिन्न प्रयासों के बाद भी राष्ट्रीय समाजवादी नागालैंड परिषद एनएससीएन आज तक जिस 'बृहत्तर नागालैंड' की स्वतंत्रता की मांग पर कायम है, उसमें वर्तमान नागालैंड राज्य के अतिरिक्त असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और म्यानमार के कई हिस्से भी शामिल हैं। इस अव्यावहारिक मांग के सुलझने की कोई उम्मीद नहीं दिखती क्योंकि मणिपुर, असम और अरुणाचल के प्रवक्ता महाभारत के अंदाज़ में अपने राज्य की सुई की नोक बराबर ज़मीन भी नागाओं के लिए छोडऩे के लिए तैयार नहीं हैं। फिलहाल सरकार और स्थानीय प्रतिनिधियों के बीच समझौतों, प्रति समझौतों और विरोधों-गतिरोधों का एक अंतहीन सिलसिला जारी है जिसमें देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां अशांत जल में मछलियां फांसने की खतरनाक कवायद में जुटी हैं।
हमारे मन के अनिश्चय को भांप अंकल पिमोमो सारी कटुता को दरकिनार कर हमें अपनी छोटी बेटी के साथ खोनोमा के प्रख्यात जंगली सेबों के जंगल की ओर ले चलते हैं। यहां हर तरफ सेबों के बेतरतीब पेड़ हैं। गांव की ही एक छोटी सी दुकान पर इन सेबों को चिप्स की शक्ल में काटकर सुखाया जाता है। जंगल में बेहिसाब उगने वाले ये जंगली सेब बेहद मीठे हैं। अंकल पिमोमो गर्व से मुस्कराकर हमारी ओर देखते हैं और फिर लौटने के बाद नागा इतिहास की उस किताब को एहतियात के साथ वापस अपनी आलमारी में रख देते हैं!
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इस श्रृंखला की पिछली कडिय़ों में मयनमार से विस्थापित रोहिंगिया मुसलमानों की त्रासदी का ज़िक्र एकाधिकबार आया है। देश को हिन्दू राष्ट्र में बदलने का संकल्प रखने वालों ने जहां देश के दस हज़ार रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थियों को देश-निकाले की सजा सुना दी है, वहीं चकमा शरणार्थियों और तिब्बत से आये बौद्धों को अरुणाचल प्रदेश में बसाने का फैसला ले लिया गया है। कट्टरपंथियों के विरुद्ध लिखने वाली गौरी लंकेश की घर बैठे, सुपरिचित हो चुके अंदाज में, हत्या हो चुकी है और कातिलों का कोई सुराग नहीं है। और अभी आज ही अलवर में भीड़ द्वारा बेरहमी से मारे जाने वाले पहलू खान के छ: हत्यारों के विरुद्ध केस को राजस्थान पुलिस ने निराधार कहकर बंद कर दिया है। 'बिजनेस स्टैण्डर्ड' में मिताली शरण के शब्दों में -
''मेरा मानना है कि हम हिन्दू राष्ट्र बनाए जाने के खतरे से आगे अब सचमुच एक शिशु हिन्दू राष्ट्र बनाए जा चुके हैं। हत्याएं हो चुकी हैं, निर्दोष अल्पसंख्यकों को सरे आम मारा जा चुका है। (आरोपी छूट चुके हैं) और बच्चों को नया इतिहास सिखाया जा रहा है। राज्य और धर्म का गठजोड़ संपन्न हो चुका है। बस अब सिर्फ देश के संविधान में परिवर्तन लाया जाना बाकी है। हमारा जनतंत्र आज अपने जिंदा रहने की लड़ाई लड़ रहा है। और यदि आप इस बात को खामख्वाह 'भय उत्पन्न करने वाली बकवास' मानकर बैठे हैं तो यकीन मानिए, कल आप ही इसके ऐसा होने का कारण भी बनेंगे।''
(अगले अंक में जारी)





संपर्क : मो. 9324223043, जयपुर


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