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जनवरी 2018

हिंदी के पास एक ही 'मित्रो' है और 'मित्रो' के पास एक ही दुनिया

अतुल कुमार मिश्र

मूल्यांकन / वो दुनिया थी, जहां तुम बंद रखते थे जुबां मेरी ये महशर (क़यामत का दिन) है, यहां सुननी पड़ेगी दास्तां मेरी




हिंदी की साहित्यिक दुनिया में 'मित्रो' के जन्म का यह 50 वां साल है। ऐसे में 50 साल पुरानी उस 'मित्रो मरजानी' को मुड़ कर देखते हुए मन में बार-बार यह खयाल आता है कि 50 सालों के इस लंबे अरसे के बाद हमारी मित्रो अगर आज होती, तो कहाँ होती? कितने तो बसंत देख लिए होते उसने और कितने ही पतझड़ों को जी लिया होता अपने भीतर...., और इतना कुछ देख लेने, जी लेने के बाद, क्या अब भी बची होती उसके पास वो 'नज़र' (सात्र्र का 'ञ्जद्धद्ग रुशशद्म' जो अपने 'अदरनेस' को नकारते हुए अपने 'सेल्फ' को पाने की एक प्रक्रिया है), जिसने उसके पति और जेठ के बहाने हिंदी-जगत की पूरी पितृसत्ता को हिला कर रख दिया था। उसका वह बेबाक अंदाज़-ए-बयां, जिसने अपनी नुकीली ज़ुबान से घर, परिवार और समाज के बने-बनाए ढांचे में उथल-पुथल मचा दी थी, क्या अब भी उतना ही बेबाक होता? या वक़्त की आंधियों ने उस बेबाक अंदाज़ और उस खुरदुरी ज़ुबान को, जिसके बिना मित्रो के होने का कोई मानी नहीं, घिस-घिस कर उतना ही चिकना और चमकदार बना दिया होता जितना कि उसकी जेठानी और घर की आदर्श बहू 'सुहाग' थी। ज़ाहिर है कि इन सवालों का सीधा जवाब दे सकने वाली मित्रो की कोई उत्तर-कथा हमारे पास नहीं है, लेकिन मुमकिन है कि इन सवालों की रोशनी में मित्रो के पास पीछे लौटने में ही हमें इन सवालों का कोई जवाब मिल जाए।
1967 में अपने प्रकाशन के साथ ही हिंदी की दुनिया में तहलका मचा देने वाली 'मित्रो मरजानी', हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा 'चरित्रों' में शामिल है, जो हमेशा के लिए अपने रचनाकार से बड़े हो जाते हैं। ज़ाहिर है कि ऐसे में वह रचनाकार ताउम्र अपने ही रचे एक 'पात्र' के जरिए पहचाने जाने की अनिवार्य नियति को भोगने के लिए अभिशप्त होता है। अस्तित्ववादी नजरिए से देखें तो किसी रचनाकार के लिए यक़ीनन यह एक त्रासद स्थिति है और शायद इसलिए कोई भी रचनाकार ये कभी नहीं चाहता कि उसके हाथों गढ़ा जा रहा कोई 'पात्र' उसकी 'लेखकीय समझदारी' के दायरे से बाहर निकल अपना रास्ता खुद तय करे। लेकिन 'पात्र' हैं कि डोर से बंधी अपनी ज़िंदगियों से अलग अपना रास्ता खुद चुनना चाहते हैं। हर बड़ी रचना के भीतर रचनाकार और उसके पात्रों के बीच नियंत्रण और मुक्ति का यह संघर्ष लगातार चलता रहता है। हालांकि इस कश्मकश में कभी-कभी ही यह मुमकिन होता है कि कोई 'पात्र' अपने रचनाकार के दायरों के बाहर निकल अपना रास्ता खुद तय कर सके, मगर यक़ीन मानिए कि जब भी ऐसा होता है, साहित्य की दुनिया के कुछ यादगार 'चरित्र' हमारे सामने आते हैं। कृष्णा सोबती की 'मित्रो' भी ऐसा ही एक 'चरित्र' है जो अपने रचनाकार के साथ इस सतत संघर्ष की स्थिति में रहते हुए लगातार अपने लेखक और उसकी दुनिया (तत्कालीन हिंदी साहित्य-जगत) के मध्यवर्गीय दायरों का अतिक्रमण करने की कोशिश करती है और खुद को बचाने के इस संघर्ष में अपनी जिजीविषा और जीवटता के चलते, हिंदी साहित्य के एक न भुलाए जा सकने वाले 'चरित्र' के रूप में हमारे सामने आती है।
'मित्रो मरजानी' की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए कृष्णा सोबती अपनी किताब 'सोबती एक सोहबत' में बताती हैं कि दरअसल 'मित्रो' के चरित्र की प्रेरणा उन्हें उन दो औरतों से मिली जिनमें से एक को उन्होंने डूंगर (गुजरात) के पास किसी बन रही इमारत में मजदूरी करते हुए देखा था और दूसरी को शहर की पुरानी खस्ताहाल बस्ती में अपनी यौनिक मुखरता (सेक्सुअल बोल्डनेस) के चलते सास व पति से झगड़ते और पिटते हुए। पहली से मित्रो को उसका व्यक्तित्व और बाहरी रुप मिला है, जबकि दूसरी औरत को यौनिक मुखरता से एक 'चरित्र' के बतौर मित्रो अपना प्राणतत्व लेती है। इस तरह इन दो औरतों के मेल से कृष्णा सोबती मित्रो का जो 'पात्र' रचती हैं, वह अपनी देह व रूप के प्रति एक सगर्व आत्मबोध से भरी और अपनी यौनिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति को लेकर बेहद मुखर मित्रो को एक ऐसी हक़ीक़त में बदल देता है, जो हमारे समाज का हिस्सा होने के बावजूद अब तक हिंदी के साहित्यिक दायरे से बाहर थी। इस लिहाज से मित्रो को हम एक ऐसे वास्तविक चरित्र के रुप में देख सकते हैं, जिसमें कृष्णा सोबती ने अपनी कल्पना व समझदारी के रंग भरे हैं। एक रचना और एक 'चरित्र' के नाते मित्रो का कोई भी विश्लेषण इन दो ज़रूरी बिंदुओं को ध्यान में रखे बिना संभव नहीं हो सकता। यद्यपि 'मित्रो' से पहले और उसके बाद भी वास्तविक ज़िंदगियों से प्रेरित बहुत से अच्छे-बुरे साहित्यिक पात्र रचे गए हैं, लेकिन मित्रो से वे इस मायने में अलग हैं कि मित्रो की तरह उनकी ज़िंदगियां महज यौनिकता के एक ऐसे केंद्रीय तत्व के इर्द-गिर्द ही नहीं सिमटी हैं, जिसकी भारतीय समाज और साहित्य में हमेशा से ही पर्दादारी रही है। दूसरी तरफ मित्रो की सबसे बड़ी खासियत ही एक है कि वह अपने 'होने' को लेकर किसी भी किस्म के अपराधबोध से मुक्त हिंदी की पहली ऐसी बेबाक नायिका है, जो प्रचलित सामाजिक आदर्शों के खांचे में फिट न होने के बावजूद न केवल अपने 'होने' को पूरी ताकत से जीती (श2ठ्ठ करती) है, बल्कि अपने ऐसा 'होने' की कोई वजह देकर (अगर उपन्यास के आखिरी हिस्से के क्लाइमेक्स को छोड़ दें तो) खुद को जस्टीफाई करने या पाठकों की सहानुभूति बटोरने की भी कोशिश नहीं करती। वह जैसी भी है, अपनी पूरी बेबाकी और बेपर्दगी के साथ बिना किसी दुराव-छिपाव के खुलकर हमारे सामने आती है और दुनिया की नज़रों में 'बुरी औरत' का ठप्पा लगाए हुए भी अपने इस 'होने' के प्रति एक सहजता के साथ, न केवल उपन्यास में बल्कि आगे चलकर हिंदी के साहित्यिक विमर्श में भी एक केंद्रीयता हासिल करती है।
हिंदी साहित्य की 50 साल पुरानी 'नैतिक' दुनिया के लिहाज से देखें तो मित्रो एक बेहद बोल्ड स्त्री-पात्र है और इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि मित्रो की यह बोल्डनेस ही उसे हिंदी की दुनिया में इतना लोकप्रिय और विवादित बनाती है। आधुनिक हिंदी साहित्य में बहुत कम 'स्त्री-पात्र' ही ऐसे होंगे जिन पर इतनी चर्चा हुई हो और आज तक लगातार हो रही हो। लिहाजा, यह कहे जाने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि अगर कृष्ण सोबती ने और कुछ न लिखा होता, तब भी सिर्फ 'मित्रो मरजानी' की लेखिका के रुप में भी, वे हिंदी के साहित्यिक दायरे में शायद उतनी ही महत्वपूर्ण होतीं, जितनी आज हैं। मगर यहाँ इस सवाल पर भी गौर किया जाना चाहिए कि क्या मित्रो का महत्व बस इतना ही है कि वह हिंदी-साहित्य की 'संस्कारी' दुनिया की पहली 'वर्जित नायिका' है? और इस वर्जित होने में ही उसकी लोकप्रियता और उसके इतना चर्चित होने के बीज छिपे हैं? संभव है कि मित्रो की लोकप्रियता का उसके 'वर्जित नायिका' होने के साथ एक सीधा संबंध बनता हुआ दिखता हो और इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता, पर जो बात यहाँ ज्यादा ज़रूरी है, वो यह कि साहित्य के लिए जो हमेशा 'वर्जित नायिका' रही, वह क्या समाज के लिए भी हमेशा पूरी तरह वर्जित थी? और अगर ऐसा था तो वह देखना महत्वपूर्ण होगा कि समाज के लिए वर्जित, उपेक्षित और निंद्य 'मित्रो' जब साहित्य का हिस्सा बनती है तो क्या वह समाज की वही पुरानी असली मित्रो होती है या अब वह अपने रचनाकार के वैचारिक दायरों में सिमट कर मित्रो का केवल एक अक्स भर रह जाती है।
यह सही है कि मित्रो हमारे समाज की एक ऐसी हक़ीक़त थी, जिसके लिए साहित्य की 'सभ्य और सुसंस्कृत दुनिया' में इसके पहले तक कोई जगह नहीं थी। ऐसे में 'मित्रो मरजानी' की लेखिका के बतौर कृष्णा सोबती का महत्व यह रहा कि वे इस हक़ीक़त को (समाज के अंधेरे कोनों में छुपा दिए जाने या साहित्य के रोशन दायरे से बाहर कर दिए जाने की सचेतन कोशिशों के बावजूद) हिंदी साहित्य में औरत की एक नई और बगावती छवि 'मित्रो' के रूप में पेश कर, 'सीता' और 'सावित्री' नुमा प्रचलित आदर्श छवियों के बरक्स, उसे स्त्री-अस्मिता का एक नया प्रतीक बना देती हैं। हालांकि अगर हम  'मित्रो मरजानी' की इस पूरी रचना-प्रक्रिया को एक परिघटना के बतौर देखने की कोशिश करें तो इसमें तत्कालीन दौर की उस भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, जहाँ स्त्री-अस्मिता की यह चेतना आकार ले रही थी। यह वो दौर था, जब पूरी दुनिया में नारीवाद की 'दूसरी लहर' अपने रेडिकल फ्रेमवर्क में स्त्री-अस्मिता के सवालों को लेकर मुखर थी और भारत भी इससे अछूता नहीं था। यही वह दौर था जब अपनी अस्मिताई पहचान के प्रति सजग हिंदी साहित्य में महिला-लेखिका की एक पूरी नयी पीढ़ी सामने आती है जो खुद को महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान की पुरानी पीढ़ी से अलग करती है। अपने अस्तित्व और अपनी अस्मिता के प्रति इस सजगता में ही हम हिंदी के स्त्री-विमर्श का शुरुआती आधार देख सकते हैं। हालांकि कृष्णा सोबती सहित इस दौर और इसके बाद की भी अधिकांश लेखिकाएं खुद को नारीवादी मानने से इंकार करती हैं, लेकिन उनकी रचनाओं में आए स्त्री-प्रश्नों, जिस पर आगे चलकर हिंदी का पूरा स्त्री-विमर्श निर्मित होता है, की चेतना का बुनियादी आधार नारीवाद की इस नई रोशनी में ही आकार ग्रहण करता है। अपने समय-समाज की इस चेतना को प्रतिबिंबित करती कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, उषा प्रियंवदा जैसी लेखिकाओं द्वारा हिंदी साहित्य में औरत की नई छवियों और उसके नए सवालों के साथ सामने आने को इस संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। इस दौर की रचनाओं में स्त्री-चरित्र जिन सवालों और द्वंद्वों से जूझते नज़र आते हैं, वह इन नई स्त्री-चेतना का ही असर है।
एक रचना के बतौर 'मित्रो मरजानी' को भी हम इस नई स्त्री-चेतना की ही उपज मान सकते हैं, लेकिन एक 'चरित्र' के बतौर 'मित्रो' का मसला थोड़ा अलग है और यही उसे रचना और विश्लेषण दोनों के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण बनाता है। हम देख सकते हैं कि मित्रो के चरित्र का इस समकालीन स्त्री-चेतना के साथ एक कटाव है और इसकी वजह मित्रो की सामाजिक पृष्ठभूमि में है। मित्रो गांव या कस्बे के किसी गैर-सवर्ण, गैर-समृद्ध, सामान्य किसान परिवार की बहू है और उसका कम पढ़ा-लिखा या शायद बिल्कुल भी पढ़ा-लिखा न होना, उसे इस नई विकसित स्त्री-चेतना के दायरे से बाहर कर देता है। इसका कारण यह था कि दरअसल यह नई स्त्री-चेतना अपनी संरचना में ही उच्च जातीय, मध्य वर्गीय और शहर केंद्रित थी और इसलिए मित्रो के निम्न जाति, निम्न वर्ग वाले ग्रामीण सामाजिक दायरे तक इसकी पहुँच ही नहीं थी। लेकिन बावजूद इसके, आज़ादी के बाद के अधिकांश हिंदी साहित्य में यही नव-विकसित स्त्री-चेतना छाई हुई है। मतलब यह कि समाज के एक सीमित दायरे में घट रही कोई प्रक्रिया (स्त्री-चेतना का विकास) साहित्य के 'तथाकथित' दर्पण में करीब-करीब सार्वभौमिक (या सबसे प्रभुत्वशाली) प्रवृत्ति के दौर पर नज़र आ रही है। यह बात साहित्य और समाज के बीच बन गए एक ऐसे गैप की ओर इशारा करती है, जिस पर कम ध्यान दिया गया है। इस गैप के चलते ही समाज की शहरी मध्यवर्गीयता; साहित्य की मुख्यधारा बन जाती है और इस तरह समाज का एक बड़ा हिस्सा साहित्य की दुनिया से बाहर ही छूट जाता है। 'मित्रो' भी हिंदी-साहित्य की दुनिया का ऐसा ही एक छूटा हुआ किरदार है, जो अपने रचनाकार की युग-चेतना (मध्यवर्गीय स्त्री अस्मिता की खोज) के चलते एक खास समय में हिंदी साहित्य की मुख्यधारा का हिस्सा तो बनता है, लेकिन उसी युग-चेतना की लेखकीय सीमाओं के चलते समाज से साहित्य की यात्रा में उस गैप को नहीं भर पाता जो साहित्य के शहरी मध्यवर्गीय मूल्यों और द्वंद्वों का अतिक्रमण कर सके।
यहाँ स्वातंत्र्योत्तर हिंदी-साहित्य की मध्यवर्गीयता पर भी कुछ बात कर लेना बेकार नहीं होगा। हम देख सकते हैं कि 1967 में 'मित्रो मरजानी' (जिसे हिंदी की सबसे बोल्ड नायिका कहा गया) के आने से कहीं पहले 1941 में उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई की लेस्बियन संबंधों पर आधारित कहानी 'लिहाफ' आ चुकी है, जिसकी नायिका 'बेगम जान', मित्रो की तरह अपनी यौन-अभिव्यक्तियों को लेकर उतनी मुखर तो नहीं है, लेकिन अपने अलग यौनिक रुझान (समलैंगिकता) के लिए इसी पितृसत्तात्मक संरचना के दायरे में उसने एक जगह बनाई हुई है। इसी तरह मंटो की कहानियों के महिला चरित्र हक़ीक़त की जिस ज़मीन से आते हैं, हिंदी की दुनिया में वे दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखते। कृष्णचंदर, राजिन्दर सिंह बेदी और कुर्रुतल एन हैदर से लेकर नए उर्दू लेखन तक और हिंदी कविता के बरक्स उर्दू शायरी की पूरी परंपरा को गौर से देखने पर हिंदी के मुक़ाबले उर्दू में एक बोल्डनेस नज़र आती है। ऐसे में यह सवाल लाज़मी है कि एक ही सामाजिक-सांस्कृतिक-भौगोलिक दायरे से उपजी हिंदी और उर्दू की रचनाओं में आिखर यह फर्क क्यों है? कहीं इसके सूत्र एक भाषा के बतौर आधुनिक हिंदी की उस निर्मिति से तो नहीं जुड़ते हैं जो राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट का एक ज़रूरी हिस्सा था और जिसके तहत ही उर्दू को तवाय$फों की ज़बान घोषित कर, हिंदी को उसके असर से मुक्त करते हुए एक नयी 'संस्कारी' (संस्कृतनिष्ठ) हिंदी गढ़ी गई थी। यह गढ़ी जा रही नयी हिंदी महज भाषा का 'संस्कारीकरण' नहीं था, बल्कि इसमें भाषा के जरिए समाज के 'संस्कारीकरण' की कोशिशें भी छिपी हुई थीं और इसीलिए यह पूरी प्रक्रिया मूलत: साहित्य और पत्रकारिता (जो उस समय एक-दूसरे से जुड़े हुए थे) के जरिए ही संपन्न हुई। पत्रकारिता ने भाषा और संस्कृति का एक बौद्धिक विमर्श निर्मित किया और इस विमर्श की प्रेरणा से ओतप्रोत साहित्य ने रचनाओं एवं पात्रों के जरिए समाज को संस्कारित करने की दिशा में अपनी निर्णायक भूमिका निभाई। आश्चर्य नहीं कि साहित्य के 'संस्कारीकरण' की इस प्रक्रिया ने उसे अपने ही समाज की कई अन्य तरह की वास्तविकताओं के प्रति अंधा बना दिया। नतीजतन जहाँ एक तरफ 'बे$गम जान' जैसे किरदार हिंदी की इस साहित्यिक दुनिया से बाहर ही रह गए, वहीं 'मित्रो' को इस दुनिया का हिस्सा बनने के लिए साहित्य में स्त्री-चेतना के जन्म तक का लंबा इंतज़ार करना पड़ा।
दरअसल, भारत जैसे सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधता वाले बहु-जातीय समाज में मित्रो जैसे किरदार न तो कोई विडम्बना हैं और न ही कोई अचंभा, बशर्ते 'समाज' से हमारा तात्पर्य ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से संचालित समाज के एक छोटे से हिस्से तक ही सीमित न हो। यह अलग बात है कि ये छोटा सा हिस्सा ही मुख्यधारा बना हुआ है। फिर भी हम जानते हैं कि बहुलतामूलक भारतीय समाज में पितृसत्ता के कई रूप (पितृसत्ताएं) हैं, और यद्यपि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता सबसे मजबूत और ताकतवर है, मगर मुख्यत: यह सवर्ण जातियों तक ही सीमित है। अवर्ण जातियों से लेकर जनजातीय समाजों तक में पितृसत्ता के स्वरूप और उसकी तीव्रता में फर्क है। इसके अलावा हर किस्म की पितृसत्ताओं के खिलाफ खुले-छिपे रुप में प्रतिरोध के स्वर भी हैं ही। इन स्थितियों में यौनिक मुखरता या किसी भी किस्म का यौन रुझान अथवा यौनिक व्यवहार भारत के बहुलतामूलक समाज के भीतर की अनिवार्य वास्तविकताएं हैं और बेशक उन्हें हर जगह सामाजिक मान्यता हासिल न हो, पर उसकी उपस्थिति के प्रति स्वीकार्यता का एक मिला-जुला भाव विभिन्न समाजों के भीतर हमेशा ही मौजूद रहा है। दूसरी तरफ, राष्ट्र-राज्य की आधुनिक चेतना से लैस 'नये भारत' में बहुलताओं को दरकिनार कर सामाजिक एकरूपता (होमोजेनाइजेशन) पर ज्यादा जोर रहा और इसके लिए की जा रही कोशिशों में 'साहित्य' ने भी अपनी भूमिका निभायी। इन कोशिशों का मकसद विभिन्न सामुदायिक पहचानों (यानि अलग-अलग पितृसत्ताओं) को एक राष्ट्रीय पहचान (ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के दायरे) में शिफ्ट करना था और इसके तहत मुख्यधारा की मूल प्रवृत्तियों (जिसमें ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भी एक है) को अन्य समाजों पर थोपने की प्रक्रिया भी जारी थी। तत्कालीन हिंदी-साहित्य ने इसमें दो तरह से योगदान दिया। एक तो यह 'अपने खास दायरे में सीमित ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' को लगातार चुनौती देते हुए अनजाने में ही उसे पितृसत्ता की एकमात्र अवधारणा के रूप में वैध ठहरा देता है, वहीं दूसरी तरफ जिन समाजों/समुदायों में ब्राह्णवादी पितृसत्ता कभी नहीं रही, उन्हें देखने के अपने नजरिए में भी यह ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक मूल्यों की निजी मध्यवर्गीय चेतना से ही संचालित होता है, और इस तरह ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को गैर-ब्राह्मणवादी सामाजिक दायरों पर लादने की चल रही विभिन्न राष्ट्रीय प्रक्रियाओं का ही एक हिस्सा हो जाता है। 'मित्रो' के उदाहरण से इस बात को आसानी से समझा जा सकता है -
हम देखते हैं कि एक औपन्यासिक किरदार के बतौर मित्रो की यौनिक मुखरता उसके व्यक्तित्व का सबसे प्रभावी हिस्सा है और अपनी इसी यौनिक मुखरता के चलते वह हिंदी समाज का हिस्सा होते हुए भी लंबे समय तक हिंदी की 'संस्कारी' साहित्यिक दुनिया से बाहर थी। लेकिन साहित्य में स्त्री-चेतना के विकास के साथ जब ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक मूल्य सवालों के घेरे में आए तो अपनी इस यौनिक मुखरता के चलते वह इन मूल्यों के प्रतिरोध का प्रतीक बनकर प्रकट हुई। मतलब यह कि दोनों ही स्थितियों में उनकी यौनिक मुखरता का मसला ही सबसे अहम रहा - ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के लिए भी और इसका प्रतिरोध रचते नए विमर्शों के लिए भी चूंकि मित्रों की बेबाक यौन-अभिव्यक्तियाँ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से एक 'विचलन' थीं, इसलिए आश्चर्य नहीं कि 'आदर्श' साहित्य को इस 'विचलन' से बचाए जाने की ज़रूरत थी। दूसरी तरफ स्त्री-चेतना से लैस प्रतिरोधी साहित्य के लिए चूंकि यह 'विचलन' ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का प्रतिकार था, इसलिए अब इसे ही प्रतिरोध का नया आदर्श होना था। कुल मिलाकर नतीजा यह हुआ कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और उसके प्रतिकार की इस बाइनरी में जो साझी बात निकलकर सामने आई, उसने मित्रो की यौनिकता को अंतत: 'विचलन बनाम विशिष्टता' के ही खांचे में बाँट कर साहित्य में उसकी 'सामान्यता एवं स्वीकार्यता' को लगभग असंभव बना दिया। जबकि साहित्य की इस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के दायरे से बाहर मित्रो को अपनी मूल सामाजिक पृष्ठभूमि में ज़रूरी नहीं कि इसे कोई 'विचलन' ही माना जाता हो। ज़ाहिर है कि जाने-अनजाने यह ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का ही सार्वभौमीकरण है, जहाँ इसका प्रतिरोध रचती मित्रो इसके शिकार के रूप में इसकी व्यापकता और सार्वभौमिकता को ही वैधता दे रही होती है। फूकोवियन संदर्भ में कहें तो दरअसल पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर इस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की एक नई दुनिया गढ़ते हैं और विकल्पों की हर गुंजाइश इस दायरे से बाहर हो जाती है।
उपरोक्त विश्लेषण की रोशनी में 'मित्रो मरजानी' की औपन्यासिक दुनिया से गुजरते हुए हम लगातार उस द्वंद्व को देख सकते हैं जो मित्रो की निजी इच्छाओं और 'मान्य' पारिवारिक मूल्यों के बीच घटित होता है और अन्तत: अपने वास्तविक स्वरूप में मित्रो को उसकी पारिवारिक संरचना के भीतर मिसफिट बनाता है। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से संचालित पारिवारिक मूल्यों से मित्रो की यह टकराहट ही उपन्यास का मुख्य प्लॉट है और शेष घटनाएँ एवं पात्र इस मुख्य प्लॉट को उभारने के लिए ही रचे गए हैं। कहानी एक ग्रामीण (या अद्र्ध कस्बाई) संयुक्त परिवार की है जिसका मुखिया (गुरुदास) अपनी पत्नी (धनवंती) और तीन बेटे-बहुओं (बनवारी-सुहाग, सरदारी-मित्रो और गुलज़ारी-फूला) के साथ सामान्य जीवन जी रहा है। घर में एक तरफ आदर्श बेटा-बहू (सरदारी-सुहाग) हैं तो दूसरी तरफ लालची, कामचोर और घर तोडऩे वाली एक 'बुरी' बहू और उसका पिछलग्गू पति (गुलज़ारी-फूला) भी है। इन टिपिकल स्टीरियोटाइप चरित्रों के बीच परिवार का एक तीसरा जोड़ा भी है - मित्रो और उसके पति सरदारी का। मित्रो परिवार की मँझली बहू है और अपनी तेज ज़बान एवं 'असामान्य' यौनिकता के अलावा उसमें वे सारे अच्छे गुण हैं जो उसे परिवार की आदर्श बहू 'सुहाग' के बराबर खड़ा करते हैं, लेकिन मित्रो 'आदर्श' नहीं है और पारिवारिक मूल्यों की चारदीवारी में उसका 'आदर्श' हो सकना  संभव भी नहीं है। मित्रो भी इस बात को जानती है और इसीलिए अपने इस अलग 'होने' के अहसास को भुलाकर जेठानी सुहाग जैसा आदर्श बनने की उसकी कोई चाह नहीं है। उपन्यास में अपनी जेठानी सुहाग से कहा गया उसका एक संवाद ''तुम्हारे जैसे सत बल कहाँ से लाऊं जेठानी, मेरे भीतर तो इतनी आग है न, कि जी करता है...'' इशारा करता है कि सुहाग के किरदार के 'नैतिक आभामंडल' से वह प्रभावित तो है लेकिन इससे आक्रांत नहीं है और इसलिए वह जैसी भी है, अपनी इस अलग पहचान के प्रति पूरी तरह सजग और ईमानदार है। मित्रो की यह अलग पहचान ही उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है क्योंकि अच्छी और बुरी औरत के पितृसत्तात्मक खांचों के बीच मित्रो का होना एक ऐसे सवाल की तरह है, जिसका कोई जवाब पितृसत्ता के पास नहीं है। एक किरदार के बतौर मित्रो में सब कुछ अच्छा है, सिवाय इसके कि हिन्दी-साहित्य की दूसरी नायिकाओं की तरह वह 'अ-यौनिक' नहीं है। वास्तविक ज़िंदगी के किसी सामान्य मनुष्य की तरह ही उसकी भी न्यूनाधिक यौन-इच्छाएं हैं और उसकी विशिष्टता सिर्फ इतनी है कि सामान्य लोक-व्यवहारों (मध्यवर्गीय) के विपरीत, वह इन इच्छाओं को दबाने-छिपाने के बजाय खुलकर स्वीकार करती है। वैध पारिवारिक दायरे में इन इच्छाओं की पूर्ति न होना (वजह चाहे पति की अक्षमता हो या मित्रो की अति-यौनिकता) और मर्दवादी तरीकों (हिंसा) से इसके दमन की कोशिशें अपनी यौन-अभिव्यक्तियों में उसे और मुखर बनाती हैं। इस तरह अपनी इसी 'असामान्य' यौनिकता की मुखर अभिव्यक्तियों और उससे उपजे टकरावों की राह पर मित्रो और उपन्यास 'मित्रो मरजानी' की कथा आगे बढ़ती है जब कि अपने क्लाइमेक्स में मित्रो की 'वैश्या' माँ के किरदार की विडंबना के जरिए वह उसे एक ऐसे दोराहे पर खड़ा नहीं कर देती, जहां से वापस लौटना ही मित्रो की एकमात्र नियति है। यह घर वापसी ही मित्रो की कथा का अंत है और आश्चर्य नहीं कि इस अंत पर आलोचकों द्वारा पर्याप्त सवाल उठाए गए हैं।
इन आलोचनाओं में जो बात प्रमुख रूप से निकल कर सामने आती है, वो यह कि पूरे उपन्यास में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को दी गई चुनौती के जरिए मित्रो स्त्री-मुक्ति की राह में जो जमा-पूंजी अर्जित करती है, उसे उपन्यास के अंत में अपने ही हाथों लुटा देती है। दूसरी तरफ इन आलोचनाओं के बरक्स इस अंत को क्रांतिकारी न सही लेकिन 'उचित' मानने वाले लोग भी हैं। इनका तर्क है कि स्त्री-मुक्ति की राह पर मित्रो की 'घर-वापसी' का फैसला उसका अपना चुनाव है, न कि पितृसत्ता द्वारा पहले से तय कर दी गयी किसी निश्चित भूमिका का अनुसरण, और चुनाव का यह हक़ उसने लंबे संघर्षों के बाद अपने अस्तित्व (सेल्फ) को खोजकर, गढ़कर हासिल किया है, इसलिए मित्रो के इस कदम को स्त्री-मुक्ति की राह से उसके स्थगन की तरह नहीं, सिर्फ एक पड़ाव की तरह देखा जाना चाहिए। लेकिन इन दोनों तरह की आलोचनाओं में जो एक बात समान है, वो यह कि इन दोनों ने ही मित्रो को उपन्यास की मूल कथा के दायरे में ही देखने की कोशिश की है, जबकि 'मित्रो' एक औपन्यासिक किरदार होने से पहले एक सामाजिक सच्चाई भी है। यह सामाजिक सच्चाई जब 'मित्रो मरजानी' के रूप में हिंदी साहित्य के एक काल्पनिक कथा-चरित्र में बदलती है तो इस प्रक्रिया में उसके कुछ मूलभूत बदलाव आते हैं। ये बदलाव और इन बदलावों के कारणों पर विचार करना इसलिए जरूरी है क्योंकि यहीं से हमें 'मित्रो' की कथा के उस क्लाइमेक्स को समझने के सूत्र मिलेंगे जिस पर आलोचकों द्वारा पर्याप्त चर्चा-बहस की जाती रही है।
एक उपन्यास के बतौर 'मित्रो मरजानी' दो मायनों में महत्वपूर्ण है। पहला, परिवार, समाज और हिंदी-साहित्य की दुनिया में मित्रो जैसे बोल्ड किरदार को सामने लाकर ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को दी गई चुनौती के रूप में (जिस पर साहित्य की दुनिया में खूब बातें हो चुकी हैं) और दूसरा, उस समानांतर प्रक्रिया के रूप में जहां साहित्य और लेखन की मध्यवर्गीयता के जरिए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता खुद को नए रूप-रंग में प्रकट करती है और जिसे समझना महत्वपूर्ण है। इस समानांतर प्रक्रिया को हम 'मित्रो मरजानी' के भीतर उपन्यास नायिका और उपन्यास लेखिका के बीच अघोषित रुप से चल रहे एक सतत संघर्ष के रुप में घटित होते हुए देख सकते हैं। यह संघर्ष एक अंडरटोन की तरह पूरे उपन्यास में मौजूद है और उपन्यास के आखिरी हिस्से यानि कहानी के क्लाइमेक्स में यह अपने चरम पर पहुँचते हुए सतह पर आ जाता है। मित्रों और उसकी लेखिका के बीच इस संघर्ष की वजह असल में उनकी अलग-अलग वर्गीय, जातीय पृष्ठभूमियों में निर्मित खास सामाजिक दायरों और इससे उपजे दबावों का नतीजा है। चूंकि मित्रो और कृष्णा सोबती दोनों ही दो अलग-अलग सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में एक-दूसरे से भिन्न दो स्वतंत्र व्यक्तित्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं, ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि सामाजिक व्यवहारों, नैतिक मूल्यों या आदर्शीकृत मान्यताओं को लेकर दोनों की धारणाओं में एक फर्क हो। लेकिन दिक्कत तब आती है जब ये दोनों स्वतंत्र व्यक्तित्व एक-दूसरे से उस औपन्यासिक दायरे में टकराते हैं, जहां एक के पास रचनाकार की हैसियत से निर्णायक बढ़त होती है और दूसरे के पास महज एक 'किरदार' के रूप में लेखकीय सत्ता के मन मुताबिक तय कर दी गई एक पूर्व-निर्धारित नियति। मित्रो भी लेखकीय सत्ता के इस हस्तक्षेप का शिकार होती है, जब एक औपन्यासिक 'चरित्र' में बदलने की प्रक्रिया में उपन्यास लेखिका के हाथों वह अपने मूल सामाजिक यथार्थ से विस्थापित कर दी जाती है। उपन्यास में हम मित्रो को जिस ग्रामीण मध्यवर्गीय परिवार के एक हिस्से के तौर पर देखते हैं, वह उसकी मूल सामाजिक स्थिति (श्रमजीवी/निम्नवर्गीय) नहीं है। यह बात लेखिका के उस विवरण से भी पुष्ट होती है जिसमें जो मित्रो के किरदार की प्रेरणा बनी वास्तविक महिलाओं से अपनी मुलाकात का वर्णन करती हैं। यानि हम देखते हैं कि सामाजिक यथार्थ से औपन्यासिक किरदार बनने की यात्रा में मित्रो की वर्गीय/सामाजिक स्थिति बदल जा रही है।
उपन्यास में मित्रों की मूल वर्गीय/सामाजिक स्थिति का यह रूपांतरण उस दौरान चल रही दो सामानांतर प्रक्रियाओं की ओर इशारा करता है - पहला, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के दायरे से बाहर 'स्वीकार्य' रही मित्रो को इस दायरे के भीतर लाते हुए उसका शुद्धिकरण करना और दूसरा, इन गैर-ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक दायरों (यानि मित्रो की असल दुनिया) में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के बढ़ते असर (संभवत: संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत) को रेखांकित एवं पुष्ट करना। जाहिर है कि इन दोनों ही प्रक्रियाओं में एक किस्म के संघर्ष और टकराव का होना लाज़िमी है और यही कारण है कि मित्रो के इस वर्गीय रूपांतरण के बाद अब उपन्यास की पूरी यात्रा अपने पर थोपी इस मध्यवर्गीय मूल्य-चेतना से मित्रो के संघर्ष की यात्रा हो जाती है। यह संघर्ष मित्रो की मूल चेतना और उस पर थोपे गए इस मध्यवर्गीय सामाजिक परिवेश की इनबिल्ड मूल्य-चेतना के बीच है। यह संघर्ष मित्रो का मित्रो से है। उपन्यास की असल मित्रो का कृष्णा सोबती की नयी मित्रो से, और इसीलिए उपन्यास का क्लाइमेक्स बेहद महत्वपूर्ण को जाता है। यहाँ मित्रो अपने पति के साथ अपनी माँ के घर जाती है और तब हमें पता चलता है कि मित्रो की माँ का यह घर दरअसल एक कोठा है और मित्रो की माँ एक वैश्या। मित्रो की पूरी कहानी का यह सबसे चौंकाने वाला मोड़ है क्योंकि यहाँ जाते ही एक किरदार के तौर पर मित्रो की पूरी ताकत हिंदी साहित्य के मध्यवर्गीय नैतिकता बोध का शिकार हो जाती है। पूरे उपन्यास में अपनी लेखिका के साथ चल रहे संघर्ष में यह उसकी निर्णायक हार है। अपनी पूरी यात्रा में मित्रो अपने जिस 'होने' को लगातार जीती और महसूस करती रही थी, वह 'होना' अब सिर्फ उसका 'होना' नहीं रहता रचनाकार की ताकत से कृष्णा सोबती अपने इस क्लाइमेक्स में मित्रो को उसके 'अलग' होने की एक अनकही वजह दे देती हैं और यह वजह है, उसकी माँ का वैश्या होना। नतीजतन, जिस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से टकराते और उसे लगातार चुनौती देते हुए मित्रो ने अपने अस्तित्व को खोजा था, उस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के लिए भी अब इस 'वैश्या-पुत्री' की यौनिक-मुखरता अक्षम्य नहीं रहती, और ऐसे में फिर यह ही कोई बड़ी बात नहीं कि मित्रो की माँ के किरदार के जरिए मित्रो की कथा को मुकम्मल करने के मोह में लेखिका उस असली मित्रो को पूरी तरह भुला दे, जो 'मित्रो मरजानी' की इस मूल कथा की प्रेरणास्रोत थी।
इसीलिए मित्रो के जन्म के 50 साल बाद जब हम पीछे मुड़कर 'मित्रो मरजानी' को देखते हैं तो उसकी इस विडम्बना को भी देख पाते हैं कि एक तरफ जो मित्रो अपनी सेक्सुअल बोल्डनेस के चलते, अपने समय की सबसे बोल्ड नायिका घोषित होती है, वही मित्रो आखिर क्यों 'मित्रो मरजानी' की कथा में अपने अंत तक आते-आते इस बोल्डनेस को सहज रूप से स्वीकार करने (श2ठ्ठ करने) का नैतिक साहस भी खो देती है। अंत की ओर बढ़ती 'मित्रो मरजानी' की कथा अपने क्लाइमेक्स में बहुत साफ तौर पर यह जताने की कोशिश करती है कि मित्रो की सेक्सुअल बोल्डनेस का मसला, दरअसल उसकी वैश्या माँ की ज़िंदगी का नतीजा है। ऐसा करने से जहाँ एक तरफ अपनी माँ की गलतियों के मासूम शिकार के रूप में मित्रो को हिंदी साहित्य की ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से एक सहानुभूति मिल जाती है, वहीं हिंदी साहित्य की मध्यवर्गीय मूल्य चेतना को अपनी सेक्सुअल बोल्डनेस से लगातार चुनौती देती मित्रो अपने सेक्सुअली बोल्ड होने के अपराध से भी बरी होकर अंतत: निर्दोष साबित हो जाती है। नतीजतन, हिंदी साहित्य की मध्यवर्गीय नैतिकता के लिहाज से मित्रो की 'घर वापसी' में अब कोई बाधा नहीं रहती। जबकि कृष्णा सोबती की 'मित्रो मरजानी' के इस औपन्यासिक अंत से अलग समाज में किसी भी सेक्सुअली बोल्ड 'मित्रो' का 'होना', सहज और स्वाभाविक रूप से उसका अपना 'होना' है और इस 'होने' में किसी माँ का होना ज़रूरी नहीं।  इस होने को अपने सामान्य, सहज रूप में न स्वीकार कर पाने का मध्यवर्गीय नैतिकताबोध ही इस 'होने' के कारणों की तलाश करता है और इस तरह मित्रो को उसके वास्तविक स्वरूप में स्वीकार करने के बजाय उसके 'शुद्धिकरण' की कोशिशों को वैधता देती कहानियाँ गढ़ता है। 'मित्रो मरजानी' की कथा का क्लाइमेक्स भी एक ऐसी ही कहानी है जो कृष्णा सोबती के मध्यवर्गीय साहित्यिक सरोकारों से उपजती है और मित्रों की मूल चेतना को दरकिनार कर लेखकीय सत्ता की निर्णायक भूमिका के रुप में हमारे सामने आती है। कृष्णा सोबती की लेखकीय सत्ता का यह दखल इतना साफ है कि यह मित्रो को कहीं भी मध्यवर्गीय नैतिकताबोध के दायरे से बाहर नहीं जाने देता, चाहे वह अपनी उत्कट यौन-इच्छाओं और बेबाक यौन-अभिव्यक्तियों के बावजूद इसके लिए कोई भौतिक विकल्प न तलाशे जाने की मध्यवर्गीय मूल्य-चेतना के रूप में हो या अपनी वैश्या माँ के जीवन की अनिवार्य नियति को देखकर अंतत: उसी पितृसत्तात्मक दायरे में वापसी के विकल्पहीन चुनाव के रुप में।
कुल मिलाकर लेखकीय सत्ता की यह निर्णायक भूमिका ही पूरे उपन्यास में सबसे ताकतवर है और इस लेखकीय सत्ता के चलते ही लेखिका कृष्णा सोबती के साथ अपने संघर्ष में मित्रो की नियति तय है। यह तय है कि मित्रो अपनी मूल चेतना के साथ उपन्यास के उस नये मध्यवर्गीय दायरे में नहीं रह सकती, जहाँ उसे रख दिया गया है। रहने का मतलब है, कि उसे बदलना होगा और देर-सबेर इस नयी मध्यवर्गीय मूल्य-चेतना को स्वीकार करना होगा। बचने का सिर्फ एक ही रास्ता है, वो यह कि मित्रो खुद ही इस मध्यवर्गीय सामाजिक स्थिति और इससे उपजे पितृसत्तात्मक नैतिक मूल्यों के दायरों से बाहर निकल जाए और अपनी नयी दुनिया, नयी संभावनाएं तलाश करे। मित्रो के पास यह विकल्प हो सकता था, अगर लेखिका ने अपनी 'वैश्या' माँ के किरदार के जरिए एक तरफ उसके सेक्सुअली बोल्ड 'होने' की वजह देखकर और दूसरी तरफ किसी वैश्या जीवन की अनिवार्य त्रासदी का डर दिखाकर दूसरी दुनियाओं के उसके विकल्प खत्म न कर दिए होते, (जैसे कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के दायरे में फिट न होने वाली हर औरत लेखिका की नज़र में सिर्फ एक वैश्या ही हो सकती हो!)....। लेकिन विकल्पों का खत्म होना ही उम्मीदों का खत्म होना नहीं होता और इसीलिए अपनी लेखिका के हाथों मिली निर्णायक हार के उस क्षण में, जब मित्रो एक ऐसे दोराहे पर पहुँचती है जहाँ अपनी 'वैश्या' माँ के बहाने खुद अपने भविष्य की अनिवार्य नियति को आँखों में भरे हिंदी की सबसे बोल्ड नायिका के पास चुनने को एक ही दुनिया रह जाती है - घर वापसी की, तब भी उस घर लौटती मित्रो को देखकर भला कौन ये दावा कर सकता है कि वह पूरी तरह लौट आई है, फिर से कभी न जाने के लिए....।


संपर्क : मो. 9011875069, वर्धा


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