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अक्टूबर-2017

अहं जनाय समदं कृणोमि

हरे कृष्ण झा

भूमिका/काव्य चिंतन

 

 

वर्ष 2006 में प्रकाशित हरे कृष्ण झा के मैथिली कविता-संग्रह 'एना त नहि जे' (ऐसा तो नहीं कि) की भूमिका का उनके द्वारा किया हुआ लगभग अविकल हिन्दी अनुवाद। लेख के प्रारंभ में ऋग्वेद के मंडल 10 की सूक्त संख्या 125 की ऋचा संख्या 6 का उल्लेख है, जो इस प्रकार है: अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ। अहं जनाय समदं कृणोमि अहं द्यावापृथिवी आविवेष।। मैं तानती हूँ रुद्र के धनुष को ब्रह्मद्वेषी असुरों का वध करने के लिये। मैं करती हूँ शत्रुओं से युद्ध जनसामान्य की रक्षा और कल्याण के लिये, और रहती हूँ व्याप्त पृथ्वी और आकाश में।

 

 

ऋग्वेद में वाग्देवी कहती हैं कि वे जनसामान्य की रक्षा एवं कल्याण के लिए शत्रुओं से युद्ध करती हैं और पृथ्वी एवं आकाश में व्याप्त रहती हैं। इस से पहले, उसी ऋचा में, वे कहती हैं कि ब्रह्मद्वेषी असुरों का वध करने के लिए उसके परम धर्म एवं मूल्य के विषय में, मेरे जानते, यह पृथ्वी पर उपलब्ध प्राय: पहला वक्तव्य है। और यह ऐसा वक्तव्य है जो कि 'देखा' गया, सोच-विचार कर 'निरुपित' नहीं किया गया। प्रसंगवश, यह जनवाद के व्यापक एवं उदात्त स्वरूप का भी प्राय: आदि वक्तव्य है। और यदि इसे इस पूरे सूक्त के संदर्भ में रखकर देखा जाए, तो इससे जनवाद मानव जीवन के मूल धर्म के रूप में तो सामने आता ही है, सृष्टि में व्याप्त ऋत् के एक मुख्य तत्त्त्व के रुप में भी सामने आता है।

मैंने जब मैथिली और हिंदी में कविता लिखनी शुरु की, 1977 के आसपास, तो इसके पीछे यही मूल्य मुख्य प्रेरणा थी। कम-से-कम चेतन स्तर पर तो जरूर ही। लेकिन जहाँ तक काव्य के स्तर पर इस मूल्य के निर्वाह का प्रश्न है, तो अभी तक मैं अपनी बहुत सारी कविताओं से बेहद असंतुष्ट रहा हूँ। मुझे लगता रहा है कि वे कविता के असली ठाँव पर सम्यक रूप में जाते-जाते रह जाती हैं। और जो थोड़ी सी वहाँ पहुँचती भी हैं, वे मेरी खास अपनी कविता के खास ठाँव पर वांछित रूप में नहीं जा पाती हैं। जो बात मैं जहाँ से जिस तरह से कहना चाहता हूँ, वह हो नहीं पाता है; कविता से मुझे जो अपेक्षा रहती है, वह पूरी नहीं हो पाती है। और इसलिए एक खिन्नता, एक व्याकुलता ने आज तक मेरे प्राणों को आच्छन्न किये रखा है; एक दुखते हुए व्यर्थता-बोध ने मुझे घेरे रखा है। और यही मुख्य कारण है, कि आज पचीसेक वर्षों से कविता लिखते रहने के बाद भी, इतना अतिकाल होने के बाद भी, मुझे संग्रह छपवाने का उत्साह नहीं होता था। आखिर क्या मतलब? यह प्रश्न बार-बार घेर लेेता था और मुझे रोक देता था।

लेकिन कविता के साथ एक अद्भुत बात है। यह एक बार उसकी जरूरत आपके जीवन के मूल उत्स से उत्पन्न हो गई, तो वह फिर सामान्यतया आपका पिंड नहीं छोड़ेगी। आप छुड़ाना चाहेंगे फिर भी नहीं। कम-से-कम मेरे साथ तो अभी तक ऐसा ही हुआ है। मैं जिस तरह की कविता लिखना चाहता रहा हूँ, उसमें खुद को अक्षम मान कर मैंने बार-बार अपनी तरह से कविता से अपना पिंड छुड़ा लिया है - महीनों महीनों, सालों साल मैंने कविता नहीं पढ़ी-लिखी है। लेकिन फिर कभी अचानक ही अचानक कविता पढऩे-लिखने लग गया हूँ- फिर पहले की तरह खिन्न-अवसन्न होने के लिये, फिर पहले की ही तरह विषाद में घुलते-घुटते रहने के लिए...

इधर यह दिखने लगा था कि मेरी पहले की लिखी कविताओं ने जैसे मेरे काव्य-व्यक्तित्व को एक तरह से जकड़-सा रखा है; कविता में मेरे आगे के रास्ते को छेक रखा है। इस बात की एक गाढ़ी प्रतीति होने लगी थी कि इनसे मुक्त हुए बिना मैं एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता हूँ। और फलत:, एक निर्विकल्प अनिवार्यता के दबाव में, मैं यह संग्रह लेकर उपस्थित हूँ। हमारी परंपरा में परिकर्म की अवधारणा रही है: कोई भी काम शुरू करने से पहले, उसे करने लायक होने के लिए, अपेक्षित परिशोधन की प्रक्रिया से गुजरना। तो मैं इस संग्रह की बहुत सारी कविताओं को एक तरह से अपने वास्तविक कविकर्म के परिकर्म के रूप में ही देखता हूँ: आत्म-दीक्षा की एक प्रक्रिया के रूप में, जो कि उन कविताओं की विकट कमियों एवं खामियों के निरंतर अवलोकन से संपन्न होती रही हैं, और आगे भी होती रहेगी।

ऊपर में मैंने कविता के असली ठाँव की चर्चा की है। क्या होता है यह असली ठाँव कविता का? मेरे जानते, वह एक तरह का ध्यान होता है: ध्यानमूलक अवलोकन एवं अनुचिंतन की वह अवस्था होती है, जो कि किसी वस्तु के तात्त्विक स्वरूप के अवगाहन में ले जाती है, उसके सत्य-मर्म के अन्वेषण में ले जाती है; और फलत:, उस संबंध में मार्मिक सूझबूझ की दीप्ति देती है। यह गहन विश्रांति एवं प्रशांति की अवस्था होती है; एकांत नि:शब्दता एवं शुद्ध अनुशासन की अवस्था होती है। कोई जरूरी नहीं कि यह दीर्घकालिक ही हो; यह बहुत अल्पकालिक भी हो सकती है; और कभी-कभार तो क्षणिक भी हो सकती है। अभिव्यक्ति की बात- इस अवस्था से प्राप्त सूझबूझ के अनुभव विशेष को रचना में अन्वित करने की बात- तो बाद में आती है। यहाँ हरेक कवि अपने अनुभव की खास प्रकृति के अनुसार उसकी अभिव्यक्ति के लिए अपनी खास युक्तियां अपनाता है एवं खास उपाघनों का समावेश करता है, जो कि उसकी विशेष दृष्टि को जब किये रहते हैं।

क्या अपेक्षित होता है इस ठाँव पर जाने के लिये? नैतिक शुद्धता के साथ-साथ भीतर में एक खास स्थिरता एवं सुव्यवस्था के अलावा, जो बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है, वह है अपने अनुभव संसार में आई किसी मार्मिक बात के तात्विक स्वरूप को समझने के लिए अत्यंतिक रूप से आकुल-आतुर हो उठना, विकल-विह्वल हो उठना। और फलत:, उस संबंध में प्रश्नों का अंबार बन जाना। अपनी संपूर्ण सत्ता के साथ बस पूछने में चले जाना; नहीं जानने में चले जाना; अज्ञात में चले जाना। चले जाना- और उसके अतलांत में जाकर तब तक रमे रहना, जब तक कि उस बात के सत्य-मर्म की ज्योति भीतर में छिटक नहीं उठे। एक तरह से कहें, तो पूर्ण निर्मुक्ति में जाकर, पूर्ण स्वातंत्र्य में जाकर, शुद्ध अवलोकन एवं अवगाहन बन जाना।

यह कठिन होता है। यह एक तरह से अपने आज तक का अर्जित सारा कुछ गँवा देे जैसा होता है। अकिंचन और विंहग होकर जोखिम-भरे बियाबान में चले जाने जैसा। और यह स्थिति एक साथ बेहद मारक लेकिन उन्मोचनकारी भी होती है। असल में, हमारे चारों ओर हजारों विचार, अनेक विचारधाराएँ, बेशुमार धार्मिक एवं आध्यात्मिक सूत्र-वचन, एक पर एक पहुँचे हुए गुरुओं एवं महागुरुओं की सूक्तियां आदि फैली रहती हैं। ये हमें अपने अनुभव संसार में आई किसी अबूझ बात को- अबूझ से अबूझ बात को- झट से समझ जाने के भ्रम में ले जाती हैं - एक तरह की नीमरोशनी में ले जाती हैं। और हम लोग अपने अपने हिसाब से समझने में रहते चले जाते हैं; ज्ञान में रहते चले जाते हैं, ज्ञात में रहते चले जाते हैं। इससे जीने में बहुत सहूलियत बनी रहती है; बहुत आफियत और आश्वस्ति बनी रहती है; बहुत चैन और सुकून बना रहता है।

हमारा समय विचारधाराओं के अंबार से आक्रांत समय रहता है। प्रचलित अर्थ में जिसे विचारधारा माना जाता है वह तो अपनी जगह है ही; व्यापक अर्थ में, अपनी प्रज्ञा एवं ज्ञान-दृष्टि के अलावा विचारों का जो भी सुसंगत समुच्चय, चिंतन की जो भी कोई शोधित प्रविधि बाहर से प्रदत्त है, उसे मैं विचारधारा के अन्तर्गत मानता हूँ। यह आदिकाल से ही मानव जीवन में आती रही है, और प्राय: आगे भी आती ही रहेगी। जीवन-जगत को विहंगम समग्रता में समझने की जो तृषा है मनुष्य के हीर में, उससे यह निरंतर उद्भुत होती रहेगी। लेकिन आखिर क्या बात है, कि आज तक के मानव इतिहास में विचारधाराओं की प्राय: यह नियति सी रही है, कि कालक्रम में वे विकृति को प्राप्त होती ही होती हैं; उनके प्राण-तत्व क्षरित होते ही होते हैं; और वे कुछ चुने हुए सूत्रों एवं निर्देशों का एक जड़ समुच्चय मात्र होकर रह जाती हैं? आखिर क्या बात है कि उनकी मूल्य-दृष्टि को वही लोग सबसे ज्यादा रसातल में ले जाते हैं, जो कि उसके सबसे बड़े तथाकथित 'निष्ठावान' अनुयायी माने जाते हैं?

इसके बहुत सारे कारण हैं। लेकिन मेरी समझ से इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि कोई भी विचारधारा अपने अधिकांश अनुयाइयों के अभ्यंतर में पूरी तरह आयत्त होकर उनकी दृष्टि नहीं बन पाती है; उनकी दृष्टि के विकास में सहायक नहीं हो पाती है। वह सिर पर रखी हुई गठरी भर होकर रह जाती है; प्राणों पर लदा असबाब भर होकर रह जाती है। और फलत:, एक विंहगम मूल्य-दृष्टि बनने के बदले में, उससे प्रसूत चिंतन की एक व्यापक प्रविधि बनने के बदले में, वह एक घोर, और अक्सर ही हिंसक रूप से कट्टर और उग्र, मतवादी आग्रह में बदल कर रह जाती है। और इससे किसी भी स्तर पर नुकसान के अलावा और कुछ नहीं होता है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी राजनीतिक कर्म में, और अपने कविकर्म में, मैं स्वयं इसका साक्षी, भोक्ता और सहभागी रहा हूँ।

यहाँ मुझे हठात प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक और इतिहासकार डी.डी. कोसाम्बी की याद आती है जो भारतीय परिस्थिति में मार्क्सवाद की विकृतियों के खिलाफ सारा जीवन लड़ते रहे। यहाँ के दलगत मार्क्सवाद को वे कटाक्ष में 'ऑफिशॅल' - औपचारिक-रूढिग़्रस्त-मार्क्सवाद कहते रहे और उसके गंभीर विचलनों की कठोर आलोचना करते रहे। और इसलिए यहाँ के मार्क्सवादी प्रतिष्ठानों के पुरोधाओं से उनकी हमेशा ठनी रही। उन्होंने खुद भारतीय इतिहास एवं संस्कृति, प्राचीन संस्कृत साहित्य, मिथक तथा यहाँ की सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति के विवेचन में मार्क्सवाद का विनियोग जिस तरह से किया है, वह मार्क्सवादी दृष्टि के सृजनात्मक उपयोग का एक श्रेष्ठ दृष्टांत है - एक तरह के प्रतिमान जैसा।

क्या कोई विचारधारा इतना व्यापक और सम्यक हो सकती है, इतना सर्व-समावेशी, कि वह जीवन-जगत एवं समस्त मानव-अस्तित्व के विराट फैलाव को; उसके नानाविध गुंफनों-प्रतिगुंफनों को; उसके अनन्त रूप-रंगों और अपरम्पार सूक्ष्मताओं को; उसकी रहस्यमय जटिलताओं को; उसकी आकस्मिकताओं एवं चमत्कारिकताओं को; तथा उसके अबूझ दारुण रूपों को अपनी व्याख्या की लपेट में ले सके? मैं इस प्रश्न के आगे चुप हूँ; और जब मैं देखता हूँ कि ज्ञान के हरेक क्षेत्र में असाधारण तरलता की स्थिति बनी हुई है, तो यह चुप्पी और भी बढ़ जाती है। कल तक हरेक क्षेत्र में जो मान्य था वह आज अमान्य हो रहा है; और फिर कल जाकर उसकी क्या गति होगी, उसका कोई भी ठिकाना नहीं है। भूत ज्यादा से ज्यादा अभौतिक हुआ चला जा रहा है; कल तक सृष्टि की उत्पत्ति एक 'बिग बैंग' की महाघटना से मानी जाती थी, तो आज लाखों ऐसी घटनाओं की प्रस्तावना हो रही है; काल, पदार्थ, ऊर्जा लाखों ऐसी घटनाओं की प्रस्तावना हो रही है; काल, पदार्थ, ऊर्जा आदि की उत्पत्ति कैसे हुई और उनका तात्त्विक स्वरूप क्या है, उस संबंध में स्पष्टता बढऩे के बदले में उलझन औैर भी बढ़ती ही चली जा रही है। तो जब सृष्टि के मूल तत्वों के ही विषय में सम्यक ज्ञान की यह दशा है, तो किसी वृहत्तर परिव्याप्ति वाली तथाकथित 'वैज्ञानिक' विचारधारा की मूल प्रतिज्ञाओं का क्या होगा; अब उसका अडिग आधार क्या होगा? यह अकारण नहीं है कि आज अधिकाधिक वैज्ञानिक लोक - हरेक क्षेत्र के वैज्ञानिक लोग-जीवन, जगत और सृष्टि के विभिन्न पक्षों के विषय में तात्विक सूझबूझ के लिये धर्मदर्शन और अध्यात्म विषयक साहित्य को गुनने में लगे हुए हैं। सृष्टि की उत्पत्ति एवं उसके वास्तविक स्वरूप के विषय में वेदों और उपनिषदों में जो कुछ भी कहा गया है; दुनिया भर में विभिन्न मार्गों के आध्यात्मिक साधकों ने जो कुछ देखा-कहा है; उस पर वे लोग गंभीर मनोमंथन कर रहे हैं। रहस्यदर्शन से अब वे लोग पहले की तरह बिदकते नहीं हैं। रहस्यवादी वृत्ति अब उतनी रहस्यमय नहीं रह गई है: वह भीतर से मनुष्य के देखने की क्षमता की असाधारण रूप से विकसित दशा मात्र रह गई है। यहाँ मुझे प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री डैविड बॉम और आध्यात्मिक चिंतक एवं दृष्टा जे. कृष्णमूर्ति के बीच इन विषयों पर हुए दीर्घ वार्तालाप तथा प्रख्यात खगोलशास्त्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा वेद की कुछ ऋचाओं एवं गीता के कुछ श्लोकों के किये गये विवेचनों की याद आती है, जो कि तत्वान्वेषण की एक नर्ई प्रविधि की ही ओर ले जाते हुए लगते हैं।

नहीं, मुझे तो नहीं लगता है, कि किसी एक विचारधारा को गह कर जीवन-जगत के सत्य में प्रवेश किया जा सकता है। यह या तो विभिन्न विचारधाराओं से प्राप्त दृष्टियों और सूझबूझों के संश्लेषण के आधार पर स्वतंत्र चिंतन से; या फिर ध्यानमूलक अवलोकन एवं अवगाहन मात्र से संभव हो सकता है। इसलिए यह अकारण नहीं है कि अपने यहाँ तत्वज्ञान के जितने मार्ग हैं, उनमें ध्यान से, दर्शन से, पश्यंती की अवस्था से प्राप्त ज्ञान को सर्वोच्च प्रामाणिकता दी गई है। और मेरी समझ से यही कविता का असली ठाँव है।

क्या कविता उसी तरह का 'पाठ' होती है, जिस तरह के 'पाठ' मानविकी की शाखाएं, या कि वैज्ञानिक ग्रंथ होते हैं? नहीं, मेरी समझ से, यह एक भिन्न तरह का पाठ होती है। बल्कि, सच कहें तो, यह पाठ होते हुए भी पाठ नहीं होती है, क्योंकि भाषा में रहते हुए भी यह भाषा में नहीं रहती है। भाषा के पार जाने के बाद ही, शुद्ध पश्यंती की अवस्था में ही इसका जन्म होता है और बाद में यह 'प्रकट' तौर पर भाषा में आती है, जो कि मात्र ऐसी दहलीज़ होती है जिससे होकर हम इसके वास्तविक लोक में प्रवेश करते हैं। भाषा की प्रत्यक्ष अर्थवाचक वृत्ति यहाँ बेहद गौण हो जाती है, और इसके अन्य आयाम, जैसे की शब्दों के रूप-रंग, भार, आयतन, बिम्बधर्मिता, ध्वनि का भीतरी विन्यास, प्रच्छन्न लयगति, संस्कारों और स्मृतियों को उभारने की क्षमता, भीतर में ऊर्जा का संचार करने की व्यक्ति, कास्त के पार ले जाने का धर्म, आदि प्रमुख हो जाते हैं। वहाँ शब्द, मात्र अर्थ को द्योतित करने का एक माध्यम भर होने के बदले में, एक स्वतंत्र वस्तु हो जाता है, अपनी एक स्वतंत्र सत्ता ग्रहण कर लेता है। और इसलिए, यह कुछ खास अवधारणों के समुच्चय पर आधारित, किसी खास चिंतन-प्रविधि पर आधारित, उस तरह का मुख्यत: मानसिक-भाषिक व्यापार नहीं होती है, जैसे कि ज्ञान की और विधाएं होती हैं। यह मनुष्य की संपूर्ण सत्ता का व्यापर होती है, जो कि अपने प्रतिफलन में भी मनुष्य की संपूर्ण सत्ता की ओर एकाग्र अभिमुख होती है।

यहाँ मुझे इस संदर्भ में ज्यॉ पॉल सात्र्र की याद आती है, जो कि ले$खन में प्रतिबद्धता के घोर आग्रही थे। अपनी किसी किताब में, शयाद 'वॉट इज लिट्रेच' में, उन्होंने सृजनात्मक लेखन में भाषा की गति-प्रकृति का विवेचन किया है। जब वे कविता के प्रसंग में इस बात की मीमांसा करते हैं, तो उसमें वे भाषा के उपर्युक्त गुणधर्मों की ओर संकेत करते है; और इस आधार पर कविता को सर्वथा भिन्न सृजन-कर्म मानते हुए उसे प्रतिबद्धता से बरी कर देते हैं। वैसे मैं खुद, वैसा नहीं मानता हूँ; प्रतिबद्धता को मैं मूल्य से जोड़कर देखता हूँ, जो कि भाषा से बहुत बहुत ऊपर की बात होती है। लेकिन कविता कैसे ठीक उसी तरह का 'पाठ' (कि 'आख्यान', कि 'वृतान्त', कि 'बखान'!) नहीं होती है, जैसे की ज्ञान की अन्य शाखाएँ, उसका एक पुख्ता संकेत सात्र्र के इस तात्विक विवेचना से मिलता है।

ऊपर में मैंने जिन विषयों की चर्चा की है, वे साहित्य-चिंतन को आगे बढ़ाने के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण विषय हैं, और उन पर स्वतंत्र विवेचन की गंभीर आवश्यकता है। और यह विवेचन हरेक साहित्य में अपनी तरह से होता है- अपनी खास परंपरा और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में। आशा करता हूँ कि इन सारे विषयों पर मैं आपके साथ अलग से संवाद करूंगा। तब तक दो बातें अभी इसलिए कर ली हैं, कि अपने कविकर्म के बीच में मुझे किस तरह के प्रश्न घेरे रहते हैं, उसका थोड़ा बहुत संकेत आपको मिले, और फलत: इस संग्रह को एक परिप्रेक्ष्य मिले। और इस आस के साथ भी कर ली है, कि अपने चिंतक बंधुओं की चर्चा से मुझे समुचित मार्गदर्शन मिले और मेरे भीतर का कुहासा फटे।

मैं मानता हूँ कि आधुनिक काल में कार्ल मार्क्स 'अहं जनाय समदं कृणोमि' आर्ष मूल्य के एक आर्ष प्रणेता थे। उनका एक कथन जो कि मुझे बेहद प्रिय है, और मेरे भीतर एक मार्गदर्शक सूक्ष के रूप में निरंतर सक्रिय रहता है, वह है: 'क्रांतिधर्मी होने का अर्थ है चीजों को उनके मूल में गहना और मनुष्यता का मूल तो मनुष्य स्वयं है।' (रैडिकल मीन्स टु ग्रास्प थिंग्स बाइ देअ 'रूट्स. एंड द' रूट ऑव ह्युमैनिटी इज मैन.) तो मनुष्य की सत्ता को उसकी समग्रता में गहना - यही है कविता का असली काम। और उसकी सत्ता का फैलावा तो संपूर्ण सृष्टि के फैलावॉ से एकमेक हुआ रहता है, जिसे गहने के लिए जिस तरह की दृष्टि चाहिये वह केवल स्वातंत्र्य से ही संभव है। 'स्वातंत्र्यं एतद् मुख्यं', जैसा कि काव्य के संदर्भ में अभिनवगुप्त कहते हैं। और यही है कविता का असली ठाँव-जहाँ मैं अभी उतने सम्यक रूप में खड़ा नहीं हूँ जितना कि होना चाहता हूँ, जितना कि होना चाहिये। आशा करता हूँ कि आप लोगों की शुभाशंसा और मार्गदर्शन के बूते शीघ्र ही वहाँ अविचल रूप से खड़ा होऊंगा और फिर आपके समक्ष उपस्थित होऊंगा।

 

विजयादशमी, 2006


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