मंगलेश डबराल की कविताएं
हमारे देवता
हमारे देवता बचपन से ही हमारे साथ रहते थे वे हमारी ही तरह छोटे दुबले और हमउम्र थे सार्वजनिक और पराक्रमी देवताओं के साम्राज्य में उनका अस्तित्व व्यक्तिगत किस्म का था सुंदर सर्वशक्तिमान संप्रभु स्वयंभू सशस्त्र देवताओं से अलग उनके चहरे बेडौल बिना तराशे हुए अक्सर नंगे पैर वे हमारे हाथों में हाथ लिये हुए चलते थे हम उनसे ज्यादातर अपने दु:ख और कभी अपने सुख भी बताते उनके पास रहने के लिए बड़े तो क्या छोटे मंदिर भी नहीं थे वे घर से बाहर कम जाते या कभी-कभी उनका सफ़र कुछ दूर पत्थरों को जोड़ कर बनाये गये ठिकानों तक होता जहां नीम उजाले में वे मुश्किल से पहचाने जाते
हमारे देवता ताक़तवर देवताओं से घबराये हुए और चुप्पे थे उनके लिए उन जगमग मंदिरों में कोई जगह नहीं थी जहां ढोल-नगाड़े बजते अनुष्ठान तुमुल नाद होता आवाहन ध्यान स्तुति घंटियाँ घडिय़ाल बलियाँ मंत्रोच्चार ब्रहमाओं विष्णुओं वामनों इंद्रों के समय में हमारे देवता किसी बुद्ध की तरह आत्म में लीन रहते दुर्गाओं कालियों अष्टभुजाओं सिंहारूढ़ों खड्ग-खप्परधारिनियों के सामने हमारी देवियाँ भी पुरानी साडिय़ाँ पहने हुए स्त्रियाँ थीं बहुत सी अचिन्हित बीमारियों से पीडि़त जो ज़मीन पर बैठी अपने पैरों या हाथों के नाखून कुरेदती रहतीं
हमारे देवता आँखें खोलकर हैरानी से देखते थे शक्तिशाली देवताओं के जुलूस ठठ के ठठ हथियारबंद चले आ रहे हैं तलवारें त्रिशूल भाले बंदूकें आग्नेयास्त्र लहराते उन्हें मुक्तहस्त लोगों के बीच बाँटते हुए सड़कों गलियों चौराहों पर बढ़ते हुए तब हमारे देवता किसी अज्ञात जगह दुबक जाने की सोचते उनके हाथ में कोई अस्त्र नहीं होता था हद से हद वे ज़मीन से कुछ पत्थर उठा सकते थे लेकिन वे उन्हें फेंकने में भी संकोच करते सार्वजनिक देवता जब रात को सुख-शैयाओं पर सो जाते हमारे देवता व्याकुल होकर जागते रहते उन्हें बार-बार लगता हमलावर देवताओं की फौजें उनकी थोड़ी सी ज़मीन उनके ठिकाने हड़पने उन्हें बेदखल करने आ रही हैं हमारे देवता किसी को अपनी तकलीफ नहीं बता पाते थे कभी-कभी उनके भीतर से एक आर्त पुकार सुनाई देती थी
पागल औरत
यह लगभग तय था कि वह पागल है उसका तार-तार हुलिया उलझे हुए बाल गुस्सैल चेहरा उसकी पहचान तय करने के लिए काफी थे लेकिन यह समझना मुश्किल था कि उसके साथ क्या हुआ है वह नुक्कड़ पर उस दूकान के सामने खड़ी हो गयी थी जहां सुबह-सुबह आसपास की झोपडिय़ों के गरीब बच्चे बहुराष्ट्रीय निगमों के चिप्स के पैकेट खरीदने आते हैं उस औरत के पीछे कुछ आवारा कुत्ते जैसे उसके शब्दों को समझने की कोशिश करते हुए चले आये थे वह लगातार ऐसी भाषा में बड़बड़ा रही थी जो समझ से परे थी किसी ने कहा बंगाली लगती है दूसरे ने कहा अरे नहीं मद्रास की तरफ की होगी तभी तो समझ नहीं आ रही है उसकी बात एक ने कहा हिंदी वाली ही है लेकिन अपनी भाषा भूल गयी है किसी को उसमें पंजाबी के कुछ शब्द सुनाई दिये
यह जानना भी कठिन था उसे क्या चाहिए वह चाय की तरफ इशारा करती लेकिन जब हम उसे चाय देते तो वह बिस्किट के पैकेटों की ओर देखती बिस्किट देने पर चिप्स के पैकेटों की ओर चिप्स देने पर उसकी उंगली फिर चाय की तरफ चली जाती इस तरह वह कई चीज़ों की ओर संकेत करती सड़क हवा पेड़ आसमान की तरफ देखकर भी बोलती जाती कभी लगता वह हवा में से कोई चीज़ खींचकर अपने भीतर ला रही है कभी लगता जैसे उसने अपनी बातों के जवाब भी सुन लिए हों और बदले में वह कोई शाप दे रही हो हम लोगों ने पूछा ओ माँ लगातार बोलोगी ही कुछ कहोगी नहीं तुम्हें क्या चाहिए और फिर यह हमारे लिए एक खेल की तरह हो गया
वह पगली कुछ देर बाद चली गयी बिना कुछ लिए हुए हम लोग जान नहीं पाए इस संसार में आखिर क्या था उसका संसार सिवा इसके कि वह अपने पागलपन को बचाये रखना चाहती थी लेकिन उसके क्रुद्ध शब्द भारी पत्थरों की तरह आपपास छूट गए उसके दुर्बोध शाप चीलों की तरह हमारे ऊपर पर मंडराने लगे यह तय नहीं हो पाया आखिर वह कहाँ की रही होगी लेकिन उसके शब्द हमारे बीच से हट नहीं रहे थे शायद वह किसी एक जगह की नहीं थी तमाम जगहों और इस समूचे देश की थी और उसकी वर्णमाला उन तमाम भाषाओं के उन शब्दों से बनी थी जिनका इस्तेमाल पागल लोग करते हैं उनमें शाप देते रहते हैं अपनी मनुष्यता व्यक्त करते हैं जिसे हम जैसे गैर-पागल कभी समझ नहीं पाते।
अशाश्वत
सर्दी के दिनों में जो प्रेम शुरू हुआ वह बहुत सारे कपड़े पहने हुए था उसे बार-बार बर्फ में रास्ता बनाना पड़ता था और आग उसे अपनी ओर खींचती रहती थी जब बर्फ पिघलना शुरू हुई तो वह पानी की तरह हल्की चमक लिये हुए कुछ दूर तक बहता हुआ दिखा फिर अप्रैल के महीने में जऱा सी एक छुवन जिसके नतीजे में होंठ पैदा होते रहे
बरसात के मौसम में वह तरबतर होना चाहता था बारिशें बहुत कम हो चली थीं और पृथ्वी उबल रही थी तब भी वह इसरार करता चलो भीगा जाये यह और बात है कि अक्सर उसे ज़ुकाम जकड़ लेता अक्टूबर की हवा में जैसा कि होता है वह किसी टहनी की तरह नर्म और नाज़ुक हो गया जिसे कोई तोडऩा चाहता तो यह बहुत आसान था
मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि यह प्रेम है पतझड़ के आते ही वह इस तरह दिखेगा जैसे किसी पेड़ से गिरा हुआ पीला पत्ता।
निकोटिन अपने शरीर को रफ्तार देने के लिए सुबह-सुबह मेरा रक्त निकोटिन को पुकारता है। अर्ध-निमीलित आँखें निकोटिन की उम्मीद में पूरी तरह खुल जाती हैं। अपने अस्तित्व से और अतीत से भी यही आवाज़ आती है कि निकोटिन के कितने ही अनुभव तुम्हारे भीतर सोये हुए हैं। सुबह की हवा, खाली पेट, ऊपर धुला हुआ आसमान जो अभी गन्दा नहीं हुआ है, बचपन के उस पत्थर की याद जिस पर बैठकर मैंने पहली बीड़ी सुलगायी और देह में दस्तक देता हुआ महीन मांसल निकोटिन। जीवन के पहले प्रेम जैसे स्पंदन और धुंआ उड़ाने के लिए सामने खुलती हुई दुनिया। डॉक्टर कई बार मना कर चुके हैं कि अब आपको दिल का खयाल रखना ही होगा और मेरी बेटी बार-बार आकर गुस्से में मेरी सिगरेट बुझा देती है, लेकिन इससे क्या? मेरे सामने एक भयंकर दिन है और पिछले दिन की बुरी खबरें देखकर लगता है कि यह दिन भी कोई बेहतर नहीं होने जा रहा है और उससे लडऩे के लिए मैं सोचता हूँ मुझे निकोटिन चाहिए। मुझे पता है हिंदी का एक कवि असद जैदी अपनी एक कविता में बता चुका है कि 'तम्बाकू के नशे में आदमी दुनिया की चाल भूल जाता है'। इस दुनिया की चाल भूलने के लिए मुझे निकोटिन चाहिए। दिन भर के अत्याचारियों तानाशाहों हत्यारों से लडऩे के लिए जब मुझे कोई उपाय नहीं सूझता तो मैं निकोटिन को खोजता हूँ और फिर रात को जब दिन भर की तमाम वारदात मेरे चारों ओर काले धब्बों की शक्ल में मुझे घेरती हैं तो लगता है कि मुझे रात का निकोटिन चाहिए। सच तो यह है कि जिन चीज़ों के बल पर मैं आज तक चलता चला आया हूँ उनमें किसी न किसी तरह का निकोटिन मौजूद रहा।
गुड़हल
मुझे ऐसे फूल अच्छे लगते हैं जो दिन-रात खिले हुए न रहें शाम होने पर थक जाएँ और उनीदे होने लगें रात में अपने को समेट लें सोने चले जाएँ आखिर दिन-रात मुस्कुराते रहना कोई अच्छी बात नहीं
गुड़हल ऐसा ही फूल है रात में वह बदल जाता है गायब हो जाता है तुम देख नहीं सकते कि दिन में वह फूल था अगले दिन सूरज आने के साथ वह फिर से पंख फैलाने चमकने रंग बिखेरने लगता है और जब हवा चलती है तो इस तरह दिखता है जैसे बाकी सारे फूल उसके इर्दगिर्द नृत्य कर रहे हों
सूरजमुखी भी कुछ इसी तरह है लेकिन मेरे जैसे मनुष्य के लिए वह कुछ ज्यादा ही बड़ा है और उसकी एक यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती कि सूरज जिस तरफ भी जाता है वह उधर ही अपना मुंह घुमाता हुआ दिखता है। पिता का चश्मा
बुढ़ापे के समय पिता के चश्मे एक-एक कर बेकार होते गये आँख के कई डॉक्टरों को दिखाया विशेषज्ञों के पास गये अंत में सबने कहा आपकी आखों का अब कोई इलाज नहीं है जहां चीजों की तस्वीर बनती है आँख में वहाँ खून का जाना बंद हो गया है कहकर उन्होंने कोई भारी-भरकम नाम बताया
पिता को कभी यकीन नहीं आया नये-पुराने जो भी चश्मे उन्होंने जमा किये थे सभी को बदल-बदल कर पहनते आतशी शीशा भी सिर्फ कुछ देर अखबार पढऩे में मददगार था एक दिन उन्होंने कहा मुझे ऐसे कुछ चश्मे लाकर दो जो फुटपाथों पर बिकते हैं उन्हें समझाना कठिन था कि वे चश्मे बच्चों के लिए होते हैं और बड़ों के काम नहीं आते
पिता के आखिरी समय में जब मैं घर गया तो उन्होंने कहा संसार छोड़ते हुए मुझे अब कोई दु:ख नहीं है तुमने हालाँकि घर की बहुत कम सुध ली लेकिन मेरा इलाज देखभाल सब अच्छे से करते रहे बस यही एक हसरत रह गयी कि तुम मेरे लिए फुटपाथ पर बिकने वाले चश्मे ले आते तो उनमें से कोई न कोई ज़रूर मेरी आँखों पर फिट हो जाता।
माँ का नमस्कार
जब माँ की काफी उम्र हो गयी तो वह सभी मेहमानों को नमस्कार किया करती जैसे वह एक बच्ची हो और बा$की लोग उससे बड़े वह हरेक से कहती बैठो कुछ खाओ ज़्यादातर लोग उसका दिल रखने के लिए खाने की कोई चीज़ लेकर उसके पास कुछ देर बैठ जाते माँ खुश होकर उनकी तरफ देखती और जाते हुए भी उन्हें नमस्कार करती हालाँकि उसकी उम्र के लिए यह ज़रूरी नहीं था वह धरती को भी नमस्कार करती कभी अकेले में भी आखीर में जब मृत्यु आयी तो उसने उसे भी नमस्कार किया होगा और अपना जीवन उसे देते हुए कहा होगा बैठो कुछ खाओ।
उदय प्रकाश की कुछ कविताएं
कवि
जहां भी कोई गिरा ज़रा भी डगमगाया वह चाहता था कि कानून उस पर कार्रवाई करे
वह व्यवस्था का पक्षधर था मनुष्य के गिरने के विरुद्ध
व्यक्ति की हर कमज़ोरी के खिलाफ वह कानून का तरफ़दार था
लेकिन वह चाहता था उसकी कविताएं व्यवस्था द्वारा नहीं मनुष्य द्वारा पढ़ी जायें
भरोसा
कब झोला फट गया कब सिग्नल गिर गया कब बिजली जली जाय कब किरायेदार मकान छोड़ जाय पड़ोस की लड़की भाग जाय कब स्टेट बैंक का बंदूकधारी गार्ड गनेस प्रताप सिंह मोहम्मद िगयासुद्दीन बन जाय कब दंगा हो जाय कब आत्मा मटके की तरह फूट जाय कब नोटबदल जाय, कर्फ्यू लग जाय छर्रे से आंख फूट जाय
साधू ठग निकल आय, बैंक बंद हो जाय, कतार में खड़ी खरे सर की अम्मां मर जाय जहाज़ का मालिक विदेश भाग जाय कब कोई रास्ता राह भटक जाय
कब गाज गिर जाय ओला पड़ जाय कब बुखार में कराहता कोई जेल चला जाय
कब कविता लिख जाय कब कोई उसे पढ़ पाय कब कर्फ्यू लग जाय
कब सारी ज़िंदगी की हिंदी हो जाय कब प्रधानमंत्री जोकर बन जाय हर हाथ ताली बन जाय
कब सिग्नल गिर जाय बिजली चली जाय कब सांस छूट जाय कब क्या हो जाय
किसी भी बात का भला अब भरोसा क्या?
कुछ अप्रकाशित नोट्स
(एक)
कितनी आग है उनके भीतर जो मरे हुए की देह को राख होने तक आग में जलाते हैं
यही है उनकी परम्परा यही है उनका अनुष्ठान जीवन को और देह को आग में जलाना
जीवित लोगों द्वारा सदियों पहले ठुकरा दी गयी एक मृत भाषा में खाते कमाते ठगते और जीते उनका दावा है, वे जीवित हैं और हैं वही समकालीन
वही हैं अतीत के स्वामी भविष्य के कालजयी
वही लगातार लिखते हैं वही लगातार बोलते हैं अंधी और ठग हो चुकी एक बहुप्रसारित असभ्य भाषा से उठाते हुए हज़ारों मरे हुए शब्द
सिद्धार्थ, मत जाना इस बार कुशीनगर मत जाना सारनाथ वाराणसी वहां राख हो चुकी है प्राकृत पालि मिटा दी गयी है सुनो, श्रावस्ती से हो कर कहीं और चले जाओ अब जो भाषा वहां चल रही है उस भाषा में जितनी हिंसा और आग है नहीं बचेगा उससे यह तुम्हारा जर्जर बूढ़ा शरीर
(दो)
बुद्ध जैसा हो देहपात मरना तो अभक्ष्य खाकर सूकर अतिसार में
अनजानी पगडंडियों में कटे उम्र दर-ब-दर
जो भी बोलना हो या लिखना उसे चीमटे से भी न छूना चाहे कोई ब्राह्मण विद्वान
प्रयत्न हो हर शब्द के गर्भ में जितने भी हो अर्थ सिद्ध करें हर रचना को चांडाल या म्लेच्छ
किताबों के शीर्षक की परछाई पड़ते ही विद्वान गंगा नहाने जाएं।
घर बन जाए आश्वित्ज़ सांसों में आये भोपाल के कार्बाइड की गैस
नींद आये तो आयें देवता लिए हुए हथियार सपनों में दिखे देवियां जिनकी जीभ में बूंद-बूंद टपकता हो रक्त ऐसा ही जीवन जागने और सोने के बीच न हो कोई फ़र्क
मैं जीना चाहता हूँ
कविता में हार कर विचारों में विजेता मैं नहीं होना चाहता
कविता में जीत कर विचारों में हारना नहीं चाहता
जीवन में हार कर मृत्यु के सामने नहीं करना चाहता आत्मसमर्पण
मृत्यु से डर कर जीवन की दासता नहीं करनी मुझे
सिर्फ जीने के लिए मृत्यु से हारूंगा नहीं
मुझे जीवन से प्यार है मृत्यु से हारे बिना
देवता
मैं सारे देवताओं को देख रहा हूं एक एक कर
कितने धर्मों के कितने अलग-अलग तापमानों अलग-अलग मिट्टियों और पेड़ों वाले अलग-अलग देशों के देवता
कहीं-कहीं तो कोई देवता है ही नहीं बस सन्नाटा, किसी दीवार पर का कोई बिल्कुल उजला खालीपन
और कोई कहीं तो पहाड़ की तलहटी पर उतर रहा है अपनी भेड़ों के साथ उसके पीछे-पीछे सूरज भी उतर रहा है पहाड़ के पीछे
लेकिन जो तुम्हारे देवता हैं सभी के हाथों में हथियार क्यों हैं और हाथ भी चार से लेकर अठारह और हज़ार तक और हर हाथ में कोई न कोई हथियार
क्या तुम्हारे देवता सिर्फ हत्याएं करने के लिए बने हैं तुम अपने बच्चों को उनसे न डरना क्यों सिखाते हो
और देवियां हे ईश्वर! उनकी जीभ कैसे तो लटक आई है बाहर और टपकता है बूंद-बूंद लहू
देवियों के हाथ में न किताब है न फूल लटक रहा है किसी का मुंड
ऐसा क्यों होता है कि जब भी मैं देखता हूं तुम्हें दिखाई देने लगता है कोई न कोई तुम्हारा देवता
क्या तुम्हारे सारे देवताओं की सारी की सारी हिंसा अपने चेहरों पर तुम्हें नहीं दिखाई देती कहां छुपा रखे हैं तुमने अपने बाकी के हाथ और वे सारे हथियार
बहुत दिनों से लगता रहा है मुझे कि तुम गाना तो गा सकते हो लेकिन नहीं कर सकते प्रार्थना
क्या तुमने अपने शब्दों को ठीक से देखा है उनकी बाहर निकली हुई जीभ और टपकता कुछ बूंद-बूंद गाढ़ा लाल द्रव-सा
सुनो! मैं तुम्हारे सारे देवताओं को तुम्हारी हिंसा और तुम्हारे शब्दों के साथ खारिज करता हूं!
मैंने अपने मंदिर से उन्हें कह दिया है हमेशा के लिए बाहर चले जाने को!
(यह सिर्फ शुरुआती ड्राफ्ट भर है...)
बेटी
बारिश हो रही है लगातार आषाढ़ की पहली बालकनी की रेलिंग पर भीगे पंखों के साथ कांपती कोई चिडिय़ा नहीं होती है कभी भी हर बार न भादों न सावन
कोई पढ़ी जाती क़िताब अपने किसी रोमांचक पन्ने को खाले हुए छत की मेज़ पर अधूरी छूट गयी है 'ऐ, कोई है?' ...पुकारती है कातरता.
इन घरों में अब कोई आँगन नहीं हुआ करता आज कल जब कोई चुप्पी नहीं रही या निर्जनता स्थापत्य में इस शहर की सड़कों की तरह या कविता में चुप्पी की तरह किसी के धीमे धीमे छुपते हुए चलने की आवाज़ कहाँ से आएगी बहुत ट्रैफिक है बहुत शोर धुआँ सारी गौरेयां कहाँ गयीं इस हाईवे में से * किसी कमरे में नहीं आती न छत पर सीढिय़ों से किसी भी कोयल की आवाज़ * यह जीवन है शोर चीख गूंगेपन से भरा... बहरा
आँख कहाँ है खोये हुए चश्मे के पास हो शायद शायद...
सप्तक में से एक सबसे महीन स्वर अनुपस्थित है * किसे बताऊं किसी अजनबी शब्द के स्पेलिंग व्याकुलता से चौंकी हुई अबोध आंखों से पूछे तो कोई * छत ही नहीं, 36 वीं मंज़िल से और मॉरिशस की विशाल झील के तट से भी देखा है पहाड़ के उस पार संसार का सबसे बड़ा इन्द्रधनुष सात में से कोई एक रंग छिटक कर कहीं और चला गया है * कोई भी रोटी अब माँ नहीं सेंकती बासठ की उम्र बहुत दूर लंबी होती है इसमें अब चूल्हे नहीं हैं * किस तरह बोला जाय?
बिटिया का न होना क्या-क्या न होना हुआ करता है?
(यह कविता किरण (कन्नु) के लिए उसके 'छोटे पापा की ओर से लिखी गयी है। दिनांक 2 जुलाई 2014)
दुआ
जहां चुप रहना था, मैं बोला, जहां ज़रूरी था बोलना, मैं चुप रहा आया।
अब जलते हुए पेड़ से उड़ रहे थे सारे परिंदे मैं उसी डाल पर बैठा रहा।
जब सब जा रहे थे बाज़ार खोल रहे थे अपनी अपनी दूकानें मैं अपने चूल्हे में उसी पुरानी कड़ाही में पका रहा था कुम्हड़ा
जब सब चले गये थे अपने अपने प्यार के मुकर्रर वक्त औ तय जगहों की ओर मैं अपनी दीवार पर पीठ टिकाये पूरी दोपहर से शाम कर रहा था ऐय्याशी रात जब सब थक कर सो चुके थे देख रहे थे अलग अलग सपने
लगातार जागा हुआ था मैं
मेरे ख्वाज़ा मुझे दे नींद ऐसी जो कभी टूटे ना किसी शोर से
मेरे औलिया दे दे कुछ सपने जहां मैं लोरियां सुनता रहूं...
नींद में हंसता हुआ।
जलावतनी
उन्होंने दबा दिये सारे बटन जल गये सारे बल्ब
अनगिनत रंगों के अपार उजाले में जगमगा उठा वह महा-शहर
'कितना अंधेरा है यहां?' मैंने धीरे से कहा किसी रोशनी से सराबोर सड़क पर चलता हुआ
शहर से निकाला गया मुझे इतना बड़ा झूठ बोलने के लिए।
न्याय
उन्होंने कहा हम न्याय करेंगे हम न्याय के लिए जांच करेंगे मैं जानता था वे क्या करेंगे
तो मैं हंसा
हंसना ऐसी अंधेरी रात में अपराध है
मैं गिरफ्तार कर लिया गया।
नागरिक स्वतंत्रता
मैंने समुद्र की प्यास बुझाने के लिए नहीं खोदा अपने घर के आंगन में कुआं
अघाए लोगों के लिए नहीं पकाई खिचड़ी
कवियों के लिए नहीं लिखीं कविताएं
मैंने अंगीठे में झोंकने के लिए नहीं जलाए रखी अपने भीतर इतने वर्षों से आग
मैं जला खुद ही राख होने के लिए
मैं हंसा क्योंकि हंसी आ रही थी मुझे यह विश्वास करते हुए कि हंसना नहीं है कोई अपराध
यह भरोसा करते हुए कि हंसना गंभीरताओं के विरुद्ध नहीं है कोई संविधान विरोधी हरकत
गंभीर रहे आयें विद्वान उसी में है दौलत और ताकत
बस हंसने का दें मुझे मूलभूत नागरिक अधिकार
महोदय लोगों, नहीं हूं किसी कोने से भी मैं आतंकवादी!
फ़िलहाल
एक गत्ते का आदमी बन गया था लौहपुरुष बलात्कारी हो चुका था संत व्यभिचारी विद्वान चापलूस क्रांतिकारी
मदारी को घोषित कर दिया गया था युग-प्रवर्तक
अखबार और चैनल चीख-चीख कर कह रहे थे आ गयी है सच्ची जम्हूरियत जहां सबसे ज़्यादा लाशें बिछी थीं वहीं हो रहा था विकास
जो बैठा था किसी उजड़े पेड़ के नीचे पढ़ते हुए अकेले में कोई बहुत पुरानी किताब वहीं था संदिग्ध उसकी हो रही थी लगातार निगरानी।
डर
कहां से आया ऐसा 'वायरस'
'फियर वायरस'?
किसी सड़ांध से भरे गंदे-बजबजाते परनाले से? नगरपालिका के कूड़ा-कचरा घर से? कूलर, कुंड, कुएं बांध-बावड़ी के ठहरे हुए बासी विषैले पानी में जन्मे अजनबी किसी मच्छर के दंश से?
किसी दुश्मन देश के बायो-जेनेटिक लैब से? गुरु-मंगल, चंद्रमा, शनि-शुक्र जैसे किसी सुदूर पराये ग्रह-नक्षत्र- उपत्यका से?
कोई उल्का या कोई उडऩतश्तरी किसी असगुन वाली रात फेंक गयी इसी धरती पर?
कैसा डरावना है यह दौर हर किसी के रोयें खड़े हो रहे हैं शिराओं में दौड़ रही है झुरझुरी हर किसी निहत्त्थी-निर्दोष नींद में भर गये हैं डरावने दुस्वप्न
दूसरे को देखते ही हर किसी की आंखों में है खौफ कहां से आ गया यह बैक्टीरिया सर्वव्यापी?
मुस्कुराहटें धोखा, विनम्रता कपट, वायदे छल, फ़कीरी लुटेरों का सम्मानित यूनिफार्म पुलिस डाकू, विद्वान चाटुकार, संत बलात्कारी, कवि जुगाड़ू, एकता माफिया, नेता अपराधी, प्रतिभाएं ठग, हुनरमंद हैकर्स...
ऐसी महामारी इतिहास में शायद कभी देखी नहीं गई प्लेग, हैजा-कालरा, चेचक, एड्स में भी प्राणभक्षी रोगाणु... परमाणु उपकरणों से भी व्यापक बड़ा विध्वंसकारी
बूढ़ा बाप अपने बेटे से सुरक्षा के लिए सरकार को भेजता है अर्जी औरत अपने पति के डर से भाग कर अजनबी किसी शहर में खोजती है अपना ठिकाना
फ़रहाद रोता है अपने घुटनों पर टिका हुआ शीरीं के सामने खोलता अपना कलेजा- मैंने अपनी हज़ारों हसरतों, करोड़ों ज़िंदगियों के सारे ईमान से भी ज्यादा टूट कर बिखर कर हर जनम मर मर कर तुमसे किया है बेइंतेहा प्यार
हर आशिक नहीं हुआ करता, मुज़रिम हर ग़म और गुस्से की ज़ेब में नहीं होती तेज़ाब
शुक्र है कि जूलियट अपने कांपते होठों से अब भी चूमती है रोमियो का माथा
महिवाल जब डूबता है मिट्टी के कच्चे कपटी घड़े के साथ बाढ़ में उमड़ती नदी के भंवरजाल में घाट पर सिर पटकती आज भी रोती है सोहनी
प्यार अभी भी है डर का एंटीडोट
दुआएं आज भी करती हैं दवा का काम।
सत्ता
जो करेगा लगातार अपराध का विरोध अपराधी सिद्ध कर दिया जायेगा
जो सोना चाहेगा वर्षों के बाद सिर्फ एक बार थक कर उसे जगाये रखा जायेगा भविष्य भर
जो अपने रोग के लिए खोज़ने निकलेगा दवाई की दूकान उसे लगा दी जायेगी किसी और रोग की सुई
जो चाहेगा हंसना बहुत सारे दुखों के बीच उसके जीवन में भर दिये जायेंगे आंसू और आह
जो मांगेगा दुआ, दिया जायेगा उसे शाप सबसे मीठे शब्दों को मिलेगी सबसे असभ्य गालियां
जो करना चाहेगा प्यार दी जायेंगी उसे नींद की गोलियां
जो बोलेगा सच अफ़वाहों से घेर दिया जायेगा उसे जो होगा सबसे कमज़ोर और वध्य उसे बना दिया जायेगा संदिग्ध और डरावना
जो चाहेगा स्वतंत्रता दिया जायेगा उसे आजीवन कारावास! एक दिन लगेगा हर किसी को नहीं है कोई अपना, कहीं आसपास!!
ये उदयप्रकाश की लंबे अंतराल के बाद प्रकाशित होने वाली कविताएं है। उदय सर्वोपरि कवि हैं या कहानीकार यह मुश्किल कुछ बढ़ती जा रही है। इसका समाधान कठिन है। इन कविताओं और उदयप्रकाश के शुरु के दोनों संग्रह यह साबित करते है कि वे हर समय में जीवित हैं। कवि को पहल सम्मान मिला है। मो. 09810716409 / 09810711981
|