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अप्रैल 2017

हिन्दी ग़ज़ल का किसान चेहरा

अवधेश प्रधान

निराला, त्रिलोचन/शमशेर/अदम गोंडवी और बल्लीसिंह चीमा विशेष



         दाने-दाने को तरस जाता है,
                        यूं तो बल्ली किसान है





फारसी-उर्दू ग़ज़ल की क्लासिक परंपरा से आज की हिन्दी ग़ज़ल की तुलना कीजिए तो इस बात का एहसास हुए बगैर नहीं रह सकता कि ग़ज़ल का हिंदी चेहरा गढऩे और सँवारने में हमारे कवियों को एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ा है और यह कठिन सृजन-साधना अब भी पूरी नहीं हुई। पूरी हो गई तो फिर साधना कैसी? हाफ़िज और रुमी, मीर और ग़ालिब की रसेश्वरी को हिंदी रुप देना कोई आसान काम नहीं है।
भारतेन्दु ने 'रसा' नाम से जो ग़ज़लें लिखीं उसमें फ़ारसी काव्य परंपरा के प्रतीकों और अभिप्रायों को स्वीकार किया गया है। बाद में जिन हिंदी कवियों ने फ़ारसी बहर में देशी प्रतीकों और अभिप्रायों को लेकर ग़ज़ल की चासनी हिंदी में उतारने की कोशिश की और साथ ही फ़ारसी-अरबी की शब्दावली से भी भरसक बचे रहने कोशिश की उनकी मुश्किलें बहुत बढ़ गईं। जब हम पढ़ते हैं - ''विमल इंदु की विशाल किरणें प्रकाश तेरा बता रही हैं''- तो इससे फ़ारसी बहर का आभास मुश्किल से मिलता है और ग़ज़ल की चिर-परिचित रूढिय़ों और शब्दों के अभ्यस्त कानों को पता नहीं चलता है कि यहाँ ग़ज़ल अपना हिंदी रूप पा रही है। निराला की 'गीतिका' के गीतों के बीच जब हम पढ़ते हैं- ''बुझे तृष्णाशा विषानल, झरे भाषा अमृत निर्झर''- तो पता नहीं चलता कि यह संगीत फ़ारसी बहर से छनकर आ रहा है। बाद में उन्होंने 'बेला' में अपनी ग़ज़लें संकलित कीं। यहाँ ग़ज़ल को हिंदी रूप देने के लिए निराला ने ऐसी भाषा का प्रयोग किया जिसे रामविलास शर्मा ने 'लक्कड़तोड़' भाषा का लकब़ दिया। लेकिन यह कैसे अस्वीकार किया जा सकता है कि उन्हीं ग़ज़लों में कुछ ऐसी ढली-ढलाई पंक्तियां भी हैं जो पाठकों की ज़बान पर चढ़ गई -
किनारा वह हमसे किए जा रहे हैं
दिखाने को दर्शन दिए जा रहे हैं।
छिपी चोट की बात पूछी तो बोले-
निराशा के डोरे सिए जा रहे हैं।
खुला भेद, विजयी कहाए हुए जो
लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं।
निराला का श्रम अकारथ न गया। 'बेला' की राह पर चलते हुए बाद में जानकी बल्लभ शास्त्री और त्रिलोचन ने भी कुछ ग़ज़लें कहीं। त्रिलोचन के क़तों, रूबाइयों और ग़ज़लों का संग्रह 'गुलाब और बुलबुल' नाम से छपा। त्रिलोचन के हमसफ़र शमशेर का हाथ उर्दू में वैसे ही बहुत सधा हुआ था। उनकी ग़ज़लों में तलाश अधिक है। लेकिन त्रिलोचन की काव्य-भाषा में जो देहाती ऊबड़-खाबड़पन है वह शमशेर की तराशी ज़बान में कहाँ? त्रिलोचन के ये शेर शमशेर को बहुत पसंद थे -
बिस्तरा है न चारपाई है,
जिन्दगी हमने खूब पाई है।
रात सोते में जिसने सर काटा,
नाम मत लो हमारा भाई है।
इन शेरों में तो खैर, बोलचाल का रंग पूरा निखरा हुआ है लेकिन जिन ग़ज़लों में उन्होंने संस्कृत का रत्नकोष उड़ेलना चाहा, उनकी भाषा निराला की 'गीतिका' के पास पहुँच गई-
यदि किसी दिन ग्रस्त सूर्योदय हुआ
क्या हुआ, इससे नया क्या भय हुआ।
अब त्रिलोचन चित्त की चिंता गई,
भस्म जब ज्ञानाग्नि द्वारा भय हुआ।
जायमाना पुन: कल्याणी उषा,
फिर ऋचा से आधुनिक आश्रय हुआ।
शमशेर को ग़ज़ल का यह हिंदी चेहरा पसंद न था। उन्हें ग़ज़ल के रूप-विधान और बोलचाल के मुहावरे से छेड़छाड़ करना गवारा न था। वे उर्दू की नफ़ासत, नज़ाकत और बारीकी के पूरे क़ायल थे। उनके कुछ शेर मुलाहिजा फ़रमाइए -
हक़ीक़त को लाए तखैयुल के बाहर
मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाए!
***
जहां से अब तो जितने रोज़ अपना जीना होता है,
तुम्हारी चोटें होनी हैं, हमारी सीना होना है!
***
कभी राह में यूं ही मिल लेने वाले,
बड़े आए हैं मेरा दिल लेने वाले!
अब ग़ज़ल ने हिंदी में जैसा रूप ले लिया है और जैसे-जैसे रूप धरती जा रही है, उस सबका मूल्यांकन फ़ारसी छंदशास्त्र और उर्दू काव्य परंपरा के पुराने प्रतिमानों से करना ठीक नहीं है। इमरजेन्सी के बाद व्यापक जनसमुदाय में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें जिस तरह लोकप्रिय हुईं, उससे प्रमाणित है कि अब पाठक समुदाय को यह गवारा नहीं कि ग़ज़ल केवल इश्किया शायरी या आध्यात्मिक संकेतों तक सीमित रहे। दुष्यंत कुमार से लेकर बल्ली सिंह चीमा तक की ग़ज़लें जुलूसों में और जनसभाओं के मंचों से गाई जाती हैं। अन्य काव्यविधाओं की तरह ग़ज़ल की भी अर्थ भूमि का बहुत विस्तार हो गया है। अब उसमें सांप्रदायिकता, स्त्री-उत्पीडऩ, चुनाव, महंगाई, गरीबी आदि तमाम राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर चुटीली उक्तियों का रचाव मिलता है। उसमें गुलो-बुलबुल, साक़ी-शराब-मय$खाना की जगह संसद, सड़क, खेत-खलिहान, दफ्तर और कारखाना काबिज हो गए हैं। आह और कराह की जगह बहसों, जिरहों, पुकारों और नारों ने दखल कर ली है। वहां नरगिस, गुलाब और सरो जैसे इने-गिने फूल-पौधों की जगह हिंदुस्तान की बहुरंगी प्रकृति की रंगारंग छवियां मिलती हैं। राजनीति में आजादी की लड़ाई और साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन ने जिन रुझानों को परवान चढ़ाया उन्हीं की स्वाभाविक परिणति ग़ज़ल के नए चेहरे में हुई।
पहले निराला ने और बाद में त्रिलोचन ने ग़ज़ल को हिंदी रूप देने की जो साधना की उसी के भीतर से ग़ज़ल का किसान चेहरा उभरना शुरू हुआ। निराला ने 'बेला' की ग़ज़लों से, शहर की महफिलों में फंसी नज़रों को गांव के खुले वातावरण की ओर खींचा-
कानों में बातें बेला और जुही करती थीं
नाचते मोर, झूमते हुए पीपल देखे।
किसान खेतों में, लड़के अखाड़ों में आए
बारहमासी गाती हुई लड़कियों के दल देखे।
* * *
भाई-भतीजों के संग नैहर को आई हुई
सहेलियां कैसी कैसी बगीचों में मिली-जुलीं।

निराला की राह पर चलते हुए त्रिलोचन ने ठेठ किसानी अंदाज में ये शेर कहे -

काल पड़ जाये, मेह आएं और निकल जाएं
फिर भी सूखेंगे नहीं धान, कोई कह तो दे।
* * *
लोनी लग लग के कट चली दीवार
सूरत आई है घर के खोने की।
* * *
खेती क्या होगी, कहां से अबकी घर आएगा धान
भूमि परती है, कभी जोती नहीं, गोड़ी नहीं।
इस तरह ग़ज़ल में किसान की चिन्ता शामिल हुई, जिसकी कल्पना भी पहले नहीं की जा सकती थी। 1970-80 के दशक में जो क्रांतिकारी राजनीतिक चेतना की लपटें उठीं उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं को प्रभावित किया। ग़ज़ल भी अछूती नहीं रही। दुष्यंत के बाद रामकुमार कृषक, अदम गोंडवी, गोरख पांडेय, बल्ली सिंह चीमा, नचिकेता, वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लें आईं जो जन आंदोलनों के सीधे प्रभाव में लिखी गई थीं। यह भी कह सकते हैं कि ये जन आंदोलनों से ही पैदा हुई थीं।
इन ग़ज़लकारों में बल्ली सिंह चीमा ग़ज़ल का किसान चेहरा लेकर आया। उसकी रचनाएं जुलूसों और सभाओं में कुछ इस तरह गाई गईं कि गीत और ग़ज़ल का फ़र्क मिट गया। ग़ज़ल भी वैसे एक गीति-परक विधा है लेकिन उनका जनसमूह में गाया जाना एक नई नीज़ है। इससे साबित होता है कि नए जमाने की सामूहिक आंतरिक लय के साथ ग़ज़ल मेल खा गई वर्ना महफ़िलों से निकलकर उसका लोक-कंठ में बसना संभव न होता। बल्ली सिंह ने झोपड़ों से उठ रही आवाज को अपनी ग़ज़ल से एकाकार कर दिया और इस तरह जन आंदोलनों में शरीक उसका ठेठ, सतेज और प्राणवंत राजनीतिक तेवर उसकी कविता की पहचान बन गया। 'ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के' - यह गीत उत्तर भारत के उन सभी इलाकों में - जहां किसानों के या गरीबों के आंदोलन चल रहे थे - अत्यंत लोकप्रिय हुआ। उसके कई गीत नारे बन गए, कई गीत नारों से बने इसीलिए उन्हें सुनते या पढ़ते हुए आप उन ऐतिहासिक आंदोलनों को याद किए बगैर नहीं रह सकते जिनसे इनका जन्म हुआ - ''रोटी से अब पेट का रिश्ता चाहे जो हो जोड़ दो। दाम बाँधो  काम दो वरना गद्दी छोड़ दो।'' &&& ''दावेदार- हम जंगल के दावेदार'' (यहाँ स्मरणीय है कि उत्तराखंड आंदोलन के नेता शमशेर सिंह बिष्ट एक पत्र निकालते थे जिसका नाम था - जंगल के दावेदार)&&& ''तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो।'' &&& ''तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो।'' &&& ''संघर्ष कर रहा है सचमुच बिहार देख, सब कुछ बदल रहा है चश्मा उतार देख।''
अदम गोंडवी ने ग़ज़ल को भूख और ग़रीबी के पास चलने की पुकार लगाते हुए कहा- भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो, या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो। बल्ली सिंह चीमा ने भी इसी स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए कहा - ये ग़ज़ल जो राजमहलों की कभी जागीर थी, अब तो इसको झोंपड़ों की अंजुमन तक ले चलें। इससे पहले किसी ने ग़ज़ल को मफ़लिसों और झोपड़ों की अंजुमन तक ले चलने की बात सोची भी न होगी। प्रगतिशील आंदोलन के दौर में जीवन के यथार्थ को बयान करने के लिए नज़्म को अधिक से अधिक अपनाया गया क्योंकि उसमें बाह्य जीवन-संघर्ष के विस्तार के लिए बहुत गुंजाइश थी लेकिन ग़ज़ल से छेड़छाड़ न की गई। 1970-80 के दौर में राजनीतिक माहौल कुछ ऐसा गर्म हुआ कि उधर 21 वीं सदी की चर्चा तेज हुई, इधर कवियों ने होरी-धनिया-गोबर की दास्तान छेड़ दी और वह भी ग़ज़ल में-
अब भी होरी लुट रहा है, अब भी धनिया है उदास
अब भी गोबर बेबसी से छटपटाएं गांव में।
सिर झुकाएं लोग अब भी देख राय साब को
सिर उठे तो लाठियां गुंडे चलाएं गांव में।।
अब भी पंडित रात में सिलिया चमारिन को छलें
दिन में ऊंची जातियों के गीत गाएं गांव में।
(ज़मीन से उठती आवाज)
खामोशी के खिलाफ, ज़मीन से उठती आवाज़, तय करो किस ओर हो, हादसा क्या चीज है - बल्ली सिंह के कविता संग्रहों के ये शीर्षक ही उसकी कविता के मन-मिजाज का इशारा करते हैं। खामोशी के खिलाफ जमीन की जो आवाज उसकी कविता में प्रतिध्वनित हुई उसमें गांव की जनता की 'सदा-ए-इन्क़लाब' सबसे तेज थी। हर गांव में तेलंगाना जी उठने और लोगों के गुरिल्ला बनने के सपने थे। एकजुट होकर गांव के लोग सत्ता की शक्तियों से जूझ रहे थे -
एकता से बल मिला है झोपड़ी की सांस को
आंधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गांव के।
(ज़मीन से उठती आवाज)
एक ओर 'झोपड़ी की सांस', दूसरी ओर 'आंधियां'- शक्ति संतुलन साफ ही सत्ता के अनुकूल है लेकिन एकताबद्ध संघर्ष ने साबित कर दिया कि- ''झोपड़े अपने बड़े दमदार है।' लड़ाई मेें हमेशा जीत नहीं होती; कई बार दमनकारी शक्तियां जबर्दस्त पलटवार करती हैं; उस समय जनता के कवि को जनशक्ति पर भरोसा रखना लाजिमी है क्योंकि दमन होगा तो प्रतिरोध भी अवश्य होगा -
घर तो जलकर हैं कब के राख हुए
आग सीनों में जल ही होगी।
गांव-बस्ती के ठंडे चूल्हों में
इक बगावत भी पल रही होगी।
(ज़मीन से उठती आवाज़)
बल्ली सिंह के लिए न तो जनता का प्रतिरोध काल्पनिक है, न शासक वर्ग का दमन। वह सत्ता की सियासी चालों को खूब समझता है, उन पर खुलकर व्यंग्य करता है, उसके झूठ की पोल खोलता है और जनतंत्र की चादर में छिपी उनकी तानाशाही रूह को सबके सामने उजागर करता है। उसकी कविता में हादसा, डर, दहशत, वर्दियां, बंदूकें, जंजीरें, काला कानून, पहला, फाइलें-ये महज शब्द नहीं, जलते हुए अनुबव संकेत हैं। इस बीच ''वो हादसे हुए हैं कि घर-घर नहीं रहा- यहां घर से मुराद मुल्क से भी है। आज़ादी के बाद के ऐसे ही हादसों में था सन् 1984 का सिख-विरोधी दंगा-
पसीना चुए है ये मंजर तो देखो
लगे जून जैसा नवंबर तो देखो।
ये जलते हुए घर, ये लाशों के मलबे
जमीं पे लहू का समंदर तो देखो।
न हिंदू मरा है न सिख ही मरा है
तुम्हीं हो, जरा पास जाकर तो देखो।
है फिरकापरस्ती का उन्माद दिल में
बना है बहादुर वो कायर तो देखो।
न जाने मिलेगा इन्हें कब ठिकाना
भटकते हुए लोग दर-दर तो देखो।
करो बात इनसे, सुनो दर्द इनके
ये गूँगे नहीं हैं, बुलाकर तो देखो।
(जमीन से उठती आवाज़)
* * *
कौन चाहेगा भला जलते हुए घर देखना,
जिस्म पर जलता हुआ पेट्रोल-टायर देखना।
(हादसा क्या चीज है)
* * *
जब कवि अपने जन्मनगर अमृतसर पहुंचा तो सड़कों पर सहमे-सहमे लोग मिले, हर कदम पर फौजी उंगली बंदूक के घोड़े पर तैनात रखी हुई मिली, नगर का चौक फौजी चौकी जैसा बन गया था, गुरुनानक देव विश्वविद्यालय में प्रवेश से पहले गेट पर नाम, पता, किससे मिलना है, क्यों मिलना है, कब तक रहना है - यह सब नोट कराना पड़ता था, कबीर पार्ट में मरघट सा सन्नाटा था - ''सहमें बंद किवाड़ों पर डर लगता था दस्तक देते/प्रश्न बनी न तनी बंदूकें घूम रही थीं सड़कों पर।''
बल्ली सिंह केवल कविता में नहीं, हकीकत में भी किसान है। 'अपने खेतों में अन्न उगाते हैं, हम फकत शायरी नहीं करते' - यह आत्म परिचय उसने भले आत्मगौरव की भाषा में दिया हो लेकिन किसान की जमीनी हकीकत से वह बखूबी परिचित है - 'दाने-दाने को तरस जाता है, यूं तो बल्ली किसान है' लेकिन कपास उगाने वालों को कपड़ा नसीब नहीं- 'अफसोस है कि फिर भी कपड़ा न मिल सका, फूलों से खेत मेरे सजाए कपास ने। ' (तय करो किस ओर हो) मंडी हो, मौसम हो, सरकारी नीतियां हों- कोई किसान के अनुकूल नहीं; सब को किसान से बैर है-
कभी धान को कभी गेहूं को तेरी मंडियों ने दगा दिया,
मेरी खेतियों से तुझे बैर हैं, तेरी नीतियों ने बता दिया।
मैं किसान हूं मेरा हाल क्या, मैं आसमां की दया पे हूं
कभी मौसमों ने हंसा दिया, कभी मौसमों ने रुला दिया।
(हादसा क्या चीज है)
आजादी के बाद एक पर एक सभी सरकारों ने भारी विकास का दावा किया है और तीन लाख किसानों की आत्महत्या ने हर दावे की धज्जी उड़ा कर रख दी है। बजट और अर्थशास्त्र की किसी आंकड़ेबाजी से इस कठोर सत्य पर परदा डालना संभव नहीं है। 'भारत महान' और 'गर्व से कहो...' का नारा लगाने वालों को एक साथ ललकारते हुए बल्ली उन पर करारी चोट करता है-
वो जो मर रहा कर खुदकुशी इसी देश का ही किसान है,
कहो गर्व से, कहो शान से, मेरा देश फिर भी महान है!
(अष्टछाप)
प्रेमचंद के उपन्यास हों या स्वामी सहजानंद के किसान आंदोलन के दस्तावेज-सब जगह देखा जा सकता है कि आजादी के पहले भारतीय किसान का गला कर्ज़ के फंदे में कसा है। यह एक ऐसी विरासत है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है। आजादी के बाद हरित क्रांति, डंकल समझौता, वल्र्ड बैंकिंया कृषि-नीति ने इस सिलसिले को और जानलेवा बनाया। एक किसान के बतौर तमाम किसानों की पीड़ा बयान करते हुए बल्ली अपनी एक ग़ज़ल में कहता है-
कीट नाशक खेत में डाले बिना पौधे नहीं बचते।
डाल दें तो फिर कबूतर, मोर और तोते नहीं बचते।
सब्जियां या फल हों, सबमें जहर है, खाएं तो क्या खाएं,
ना करें छिड़काव, फल क्या शाख पर पत्ते नहीं बचते।
बालियां गेहूँ की हों या धान की, सब खा रही मंडी
हम किसानों के लिए तो फसल के पत्ते नहीं बचते।
लड़ मरूं या मार दूं, हैं रास्ते दो ही मेरे रब्बा
खुदकुशी मैं कर भी लूं तो कर्ज से बच्चे नहीं बचते।
काम खेती का रहा होगा कभी उत्तम मगर 'बल्ली'
आजकल कर्जा चुकाने के लिए पैसे नहीं बचते।
(हादसा क्या चीज़ है)
उसकी ग़ज़ल 'झोपड़ों से उठती हुई आवाज़', के साथ-साथ 'प्यार का नया अंदाज़' भी है। उसके प्यार में जिस्म से ज्यादा दिल है जिसमें वफ़ा, मस्ती और संजीदगी के साथ-साथ ग़में-दौरा भी शामिल है। उसे खेतों से, फसलों से, बादल और बारिश से, सर्दियों और गर्मियों से, धूप और नीम-पीपल की छांव से लगाव है। वह अपने गांव आने का न्यौता देता है और वह भी पूरे पते और रास्ते के साथ- ''शहर से कुछ दूर है हंसते-हरे खेतों के बीच/आइए कोसी नदी के तट पे है मेरा निवास।'' वह अपने गृहनगर नैनीताल को माशूका की तरह चाहता है। वह खुद हरे-भरे तराई के इलाके का वासी है इसीलिए उसके यहां गढ़वाली या कुमाऊंनी प्रकृति का रंग-रूप नहीं है फिर भी बर्फ से ढके पहाड़ी नगर का जो चित्र उसने 28 पंक्तियों में अंकित किया है वह उसके इंकलाबी दिल में लहर मारती रोमांटिक भावनाओं का सबूत है-
बर्फ से ढक गया है पहाड़ी नगर।
चांदी चांदी हुए हैं ये पत्थर के घर।
चूम कर पैर पगडंडियां हंस पड़ीं
तू गिरेगा नहीं, देख, इतना न डर।
ठंडी ठंडी हवाएं गले से मिलीं
और कहने लगीं, हो सुहाना सफर।
(तय करो किस ओर हो)
बल्ली पहले पंजाबी में लिखता था लेकिन जब हिंदी में लिखने लगा तो फिर कलम ऐसी साधी कि कहीं से नौसिखियापन या कचाई की शिकायत का मौका न दिया। हां, कहीं-कहीं पंजाबी उच्चारण आड़े आता है तो फायलातुन-फेलुन करने वाले नाक-भौं सिकोड़ते हैं। पंजाबी, गुजराती, डोंगरी में ग़ज़लें लिखी जाने लगीं तो वहां भी लोगों ने पहले शिकायतें कीं, फिर इस विधा को अपना लिया। फारसी-उर्दू की कसौटी नई ग़ज़लों पर लागू करना सही नहीं है। असली चीज है लय; और आगे चलकर, उर्दू में भी यही रह जाएगी; नियम-कायदे पड़े रह जाएंगे। छंद शास्त्र के नियमों का अनुगमन करने वाले बहुत हैं; उनमें बल्ली सिंह चीमा जैसा कवि एक भी नहीं जो किसानों में, नौजवानों में, जनांदोलनों में इतना लोकप्रिय हो। एक ही विषय या भाव पर केन्द्रित होने के कारण उसकी कई ग़ज़लें नज़्म या प्रगीत हो गई हैं जैसे 'हादसा क्या चीज है' में संकलित धूप, रात, नींद, तोते, आग। 'पहाड़ी नगर' भी तो एक प्रगीत ही है। उसने छोटे या बड़े-छंद ऐसे ही लिए हैं जो अकेले या समूह में गाये जा सके। कुछ ग़ज़लें दोहों में भी लिखी है। उसकी भाषा में एक भी शब्द ऐसा नहीं आता जिसका अर्थ शब्दकोश में देखना पड़े। वह बिंब-विधान के लिए दूर की कौड़ी नहीं जुटाया। रोज-रोज की परिचित चीजों को ही एक नए अर्थ की आभा से चमका देता है- ''गेट बन जिसको खड़े रहना था तेरी राह में, देख 'बल्ली' आज जो दीवार बनकर रह गया।'' किसी शायर ने 'गेट' और 'दीवार' से यह काम न लिया था। कभी-कभी तो ऐसा साहसिक प्रयोग करता है कि हैरान हो जाना पड़ता है, जैसे- ''सांड़ खेतों में चरता हो जैसे कोई/यूं हमारे घरों में अंधेरा फिरे!'' अंधेरे की अंधेरे को मूर्त करने के लिए छुट्टा साँड़ से बेहतर उपमा नहीं हो सकता था और यह उपमा एक देहाती किसान के ही दिमाग में आ सकती थी।


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