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अप्रैल 2017

'अतिरिक्त' की भाषा में 'वंचना' का सौंदर्यशास्त्र

सुबोध शुक्ला

उत्तर आधुनिकता विमर्श/चौथी किश्त







हम वही होते हैं जिसको भोग रहे होते हैं। एक उपभोक्ता, उपभोग ही बन जाता है - एक सहज उपलब्ध कचरा जिसका इस्तेमाल होना है और फेंक दिए जाना है।
(ब्रियांट मैक्गिल, वॉयल ऑव रीज़न)
मुझे यकीन है कि एक मनुष्य, बन्दर और मुट्ठी भर रेत में कोई भी बुनियादी फ़र्क नहीं है।
(ओलिवर वेंडेल होम्स जूनियर)

वैश्वीकरण और स्थानिकता की प्रक्रिया बड़ी पेचीदगी के साथ आज के समय में एक दूसरे से नत्थी है। संपत्ति, पैतृकता और सामुदायिकता की सुरक्षात्मक और क्रमबद्ध परतें, हमें यह मानने पर विवश करती हैं कि वैश्विकता और स्थानिकता को परस्पर विभाजित द्वित्व की तरह देखना, जितनी विचारधारापरक भूल है उतनी ही चेतनापरक चूक भी। स्थानिकता और वैश्विकता मिलकर 'अंतराल' और 'अतिरिक्त' का एक संस्कृति सातत्य तैयार करते हैं जो यांत्रिक विपरीतताओं के सापेक्ष एकीकृत पूर्वधारणाओं को ज़्यादा महत्त्व देता है।
स्थानिकता, वैश्वीकरण के साथ मौजूद होने वाला बोध है। दोनों मिलकर सामाजिकता में स्थान और अवधि का एक संगठित ताना-बाना बनाते हैं। जहां एक ओर स्थानिकता; रक्त-संबंधों और नातेदारियों के मजबूत गठजोड़ तथा आवास एवं आश्रय के जटिल समीकरण को साधती है वहीं वैश्वीकरण; नागरिकता और निरंकुश और स्वचालित तात्कालिकता के साथ जोडऩे की प्रक्रिया है। तो यह कहा जा सकता है कि स्थानीय सजातीय सादृश्यता और गठबंधित सांस्कृतिक पहचान-बोध की भौतिक विशिष्टता ही स्थानिकता है और अस्थायी अनुभवों के विकेन्द्रित अनुशासन तथा सौन्दर्यबोध का सांस्थानिक लोकाचार ही वैश्वीकरण है।
वैसे भूमंडलीकरण की प्रक्रिया उस भाव-बोध की सामने लाने के लिए विख्यास (कुख्यात?) रही है जिसमें यह बताया गया कि विश्व एक एकल या कहें रैखिक स्थान है है जहां संपर्क और संवाद एक अनुपेक्षित घटना है जिसके ज़रिये हम अवश्यम्भावी रूप से विभिन्न राष्ट्र-राज्यों, वर्गों एवं सभ्यताओं से एक आवर्ती स्मृति के द्वारा जुड़े हुुए हैं। एक ऐसी समानांतर व्यवस्था जिसमें हम असहमतियों के विभिन्न संस्करणों, पहलुओं एवं संघर्षों के अंतर्विवाद के साथ मौजूद होते हैं। यह मात्र अनुकूलन और सहमत धारणाओं का ही लोक नहीं है। इसमें भागीदार सत्ता, विचार और अन्य वर्ग, सि$र्फ संवाद के ही बराबर के हिस्सेदार नहीं है, वे पारस्परिक निर्भरताओं और शक्ति-संतुलन के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए तंत्र के साथ जो अंशत: अपनी जटिलता और संवेदनशीलता को बदलाव के क्रम में रूपांतरित करने की ताकत भी रखते हैं, एक दूसरे से बंधे हुए हैं। साथ ही इस प्रक्रिया में यह ताकत भी होती है कि वह सूचना को नियति में स्थानांतरित कर सके और परम्परा को रोमान में।
वैश्वीकरण जितनी मात्रा में संस्कृतियों का संपूर्णतावादी तर्क बनाता है उतने ही अनुपात में स्थानिकता को उसके पहचान के निश्चित भू-भाग से अलगाता भी जाता है। हमारे अनुभव और अनुकूलन के भौतिक ठिकाने, गुमनाम होने लगते हैं और देश-काल का संकुचन एक नकली किस्म के पर्यावरण के ज़रिये, हमारी 'जीवन-चर्या' को 'जीवन-शैली' में बदलने लगता है।
जीवन-शैली नाम का पदबंध अपनी ऐतिहासिकता में जितना अप्रकाशित है अपनी प्रासंगिकता में उतना ही अनौपचारिक भी है। एक समय यह बड़े सीमित समाजशास्त्रीय अर्थों में विशिष्ट दर्ज़ा प्राप्त समूहों की ज़िन्दगी को अभावग्रस्त और वंचित सामाजिकता से अलगाने वाली बनावट, तौर-तरीकों और पद्धति के लिए ही प्रयोग में लाया जाता रहा है। मौजूदा उपभोक्ता संस्कृति के अंतर्गत यह वैयक्तिकता, आत्म-प्रकाशन तथा व्यंजक आत्म-चेतना के रूप में संदर्शित किया जाने लगा है। देह, परिधान, भाषा, फ़ुरसतिया मनोविनोद, खान-पान की वरीयताएँ, घर, वाहन, अवकाशों के चुनाव इत्यादि सब स्वामी/उपभोक्ता के वैयक्तित्व आस्वाद और चुनाव को प्रदर्शित करने वाली सांकेतिक इकाइयां रही हैं।
बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध तक नागरिकता के सापेक्ष पूंजी का पाठ, एक अबूझ अनुसरणवाद के दौर से गुज़र रहा था जो कि सामूहिक अपेक्षाओं और सार्वजनिक उपभोग का समय भी था। अब विभिन्न उत्पादों के लिए; बाज़ार-विभाजन, उत्पादन-तकनीकों और उपभोक्ता मांगों ने यह दिखाना शुरू किया कि 1960 के उत्तरवादी समय में लगभग हर वर्ग, श्रेणीक्रम के लिए ज़्यादा चुनाव एवं विकल्प संभव किये जा सकते हैं क्योंकि प्रबंधन भी अब कला-दृष्टि के तौर पर गिना जाने वाला तत्व बन गया है।
उत्तरवादी, बाज़ार की संस्कृति ने उपभोक्ता संस्कृति के भीतर पनपने वाली हालिया प्रवृत्ति के लिए तीन जुमलों का प्रयोग किया है- ''आस्वाद सिर्फ ऊब की प्रतिक्रिया है, नियम कोई भी नहीं है जो कुछ भी है सिर्फ चुनाव है, जो भी निश्चित है वह सिर्फ धोखाधड़ी है। इन सबका यही अर्थ है कि परम्परागत शैलियाँ, अनुशासन, रीतियाँ लगातार शिथिल हो रही हैं। यह टूट, समरूपता और ऐकिकता के खिलाफ असादृश्यता और असमानता के एक स्वच्छंद अतिवाद को सामने लाती है। इसका परिणाम कहीं न कहीं अर्थ और मंतव्य की सत्ता का समापन भी है। कहने का आशय यह कि हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहां कोई भी निर्दिष्ट और स्थापित ओहदों की संभावना नहीं रह जाने वाली है। जबकि पहले कुछ विशेष दर्ज़ा प्राप्त समूहों के लिए निर्धारित जीवन-शैली की व्यंजकता का एक अंगीकृत मानदंड हुआ करता था।
उत्तर-आधुनिक उपभोक्ता-संस्कृति की ओर बढ़ता यह वैकल्पिक अंतरंगता (disjunctiv intimacy) का आन्दोलन, सूचना के प्राचुर्य और छवियों के प्रसार पर आधारित है। इसे कभी भी अंतिम रूप से स्थायी या किसी तंत्र के अंतर्गत श्रेणीबद्ध नहीं किया जा सकता और साथ ही मौजूद सामाजिक विभेदों से जिसका अंतर्संबंध नहीं बनाया जा सकता। आगे बढ़कर यह सामाजिक विभाजनों की अप्रासांगिकता और 'सामाजिक' के  एक महत्वपूर्ण सान्दर्भिक बिंदु के रूप में अंत की आत्यंतिक उद्घोषणा भी करता है। प्रभावत: समाज और संस्कृत के बीच के निश्चियात्मक रिश्ते का अंत और एक सांकेतिक पदार्थधर्मी कुलीनता का दबदबा बढ़ता सा दिखाई देने लगता है। क्या उपभोक्ता-सामग्री, किसी सामाजिक परिक्षेत्र के भीतर नियामक और अभिव्यक्तिपरक प्रभावों को पैदा करने के लिए जन-व्यवस्था द्वारा मुक्त-साहचर्य विधि में किसी सांस्कृतिक चिन्ह की तरह प्रयोग में लाई जा सकती है, जहां पुराने निर्देशांक द्रुत गति से विलुप्त हो रहे हों या फिर आस्वाद का पाठ वर्गीय संरचना के दायरे में आसानी से पहचाना जा सकता हो या फिर उसका कोई खाका बनाया जा सकता हो? क्या 'आस्वाद' वर्ग-नियंता को वर्ग-बद्ध कर सकता है? क्या शैलियों और बनावट के परे आन्दोलनों का दावा, पूंजी संचालित खेल के बाहर नहीं बल्कि खेल के भीतर गति को निर्धारित करता है? बिना किसी नई गति के दावे के वह, जीवन-शैली एवं उपभोग-आदतों के सामाजिक परिक्षेत्र के भीतर मात्र एक मुद्रा या भंगिमा है जिसका वर्गीय संरचना से भी किसी तरह का कोई लेना-देना होता है?
यहां इसी आयाम को विकसित करने का प्रयास है जो इस नज़रिए को झुठलाता है कि जीवन-शैली और उपभोग पूरी तरह से सामुदायिक समाज के लिए चालाकी से तैयार किए गए उत्पाद नहीं हैं। साथ ही यह जतलाने का प्रयास भी है कि एक मुक्त क्रीड़ाधर्मी स्पेस के रूप में किसी भी तरह की निश्चयात्मकता के परे जीवन-शैली और उपभोग की अवधारणा बेहद अनैतिहासिक और अभौगोलिक भी है। कुछ और दलीलें भी दी जा सकती हैं जैसे कोई नियम नहीं, मात्र चुनाव वाला दृष्टिकोण (कुछ लोगों द्वारा यह माना जाता रहा है कि फैशन, व्यंजकताओं और आस्वाद के पुराने श्रेणीक्रम टूट रहे हैं और यह बात असादृश्यतावादी, समतावादी एवं सहिष्णु स्वीकार के नज़रिए से तथा व्यक्तियों के अधिकार की अभिस्वीकृति के तर्क से सामने आ रही है कि वांछित एवं इच्छित लोकप्रिय विलासों का आनंद उठाया जा सकता है बिना किसी पाखंडपूर्ण विनम्रता और नैतिक अनुशासन के) सामाजिक परिसर की अंतक्र्रिया के रूप में किसी भी तरह की नाटकीय भूमिका पेश नहीं करता बल्कि वह एक स्वकेंद्रित और स्वारोपित चालाकी भर बन कर रह जाता है।
इसलिए उत्तर-संवादों के परिपे्रक्ष्य में, जीवन-शैली की नई अवधारणा की नव लघु बुर्जुआ1 के मनोलक्षण के रूप में अधिक समझा जा सकता है जो कि फैलते हुए वर्ग-खंड के रूप में केन्द्रीय रूप से उपभोक्ता संस्कृति के बिम्ब-विधान और सूचना के उत्पादन और वितरण से सम्बंधित है या फिर तबीयत और दिलचस्पी के विस्तार और उसकी वैधता से जुड़ा है। यह एक सामाजिक मनोभूमि के भीतर काम करता है जिसमें यह अपने दृष्टिकोण के विरोध में भी खड़ा होता है और खुद से होड़ भी लेता है। ऐसे में एक तरह की आर्थिक जलवायु और राजनीतिक संस्कृति के अंतर्गत परम्परागत लघु बुर्जुआ के मूल्य पुनरुत्थान से गुजरने लगते हैं।
फिर भी उपभोक्ता संस्कृति के विषय में यह सवाल पूछना कारगर हो सकता है, न केवल मांग की इंजीनियरिंग के सापेक्ष जो कि सार्वजनिक उत्पादन की निपुणताओं अथवा पूंजीवाद के तर्क के नज़रिए से देखी जाती है, बल्कि इसको खोजने के लिए भी कि कौन विशेषाधिकृत वर्ग-खण्ड बहुत नज़दीकी से संकेत-संरचना या दृश्य-उत्पादन के काम में शामिल है और साथ ही छवि तथा सूचना को उत्सव बनाने वाली व्यंजकता के उत्पादन में  भी। अनुसरण किसका हो रहा है यह बाकायदा एक रणनीतिक हिसाब है जिसे सामान्य अस्मिताओं के ऊंचे स्तर पर बोला- कहा जाता है। इससे यह भी पता चलता है कि उन सवालों का अंतिम रूप से जवाब अनुभवाश्रित विश्लेषणों के द्वारा ही दिया जा सकता है जिन्हें विशिष्ट समाजों के एकाधिकारवादी प्रतिनिधित्व के हिसाब से ढाला-संवारा गया था और सपाट चिंताओं को ज़ाहिर करने वाला बिजूका बना कर रखा गया था। उपभोक्ता-संस्कृति पदबंध का प्रयोग माल-असबाबों की दुनिया और उनकी संरचनात्मक अवधारणाओं को समझने के लिए किया जाता है। यह समकालीन समाज की पड़ताल के लिए एक केन्द्रीय विषय है। यह दोहरे केंद्र-बिन्दुओं को समेटे है - पहला, अर्थशास्त्र के सांस्कृतिक पहलू पर भौतिक सामानों के इस्तेमाल को मात्र उपादेयता या उपयोगिता के  नज़रिए से नहीं बल्कि संचारक लाक्षणिकता के रूप में देखने का और दूसरा, सांस्कृतिक असबाबों के अर्थशास्त्र पर आपूर्ति, मांग, पूंजी-संग्रहण, प्रतियोगिता और एकाधिपत्य के बाजारवादी सिद्धांतों का पडऩे वाले असर का जो कि जीवन-शैली, सांस्कृतिक असबाबों और पदार्थों के अंदरूनी परिवृत्त में परिचालित होते रहते हैं।
सबसे पहले उपभोक्ता संस्कृति की ओर बढ़ते हैं। यह ज़ाहिर ही है कि समकालीन उपभोक्ता समाजों के भौैतिकवाद पर कुछ आमफहम स्तर में और अकादमिक वृत्तों में जोर इस मामले को और जटिल बनाता है। मानवशास्त्रीय नज़रिए से भौतिक असबाबों, विनिमय और उपभोग को अपने इर्द-गिर्द पसरे सांस्कृतिक व्यूह के भीतर समझा जा सकता है। उत्तर-विमर्शकारों ने आर्थिक जीवन की सांस्कृतिक पूर्वशर्तों के प्रति ध्यान खींचने के लिए 'अंत:स्थापित और समाहित आर्थिकी' शब्द का उल्लेख किया है। असबाब या सामान को उपयोगिता और व्यावहारिकता से चिन्हित करने के मामले से कहीं अधिक यह वैचारिकी, सबसे पहले अपना उपयोग-मूल्य और विनिमय-मूल्य निश्चित करती है। इसे मानवीय आवश्यकताओं के सुदृढ़ीकरण तंत्र से आसानी से जोड़ दिया जाता है जैसा कि नव-माक्र्सवाद का मानना भी है।
बॉद्रिया इस मामले के सबसे ज़रूरी चिन्तक के रूप में सामने आते हैं - विशेषकर अपनी पदार्थ-चिन्ह वाली अवधारणा के मामले में, उनके अनुसार पदार्थों के सामुदायिक उत्पादन के लिए पूंजीवाद के भीतर, विनिमय मूल्य के प्रभुत्व के द्वारा, माल के मूल-प्राकृतिक उपयोग-मूल्य का विलोपन ही पदार्थ-बोध को सांकेतिक पृथक्करण के कूट-अर्थों में सामने लाता है। इससे इसके वाचक (पूंजीवादी तंत्र और बाज़ार का संप्रभु) को स्व-संदर्भित तंत्र में अपनी भाव-भंगिमा के द्वारा स्वेच्छाचारी रूप में परिभाषित कर दिया जाता है। अत: इस प्रकार के उपयोग को किसी भी तरह से उपयोग-मूल्य के उपभोग या भौतिक उपयोगिता के सम्बन्ध में नहीं देखना चाहिए बल्कि प्राथमिक तौर पर चिन्ह की खपत के तौर पर देखना चाहिए। यही वह बिंदु है जहां बुनियादी सन्दर्भ और प्राथमिक पहचान का अस्वीकार है और जिसे अल्पकालिक वाचक के अस्थिर परिक्षेत्र के द्वारा लगातार बदला जाता रहता है।
बॉद्रिया ने पदार्थ-बोध वाले रूपक के तर्क को वहां तक खींचा है जहां वह 'सान्दर्भिक भ्रम' न पैदा करने लगे, जैसा कि एक समय नीत्शे का सर्वनिषेध वाला विचार था जो कि पूंजीवाद के तर्क की पूर्णता के रूप में प्रकट किया जाता था। चिन्ह के रूप में पदार्थ की इस प्रभुसत्ता ने नव-माक्र्सवादियों को समकालीन पूंजीवाद के पुनरुत्पादन में संस्कृति की निर्णायक तथा प्रामाणिक भूमिका पर दबाव डालने के लिए विवश किया। उदाहरण के तौर पर जेमेसन ने लिखा कि संस्कृति अपने आप में उपभोक्ता समाज का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, इसके जैसा और कोई समाज चिन्ह-व्यवस्था और छवि-व्यवहार के साथ ऐसा आकंठ नहीं डुबो दिया गया। उपभोक्ता-समाज, नगरीय व्यापारिक केंद्र और खरीद-फ़रोख्त वाले बाज़ारों के स्वप्न-संसार में असबाबों के विज्ञापन और प्रदर्शन के द्वारा उत्पादन-चिन्ह के तर्क का फायदा उठाया है। यह काम पूर्ववर्ती एकत्रित और मोहरबंद मंतव्यों को तोडऩे के लिए तथा असाधारण और नूतन मुकाबले के निर्माण के लिए किया जाता है जो बड़े प्रभावशाली तरीके से असबाबों को पुननिर्मित करते हैं। रोजमर्रा के काम में आने वाले सामान; विलासिता, विचित्रता, सौन्दर्य और रोमान के साथ जोड़े जाते हैं ताकि उनके मौलिक और प्रक्रियात्मक उपयोग की मालूमात तथा व्याख्या को जटिल तथा अबूझ बनाया जा सके।
बॉद्रिया ने सबसे पहले उत्तर-पूंजीवादी समाज में इलेक्ट्रानिक जन-संचार की विधाओं की केन्द्रीय भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित कराया। टेलीविज़न, छवियों तथा सूचनाओं का इतना ऊबपूर्ण आधिक्य पैदा करता है जो हमारे यथार्थ-बोध को खतरे में डाल देता है। रूपक-बोधी संस्कृतियों का वर्चस्व एक स्वांग से भरे छद्म संसार का निर्माण करता है जिसमें छवियों तथा चिन्हों की प्रभुता, वास्तविकता और कल्पना के बीच के फर्क को धुंधला कर जीर्ण कर देती है।
बॉद्रिया इसे वास्तविकता का सौंदर्यबोधी उत्पीडऩ कहते हैं। सामाजिक की मृत्यु और यथार्थ का नाश वास्तविकता के नॉस्टेल्जिया की ओर प्रेरित करता है। यह एक ऐसे तटस्थ सम्मोहन से भरा निरंकुश अमूर्तन है जो बड़े हताश आततायीपन से वास्तविक लोगों, वास्तविक मूल्यों और वास्तविक यौनाचरण की तलाश करता है। बॉद्रिया के लिए उपभोक्ता-संस्कृति, एक उत्तर-आधुनिक संस्कृति है एक उथली संस्कृति जिसमें सारे मूल्य, बेतहाशा कीमत के साथ बिकने को तैयार हैं और कला ने यथार्थ को जीत लिया है। यथार्थ का सौन्दर्यीकरण, शैली और रीति को प्रधानता देता है जो कि आधुनिकतावादी व्यापारिक गतिकी के द्वारा अपने नए फैशन, नई शैलियों, नई सनसनियों और अनुभवों की निरंतर खोज के साथ प्रोत्साहित किया जाता है। पूर्ववर्ती कलावादी-सांस्कृतिक अवधारणायें जिनके बीज आधुनिकता में ही निहित थे उनका मानना था कि जीवन एक कला का नाम है और यह बात अब अपना असर पूरी शक्ति के साथ दिखला रही है। विलियम लीस ने कनाडा में 'प्रचार-तंत्र' की पड़ताल करते हुए विज्ञापन-उद्योग में विगत पचास साल (खासकर टी.वी. के विज्ञापन) के स्थानान्तरण को दिखलाने की कोशिश की जिसमें विज्ञापन-भाषाओं के ज़रिए उत्पाद सूचना को असीमित उत्सवधर्मी नैरेटिव्स में विकेन्द्रित कर दिया गया था जो कि आज़ाद, लापरवाह, आवारा जीवन-शैली की दृश्य-छवियों से युक्त थी। जीवन-चर्या के साथ जीवन-शैली का वास्ता इस बात की ताकीद करता है कि उपभोग की कार्य-प्रणाली, कार्यक्रम, खरीद तथा रोजमर्रा के जीवन में उपभोक्ता असबाब तथा अनुभवों का प्रदर्शन मात्र विनिमय मूल्य की अवधारणाओं तथा यांत्रिक तर्कयुक्त गणना से नहीं समझा जा सकता। यांत्रिकता के अभिव्यक्तिपरक पहलुओं को एकान्तिक ध्रुवीयताओं के सापेक्ष नहीं समझा जा सकता बल्कि उन्हें उपभोक्ता-संस्कृति के बनाए हुए संतुलन के आयामों में ही परखा जा सकता है। कुछ हद तक उन्हें एक संघर्षरत विकल्प के तौर पर स्वीकारा जा सकता है जिसे उपभोक्ता-संस्कृति एक साथ एक जगह लेकर आती है।
इसलिए यह कहना तर्कसंगत होगा कि एक ओर चौकस, धूर्त, सुखवादी शैलीगत प्रभावों का असीमित हिसाब तथा भावोद्रेकी अर्थशास्त्र है तो दूसरी ओर एक सौंदर्यबोधी  उकसावे के ज़रिये यांत्रिकी अथवा प्रयोजनमूलक बौद्धिक आयामों का स्नायविक विस्तार है। इसके बदले परम्परा अथवा आदत के ज़रिये बेपरवाही से एक जीवन-शैली को अंगीकृत करते हुए, उपभोक्ता-संस्कृति के नये नायक, जीवन-शैली को जीवन का ही एक प्रकल्प बना डालते हैं। सामानों, कपड़ों, अभिक्रियाओं, अनुभवों, प्रतीतियों तथा शारीरिक विन्यासों के जमघट के ब्यौरों में शिल्प का बोध और अपनी वैयक्तिकता का प्रदर्शन भी किया जाता है। ये सारे व्यापारिक सौन्दर्याभिरुचियों के अराजक तरल ब्यौरे मिलकर ही जीवन-शैली का निर्माण करते हैं।
एक आधुनिक व्यक्ति को उपभोक्ता-संस्कृति के अंतर्गत इस बात के लिए सजग किया जाता है कि वह मात्र अपने परिधानों के ज़रिये ही नहीं अपने घर, साजो-सामान, घरेलू सज्जा, गाड़ी और अन्य कार्यकलापों के द्वारा भी बात करता है जिन्हें कि आस्वाद की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति के सन्दर्भ में पढ़ा एवं श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। जीवन-शैली को रुचि के अनुसार ढालने की चिंता एवं शैलीगत आत्मलीनता का भाव मात्र युवाओं या दौलतमंदों में ही नहीं पाया जाता। उपभोक्ता-संस्कृति का प्रचार-तंत्र अनुमोदित करता है कि किसी भी आयु-वर्ग तथा वर्ग-बोध के लिए हमारे पास सभी के आत्म-विकास और आत्म-प्रकाशन के लिए मौ$का और अवकाश है। यह ऐसी स्त्रियों और पुरुषों की दुनिया है जो संबंधों और अनुभवों में नित नई तात्कालिकता की खोज में हैं, जो रोमांच की भावना से भरे हैं और जीवन के सभी विकल्पों को उसकी समग्रता में खोजने का जोखिम उठाने का साहस रखते हैं। जो इस बात को लेकर सजग है कि उनके पास जीने के लिए एक ही जीवन है और उन्हें इसका मज़ा उठाने, महसूस करने और अभिव्यक्त करने के लिए खूब मेहनत करनी है।
अबूझ अनुसरणवादी जन-सांस्कृतिक नज़रिए के ख़िलाफ़, जिसमें 'व्यक्तियों' द्वारा सामान का इस्तेमाल उस 'उद्देश्य' की पूर्ति के लिए होता था जिसका स्वप्न, प्रचार-तंत्र उन्हें दिया करता था, अब यह बात अधिक मुखरता से सामने आने लगी है कि उपभोक्ता सामानों का इस्तेमाल और प्रचार-तंत्र के मर्म को डीकोड करना जटिल एवं समस्याग्रस्त तत्व हो गया है। उदाहरण के तौर पर रेमंड विलियम्स का कहना है कि गृहस्थी, परिधान और विलासिता में वर्गीय-वर्णसंकरता की तकनीक, वर्ग-संरचना को समझने में ज़रा भी महत्वपूर्ण नहीं है। हालांकि, वर्ग, जीवन के विभिन्न नज़रियों के साथ ही पनपते हैं और उनके सामाजिक संबंधों की प्रकृति भी भिन्न होती है जो कि एक खास तरह का साँचा तैयार करती है जिसके भीतर उपभोग जन्म लेता है। इसे भी ध्यान में रखा जाना चाहिए 'समरूपताएं' उत्तरोत्तर पतित होती जाती हैं - (1) तकनीकी क्षमता में बदलाव के साथ जोकि महत्तर उत्पाद चुनाव और विभिन्नता पैदा करता है और जो उत्पादन-दौड़ के लिए ज़रूरी भी है। (2) बाजारी विखंडन के बढ़ते रूप के साथ।
बड़े प्रभावशाली तरह से व्यक्ति अधिक मात्रा में विभिन्न तरह के उत्पादों का उपभोग करता है। यह स्थिति, जैसा कि लेस ने अवगत कराया विज्ञापन में अधिक असंगठित संदिग्ध जीवन-शैली के दृश्य-प्रभावों के साथ संयोजित की जाती है और भिन्न-भिन्न किस्म के संदेशों और पाठ की ओर प्रेरित करती है (जिसमें कि उत्तरोत्तर आधुनिकतावादी तथा उत्तर-आधुनिकतावादी प्रबंधनों का इस्तेमाल होता है - जिसमें उत्पाद की बिक्री के लिए प्रस्तुतिकरण रणनीतियों का इस्तेमाल बहलाने-फुसलाने से लेकर एक ही वक्त में शिक्षित करने तक किया जाता है)। फलस्वरूप उपभोक्ता-संस्कृति, प्रत्यक्ष तौर पर जैसा कि वह वादा करती है, एक ही व$क्त पर वैयक्तिकता और असमानता (विभिन्नता) को उपलब्ध कराने में सक्षम हो जाती है। अलगाने और असमानता क्रीड़ा-बोध को उत्साहित करने की उपभोक्ता-संस्कृति की प्रवृत्ति उस निगरानी की प्रक्रिया के साथ अनुकूलित और स्वीकारणीय बनाई जाती है कि असमानता तो सामाजिक रूप से स्वीकृत और वैध तत्व है - पूर्ण 'अन्य' भाव, पूर्ण वैयक्तिकता की तरह खतरे में पड़ जाएगा अगर उनकी मान्यता और सम्मान की रक्षा नहीं की जाएगी।
बॉद्रिया का निरीक्षण कि फैशन, अनुकरण और असमानता की पारस्परिक अंतर्विरोधी प्रवृत्ति को मूर्त रूप देता है और फैशन की गतिकी यही है कि इसकी लोकप्रियता और प्रसार ही इसे इसके विनाश की ओर ले जाती है, यह बताता है कि बहुत करीब से सामाजिक प्रक्रिया के निरीक्षण की आवश्यकता है। यह प्रक्रिया उपभोक्ता सामानों और जीवन-शैली में आस्वाद को निर्मित करती है। शिल्प और वैयक्तिकता से जुड़ा मुद्दा अपने आप में किसी निश्चित वर्ग-खंड के झुकाव को अधिक प्रदर्शित करता है जो 'सामाजिक' के आस्वादों के रूप में आस्वादों के अपने निश्चित समूहों के परम्परा-सम्मत दृष्टिकोणों के साथ सम्बंधित रहता है बजाय वास्तविक सामाजिक के। यह करने के लिए हमें जीवन-शैली और उपभोक्ता सामानों में विभेदपरक आस्वादों के उत्पादन पर दबाव डालना होता है और सामान्यीकरण के उच्च स्तर से नीचे उतरना पड़ता है।
इस तरह से सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया, पूंजीवाद के तर्क पर जोर डालती है जिसे कि जीवन-शैली को ताकत और तीव्रता के साथ आगे धक्का देने के लिए काम में लाया जाता है। एक निर्मित सामाजिक परिक्षेत्र के अंतर्गत ही जीवन-शैली के आस्वादों के उत्पादन को, संयोग और तत्काल के बीच में लोकेट किया जाता है, जिसमें विभिन्न समूह, वर्ग, वर्ग-खंड अपने तयशुदा आस्वादों और वैधानिक आस्वाद के रूप में मान्यता दिलाने के लिए संघर्षरत रहते हैं और होड़ लगाते रहते हैं। इसके ज़रिये विषय और वस्तु का वर्गीकरण किया जाता है, व्यवस्थित, अव्यवस्थित और पुनव्र्यवस्थित किया जाता है। यहीं से उत्तर-आधुनिकतावाद के सांस्कृतिक माल और जीवन-शैली के अर्थशास्त्र के परीक्षण वाले दृष्टिकोण की ओर बढ़ा जा सकता है। हम निश्चित आदतों और अभ्यासों की स्वायत्तता को स्वीकारने के लिए पियेर बॉर्दो के नज़रिए को ध्यान में लाते हैं जिसे, अंदरूनी गतिकी, निर्माणात्मक सिद्धांतों और प्रक्रियाओं के सापेक्ष जो एक प्रदत्त, निश्चित क्षेत्र में काम करते हैं, समझे जाने की ज़रूरत है और जो अर्थव्यवस्था के हितों के प्रति निष्ठावान हैं।
अतएव हम देखते हैं कि बाज़ार प्रतियोगिताओं की कुछ प्रणालियाँ हैं; उत्पादन और उपभोग के पारस्परिक और विरोधी तनाव हैं, एकाधिकार के लिए बाज़ार संवर्गों तथा समूहों की भिन्न प्रवृत्तियाँ हैं जो सभी सामाजिक प्रणालियों और परम्पराओं के भीतर विशिष्ट तरह के काम करती हैं - विषयों-अनुशासनों के भीतर, असंगठित तथा छितराए रूप में, विज्ञान, कला, खेल, प्रौढ़ता, भाषिक विनिमय, फोटोग्राफी, शिक्षा, विवाह, धर्म के रूप में। साथ ही हर सामाजिक कार्यक्षेत्र एवं तंत्र की तरह महसूस किया जाता है जिसमें सभी निश्चित तत्व (समूह, बिचौलिए और रिवाज़) अपनी विशिष्ट मूल्यवत्ता को उपलब्ध होते हैं। बॉर्दो हालांकि संरचनावादी नहीं हैं और अनुशासन तथा परिक्षेत्र के इतिहास को विश्लेषित करने की आवश्यकता के प्रति पर्याप्त सजग रहे हैं और उस प्रक्रिया का परीक्षण करते हैं जो अधिक समय तक किसी विषय के अंतर्गत मौजूद सुनिश्चित तत्वों के परिमाण और सापेक्षिक मुद्राओं को बदलती है और जो तयशुदा जड़-संरचना और इसके अंदरूनी व्यक्तिगत तत्वों के अर्थ को भी उत्पन्न करती है। मत को अधिक ठोस और जीवन-शैली के विश्लेषण को प्रस्तावित करने के लिए हमें उत्तर-वैश्विक उपभोग अवस्थाओं की भी पड़ताल करनी होगी जिसमें सांस्कृतिक असबाबों में आस्वाद, वर्ग के निर्धारक तत्व के रूप में सामने आता है।
उत्तर-आधुनिक व्यापारिक-राजनीति, परम्परा-सम्मत उच्च सांस्कृतिक अभ्यासों (पुरातात्विक दिलचस्पियों, संगीत कंसर्ट) में विभिन्न आस्वादों के सामाजिक परिक्षेत्र का खाका खींचती है और साथ ही जीवन-शैली तथा उपभोग प्राथमिकताओं (आहार, शराब, परिधान, कार, उपन्यास, अखबार, पत्रिकाएं, अवकाश, रुचियां, खेल, विलासिता की सामग्रियां) में आस्वाद का खाका भी। उच्च अर्थों में संस्कृति और मानवशास्त्रीय नज़रिए में संस्कृति, दोनों इसलिए समान सामाजिक स्पेस में चिन्हित होने लगती हैं। जब जीवन-शैली का स्पेस अलग-अलग परतों में वर्ग/व्यावसायिक संरचना पर थोप दिया जाता है तब आस्वाद की विपरीतताएं तथा साम्बंधिक निर्धारण अधिक स्पष्ट होते हैं जिसका बुनियादी संरचनात्मक सिद्धांत, समूह-स्वामित्व की पूंजी का प्रसार और आर्थिक तथा सांस्कृतिक संघटन के ज़रिये सामने आता है। परिणामवादी अंतर्संबंधों को दिखलाने के लिए इन संयोजनों को तीन कोटियों में बांटा जा सकता है - पहली, वे जो आर्थिक पूंजी का उच्च जखीरा रखते हैं (उद्योगपति, व्यापारिक कर्मचारी) ये व्यापारिक भोज, मंहगे वाहन, नीलामियों, उप-नगरीय आवासों, साहसिक-रोमांच से भरे खेलों और सत्ता-प्रतिष्ठानों (राइट बैंक गैलरीज़ 2) का शौक रखते हैं; दूसरे वे जो सांस्कृतिक पूंजी की बेशकीमती संपदा रखते हैं (उच्च शिक्षित अध्यापक, कलावादी निर्माता-निर्देशक, साहित्यकार, लेखक) वे कलाधर्मी (लेफ्ट बैंक गैलरीज़), आवां-गार्द 3 उत्सवधर्मिता, प्रगतिशील कला-पत्रिकाओं जैसे les tempes modernes (आधुनिक समय),4 में रुचि रखते हैं और तीसरे वे जो आर्थिक और सांस्कृतिक दोनों पूंजियों में निम्नतर हैं (अर्ध-प्रशिक्षित, प्रशिक्षित, अप्रशिक्षित) वे सामान्य श्रमसाध्य खेलों, रोजमर्रा के खान-पान, शराब, खेल देखने और सार्वजनिक नृत्यों की पसंद रखते हैं। इस तरह के उदाहरणों को चुनना कई बार सामाजिक परिक्षेत्र की जटिलता को और अधिक हिंसापरक दृष्टि से विभाजित करने लगता है जिसमें बिचौलिया भूमिकाएं विशिष्ट समूहों के आस्वाद चुनावों के सापेक्ष, समूचे सामाजिक अभियान को उत्पादित करती सी दिखने लगती हैं। ये भूमिकाएं एक स्थिर, गतिहीन वृत्तांत मुहैया कराती हैं जो किसी विषय-अनुशासन की साम्बंधिक गतिकी पर नकाब चढ़ाने जैसा काम है जिसमें नए अस्वादों का आविष्कार और उनकी ऊंची कीमत तय की जाती है। तो जब निम्न समूह, उच्चतर समूहों के आस्वाद का अनुसरण करता है या उसे नियंत्रित कर लेता है तो उच्चतर समूह इसका जवाब नए तरीकों के आस्वाद को स्वीकार करके देता है ताकि मौलिक अंतराल और विभेद बराबर बना रहे।
प्रभुतावादी समूह इसीलिए ऐसे असबाबों पर कब्जा करना चाहते हैं जिसे उत्तर-आधुनिक बाज़ार-दर्शन 'पोजीशनल गुड्स' (रणनीतिक असबाब) कहता है- जो आपूर्ति की कृत्रिम तंगी के द्वारा बेशकीमती बना दिए जाते हैं। उपभोक्ता संस्कृति की गतिकी, महंगाई को दुष्प्राप्यता और वर्गीय हीन-भावना के तौर पर सामने लाती है। प्रतिबंधित माल को विस्तृत और व्यापक जन-समुदाय में प्रचारित किया जाता है और बाज़ार उसे सामाजिक वर्गीय असमानताओं को भुनाने वाली उछल-कूद में बदल देता है जिससे कि एक प्रत्यक्ष विभेद बना रहे। ध्यान रहे कि संतुष्टि, समाज-सम्मत और परम्परा-सम्मत सांस्कृतिक असबाबों के नियंत्रण और उपभोग पर निर्भर होती है। सांस्कृतिक और साथ ही आर्थिक  पूंजी के नियंत्रण के नज़रिए से जीवन-शैली तथा सांस्कृतिक असबाब की उत्पत्ति के बारे में बात करना इसीलिए महत्वपूर्ण है।
आय के सापेक्ष आस्वाद का खाका तैयार करने का प्रयास कार्य-प्रणाली में दोहरे सिद्धांत की स्थापना है क्योंकि सांस्कृतिक पूंजी की अपनी एक मूल्य-संरचना होती है जो सामाजिक शक्ति में परिवर्तनशील होती है और आय तथा धन से मुक्त होती है। सांस्कृतिक परिसीमन का इसीलिए अपना एक तर्क होता है और पूंजी भी, जो कि परिवर्तनशीलता के मामले में आर्थिक पूंजी की तरह ही व्यवहार करती है। सांस्कृतिक पूंजी के उच्च फैलाव के नियंताओं के लिए (बौद्धिक और अकादमिक) प्रतिष्ठा, वैधता, खरापन, सापेक्षिक अभावग्रस्तता, और इसीलिए सांस्कृतिक पूंजी की सामाजिक मूल्यवत्ता, सांस्कृतिक असबाबों में बाज़ार के निषेध पर निर्भर करती है और सांस्कृतिक पूंजी के आर्थिक पूंजी में तब्दील होने की प्रासंगिकता और आवश्यकता पर भी। तथ्य की यह स्वीकृति कि कोई विनिमय मूल्य है जिससे कि बेशकीमती सांस्कृतिक असबाबों का भुगतान धन के रूप में किया जाता है, यह बात इशारा है 'उच्च' पवित्र सांस्कृतिक परिवृत्त के संरक्षण की ओर जिसमें कलाकार और बुद्धिजीवी अपने मौलिक हुनर को सामने लाने के लिए संघर्षरत रहते हैं, यह उस सम्मान की ओर भी इशारा करता है जो कि सांकेतिक उत्पादन के रू-ब-रू आर्थिक उत्पादन को खड़ा करता है और बौद्धिक सांस्कृतिक सीमा के अंतर्गत वैध आस्वाद को परिभाषित करने में एकाधिकार स्थापित करने की क्षमता से भरता जाता है और साथ ही क्या आस्वादपरक है और क्या नहीं इसको अलगाने, परीक्षित करने और श्रेणीगत रूप से क्रमबद्ध करने के काबिल बन जाता है।
बुद्धिजीवी, इसीलिए विभेद बनाए रखने के लिए सांकेतिक व्यवस्था के तर्क का इस्तेमाल करते हैं जो वर्ग और वर्ग खंड के बीच मौजूदा संबंधों के पुनरुत्पादन में सहायक होता है। इसमें वे बुर्जुआ के साथ अपने हितों को साझा करते हैं। भौतिक वर्ग संबंधों की मौजूदा स्थिति को बनाए रखने के लिए आर्थिक पूंजीगत ऊंची बोली और ऊंचे विनिमय के तौर का आनंद उठाते हैं और उसे सांस्कृतिक पूंजी में परिवर्तित करने के लिए प्रयासरत रहते हैं। वे इसलिए हमेशा सांस्कृतिक अनुशासन की स्वायत्तता को बढ़ाने का प्रयास करते हैं और संस्कृति के लोकतंंत्रीकरण की ओर बढ़ते $कदमों के बीच गतिरोध पैदा कर, कार्य-प्रणाली के द्वारा सांस्कृतिक पूंजी की भयोत्पादकता को बढ़ाते रहते हैं। बुद्धिजीवी, सांकेतिक उत्पादन में विशेषज्ञ के रूप में अनुशासनों तक पहुँच बनाने में एकाधिकार चाहते हैं। वे ऐसी परिस्थिति के अंतर्गत काम करते हैं जिसमें महंगाई और अस्थिरता एक नियम या मत की तरह उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है और वे कलावादी आधुनिकता का आभ्यंतरीकरण करके आवां-गार्द गतिकी से मान्यता प्राप्त सांस्कृतिक असबाबों की नई खेप तैयार करते हैं जबकि उपभोक्ता बाज़ार की बाहरी गतिकी में दुर्लभ कलापरक माल के लिए लोकप्रिय मांग लगातार पैदा कराई जाती रहती है। यह दूसरे किस्म की गतिकी, सांकेतिक उत्पादन के प्रसारण और नव लघु बुर्जुआ के आपसी संबंधों को परीक्षित करने में बड़े काम की साबित होती है। साथ ही बुद्धिजीवी और अन्य वर्ग-खण्डों के बीच के सम्बन्ध को उठाने में भी काम आती है तथा जीवन शैली और जीवन-प्रतिरूपों के शिल्पीकरण के लिए मांग को उत्प्रेरित करने वाले नव-लघु बुर्जुआ के बारे में जानकारी देती है।
उत्तर-विमर्श, नव लघु बुर्जुआ और सांस्कृतिक मध्यस्थों को विश्लेषित करते हैं जो सांकेतिक असबाबों और सेवाओं को मुहैया कराते हैं। यह सामाजिक रिक्तता और वर्गीय असमंजस का दोहन करने वाला वर्ग है उन समूहों के विपरीत (किसान और मजदूर) जो श्रम-विभाजन में होने वाले बदलावों के ज़रिये गणना में कम होते जा रहे हैं और इसीलिए विश्व के निराशावादी तथा अवसादी दृष्टिकोण की ओर मुड़ते हैं। इसी अनुपात में नव-लघु बुर्जुआ गणना में बढ़ते हैं। यहीं से दुनिया की तथाकथित विकासवादी अवधारणा का जन्म होता है।
उत्तर-आधुनिक, लघु बुर्जुआ को एक ''सर्वहारा जो स्वयं को बुर्जुआ बना लेने के लिए छोटा बना लेता है'' कहता है। औसतन वे सांस्कृतिक और आर्थिक पूंजी में निवेश करते हैं। नव लघु बुर्जुआ, परम्परागत लघु बुर्जुआ से बिलकुल विलग है और कामगार वर्ग से बड़े कुलीनतावादी भोलेभालेपन के साथ अपने उच्चाटन को अभिव्यक्तिपूर्ण और उदारवादी जीवन-शैली को प्राप्त करने के लिए रेखांकित करता चलता है। ऐसे में नव-लघु बुर्जुआ के विन्यास को समझने के लिए ऐन्द्रिक-संरचना (Habitus) की अवधारणा; प्रवृत्ति, विन्यास के समुच्चय की रुपरेखा तैयार करने के लिए उपयोगी है। जो आस्वाद को सुनिश्चित करती है और स्तर को चरित्रबद्ध करती है।
ऐन्द्रिक-संरचना के द्वारा, अवचेतन विन्यासों, वर्गीकरणवादी रणनीतियों और स्वायत्तशासी दलीलों से भरी प्राथमिकताओं की ओर इशारा किया जाता है। यह वैयक्तिक स्तर पर संगति के बोध और सांस्कृतिक असबाबों और अभ्यासों के लिए ऐन्द्रिक-संरचना के आस्वाद की मान्यताओं में - कला, आहार, अवकाश और रुचियों की और इशारा करती है। यह बात कहनी ज़रूरी है कि ऐन्द्रिक-संरचना, दैनिक ज्ञान-योग्यताओं के स्तर पर ही क्रियाशील नहीं होती बल्कि किसी भी व्यक्ति द्वारा दावेदारी का ह$क जताने वाली हर चीज़ पर अंकित होती है - देह, गढऩ, सामाजिक अवकाश और समय की मात्रा, देह के प्रति ग्राह्यता का दर्ज़ा स्वरमान, वक्तृत्व पहुलओं की जटिलता, देह-भंगिमा, मुख हाव-भाव, शारीरिक सहजता- ये सब किसी भी वर्ग की बुनियादी ऐन्द्रिक-संरचना में हेर-फेर पैदा कर सकते हैं। संक्षेप में कहें तो देह, वर्ग-आस्वाद का भौतिकीकरण है। आस्वाद में वर्गीयता सन्निहित होती है। प्रत्येक समूह, वर्ग, और वर्ग-खंड सबका अलग-अलग हैबिटस है लिहाजा अलगाव के समुच्चय, विभेद का स्त्रोत और आस्वाद का आत्म इन सबका खाका जिस सामाजिक अनुशासन पर खींचा जा सकता है वही जीवन-शैली या वर्ग का व्यावसायिक पूंजी स्पेस कहलाता है।
अब यदि हम नव लघु बुर्जुआ की ओर मुड़ते हैं तो यह स्पष्ट है कि जहां बुर्जुआ अपने शरीर को लेकर सहजता और विश्वास के बोध से भरा होता है वहीं लघु बुर्जुआ अपनी देह को लेकर असहज होता है। लगातार शर्म और संकोच से खुद को देखता है, परखता है और सुधार करता रहता है। यहीं से शरीर-प्रबंधन तकनीकों का आकर्षण पैदा कराया जाता है। तमाम तरह के व्यायाम, प्रसाधनों और स्वास्थ्यवर्धक आहार के ज़रिये। क्योंकि ऐसे में शरीर दूसरों के लिए एक नियतांक प्रतीक की तरह काम करता है, माध्यम के बतौर नहीं। नव लघु बुर्जुआ, दिखावटी बहानेबाज़ होता है जो वह है
उससे अतिरिक्त चाहता है। वह जीवन के लिए एक निवेशपरक अनुकूलन मांगता है। उसके पास थोड़ी मात्रा में आर्थिक और सांस्कृतिक पूंजी होती है और अधिक से अधिक वह लगातार कोशिश करता है। नव लघु बुर्जुआ इसीलिए जीवन को एक निरंतर शैक्षणिक स्तर पर ढालने वाली प्रक्रिया के बतौर देखता है। वह बड़ी सतर्कता से स्वयं को आस्वाद, शैली, जीवन-शैली के क्षेत्र में शिक्षित करता रहता है।
जीवन के प्रति यह भाव और उसका चारित्रीकरण कि मेरे पास वह सुख क्यों नहीं जिसके मैं मज़े ले सकता हूं, उसको दोनों ओर (सुरक्षा और रोमांच) ढकेलता है। नव आत्मरति वहीं है जहां व्यक्ति तमाम तरह की सनसनियों को अपने चरम रूप में भोगना और महसूस करना चाहता है। यह अभिव्यक्ति और आत्म-प्रदर्शन की खोज है। अस्तित्व के साथ काल्पनिकता, प्रस्तुतिकरण और आभासी मौजूदगी, नव लघु बुर्जुआ को एक 'प्राकृतिक नैसर्गिक' उपभोक्ता बनाती है। यही कारण है कि वे निष्णात श्रोता और बेहतरीन प्रेषक हैं। बौद्धिक लोक-प्रचार के नए बिलौचिए हैं। जो न मात्र ज्ञान की शाखाओं को लोक-प्रचार लायक बनाते हैं बल्कि बौद्धिक जीवन शैली को भी एक वर्चस्वशाली प्रक्रिया में रूपांतरित करने की कोशिश करते हैं।
स्रोत:
*     Distinction : A Social Critique Of Judgement of Taste, Pierre Bourdieu, Harvard University Press
*     Undoing Culture : Globalization, Postmodernism And Identities, Mike Featherstone, SAGE Publications
*     Postmodernism and the politics of culture, Adam Katz, Westview Press
*     The Condition of Postmodernity, David Harvey, Blacwell

 




1.  petite bourgeoisie- माक्र्स ने इसे 'संक्रमणकालीन वर्ग' कहा है, हितों और सामाजिक अवस्थाओं के मामले में यह पूंजीवादी वर्ग और सर्वहारा के बीच की स्थिति है। परिवारगत श्रम-संरचना, क्षेत्रीय और स्थानीय व्यवसायी, स्व-रोजगारी दस्तकार, सरकारी सेवा-क्षेत्रों का अधिकारी और बाबूवर्ग इसमें शामिल हैं। यह एक आत्म-भ्रमित, दुविधाग्रस्त और उदासीन वर्ग माना गया है।

2 पैरिस को सभ्यतामूलक आस्वाद में बांटने वाला एक सांस्कृतिक दायरा। जहां दांया किनारा सत्ता और व्यवसाय का केंद्र माना जाता है वही बांया किनारा छात्रों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों और लेखकों का।

3 कला, संस्कृति और समाज को देखने-समझने का प्रयोगशील, विचारोत्तेजक और परम्परा-विरोधी बुद्धिजीवियों का आन्दोलन
4 अक्टूबर 1945 में निकली फ्रांसीसी साहित्यिक पत्रिका जो सात्र्र की पत्रिका के नाम से जानी जाती है और जिसने तत्कालीन विश्वयुद्धोत्तर काल के समाज, विचार, मनुष्य, ज्ञान-मीमांसा और बोध को नए सांस्कृतिक तर्क के साथ देखने की शुरुआत की।


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