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अप्रैल 2017

कुछ पंक्तियां

ज्ञानरंजन


पहल को अच्छी कहानियां काफी उधेड़बुन और बड़ी वापसियों के बाद मिलती हैं। साहित्य में पत्रिकारी सृजन हमारे समकालीनों पर भारी पड़ रहा है। इंटरनेट पर मुग्ध-मुग्धाएं तेजी से बढ़ रहे हैं। हिन्दी का रकबा सुदूर हिमालय तक और अहिन्दी भाषी राज्यों तक फैल गया है। यहाँ तक कि देशान्तरों तक।
दूसरी तरफ  साहित्य विधाओं की प्रकृति भी बदल रही है। जीवित भाषाओं में यह बेचैनी होती है, उन्हें जल्दी नींद नहीं आती। भाषा में नये, मेधावी और संकोची रचननाकारों का भी प्रवेश हो रहा है, उनकी तरफ  ध्यान देना, उनको खोज लेना, पा लेना, उन्हें संवार लेना भी एक संपादकीय कौशल का हिस्सा है  जो हमें करना होता है। हमें मूलत: साहित्य की $खुुशबू को बचाना है जो नई सृष्टि में कम या नकली हो गई है।
जानकी रमण पाण्डे जैसी गलीचा कहानी (जिसकी बुनावट में महान मनुष्य का बड़ा चित्र है) जिसकी लेखिका ज़ाकिया सुलताना मशहदी हैं। इसकी क्रम में हिन्दी की एक सुदूर पट्टी हिमांचल के कुल्लू इलाके की एक लगभग नामालूम कहानी लेखिका ईशिता आर. गिरीश की लंबी कहानी ''हाऽऽय डूड'' इसी अंक में छपी है। हमने उनकी प्रतीक्षा की, उन्होंने हमारी प्रतीक्षा की। यह एक धीमा और उत्साहपूर्ण साहित्यिक रिश्ता है जो लेखक-संपादक के बीच पैदा हो तो अच्छी बात है। इससे साहित्य का पर्यावरण भी तैयार होता है। बाज़ारूपन से, इस प्रकार यह हमारी जारी लड़ाई है।
तो ईशिता आर. गिरीश की कहानी 'हाऽऽय डूड' एक ऐसी कहानी है जो टीन एजर्स, नये बच्चे, युवा माँ, एक स्कूल कैम्पस और छोटे शहर के बीच लिखी गई है। इसमें वास्तव में नवोदय है, वैचारिकी है, कलियाँ हैं  जो नये कोण से प्रस्फुटित हो रही हैं। ठप्पेदार और रिपीट जिंदगियों को देखते-देखते हम इतना ऊब गये हैं कि इस कहानी का तरोताज़ापन और उन्मेश हमें सराबोर कर देता है।
इस प्रकार यह कहानी हमें गहरा उजाला देती है। पर्यावरण बुनती है और किस्से की प्रवृत्ति के बावजूद इसमें कहानी की शुद्धता और गंध पूरी की पूरी है। इस कहानी में आरोपित कुछ भी नहीं है, सिवाय एक बीज के जो अंकुरित हो रहा है।
तीसरी कहानी जिसका अंतिम जिक्र हम यहाँ कर रहे हैं वह एक अंधेरे पददलित आदिवासी भौगोलिक इलाके की दास्तान है। पर वह दास्तान गयी बीती नहीं है क्योंकि यहाँ आदिवासी नया पाठ्यक्रम, लोक भाषा पढऩे की उत्तेजना के साथ भले अकेला हो पर वह सार्थक हस्तक्षेप कर रहा है।
साथियों, असंख्य निराशाओं, विकास की अधमरी शब्दावलियों के बीच दिनेश भट्ट  ''सीलू मवाली का सपना'' में स्वप्न भंग होने के लिए तैयार नहीं हैं। एक सच्चा जीवित प्रतिरोध है जो गैर राजनीतिक लगता है, पर है नहीं। यह कहानी भले ही वन प्रांतरों में लिखी गई हो लेकिन यह ऐसी उम्मीदों से भरी कोशिश है जो बाहर से नहीं हो रही है और जिसकी प्रतिलिपि जल्दी चिथड़ा नहीं होगी।
पाठकों, हमें हमारी दिशा के लिए सहयोग करें।
आप सबसे एक सुखद समाचार और साझा करना ज़रूरी है। पाकिस्तान के हमारे साथी अजमल कमाल इस अंक से पहल के साथ बाकायदा जुड़ रहे हैं। अजमल अपनी तरह का एक अनोखा प्रगतिशील लेखक-संपादक है। अब तक वह हमारे दो मुल्कों के बीच एक सेतु का काम करते रहे हैं। जहां कराची से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका 'आज' के ज़रिए हिंदी लेखकों का पाकिस्तान के पाठकों से लगातार परिचय करवाते रहे हैं, तो दूसरी तरफ 'पहल' के लिए वक्तन-फ-वक्तन उर्दू-फारसी कहानियां भी लाते रहे हैं।
अजमल की आमद से 'पहल' में आगे के अंकों में और भी नए रंग दिखाई देंगे। इसी दिशा में मंथन लगातार जारी है। नतीजे अगले दिनों में दिखाई भी देंगे।


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